23 मई,2023 को सिविल सर्विसेस एग्जामिनेशन 2022 का रिजल्ट आउट हुआ. पहले 4 स्थानों पर लड़कियों का कब्जा था.7वें स्थान पर कश्मीरी मुसलिम वसीम अहमद भट और इसके बाद पूरी लिस्ट पर नजर दौड़ाई तो मालूम चला कि कुल 933 उम्मीदवारों में सिर्फ 30मुसलिम उम्मीदवार देश की प्रशासनिक सेवा के लिए चयनित हुए हैं.

प्रशासनिक सेवा में चुने गए इन युवाओं में 20 लड़के हैं और 10 लडकियां. आज देश की कुल आबादी में मुसलमानों की तादाद लगभग 14 प्रतिशत है. इसको देखते हुए प्रशासनिक सेवा के लिए चुने गए मुसलिम उम्मीदवारों की यह संख्या बेहद कम है. यानी, कुल उम्मीदवार का सिर्फ 3.45 प्रतिशत. अगर अपनी आबादी के मुताबिक मुसलिम उम्मीदवार इस परीक्षा में कामयाब होते तो उनकी संख्या लगभग 130 होनी चाहिए थी. ऐसा क्यों नहीं हुआ?

भारतीय मुसलिम युवाओं का प्रशासनिक सेवा और सेना में ही नहीं, बल्कि हर सरकारी क्षेत्र में बहुत कम प्रतिनिधित्व है. एमबीबीएस, इंजीनियरिंग, राजनीति, कानून किसी भी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या मुसलिम आबादी के अनुपात में ऐसी नहीं है जिसे अच्छा कहा जा सके. ऐसा नहीं है कि मुसलमान बच्चे पढ़ नहीं रहे हैं. शहरी क्षेत्रों में कम आयवर्ग के मुसलमान परिवार भी अब अपने बच्चों को मदरसे में न भेज कर स्कूलों में भेज रहे हैं.

मध्यवर्गीय परिवार के बच्चे सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं तो वहीं पैसेवाले घरों के युवा अच्छे और महंगे इंग्लिश मीडियम स्कूलकालेजों में हैं. बावजूद इसके, सरकारी क्षेत्रों में ऊंचे पदों पर उनकी संख्या उंगली पर गिनने लायक है. न सेना में उनकी संख्या दिख रही है और न पुलिस में. आखिर इसकी क्या वजहें हैं?

आत्मविश्वास की कमी

‘सरिता’ ने इसकी पड़ताल की तो कई तरह की वजहें सामने आईं. दिल्ली के कुछ उच्च आयवर्गीय मुसलमानों, जो काफी पढ़ेलिखे हैं, पैसे वाले हैं और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलवा रहे हैं, में से अधिकांश का कहना है कि चाहे यूपीएससी की परीक्षा हो, केंद्रीय सेवा की हो अथवा सेना या पुलिस में जाने का मौक़ा हो, लिखित परीक्षा तक तो कोई भेदभाव नजर नहीं आता.बच्चे लिखित परीक्षा निकाल भी लेते हैं.मगर इंटरव्यू में या फिटनैस टैस्ट में फेल हो जाते हैं. फिर भी मुसलमानों को कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए. उन्हें प्रशासनिक सेवा में आने के लिए भरपूर मेहनत करनी चाहिए.

एडवोकेट जुल्फिकार रजा कहते हैं, “हम भी चाहते हैं कि हमारे बच्चे भी अधिकारी बनें, राजनेता बनें,  डाक्टर, इंजीनियर बनें, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है. इसके पीछे कुछ कारण हैं. कहीं न कहीं मुसलिम बच्चों में आत्मविश्वास की कमी है, मेहनत की कमी है, कहीं उनका घरेलू परिवेश उनको रोकता है तो कहीं यह डर उनके अंदर है कि चाहे जितनी मेहनत कर लें और कितना भी पैसा पढ़ाई पर खर्च कर दें, लिखित परीक्षा भी पास कर लें, मगर इंटरव्यू में बाहर कर दिए जाएंगे.”

लखनऊ बास्केट बौल एसोसिएशन के सीनियर वाइस प्रैसिडैंट नियाज अहमद कहते हैं,“देश में सरकारी नौकरी के लिए आमराय यह है कि यह तो मिलने वाली नहीं है. आम मुसलमान युवा की यह सोच है कि वह कितनी भी मेहनत से पढ़ ले, मांबाप का कितना ही पैसा अपनी पढ़ाई पर लगवा ले, मगर लिखित परीक्षा पास करने के बाद जब इंटरव्यू होगा तो उसमें उसकी छंटनी हो जाएगी. फिर सरकारी सेवा में जाने की कोशिश ही क्यों करना.”

