किसी भी प्रदेश का मुख्यमंत्री उस प्रदेश के बहुमत रखने वाले विधायकों का चुना हुआ प्रतिनिधि होता है. ऐसे में पार्टी हाईकमान के द्वारा उसको जब बिना किसी कारण के हटा दिया जाता है तो वह मूखर्तापूर्ण कार्य ही नहीं होता उस प्रदेश की जनता और बहुमत वाल विधायकांे का मजाक बनाना होता है. एक तरह से लोकतंत्र मंे यह पार्टी तंत्र को हावी करने वाला फैसला होता है. अगर आंकडों को देखे तो अधिकतर बार इसका कोई अच्छा परिणाम नहीं दिखता. इसका अच्छा प्रभाव ना तो पार्टी पर पडता है और ना ही प्रदेश की जनता पर. ऐसे फैसले राजनीतिक दलो की जगह प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों के जैसे लगते है.

गुजरात में भारतीय जनता पार्टी ने विजय रूपाणी का हटाकर भूपेन्द्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया तो कांग्रेस ने पंजाब में कैप्टन अमरिदंर सिह को हटा कर चरनजीत चन्नी को अपना नया मुख्यमंत्री बना दिया है. इसके पहले भाजपा ने उत्तराखंड में त्रिवेन्द्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत और फिर पुष्कर सिंह धामी को अपना मुख्यमंत्री बनाया. तीरथ सिंह रावत का कार्यकल बहुत ही कम समय का रहा. उत्तराखंड में भाजपा का फैसला किसी भी नजर से समझदारी भरा नहीं कहा जा सकता. यह फैसला वैसा ही था जैसे कि मल्टीनेशनल कंपनियों में मैनेजर के ट्रांसफर करना हो.

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निशाने पर राजस्थान और छत्तीसगढ:

पंजाब में कैप्टन अमरिदंर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद अब राजस्थान में मुख्यमंत्री अषोक गहलोत और छत्तीसगढ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को उनके पदों से हटाने की खबरें दिखने लगी है. राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और युवा कांग्रेसी सचिन पायलेट के बीच शीतउद्या    लंबे समय से चल रहा है. छत्तीसगढ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का बदलने की बात चल रही है. वहां पर कांग्रेस नेता टीएस सिंहदेव मुख्यमंत्री बदलने के पक्ष मंे है. इसको लेकर दोनो ही पक्षों में विधायक लांब बंद होते रहते है. कांग्रेस के ज्यादातर लोग दोनो राज्यों के मुख्यमंत्रियों से नाराज है. उनका आरोप है कि कांग्रेस के लोगों की अवहेलना हो रही है.

यह जरूरी नहीं है कि कांग्रेस राजस्थान और छत्तीसगढ में अपने मुख्यमंत्री बदले ही. वैसे भी बिना बडे कारण हुये राजस्थान और छत्तीसगढ मंे मुख्यमंत्री बदला जाना मुखर्तापूर्ण कहा जायेगा. वैसे कांग्रेस मंे यह चलन पुराना है. इंदिरा गांधी के समय ऐसे ही मुख्यमंत्री बदले जाते थे. उत्तर प्रदेश  में मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल को देखे तो यह पता चलता है कि आजादी के बाद से केवल बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ही दो ऐसे नेता है जिन्होने अपने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया है. बाकी के किसी मुख्यमंत्री ने 5 साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया. जिन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने ज्यादा समय तक कार्यकाल पूरा किया वहां अपेक्षाकृत विकास भी अधिक किया है.

