पुष्पा की सारी दलीलें 1-1 कर के व्यर्थ हो गई थीं. सुरेशजी अडिग थे कि उन्हें तो आश्रम जाना ही है, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए.

‘‘अगर ऐसा ही है और तुम्हारा जाने का मन नहीं है तो मैं अकेला ही चला जाऊंगा,” अपना अंतिम हथियार फेंकते हुए उन्होंने कह ही दिया था.

पुष्पा फिर चुप रह गई. पति का स्वास्थ ठीक रहता नहीं है फिर अब उम्र भी ऐसी नहीं ही कि अकेले यात्रा कर सकें, तो फिर उन्हें अकेला कैसे भेज दें, वहां कुछ हो गया तो कौन संभालेगा इन्हें? आखिरकार, जब कुछ कहते नहीं बना तो उस ने साथ जाने की हामी भर ही दी थी.

‘‘ठीक है, अब तैयारी करो। मैं तो अपना सामान पहले ही जमा चुका हूं,’’ सुरेशजी ने फिर बात खत्म कर दी थी.

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पुष्पा की सारी दलीलें 1-1 कर के व्यर्थ हो गई थीं. सुरेशजी अडिग थे कि उन्हें तो आश्रम जाना ही है, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए.

‘‘अगर ऐसा ही है और तुम्हारा जाने का मन नहीं है तो मैं अकेला ही चला जाऊंगा,” अपना अंतिम हथियार फेंकते हुए उन्होंने कह ही दिया था.

पुष्पा फिर चुप रह गई. पति का स्वास्थ ठीक रहता नहीं है फिर अब उम्र भी ऐसी नहीं ही कि अकेले यात्रा कर सकें, तो फिर उन्हें अकेला कैसे भेज दें, वहां कुछ हो गया तो कौन संभालेगा इन्हें? आखिरकार, जब कुछ कहते नहीं बना तो उस ने साथ जाने की हामी भर ही दी थी.

‘‘ठीक है, अब तैयारी करो। मैं तो अपना सामान पहले ही जमा चुका हूं,’’ सुरेशजी ने फिर बात खत्म कर दी थी.

 

ऐसा नहीं था कि पुष्पा पहली बार ही आश्रम में जा रही थी. वहां तो वे लोग पिछले कई सालों से जा रहे थे, पर इस बार सुरेशजी ने तय किया कि अब वहीं रहना है. आश्रम की आजन्म सदस्यता लेंगे वे और इस बात को कई बार कह भी चुके थे.

‘‘देखो, हम लोगों का गृहस्थाश्रम का समय अब पूरा हो गया. भगवान की कृपा से सारी जिम्मेदारियां भी पूरी हो गईं। बेटे अपने सैट हो गए, शादीब्याह कर दी, बेटी भी ब्याह दी, अब हमें…’’सुरेशजी वाक्य पूरा करते पर बेटी शब्द के बाद उन्होंने क्या कहा, पुष्पा के कान मानों सुन्न हो कर रह जाते, एक ही शब्द दिलोदिमाग तक ठकठक करता रहता…

बेटी…बेटी… हां, बेटी ही तो है नंदिता। नंदी… जिसे अब सब लोग नंदी के ही नाम से पुकारते हैं और बेटी का करुण, दयनीय चेहरा फिर आंखों के सामने घूमने लगता। देर तक वह उसे ओझल नहीं कर पाती। नंदी उन की बेटी, नाजो पली. दोनों बेटों के काफी समय बाद हुई थी तो वह अब तक नन्ही गुड़िया सी ही लगती थी. हां, अभी कम उम्र की ही तो थी, पर यहां भी सुरेशजी की ही जिद थी कि नौकरी से रिटायर्ड होने से पहले बेटी को ब्याह देना है. मुश्किल से तब हाईस्कूल ही तो पास कर पाई थी। पढ़ने में इतनी कुशाग्र, कितना मन था उस का आगे पढ़ने का. पिता के सामने तो उस की बोलती बंद हो जाती थी। बस, मां से ही जिद करती,”मां, बाबूजी से कहो न, मेरे ब्याह की इतनी जल्दी न करें। इतनी जल्दी तो तुम ने भैया लोगों के भी ब्याह नहीं किए. मुझे पढ़ने दो न…’’