प्रशासनिक सेवा या अन्य सरकारी विभागों में मुसलिम अधिकारियों-कर्मचारियों की कम संख्या की एक और वजह नियाज अहमद यह बताते हैं कि मुसलमान पढ़ाई और नौकरी को लेकर उतना ज्यादा दृढ संकल्पित और जुझारू नहीं हैजितना ब्राह्मण, क्षत्रिय या कायस्थ हैं. आज ओबीसी और दलित युवा भी प्रशासनिक सेवाओं में आने के लिए खूब मेहनत कर रहे हैं, अपने कोटे का फायदा भी वे उठा रहे हैं ताकि अपनी सामाजिक हैसियत सुधार सकें. मगर मुसलमान लड़का लापरवाह है.

नियाज कहते हैं, “आप किसी पान या चाय की गुमटी पर दस मिनट खड़े होकर देख लें, 90 फ़ीसदी मुसलमान लड़कों के झुंड आपको दिखेंगे. रात 12 बजे भी यहां हंसीठट्ठा चल रहा है. जिंदगी और कैरियर को लेकर गंभीरता नहीं है.’जो होगा देखा जाएगा’ जैसा इनका रवैया है. ऐसा नहीं है कि ये पढ़ नहीं रहे हैं. ये बेशक कालेज के लड़के हैं, मगर कैरियर के प्रति उनमें कोई गंभीरता नहीं है, कोई लक्ष्य तय नहीं है.

“कुछ थोड़ी सी संख्या को छोड़ दें तो उच्च शिक्षा पा रहे ज्यादातर मुसलिम नौजवानों की सोच यह है कि कुछ नहीं होगा तो बाप का बिजनैस संभाल लेंगे या कुछ और कामधंधा कर लेंगे. वे भविष्य को लेकर डांवांडोल हैं.”

मुसलिम भागीदारी रोकने का प्रयास

सरकारी सेवाओं में मुसलमानों की कम भागीदारी के लिए केंद्रीय स्कूल में शिक्षण कार्य कर रहे सीनियर टीचर अल्ताफ बेग सत्ता को दोष देते हैं. उनका कहना है कि चाहे कांग्रेस की सरकार रही हो या बीजेपी की, दोनों ही राजनीतिक दलों में सलाहकारों और निर्णय लेने वाले पदों पर ब्राह्मण बैठे हैं. मुसलमान युवा की भागीदारी सरकारी नौकरी में ज्यादा न हो सके, इसके लिए इनके द्वारा जगहजगह अघोषित फिल्टर लगा दिए गए हैं. जहांजहां लिखित परीक्षा के बाद इंटरव्यू होते हैं चाहे प्रशासनिक सेवा में हो, सेना में हो या अन्य नौकरियों में, हर जगह यह पहले से तय होता है कि कितने प्रतिशत मुसलमान लिए जाएंगे. ऐसे में शासनप्रशासन या सत्ता में उनकी संख्या कैसे बढ़ सकती है?

अल्ताफ आगे कहते हैं,“आप सीडीएस (सैंट्रल डिफैंस सर्विस) का पिछले 10 साल का डेटा देख लें, उसके रिजल्ट को एनालाइज कर लें, आप देखेंगे कि अगर 100मुसलिम युवा लिखित और फिटनैस टैस्ट में पास हो कर आए हैं तो उनमें से सिर्फ 4 या 5 ही सेना में भरती हुए हैं. मुसलमानों के लिए इस तरह का फ़िल्टर हर जगह लगा हुआ है. वकील से जज बनने वाले मुसलमानों की संख्या और अन्य जाति व धर्म के उम्मीदवारों की संख्या देखें, वहां भी मुसलमान उम्मीदवार का चयन नहीं होता है. जजों के लिए जो रेकमेंडेशन होती हैं वे पंडित, ठाकुर, कायस्थ के लिए तो खूब होती हैंलेकिन मुसलमान को कोई रेकमंड नहीं करता. भले ही वेज्यादा काबिल हों.