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‘मोदीशाह’ ने 13 राज्यों में 19 मुख्यमंत्री बनाए: मुख्यमंत्री का चुनाव विधानसभा में बहुमत वाले दल के विधायक करते है. लेकिन अब यह साफ कि यह काम केन्द्र के नेता जिनको हाई कमान कहा जाता है वह करते है. भाजपा में ‘मोदीशाह’ की जोडी ने 19 मुख्यमंत्री ऐसे बनाये है. इनमंे उत्तर प्रदेश  के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, हिमंता बिस्व सरमा, सर्वानंद सोनोवाल, देवेन्द्र फडनविस, त्रिवेन्द्र सिंह रावत, तीरथ सिंह रावत, पुष्कर सिंह धामी, जयराम ठाकुर, बिप्लब देव, मनोहरलाल खट्टर, रघुबर दास, लक्ष्मीकांत पारसेकर, प्रमोद सांवत, बीरेन सिंह, पेमा खांडू, आंनदी बेन पटेल, विजय रूपाणी, भूपेंद्र पटेल, बासवराज बोम्मई है. इनमें से गुजरात, गोवा और उत्तराखंड के 6 मुख्यमंत्रियों को हटाया जा चुका है.
भाजपा में ‘मोदीशाह’ की जोडी ने मुख्यमंत्रियों को ताश के पत्तों की तरह से फेंटा है. इस तरह ही कांग्रेस में इंदिरा गांधी के समय मुख्यमंत्री बनाये और हटाये जाते थे. इंदिरा गांधी के पक्ष में तर्क रखने वाले कहते थे इससे पार्टी का भला होगा. अगर आकलन कर तो इंदिरा की इस नीति के कारण ही प्रदेशो  में क्षत्रप नेताओं प्रभाव नहीं बढ सका जिसकी वजह से धीरेधीरे राज्यों में कांग्रेस खत्म होती गई. अंत में केन्द्र में भी कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई. किसी भी नेता के फैसले का अच्छा या बुरा दोनो ही तरह से प्रभाव कुछ सालों के बाद पता चलता है. ‘मोदीशाह’ जिस तरह से फैसले कर रहे इनका आकलन कुछ साल बाद किया जा सकेगा.

केन्द्रीयकरण की राजनीति: मुख्यमंत्रियों को व्यर्थ मंे इस कारण बदला जाता है जिससे ताकत केन्द्र के नेताओं के हाथ में रहे. केन्द्रीयकरण की राजनीति पार्टी पर दूरगामी प्रभाव डालती है. धीरेधीरे पार्टी का प्रभाव राज्यों से खत्म होने लगता है. उदाहरण के लिये उत्तर प्रदेश को देखे तो 1980 के बाद से 90 के दशक में कांग्रेस ने यहां कि भी बडे नेता को टिक कर काम नहीं करने दिया. जून 1980 में विष्वनाथ प्रताप सिह यहां मुख्यमंत्री बने. इसके बाद जुलाई 1982 में श्रीपति मिश्रा, अगस्त 1984 में नारायण दत्त तिवारी, सितम्बर 1985 में वीर बहादुर सिंह, जून 1988 में नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बने. 10 साल से भी कम समय में 5 बार मुख्यमंत्री बदल दिये गये.

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इसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश मंे कांग्रेस ऐसे कमजोर हुई कि 1989 में जब मुलायम सिंह यादव का उदय क्षत्रप नेता के रूप में हुआ तो फिर कांग्रेस यहां कभी अपना मुख्यमंत्री नहीं बना पाई. 1989 से 2021 तक यह सिलसिला जारी है. करीब 32 साल का समय हो चुका है. कांग्रेस यहां खडी होती नहीं दिख रही है. अगर कांग्रेस ने क्षेत्रीय नेता के रूप में अपने किसी नेता को मजबूत होने दिया होता तो कांग्रेस की हालत उत्तर प्रदेश में यह नहीं होती. 1989 में जब मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने उसके बाद से राजनीति कांग्रेस के हाथांे से निकल गई. इस दौर में 3 बार खुद मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने. एक बार अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने.

कांग्रेस के पास कोई ऐसा नेता नहीं था जो मुलायम और मायावती जैसे कदद्ावर नेताओं का मुकाबला कर सकता. खुद कांग्रेस में इतनी ताकत नही थी कि वह भाजपा-सपा और बसपा के सामने खडी हो पाती. इंदिरागांधी के केन्द्रीयकरण की राजनीति ने कांग्रेस के प्रभावशाली नेताओं को खत्म कर दिया. भाजपा भी उसी राह पर चल रही है. इसका आकलन आज भले ही न लग पा रहा हो पर 20 साल के बाद देखने पर लगेगा कि दिक्कतें कहां पर थी जिनसे पार्टी कमजोर हो कर खत्म हो गई.

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