सरकार को चारों तरफ से घेरने की अग्र जिम्मेदारी जिन मीडिया चैनलों पर थी, वे पहरेदार बन उस का बचाव करने में जुटे हैं. टीवी न्यूज चैनलों द्वारा किसानों की समस्याएं, बेरोजगारी, महंगाई जैसी दिक्कतों को छिपाने के भरसक प्रयास और गैरजरूरी मुद्दे उठाए जाना एक सोचेसम?ो षड्यंत्र का हिस्सा है. अधिकांश चैनलों द्वारा असल मुद्दों को धूल की तरह कारपेट के नीचे छिपाया जा रहा है. आज पूरे विश्व में हिटलर और उस की दहशत के बारे में कौन नहीं जानता.

ऐसा क्रूर शासक जिस के बारे में प्रचलित किस्सेकहानियां आज भी दिल दहला देती हैं, सोचने को मजबूर कर देती हैं कि क्या लोकतंत्र के दमन का ऐसा भी कोई शासन चलाया जा सकता था? इस प्रश्न का जवाब यदि हिटलर युग में ढूंढ़ा जाता तो शायद न मिलता लेकिन आज इस का जवाब जोसेफ गोएबल्स के रूप में मिलता है. जोसेफ गोएबल्स नाजी जरमनी का मिनिस्टर औफ प्रोपगंडा था. गोएबल्स का कहना था, ‘एक ?ाठ को अगर बारबार दोहराया जाए तो वह सच बन जाता है और लोग उसी पर यकीन करने लगते हैं.’ बात बिलकुल सही थी, इसलिए पूरे विश्व में हिटलर के राज और गोएबल्स के काज को मानने वाले संकीर्ण लोगों ने इसे तहेदिल से स्वीकार किया. अब गोएबल्स तो नहीं रहा लेकिन उस की कही बातें कइयों के मनमस्तिष्क में घर कर गई हैं.

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और आधुनिक तकनीकी युग में हमारे देश भारत में हर शाख पर गोएबल्स सरीखे खड़े कर दिए गए हैं जिन का काम सिर्फ सरकार या कहें मोदी की चाटुकारिता करना व देशवासियों को गुमराह करना है. भारत में यह जिम्मा सीधेतौर पर न्यूज चैनलों को भी दे दिया गया है. कहने को चैनल्स जन की आवाज हैं पर उन के असल रिंग मास्टर नरेंद्र मोदी हैं. यही कारण है कि उन के प्रधानमंत्रित्व वाली सरकार के कार्यकाल के दौरान चैनलों के लिए ‘गोदी मीडिया’ शब्द ईजाद हुआ. इस की कई वजहें हैं. पिछले साल की बात है, देशवासियों पर कोरोना के बढ़ते कहर का जितना असर पड़ा, उस से कहीं अधिक असर सरकार की बदइंतजामी का पड़ा. अच्छेखासे चलते व्यापार ठप पड़ गए, करोड़ों ने अपनी नौकरियां गंवाईं और शहरों में रहने वाले प्रवासी मजदूर सैकड़ों मील पैदल अपने गांव जाने को मजबूर हुए. किंतु न्यूज चैनलों ने इन समस्याओं पर सरकार से सवाल करने की जगह जनता से दीया, टौर्च जलाने और तालीथाली पीटने के बेवकूफीभरे कृत्य करने पर जोर दिया. यही नहीं, भाजपाई सरकार के शासन के बीते सालों में नोटबंदी, जीएसटी जैसी आर्थिक (कु)नीतियां थोपी गईं, जिन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर डाला. हैरानी यह है कि तब भी टीवी चैनल सरकार का बचाव करते दिखे.

और अब, जब कृषि कानून जैसी सुसाइडल नीतियां देश पर थोपी जा रही हैं तब भी चैनलों का एक बड़ा धड़ा सरकार की ही गोद में बैठा हुआ है. इस का हालिया उदाहरण हरियाणा के करनाल में किसानों पर 28 अगस्त को की गई बर्बर लाठीचार्ज की घटना है जिस में एक किसान की मौत और कई किसान बुरी तरह घायल हुए. प्रशासनिक पद पर बैठे अधिकारी किसानों का ‘सिर फोड़ने’ का सीधा आदेश देते पाए गए. ऐसे आदेश के बाद कई किसानों के सिर फूटे भी, लेकिन मेनस्ट्रीम चैनलों से यह घटना गायब रही. इस घटना के बाद जब लाखों किसान राजधानी दिल्ली से मात्र 100 किलोमीटर की दूरी पर करनाल सचिवालय में न्याय की गुहार लगाने पहुंचे, तब भी चैनलों के कानों में जूं न रेंगी. चैनलों पर पूरे समय तालिबान-पाकिस्तान ही छाया रहा. यह भारतीय न्यूज चैनलों का षड्यंत्र ही था कि न तो उन्होंने किसानों पर हुए लाठीचार्ज को कवर किया,

