आगे बढ़ने के लिए कर्तव्यपालन के साथ चाटुकारिता जरूरी है. यह और बात है कि इस से निजी लाभ होता है जबकि संस्थान या पार्टी का सदा नुकसान ही होता है. प्रमुख पदों पर बैठे लोगों को चाटुकार अधिक पसंद आते हैं. साथ ही, वे यह भी चाहते हैं कि कर्तव्यपालन होता रहे. बीरबल और अकबर की कहानियों में एक बहुत प्रचलित कहानी है बैंगन की. एक दिन बादशाह अकबर की रसोई में बैंगन की सब्जी बनी. बादशाह ने बड़ी तारीफ कर के उसे खाया. तारीफ में सभी दरबारी बैंगन के गुण बताने लगे.
बीरबल ने कहा, ‘हुजूर बैंगन तो सब्जियों का राजा है. इस वजह से उस के सिर पर ताज होता है.’ बादशाह को यह बात बहुत पसंद आई. उन्होंने बीरबल की बहुत तारीफ की. दूसरे दरबारियों को इस से चिढ़ हुई. अगले दिन बादशाह को पेट में दर्द हुआ. तब उन्होंने कहा कि ‘बैंगन की सब्जी की वजह से पेट में दर्द है.’ दरबारी खुश कि अब बीरबल को डांट पड़ेगी. बीरबल ने भी पलटी मारी कहा, ‘बादशाह हुजूर, बैंगन तो होता ही ‘बे-गुण’ है. इस का नाम ही इसी वजह से बैंगन है.’ अकबर को यह तो पता था कि बीरबल चापलूसी कर रहा है, पर यह चापलूसी उन को पंसद आई. चापलूसी अगर कर्तव्य के साथ न हो तो भारी पड़ती है. नीतिगत फैसले जब चापलूसीभरे होने लगें तो वे अच्छे परिणाम नहीं देते.
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चापलूसी में डूबी सत्ता चाटुकारिता के तमाम प्रमाण मौजूद हैं. अगर राजनीति में इस की शुरुआत पर गौर करें तो 1970 के दशक में कांग्रेस में ऐसे चाटुकार नेताओं की लंबी लिस्ट रही है. उस दौर में यह आश्चर्यजनक बात होती थी. तब कोई चाटुकारिता को स्वीकार करने को तैयार न था. आज के समय में चाटुकारिता पूरी तरह से स्वीकार हो चली है. एक शर्त विज्ञापनों की तरह से लगी है कि कर्तव्य का भी पालन हो. कांग्रेस में संजय गांधी का उदय हो रहा था. उन की मां इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं. संजय गांधी कांग्रेस के नेता थे. इंदिरा गांधी के पुत्र होने के कारण कांग्रेसी उन की चाटुकारिता में लगे थे. चाटुकारिता का कोई लैवल नहीं होता. यह लगातार बढ़ती जाती है. संजय गांधी के साथ ही नारायण दत्त तिवारी होते थे. उम्र में संजय गांधी से बड़े थे. कांग्रेस की राजनीति में उन को संजय से अधिक अनुभव था.
नारायण दत्त तिवारी भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय रहे. 15 माह जेल में रहे थे. 1947 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी स्टूडैंट्स यूनियन अध्यक्ष बने. 1945 से 49 तक औल इंडिया स्टूडैंट्स कांग्रेस के सैक्रेटरी रहे. 1952 में पहली बार विधायक बने थे. 1969 से 71 तक यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. इस के पहले वे नेहरू युवा केंद्र की स्थापना कर चुके थे. कहने का मतलब यह है कि नारायण दत्त तिवारी संजय गांधी के मुकाबले बड़े नेता थे. इस के बाद भी संजय गांधी की चाटुकारिता करनी जरूरी थी. संजय गांधी के करीबी लोगों को कांग्रेस में खास पद दिए जा रहे थे. अपनी चाटुकारिता को साबित करने के लिए वे संजय गांधी की चप्पल उठाने की घटना को ले कर चर्चा में आ गए थे.
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इस के बाद संजय गांधी खेमे में उन की जगह मजबूत हो गई. बाद में वे उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री और आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रहे. केंद्र सरकार में भी मंत्री रहे. कांग्रेस संगठन में भी प्रभावी पदों पर रहे. राजनीति में खुलेतौर पर चापलूसी की शुरुआत उसी दौर में हुई. उस के बाद यह सिलसिला आगे बढ़ता रहा. चापलूसी अतिरिक्त योग्यता बन गई. लगभग हर दल में ऐसे नेताओं की संख्या है. मनुवाद के विरोध में बनी बहुजन समाज पार्टी में भी यह कल्चर हावी हो गया. बसपा प्रमुख मायावती के मंच पर ही पैर छूने वाले नेताओं की संख्या बढ़ गई. मायावती के दौर में अफसरों में भी उन की चप्पलें उठाने के प्रकरण सामने आए.
