Writer- रोहित और शाहनवाज
एक साल से ज्यादा चले किसान आंदोलन ने कई उतारचढ़ाव देखे, बहुतकुछ सहा पर आखिरकार जीत हासिल की. जीत का बड़ा श्रेय किसान नेताओं को जाता है जिन्होंने अपनी सू?ाबू?ा से फैसले लिए. इस में उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव सिसौली से संबंध रखने वाले राकेश टिकैत किसानों के एक बड़े नेता के तौर पर उभरे और जमीनी फैसलों से सरकार के दांवपेंच फेल कर दिए. पेश है किसान आंदोलन पर यह ग्राउंड रिपोर्ट.
दिल्ली के बौर्डरों पर किसानों को बैठे पूरे 2 महीने बीत चुके थे, पर 28 जनवरी, 2021 वाली वह रात भयानक और कई आशंकाओं से घिरती चली जा रही थी. नहीं, उस दिन
3 डिग्री तापमान में कंकपाती सर्दी की फिक्र किसानों को नहीं थी, क्योंकि उन्हें तो सर्द ठिठुरते दिनों में पौ फटने से पहले ही फसल कटाई के लिए जाना पड़ता है. उन्हें फिक्र थी उस अंतहीन रात की जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी और बाकी दिनों के मुकाबले ज्यादा अंधेरी व लंबी लग रही थी.
दरअसल, 26 जनवरी की घटना के बाद सरकार को यह पहला मौका हाथ लगा था जब वह किसानों पर धरना खत्म करने का दबाव बना सकती थी, उन्हें भीतर तक डरा सकती थी और उन से बौर्डर खाली कराने का माहौल तैयार कर सकती थी. किसान भी हताश थे और पहले के मुकाबले आत्मविश्वास की कमी ?ालकने लगी थी. इस मौके को लपकने के लिए तीनों मजबूत बौर्डरों में से सब से पहले सौफ्ट टारगेट के तौर पर ‘गाजीपुर बौर्डर’ को निशाना बनाया गया.
उत्तर प्रदेश प्रशासन ने अधिकारियों को निर्देश दिए कि फौरन गाजीपुर का धरना खत्म करवाएं. सूचना मिलते ही गाजीपुर बौर्डर पर पुलिस बलों की तैनाती में इजाफा होने लगा. शाम तक गाजीपुर बौर्डर पर देखते ही देखते सैकड़ों की तादाद में पुलिस, रैपिड ऐक्शन और पैरामिलिट्री की फोर्स अपने साजोसामान के साथ प्रदर्शन स्थल खाली करवाने के लिए जमा होने लगी, मानो किसी बड़े जंग की तैयारी चल रही हो.
पुलिस फोर्स के साथसाथ गाजीपुर बौर्डर पर मीडियाकर्मियों की भीड़ ने किसानों का उपहास और उलाहना करने के लिए जमावड़ा लगा लिया था, मानो किसानों की इस स्थिति में चैनलों की जीत छिपी हो. साथ ही, गाजियाबाद का स्थानीय विधायक अपने समर्थकों व लाठीडंडों के साथ नारे लगाता रहा कि ‘दिल्ली पुलिस लट्ठ बजाओ, हम तुम्हारे साथ हैं.’ यह पूरा वाकेआ सुनियोजित था. बढ़ती रात के साथसाथ माहौल में बेचैनी होने लगी थी. क्या किसानों से धरना खत्म करवा दिया जाएगा? क्या किसान जमे रहेंगे? क्या यह गाजीपुर आंदोलन की अंतिम रात है? ये सवाल सभी के मन में खलबली मचाने लगे थे.
इतने में गाजीपुर बौर्डर के आंदोलन को संभाल रहे किसान नेता राकेश टिकैत भावुक हो पड़े. वे भावुक हो कर कहने लगे, ‘‘राकेश टिकैत न गांव जाएगा, न धरना खाली करेगा, न धरना स्थल खाली होगा. मैं देश के किसानों को बरबाद नहीं होने दूंगा. ये कानून भी वापस होंगे और अगर ये कानून वापस नहीं हुए तो राकेश टिकैत आत्महत्या करेगा.’’
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राकेश टिकैत के ये शब्द मानो पत्थर की लकीर बन गए. इन शब्दों ने आंदोलन में दोबारा जान फूंक दी. वीडियो घरघर पहुंचा तो किसान अपने नेता के लिए धरनास्थल पर बड़ी तादाद में वापस जुटने लगे. मानो वे अब मरमिटने को तैयार हों. उत्तर प्रदेश ही नहीं, हरियाणा और उत्तराखंड के किसान भी रातोंरात गाजीपुर बौर्डर के लिए निकल पड़े. देखते ही देखते धरनास्थल किसानों से भर गया. कुछ समय पहले तक जहां पुलिसकर्मी ज्यादा दिखाई दे रहे थे, अब वे किसानों के बीच से गायब होते दिखे. किसान अपने नेता को भावुक होते देख आक्रोश में थे. कल तक जिस आंदोलन की साख धूमिल होती दिखाई दे रही थी, जिस के पतन की इबारतें लिखी जा रहीं थीं, जिस का आत्मविश्वास डगमगा चुका था, उस में एकाएक जोश फूटने लगा.
यह कमाल था राकेश टिकैत का और उन के व्यावहारिक स्वभाव का, जिस से देश के किसानों ने खुद को जुड़ा हुआ महसूस किया. इस विकट स्थिति में भी आंदोलन को न छोड़ने व अपनी मांगों पर अड़े रहने की जिद से राकेश टिकैत को इस पूरे आंदोलन में एकछत्र राष्ट्रीय किसान नेता के तौर पर पहचान मिली. इस रात के बाद किसान आंदोलन को नया आयाम मिल चुका था. राकेश टिकैत की अपनी स्वतंत्र पहचान बन चुकी थी कि चाहे कुछ भी हो जाए, टिकैत ‘टिका’ रहेगा. किसानों ने इस रात के बाद फिर वापस मुड़ कर नहीं देखा और नई सुबह के साथ आंदोलन को नए सिरे से बुनना शुरू किया.
