उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी और पंजाब में कांग्रेस को जनता ने बहुमत से सरकार बनाने का मौका दे कर चुनौती दी है कि अब वे इन प्रदेशों को विकास की राह पर आगे ले जाएं. इन दलों ने चुनाव में जनता से जो वादे किए थे, उन को पूरा करें.

उत्तर प्रदेश में अब तक भारतीय जनता पार्टी को इस बात का मलाल था कि इस राज्य में उस की सरकार नहीं है. ऐसे में वह प्रदेश का सही विकास नहीं कर पा रही है. उत्तर प्रदेश ने पहले 73 सांसदों और अब 325 विधायकों का साथ दे कर भाजपा के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा कर दिया है. कानून व्यवस्था बनाए रखने, भ्रष्टाचार खत्म करने और विकास को गति देने के लिए भाजपा के सामने अब बच कर निकलने का कोई रास्ता जनता ने नहीं छोड़ा है. उत्तर प्रदेश की जनता ने यह भी दिखा दिया है कि बहुमत हासिल करने वाली पार्टी को वह अर्श से फर्श पर भी उतार सकती है. साल 2007 में जीती बहुजन समाज पार्टी और साल 2012 में जीती समाजवादी पार्टी इस की मिसाल हैं. दलित और पिछड़े समाज के चिंतक मानते हैं कि मुलायम सिंह यादव और कांशीराम की ही तरह मायावती और अखिलेश यादव को भी मिल कर ‘नव हिंदुत्व’ का मुकाबला करना होगा.

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने अगड़ों, पिछड़ों और दलितों का नया समीकरण बना कर सब से बड़ी जीत हासिल की है. 1991 की राम लहर में भी भाजपा को इतनी सीटें नहीं मिली थीं. अब वह अगड़ापिछड़ा और दलित गठजोड़ को कैसे एकजुट रख पाएगी, यह बड़ी चुनौती होगी. भाजपा के लिए चिंता करने वाली यह बात भी है कि लोकसभा चुनाव के मुकाबले विधानसभा चुनाव में उस का वोट फीसदी कम हुआ है. लोकसभा चुनाव में भाजपा को 42.63 फीसदी वोट मिले थे, जबकि विधानसभा चुनाव में यह फीसदी 39.70 पर आ गया है.

भाजपा के साथसाथ सपा और बसपा के लिए भी यह चुनौतियों भरा समय है. मायावती के काम करने के तरीके का जादू टूट रहा है, तो सपा के मंडल की राजनीति पर खतरा उमड़ रहा है. जिस तरह का बहुमत भाजपा को मिला है, कांग्रेस को भी किसी दौर में ऐसा बहुमत मिल चुका है. ऐसे प्रचंड बहुमत के बाद चुनौतियों की कला से निबटना सब से बड़ी कामयाबी मानी जाती है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के कुछ समय पहले की बात है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह लखनऊ की मोहनलालगंज संसदीय सीट से सांसद कौशल किशोर के घर गए थे. कौशल किशोर दलित बिरादरी के नेता हैं. वे भाजपा के विरोधी भी रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में वे भाजपा में शामिल हुए और सांसद बने थे.

अमित शाह ने कौशल किशोर के घर जा कर यह संदेश दिया कि भाजपा अब दलित जातियों के साथ सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना चाहती है. कौशल किशोर के घर गए अमित शाह ने वहां पर भोजन किया था. आमतौर पर कोई बड़ा नेता जब ऐसे किसी कार्यकर्ता के घर जाता है, तो बाहरी लोग खाना बनाने का काम करते हैं, पर अमित शाह ने घर के बने भोजन को खाने की बात कही थी. कौशल किशोर के परिवार के लोगों और उन की पत्नी ने जो भी अपनी रसोई में बनाया था, उसे बड़ी तारीफ के साथ अमित शाह ने खाया था. वहां मौजूद सभी को सुखद आश्चर्य हुआ था कि इतनी बड़ी पार्टी का नेता कितने सहज भाव से एक दलित के घर खाना खाने गया था.