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न ही किसानों की उस दौरान ऐतिहासिक जीत या कहें कि 7 सालों में जनता की तरफ से भाजपा सरकार की पहली हार को जगह दी. टीवी चैनलों का इसी तरह का फर्जीवाड़ा 20 सितंबर को अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष और निरंजनी अखाड़ा के सचिव महंत नरेंद्र गिरि की आत्महत्या मामले को ले कर दिखा. एक मामूली सी आत्महत्या की घटना को पूरे देश में जानबू?ा कर नैशनल मुद्दा बना कर तिल का ताड़ बनाया गया. इस मुद्दे का ताल्लुक न तो भुखमरी से मर रहे मजदूरों से था, न किसानों की हर वर्ष होने वाली आत्महत्या से था और न ही बेरोजगारों की फटेहाल जिंदगी से, लेकिन चूंकि लोगों को षड्यंत्र के तहत फालतू मुद्दों से भटकाना था तो यही चलाया गया. हाल की इन दोनों घटनाओं के विश्लेषण से आसानी से सम?ा जा सकता है कि आज टीवी चैनल सूचनाओं के मामले में किस गिरावट से गुजर रहे हैं. इस से यह साफ हो जाता है कि ज्यादातर न्यूज चैनल सरकारी चाटुकारिता में लगे हैं. हालांकि, इन के द्वारा किया जा रहा यह कृत्य लोकतंत्र की कब्र खोद रहा है.

सरिता टीम ने इन दोनों इवैंट्स पर टीवी न्यूज चैनलों की प्राइम टाइम कवरेज का विश्लेषण किया, जो इस तरह है- द्य इंडिया टीवी स 9 सितंबर : रात 8 बजे ‘हकीकत क्या है’ के तहत सब से पहले 13वीं ब्रिक्स समिट की बात की गई. फिर बाराबंकी यूपी में असदुद्दीन ओवैसी की रैली, ओवैसी का मुख्य एजेंडा, ‘यूपी में मुसलमानों का नेता क्यों नहीं है,’ सीएम की दावेदारी, गणेश चतुर्थी के नाम पर लोगों के धार्मिक उन्माद इत्यादि दिखाया गया. रात 9 बजे ‘आज की बात रजत शर्मा के साथ’ के प्राइम टाइम में पाकिस्तान से 40 किलोमीटर दूर कैसे जैगुआर और हरक्यूलिस विमान उतारे गए, नितिन गडकरी का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू, पाकिस्तान के बाजार में अमेरिकी हथियार की खुलेआम बिक्री, प्रियंका गांधी के यूपी और राहुल गांधी का वैष्णो देवी के दरबार में जाने के समाचार को बताया गया. स 21 सितंबर : प्राइम टाइम में रात 8 से 10 बजे के बीच एक घंटे से भी ज्यादा समय की कवरेज दी गई वह था महंत महेंद्र गिरि की मौत.

रात 8 से 8:30 बजे तक महंत की आत्महत्या और सुसाइड नोट पर जम कर जांचपड़ताल हुई. फिर करीब 20 मिनट का समय मोदी के अमेरिका भ्रमण पर केंद्रित रखा गया. रात 9 बजे ‘‘आज की बात रजत शर्मा के साथ’’ की शुरुआत हुई. इस में भी कैमरों का फोकस महंत महेंद्र गिरि के मठ के आसपास, उस के चेलों और सहयोगियों के चेहरों पर और सुसाइड नोट के पन्नों पर घूमने लगा. रजत शर्मा के इस एक घंटे के प्रोग्राम में करीब 45 मिनट का समय महंत की आत्महत्या को दिया गया. द्य आजतक स 9 सितंबर : रात 8-10 बजे के बीच दिखाए जाने वाले कार्यक्रमों में फोकस भाजपा सरकार का इंटरनैशनल प्रोपगंडा, गणपति के नाम पर धर्म का वही पुराना तमाशा, आतंकवाद और तालिबान के नाम पर मिसलीडिंग रिपोर्ट, फिल्मी नौटंकी, क्रिकेट का फर्जी गुणगान, गैरजरूरी पब्लिसिटी इत्यादि पर ही केंद्रित था. स 21 सितंबर : रात 8-10 बजे का पूरा प्राइम टाइम बाबा की मर्डर मिस्ट्री को समर्पित कर दिया, वहीं देश की जरूरी खबरों को सिर्फ 5-7 मिनट की हैडलाइन तक ही सीमित रखा. द्य टीवी 9 भारतवर्ष स 9 सितंबर : रात के 8 बजे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान के मुद्दे पर खास कार्यक्रम दिखाया गया.