इस घटना के बाद आंदोलन की पूरी रूपरेखा में जबरदस्त बदलाव देखने को मिला. जो आंदोलन 2 फ्रंट (सिंघु और टीकरी) में अधिक मजबूत दिखाई दे रहा था, अब उन में गाजीपुर बौर्डर सब से मजबूत धड़े के तौर पर उभरने लगा. इसे राकेश टिकैत का कुशल व्यक्तित्व सम?ाना गलत नहीं होगा कि किसानों को उन्होंने अपनी तरफ पूरी तरह आकर्षित कर लिया था.
इसी के साथ दिल्ली के बौर्डरों की कमान के अलावा आंदोलन की रणनीति राज्यों के भीतर महापंचायतों को करने पर जोर पकड़ने लगी. इस पूरे आंदोलन में यह रणनीति किसानों के लिए कारगर साबित होने लगी, जिस में पहली विशाल महापंचायत टिकैत परिवार के नेतृत्व में ही उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुई, जहां हजारों की संख्या में किसान एकत्रित हुए, जिस ने भाजपा सरकार के अतिआत्मविश्वास और घमंड को बड़ी फटकार लगाने का काम किया.
पर अहम सवाल यह कि आखिर राकेश टिकैत इस पूरे आंदोलन के एकछत्र नेता के तौर पर कैसे उभरे, आंदोलन के दौरान उन की रणनीति कारगर कैसे साबित हुई और आखिर उन के व्यक्तित्व में ऐसा क्या करिश्मा था कि उन्होंने ऐसे वक्त में पूरे आंदोलन की कमान तकरीबन अपने कंधे पर उठाई.
दरअसल, इस की असल वजह तलाशने के लिए राकेश टिकैत के उन पहलुओं को खंगालने की सख्त जरूरत है जो सीधा उन के जीवन से जुड़ा हुआ है. इसी कोशिश में सरिता पत्रिका की टीम राकेश टिकैत के जीवन को करीब से परखने के लिए उन के पैतृक गांव सिसौली में उन के घर पहुंची. विरासत की उपजउत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में ‘किसानों की राजधानी’ कहे जाने वाला यह गांव दिल्ली से तकरीबन 120 किलोमीटर की दूरी पर है. इसी गांव में 4 जून, 1969 को बाबा महेंद्र सिंह टिकैत के दूसरे बेटे के रूप में राकेश टिकैत का जन्म हुआ. यह क्षेत्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पड़ता है. गांव तक जाने के लिए शामली से होते जाना पड़ता है, जिस में बस से तकरीबन एक घंटे का समय लगता है. सिसौली गांव की आबादी लगभग 15 हजार है. अधिकतर लोग यहां अभी भी संयुक्त परिवार में रहते हैं. सिसौली में रहने वाले चांद वीर सिंह बताते हैं, ‘‘इस में सब से बड़ी भूमिका खेतों की है. परिवार का अकेला आदमी खेतों का काम नहीं संभाल सकता, उसे जौइंट में रहना पड़ेगा. वहीं, गांव में भारतीय किसान यूनियन के चलते एकल भावना अभी भी मजबूत है. यही कारण भी है कि टिकैत परिवार खुद भी बड़े जौइंट परिवार के रूप में यहां रहता है.’’
शामली शहर से 8 फुटा रोड होते हुए इस जाटबहुल गांव में मुसलिम आबादी भी ठीकठाक संख्या में रहती है. सिसौली गांव की बनावट भारत के किसी भी अन्य गांव की ही तरह है. गांव के गलीमहल्लों के किनारे नाली निकासी, बीचोंबीच फैला मवेशियों का गोबर और ?ांटा गाड़ी (भैंसा गाड़ी) पर सवार किसान यह एहसास कराने के लिए काफी थे कि यह एक आम साधारण गांव है.
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यहां हमारी पहली मुलाकात 98 वर्षीय बुजुर्ग दरियाऊ सिंह से हुई. दरियाऊ सिंह चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के साथ भारतीय किसान यूनियन के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे हैं और मौजूदा समय में वे इकलौते पुराने सदस्य हैं और इस समय भारतीय किसान यूनियन के कोषाध्यक्ष हैं. वे उस दौरान 62 वर्ष के थे जब बाबा टिकैत 52 वर्ष की उम्र
में भारतीय किसान यूनियन की स्थापना कर रहे थे. उन दोनों की दोस्ती बहुत करीबी थी. दरियाऊ सिंह ने वह समय भी देखा जब बाबा महेंद्र सिंह टिकैत भारतीय किसान यूनियन की स्थापना में जुटे हुए थे और वह समय भी देखा जब इस यूनियन ने राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति पाई.
दरियाऊ सिंह पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं कि बाबा महेंद्र सिंह टिकैत के साथ उन्होंने सब से पहले
27 जनवरी, 1987 को किसानों की बिजली की मांग उठाई थी. उस दौरान राज्य में कांग्रेस के वीर बहादुर सिंह की सरकार थी. सरकार ने बिजली के दाम 22 रुपए प्रति हौर्स पावर से 30 रुपए प्रति हौर्स पावर कर दिए थे. बाबा टिकैत पहले सीधा कर्मुखेड़ी बिजलीघर पर 26 लोगों के साथ पहुंचे, वहां 4 दिनों तक आंदोलन चला, फिर 1 मार्च को किसानों की यूनियन बनाने के बाद बाबा टिकैत हजारों लोगों को अपने साथ ले कर निकल पड़े, जहां आंदोलन का दमन करने के लिए पुलिस ने ओपन फायरिंग की जिस में जयपाल और अकबर नाम के 2 किसानों की मृत्यु हुई.
वे आगे बताते हैं, ‘‘यह चीज बहुत कम लोग जानते हैं कि बाबा टिकैत के फैसले आमतौर पर व्यावहारिक होते थे. वे कोई ज्यादा पढ़ेलिखे व्यक्ति नहीं थे पर चीजों की सम?ा पढ़ेलिखों से भी ज्यादा रखते थे. उन्हें जो चीज परिस्थिति के अनुसार ठीक लगती थी, वे वही करते थे. उन की जिद के आगे सरकार को ?ाकना पड़ता था क्योंकि वे किसानों के हितों के फैसले लिया करते थे. इसी के चलते उन्होंने अपने जीवन में कई बड़े ऐतिहासिक आंदोलन किए और उन में जीत हासिल की, फिर चाहे वह दिल्ली के बोट क्लब का आंदोलन हो या फिर नईमा कांड हो जिसे भोपा आंदोलन के नाम से जाना जाता है. बाबा टिकैत जो ठान लेते थे वह करते ही थे.’’