कितना कहा था पुष्पा ने तब सुरेशजी से, पर वे उलटे उसी पर बिगड़ पङे थे,”तुम ने ही तो बेटी को सिर पर चढ़ा रखा है। अरे, इतनी बार कह चुका हूं कि नहीं है हैसियत मेरी लड़की को आगे पढ़ाने की और फिर 4 जमातें आगे पढ़ भी गई तो कौन सा तीर मार लेगी. आखिरकार, उसे ब्याह कर ससुराल ही तो जाना है फिर… अभी तो लड़के वालों के यहां से रिश्ते भी आ रहे हैं, फिर कहां मैं सब के दरवाजे हाथ जोड़ता जाऊंगा. आखिर मेरा भी तो कुछ खयाल करो कि गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर 2 घड़ी भगवान का नाम ले सकूं।”

गृहस्थी… जंजाल…बंधन… सुरेशजी के ये शब्द नए नहीं थे पुष्पा के लिए. अब तो खैर नौकरी से मुक्त हो चुके हैं, पर वह तो प्रारंभ से ही ऐसे शब्द उन के मुंह से सुनती आ रही थी और इस आश्रम की सदस्यता लेने का भी उन का निर्णय काफी समय पहले हो चुका था। खैर आननफानन में बिटिया ब्याह दी। वह तो बाद में पता चला था दामाद मयंक की बीमारी का.

‘‘अरे पीलिया ही तो है, कुछ भी कह लो, हेपेटाइसबी सही, पर ऐसी बीमारी कोई गंभीर रोग नहीं है…’’

पता नहीं कोई और गंभीर रोग था या नहीं, पर शादी के 6 महीने बाद ही बेटी विधवा हो गई. नंदी… पुष्पा का कलेजा फिर से मुंह को आने लगता. खबर सुनी थी तो उसी समय उसे गश आ गया था. बदहवास सी फिर बेटी की ससुराल भी गई. सफेद, विधवा और खुले केश में पथराई आंखों से उसे देखती नंदी उस के तो मानों आंसू भी सूख चुके थे. क्या यही उस की गुड़िया थी, नाजों में पली?

‘‘मां…’’

उस के गले से लग कर नंदी का वह चीत्कार भरा स्वर अभी भी दिल दहला जाता है. पता नहीं कैसे रहेगी बिटिया यहां, पर उस की सास ने तो दोटूक निर्णय उसी समय सुना दिया था,”अब यह इस घर की बहू है, जैसे भी हो, रहना तो यहीं है इसे…’’

2 महीने फिर रातदिन गिनगिन कर काटे थे पुष्पा ने. एक बार दबे स्वर में फोन किया था समधिन को,”न हो तो नंदिता को कुछ दिनों के लिए यहां भेद दें, थोड़ा चेंज हो जाएगा…’’ तो फिर समधिनजी फोन पर ही बिगड़ी थीं.

‘‘आप तो एक पारंपरिक परिवार से हैं। सारे रीतिरिवाज जानने वाली. सालभर से पहले तो नंदिता घर से बाहर जा ही नहीं सकती है। आप को पता होना चाहिए, फिर अब यह हमारी जिम्मेदारी है, आप परेशान न हों.’’

नंदी से तो फोन पर ढंग से बात भी नहीं हो पाती थी। मन ही नहीं माना तो पुष्पा ही एक दिन वहां पहुंच गई थी. 2-3 महीने में ही बेटी एकदम भटक गई थी. सफेद साड़ी में लिपटी, दिनभर घर के काम में उलझी। सास, जेठानी सब हुक्म चलाती रहतीं उस पर. बड़ी मुश्किल से दोपहर को थोड़ा सा समय निकाल कर मां से एकांत में मिल पाई थी.

