पशु सखी के रूप में आत्मनिर्भरता की बनी मिसाल हमारे देश में भूमिहीन, छोटे और म?ाले किसानों का खेतीबारी के अलावा जीवनयापन में बकरीपालन एक अहम व्यवसाय है. चूंकि बकरी पालने का काम कम खर्च के साथ ही कम जगह में आसानी से किया जा सकता है, इसलिए भूमिहीन, छोटे और म?ाले किसान आसानी से बकरीपालन का काम कर लेते हैं. बकरीपालन को नकदी का एक अच्छा जरीया माना जाता है, इसलिए इसे बेरोजगारी दूर करने में काफी कारगर माना जाता रहा है. बकरीपालन में होने वाले लाभ को देखते हुए हाल के सालों में देश में बकरीपालकों की तादाद में काफी इजाफा हुआ है.

हर 5 साल के बाद होने वाले पशुगणना के आंकड़ों पर अगर गौर करें, तो देश में कुल पशुपालन में बकरियों की हिस्सेदारी 27 फीसदी है. साल 2019 में कराई गई पशुगणना के आंकड़ों पर अगर गौर करें, तो 20वीं पशुगणना में बकरियों की तादाद की कुल तादाद साल 2019 में 148.88 मिलियन यानी 14 करोड़, 88 लाख, 80 हजार थी, जो पिछली पशुगणना की तुलना में 10.1 फीसदी अधिक है. बकरीपालकों की देश में बढ़ रही तादाद की एक वजह यह भी है कि इस से कम खर्च में अधिक मुनाफा लिया जा सकता है, क्योंकि छोटे लैवल पर बकरियों को घरों के खाली हिस्सों और बरामदों में भी आसानी से पाला जा सकता है. इस के अलावा बकरियों के लिए बकरीपालन गृह निर्माण पर भी अधिक खर्च नहीं आता है, जबकि बकरियां ?ाडि़यों और पेड़ों की पत्तियां खा कर हर तरह के वातावरण में जिंदा रह सकती हैं.

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अगर बकरीपालन करने वाली आबादी के नजरिए से देखा जाए, तो भारत में बिहार तीसरा स्थान रखता है. यहां की 70 फीसदी भूमिहीन आबादी, उस में खासकर महिलाएं बकरीपालन कर के अपनी आजीविका चलाती हैं. बिहार में भूमिहीन और छोटे किसानों द्वारा बकरी पालने का काम पारंपरिक रूप से सालों से चला आ रहा है. लेकिन बकरीपालकों को बकरियों के खानपान और बीमारियों के नियंत्रण की सही जानकारी न होने के चलते कई बार नुकसान भी उठाना पड़ता है. ऐसे में बकरीपालन से जुड़े इन परिवारों के माली हालत को मजबूत बनाने के लिए बिहार में भूमिहीन, छोटे और म?ाले किसानों की माली आमदनी बढ़ाने के लिए काम कर रही संस्था ‘आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत’ ग्रामीण लैवल पर कुछ जागरूक महिलाओं को पशु सखी के रूप में फ्री ट्रेनिंग दे कर उन्हें महिला पशु स्वास्थ्य कार्यकर्ता के तौर पर तैयार कर रही है, जो ग्रामीण लैवल पर ही बकरीपालन से जुड़ी हर समस्या के समाधान के लिए तत्पर रहती है. एकेआरएसपीआई द्वारा इस कार्यक्रम का संचालन वैशाली जिले के हाजीपुर, बिदुपुर और राजापाकड़ प्रखंड सहित समस्तीपुर जिले के पूसा, ताजपुर और सराईरंजन प्रखंड में किया जा रहा है, जहां इस कार्यक्रम की बदौलत ग्रामीण गरीब महिलाओं की माली और सामाजिक स्थिति में काफी सुधार देखने को मिल रहा है. एकेआरएसपीआई द्वारा तैयार की गई इन पशु सखियों के सहयोग से बकरीपालकों के उत्पादन और उत्पादकता में काफी बढ़ोतरी हुई है.