यह आधा घंटे का प्रोग्राम था. रात के 8.30 बजे सुपर प्राइम टाइम कार्यक्रम था, जिस में आधे घंटे में ‘कैसे फरार हुए 6 फिलिस्तीनी कैदी’ पर फोकस था. तालिबान पर 100 फटाफट खबरें दिखाई गईं, जिन का देश की समस्याओं से कोई लेनादेना न था. रात के 9 बजे ‘फिक्र आप की’ कार्यक्रम में ‘पाकिस्तान की शामत आई,’ भारत की सामरिक ताकत में इजाफा, सड़क पर फाइटर जहाज की लैंडिंग, जिस में हाईवे पर फाइटर जहाज की लैंडिंग को दिखाया गया. स 21 सितंबर : रात 8-10 बजे के बीच चैनल में महंत नरेंद्र गिरि की मौत पर फोकस, 13 पन्नों के सुसाइड नोट को बारीकी से पढ़ा गया, महंत आनंद गिरि के बारे में उन की ‘कर्मकुंडली,’ जमीन विवाद को नया रंग दिया गया, पूरी संपत्ति का ब्योरा दिया गया, महंत नरेंद्र गिरि की अरबों की संपत्ति की जानकारी भी दी गई.

न्यूज नैशन स 9 सितंबर : रात के 8 बजे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान के मुद्दे पर खास कार्यक्रम दिखाया गया. टैलीविजन कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला की मौत पर सवाल उठाए गए. 8.30 बजे ‘देश की बहस’ कार्यक्रम में कुछ लोगों के पैनल में बहस दिखाई गई. बहस में भारतपाकिस्तान के कुछ बुद्धिजीवियों की आपसी तूतूमैंमैं ही थी. यह कुल एक घंटे की बहस थी, जो समय की बरबादी से ज्यादा कुछ नहीं थी. स 21 सितंबर : रात 8 बजे खबर ‘कट टू कट’ में महंत नरेंद्र गिरि की मौत पर ‘गुरु चेला और ब्लैकमेल’ के नाम से प्रोग्राम चलाया गया. उन के लिखे गए सुसाइड नोट की पड़ताल की गई, आनंद गिरि पर निशाना साधा गया, आनंद गिरि की विलासिता से भरी जिंदगी पर रोशनी डाली गई. रात 8.30 बजे पत्रकार दीपक चौरसिया ने ‘देश की बहस’ नामक अपने कार्यक्रम में महंत नरेंद्र गिरि पर ही फोकस रखा. जिस में कुछ भी नया नहीं था.

इस में भी उसी खबर को आगे बढ़ाया गया जो पिछले आधे घंटे से चल रही थी. द्य जी हिंदुस्तान स 9 सितंबर : रात 8 बजे ‘वंदे मातरम’ शो चीन, तालिबान और पाकिस्तान के संबंध पर केंद्रित था. रात 8.40 पर दूसरा शो ‘मेरा राज्य मेरा देश’ में चीन, तालिबान और पाकिस्तान को ले कर ही खबरें थीं. 9 बजे ‘राष्ट्रवाद’ के प्राइम टाइम में चर्चा मोदी के मास्टरस्ट्रोक को ले कर थी. रूस, अमेरिका और भारत की एनएसए लैवल मीटिंग और बाड़मेर में रनवे को ले कर बात, पाकिस्तान में इमरान के महिलाओं पर कमैंट और ओवैसी की रैली की खबरें ही दिखाई गईं. स 21 सितंबर : जी हिंदुस्तान पर रोजाना दो शो, शाम 8 से 10 बजे के बीच में मुख्य रहते हैं, एक ‘वंदे मातरम’ और दूसरा ‘राष्ट्रवाद’. 7.55 पर ‘वंदे मातरम’ शो शुरू हुआ. इस के एंकर थे मकसूद खान. शो के प्राइम खबर में महंत नरेंद्र गिरि की मौत को जगह दी गई. तकरीबन एक घंटे के स्लौट में खबर रत्तीभर नहीं, पर धायंधूं बैकग्राउंड म्यूजिक, साउंड और चिल्लपों खूब चलता रहा. पिछले साल की सुशांत की मौत की ?ालकी याद आने लगी. इस के बाद 9 बजे ‘राष्ट्रवाद’ नाम का शो आया.