‘‘मां, मुझे घर ले चलो…’’ सिसकियों के बीच इतना ही बोल पाई थी कि तभी टोह लेती हुई छोटी ननद वहां पहुंच गई. लौटते समय पूरे रास्ते आंसू बहते रहे थे पुष्पा के। सुरेशजी से कहा तो और बिगड़े ही थे उसी पर.

‘‘तुम्हें क्या आवश्यकता थी वहां जाने की… हम ने अब कन्यादान कर दिया है, बेटी ब्याह दी है, अब उस का सुखदुख उसी घर से बंधा है, समझी.’’

पुष्पा की आंखें और पथरा गई थीं,’कैसे बाप हैं? वहां बेटी तिलतिल कर मर रही है और इन्हें कोई दुख नहीं. बेटी ब्याह दी तो क्या सारे संबंध ही टूट गए उस से? ठीक है, वे लोग समर्थ हैं, अच्छा कमाखा रहे हैं, दूर भी हैं तो क्या उन की चिंता नहीं है हमें, बेटी भी सुख से रहती तो और बात थी पर यहां तो पहाड़ जैसा दुख टूट पड़ा है उस पर। अब हम उसे सहारा नहीं देंगे तो कौन देगा, फिर इन सब जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर हम आश्रम में कौन से भगवान को खोजने जाएंगे?’

“हां, सुबह 6 बजे की ही ट्रेन है। सोचा तो यही है कि अब लंबे समय तक वही रहा जाए, तैयारियां हो ही चुकी हैं,” सुरेशजी शायद फोन पर किसी से बात कर रहे थे. पुष्पा को याद आया कि तैयारी तो उसे भी करनी है. बेमन से कुछ कपड़े बैग में इकट्ठे किए. सुरेशजी तो अपनी आध्यात्मिक पुस्तकें साथ रखते थे, बस गाड़ी चली तो सामान निकाल लिया. पुष्पा चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी. पहाड़, पेड़, नदी सब के बीच उसे नंदी का करुण चेहरा ही दिखाई दे रहा था. जैसे बेटी चीखचीख कर कह रही हो,’मां, मुझे अपने पास बुला लो। मां कहां दूर भाग रही हो मुझ से, तुम ने तो जन्म दिया है मुझेे… फिर क्यों मेरा दुख तुम्हें छूता नहीं…’ घबरा कर आंखें मूंद ली उस ने.

‘‘इस प्रकार पीठ फेर लेने से जिम्मेदारियां थोड़े ही कम हो जाती हैं बहिनजी…’’ यही तो कहा था नंदी के स्कूल की हैड मिस्ट्रैस ने.

नंदी उन की प्रिय छात्रा रही थी। फिर उसे जल्दी ही ब्याह देने के निर्णय पर भी वे काफी नाराज हुई थीं. और इस दुखभरी घटना की खबर जब उन्हें मिली तो एक बार स्वयं जा कर भी नंदी से मिल आई थीं और तभी पुष्पा के पास आई थीं.

‘‘देखिए पुष्पाजी, आप अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकती हैं। नंदिता एक मेधावी छात्रा रही है। उसे यहां बुलाएं, मैं उस के आगे की पढ़ाई का प्रबंध करूंगी. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिए। आप स्वयं सोचिए कि किस दुर्दशा में जी रही है वह…’’

उस दिन खुल कर पुष्पा ने सुरेशजी से कहा भी था,”आप के दोस्त हैं निर्मलजी, उन की बेटी की ससुराल में नहीं बनी तो यहां बुला लिया है। अब पढ़ालिखा रहे हैं पर हमारी नंदी तो… नीलिमाजी कह रही थी…’’

‘‘नीलिमाजी… नीलिमाजी, आखिर तुम्हें हो क्या गया है? हमारे यहां के रीतिरिवाज सब भूल गईं तुम…दूसरों की बात और है, पर हमारे यहां जब बेटी ससुराल जाती है तो फिर ताउम्र वहीं की होकर रहती है, समझीं तुम… अगर तुम भूल गई हो तो मैं याद दिलाऊं…’’ क्रोध में सुरेशजी की आवाज कांप रही थी. पुष्पा अपने आंसू पी कर रह गई.

