‘‘देखो मम्मा, शालू जो भी बनाए, तुम चुपचाप खा लिया करो. जब कोई उस की बनाई चीज न खाए तो उसे बहुत दुख होता है,’’ अजय ने अपनी धुन में वह सब कह दिया जो मैं कभी अपने पति के मुंह से नहीं सुन पाई थी और जिसे सुनने की चाह सदा मेरे मन में रही.
अपनी पत्नी की भावनाओं का अजय को कितना खयाल है. सही तो है, 4 सदस्यों का यह घर है ही कितना बड़ा कि जिस में कोई किसी की भावनाएं न समझ पाए और उन का आदर न कर पाए.
मेरे सामने चटपटी सब्जी, करारी पूरियां, साथ में हलवा और भरवां करेले की सब्जी परोसी हुई थी. सबकुछ स्वादिष्ठ और खुशबूदार था.
जीवन कितना छोटा सा है. कभीकभी इतना छोटा कि बरसों पुरानी बातें, जिन का मानस पटल पर गहरा प्रभाव छूट चुका होता है, कभी पुरानी लगती ही नहीं. लगता है जैसे कल ही सबकुछ घटा हो.
‘देखो मंदा, तुम्हारे मायके में चटपटी, करारी चीजें खाई जाती होंगी, मगर इस घर में इतना करारा और मिर्चमसालेदार खानापीना नहीं चलता,’ अभी मुझो ब्याह कर घर में आए मात्र 2 ही दिन हुए थे तब सासुमां का आदेश मेरे कानों में पड़ा था.
इन 2 दिनों में मैं वह सब कहां देख पाई थी कि मेरे ससुराल वाले कितना तीखा या हलका खाते हैं. अगर मुझे कुछ दिन यह देखनेपरखने का अवसर दिया गया होता तो मुझ से ऐसी भूल न होती. मुझे तो डोली से उतरते ही पति विजय ने रसोई में यह कहते धकेल दिया था, ‘देखो मंदा, मां और बाबूजी खानेपीने में बहुत एहतियात बरतते हैं. अगर खाना इन की इच्छा का न हो तो मां बहुत चिढ़ जाती हैं, पता नहीं क्यों, इन्हें खाना अच्छा न होने पर बहुत गुस्सा आता है.’ उस वक्त मैं ने सिर्फ ‘जी’ कह कर गरदन झुका दी थी.
25-26 साल हो गए उस घटना को, तरोताजा हैं आज भी वे तेवर, वे अंदाज, जिन के द्वारा मुझे मेरी औकात समझाई गई थी.
‘औकात’ शब्द शायद शालीन न लगे परंतु आज भी यह उतना ही सत्य है जितना 25-26 साल पहले मेरी अवस्था पर सटीक बैठता था. अपनी ‘औकात’ या अपना ‘स्थान’ मैं इस घर में कभी भी समझ नहीं पाई थी कि मैं क्या हूं. मेरी हैसियत क्या है, किस पर मेरी क्या मरजी चल सकती है? कौन मेरे अधिकार में है? किस से मन की कहूं और वह मुझे समझे, मैं ने कभी नहीं जाना.
‘यह गुलाबी रंग की साड़ी क्यों उठा लाई, मां को यह रंग अच्छा नहीं लगता. लाल रंग की लानी थी न’, जब मैं मायके से आई थी तब भाई द्वारा उपहार में दी गई साड़ी पर विजय ने कटाक्ष करते हुए कहा था. मारे डर के मैं वह साड़ी कभी नहीं पहन पाई क्योंकि सासुमां को उस रंग से चिढ़ है. अब क्यों चिढ़ है, यह मैं ने कभी नहीं पूछा.
मेरे बेटा हुआ और उस के बाद दूसरी संतान का मुंह मैं ने नहीं देखा, क्योंकि सासुमां को बच्चों की लाइन लगाना पसंद न था. ‘शेर का एक ही होता है,’ ऐसा उन का मानना था. उन का एक ही था, इसलिए मेरा भी एक ही रहा.
मैं सोचती हूं कि मैं ने अपना जीवन अपने मुताबिक कब जिया और वे अपना जीवन जीने के बाद मेरा जीवन भी जीती रहीं. पति कब मेरे पास बैठें, मुझ से बात करें, इस पर भी सदा उन्हीं का राज रहा.