एंकर थीं ‘भारत की बेटी’ शालिनी कपूर तिवारी. इस शो में भी खबर वही, इंटरव्यू वही, म्यूजिक वही, चीखमचिल्ली वही, जो पीछे मकसूद भाई साहब बोल कर गए, वही शालिनी मैडम बोलती रहीं. द्य एनडीटीवी स 9 सितंबर : रात 8 बजे इस चैनल ने ब्रिक्स पर बहस दिखाना शुरू किया, जिस में मोदी की तारीफ नहीं, बल्कि 5 देशों की अलगअलग भूमिकाओं पर फोकस किया जा रहा था. रात 9 बजे एंकर रवीश कुमार के प्राइम टाइम में टैक्सटाइल इंडस्ट्री की बदहाली और इस सैक्टर में बढ़ती बेरोजगारी के कारण, करनाल में किसान कैसे क्या कर रहे हैं यह विस्तार से दिखाया गया, हरियाणा सरकार द्वारा गन्ने के समर्थन मूल्य बढ़ाए जाने पर किसानों की राय, घायल किसान महेंद्र पुनिया को किसान चंदा कर मदद करना इत्यादि दिखाया गया. स 21 सितंबर : एनडीटीवी पर रात 8 बजे कार्यक्रम ‘खबरों की खबर’ में एंकर संकेत उपाध्याय हाल ही में भाजपा छोड़ टीएमसी में शामिल हुए गायक और सांसद बाबुल सुप्रियो से रूबरू थे. यह हर किसी को सम?ा आ गया था कि इस डैकोरेटिव इंटरव्यू की मंशा बाबुल सुप्रियो को दिखाने की ज्यादा है. इस के बाद ‘बड़ी खबर’ कार्यक्रम में एक और एंकर नगमा ने इस दिन की सब से बड़ी खबर महंत नरेंद्र गिरि की कथित आत्महत्या और उन की लिखी चिट्ठी यानी सुसाइड नोट को दिखाया.

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री सहित उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या और सपा प्रमुख अखिलेश यादव की बाइट्स भी प्रमुखता से दिखाई गईं, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया को एक गार्ड द्वारा डंडा मारे जाने की खबर को दिलचस्प अंदाज में पेश किया गया. 9 बजे प्राइम टाइम में रवीश कुमार जरूर उन मुद्दों को ले कर प्रस्तुत हुए जिन के लिए उन का शो जाना जाता है. वे अपने शो में ‘अच्छी सैलरी और अच्छी नौकरी के दिन चले गए’ शीर्षक से कार्यक्रम लाए, जिस के शुरू में पहले तो आदतन उन्होंने गोदी मीडिया को कोसा और फिर उत्तराखंड के मैडिकल छात्रों की बात की. मैडिकल कालेजों की लगातार बढ़ती फीस को मुद्दा बनाते रवीश ने आंकड़ों के जरिए बताया. कुछ देर बाद ही सीएमआईई के मैनेजिंग डायरैक्टर महेश व्यास का इंटरव्यू दिखाया गया जो लाख उकसाने के बाद भी सीधेसीधे मोदी सरकार की नीतियों के विरोध में कुछ नहीं बोले, बल्कि सु?ाव दे कर कमियों को उजागर किया. शो का अगला और धमाकेदार आइटम मध्य प्रदेश के कृषि कल्याण विभाग में खाली पड़े पदों को ले कर सवाल करता हुआ था कि इस विभाग में साल 1990 से नई नियुक्तियां ही नहीं हुई हैं. कितने पद किस श्रेणी के खाली पड़े हैं और क्यों पड़े हैं, यह सवाल जोर दे कर पूछा गया.

रिपब्लिक भारत स 9 सितंबर : रात 8 बजे की सुपरफास्ट 200 खबरों से, जिस में शुरुआती 1 से ले कर 40 खबरें सिर्फ तालिबान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से ही जुड़ी हुई थीं. उस के बाद बंगाल में होने वाली राजनीतिक उथलपुथल, उत्तर प्रदेश में चुनाव को ले कर भाजपा की तैयारियां वगैरहवगैरह. बीच में कहीं किसानों की खबरों को स्पेस मिला. वह भी मात्र 5 बुलेट्स में जिसे पढ़ने में दोनों महिला एंकरों ने मुश्किल से 35 सैकंड्स का समय लगाया. अंत में कुछ अन्य सुर्खियों, जिन में कुछ पौजिटिव खबरें थीं तो कुछ कुत्ते, बिल्ली, शेर, गीदड़ इत्यादि से जुड़ी खबरों के साथ प्रोग्राम का अंत हुआ. रात 9 बजे ऐश्वर्य कपूर के साथ ‘पूछता है भारत’ प्राइम टाइम. टौपिक था तालिबानी क्रूरता की ‘क्राइम कुंडली.’ 20 सालों पहले हुए अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर हुए हमले को याद किया गया.