इस आश्रम में तो पिछले वर्ष भी आई थी वह… तब सबकुछ कितना सुहावना लगा था. मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने बैठी वह घंटों पूजा करती, पर आज तो देवी की मूर्ति देख कर उसे चिढ़ हो रही थी। वह सोचने लगी थी कि अगर देवी या भगवान होते तो क्या इतना पूजापाठ करने के बाद यही हश्र होता? यह सब एक अंधविश्वास ही तो है। उसे नंदी का करुण चेहरा दिख रहा था.

‘‘मां…’’

नंदी का आंसू भरा कांपता स्वर…
कुछ घबरा कर वह बाहर आ गई थी. आज मन पता नहीं क्याक्या हो रहा था. सुरेशजी तो शायद अपना आजन्म आश्रम की सदस्यता का फौर्म जमा करने गए होंगे. धीरेधीरे चल कर वह उस पिछवाड़े में बने छोटे से बगीचे की पत्थर की बैंच पर बैठ गई थी… आंखें सुदूर में पता नहीं क्या ताक रही थी.

‘‘पुष्पा…’’ तभी पीछे से सुरेशजी का स्वर सुनाई दिया। थकाहारा उदास सा।

‘‘क्या हुआ?”

सुरेशजी तब पास ही बैंच पर आ कर बैठ गए. इतने चुप तो कभी नहीं थे.

‘‘क्या हुआ…’’ पुष्पा ने फिर पूछा था.

‘‘कुछ नहीं, अभी जीजी का फोन आया था, मेरे मोबाइल पर। रामदादा की बेटी शिखा नहीं रही…’’

‘‘शिखा… रामदादा की बेटी…’’ एकदम से चौंक गई थी पुष्पा।

“हां, रात को नींद की गोलियां खा लीं उस ने. शायद आत्महत्या का मामला, जीजी कह रही थी कि हमें फौरन जबलपुर जाना होगा.

‘‘पर…’’

पुष्पा को याद आया कि शिखा अपने किसी सहपाठी से विवाह की इच्छुक थी पर रामदादा का और पूरे परिवार का जबरदस्त विरोध था. शायद…शायद सुरेशजी भी अब यही सोच रहे थे। बहुत देर बाद उन का धीमा स्वर सुनाई दिया पुष्पा को,”अब हम अपनी नंदी को भी अपने पास बुला लेंगे। आगे पढ़ाएंगे ताकि उस का भविष्य बन सके… मैं ने अपने आश्रम की सदस्यता का फौर्म वापस ले लिया है… पूजापाठ में भी भरोसा नहीं रहा। यह सब एक छलावा है…”

अब चकित हो कर पुष्पा सुरेशजी की तरफ देख रही थी. दूर घनी बदली के पीछे शायद आशा की कोई किरण चमक उठी थी.

ऐसा नहीं था कि पुष्पा पहली बार ही आश्रम में जा रही थी. वहां तो वे लोग पिछले कई सालों से जा रहे थे, पर इस बार सुरेशजी ने तय किया कि अब वहीं रहना है. आश्रम की आजन्म सदस्यता लेंगे वे और इस बात को कई बार कह भी चुके थे.