“यही हाल बड़े शिक्षा संस्थानों, केंद्रीय विद्यालयों और नवोदय विद्यालयों के टीचर्स के अपौइंटमैंट में भी देखने को मिलता है. केंद्रीय विद्यालयों में तो टीचर्स का अपौइंटमैंट ही नहीं, बच्चों के एडमिशन का भी क्राइटेरिया बना हुआ है. सबसे पहले उन बच्चों के एडमिशन को वरीयता दी जाती है जिनके अभिभावक केंद्र की सरकारी नौकरी में हैं. दूसरे स्तर पर स्टेट गवर्मेंट के तहत नौकरी करने वालों के बच्चों को रखा जाता है. सरकारी नौकरियां ज्यादातर ठाकुरों, ब्राह्मणों, लालाओं के पास हैं तो मुसलमान बच्चों के लिए यहीं फिल्टर लग जाता है.

“चौथे या 5वें स्तर पर उन बच्चों को लिया जाता है जिनके मातापिता बिजनैस में हैं या प्राइवेट नौकरी में हैं. इनके पास इतना पैसा तो होता है कि वे स्कूल की फीस भर सकें मगर इतना ज्यादा नहीं होता कि बच्चों को किसी कंपीटिशन की तैयारी करवाने के लिए भारीभरकम प्राइवेट ट्यूशन फीस भर सकें. इस वर्ग के बच्चे, जिनमें मुसलमान भी होते हैं, पढ़लिख कर अपने खानदानी धंधे में ही लग जाते हैं. बहुतेरे मुसलिम बच्चे 8वीं या 10वीं तक पढ़ाई कर स्कूल छोड़ देते हैं. कुछ तो इससे पहले ही पैसे की तंगी के चलते शिक्षा से दूर हो जाते हैं. यही वजह है कि स्कूल ड्रौपआउट्स में मुसलमानों की संख्या ज्यादा होती है.”

अलगथलग करता प्रशासन

अल्ताफ बेग एक और रहस्योद्घाटन करते हैं. वे बताते हैं कि हर स्कूल में कमजोर वर्ग के बच्चों के एडमिशन के लिए कुछ हिस्सा रिजर्व है.20 फ़ीसदी बच्चे उन्हें कमजोर वर्ग के लेने होते हैं. इन बच्चों का एडमिशन बीपीएल कार्ड या अंत्योदय कार्ड के आधार पर होता है.गांकसबों में जहां प्रधान ही सबका मालिक होता है, अगर वह हिंदू है तो वहां के अधिकांश मुसलमान वाशिंदे अपना बीपीएल कार्ड या अंत्योदय कार्ड नहीं बनवा पाते हैं.

प्रधान उनका कार्ड बनाने में टालमटोल करता है. उनको बारबार दौड़ाता है या पैसे की मांग करता है. जबकि उन हिंदुओं के अंत्योदय कार्ड बन जाते हैं जो स्कौर्पियो से चलते हैं.अंत्योदय कार्ड न होने से, या वोटरकार्ड न होने से इन मुसलमानों के बच्चों को न तो स्कूलों में प्रवेश मिलता है, न सरकारी योजनाओं, जैसे फ्रीशिक्षा या फ्रीस्वास्थ्य सेवा का फायदा उनको प्राप्त होता है. यही वजह है कि गरीब मुसलमान अपने बच्चों की तालीम के लिए मदरसों का रुख करता है जहां दीनी तालीम के साथ वह हिंदी, इंग्लिश, विज्ञान और कंप्यूटर की शिक्षा ले सकता है और साथ ही उसको वहां कुछ खाने को भी मिल जाता है.

मगर बीजेपी की सरकार अब इन मदरसों पर भी गिद्ध नजर गड़ाए बैठी है.ज्यादातर मदरसे बंद कर दिए गए हैं जो आम मुसलमान जनता द्वारा की जा रही चैरिटी पर चल रहे थे. यह समाज के एक बड़े वर्ग को बौद्धिक रूप से दबाए और डराए रखने की बीजेपी की साजिश है. अल्ताफ कहते हैं,““मुसलमानों के लिए कहीं कोई रिजर्वेशन भी नहीं है. दलित और ओबीसी अपने रिजर्वेशन कोटे से सरकारी नौकरियों में जगह पा जाते हैं, मगर मुसलमान पिछड़ जाता है.”