उस के बाद डिबेट शुरू हुई. द्य भारत समाचार स 21 सितंबर : शाम 7 बजे से 9 बजे के प्राइम टाइम में जनता के मुद्दों के बजाय केवल यह दिखाया जाता रहा कि प्रयागराज के महंत नरेंद्र गिरि की मौत हो गई. पूरे एक घंटे तक इस घटना को ले कर अलगअलग तरह की घटनाओं के समाचार दिखाए गए. शाम 7:45 से 8 बजे के बीच अडानी ग्रुप के गौतम अडानी की खबर के साथसाथ फिरोजाबाद की कुछ खबरों के बाद शिवपाल यादव और ओवैसी की मुलाकात की खबर दिखाई गई. शाम 7:55 से ले कर 8 बजे के बीच 5 मिनट में ‘तेज रफ्तार समाचार’ में तमाम खबरें ऐसे निबटा दी गईं कि वे किसी को सुनाई ही नहीं दी होंगी. रात 8 बजे से ‘द डिबेट’ नामक शो शुरू होता है. जिस के एंकर ‘भारत समाचार’ के प्रमुख ब्रजेश मिश्रा होस्ट करते है. इस में कई दिलचस्प हैडिंग के सहारे ‘मठ-महंत और मौत की मिस्ट्री’ नाम से शो को प्रसारित किया गया. ब्रजेश मिश्र बारबार पुलिस की कार्यशैली, शव का पोस्टमार्टम न कराए जाने को मुद्दा बनाते रहे. वे बारबार यह बात भी दोहरा रहे थे कि महंत की मौत की जांच सीबीआई से क्यों न कराई जाए? चैनलों का खेल टीवी न्यूज चैनलों के इन विश्लेषणों से यह बात साफतौर पर जाहिर होती है कि चैनलों में दिखाई जाने वाली खबरें जनता से कोई सरोकार नहीं रखती हैं.

आजकल न्यूज चैनल सरकार की भक्ति और षड्यंत्र फैलाने में उल?ा कर रह गए हैं. इस के लिए वे असल खबरों को एक तरफ दबाते चलते हैं तो दूसरी तरफ उन खबरों की जानबू?ा कर कवरेज करते हैं जो जनता को भ्रमित करती हैं. दोनों विश्लेषणों में साफ दिखता है कि चैनल उन मुद्दों को दबाते हैं जो जनता से जुड़े हैं और उन्हें जानबू?ा कर उठाते हैं जो फुजूल के हैं. 9 सितंबर के दिन टीवी चैनलों में जानबू?ा कर पूरे दिन अफगानिस्तान से संबंधित खबरों को दिखाया जा रहा था ताकि किसान संबंधित खबरों को इस बहाने छिपाया जा सके. यह सिर्फ इस बार की बात नहीं, जब से किसान दिल्ली के बौर्डरों पर अपनी मांग को ले कर प्रदर्शन कर रहे हैं, लगभग तभी से ही एक खास षड्यंत्र के तहत उन के सवालों को या तो छिपाया जा रहा है या गलत तरीके से जनता के सामने परोसा जा रहा है. हम ने पिछले 9 महीनों में चैनलों के माध्यम से किसानों पर कभी खालिस्तानी, माओवादी, आतंकवादी का आरोप लगते सुना तो कभी देशद्रोही होने का. वहीं, महंत की आत्महत्या मामले को चैनलों में भरपूर जगह देना सीधा दिखाता है कि चैनल के पास आमजन की खबरें दिखाने की हिम्मत नहीं बची है. जहां देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर चुकी हो, महंगाई और बेरोजगारी चरम हो, असमानता दिनोंदिन बढ़ रही हो,