2014 के लोकसभा चुनाव तक भाजपा को अगड़ी जातियों खासकर बनियों की पार्टी माना जाता था.  मोदीशाह की जोड़ी ने इस सोच को बदलने की शुरुआत की. लोकसभा चुनाव में जीत के बाद मोदीशाह की जोड़ी को एक बल मिला. भाजपा में अगड़ी जतियों का दबदबा कमजोर हुआ. लोकसभा चुनाव में भाजपा ने दूसरी पार्टियों से दलित नेताओं को शामिल किया. इन में छोटेबड़े तमाम तरह के नेता शामिल हुए. ‘अपना दल’ की अनुप्रिया पटेल, बिहार से रामविलास पासवान, महाराष्ट्र से रामदास अठावले, उदित राज, कौशल किशोर ऐसे बहुत सारे नाम इस लिस्ट में शामिल हैं. भाजपा में दलित और पिछड़े नेता पहले भी रहे हैं. ये नेता हाशिए पर होते थे. अगड़ी जातियों के नेता उन को अपने दबाव में रखते थे. मोदीशाह की जोड़ी ने इन नेताओं को आगे बढ़ाने का काम शुरू किया. उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल और कौशल किशोर जैसे नेताओं को नई पहचान दी.

सपा बसपा से नाराजगी

पहली बार अमित शाह ने पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ बना कर पाल और गड़रिया समुदाय के नेता एसपीएस बघेल को उस का प्रदेश अध्यक्ष बनाया. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पद पर अगड़ी जातियों के दावे को दरकिनार करते हुए केशव प्रसाद मौर्य को कुरसी दी. उत्तर प्रदेश में दलित जातियों में जाटव बिरादरी के बाद पासी सब से बड़ी तादाद में हैं. बसपा पासी और जाटव बिरादरी के सहारे ही आगे बढ़ी थी. पासी धीरेधीरे अपनी अनदेखी से नाराज हो कर बसपा से टूट गए. भाजपा ने पासी बिरादरी को अपने से जोड़ने के सिलसिले में पासी बिरादरी में असर रखने वाले नेताओं को आगे बढ़ाया. पूर्वांचल में राजभर समुदाय बड़ी तादाद में है, जो बसपा और सपा दोनों की अनदेखी का शिकार था. भाजपा ने राजभर समुदाय के ओमप्रकाश राजभर को अपने साथ लिया. केंद्रीय मंत्रिमंडल से ले कर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के गठबंधन तक में भाजपा ने अपने छोटेछोटे सहयोगियों को पूरा हक दिया.

लोकसभा चुनावों में मिली जीत के बाद ही मोदीशाह का ‘मिशन उत्तर प्रदेश’ शुरू हो चुका था. अपने अगड़े वोट बैंक की नाराजगी के जोखिम कोे दरकिनार करते हुए इस मोदीशाह जोड़ी ने गैरजाटव दलितों और गैरयादव पिछड़ों को भरपूर अहमियत दी. चुनावी टिकट देने के समय भाजपा ने 70 टिकटें गैरजाटव दलितों और 112 टिकटें पिछड़ों को दीं. चुनाव के पहले भाजपा ने 2 सौ से ज्यादा पिछड़ा वर्ग सम्मेलन और दलित सम्मेलन कराए. भाजपा ने 90 हजार कार्यकर्ताओं की पैदल सेना तैयार की थी, जिस में सब से ज्यादा दलितपिछड़े तबके के लोग थे. अगड़ी जातियों की नाराजगी को कम करने के लिए भाजपा ने राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र को चुनाव प्रचार में आगे रखा.

गैरजाटव जातियां इस वजह से परेशान थीं कि उन को बसपा में हक नहीं मिल रहे थे. गैरयादव पिछड़े सपा में यादव बिरादरी के बढ़ते दबदबे से नाराज थे. भाजपा ने इसी वोट बैंक में सेंधमारी की. इन जातियों में जातीयता की बात को दबा कर धर्म, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाया. भाजपा ने मुसलिम बिरादरी को एक भी टिकट न दे कर परोक्ष रूप से धार्मिक तुष्टीकरण को नई परिभाषा दी. सपा और बसपा जैसे दल इस चाल को समझ नहीं पाए. वे मुसलिम तुष्टीकरण की राह पर आगे चल पड़े. उत्तर प्रदेश विधानसभा के शुरुआती दौर में भाजपा ने इस बात को हवा देने में परहेज किया. इस के बाद जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुसलिम बहुल इलाकों का चुनाव खत्म हो गया, तो भाजपा ने हिंदुत्व के प्रतीक चिह्नों को उठा कर हिंदुत्व का ऐसा धुव्रीकरण किया, जो अंडर करंट के रूप में था. भाजपा को जितनी उम्मीद थी, उस से ज्यादा समर्थन उसे हासिल हुआ.