दरियाऊ सिंह राकेश टिकैत को बाबा टिकैत के नक्शेकदम पर चलने वाला मानते हैं. वे बताते हैं कि राकेश टिकैत ने बहुत सी चीजें अपने पिता के साथ आंदोलन में सीखीं. बाबा टिकैत उन्हें 13 देशों की विदेश यात्राओं पर भी ले कर गए थे, जहां उन्होंने विदेश के किसानों के आंदोलन को करीब से देखा. वे ज्यादातर समय किसानों के काम से यहांवहां (राज्यों) दौरे पर ही रहते थे. वे कहते हैं, ‘‘महेंद्र सिंह टिकैत की परछाईं राकेश टिकैत पर है. राकेश टिकैत ने अपने पिता की विरासत को आगे बढ़ाया है. उस में (राकेश टिकैत) भी एक जिद है. जो उसे परिस्थितिवश ठीक लगता है वह वही करता है.’’
सरल, साधारण टिकैत परिवार
20 दिसंबर दोपहर 3 बजे हम सिसौली में राकेश टिकैत के पैतृक घर पहुंचे. यह वह घर है जहां राकेश टिकैत का संयुक्त परिवार रहता है. राकेश टिकैत ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा इसी घर में बिताया. अपनी शुरुआती पढ़ाई से ले कर आंदोलन के गुण भी इसी घर में अपने पिता महेंद्र सिंह टिकैत से सीखे. घर में प्रवेश करते ही एक बड़ा खुला आंगन दिखा जिस में बाईं तरफ एक हरे रंग का पुराना ट्रैक्टर खड़ा था और ठीक बीचोंबीच सामने की ओर एक लाल रंग का पुराना ट्रैक्टर था. ट्रैक्टर के बारे में नरेश टिकैत के छोटे बेटे अमित टिकैत बताते हैं कि ये दोनों ट्रैक्टर किसान आंदोलन में इस्तेमाल किए गए थे.
घर की बाईं तरफ की दीवारों पर सफेद रंग का पेंट वक्त के साथ काला पड़ता जा रहा था, मानो कई सालों से दीवारों पर रंगाईपुताई न कराई गई हो. इसी के पास 3 टौयलेट बनाए गए थे. उसी दीवार की एक तरफ भैंसों और गायों को खूंटे से बांधा हुआ था. दूसरी तरफ भूसा काटने की मशीन लगाई गई थी. अंदर जाते समय राकेश टिकैत के छोटे भाई नरेंद्र टिकैत से फोन पर बात की तो पता चला, वे खेतों में गन्नाकटाई के लिए गए हुए हैं, जो कुछ देर बाद हम से मिले.
आंगन के दाईं ओर बड़ा सा हौल था जोकि बाहर से आने वाले विजिटरों के आराम करने के लिए बनाया गया था. यह एक मीटिंग हौल के तौर पर भी इस्तेमाल में किया जाता है. विजिटरों की सुविधा के लिए यह परंपरा बाबा टिकैत से चली आ रही थी ताकि घर आए अतिथियों को घर में रुकने की व्यवस्था हो सके. यही कारण था कि हौल के चारों तरफ खाट लगाई गई थीं. दिलचस्प यह कि इसी हौल में बीकेयू अध्यक्ष नरेश टिकैत अमूमन रात को सोते हैं जिस के चलते हमारी उन से देररात तक बातें होती रहीं. इस हौल की दीवारों पर बाबा टिकैत के आंदोलनों और उन से जुड़ी स्मृतियों के कलैक्शन की प्रदर्शनी की गई थी.
इस के बाद हौल के दाईं तरफ बाबा टिकैत का एक छोटा कमरा था, जिस में अमर ज्योत जलाई गई थी. घर के इस कमरे में घुमाते समय नरेंद्र टिकैत ने बताया कि इस ज्योत को जलाने के लिए कई गांवों से घी भिजवाया जाता है. यहीं मटके में रखे पानी को 13 देशों की यात्रा कर लाया गया था और इसी कमरे में वे बाबा टिकैत के लिए रोज परंपरागत तौर पर लौ जलाया करते हैं जिस का खास ध्यान राकेश टिकैत भी करते हैं जब वे घर में मौजूद होते हैं.
इस कमरे के बाहर कुछ कुरसियां लगी हुई थीं, जिन में दूसरे गांवों से कुछ विजिटर चौधरी नरेश टिकैत के आने का इंतजार कर रहे थे. इन में से ही एक 50 वर्षीय शाहिद बालियान से हमारी मुलाकात हुई. वे सिसौली गांव से 9 किलोमीटर दूर हरसौली गांव से हैं. शाहिद मुसलिम जाट हैं और उन लोगों में से हैं जो राकेश टिकैत के साथ एक साल 15 दिन लंबे चले आंदोलन में दिल्ली के बौर्डर पर जमे रहे. साथ ही, वे बीकेयू के विश्वासपात्र सदस्यों में से भी हैं. वे बताते हैं कि टिकैत परिवार को बालियान खाप में चौधरी की उपाधि दी गई है. यह खाप उत्तर प्रदेश की सब से बड़ी जाट खाप है और 84 गांवों में फैली हुई है. खाप का मुखिया परिवारदरपरिवार आने वाला चौधरी चुनता है, जिस के बाद चुना हुआ मुखिया खाप के चौधरी के रूप में पदभार संभालता है. महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु के बाद, उन के सब से बड़े बेटे नरेश टिकैत बालियान खाप के चौधरी बने और बाबा कहलाए गए हैं.
