Democracy : कट्टरपंथियों के सत्ता में आने से धर्म मजबूत होता है और लोकतंत्र हाशिए पर चला जाता है. धर्म और सत्ता के इस गठजोड़ का शिकार अल्पसंख्यक समाज, औरतें और वे लोग होते हैं जो लोकतंत्र को मजबूत देखना चाहते हैं. लोकतंत्र की मजबूती के लिए यह जरूरी है कि लोकतंत्र में विरोधी विचारों का भी सम्मान हो और इस के लिए जरूरी है कि सत्ता को धर्म से अलग रखा जाए.
दुनियाभर में कट्टरपंथ का दौर चल रहा है. भारत, पाकिस्तान, अ फगानिस्तान, नेपाल, श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश जैसे एशियाई देशों में धार्मिक कट्टरता उफान पर है तो डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद अमेरिका में भी धार्मिक कट्टरपंथ तेजी से बढ़ रहा है. कट्टरपंथी जहां भी सत्ता पर काबिज होते हैं धर्म और राष्ट्रवाद को हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं. सरकार का काम धर्म चलाना नहीं बल्कि धार्मिक कट्टरवाद से आम आदमी की सुरक्षा करना होना चाहिए लेकिन पूरी दुनिया में दक्षिणपंथ उभर रहा है. दक्षिणपंथ के सहारे धर्म ने डैमोक्रेसी में सेंधमारी कर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है जिस से लोकतंत्र खतरे में दिखाई पड़ने लगा है.
डोनाल्ड ट्रंप की मेहरबानी से कट्टरपंथ की ओर बढ़ता अमेरिका
अमेरिका एक लोकतांत्रिक देश है. ईसाई धर्म के मानने वालों के बहुसंख्यक में होने के बावजूद अमेरिका में धार्मिक कट्टरता के लिए कोई जगह नहीं है. अमेरिका का आम आदमी धर्म से ईसाई होने से पहले अमेरिकन होता है. आम अमेरिकन के लिए धर्म कभी उस की आइडैंटिटी नहीं बना. यही कारण है कि अमेरिका के 94 प्रतिशत चर्च खाली पड़े हैं. ईस्टर या क्रिसमस के मौके पर भी चर्चों में भीड़ नहीं होती. धर्म के नाम पर अमेरिका में कभी फसाद नहीं हुए लेकिन अब डोनाल्ड ट्रंप के सत्ता में आने से हालात तेजी से बदल रहे हैं.
1979 में खुमैनी ने ईरानी क्रांति के नाम पर ईरान की सत्ता को कब्जाया और ईरान को कट्टरपंथ के रास्ते पर धकेल दिया जिस का खामियाजा ईरान की जनता आज तक भुगत रही है.
1978 में जियाउल हक ने सैक्युलर पाकिस्तान को इस्लामिक कट्टरपंथ के हवाले कर दिया जिस से पाकिस्तान आज तक उबर नहीं पाया. अब अमेरिका भी ईरान और पाकिस्तान के रास्ते पर चल पड़ा है.
अमेरिका में ईसाई धर्म को मानने वाले लोगों की आबादी लगभग 63 फीसदी है. इन में प्रोटेस्टैंट ईसाई 40 पर्सेंट के साथ बहुमत में हैं. अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रोटेस्टैंट ईसाई हैं और अपने पूरे राजनैतिक प्रचार में उन्होंने धर्म का जम कर इस्तेमाल किया. 2020 से 2024 के दौरान वे बाइबिल हाथों में लिए खुद को ईसाइयत का सब से बड़ा रक्षक घोषित करते नजर आए.
ट्रंप ने अपने 2024 के राष्ट्रपति चुनाव अभियान में नास्तिकों और मार्क्सवादियों के खिलाफ धर्मयुद्ध की घोषणा की थी साथ ही उन्होंने कहा था कि “अमेरिका आस्तिकों का राष्ट्र है और वे अमेरिका को स्वतंत्रता और न्याय के साथ ईश्वर के अधीन एक राष्ट्र के रूप में देखना चाहते हैं.”
ट्रंप अपनी चुनावी रैलियों में अकसर ईसाई राष्ट्रवाद पर बयानबाजी करते नजर आए और अपने आलोचकों को ईसाइयत का दुश्मन और देशद्रोही साबित करते रहे. 21 जनवरी, 2025 को एक उदघाटन समारोह के मौके पर जहां डोनाल्ड ट्रंप भी मौजूद थे बिशप मैरिएन बुडे ने ट्रंप से अप्रवासियों, शरणार्थियों और एलजीबीटीक्यू के प्रति दया दिखाने के लिए कहा.