मुश्किल दौर में बसपा

बहुजन समाज पार्टी केवल एक दल नहीं है, यह एक विचारधारा थी, जिस के सहारे समाज का सब से कमजोर तबका अपने को सहज पाता था. बसपा उस के हकों को ले कर सजग थी. कांशीराम ने भाजपा के राम मंदिर कार्ड को जवाब देते हुए दलितपिछड़ा गठजोड़ बनाया था, जिस के तहत ‘मिले मुलायमकांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ जैसे नारे लगे थे. पर समय के साथसाथ बसपा अपनी नीतियों पर नहीं चल पाई. कांशीराम के बाद सत्ता मायावती के हाथ में आई, तो बसपा के जनाधार में गिरावट शुरू हो गई. दलित जातियों में राजनीतिक चेतना के आने से गैरजाटव जातियां अपने को बसपा में अनदेखा महसूस करने लगीं. यही वजह थी कि बसपा धीरेधीरे अपने बेस वोट को खोने लगी. पार्टी पर अपना दबदबा मजबूत रखने की कोशिश में मायावती दूसरे नेताओं को पार्टी के साथ नहीं जोड़ पाईं, जिस के चलते कांशीराम के समय के बसपा नेता पार्टी से दूर होते गए.

सत्ता के जरीए सामाजिक ताकत हासिल करने के सिद्धांत पर अमल करते हुए बसपा ने भाजपा से 3 बार समर्थन ले कर सरकार बनाई थी. तब मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं. दलितों को तब बसपा में केवल जाटव जातियों का असर नजर आने लगा था  गैरजाटव जातियां और उन के नेता अनदेखी का शिकार हो कर बसपा से टूटने लगे. गैरजाटव जातियों के टूटने से पार्टी को मजबूत बनाने की कोशिश में मायावती ने दलितब्राह्मण गठजोड़ की सोशल इंजीनियरिंग को तैयार किया. 2007 में बसपा बहुमत से सरकार बनाने में कामयाब रही. बसपा की इस सरकार के समय ही दलितों को अपनी अनदेखी खुल कर नजर आने लगी. बहुमत की सरकार में मायावती अपनी छाप छोड़ने में नाकाम रहीं. यहीं से बसपा के जनाधार का टूटना शुरू हो गया था. 2009 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने प्रधानमंत्री बनने का सपना देखा था, पर उस चुनाव में बसपा को मनचाही कामयाबी नहीं मिली. 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा सत्ता से बाहर हुई, तो बसपा की धुर विरोधी सपा सरकार में आ गई.

2014 के लोकसभा चुनावों में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली. 2017 के विधानसभा चुनावों में बसपा सत्ता की सब से प्रमुख दावेदार थी. इस के बाद भी उस को महज 19 सीटें ही मिल पाईं. यह मायावती के काम करने के तरीके पर सब से बड़ा सवाल है. बसपा का कोर वोटर टूट रहा है. मायावती का जादू ढलान पर है. बसपा को 1991 में विधानसभा में 12 सीटें मिली थीं. 2017 में वह वापस 19 सीटों पर सिमट गई है. इस बात का अहसास मायावती को था. इस की कमी को पूरा करने के लिए ही मायावती ने दलितमुसलिम गठजोड़ की खिचड़ी पकाने की तैयारी की थी, पर इस का स्वाद पूरी तरह से बेस्वाद नजर आया.

बसपा के पास अब उत्तर प्रदेश में इतने विधायक भी नहीं बचे हैं, जिन के सहारे पार्टी प्रमुख मायावती 2018 में राज्यसभा में अपनी सदस्यता को बचाए रख पाएं. पार्टी में इतने विधायक भी नहीं हैं कि वे उत्तर प्रदेश की विधानसभा में सदस्य विधानपरिषद बनी रह सकें. ऐसे में राष्ट्रीय पार्टी का तमगा भी बचा रहना मुश्किल है. मायावती लोकसभा और विधानसभा का चुनाव कम ही लड़ती हैं. ऐसे में वे राज्यसभा को अपने लिए बेहतर जरीया समझती हैं. मायावती की राज्यसभा सदस्यता 2 अप्रैल, 2018 को खत्म हो रही है. ऐसे में दोबारा वे राज्यसभा कैसे पहुंचेगी, यह मुश्किल सवाल है. दरअसल, बसपा ने चुनाव में जीत को हासिल करने के लिए ऐसे करोड़पति नेताओं को टिकट देना शुरू किया, जिन को दलित समाज से कोई लेनादेना नहीं होता था. ऐसे लोग बसपा से टिकट और दलितों से वोट पा कर चुनाव जीत जाते थे. समाज के लिए कुछ न करने से लोग ऐसे नेताओं से नाराज होने लगे. ऐसे लोगों में से ज्यादातर ठेकेदार, प्रौपर्टी डीलर जैसे लोग होते थे. इन लोगों को टिकट देने के लिए जमीनी नेताओं की अनदेखी की जाती थी. 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने सब से ज्यादा करोड़पति नेताओं को टिकट दिए.