शाहिद बालियान टिकैत परिवार में पूरा विश्वास रखते हैं. वे बताते हैं कि टिकैत परिवार में सब की भूमिकाएं बंटी हुई हैं. राकेश टिकैत संगठन में पूरी तरह से किसानों का बाहरी काम संभालते हैं, जैसे फ्रंट में रह कर वे मांगों को उठाते हैं, वहीं चौधरी नरेश टिकैत आंतरिक तौर पर अपनी चौधरी वाली भूमिका निभाते हैं. ऐसे ही राकेश टिकैत के छोटे भाई नरेंद्र टिकैत हैं जो अधिकतर खेतों से जुड़े कामों की देखरेख करते हैं और ग्रामीण स्तर पर कार्य करते हैं.
नरेंद्र टिकैत ने हमें सिसौली गांव घुमाते समय अपने उपनाम ‘टिकैत’ के बारे में एक किस्सा सा?ा किया. उन्होंने बताया, ‘‘हमारे पूर्वज, बालियान खाप के तत्कालीन चौधरी, ने 7वीं शताब्दी में राजा हर्षवर्धन को एक युद्ध में मदद की थी. बालियान खाप की वीरता से राजा इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने खून से चौधरी के माथे पर टीका लगाया. इसी टीके से टिकैत नाम पड़ा. तभी से हमारे परिवार को टिकैत के नाम से जाना जाता है.’’
शाम ढलने लगी तो नरेंद्र टिकैत हमें अपने घर से 50 मीटर दूरी पर किसान भवन की ओर ले कर गए. इसे बाबा महेंद्र सिंह टिकैत ने बनाया था. इस
2- मंजिला इमारत में उस समय रेनोवेशन का काम चल रहा था. इस के ग्राउंड के सामने बाबा टिकैत की समाधि बनाई गई है, जिस के बाईं ओर अपने समय के प्रभावशाली किसान नेताओं की 4 मूर्तियां हैं जिन में मुख्य आकर्षण कर्नाटक के किसान नेता महंता देवारु नंजुंडास्वामी की मूर्ति थी, जो बाबा टिकैत के दोस्त थे.
इस भवन की दिल्ली में चले किसान आंदोलन में अहम भूमिका रही है. हर महीने की 17 तारीख को यहां मासिक किसानों की पंचायतें नियमित होती रहीं जो अभी भी चलती रहती हैं. यहीं से बड़ीबड़ी घोषणाएं की गईं जिन्होंने 28 दिसंबर के गाजीपुर बौर्डर और मुजफ्फरनगर की महापंचायत में अहम भूमिका निभाई. कपिल बालियान बताते हैं कि राकेश टिकैत जब भी अपने क्षेत्र में होते हैं तब इस मासिक मीटिंग को अटैंड करते हैं. वे अनुशासन के साथ मीटिंग में उपस्थित रहते हैं और लोगों की बातों पर ध्यान करते हैं.
जमीन से जुड़े राकेश टिकैत
सिसौली गांव से तकरीबन डेढ़ किलोमीटर दूर खेतों के बीच जनता इंटर कालेज पड़ता है. यह हिंदीभाषी सरकारी स्कूल है जिस की मरम्मत लगता है कई सालों से नहीं की गई. इसी स्कूल में राकेश टिकैत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा हिंदी में हासिल की. राकेश टिकैत के बचपन के सहपाठी 52 वर्षीय रतन सिंह बताते हैं कि टिकैत बचपन में भी चीजों को ले कर गंभीर रहते थे
पर हंसीमजाक करना बखूबी जानते थे. वे कबड्डी और हौकी खेलने के शौकीन थे. रतन सिंह ने अपने जीवन के 30 सालों तक ट्रक चलाने का काम किया और अब खेती का काम कर रहे हैं. उन्होंने 10वीं कक्षा के बाद स्कूल छोड़ दिया था. इस समय उन का एक बेटा और एक बेटी उत्तर प्रदेश पुलिस में सेवारत हैं.
स्कूल से निकलने के बाद राकेश टिकैत ने आगे की पढ़ाई मेरठ स्थित चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से की. वहां से उन्होंने बीए व एमए की पढ़ाई की. शाम को गांव में आयोजित होने वाली सालाना ‘?ांटा दौड़’ (भैंसा दौड़) में ले जाते हुए उन के भाई नरेंद्र टिकैत हमें बताते हैं कि राकेश टिकैत कमांडो बनना चाहते थे. हालांकि, जब वे आर्मी में शामिल नहीं हो पाए तो दिल्ली पुलिस में शामिल हो गए.
राकेश टिकैत ने वर्ष 1992 में दिल्ली पुलिस की नौकरी जौइन की थी. उस दौरान उन की उम्र 23-24 साल की थी. लेकिन उस नौकरी में वे ज्यादा समय तक रह नहीं पाए, शायद उन के लिए इस से बड़ी जिम्मेदारी तय होनी बाकी थी. साल 1993 के किसान आंदोलन के दौरान जब भारत सरकार ने राकेश टिकैत पर उन के पिता बाबा टिकैत के धरने को खत्म कराने का दबाव बनाया तो उन्होंने किसानों के समर्थन में दिल्ली पुलिस की नौकरी छोड़ दी. उस के बाद वे पूर्णकालिक रूप से भारतीय किसान यूनियन से जुड़ गए. राकेश टिकैत शुरू से ही सीधी और खरी बात करने में माहिर थे. वर्ष 1997 में उन की काबीलियत और दक्षता देख कर राकेश टिकैत को भारतीय किसान यूनियन का राष्ट्रीय प्रवक्ता चुना गया.
राकेश टिकैत के व्यवहार के बारे में पूछने पर अधिकतर लोग उन्हें आदतों में सख्त और दैनिक जीवन में अनुशासित बताते हैं. नरेंद्र टिकैत ने हम से बात करते हुए बताया, ‘‘भाई राकेश टिकैत सचाई, ईमानदारी पर चलते हैं. यह सीख बाबा टिकैत ने हम सभी को दी है. राकेश की कुशलता का रहस्य यह है कि वे निर्णय लेने में तेज हैं और समय बरबाद नहीं करते.’’