पशु सखियों ने किया कमाल बिहार में ज्यादातर आबादी बकरीपालन से जुड़ी हुई है, लेकिन सही जानकारी की कमी में ये बकरीपालक बड़े लैवल पर बकरीपालन का काम नहीं कर पा रहे थे, क्योंकि लोकल लैवल पर बकरियों की बीमारियों की रोकथाम की उचित व्यवस्था नहीं है. साथ ही, बकरीपालकों को उन के चारा प्रबंधन की भी सही जानकारी नहीं रहती थी. यही वजह है कि बकरियों की बीमारी और मौसम की मार के साथ ही उन की गर्भावस्था के दौरान कठिन स्थितियों से न निबट पाने के चलते कभीकभी नुकसान का सामना भी करना पड़ता है. बिहार के बकरीपालन से जुड़े लोगों की इन्हीं सभी समस्याओं को देखते हुए ‘आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत’ द्वारा उत्तर बिहार के कई जिलों में हाइफर इंटरनैशनल, एक्सिस बैंक फाउंडेशन, एचडीएफसी बैंक के वित्तीय और तकनीकी सहयोग के साथ ग्रामीण आबादी में बकरीपालन का कार्यक्रम चलाया जा रहा है. महिलाएं चलाती हैं पशु परामर्श केंद्र पशुपालकों की समस्याओं के निदान के लिए गांव की ही कुछ जागरूक महिलाओं को ट्रेनिंग दे कर उन्हें पशुओं के सामान्य इलाज के लिए तैयार किया गया है, जो छोटे पशुपालकों और बकरीपालकों को सही तकनीकी जानकारी देने के साथ ही बकरियों और पशुओं के इलाज में भी अहम भूमिका निभा रही है.

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इस से इन महिलाओं का सामाजिक सम्मान तो बढ़ा ही है, साथ ही वे माली तौर पर भी काफी मजबूत हो रही हैं. पूसा ब्लौक के मोहम्मदपुर कोआरी गांव की रहने वाली गीता देवी अप्रैल, 2019 में ‘आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत’ से ट्रेनिंग ले कर अपने गांव में पशु परामर्श केंद्र के संचालन की जिम्मेदारी निभा रही हैं. वे आसपास के गांवों में बकरियों के टीकाकरण, डीवर्मिंग यानी पेट के कीड़ों के नियंत्रण, बधियाकरण, हर्बल दवाओं या साधारण घरेलू दवाओं द्वारा इलाज करने का काम करती हैं. इस के अलावा वे बकरियों के आश्रयस्थल, बकरी के वजन प्रबंधन और बकरी की मार्केटिंग को ले कर बकरीपालकों को जागरूक भी करती हैं. गीता देवी जैसी कई महिलाएं आज पशु सखी के तौर पर बिहार के तमाम गांवों में अपनी सेवाएं दे रही हैं. इस से यह बात साफतौर पर जाहिर हो चुकी है कि जिन कामों में पुरुषों का एकाधिकार था, अगर महिलाओं को मौका मिले तो वे सारे काम कर सकती हैं, जिसे अभी तक पुरुष करते आए हैं. गीता देवी जैसी महिलाएं इस का प्रत्यक्ष उदाहरण हैं. बिहार राज्य के समस्तीपुर जिले के पूसा ब्लौक के चकलेवैनी गांव की एक बड़ी आबादी अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक और अन्य पिछड़ी जातियों की है, जिन में बकरीपालन करने वाले परिवारों की भी बड़ी तादाद है.

इन गांवों के ज्यादातर परिवार अतिरिक्त आमदनी के लिए औसत रूप से 2-3 बकरियों का पालन करते हैं. गांव में बकरीपालन को आमदनी से जोड़ने और माहिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए इस गांव की ज्यादातर महिलाओं को एकेआरएसपीआई द्वारा स्वयंसहायता समूहों से जोड़ा गया है. पशु सखी गीता का कहना है कि गांव में बकरीपालन सदियों पुरानी प्रथा है. लेकिन ज्यादातर लोग पारंपरिक तरीके से ही बकरियों का पालनपोषण कर रहे थे. जैसे पूरे दिन उन्हें चराना, खुले क्षेत्रों में रखना, डीवर्मिंग यानी पेट के कीड़ों के नियंत्रण और टीकाकरण की कमी. इसी वजह से बकरियों में कई जानलेवा बीमारियां भी हो जाती थीं, जिस के चलते बकरियों की मौत तक हो जाती थी. लेकिन पशु सखी के रूप में उन्होंने इन समस्याओं में कमी लाने में कामयाबी हासिल की है.