अब दलित समाज भी जागरूक हो गया है. उसे अपनी अनदेखी का अहसास होने लगा है. वह धीरेधीरे अपने हकों को लेने और समझने लग गया है. भाजपा ने ऐसे दलित और पिछड़े तबके के दर्द को समझते हुए उन को ‘नव हिंदुत्व’ का पाठ पढ़ाया और धर्म के नाम पर भाजपा के पक्ष में खड़ा कर लिया.  भाजपा ने ‘नव हिंदुत्व’ के नाम पर दलितों को अपने साथ तो जोड़ लिया है, पर जमीन पर दलितों को इज्जत दिलाना मुश्किल काम है. आज भी समाज में छुआछूत और गैरबराबरी का भाव फैला हुआ है. मायावती अपनी इस हार को भले ही ईवीएम मशीनों की गड़बड़ी से जोड़ कर देख रही हैं, पर असल बात यह है कि उन के काम करने के तरीके का जादू खत्म हो गया है. बसपा के आंदोलन को बचाने के लिए मायावती को अपने अहम को खत्म करते हुए नए प्रयोग करने होंगे, नहीं तो बसपा के साथ दलितों की आवाज के गुम हो जाने का खतरा मंडरा रहा है.

हाशिए पर मंडल राजनीति

अयोध्या के राम मंदिर आंदोलन के पहले मंडल आयोग ने जिस तरह से हिंदी बोलने वाले प्रदेशों की राजनीति को प्रभावित किया था, अब वह दौर खात्मे की ओर है. बसपा में जिस तरह से मायावती का राज चला, उसी तरह से सपा में मुलायम सिंह यादव और उन के परिवार का कब्जा हो गया. गैरजाटव की तरह गैरयादव जातियां सपा से टूटने लगीं. 2012 में बसपा को हराने के लिए सपा के साथ पिछड़ी और अगड़ी जातियां बड़ी तादाद में एकजुट हो गईं और सपा की सरकार बहुमत से बनी. सरकार बनने के बाद गैरयादव जातियां हाशिए पर सिमटने लगीं. बड़ी तादाद में दूसरे यादवों के साथसाथ मुलायम परिवार सत्ता में शामिल हो गया. 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा के जो 5 लोग चुनाव जीते, वे सभी मुलायम परिवार के थे. अखिलेश सरकार के आखिरी साल में पार्टी परिवार के विवाद में फंस गई. पारिवारिक कलह के चलते पार्टी में टूटफूट हो गई. मुलायम सिंह यादव हाशिए पर चले गए और अखिलेश यादव पार्टी के नए अगुआ बन गए. मुलायम सिंह यादव की राजनीति का जन्म समाजवाद और मंडल की राजनीति से हुआ था. वे सपा में सब को साथ ले कर चलते थे. यह समीकरण बाद में टूट गया.

अखिलेश यादव ने अपनी टीम में परिवार के नौजवानों पर भरोेसा किया. पार्टी में गैरयादव जातियों को पूरा हक नहीं मिल सका. अखिलेश सरकार पर खुल कर आरोप लगे कि सरकारी नौकरियों में पक्षपात किया गया. अखिलेश यादवों के साथ अपने विकास के मौडल पर चल रहे थे. वे गैरयादव जातियों की नाराजगी को समझ नहीं पाए और कांग्रेस से गठजोड़ करने के बाद भी बुरी तरह से चुनाव हार गए. भाजपा ने मंडल के दौर की राजनीति को खत्म करने की कोशिश की है. इस से सपा को सब से ज्यादा झटका लगा है.  अखिलेश यादव को लगता है कि उत्तर प्रदेश में समझाने से नहीं बहकाने से वोट मिलता है. इस बात के पक्ष में उन के अपने तर्क हो सकते हैं. सरकार बनाने के लिए सत्ता में रहने वाले दल अपने घमंड को अगर छोड़ कर काम करें, तो शायद जनता तक पहुंच पाना आसान हो जाए. समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता शिवपाल यादव ने कहा कि विधानसभा में समाजवाद की नहीं, घमंड की हार हुई है. चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के लिए समय माकूल नहीं है. बसपा के सामने जहां अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करने की चुनौती है, वहीं सपा के लिए घरेलू झगड़ों से पार पाना होगा.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...