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नरेद्र टिकैत से जब राकेश टिकैत की गंवई भाषा में बातव्यवहार करने की वजह के बारे में पूछा तो वे कहते हैं, ‘‘आदमी जिस माहौल में रहेगा उसी की भाषा कहेगा. हम अपनी बोली से जुड़े लोग हैं, जिसे हम छोड़ नहीं सकते.’’ यह सुनते ही वहां मौजूद लोग जोर से हंसते हैं और ‘बक्कल तार देंगे’ कहने लगते हैं. वहीं घेर (खाली पड़ी जगह) में बैठे एक अन्य व्यक्ति बताते हैं कि राकेश टिकैत जब भी गांव आते हैं उन का हर किसी के साथ बातव्यवहार सामान्य रहता है. बच्चों से उन की पढ़ाई के बारे में पूछते हैं, बूढ़ों का हालचाल पूछते हैं और युवाओं से उन के काम के बारे में पूछते हैं.
सिसौली से तकरीबन 44 किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर के महावीर चौक से सिविल लाइंस रोड पर लाल कोठी वाली गली में राकेश टिकैत का 300 गज में बना 2 मंजिला मकान है. यहां का मकान गांव के मकान के अनुरूप अधिक शहरीनुमा है, देशी खाट की जगह शहरी बैड हैं, हुक्का नजर में नहीं था, शायद इसलिए भी कि राकेश टिकैत हुक्का नहीं गुड़गुड़ाते. घर के सामने भी एक घेररूपी जगह बनाई गई है, जहां गाय बंधी थी पर वह घर से अलग हिस्से में थी. हालांकि घर के कमरों में बिखरे कपड़े और सामान बता रहे थे कि यह एक सामान्य घर की तरह है. राकेश टिकैत के कमरे में भी किसी प्रकार का विशेष ताम?ाम देखने को नहीं मिला, बल्कि दीवारों की उतरती पपडि़यां और टाइल पर पोती अनायरा की बनाई चित्रकारी बता रही थी कि घर में राकेश टिकैत का रहनसहन सामान्य है. राकेश टिकैत परिवार समेत 20 साल पहले शिफ्ट हो गए थे. राकेश टिकैत की पत्नी सुनीता देवी बताती हैं कि जब राकेश पुलिस में भरती हुए थे तब उन्होंने यह जगह ली थी.
वे कहती हैं, ‘‘राकेश टिकैत केवल घर का बना खाना खाते हैं, कभी होटल में भोजन नहीं करते. वे एक वक्त में एक या दो तरह की सब्जी लेते हैं. हां, मसूर की दाल वे पसंद नहीं करते. लेकिन कहीं बाहर होते हैं और यह दाल उन के लिए बन गई तो अचार से रोटी खा लेंगे पर सामने वाले को भनक नहीं लगने देंगे ताकि उस का अनादर न हो.’’
वे आगे कहती हैं, ‘‘राकेश टिकैत मसालेदार और तैलीय भोजन से दूर रहते हैं और कोल्ड ड्रिंक्स से परहेज करते हैं. उन्हें फिल्में देखने का शौक नहीं है पर टीवी पर न्यूज चैनल में खबरें देख लेते हैं. वे मु?ो टीवी सीरियल नहीं देखने देते, कहते हैं, ये सीरियल घर बिगाड़ते हैं.’’
कसेरवा गांव से नूरा बालियान मुसलिम जाट हैं. दिल्ली में चल रहे धरने पर निरंतर आतेजाते रहे. वे यूनियन के काम से सिसौली में भी आतेजाते रहते हैं. वे राकेश टिकैत को अपना नेता मानते
हैं और कहते हैं, ‘‘टिकैत साहब का चीजों को सम?ाने का सैंस औफ हयूमर बहुत अच्छा है. उन्होंने लोगों को जोड़े रखने का काम किया है और समयसमय पर सही निर्णय लिए.’’
राकेश टिकैत की आंदोलन में भूमिका
मुजफ्फरनगर में राकेश टिकैत के घर पर हमारी मुलाकात उन के बेटे चरण सिंह टिकैत से हुई. चरण सिंह टिकैत अपने पिता राकेश टिकैत के साथ भारतीय किसान यूनियन में सक्रिय हैं. वे बताते हैं कि राकेश टिकैत किसानों के लिए आंदोलन करने के दौरान अपने पूरे जीवनकाल में करीब
42 बार जेल जा चुके हैं. वे बताते हैं, ‘‘मध्य प्रदेश में एक समय किसान के भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ उन्हें 39 दिनों तक जेल में रहना पड़ा था. दिल्ली में संसद भवन के बाहर किसानों के गन्ना मूल्य बढ़ाने की वजह से सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया तो उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया था. राजस्थान में बाजरा की कीमत को बढ़ाने की मांग को ले कर किसानों की लड़ाई लड़ते हुए सरकार के खिलाफ धरना दिया था, जिस के बाद उन्हें जयपुर जेल में जाना पड़ा था.’’
किसान आंदोलन को देश और मुख्य तौर पर उत्तर प्रदेश में फैलाने के लिए राकेश टिकैट ने एड़ीचोटी का जोर लगा दिया और वे कई मंचों से सरकार को ललकारते नजर आए. इस तरह राकेश टिकैत किसानों के आंदोलन का सब से बड़ा चेहरा बन गए. दिल्ली में चले किसान आंदोलन में राकेश टिकैत की भूमिका उस समय से ही प्रमुख थी जब कृषि कानूनों को सरकार ने सिर्फ महज विधेयक के रूप में संसद में पेश किया था. राकेश टिकैत ने उसी समय से सरकार द्वारा पेश किए गए कृषि विधेयकों का विरोध किया. जब दिल्ली के बौर्डरों पर पंजाब व हरियाणा के किसान आंदोलन करने के लिए पहुंच गए थे उस समय राकेश टिकैत के नेतृत्व में भारतीय किसान यूनियन उत्तर प्रदेश में किसानों को लामबंद करने में जुटी थी.