शिक्षा और स्वास्थ्य डांवांडोल हो, वहां पूरेपूरे दिन इस खबर पर सिर गड़ाए रखना उस शुतुरमुर्ग सरीखा लगता है जो मोदी बचाव में ही अपने सिर को जमीन से बाहर निकालता है. मीडिया के दोगलेपन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि गुजरात के मुद्रा पोर्ट पर 15 सितंबर को 2,988 किलो, जिस की कीमत 21 हजार करोड़ रुपए आंकी गई, अफगान हेरोइन सीज की गई. बता दें यह वही पोर्ट है जो इस समय अडानी के कंट्रोल में है. किंतु इस मामले में मजाल कि किसी गोदी चैनल की चूं बोल जाए, पर एक बार पिछले साल के टीवी चैनलों के नजारों पर गौर करें तो रिया चक्रवर्ती जिस के पास कथित 59 ग्राम की हशीश होने के आरोप लगे थे को भयानक मीडिया ट्रायल से गुजरना पड़ा. चाटुकारिता सिर्फ प्राइवेट न्यूज चैनलों में ही नहीं, बल्कि लोकसभा व राज्यसभा चैनलों में भी देखी गई है, जिस के ऊपर विपक्ष ने अपनी कवरेज न दिखा, पक्षपाती होने के गंभीर आरोप हाल ही में लगाए हैं. यही कारण भी था कि मोदी सरकार ने हाल ही में इन दोनों सरकारी चैनलों को आपस में मर्ज कर ‘संसद’ चैनल लौंच किया ताकि राज्यसभा, जहां विपक्ष थोड़ीबहुत मजबूत स्थिति में है, उस की कम से कम कवरेज की जा सके. ध्यान देने वाली बात यह है कि इस वर्ष अप्रैल में वर्ल्ड फ्रीडम इंडैक्स की रिपोर्ट पब्लिश हुई थी.

उस के अनुसार, 180 देशों की लिस्ट में भारत शर्मनाक 142वें स्थान पर था, जिसे आजाद पत्रकारिता के लिहाज से खराब माना गया है. टीवी न्यूज चैनल का असली काम सरकार और सत्ता से सवाल करना है, लेकिन अपना काम न कर वे सरकार की चाटुकारिता कर रहे हैं. यही वजह भी है कि भारत का स्थान दुनिया में 142वें स्थान पर आता है. लेकिन इस की क्या वजह है कि न्यूज चैनल सरकार से सवाल पूछने में घबराते हैं. प्रैस की स्वतंत्रता और पत्रकारों के अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘रिपोर्ट्स विदाउट बौडर्स’ ने 37 ऐसे राष्ट्राध्यक्षों यानी सुप्रीम नेताओं के नाम प्रकाशित किए जो उस के मुताबिक, प्रैस को प्रभावित कर रहे हैं, जिन में नरेंद्र मोदी का भी नाम शामिल था. मीडिया से असल मुद्दे नदारद देश में मजदूर, किसान की हालत नहीं सुधरी, बेरोजगारी कम नहीं हुई. दुकानदार या म?ाले उद्योगपति अपने कारोबार बैठ जाने से त्रस्त हैं. इन सब को लगता है कि 7 सालों की भगवा सरकार में उन्हें कुछ मिला नहीं, बल्कि जो उन के पास था, वह भी उन से छिन गया.

किसान खेतों से निकल कर शहर की सड़कों पर बैठे हैं. एमएसएमई सैक्टर पर पड़े बुरे प्रभाव से मजदूरों का काम छिन गया है. इस वर्ष के मनरेगा के आंकड़े बताते हैं कि जुलाई में करीब 3.19 करोड़ परिवारों ने इस योजना के तहत काम की मांग की, जो पिछले साल की तुलना में 0.25 प्रतिशत कम है. लेकिन 2019 के समान महीने की तुलना में करीब 74 प्रतिशत ज्यादा है. यह दिखाता है कि शहरों से गए मजदूरों का बड़ा हिस्सा अपने गांव में ही बसा रह गया. भाजपा सरकार ने 2014 में सत्ता में आने से पहले युवाओं को अच्छे दिनों के सपने दिखाए थे. युवा बेहतर रोजगार और विकास के सपने संजोने लगे थे, पर युवाओं की उम्मीद वहीं टूट गई जब मोदी ने पकोड़े तलने को ही युवाओं के लिए रोजगार की श्रेणी में डाल दिया. आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार, विश्व में औसत रोजगार दर 57 फीसदी है. जबकि भारत की औसत रोजगार दर 47 फीसदी है. यहां तक कि हम से नीचे माने जाने वाले पड़ोसी देश पाकिस्तान, श्रीलंका और बंगलादेश भी भारत से इस मामले में आगे हैं.

