बात हैरानी के साथसाथ चिंता की ज्यादा है कि कल तक जिन तबकों के लोगों की परछाई पड़ने से भी साधुसंयासियों सहित आम सवर्ण का भी धर्म भ्रष्ट हो जाता था, आज उन्हीं के समुदाय के 100 और महामंडलेश्वर बनाए जाएंगे. यह ऐलान अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के मुखिया रविंद्र पुरी ने उज्जैन से ऐसे वक्त में किया है जब लोकसभा चुनाव का प्रचार शबाब पर है जिस में संविधान और आरक्षण को ले कर जोरदार बहस छिड़ी हुई है. भाजपा और इंडिया गठबंधन एकदूसरे पर संविधान खत्म कर देने का आरोप मढ़ रहे हैं.

संविधान का धर्म, उस के गुरुओं, ग्रंथों और दलित व सवर्णों से भी गहरा कनैक्शन है. जब संविधान का मसौदा सामने आया तो तमाम हिंदुवादियों ने जम कर इस का विरोध किया था. उन का कहना था कि मनुसमृति ही असल संविधान है. आरएसएस और हिंदू महासभा ने तो जगहजगह संविधान के विरोध में प्रदर्शन भी किए थे लेकिन आश्रमों, मंदिरों और मठों में रह रहे साधुसंयासियों ने भी कम आग नहीं उगली थी.

वाराणसी के नामी संत और राम राज परिषद् नाम की राजनीतिक पार्टी के मुखिया करपात्री महाराज ने तो दो टूक कह दिया था कि वे एक अछूतदलित डाक्टर भीमराव आंबेडकर के हाथों लिखे संविधान को नहीं मानेंगे, इस से उन का धर्म और संस्कृति नष्टभ्रष्ट हो जाएंगे.

इन लोगों की तकलीफ यह थी कि संविधान में दलित आदिवासियों, मुसलमानों और औरतों को सवर्णों के बराबर के अधिकार दिए जा रहे थे जिस से धर्मगुरुओं की दुकान खतरे में पड़ रही थी. समाज पर से उन का दबदबा कम हो रहा था.

75 साल में इतनी तबदीलियां तो संविधान के चलते आईं कि पहली बार बड़े पैमाने पर सवर्णऔरतें, दलित और आदिवासी शिक्षित हुए जिस के चलते उन के पास पैसा आया (लेकिन अक्ल और जागरूकता उम्मीद के मुताबिक नहीं आईं). सवर्ण औरतें तो तबीयत से व्रतउपवास, धर्मकर्म करते दानदक्षिणा, चढ़ावा यानी धार्मिक टैक्स देती रहीं लेकिन दलित आदिवासियों ने ऐसा कम किया. इस की बड़ी वजह यह थी कि उन्हें मंदिरों में दाखिल होने की इजाजत ही नहीं थी और न ही ब्राह्मण उन के लिए कर्मकांड करने को राजी था क्योंकि उसे अपने सवर्ण यजमानों से ही इफरात में दानदक्षिणा मिल जाती थी. आज भी ऐसी खबरें आना आम है कि दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोका गया और न मानने पर उन के साथ मारपीट की गई.

इस से होने यह भी लगा कि दलित हल्ला मचाते थाने और अदालत भी जाने लगे. इस पर भी भेदभाव और अत्याचार कम नहीं हुए तो वे बौद्ध, ईसाई और मुसलमान बनने लगे जिस से हिंदुओं की तादाद कम होने लगी.

इन स्थितियों से बचने के लिए अब अखाड़ा परिषद का दलित आदिवासी समुदाय से थोकबंद महामंडलेश्वर बनाने का फैसला धर्म की दुकानदारी को और एक्स्टेंशन यह सोचते हुए लेना है कि जब मनुस्मृति से बात नहीं बन रही तो इन तबकों को गले लगा कर ही लूटो और इन के संपर्क में आने से बचने के लिए इन के तबके के ही महामंडलेश्वर बना दो जिस से वे सवर्णों के लिए बने ब्रैंडेड मंदिरों में जाने की जिद पर न अड़ें और धर्मांतरण पर भी लगाम लगे.