राकेश टिकैत ने कृषि कानूनों को ले कर अपना रवैया आंदोलन के पहले दिन से ही साफ कर दिया था. दिल्ली के गाजीपुर बौर्डर पर तैनाती के साथ ही आंदोलन में उन की हिस्सेदारी संयुक्त किसान मोरचा में भी उतनी ही सक्रिय थी. कृषि कानूनों को ले कर सरकार से हुई कई राउंड की बातचीत में राकेश टिकैत कानूनों को वापस कराने की मांग पर कभी भी टस से मस नहीं हुए. कई बार सरकार ने गाजीपुर बौर्डर पर प्रदर्शनकारी किसानों को प्रताडि़त करने का काम किया, कभी बिजली काटी तो कभी पानी की सप्लाई रोक दी लेकिन राकेश टिकैत कानूनों की वापसी तक टिके रहे.
सालभर चले आंदोलन के बाद सरकार ने लागू किए कृषि कानूनों को वापस करने का फैसला लिया तो आंदोलनकारी किसानों में खुशी की लहर दौड़ पड़ी. सरकार के कानूनों को वापस लेने के पीछे कई कारण थे. उन में से एक मुख्य कारण उत्तर प्रदेश में विधानसभा का होने वाला चुनाव रहा. बहरहाल, किसान आंदोलन ने केंद्र की अडि़यल सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. इस पूरे प्रकरण में राकेश टिकैत की भूमिका बेहद अहम रही.
राजनीतिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश की जमीन किसी भी सरकार के लिए बेहद कीमती होती है. राकेश टिकैत का उत्तर प्रदेश के किसानों को ले कर कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन करना सरकार की नींद उड़ा रहा था. यही नहीं, राकेश टिकैत का सरकार के खिलाफ देशभर में जगहजगह महापंचायतें करना और आंदोलन को जमीन पर पहुंचाना सरकार को डराने लगा.
लखीमपुर खीरी की घटना में राकेश टिकैत की सू?ाबू?ा का परिचय मिला. भाजपा किसानों को अनियंत्रित करने और देश का दूसरा चौराचौरी कांड बनाने का षड्यंत्र रच रही थी, वहां राकेश टिकैत ने पूरे मामले को सम?ादारी के साथ हैंडल करते हुए आंदोलन को उग्र होने से बचाया. ठीक इसी प्रकार पंजाब के किसानों पर लगने वाले उस टैग को सिरे से ध्वस्त कर दिया जो उन्हें खालिस्तानी और देशद्रोही बता रहा था. यहीं नहीं, भारतीय किसान यूनियन पर हमेशा से जाट संगठन होने का आरोप लगता रहा जिसे राकेश टिकैत ने एक हद तक खत्म करने का काम किया.
हालांकि, जानकार बताते हैं कि बाबा महेंद्र सिंह टिकैत के 2011 में गुजरने के बाद टिकैत परिवार ने अपनी ख्याति खो दी थी. बाबा टिकैत चाहते थे कि उन का संगठन अराजनीतिक रहे. लेकिन राकेश टिकैत का चुनावी राजनीति में आना और 2013 में मुजफ्फरनगर में दंगों के भड़कने से टिकैत परिवार के प्रति लोगों के मन में एक अविश्वास की स्थिति पैदा हुई, यही कारण भी है कि राकेश टिकैत अपने पिता की विरासत को फिर से रीगेन करने की कोशिश में रहे, जिस में वे एक हद तक कामयाब भी होते दिख रहे हैं.
राकेश टिकैत जिस जमीन से आते हैं, वहां की विरासत में आंदोलन का उभार हमेशा से रहा है. उन का अतीत जमीनी दिखाई देता है. एक साल चले आंदोलन में यह एक जरूरी हिस्सा भी था कि किसान नेताओं ने अपनी बोली और भाषा से जमीन के किसानों को जोड़ा. राकेश टिकैत समेत संयुक्त किसान मोरचा में अधिकतर नेता लोकल बोली में या हिंदी बोली में अपनी बात कहते दिखे. खासकर, राकेश टिकैत अपने बोलने के तरीके से चर्चित रहे. सिसौली जाते समय लोनी का बौर्डर पार करते ही हम ने पूरे रास्ते इस बोली को आम लोगों के मुंह से सुना, जाहिर है लोग आसानी से राकेश टिकैत से जुड़ पाए. राकेश टिकैत के स्कूल और गांव के माहौल व परवरिश का नतीजा था कि वे खुद अडि़यल सरकार के सामने अडि़यल बनने की सीख सम?ा पाए.
आज राकेश टिकैत उत्तर भारत में एक बड़े किसान नेता के तौर पर उभरे हैं. उन की बात को सुना जा रहा है ठीक उसी वजन से जैसे प्रधानमंत्री मोदी को हिंदी बैल्ट में सुना जाता है. वे अपने पिता की तरह ऐसे नेता के तौर पर उभरते दिखाई दे रहे हैं जो जननेता हैं, बगैर चुनाव में जीते या खड़े हुए.
सरकार लोकतंत्र और विरोध की ताकत को खत्म कर देना चाहती है : राकेश टिकैत
23 दिसंबर, 2021 को किसान दिवस के अवसर पर राकेश टिकैत उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में थे. ओसीआर यानी पुराना विधायक निवास में रात के करीब 11 बजे उन के साथ हमारी बातचीत का वक्त तय हुआ. पूरा ओसीआर घने कोहरे में ढका था. उस समय भी उन के साथ किसान यूनियन के करीबी लोग अगले दिन की रणनीति बनाने में व्यस्त थे. टिकैत एक सामान्य नेता की तरह फोन और बातचीत में व्यस्त थे. बीचबीच में हमारे सवालों के जवाब देते जा रहे थे. लंदन स्थित स्क्वायर वाटरमेलन कंपनी ने राकेश टिकैत का नाम ‘21वीं सैंचुरी आइकन अवार्ड’ के लिए चुना. पेश है हमारे साथ हुई उन की बातचीत के प्रमुख अंश :
किसान आंदोलन की सफलता के बाद एक नेता के रूप में आने वाले समय में आप की क्या भूमिका होगी?
किसान आंदोलन स्थगित हुआ है. किसानों की समस्याओं का कोई सार्थक समाधान नहीं हुआ है. केंद्र सरकार ने एक भरोसा दिया है. सरकार वाले अपने भरोसे पर कितना खरा उतरेंगे, कहा नहीं जा सकता. कृषि कानूनों के अलावा भी किसानों के सामने तमाम परेशानियां हैं. एमएसपी की मांग भी है. सरकार ने कमेटी बना दी है जो इस के समाधान का रास्ता बनाएगी. किसानों की परेशानी जब तक खत्म नहीं होती, हमारा संघर्ष चलता रहेगा. हम किसानों को जागरूक करने के अपने काम में लगे हैं.