‘‘देखो, हम लोगों का गृहस्थाश्रम का समय अब पूरा हो गया. भगवान की कृपा से सारी जिम्मेदारियां भी पूरी हो गईं। बेटे अपने सैट हो गए, शादीब्याह कर दी, बेटी भी ब्याह दी, अब हमें…’’सुरेशजी वाक्य पूरा करते पर बेटी शब्द के बाद उन्होंने क्या कहा, पुष्पा के कान मानों सुन्न हो कर रह जाते, एक ही शब्द दिलोदिमाग तक ठकठक करता रहता…

बेटी…बेटी… हां, बेटी ही तो है नंदिता। नंदी… जिसे अब सब लोग नंदी के ही नाम से पुकारते हैं और बेटी का करुण, दयनीय चेहरा फिर आंखों के सामने घूमने लगता। देर तक वह उसे ओझल नहीं कर पाती। नंदी उन की बेटी, नाजो पली. दोनों बेटों के काफी समय बाद हुई थी तो वह अब तक नन्ही गुड़िया सी ही लगती थी. हां, अभी कम उम्र की ही तो थी, पर यहां भी सुरेशजी की ही जिद थी कि नौकरी से रिटायर्ड होने से पहले बेटी को ब्याह देना है. मुश्किल से तब हाईस्कूल ही तो पास कर पाई थी। पढ़ने में इतनी कुशाग्र, कितना मन था उस का आगे पढ़ने का. पिता के सामने तो उस की बोलती बंद हो जाती थी। बस, मां से ही जिद करती,”मां, बाबूजी से कहो न, मेरे ब्याह की इतनी जल्दी न करें। इतनी जल्दी तो तुम ने भैया लोगों के भी ब्याह नहीं किए. मुझे पढ़ने दो न…’’

कितना कहा था पुष्पा ने तब सुरेशजी से, पर वे उलटे उसी पर बिगड़ पङे थे,”तुम ने ही तो बेटी को सिर पर चढ़ा रखा है। अरे, इतनी बार कह चुका हूं कि नहीं है हैसियत मेरी लड़की को आगे पढ़ाने की और फिर 4 जमातें आगे पढ़ भी गई तो कौन सा तीर मार लेगी. आखिरकार, उसे ब्याह कर ससुराल ही तो जाना है फिर… अभी तो लड़के वालों के यहां से रिश्ते भी आ रहे हैं, फिर कहां मैं सब के दरवाजे हाथ जोड़ता जाऊंगा. आखिर मेरा भी तो कुछ खयाल करो कि गृहस्थी के जंजाल से मुक्त हो कर 2 घड़ी भगवान का नाम ले सकूं।”

गृहस्थी… जंजाल…बंधन… सुरेशजी के ये शब्द नए नहीं थे पुष्पा के लिए. अब तो खैर नौकरी से मुक्त हो चुके हैं, पर वह तो प्रारंभ से ही ऐसे शब्द उन के मुंह से सुनती आ रही थी और इस आश्रम की सदस्यता लेने का भी उन का निर्णय काफी समय पहले हो चुका था। खैर आननफानन में बिटिया ब्याह दी। वह तो बाद में पता चला था दामाद मयंक की बीमारी का.

‘‘अरे पीलिया ही तो है, कुछ भी कह लो, हेपेटाइसबी सही, पर ऐसी बीमारी कोई गंभीर रोग नहीं है…’’

पता नहीं कोई और गंभीर रोग था या नहीं, पर शादी के 6 महीने बाद ही बेटी विधवा हो गई. नंदी… पुष्पा का कलेजा फिर से मुंह को आने लगता. खबर सुनी थी तो उसी समय उसे गश आ गया था. बदहवास सी फिर बेटी की ससुराल भी गई. सफेद, विधवा और खुले केश में पथराई आंखों से उसे देखती नंदी उस के तो मानों आंसू भी सूख चुके थे. क्या यही उस की गुड़िया थी, नाजों में पली?

‘‘मां…’’

उस के गले से लग कर नंदी का वह चीत्कार भरा स्वर अभी भी दिल दहला जाता है. पता नहीं कैसे रहेगी बिटिया यहां, पर उस की सास ने तो दोटूक निर्णय उसी समय सुना दिया था,”अब यह इस घर की बहू है, जैसे भी हो, रहना तो यहीं है इसे…’’

2 महीने फिर रातदिन गिनगिन कर काटे थे पुष्पा ने. एक बार दबे स्वर में फोन किया था समधिन को,”न हो तो नंदिता को कुछ दिनों के लिए यहां भेद दें, थोड़ा चेंज हो जाएगा…’’ तो फिर समधिनजी फोन पर ही बिगड़ी थीं.