वे आगे कहते हैं,“सरकार के प्राइमरी स्कूलों की हालत कितनी लचर है, यह किसी से छिपा नहीं है. भवन जर्जर हैं, किताबें नहीं हैं, टीचर नहीं हैं. हमारे गांव के प्राइमरी स्कूल में मुश्किल से 15 बच्चे आते हैं, मगर रजिस्टर में 90 बच्चों के नाम दर्ज हैं. प्रधान की मिलीभगत से यह होता है क्योंकि मिड डे मील के पैसों में, किताबों, यूनिफौर्म, फर्नीचर और भवन के लिए आने वाले सरकारी पैसों में उसका बड़ा हिस्सा होता है. प्राइमरी स्कूलों में मुसलिम बच्चों की संख्या बहुत कम है तो वहीं मुसलिम टीचर भी सिर्फ 3फीसदी हैं.

“आप केंद्रीय जांच एजेंसियों रौ, सीबीआई, ईडी को देख लें, या स्टेट लैवल पर पुलिस विभाग को देख लें, वहां मुसलमानों की संख्या नगण्य है. सेना या रौ में तो पहली और दूसरी पंक्ति में मुसलमान है ही नहीं. उसको वहां तक पहुंचने ही नहीं दिया जाता है. देशभर के पुलिस थानों में सबइंस्पैक्टर लैवल पर भी आप पाएंगे कि अगर एक थाने में 25 का स्टाफ है तो उसमें एक या दो एसआई ही मुसलमान होंगे. कांस्टेबल भरती के लिए तो कोई लिखित परीक्षा भी नहीं होती मगर वहां भी मुसलमान की संख्या बहुत कम है, वहां भी भूमिहार और यादवों की भरमार है, तो क्या मुसलमान लड़का दौड़ भी नहीं पा रहा है? ऐसा नहीं है.

“मुसलिम युवा जिम्मेदारी वाले पद पर न पहुंच सकें या डिसीजनमेकर न बन जाएं, इसके लिए आजादी के बाद से ही एक साजिश के तहत कई स्तरों पर ऐसे फ़िल्टर लगे हैंजिनकी वजह से वह हतोत्साहित हो चुका है. जो मुट्ठीभर मुसलमान सरकारी नौकरियों में हैं, वे तमाम तरह की परेशानियों का सामना करते हैं. उनको दूरदराज ट्रांसफर कर दिया जाता है. उनके प्रमोशन रोके जाते हैं. मुसलमान बढ़ने की कोशिश तो करता है मगर चारों तरफ से दबाव इतना ज्यादा है कि वह हिम्मत हार जाता है. आज कुछ बच्चे अपने जुझारूपन से आगे आए हैं, आईएएस/आईपीएस के लिए सिलैक्ट हुए हैं, यह तारीफ की बात है, लेकिन उनकी इतनी कम तादाद चिंता पैदा करती है.”

छोटे कामों से कमाई

एक नामी स्कूल में फिजिक्स के लैक्चरर सैयद कमर आलम इस विषय में अपनी राय साझा करते हुए इसके लिए पहले मुसलमानों को ही कठघरे में खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, “आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी मुसलमानों में शिक्षा के प्रति चाहत और विवेक की कमी है. यही वजह है कि स्कूलों में उनका एडमिशन रेट कम है. इसके साथ ही मुसलिम आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा छोटे कामों, जैसे मोची का काम, चमड़े का काम, मवेशी पालन, कपड़ा बुनाईसिलाई, बूचड़खाने का काम, बिरयानी शौप, गोश्त के दुकान, साईकिल की  दुकान, मोटर मकैनिक, मजदूरी, किसानी, किराने का काम, जरदोजी का काम, चिकेनकारी, कार्पेट उद्योग, नकली जेवर बनाना, चूड़ी उद्योग, फूल का धंधा, कारपेंटर, बावर्ची, प्लंबर, इलैक्ट्रिक के काम आदि में लगा है. इनके बच्चे प्राइमरी शिक्षा के लिए स्कूल में दाखिला जरूर लेते हैं मगर साथसाथ वे अपने पिता या दूसरे रिश्तेदारों से हाथ का हुनर भी सीखते हैं. या यों कहें कि उनको यह पैतृक हुनर जबरन सिखाया जाता है.