क्या आप चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं. कहा जाता है कि राजनीति के जरिए बदलाव होता है?
नहीं, चुनावी राजनीति से मेरा कोई लेनादेना नहीं है. मैं आप के जरिए साफ कर देना चाहता हूं कि मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा. मेरा मानना है और यह साबित भी हो चुका है कि सरकार को भी ?ाकाया जा सकता है. किसान संसद में नहीं थे. किसान नेता संसद में नहीं थे. इस के बाद भी पूरे 13 माह किसानों का मुद्दा ही वहां प्रमुखता से छाया रहा. किसानों की बात करने और उन को हक दिलाने के लिए राजनीति में जाने की जरूरत नहीं है. किसानों को एकजुट रह कर अपनी ताकत का एहसास कराते रहने की जरूरत है.
विधानसभा चुनावों के बाद क्या केंद्र सरकार कृषि कानूनों पर पलटी मार सकती है?
कुछ कहा नहीं जा सकता. यह पलटी मार भी सकती है. यह सरकार लोकतंत्र और विरोध की राजनीति को पूरी तरह से खत्म कर देना चाहती है. इस के लिए यह सामदामदंडभेद कुछ भी अपनाने को तैयार रहती है. किसान आंदोलन को खत्म करने के लिए हर स्तर पर काम किया गया. किसान अनुशासित सिपाही की तरह सड़कों पर बैठे रहे. किसानों के खिलाफ एक भी ऐसा काम नहीं मिला जिस से सरकार उन को दबा सकती. किसानों को बदनाम किया गया. रुपएपैसों को ले कर आरोप लगाए गए. आखिर में जब सरकार का ?ाठ उजागर हो गया तब वह ?ाकने लगी.
किसान आंदोलन के दौरान आप की मुलाकात लोकल, नैशनल और इंटरनैशनल मीडिया से हुई. क्या फर्क देखने को मिला?
लोकल मीडिया के लोग हमारी बात को सम?ा रहे थे. हमारे साथ भी थे पर उन की सुनी कम जा रही थी. नैशनल मीडिया में बहुत कम लोग हमारे साथ थे. इस के ज्यादातर लोग सरकार के साथ थे. हमें दोषी सम?ा रहे थे. वे आंदोलन करने वाले किसानों के बजाय सरकार के पक्ष में थे. यही कारण है कि जनता अब मीडिया का भरोसा नहीं कर रही. मीडिया अब नएनए तरह के काम करने लगी है जिस से जनता उस से जुड़ सके. इंटरनैशनल मीडिया की बात करें तो वह ज्यादा आजादी और निष्पक्ष से काम कर रही थी.
कृषि कानूनों के पीछे क्या वजहें सरकार की रही होंगी?
अपने लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए ये कानून बने थे. इसी कारण एमएसपी को ले कर सरकार कानून नहीं बना रही है. सरकारी मंडियों को खत्म करने की साजिश की जा रही है. किसानों को उन की उपज का सही दाम मिल गया तो किसान मजबूत हो जाएगा. सरकार मजबूत नहीं, मजबूर किसान चाहती है जो उस के इशारे पर नाचता रहे. सरकार किसानों की जमीन बड़ी कंपनियों को देने की तैयारी में थी. कंपनी का राज आने से किसान ही नहीं, दूसरे लोग भी परेशान होते.
जनता की रोटी बड़े लोगों की तिजोरी में कैद हो जाती. शहरी लोग भी सम?ा गए. पूरे देश में किसान आंदोलन को समर्थन मिलने लगा. अब लोग सरकार की नीतियों को सम?ा गए हैं. सरकार लोगों को लड़ाने और तोड़ने का काम करती है. आंदोलन में शामिल हुए सिख समाज के लोगों को खालिस्तानी बता दिया गया और मुसलमानों को पाकिस्तानी. उत्तर प्रदेश के किसानों को केवल जाट बता दिया गया. इन्होंने उत्तर प्रदेश के भीतर हिंदूमुसलिम दंगे कराए. ये लोग हरियाणा के अंदर गए तो वहां जाट और गैरजाट की राजनीति की. गुजरात के भीतर पटेल और गैरपटेल की राजनीति की.
2022 के चुनाव में सत्ता बदलेगी?
सत्ता बदलेगी जरूर. लखीमपुर कांड का सच बाहर आ रहा है. दागी मंत्री को साथ रखने का प्रभाव पड़ेगा. किसान लखीमपुर कांड को भूल नहीं सकते. लोग यह भी सम?ा रहे हैं कि यह सरकार विरोध और लोकतंत्र का खत्म करने का काम कर रही है. संस्थाओं को निष्पक्ष तरह से काम नहीं करने दे रही. इस के लिए बदलाव तो होगा.
आप का व्यक्तिगत जीवन कैसा रहता है?
हम किसानों के बीच, मजदूरों के बीच उन की परेशानियों को सम?ाने और उन को जागरूक करने में समय बिताते हैं. हमें घर पर समय बिताने का वक्त नहीं मिलता. हमारा लगातार जनसंपर्क चलता रहता है. दूरदूर के किसान और उन के परिवार के लोग फोन करते हैं. अब तो सीधे वीडियो कौल करने लगे हैं. जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने की आदत है. आजकल जल्दी सो नहीं पा रहा हूं.
सड़क से धरना खत्म होने के बाद घर जाना कैसा लग रहा था?
हमें तो घर जाने को नहीं मिला. हम तो वापस किसानों को उन के हक के लिए जगाने की मुहिम में लग गए. धरने में शामिल दूसरे किसान बड़े बेमन से घर जा रहे थे. उन को लग रहा था कि वे अपने लोगों से बिछुड़ रहे हैं. घरों में हमारे परिवार के लोग घरेलू काम करते थे. धरने पर हम लोग ही आपस में काम बांट लेते थे. सब काम करते थे. अपने कपड़े हम ही धोते थे. किसानों के हौसले अब बढ़ चुके हैं. वे अब सरकार से डरने वाले नहीं हैं. सरकार कोई गलत कदम उठाएगी, हम वापस उस का गला पकड़ लेंगे. अब किसान तैयार है.
