भारत में नारी के सम्मान में कहा गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता. अर्थात जहां नारी की पूजा होती है वहां भगवान का वास होता है. भारत में महिलाएं हर क्षेत्र में नए मुकाम हासिल कर रही हैं. आज के दौर में भारतीय नारी देश को सशक्त बनाने में अपना अहम योगदान दे रही है, साथ ही, विश्व पटल पर भारत का नाम रोशन कर रही है. भारतीय नारी ने राजनीति, विज्ञान, रक्षा, अंतरिक्ष जैसे कई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अपना नाम रोशन किया है.
8 मार्च के आयोजनों और भाषणों का अपना, तात्कालिक ही सही, महत्त्व तो होता है जो उस वक्त एक साजिश में सिमटा नजर आता है जब हर कोई यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते… टाइप बातें कर यह जताने की कोशिश करता है कि महिलाओं की दौड़ धर्म से शुरू होती है और धर्म पर ही खत्म होती है. इस जर्नी के बीच में उसे जो कुछ भी हासिल होता है वह भी धर्म की ही देन है. यह उस के सतीत्व, व्रत त्योहारों और कर्मकांडों का फल होता है. कोई भी धर्म से इतर महिलाओं की उपलब्धियों का विश्लेषण करने की बात नहीं करता क्योंकि महिलाओं का पूजापाठी बने रहना ही धर्म की दुकानदारी के चलते रहने का परिणाम है जिस से दक्षिणापंथियों को तगड़ा प्रौफिट होता है.
8 मार्च को ही शिवरात्रि थी. उस दिन भी देशभर में कलश यात्राओं का आयोजन किया गया था. आइए, कुछ पर नजर डालें.
– शिवरात्रि के अवसर पर बेगुना स्थित शिव मंदिर में कलश यात्रा निकाल कर पूजापाठ शुरू किया गया. उस दौरान गांव की महिलाओं ने बेगुना तालाब से कलश उठा कर गांव का भ्रमण किया. कार्यक्रम में पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, बांकुड़ा, मेदिनापुर के अलावा खरसांवा तेरा की हरि संकीर्तन मंडली के कलाकार भाग ले रहे हैं.
– शिवरात्रि पर्व पूरे भारत वर्ष में धूमधाम से मनाया जा रहा है. इस मौके पर पूर्णिया चित्रवानी सेवा समिति विश्वामित्र सेवा संघ द्वारा भव्य कलश यात्रा निकाली गई. जिस में 251 महिलाओं व कुमारी कन्याओं ने भाग लिया. विधिवत पूजापाठ के साथसाथ महिलाओं ने शिव मंदिर के पांच फेरे ले कर भगवान भोले से मनोकामना पूर्ण होने की अर्जियां लगाईं.
– महाशिवरात्रि को ले कर बरमसिया मृत्युंजय महादेव मंदिर से भव्य कलश यात्रा निकाली गई. इस कलश यात्रा में काफी संख्या में महिलाएं व युवतियां सिर पर कलश लिए शामिल हुईं.
– इटारसी शहर के पशुपतिनाथ धाम मंदिर में आज से रुद्राक्ष रूद्र महायज्ञ संगीतमय श्री शिव महापुराण कथा का आयोजन किया जा रहा है. इस अवसर पर आयोजित कलश यात्रा में बड़ी संख्या में महिलाएं सिर पर कलश ले कर चल रही थीं.
बहुत बड़े देश के बहुत छोटे इलाकों की ये खबरें बताती हैं कि सशक्तीकरण एक खास दिन कहने भर की बात है. नहीं तो लाखोंकरोड़ों महिलाएं कलश यात्रा की आड़ में छली जा रही होती हैं और यह साजिश महानगरों में और बड़े पैमाने पर रची जाती है.
– 7 मार्च को ग्रेटर नोएडा में कोई 500 महिलाएं सिर पर कलश लिए चल रही थीं. यह आयोजन गायत्री परिवार का था. शिक्षित और संभ्रांत महिलाएं भी कलश यात्राओं में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेती हैं, यह बात आएदिन बड़े शहरों से उजागर होती रहती है. इसी ग्रेटर नोएडा में 22 जनवरी के अयोध्या इवैंट के दौरान भी सैकड़ों महिलाओं ने कलश यात्रा में शिरकत की थी.
पिछले साल जुलाई में एक नए ब्रैंडेड बाबा बागेश्वर ने जब जैतपुर गांव में अपना दिव्य दरबार सजाया था तब भी हजारों महिलाएं पीली ड्रैस पहने सड़कों पर दिखी थीं. खास बात यह थी कि महिलाओं में कलश यात्रा में हिस्सा लेने की होड़ कुछ इस तरह मच गई थी कि वे एक दिन पहले ही आयोजन स्थल सिटी पार्क वैष्णो माता के मंदिर पहुंच गई थीं.
– कलश यात्रा के मामले में भोपाल भी कभी पीछे नहीं रहता. शिवरात्रि पर नेपाली समाज की कलश यात्रा में सैकड़ों नेपाली महिलाएं सड़कों की शोभा बढ़ाती नजर आई थीं. बाबाओं का भोपाल आनाजाना बेहद आम बात है. उन के आयोजनों का श्रीगणेश ही कलश यात्राओं से होता है. जितनी ज्यादा महिलाएं कलश यात्रा में आती हैं उतनी ही गारंटी दुकान के चलने की होती है. इस बाबत आयोजक घरघर जा कर महिलाओं को चावल व पीली साड़ियां देते हैं जो कलश यात्राओं का घोषित ड्रैसकोड है. अब तो भोपाल में चुनरी यात्राओं का नया चलन शुरू हो गया है. बीती 17 फरवरी को नर्मदा जयंती के मौके पर 1,100 मीटर लंबी चुनरी यात्रा निकाली गई थी.