पाकिस्तान और श्रीलंका की रोजगार दर कमश: 50 और 51 फीसदी है, जबकि बंगलादेश में रोजगार दर 57 फीसदी है. आज देश अभूतपूर्व बेरोजगारी देख रहा है. खुद सरकार की एनएसएसओ की लीक्ड रिपोर्ट के अनुसार, भारत की बेरोजगारी दर 2017-18 में 45 वर्ष के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी. इस शर्म के बाद सरकार ने बेरोजगारी का सरकारी डेटा निकालना ही छोड़ दिया. उधर, सीएमआईई की रिपोर्ट के अनुसार, 2020-21 में नौकरीपेशा जौब में 98 लाख की गिरावट हुई है. इसी रिपोर्ट के अनुसार कोरोना की दूसरी लहर में अप्रैलमई के महीने में 2.27 करोड़ लोग बेरोजगार हो गए, तब बेरोजगारी दर 12 प्रतिशत तक पहुंच गई. यही कारण भी है कि पिछले और इस साल 17 सितंबर को युवाओं ने प्रधानमंत्री के जन्मदिन को ‘बेरोजगार दिवस’ और ‘जुमला दिवस’ घोषित कर दिया. पर इस की उम्मीद चैनलों से लगाना कि वे बेरोजगारी को ले कर चर्चा करेंगे और सरकार से सवाल पूछेंगे, खुद को धोखे में रखने जैसा है.

सीएमआईई के आकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि सितंबर 2016 तक भारतीय मीडिया और प्रकाशन उद्योग में 10 लाख से अधिक कर्मचारी काम कर रहे थे. अगस्त 2021 में इन की संख्या घट कर मात्र 2 लाख 30 हजार ही रह गई है. इस सैक्टर से 78 प्रतिशत नौकरियां खत्म हो गई हैं. यानी 5 में से 4 मीडिया कर्मियों की नौकरियां समाप्त हो गई हैं. सिर्फ इसी साल मीडिया और प्रकाशन में काम करने वाले 56 प्रतिशत कर्मचारियों ने या तो काम छोड़ दिया या उन की नौकरियां चली गई हैं. अब सोचिए कि यह जब अपने क्षेत्र में पनपे बेरोजगारी पर कुछ बोल नहीं रहे तो खाक दूसरे क्षेत्र की बेरोजगारी पर कहेंगे. जबकि ये अच्छे से जान भी रहे हैं कि इस बेरोजगारी के पीछे का कारण पिछले सालों में लागू की गई खराब मोदी नीतियां हैं. इस के बावजूद ये इस पर नहीं कहेंगे क्योंकि इन बड़ेबड़े टीवी चैनलों का संचालन करने वाले कहीं न कहीं मोदीमयी हैं,

उन की मनुवादी मानसिकता का समर्थन करते हैं. लंदन स्थित ग्रुप ‘द इकोनौमिस्ट’ की सहयोगी संस्था ‘द इकोनौमिस्ट इंटैलिजैंस यूनिट’ (ईआईयू) के अनुसार, 167 देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थितियों को परखने के बाद भारत को 6.61 अंक मिले हैं. जबकि वर्ष 2019 में उस का स्कोर 6.9 और रैंकिंग 51 रही. भारत का सब से बेहतर स्कोर 2014 में 7.92 रहा है, तब उस की रैंकिंग 27 थी. यह सरिता के विश्लेषण से भी सम?ा आ रहा है कि देशवासियों के बुनियादी सवालों पर न टीवी चैनलों में कोई खास बात हो रही है और न राजनीति में. दोनों ने पूरे देश को धर्म और पाखंड की जंजीरों में बांध रखा है. वर्तमान हालात को गहराई से सम?ाने वाली खबरें, बातें और किताबें अब पत्रकारिता से गायब हो चुकी हैं. गोदी पत्रकारिता का बोलबाला है, जहां खूब सारे पैसे और अवार्ड्स हैं. मीडिया में थ्योरी है ‘कल्टीवेशन थ्योरी’ या इसे ‘गोएबल्स थ्योरी’ भी कह सकते हैं, जिस के अनुसार, ‘लोगों को जो दिखाया जाता है, वे उसे ही सच मानने लगते हैं,’ जोकि हो भी यही रहा है. युवा पीढ़ी पर अज्ञानता का बो?ा लादा जा रहा है, उसे सांप्रदायिकता का चश्मा पहनाया जा रहा है,