‘‘आप तो एक पारंपरिक परिवार से हैं। सारे रीतिरिवाज जानने वाली. सालभर से पहले तो नंदिता घर से बाहर जा ही नहीं सकती है। आप को पता होना चाहिए, फिर अब यह हमारी जिम्मेदारी है, आप परेशान न हों.’’

नंदी से तो फोन पर ढंग से बात भी नहीं हो पाती थी। मन ही नहीं माना तो पुष्पा ही एक दिन वहां पहुंच गई थी. 2-3 महीने में ही बेटी एकदम भटक गई थी. सफेद साड़ी में लिपटी, दिनभर घर के काम में उलझी। सास, जेठानी सब हुक्म चलाती रहतीं उस पर. बड़ी मुश्किल से दोपहर को थोड़ा सा समय निकाल कर मां से एकांत में मिल पाई थी.

‘‘मां, मुझे घर ले चलो…’’ सिसकियों के बीच इतना ही बोल पाई थी कि तभी टोह लेती हुई छोटी ननद वहां पहुंच गई. लौटते समय पूरे रास्ते आंसू बहते रहे थे पुष्पा के। सुरेशजी से कहा तो और बिगड़े ही थे उसी पर.

‘‘तुम्हें क्या आवश्यकता थी वहां जाने की… हम ने अब कन्यादान कर दिया है, बेटी ब्याह दी है, अब उस का सुखदुख उसी घर से बंधा है, समझी.’’

पुष्पा की आंखें और पथरा गई थीं,’कैसे बाप हैं? वहां बेटी तिलतिल कर मर रही है और इन्हें कोई दुख नहीं. बेटी ब्याह दी तो क्या सारे संबंध ही टूट गए उस से? ठीक है, वे लोग समर्थ हैं, अच्छा कमाखा रहे हैं, दूर भी हैं तो क्या उन की चिंता नहीं है हमें, बेटी भी सुख से रहती तो और बात थी पर यहां तो पहाड़ जैसा दुख टूट पड़ा है उस पर। अब हम उसे सहारा नहीं देंगे तो कौन देगा, फिर इन सब जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ कर हम आश्रम में कौन से भगवान को खोजने जाएंगे?’

“हां, सुबह 6 बजे की ही ट्रेन है। सोचा तो यही है कि अब लंबे समय तक वही रहा जाए, तैयारियां हो ही चुकी हैं,” सुरेशजी शायद फोन पर किसी से बात कर रहे थे. पुष्पा को याद आया कि तैयारी तो उसे भी करनी है. बेमन से कुछ कपड़े बैग में इकट्ठे किए. सुरेशजी तो अपनी आध्यात्मिक पुस्तकें साथ रखते थे, बस गाड़ी चली तो सामान निकाल लिया. पुष्पा चुपचाप खिड़की से बाहर देख रही थी. पहाड़, पेड़, नदी सब के बीच उसे नंदी का करुण चेहरा ही दिखाई दे रहा था. जैसे बेटी चीखचीख कर कह रही हो,’मां, मुझे अपने पास बुला लो। मां कहां दूर भाग रही हो मुझ से, तुम ने तो जन्म दिया है मुझेे… फिर क्यों मेरा दुख तुम्हें छूता नहीं…’ घबरा कर आंखें मूंद ली उस ने.

‘‘इस प्रकार पीठ फेर लेने से जिम्मेदारियां थोड़े ही कम हो जाती हैं बहिनजी…’’ यही तो कहा था नंदी के स्कूल की हैड मिस्ट्रैस ने.

नंदी उन की प्रिय छात्रा रही थी। फिर उसे जल्दी ही ब्याह देने के निर्णय पर भी वे काफी नाराज हुई थीं. और इस दुखभरी घटना की खबर जब उन्हें मिली तो एक बार स्वयं जा कर भी नंदी से मिल आई थीं और तभी पुष्पा के पास आई थीं.