‘आज महिला समिति की मीटिंग है, शाम को देर हो जाएगी, समय पर अपने पिताजी को चायनाश्ता और खाना खिला देना. अजय की पोशाक मैं जातेजाते लेती जाऊंगी, उसे भी समय से दूध पिला देना. चलो विजय,’ कहते हुए मांबेटा खटखट करते कब निकल जाते, पता ही न चलता था. मैं आया बनी घर का सारा काम करती रहती, क्योंकि मन में स्वामिनी जैसा भाव तो कभी जागा ही नहीं था.
अजय मुझे अपना बच्चा कम मालिक ज्यादा लगता था. एक अदृश्य दीवार सदा मुझे अपनी संतान और अपने बीच महसूस होती. अधिकार की भावना मुझ में कभी जागी ही नहीं थी और न ही अजय मुझे मां जैसी अहमियत देता था.
अजय जब 15-16 वर्ष का था तब मेरे ससुर का देहांत हो गया था. मौत वह शाश्वत सचाई है जिसे कभी कोई बदल नहीं पाया. भला पिताजी के देहांत पर मेरा क्या जोर था जो मांबेटा अपना सारा गुस्सा मुझ पर उतारते रहे. गमगीन खड़े विजय के कंधे पर हाथ रख कर मैं ने जरा पुचकारना चाहा था, सांत्वना देनी चाही थी, तब वह मुझ पर बुरी तरह बरस पड़े थे, ‘बाप मरा है मेरा, कोई गली का कुत्ता नहीं मरा जो मुझे रोने से रोक रही हो.’
यह सुन कर तो मैं अवाक रह गई थी, ‘अरे, इस घर में बाकी सब तो मेले में आए हैं न. जिस का मरा, बस उसी का मरा है. बेटा, मैं हूं न तेरे साथ,’ सासुमां का बेटे से लिपट कर रोना, मानो मुझे ही अपराधिनी बनाता गया, जैसे मरने वाला मेरा कुछ भी नहीं लगता था, जैसे मैं इस घर की कुछ थी ही नहीं. समझ ही न पाती थी कि मैं क्या करूं, क्या न करूं.
अवसाद और आक्रोश से मन सदा भरा रहता, नसें तनी रहतीं. हर पल का तनाव धीरेधीरे मेरे स्वास्थ्य पर अपना प्रभाव दिखाने लगा. अकसर खाना खाने के बाद मुझे उलटी हो जाती, मन जलता रहता. जब हालत ज्यादा बिगड़ती तभी डाक्टर को दिखाया जाता. डाक्टर बताता कि पेट में तेजाब की मात्रा बढ़ जाने से ऐसा होता है. नतीजतन, तली चीजें तो मेरे लिए धीरेधीरे जहर ही बन गईं. खट्टा और चटपटा भोजन मुझ से छूट गया.
आज लगभग 10 साल हो गए, मैं परहेज पर हूं. भारी भोजन खा ही नहीं पाती, सिर्फ देख कर ही संतोष कर लेती हूं. सासुमां आज भी हर चीज पर बड़े ठाट से अधिकार जमाए राज कर रही हैं.
मैं ने जब घर के सदस्यों की गणना की तब अपना नाम उन के साथ नहीं जोड़ा था. मैं घर की 5वीं सदस्या हूं मगर मेरा होना, न होना एकसमान ही तो है. इसीलिए तो कहा था कि घर में मात्र 4 सदस्य हैं जो एकदूसरे की भावनाओं का आदर करते हैं. यदि इस 5वीं सदस्या की कोई एहमियत होती तो पूरी और चटपटा भोजन मेरे सामने नहीं परोसा जाता.
सासुमां अपने पोते के लिए अपनी पसंद की बहू लाईं. मेरी पसंद, नापसंद किसी ने पूछी ही नहीं. मेरे बेटे ने भी नहीं. बस, सूचित भर कर दिया गया कि फलांफलां तारीख को शादी है.
शादी की सारी खरीदफरोख्त सासुमां और अजय ने ही मिल कर की. अपनी बहू को मैं ने पहली बार शादी के बाद ही देखा.
‘‘मम्मा,’’ शालू ने कहा तो सहसा मेरी तंद्रा टूटी. पता नहीं क्यों आंखें भर आई थीं. शादी के काम से थक गई तो बुखार ने आ जकड़ा था, वरना शादी के 15-20 दिनों बाद तक भी मैं ने अपनी बहू को रसोई में काम नहीं करने दिया था. उस से ज्यादा बातचीत भी नहीं की थी. सच कहूं तो मौका ही नहीं मिला था.