महिलाओं को धर्म की बेडि़यों में जकड़ा जा रहा है और ये सब लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के माध्यम से हो रहा है. इस से चिंतनीय बात इस देश के लिए और कुछ नहीं हो सकती. आज जनता को सत्तापक्ष के लिए गुमराह करना इन चैनलों का मूल काम बन गया है, पर इस का खमियाजा भी इन्हें भुगतना पड़ रहा है. हाल ही में मुज्जफरनगर रैली में किसान महापंचायत को कवर करने के दौरान आजतक चैनल की मुख्य एंकर चित्रा त्रिपाठी को किसानों के गुस्से का सामना करना पड़ा. किसानों ने ‘गोदी मीडिया गो बैक’ के नारे के साथ चित्रा को प्रदर्शनस्थल में घुसने ही नहीं दिया. यह कितनी शर्म की बात है कि एक समय जिन चैनलों को माध्यम बना कर आंदोलनकारी अपनी बातें जनता के सामने रखते थे, आज वे अपने आंदोलनों में उन्हें घुसने तक नहीं देते हैं. फिर चाहे वह किसान आंदोलन हो, सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन हो या बेरोजगारों-दलितों का आंदोलन हो. आज इन चैनलों की हालत यह है कि इन के डिबेट शो पर गए पैनलिस्ट भी इन्हें भाजपा का प्रवक्ता, दलाल, भगवा इत्यादि नामों से संबोधित कर रहे हैं.

चैनलों को एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाह इन का प्रयोग कर खुद की कल्टपर्सनैलिटी तो बनवा लेते हैं पर इस का भारी नुकसान समाज को होता है. ऐसे लोग सत्ता में आ कर सब को तबाह ही करते हैं. यही कारण है कि आज के टीवी चैनल प्रभावी माध्यम होने के कारण सत्ता के साथ इस गुनाह में बराबर के दोषी हैं. यदि यही मीडिया आमजन की आवाज बन जाता तो लोकतंत्र के लोकसेवक अपने कर्तव्यों को सम?ाते, उन्हें पूरा करते. मगर जब मीडिया ही अपनी आंखें मूंद कर राजनीति की गोद में जा बैठा है तो इन जनसेवकों को कौन सुने और उन्हें कौन चेताए? मीडिया के चाटुकार होने की वजह से भारत में लोकतंत्र का ग्राफ विश्व में गिरा ही है. सरकारें तो आतीजाती हैं पर चिंता की बात यह है कि देश के असली मुद्दे पत्रकारिता की दुनिया से गायब हो चुके हैं. क्या मीडिया की जिम्मेदारी नहीं है कि वह ऐसी नकारा सरकार को आड़े हाथों ले? मगर नहीं, मीडिया तो धर्म और सरकार के स्तुतिगान में मगन है. इन मुद्दों से उस का कोई वास्ता नहीं है.

पत्रपत्रिकाएं जरूरी सरिता टीम ने 9 और 21 सितंबर के रैंडम विश्लेषण में पाया कि टीवी चैनल मोदी भक्ति में लीन हैं. 9 सितंबर को ज्वलंत किसानों के मुद्दे को छोड़ तालिबान छाया रहा और 21 सितंबर को महंत की आत्महत्या छाई रही. टीवी न्यूज चैनलों ने 9 और 21 सितंबर को 50 से 60 फीसदी हिस्सा फुजूल मुद्दों को दिखाने में खर्च कर दिया, जो दर्शकों और चैनलों की मानसिकता ही दर्शाता है. आज के समय में यह जरूरी है कि टीवी चैनलों में परोसे जा रहे आधेअधूरे तथ्यों वाली खबरों से दिखाए जाने वाले फेक न्यूज से, मसालेदार खबरों से खुद को बचाया जाए. ये टीवी चैनल समाज को और अधिक खोखला करने का काम कर रहे हैं. टीवी न्यूज चैनलों में आननफानन और आपसी आपाधापी के चलते किसी खबर को दिखाने से पहले उस की ठीक से जांच नहीं की जाती है.

लेकिन पत्रपत्रिकाओं में छपी खबरों की अपनी जिम्मेदारी होती है. ये सिर्फ बोली गई बातें नहीं होतीं कि मुंह से निकल जाएं. यह लिखी सूचना होती है, जिस की साख होती है और इस काम में कई अच्छी पत्रपत्रिकाएं आम लोगों की आवाज बनती आ रही है. भोपाल के एक युवा व्यवसायी निरंजन सिंह कहते हैं, ‘‘प्रिंट मीडिया में सरिता मैगजीन अभी भी अग्रणी है और मेरे पापा और दादा के जमाने से अग्रणी है जिस ने सब से पहले पंडापुरोहितवाद की पोल खोलनी शुरू की, सामाजिक कुरीतियों पर तार्किक, करारे प्रहार किए व सरकार, चाहे किसी भी पार्टी की रही हो, की जनविरोधी नीतियों को सरिता ने कभी बख्शा नहीं और न ही कोई सम?ाता किया.’’ अपना रिश्ता पत्रपत्रिकाओं से जोड़ें, जो खबर के हर पहलू का सही नजरिया पेश करती हैं.

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