इस कार्यक्रम के बाद ट्रंप ने बुडे को एक “देशद्रोही, वामपंथी और ट्रंप से नफरत करने वाला” कह कर अपमानित किया था. पेंसिल्वेनिया में जब डोनाल्ड ट्रंप के कान में गोली लगी थी तब ट्रंप ने कहा था, “ईश्वर ने मेरी जान बचाई है.”
2004 तक अमेरिकी चर्चों में सामूहिक प्रार्थनाओं में लोगों की उपस्थिति लगातार कम होती जा रही थी. चर्च लीडर्स वेबसाइट के अनुसार, “1990 में, 20.4 लोग ही वीकेंड पर चर्च में जाते थे. 2000 में, यह प्रतिशत घट कर 18.7 रह गया और 2004 तक 17.7 प्रतिशत रह गया.” लेकिन डोनाल्ड ट्रंप के दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद यह आंकड़ा उलट गया है. नियमित रूप से चर्च जाने वालों की तादाद में हैरतअंगेज ढंग से बढ़ोतरी हुई है. 2024 में 22.7 प्रतिशत लोग वीकेंड पर चर्च जाने लगे हैं.
2004 में अमेरिका के 94 प्रतिशत चर्च खाली पड़े थे. इमारतें जर्जर हो चुकी थीं. इन चर्चों में कोई पादरी तक नहीं होता था लेकिन अब हालात बदल रहे हैं. अब अमेरिका के 19 प्रतिशत चर्च में नियमित प्रार्थनाएं होने लगी हैं. ट्रंप के लौट आने से पादरियों के दिन भी लौट आए हैं. ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान बाइबिल का खूब प्रदर्शन और प्रचार किया जिस से अमेरिका में बाइबिल की बिक्री में 17.9 प्रतिशत की रिकार्ड बढ़ोतरी हुई है.
ट्रंप के सत्ता में आने के बाद से ही अमेरिका के सभी रिपब्लिकन प्रभुत्व वाले राज्यों में बाइबिल को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जा रहा है. टेक्सस, लुइसियाना और ओक्लाहोमा के सरकारी हाई स्कूलों के लिए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा प्रकाशित बाइबिल की प्रतियां मंगवाई जा रही हैं. यह अमेरिका जैसे सैक्युलर और डैमोक्रेटिक देश के कट्टरपंथ की दिशा में बढ़ने की शुरुआत है.
दक्षिण एशिया में कट्टरपंथ
धर्म हमेशा लोकतंत्र का विरोधी रहा है इसलिए जहां भी और जब भी धार्मिकता बढ़ती है लोकतंत्र कमजोर ही होता है. कुछ समय से दक्षिण एशिया के सभी देशों में धार्मिक कट्टरता तेजी से बढ़ी है. गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, बीमारी और पिछड़ापन दक्षिण एशिया की हकीकत है. यह समस्याएं लोकतंत्र से ही दूर हो सकती हैं लेकिन दक्षिण एशिया में धार्मिक कट्टरता बढ़ने से लोकतंत्र ही खतरे में पड़ गया है.
नेपाल में एक लंबे संघर्ष के बाद जनता ने राजशाही का अंत किया और अपने लिए एक लोकतांत्रिक व्यवस्था चुनी. लेकिन अब देश के कई बड़े राजनीतिक दल नेपाल को एक हिंदू राज्य में बदलने की कोशिश कर रहे हैं और भारत की आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद जैसे हिंदूवादी दल इस में मदद कर रहे हैं.
श्रीलंका में बौद्धों और मुसलमानों के बीच का संघर्ष तेज हो गया है. अहिंसा में विश्वास रखने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने मुसलमानों के खिलाफ आंदोलन चला रखा है. मुसलमानों के धार्मिक स्थलों और उन की बस्तियों पर हमले किए जाते हैं.
बांग्लादेश में एक अर्से से मुसलिम कट्टरपंथी संगठन जोर पकड़ रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में धर्म के नाम पर कई प्रमुख आतंकवादी संगठन अस्तित्व में आए हैं. देश के हिंदू अल्पसंख्यक संकट में है. धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव और शोषण के मामले धीरेधीरे बढ़ते जा रहे हैं. हर साल हजारों हिंदू बंग्लादेश छोड़ कर भारत में शरण ले रहे हैं.