‘‘अरे, यह क्या? अजय आप के सामने यह क्या रख गए? हद हो गई,’’ कहते हुए शालू ने आननफानन अजय को भी वहीं बुला लिया. फिर बोली, ‘‘मम्मा क्या यह सब खाएंगी? आप को क्या पता नहीं कि वे एसिडिटी की मरीज हैं, बावजूद इस के इन्हें बुखार भी है.’’
अपनी बहू के इन शब्दों पर मैं स्तब्ध रह गई.
‘‘दादीमां ने कहा, दे आओ, तो मैं दे आया,’’ कहते हुए अजय कुछ हिचकिचाया था. वह फिर बोला, ‘‘आज तुम ने पहली बार खाना बनाया है न.’’
‘‘तो क्या आप मम्मा को जहर खिला देंगे? यह पूरी, खट्टा, तले करेले, क्या मैं मम्मा के लिए कुछ और नहीं बना सकती हूं?’’ बहू बोली.
अजय की नजर में तो मेरा महत्त्व कभी इतना था ही नहीं. शायद इसी वजह से वह परेशान था कि मेरी इतनी परवा क्यों और किसलिए. मेरे मन के भीतर की बच्ची, जो शरीर के बूढ़ा हो जाने के बाद भी परिपक्व नहीं हो पाई थी, वात्सल्य को सदा तरसती ही रही थी, स्नेह से भीग गई थी.
मेरी बहू ने झपट कर वह थाली उठाई और बाहर चली गई. हक्काबक्का सा अजय मेरी ओर देखता रहा.
‘‘मम्मा, आप की खिचड़ी, उठिए.’’ कहते हुए शालू ने मु?ो सहारा दे कर बैठाया. मेरे सामने तौलिया बिछा कर बड़े स्नेह से चम्मच भर कर खिलाने लगी. पूरी उम्र की पीड़ा न जाने कहां से एकत्रित हो कर मेरे गले में आ अटकी थी, सो मैं भावातिरेक में मुंह ही न खोल पाई.
‘‘अरे, खा लेगी खुद, यह कोई बच्ची है क्या. चल, इधर आ, पंडिताइन आई है, उस की थाली निकाल दे. महरी का हिस्सा भी अभी तक नहीं निकाला. कब से समझ रही हूं. तू सुनती क्यों नहीं,’’ कहती हुई सासुमां दनदनाती हुई भीतर चली आई थीं.
‘‘पहले मम्मा को खिचड़ी खिला दूं, दादी मां, फिर आप जो कहेंगी…’’
‘‘अरे, आज पहले दिन खाना बनाया तो यह क्या अनापशनाप बनाने बैठ गई? यह खिचड़ी क्यों बनाई. सारी उम्र यही बनाते रहने का इरादा है क्या. यह बीमारी का भोजन बना कर सब अपशकुन कर दिया,’’ शालू की बात काटते हुए सासुमां बोलीं.
‘‘इस में अपशकुन वाली क्या बात है, दादीमां? बीमारी की हालत में भी मम्मा…’’
‘‘अगर एक दिन तेरे हाथ का बना खा लेगी तो यह मर नहीं जाएगी. तू ने किस से पूछ कर खिचड़ी बना ली,’’ सासुमां ने फिर शालू की बात काटते हुए कहा.
‘‘दादीमां,’’ कहते हुए जोर से चीखी मेरी बहू, ‘‘शुभशुभ बोलिए.’’
सासुमां के सामने शालू के इतनी ऊंची आवाज में बोलने पर मैं, मेरे पति विजय और मेरा बेटा अजय अवाक रह गए थे.
‘‘खिचड़ी जैसी मामूली चीज बनाने के लिए भी क्या मुझे आप की इजाजत लेनी पड़ेगी और वह भी अपनी बीमार सासुमां के लिए. यह सब क्या है, पापा? अजय, आप बोलिए न कुछ,’’ शालू ने खिचड़ी का डोंगा एक तरफ रख कर इन दोनों से पूछा, जिन से मैं भी कभी कुछ न पूछ पाई थी.