“प्राइमरी की शिक्षा पूरी होते ही वे पिता के साथ उनके धंधे में लग जाते हैं. यह तबका उच्च शिक्षा या सरकारी नौकरी की चाहत ही नहीं रखता और यह मुसलिम आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा है. जो बच्चे किसी तरह बाप से जिद कर इंटरमीडिएट तक पहुंचते हैं, वे भी उसके बाद वोकैशनल ट्रेनिंग लेकर रोजगार की ओर बढ़ जाते हैं. इसी वजह से उच्च शिक्षा तक पहुंचने वाले मुसलिम बच्चों का प्रतिशत बहुत कम है. जिनके आर्थिक हालात थोड़े ठीक हैं और जो उच्च शिक्षा, जैसे बीए, बीएससी, बीकौम या मास्टर्स कर लेते हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जो किसी कंपीटिशन की तैयारी के लिए ट्यूशन की फीस नहीं दे सकते.अच्छे इंस्टिट्यूट में एडमिशन नहीं ले सकते. तो उस दशा में वे कहीं टीचर लग जाते हैं या अपनी कोचिंग क्लास खोल लेते हैं, या किसी प्राइवेट कंपनी में काम शुरू कर देते हैं.

 “मुसलिम समाज की लड़कियों के लिए देश में माईनौरिटी स्कूल-कालेज न के बराबर हैं. धार्मिक और परिवार व समाज के दबाव में जो लड़कियां जवानी की दहलीज पर पहुंचते ही बुर्का पहनने लगती हैं, वे को-एजुकेशन वाले कालेज में खुद को एडजस्ट नहीं कर पातीं. देखा जाता है कि हायर एजुकेशन के लिए दाखिला मिलने के बाद कालेज का माहौल उन्हें रास नहीं आता और वे पढ़ाई ड्रौप कर देती हैं.

“कर्नाटक में जब लड़कियों के हिजाब को लेकर बवाल हुआ तब कितनी ही लड़कियों के घरवालों के दिल में बच्चियों की सेफ्टी को लेकर खौफ बैठ गया होगा. कितने ही लोगों ने अपनी बच्चियों के कालेज जाने पर प्रतिबंध लगा दिया होगा, ये आंकड़े कभी सामने नहीं आएंगे.”

निरंतरता की कमी

कमर आलम कहते हैं कि अधिकांश मुसलिम बच्चे उच्च शिक्षा लेकर जल्दी से जल्दी जौब शुरू करना चाहते हैं ताकि घर की आर्थिक स्थिति को ठीक कर सकें. उनके लिए अधिकार पाने से ज्यादा जरूरी पैसा कमाना है. फिर यूपीएससी या इसके समकक्ष प्रतियोगिताओं की तैयारी के लिए कम से कम चारपांच साल लगते हैं और बहुत ज्यादा पैसा भी खर्च होता है. इतना समय और पैसा वो इसलिए नहीं देना चाहते क्योंकि उनको सिलैक्शन करने वालों की नीयत पर भी भरोसा नहीं है.

इनके अलावा भी कई कारण हैं, जैसे मोटिवेशन की कमी, निरंतर प्रयास की कमी, आत्मविश्वास की कमी, हीनभावना, शासन सत्ता पर भरोसा न होना भी हैं जो मुसलमान युवा को प्रशासनिक अधिकारी बनने की राह में रोड़ा अटकाते हैं. उक्त सभी बातें यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में मुसलमानों की कम होती संख्या की वजहें हैं.

लखनऊ के एक नामी इंग्लिश मीडियम स्कूल में बायोलौजी के टीचर आरिफ अली, जो एमएससी-एमएड हैं और कई प्रतियोगी परीक्षाएं दे चुके हैं, यूपीएससी जैसी परीक्षाओं में मुसलमान बच्चों का चयन न होने के सवाल पर कहते हैं, “यूपीएससी पहले यह बताए कि कितने मुसलिम अभ्यर्थियों ने यूपीएससी का मेन एग्जामिनेशन पास किया और इंटरव्यू तक पहुंचे? और इंटरव्यू में किन कारणों से उनका सिलेक्शन नहीं हुआ?”

फिर अपने सवाल का खुद ही जवाब देते हुए आरिफ कहते हैं, “वे कभी नहीं बताएंगे. उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे मुसलमान बच्चे कंपीटिशन की तैयारी भी करते हैं. परीक्षाएं भी देते हैं और पास भी होते हैं, बस, इंटरव्यू में रह जाते हैं. यह बहुत लंबे समय से मुसलमानों के साथ हो रहा है. इसलिए अब पढ़ालिखा मुसलिम युवा व्यवसाय की ओर मुड़ गया है. बहुतेरे बच्चे हायर स्टडीज के बाद अपने पिता की दुकान चला रहे हैं या पैतृक व्यवसाय संभाल रहे हैं. चौक चले जाइए, चिकनवर्क,ज्वैलरी शौप या खानेपीने का व्यवसाय चलाते जो युवा आपको मिलेंगे, उनसे आप उनकी शिक्षा के बारे में पूछेंगी तो अधिकांश ग्रेजुएट मिलेंगे.