राजनीतिक दलों में चाटुकारिता ने तमाम ऐसे रास्ते खोल दिए जिन में मेहनत करने वाले नेता पीछे हटने लगे. समाजवादी पार्टी में जब सत्ता पिता मुलायम सिंह यादव के हाथ से निकल कर बेटे अखिलेश यादव के पास गई तो पार्टी के बड़े नेता अखिलेश को भाईभतीजा की तरह मान कर चल रहे थे. अखिलेश को यह व्यवहार पंसद नहीं आया और समाजवादी पार्टी का विभाजन ही हो गया. यही हालत बिहार में लालू यादव के परिवार में हुई. चाटुकरिता जैसेजैसे अपना दायरा फैलाती गई, संगठन प्रभावित होता गया. बिगड़ जाता है कर्तव्यपालन का तालमेल नेताओं की इमेज कंसलटैंट करने वाली सौम्या चतुर्वेदी कहती हैं, ‘‘असल में पहले लोगों को लगता है कि चापलूसी एक सीमाभर काम करेगी. कुछ समय बाद कोई सीमा नहीं रहती. ऐसे में कई लोग चापलूसी कर के लोगों को गुमराह करने लगते हैं.
यहीं से नुकसान शुरू हो जाता है. इस का पता जब तक चलता है तब तक नुकसान की भरपाई करना मुश्किल हो जाता है. लोग चापलूसी के साथ कर्तव्यपालन करना भूल जाते हैं जिस की वजह से नुकसान हो जाता है.’’ ‘‘चापलूस लोगों को जब बढ़ावा मिलता है तो मेहनत करने वाले लोगों में हीनभावना भरने लगती है, जिस से वे तनाव का शिकार हो कर हताश होने लगते हैं. किसी भी संस्था में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती है तो संस्थान को नुकसान होने लगता है, जिस का प्रभाव तत्काल तो दिखाई नहीं देता पर कुछ समय बाद इस का गंभीर प्रभाव दिखने लगता है. चापलूसी और कर्तव्यपालन के बीच तालमेल बैठाना बहुत मुश्किल होता है. ऐसे में जरूरी यही है कि चापलूसी की भावना रखने वाले लोगों को कम से कम महत्त्व दिया जाए.’’ मनोविज्ञानी डाक्टर मधु पाठक कहती हैं, ‘
‘ऊंचे पद पर बैठे लोग यह मानते हैं कि वे जो सोच रहे हैं वह सब से सही है. वे अपने आसपास ऐसे लोगों का तानाबाना बुन लेते हैं जो उन की उम्र और अनुभव से बहुत छोटे होते हैं. ये लोग सलाह देने या सहीगलत बताने की हालत में नहीं होते. ऐसे में चापलूसी में हर बात की हां में हां मिलाते रहते हैं. शिखर पर बैठे हुए व्यक्ति को अपनी आलोचना सहन नहीं होती. आलोचना को विरोध मान कर केवल समर्थन करने वालों को ही वह अपने आसपास रखता है. वहीं, सलाह देने वालों को अपने लाभ से मतलब होता है. ऐसे में वे आलोचना कर के अपना नुकसान नहीं करना चाहते.’’ जो भी पावरफुल होता है, तानाशाह होता है वह अपने पास किसी सलाहकार को नहीं रखता. प्रधानमंत्री के रूप में देखें तो इंदिरा गांधी के पास ऐसा कोई सलाहकार नहीं था जो अपनी बात उन से मनवा सके.
आज के दौर में यही हालत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है. उन के मंत्रिमंडल में ऐसा कोई नहीं जो प्रभावी तरह से अपनी बात मनवा सके या उन के किसी काम में सुधार की बात कर सके. 10 साल प्रधानमंत्री रहे डाक्टर मनमोहन सिंह अपने मंत्रिमंडल की बात सुनते थे. उसी दौर में राहुल गांधी ने किसान मुआवजा को ले कर केंद्र सरकार के फैसले का बिल फाड़ दिया था. क्या मोदी सरकार में कोई ऐसा कर सकता है? किसी भी गलत फैसले के खिलाफ कोई बोलने वाला नहीं है. जीएसटी में एक हजार से अधिक सुधार हो चुके हैं. लेकिन किसी ने भी जीएसटी बिल को गलत नहीं बोला. अगर जीएसटी बिल इतना अच्छा था, कारोबार और कारोबारियों के हित में था तो फिर एक हजार सुधार क्यों? अगर किसी बिल में एक हजार सुधार हो जाएं तो उस बिल को ही क्यों न बदल दिया जाए? जीएसटी आर्थिक सुधारों की दिशा में बड़ा कदम बताया जा रहा था.
अगर जीएसटी आर्थिक सुधार की दिशा में बड़ा कदम था तो कारोबार को नुकसान क्यों? और जीएसटी का कलैक्शन कम क्यों हुआ? जीएसटी को ले कर राज्यों को आपत्ति क्यों? सलाहकारों में बढ़ रही चापलूसी जब सलाहकारों को लगता है कि सुनने वाले को उन की सही सलाह अच्छी नहीं लग रही, तब वह सही सलाह की जगह पर चापलूसी करने लगता है. सुनने वाले की बातों से वह सम?ा लेता है कि उस को किस तरह से अपनी राय देनी है. कहावत है कि जबान ऐसी ताकत रखती है कि उस के प्रयोग से हाथी मिल भी सकता है और हाथी के पैर के नीचे कुचला भी जा सकता है. यहां इस कहावत का मतलब है कि जबान से गलत बात नहीं करनी चाहिए. आज के संदर्भ में इस का अर्थ यह है कि सलाह ऐसी दीजिए जिस से हाथी पर बैठने को मिले, हाथी के पैर के नीचे न आना पड़े. सही सलाह देने और चापलूसी करने के बीच का अंतर खत्म होता जा रहा है.