‘‘तुम दादी के सामने ऐसे कैसे बोल…’’
‘‘और वे जो मम्मा के लिए इस तरह बोल रही हैं? यह आप की मां हैं या घर में पलती कोई नौकरानी. इतने दिन से मैं सब देखसुन रही हूं. किसी को मम्मा की परवा ही नहीं है. पापा, आप समझइए न अपने बेटे को, जितनी इज्जत आप अपनी मां की करते हैं, कम से कम अजय को उतनी तो अपनी मां की करनी चाहिए,’’ अजय की बात काट कर शालू बोली तो मेरे पति चौंक गए. कभी वे अपनी मां का मुंह देखते तो कभी अपनी बहू का और कभी मेरा, जो कोई दोष न होने पर भी स्वयं को दोषी मान रही थी, क्योंकि मेरी ही वजह से सारा बवाल उठ खड़ा हुआ था न.
मेरी बहू मेरी तरह बेजबान गाय नहीं है, यह जान कर मु?ो खुशी भी हो रही थी, मगर बेवजह अशांति से मु?ो घबराहट भी होने लगी थी.
‘‘देखा, अजय, कितनी जबान चलती है तेरी औरत की. संभाल इसे वरना उम्रभर पछताएगा. देखा तू ने, कैसे यह मेरे सामने बोल रही है,’’ सासुमां पूरी ताकत से दहाड़ी.
‘‘शालू, तुम चलो अपने कमरे में,’’ अजय ने पत्नी की बांह पकड़ते हुए कहा.
‘‘लेकिन मैं ने किया क्या है जो दादीमां इतनी हायतोबा मचा रही हैं? यह मेरी जबानदराजी कैसे हो गई, पापा? आप ही बताइए.’’
इस चक्रव्यूह में मेरी बहू हड़बड़ा गई थी.
‘‘कल यह कहां गई थी, जरा पूछ इस से? पूरी शाम बाहर बिता कर आई है,’’ सासुमां ने पैंतरा बदलते हुए कहा.
‘‘हैं,’’ कहते हुए निरीह गाय सी शालू मेरा मुंह देखने लगी, जैसे इस अप्रत्याशित आरोप के बाद उस ने कुछ याद करने का प्रयास किया हो.
‘‘कौन आया था इसे लेने, जरा पूछ? बिना मुझ से पूछे यह कहां गई थी?’’
‘‘वह मेरी बूआ का बेटा था, दादीमां. आप पूजा कर रही थीं, इसलिए मैं मम्मा से कह कर चली गई थी,’’ कहते हुए सवालिया भाव लिए शालू ने मुझे देखा. उस ने अपनी सुरक्षा में वे दो शब्द मुझ से चाहे जो मेरी सुरक्षा में कभी किसी ने नहीं कहे थे.
‘‘तुम दादीमां से बिना पूछे कहां गई थीं?’’ कहते हुए अविश्वासभरी आंखों से अजय ने पत्नी को देखा.
शालू हैरान थी कि बात कहां से कहां चली आई थी. सासुमां अधिकार अपने हाथ से निकल जाने का डर सह नहीं पा रही थीं, इसीलिए मेरी बहू के चरित्र पर लांछन लगाने से भी बाज नहीं आई थीं. अजय, जिसे मैं कभी गोद में ले कर लाड़प्यार नहीं कर पाई थी, उसी अजय पर मैं आकंठ क्रोध में डूब गई. कैसा पुरुष है अजय, पत्नी को कैसी नजरों से घूरने लगा है, कान का कच्चा कहीं का, जैसा बाप वैसा बेटा. इस ने सारे संस्कार अपनी दादी से पाए हैं.
‘‘कहां गई थीं तुम?’’ अजय ने फिर सवाल किया.
स्वयं को ‘मर्द’ प्रमाणित करने का यही तो एक आसान तरीका है न उस के पास. यही तरीका उस के पिता ने भी अनेक बार अपनाया था. मुझे प्रताडि़त करा कर सासुमां का चेहरा दर्प से खिल जाता था, चमक उठता था, मानो कह रही हों कि देखा न, बड़ी चली थी मेरा बेटा हथियाने. चैन से जीना है तो चुपचाप मेरी चाकरी कर वरना चोटी पकड़ घर से बाहर निकलवा दूंगी.
‘‘किस के साथ गई थी तू?’’ कहते हुए अजय का हाथ मेरी बहू पर उठ गया.
मैं समझ ही नहीं पाई कि मुझ में इतनी शक्ति कहां से आ गई. तेज बुखार में भी शरीर ने मेरा साथ देने से इनकार नहीं किया. मैं ने झपट कर शालू को अपनी गोद में खींच कर अजय को परे धकेल दिया और कहा, ‘‘हाथ काट कर फेंक दूंगी जो इसे मारा. जानवर कहीं के, बापबेटा दोनों एकजैसे नामर्द.’’