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चकलेवैनी गांव की ही पशु सखी सीता देवी ने बताया कि एकेआरएसपीआई द्वारा उन्हें पशु सखी के रूप में काम करने के लिए बकरीपालन से जुड़े बेहतर पशु प्रबंधन, महिलापुरुष बराबरी, महिला सशक्तीकरण आदि के बारे में ट्रेनिंग दी गई है. ट्रेनिंग लेने के बाद लोगों में बकरीपालन और प्रबंधन को ले कर सीता देवी जागरूक करने का काम कर रही हैं. उन्होंने 5 साल पहले एकेआरएसपीआई के आर्थिक और तकनीकी सहायता से मौडल बकरीघर का निर्माण भी कराया है. बकरियों की बीमारियों की रोकथाम में अहम भूमिका पशु सखी की ट्रेनिंग लेने के बाद जब पहली बार पड़ोस में एक बकरीपालक की बकरी को बुखार हुआ, तो सीता देवी ने ली गई ट्रेनिंग के हिसाब से बकरी का इलाज किया और वह ठीक हो गई. इस के बाद गांव में दूसरी बकरियों के बीमार पड़ने पर सीता देवी को बकरियों के इलाज और टीकाकरण के लिए बुलाया जाने लगा. इस का नतीजा यह रहा कि बीमारियों की वजह से बकरियों की होने वाली मौतों में काफी कमी आई. सीता देवी ने बताया, ‘

‘मेरे द्वारा बकरियों के इलाज के चलते बकरीपालकों को काफी फायदा होने लगा था. ऐसे में मेरे पास एक दिन में ही तकरीबन 40 बकरियों के टीकाकरण किए जाने के लिए बुलावा आ गया. ‘‘उस दिन मैं काफी उत्साहित थी. जब अगले दिन मैं सुबहसुबह टीकाकरण के लिए गांव जाने के लिए निकली, तो यह देख कर बड़ी राहत मिली कि मेरे द्वारा टीकाकृत और उपचारित सभी बकरियां दूसरी बकरियों की तुलना में काफी सेहतमंद थीं. ‘‘उस दिन मु?ो बकरियों के टीकाकरण और इलाज से 450 रुपए भी मिले, जबकि बकरियों के इलाज के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवा पहले से ही एकेआरएसपीआई द्वारा ट्रेनिंग में उपलब्ध कराई गई थी.’’ चारा बनाने में अहम भूमिका एकेआरएसपीआई के रीजनल मैनेजर सुनील पांडेय ने बताया कि पशु सखियों को खनिज ब्लौक बनाने के लिए भी ट्रेनिंग दी जाती है,

जिस में मक्का की भूसी, नमक, चूना और मुल्तानी मिट्टी का मिश्रण होता है, जो बकरियों में खनिज की कमी को पूरा करने में बेहद जरूरी माना जाता है. ऐसे बकरीपालन को बढ़ावा हाजीपुर के सदुल्लापुर गांव की संगीता देवी प्रशिक्षण के बाद पशु सखी बन अपनी सेवाएं दे रही हैं. इसी तरह से बिदुपुर की अनीता और राजपाकड़ की रेखा भी पशु सखी के रूप में अपने व आसपास के गांव में बकरियों के सामान्य इलाज में बकरीपालकों को मदद करती हैं. ‘आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत’, बिहार के रीजनल मैनेजर सुनील पांडेय ने बताया कि यह कार्यक्रम गोदरेज एग्रोवेट और एचडीएफसी परिवर्तन के सहयोग से संभव हो सका है. उन्होंने बताया कि एकेआरएसपीआई ने सब से पहले ग्रामीण लैवल पर स्वयंसहायता समूहों का गठन किया, ताकि महिला किसान सशक्त हो सकें. इसी दौरान महिलाओं ने जानकारी दी कि बकरीपालन में फायदा न मिल पाने की मुख्य वजह ज्यादातर मेमनों का मर जाना होती है. इस के अलावा बकरी का वजन न बढ़ना भी एक अहम वजह है. इस के बाद संस्था ने बकरियों की देखभाल को ले कर जागरूक महिलाओं को प्रशिक्षण दिए जाने का प्रस्ताव रखा. सुनील पांडेय ने बताया कि ट्रेनिंग के लिए समूह की उन महिलाओं को चुना गया, जो वाकई बकरीपालकों की मदद करना चाहती थीं.