‘‘देखिए पुष्पाजी, आप अपने दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकती हैं। नंदिता एक मेधावी छात्रा रही है। उसे यहां बुलाएं, मैं उस के आगे की पढ़ाई का प्रबंध करूंगी. उसे अपने पैरों पर खड़ा होने दीजिए। आप स्वयं सोचिए कि किस दुर्दशा में जी रही है वह…’’

उस दिन खुल कर पुष्पा ने सुरेशजी से कहा भी था,”आप के दोस्त हैं निर्मलजी, उन की बेटी की ससुराल में नहीं बनी तो यहां बुला लिया है। अब पढ़ालिखा रहे हैं पर हमारी नंदी तो… नीलिमाजी कह रही थी…’’

‘‘नीलिमाजी… नीलिमाजी, आखिर तुम्हें हो क्या गया है? हमारे यहां के रीतिरिवाज सब भूल गईं तुम…दूसरों की बात और है, पर हमारे यहां जब बेटी ससुराल जाती है तो फिर ताउम्र वहीं की होकर रहती है, समझीं तुम… अगर तुम भूल गई हो तो मैं याद दिलाऊं…’’ क्रोध में सुरेशजी की आवाज कांप रही थी. पुष्पा अपने आंसू पी कर रह गई.

इस आश्रम में तो पिछले वर्ष भी आई थी वह… तब सबकुछ कितना सुहावना लगा था. मंदिर में देवी की मूर्ति के सामने बैठी वह घंटों पूजा करती, पर आज तो देवी की मूर्ति देख कर उसे चिढ़ हो रही थी। वह सोचने लगी थी कि अगर देवी या भगवान होते तो क्या इतना पूजापाठ करने के बाद यही हश्र होता? यह सब एक अंधविश्वास ही तो है। उसे नंदी का करुण चेहरा दिख रहा था.

‘‘मां…’’

नंदी का आंसू भरा कांपता स्वर…
कुछ घबरा कर वह बाहर आ गई थी. आज मन पता नहीं क्याक्या हो रहा था. सुरेशजी तो शायद अपना आजन्म आश्रम की सदस्यता का फौर्म जमा करने गए होंगे. धीरेधीरे चल कर वह उस पिछवाड़े में बने छोटे से बगीचे की पत्थर की बैंच पर बैठ गई थी… आंखें सुदूर में पता नहीं क्या ताक रही थी.

‘‘पुष्पा…’’ तभी पीछे से सुरेशजी का स्वर सुनाई दिया। थकाहारा उदास सा।

‘‘क्या हुआ?”

सुरेशजी तब पास ही बैंच पर आ कर बैठ गए. इतने चुप तो कभी नहीं थे.

‘‘क्या हुआ…’’ पुष्पा ने फिर पूछा था.

‘‘कुछ नहीं, अभी जीजी का फोन आया था, मेरे मोबाइल पर। रामदादा की बेटी शिखा नहीं रही…’’

‘‘शिखा… रामदादा की बेटी…’’ एकदम से चौंक गई थी पुष्पा।

“हां, रात को नींद की गोलियां खा लीं उस ने. शायद आत्महत्या का मामला, जीजी कह रही थी कि हमें फौरन जबलपुर जाना होगा.

‘‘पर…’’

पुष्पा को याद आया कि शिखा अपने किसी सहपाठी से विवाह की इच्छुक थी पर रामदादा का और पूरे परिवार का जबरदस्त विरोध था. शायद…शायद सुरेशजी भी अब यही सोच रहे थे। बहुत देर बाद उन का धीमा स्वर सुनाई दिया पुष्पा को,”मैं ने अपने आश्रम की सदस्यता का फौर्म वापस ले लिया है… पूजापाठ में भी भरोसा नहीं रहा। यह सब एक छलावा है…”

अब चकित हो कर पुष्पा सुरेशजी की तरफ देख रही थी. दूर घनी बदली के पीछे शायद आशा की कोई किरण चमक उठी थी.

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