यह सुन कर बापबेटा अवाक रह गए थे. ‘नामर्द’ शब्द पता नहीं मेरी जीभ से कैसे फिसल गया. मैं फिर बोली, ‘‘पत्नी के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकते थे तो इस के साथ फेरे लेने क्यों चल पड़े थे? तुम्हारी यही मर्दानगी है कि बिना सोचे समझे पत्नी पर शक करो?’’
यह सुन कर तो सासुमां को काठ मार गया, जैसे सब हाथ से निकल गया.
‘‘इज्जत चाहते हो तो इज्जत देना सीखो, अजय. उसी नक्शेकदम पर मत चलो जिस पर चल कर तुम्हारा बाप सारी उम्र न खुद चैन से जिया और न मुझे ही जीने दिया,’’ मैं कहे जा रही थी और शालू मेरी छाती में समाई थरथर कांप रही थी.
‘‘बस, मेरी बच्ची, बस, डर मत. मैं हूं तेरे साथ.’’
फूटफूट कर रो पड़ी शालू. मुझ से लिपट कर अस्फुट शब्दों में पूछने लगी, ‘‘मम्मा, मम्मा, मैं आप के सामने ही तो गई थी. वह मेरी बूआ का बेटा था. आप से पूछ कर ही तो गई थी न मैं.’’
‘‘हां, बेटा, तू मुझ से पूछ कर ही गई थी,’’ कहते हुए मैं ने अजय की आंखों में देख कर उत्तर दिया.
मैं ने शालू को कस कर बांहों में जकड़ लिया. अवाक था अजय, जैसे विश्वास ही न कर पा रहा हो कि मैं ही उस की वह डरीसहमी मां हूं जो कभी ऊंची आवाज में बात नहीं करती थी और आज उसे और उस के पिता को भी ‘नामर्द’ शब्द से सुशोभित कर रही थी.
‘‘किसी चीज को उतना ही खींचना चाहिए जितनी वह खिंच सके. ज्यादा खींचने पर वह टूट जाती है या पलट कर प्रहार करती है, समझे तुम.’’
अजय चुपचाप सुनता रहा.
कमरे में शांति छा गई. मात्र शालू रोती रही. सासुमां चली गईं, उन के पीछेपीछे मेरे पति और फिर अजय भी चले गए.
‘‘चुप हो जाओ, शालू, बस,’’ मैं ने शालू को पुचकारा. फिर अपनी प्यारी बहू का चेहरा सामने किया. इस से पहले मैं ने उसे इतनी पास से कहां देखा था. ऐसा लगा जैसे वह मेरी अजन्मी संतान है जिस की चाह मैं सदा मन में पाले रही. अजय के बाद एक बेटी की चाह, जिसे सासुमां ने पूरा नहीं होने दिया था.
‘‘मम्मा, मैं ने ऐसा क्या कर दिया जो…’’
‘‘तुम ने ऐसा कुछ नहीं किया, बेटी. बस, यह मेरी ही शराफत थी जिस का असर तुम पर भी पड़ा. लाओ, मुझे अपने हाथ का बना खाना तो खिलाओ,’’ मैं ने उस की बात काटते हुए खिचड़ी के डोंगे की तरफ इशारा किया.
आंसू पोंछ कर शालू ने हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ कस कर पकड़ लिया, बोली, ‘‘मम्मा, आप जब अच्छी हो जाएंगी तब मैं आप को बढि़या पकवान बना कर खिलाऊंगी.’’
‘‘मेरे लिए तो यही पकवान हैं, बेटे. तुम्हें मेरी इतनी चिंता है और इस खिचड़ी के लिए तुम ने क्याक्या नहीं सुना और मैं ने क्याक्या नहीं देखा.’’
रोतेरोते मुसकरा दी वह, फिर बड़े स्नेह से मुझे खिचड़ी खिलाने लगी. मैं सोचने लगी कि अकारण ही मैं ने अपना जीवन डरडर कर बिता दिया.
क्यों मैं वह हिम्मत पहले नहीं जुटा पाई जो आज अनायास ही जुटा ली? पहले वह सब क्यों नहीं कह पाई जो आज इतनी दृढ़ता से कह दिया.
खातेखाते मेरा मन असीम तृष्णा से भर गया. प्यार से मैं ने शालू का माथा चूम लिया. देर से ही सही मैं ने कुछ कह पाने का साहस तो जुटाया, अपने लिए न सही अपनी बहू के लिए ही सही.