कृषि वैज्ञानिकों से मिलता है मार्गदर्शन गांव की महिलाओं को पशु सखी के रूप में बकरियों की देखभाल से जुड़ी जानकारी को ले कर निपुण बनाने में स्थानीय लैवल पर कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं. समस्तीपुर के बिरौली स्थित कृषि विज्ञान केंद्र के प्रमुख और पशु चिकित्सा के जानकार डाक्टर आरके तिवारी इन महिलाओं को घरेलू लैवल पर इलाज से जुड़ी जानकारी देने के लिए ट्रेनिंग के विषयों को तैयार करते रहे हैं, वहीं केवीके, हाजीपुर की प्रमुख सुनीता कुशवाहा ने महिलाओं के समाज में बराबरी से जुड़े ट्रेनिंग के डिजाइन में काफी योगदान दिया है. इसी आधार पर पशु सखी की भूमिका निभाने वाली ग्रामीण महिलाओं को बकरियों में होने वाली बीमारियों, उन के लक्षण और बचाव के बारे में निपुण किया जाता है. ट्रेनिंग के दौरान उन्हें छोटीछोटी बीमारियों से बकरियों को बचाने की जानकारी, दवा के उपयोग और खुराक के साथ इलाज के बारे में भी बताया जाता है.

ट्रेनिंग लेने के बाद ये पशु सखियां गांव में बकरियों की देखभाल से जुड़ी सेवाएं कम से कम खर्च पर आसानी से उपलब्ध करा रही हैं. ये महिलाएं गांव में कैल्शियम, बकरी आहार, दाना बनाने, बकरीघर जैसे नए प्रयोग शुरू कराने में भी अपनी भूमिका निभा रही हैं. रहनसहन में बदलाव के साथ हो रही है आमदनी पशु सखी के रूप में सेवा दे रही सीता देवी, संगीता देवी, अनीता और रेखा जैसी तमाम महिलाओं का कहना है कि ‘आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत’ के चलते गांव में उन्हें काफी इज्जत मिलने लगी है. अब बकरीपालकों को पशु सखियों से काफी मदद मिलती है. बकरीपालक अब बकरियों के बीमार होने पर पशु सखियों को ही इलाज के लिए बुलाते हैं. साथ ही, उन्हें उचित आदरसत्कार भी देते हैं.

पशु सखियों द्वारा पशुओं को जरूरी दवाएं, पशु आहार व आवश्यक पोषक तत्त्व उपलब्ध कराने से उन की आमदनी में भी काफी इजाफा हुआ है. इस के चलते एक पशु सखी महीने में तकरीबन 2,000 से 3,000 रुपए तक आसानी से कमा लेती है. ‘आगा खान ग्राम समर्थन कार्यक्रम भारत’ के सीओओ नवीन पाटीदार का कहना है कि बकरीपालन ज्यादातर गरीब परिवारों के लिए आजीविका का महत्त्वपूर्ण साधन बना हुआ है. उन का यह भी कहना है कि बकरीपालन से जुड़े छोटे और सीमांत महिलापालकों में अभी भी बकरीपालन से जुड़ी तकनीकी जानकारी की बेहद कमी है. इस समस्या को दूर करने के लिए पशु सखी और पशु परामर्श केंद्र जैसी गतिविधियों को ग्रामीण लैवल पर चलाया जा रहा है. इस से बकरीपालन से जुड़ी रोजमर्रा की चिंताओं से निबटने में यह मील का पत्थर साबित हुई है.

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