आप पर बहुत सारे कटाक्ष हुए. आरोप लगे. गुस्सा आता रहा होगा सुन कर. कैसे खुद को संभालते थे?
गलत बात सुन कर बुरा लगता है. पहले भी, अब भी. गुस्सा भी आता है. दुख भी होता है. इस के बाद खुद ही खुद को संभालता था. सब को नौर्मल करते हुए अपने फैसले साथियों की सलाह से करते थे. गुस्से या दुख को कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया. 26 जनवरी की घटना और लखीमपुर कांड के बाद खुद को संभालने में थोड़ा वक्त लगा पर सब ठीक किया. आज लगता है कि हमारा फैसला किसानों के हित में था.
-शैलेंद्र सिंह
सरकार हठी और जिद्दी है : चौधरी नरेश टिकैत
चौधरी नरेश टिकैत भारतीय किसान यूनियन के मौजूदा अध्यक्ष हैं. उन्हें 84 गांवों में चौधरी की उपाधि मिली है. गांव में लोग उन्हें ‘बाबा’ कह कर बुलाते हैं. वे बाबा महेंद्र सिंह टिकैत के सब से बड़े बेटे और राकेश टिकैत के बड़े भाई हैं. नरेश टिकैत से हमारी मुलाकात तब हुई जब वे भूसा काटने वाली मशीन चला रहे थे. गांव के लोगों का उन के बारे में कहना था कि उन का व्यवहार बेहद सरल है. वे आम लोगों की तरह रहते हैं, सादा खाना खाते हैं, खेत में काम करने से ले कर गोबर उठाने और ट्रैक्टर चलाने तक वह सामान्य किसान की तरह काम करते हैं. चौधरी नरेश टिकैत ने ‘सरिता’ पत्रिका को इंटरव्यू दिया. पेश हैं कुछ अंश :
मुजफ्फरनगर की महापंचायत में आप ने ऐसा क्या किया कि इतनी संख्या में किसान इकट्ठा हो गए?
ऐसा नहीं है कि आंदोलन में रह कर ही आंदोलन चलता है. बाहर से भी तो आंदोलन को सपोर्ट चाहिए होता है. क्षेत्र के लोगों की आवाज क्या है, वे आंदोलन
चाह रहे हैं या नहीं तो हम ने यहां से इस चीज को देखा है. आंदोलन सफल रहा,
लोगों ने सहयोग किया. किसानों की तौहीन की गई, वही आंदोलन के लंबे चलने का कारण रहा.
न्याय की लड़ाई लड़ने में अब लंबा समय लग रहा है, जिस से किसानों का पैसा और समय दोनों बरबाद हो रहा है, इसे आप कैसे देखते हैं?
किसी भी पार्टी की सरकार रही हो, पहले किसानों की इतनी अनदेखी नहीं होती थी. बातचीत 10-15 दिनों या महीनेभर में निबट जाती थी. आश्वासन दे दिए जाते थे या बात मान ली जाती थी. यह सरकार हठी और जिद्दी है. लेकिन ऐसा नहीं चलेगा, लोकतंत्र में इस की जगह नहीं है. इस ने कोई संगठन नहीं छोड़ा जब लोग मजबूरी में आंदोलन करने के लिए आगे न आए हों. इतने बड़े आंदोलन के आगे सरकार ?ाकने को तैयार नहीं थी तो यह देखा जा सकता है कि मौजूदा सरकार किस हद तक दमन का रास्ता अपना रही थी.
सरकार की नीतियों पर आप का क्या कहना है?
इन की अलग नीतियां हैं. हम तो यही चाहेंगे इन के पास कोई अच्छा सलाहकार हो. मौजूदा सरकार के लोग इस देश को गिरवी रख रहे हैं. सब चीजें बेच रहे हैं. आज हवाई अड्डे बेच दिए, रेल बेच दी, बिजली बेच दी, छोड़ा क्या? सबकुछ प्राइवेट में जा रहा है. कांग्रेस में इतना नहीं था. हम तो यही कहेंगे कि इस देश ने जिम्मेदारी सौंपी है तो वे लोग उसे ईमानदारी से निभाएं.
एमएसपी का गारंटी कानून का मुद्दा हल होता है तो किन किसानों को फायदा पहुंचेगा?
किसान तो सभी हैं. हमारे पास गेहूं कम है, हम छोटे किसान हैं. हम 50 क्ंिवटल गेहूं ही बेच सकें तो 50 क्विंटल गेहूं का हमें अगर एमएसपी गारंटी रेट मिले तो हमारा फायदा होगा.
कृषि कानून नहीं होते तो भारतीय किसान यूनियन किन मुद्दों पर अपने क्षेत्र में ऐक्टिव थी?
हमारे लोकल मुद्दे हैं. अभी तो किसानों के अस्तित्व की लड़ाई है, बाकी बिजली के मुददे, अच्छी सड़कों का मद्दा, बकाया गन्ने का दाम जो सरकार अटका कर रखती है, अभी हमारा 5 महीने का पेमैंट बकाया है. अब बताओ अच्छी सड़क का मुद्दा किसानों से अलग थोड़ी है. हमारे ट्रैक्टर ऊबड़खाबड़ सड़कों में चलेंगे तो जल्दी खराब हो जाएंगे, रिपेयरिंग मांगेंगे, किसानों का पैसा लगेगा.
हरहर महादेव और अल्ला हू अकबर के नारे की क्या अहमियत है?
मुसलमान हरहर महादेव कह रहे हैं हिंदू अल्ला हू अकबर कह रहे हैं तो यह धार्मिक मतभेदों को मिटाने का नारा है. यह नारा तो बीच की दूरियों को मिटाने का काम कर रहा है. हम तो लोगों को जोड़ रहे हैं, वे लोगों को तोड़ रहे हैं. जातिमजहब सिर्फ विवाहशादी तक सीमित रखो, उस से अलावा सब एक हैं.