“”बहुतेरों के पास मास्टर्स डिग्री होगी. उनके आगे, बस, एक ही लक्ष्य है वह है पैसा कमाना. और वे कमा रहे हैं. तो बीजेपी अगर यह सोच रही है कि वह मुसलमानों को सरकारी नौकरी में नहीं आने देगी, उन को आर्थिक रूप से कमजोर बना देगी, तो यह उसकी खामखयाली है. बीजेपी और उसके नेता अगर यह सोचते हैं कि मुसलमानों को इग्नोर करके बहुत बड़ा तीर मार रहे हैं तो उनकी यह मानसिकता देश की प्रोडक्टिविटी ही घटाएगी.”

रुखसाना के दोनों लड़के इस साल 10वीं बोर्ड की परीक्षा सैकंड डिवीजन में पास कर गए. दोनों जुड़वां हैं. रुखसाना चाहती है कि अब वे 12वीं भी कर लें मगर उनके पति चाहते हैं कि अब दोनों उस बिरयानी-कोरमे की दुकान में उनका हाथ बंटाएं जिस दुकान को वे अकेले बड़ी मेहनत से चला रहे हैं. उनका कहना है कि अभी दोनों लड़के शाम के कुछ घंटे अपनी दुकान को देते हैं. इतनी ही देर में उनको बहुत हलकामहसूस होता है और ग्राहक भी खुशीखुशी खा कर जाता है. अगर दोनों पूरा वक्त दुकान को देने लगेंगे तो उनकी आमदनी बढ़ जाएगी.

मेरे पूछने पर कि क्या आप नहीं चाहते कि वे आगे पढ़ें और किसी सरकारी नौकरी में जाएं या कोई कंपीटिशन निकाल कर अधिकारी बन जाएं. इस पर रफीक हंसते हुए बोले,““क्यों फालतू के ख्वाब दिखा रही हैं. सरकारी स्कूलों की पढ़ाई का हाल आप जानती हैं. हम न तो इतने पढ़ेलिखे हैं और न हमारे पास इतना पैसा है कि कि अपने बच्चों को बता सकें कि किस परीक्षा की तैयारी करो, कैसे करो, कहां जा कर पढ़ो, किससे पढ़ो. हम अनपढ़ होते हुए जो कामधंधा कर रहे हैं, हमारे बच्चे पढ़लिख कर उसको संभाल लेंगे तो किसी बड़े अधिकारी की महीने की तनख्वाह से ज्यादा ही कमा लेंगे.”

सोच भी एक कारण

यह मानसिकता ज्यादातर मुसलमान अभिभावकों की है. उन्हें व्यवसाय में ज्यादा फायदा नजर आता है और यह सच भी है. एक स्नातक या परास्नातक हिंदू लड़का अगर किसी सरकारी नौकरी में महीने का 40हजार रुपया कमा रहा है तो वहीं बिरयानी का ठेला लगाने वाला मुसलमान लड़का 3 दिनों में 40हजार रुपए बना लेता है.गांवों और कसबों की मुसलिम आबादी के ज्यादातर बच्चे, जो मदरसों में शिक्षा पा रहे हैं और कभी उच्च शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते हैं, वे मेहनतमजदूरी के काम में लग जाते हैं, साइकिल पंचर की दुकान खोल ली, दरजी बन गए या इसी तरह के छोटे कहे जाने वाले काम करने लगे, मगर इसमें भी अब अच्छी आमदनी है.

एक बात और ध्यान देने वाली है. कोई मुसलिम लीडर, कोई मौलाना, कोई विचारक अपने आम संबोधन में दीन की बात तो करता है मगर कभी मुसलिम बच्चों की शिक्षा की बात नहीं करता.वे अपनी कौम के लोगों पर इस बात का दबाव नहीं बनाते कि वे अपने बच्चों को स्कूल जरूर भेजें. यह भी शायद इसी वजह से है क्योंकि वे जानते हैं कि तमाम दबाव और डर के बावजूद मुसलमान कमा-खा रहा है.

 

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