कुछ दशकों में पाकिस्तान के हालात बदतर ही हुए हैं. तहरीके लब्बैक जैसे सुन्नी कट्टरपंथी संगठनों ने पाकिस्तान को अफगानिस्तान जैसा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. पाकिस्तान में इस वक्त बेहद गंभीर हालात पैदा हो चुके हैं. औरतों और अल्पसंख्यकों के लिए पाकिस्तान सब से खतरनाक देश बनता जा रहा है. धार्मिक कट्टरपंथ बढ़ने से पाकिस्तान की लोकतांत्रिक संस्थानों का औचित्य भी खतरे में पड़ गया है.
यूरोप में हैं अभी बेहतर हालात
यूरोप में हालात उतने बुरे नहीं हैं बल्कि धार्मिक कट्टरता के मामले में यूरोप अभी बेहतर स्थिति में है. यूरोप में ईसाई धर्म लगभग खतम हो चुका है. यूरोप के एक दर्जन देशों के ज्यादातर युवा किसी धर्म का पालन नहीं करते हैं. यूके में 70 प्रतिशत युवा किसी धर्म से खुद को नहीं जोड़ते हैं और 59 प्रतिशत कभी धार्मिक आयोजनों में शामिल नहीं होते हैं.
कैथोलिक हेराल्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार यूरोप में पारंपरिक ईसाई संप्रदायों में गिरावट आई है और चर्च में ईसाइयों की उपस्थिति लगातार कम हो रही है.
यूरोप के 200 साल पुराने चर्च लगभग खतम हो चुके हैं. नए बने चर्च भी खाली पड़े हैं. बुजुर्गों में ईसाइयत के प्रति रुझान बढ़ा है लेकिन वयस्कों के बीच चर्च का आकर्षण खत्म हो चुका है. यही कारण है कि यूरोपियन देशों में डैमोक्रेसी अपनी मजबूत स्थिति को बरकरार रखे हुए हैं.
भारत में धार्मिक कट्टरता और उस के दुष्परिणाम
भारत में पहले से ही जाति, नस्ल, भाषा और धर्म कि सैंकड़ों घेराबंदियां मौजूद थीं लेकिन भारतीय संविधान ने इसे विविधता माना और इस विविधता के बीच एकता कैसे कायम हो इस का उपाय भी किया.
देश की आजादी के बाद समयसमय पर नस्ल जाति भाषा और धर्म के नाम पर हिंसा होती रही लेकिन यह घटनाएं कभी राष्ट्र कि अस्मिता पर भारी न हो पाई. संविधान ने हर मसले को न्यायपूर्ण तरीके से हल किया क्योंकि तब लोकतंत्र पर न्याय और सरकारों पर संविधान हावी रहा लेकिन आज हालात बदल चुके हैं. आज लोकतंत्र पर राजनीति और संविधान पर सरकार हावी हो चुकी है और जिस कबीलाई सोच को खत्म करने की खातिर संविधान बना था वह उद्देश्य अब मरता हुआ सा नजर आ रहा है.
धर्म की मानसिकता वर्तमान राजनीति का हिस्सा है. लोकतंत्र पर धर्म हावी हो चुका है. विविधता से भरे इस देश की अस्मिता को बहुसंख्यकवाद की राजनीति लगातार रौंद रही है जिस का खतरनाक परिणाम आने वाली पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा. नस्ल, जाति, भाषा या धर्म कि लकीरें जहां इंसानियत से ऊपर होती हैं वहां लोगों की सोच में एवोल्यूशन और सोसाइटी में रेवोलुशन रुक जाता है. नस्ल बड़ी और इंसानियत छोटी हो जाती है.
डैमोक्रेसी, सेकुलरिज्म और एजुकेशन कि छत्रछाया में ही कोई भी समाज या देश तरक्की करता है लेकिन जब राजनीति पर धर्म हावी हो जाए तब सेक्युलरिज्म कि मौत हो जाती है डैमोक्रेसी बस नाम की रह जाती है एजुकेशन के नाम पर जहालत का प्रसार होने लगता है. लोकतंत्र, भीड़तंत्र बन जाता है और राष्ट्र सदियों पीछे कबीलाई युग मे पहुंच कर पूरी तरह फेल हो जाता है.
नस्ल, जाति, भाषा और धर्म के नाम पर भीड़तंत्र खड़ा किया जा सकता है और ऐसे भीड़तंत्र से सत्ता भी हासिल की जा सकती है लेकिन भीड़तंत्र कि बदौलत विकसित और संपन्न समाज का निर्माण नहीं हो सकता. कट्टरता के नाम पर पैदा की गई भीड़ कि खुराक नफरत होती है और ऐसी व्यवस्था का परिणाम तबाही के सिवा और कुछ नहीं होता.