– 4 मार्च को लखनऊ में एक धर्मगुरु उमाकांतानंद सरस्वती की श्रीराम कथा के आयोजन के पहले निकली कलश यात्रा में पीले कपड़े पहने हजारों महिलाएं बैंडबाजे के साथ सड़कों पर दिखी थीं. ये महिलाएं देररात तक कथा में भी बैठी रही थीं जिस से भीड़ दिखाई जा सके. 22 जनवरी के अयोध्या इवैंट के दौरान तो न केवल लखनऊ बल्कि पूरे उत्तरप्रदेश में मंगल कलश यात्राओं की बाढ़ सी आ गई थी. सड़कों पर महिलाएं झूमती नजर आई थीं.
और इस में भी भेदभाव
कलश यात्राएं जाहिर है धर्म का सार्वजनिक फूहड़ प्रदर्शन हैं, जिन का भार महिलाओं को ही उठाना पड़ता है. इन यात्राओं का बड़ा मकसद महिलाओं को पिछड़ा और अशक्त बनाए रखना होता है लेकिन इस में भी भेदभाव बहुत अप्रिय तरीके से होने लगा है जो यह बताता है कि अब देश लगभग हिंदू राष्ट्र बन गया है. इस की कभी भी लालकिले से आधिकारिक घोषणा होना ही बाकी है.
2 दिनों पहले ही दिल्ली के इंद्रलोक इलाके में सड़क पर नमाज पढ़ रहे कुछ मुसलिम युवकों को एक पुलिसकर्मी ने लात मारी थी, जिस पर कुदरती तौर पर अभी तक हल्ला मच रहा है. मुसलिम समुदाय दहशत में भी है और गुस्से में भी. लेकिन लाख टके का सवाल अब यह खड़ा हो रहा है कि सड़कों पर कलश यात्राएं धड़ल्ले से निकाली जा सकती हैं लेकिन नमाज नहीं पढ़ी जा सकती.
कलशयात्रा का भी सरकारीकरण
कलश यात्रा ऐसा धार्मिक अनुष्ठान है जिस का उल्लेख किसी धर्मग्रंथ में नहीं मिलता. धर्मगुरुओं के बाद अब सरकार भी इस टोटके को भुनाने से नहीं चूक रही. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने केन बेतबा लिंक प्रोजैक्ट की शुरुआत ही जल कलश यात्रा टाइटल से की है. यह यात्रा प्रदेश के 3 हजार गांवों से हो कर गुजरेगी.
घोषित तौर पर इस में महिलाएं नहीं होंगी लेकिन अघोषित तौर पर होंगी क्योंकि कलश ढोने जैसा मेहनतवाला काम पुरुष नहीं करते. सरकार की मंशा के मुताबिक जल कलश यात्रा से महिलाओं और स्कूली बच्चों को ही जोड़ा जाएगा.
शिवराज सिंह चौहान के मुख्यमंत्री रहते नल जल योजना में धर्म का दखल बेहद आम था. 30 मार्च, 2022 को यह बात साबित भी हुई थी जब मंदसौर के सुवासरा में तत्कालीन मंत्री हरदीप सिंह डग ने जल नल योजना के लोकार्पण के दौरान महिलाओं के सिर पर कलश रखे थे और कन्यापूजन भी किया था. अब यही सबकुछ जल कलश यात्रा में दिखे, तो बात कतई हैरानी की नहीं होगी.
सशक्तीकरण या अशक्तीकरण
दक्षिणापंथी करें या दक्षिणपंथी करें, कलश यात्राएं दरअसल महिलाओं को पिछड़ा बनाए रखने की साजिश का हिस्सा हैं जिन में महिलाओं को मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है. वे घंटों भूखीप्यासी, नंगेपांव, तपती धूप में अपने तलुवे जलाती कई किलोमीटर तक पैदल चलती हैं. इस से उन्हें क्या मिलता है, यह बताने को कोई तैयार नहीं सिवा इस चलताऊ वक्तव्य के कि कलश में देवताओं का वास होता है और जो इसे ले कर चलता है उसे पुण्य मिलता है.
इसी पुण्य के दूसरे सब्जबाग हैं. सैकड़ों तरह के व्रत-उपवास जो महिलाओं को ही करने पड़ते हैं. रही बात कलश यात्राओं की, तो महिलाएं उन में भेड़-बकरी जैसी ही नजर आती हैं. घंटों वे भजनकीर्तन करते अपना वक्त बरबाद करती हैं, डीजे की धुनों पर सड़कों पर नाचतीगाती हैं, बाबाओं के प्रवचन सुनती हैं और शाम या देररात आयोजकों से मिली सवा सौ रुपए वाली पीली साड़ी के पल्लू में प्रसाद लपेट कर घर आ कर खाना बनाने में जुट जाती हैं.
यह कैसा सशक्तीकरण हो रहा है, इस पर अब हर किसी को सोचना चाहिए.