इस बाबत इन नए महामंडलेश्वरों का सनातन धर्म का ज्ञान अनिवार्य किया गया है. महामंडलेश्वर बनने के लिए जरूरी है कि उम्मीदवार दलित आदिवासियों को वेदपुराणों और दूसरे धर्मग्रंथों का ज्ञान हो. यानी, इस पद के लालच में वे इन्हें पढ़ तो लें और इस बात से सहमत हो जाएं कि इन में अगर शूद्रों के साथ भेदभाव करने की हिदायत है तो इस पर उसे कोई एतराज नहीं बल्कि महामंडलेश्वर बन जाने के बाद वह अपने तबके के लोगों को भी इन बातों से सहमत करने की कोशिश करेगा कि यह तो भगवान का आदेश है जिस ने हमेंतुम्हें पैर से बनाया. इसलिए इस पर एतराज जताने का कोई मतलब नहीं.

अब जो भी दलित आदिवासी इस ओहदे पर आएगा वह दान का हिस्सा अखाड़ा परिषद् को भी देगा और बड़े पैमाने पर दलित आदिवासियों को पूजापाठी बनाने का काम भी करेगा जैसे भी आए आने दो, आखिर, पैसे से क्या दुश्मनी वह तो हाथ का मेल है और उस की जाति या धर्म नहीं होता. प्रयोग के तौर पर अखाड़ा परिषद् ने बीती 19 अप्रैल को गुजरात में 4 दलित आदिवासी महामंडलेश्वरों का पट्टाभिषेक किया था, प्रयोग सफल रहा तो अब थोक में भरतियां की जा रही हैं.

इस फैसले का एक अहम मकसद सवर्ण औरतों की तर्ज पर दलित औरतों को भी धर्मकर्म का संक्रामक रोग लगाना है जिस से यह समुदाय तरक्की की दौड़ में पिछड़ा ही रहे. धर्म के प्रभाव में आने से ये भी भाग्यवादी, पूजापाठी और भक्तिन बन जाएंगी और हरेक बात या परेशानी के लिए व्रतउपवास रखने लगेंगी.

इस से भी बात नहीं बनेगी तो ज्योतिषियों और तांत्रिकों के चक्कर काटने लगेंगी, जहां से परेशानियां कम होने के बजाय और बढ़ती हैं. यही इन के बच्चे सीखेंगे कि नौकरी पढ़ाई और मेहनत से नहीं बल्कि पूजापाठ और गुरुओं के आशीर्वाद से मिलती है जिस के लिए अब हमारे तबके के भी धर्मगुरु महामंडलेश्वर जैसे रुतबेदार ओहदे पर बैठा दिए गए हैं.

ऐसे आएगी समानता

हिंदू या सनातन धर्म की एक बड़ी खामी इस में पसरी वर्णव्यवस्था है जिस के चलते जातिगत भेदभाव, छुआछूत, अत्याचार और शोषण इस की रगरग में खून के साथ दौड़ने लगे हैं. इस बीमारी का इलाज किसी से नहीं हो पा रहा तो नए बीमार पैदा किए जा रहे हैं. रविंद्र पुरी ने यह घोषणा करते हुए कहा भी कि सालों से पिछड़े इस तबके को मुख्यधारा से जोड़ना जरूरी है. बकौल रविंद्र पुरी, पुरानी सोच बदलने की जरूरत है.

दिल को बहलाने का खयाल अच्छा है जिस के लिए जाने क्यों यह नहीं सोचा जा रहा कि पुरानी सोच के स्रोत ही क्यों न खत्म कर दिए जाएं. मसलन, भेदभाव फैलाते धर्मग्रंथ ही नष्ट कर दिए जाएं जिस से न बांस रहेगा न बांसुरी बजेगी. फिर सब बराबर हो जाएंगे और संविधान पर भी बवंडर मचाने की जरूरत नहीं रहेगी. लेकिन असल मकसद धर्म की बांसुरी पर अब दलितों को भी नचाने का है जिस के लिए मुख्यधारा जैसे साहित्यिक और समाजवादी शब्दों का सहारा लिया जा रहा है.

बाबाओं और महाराजाओं का डर यह भी है कि कहीं धीरेधीरे ये दलित, आदिवासी ही मुख्यधारा न बन जाएं, इसलिए इन्हें भी अफीम चटाई जाए. इस के लिए बेहतर यह है कि इस अफीम की सप्लाई के नए अड्डे खोले जाएं और सप्लायर भी इन्हीं के तबके के बनाए जाएं जिस से नशा करने में आसानी रहे.

अगर मंशा वाकई बराबरी की है तो सब से पहले जन्मकुंडली में जाति और गोत्र लिखना बंद किया जाए जो फसाद की बड़ी जड़ और धार्मिक पहचान का आधारकार्ड है. धर्म के दुकानदार यह हिम्मत दिखा पाएंगे, ऐसा लगता नहीं.

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