लेखक- सुनील शर्मा
अब ओलिंपिक खेलों का बुखार धीरेधीरे उतरने लगा है. सभी खिलाड़ी टोक्यो से वापस आ चुके हैं. जो जीते हैं वे जश्न के माहौल में हैं और जो जीततेजीतते रह गए या जीत नहीं पाए, उन में कसक है. इस बार भारत ने 7 मैडल जीते जो अपनेआप में रिकौर्ड है. जो अजूबा भाला फेंक में नीरज चोपड़ा ने किया है, वह नए इतिहास की सुनहरी इबारत से कम नहीं है. उन के गोल्ड मैडल की वजह से देश पदक तालिका में 48वें नंबर पर खड़ा था. इस के अलावा भारत ने मुक्केबाजी, बैडमिंटन और पुरुष हौकी में कांसे का पदक जीतने के साथसाथ कुश्ती और भारोत्तोलन में सिल्वर मैडल भी जीता.
पर यहां एक बात गौर करने लायक है कि ये जो भी पदकवीर हैं, वे ज्यादातर गांवदेहात के ठेठ बच्चे हैं और ज्यादा पढ़ेलिखे भी नहीं. इंगलिश तो क्या, बहुत से खिलाडि़यों को हिंदी भी अच्छे तरीके से बोलनी नहीं आती है. ऊपर से सभी गरीब घरों के या ज्यादा से ज्यादा मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखने वाले. फिर भी ऐसे होनहारों ने खेल के महाकुंभ में अपना लोहा मनवाया है, जो तारीफ के काबिल है. साथ ही, उन के मातापिता भी उन की इस जीत में बराबर के हकदार हैं, जिन्होंने अभावों में अपने बच्चों की खेल प्रतिभा पर भरोसा किया और कर्ज ले कर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दी. अब भले ही सरकारें जीते हुए खिलाडि़यों पर पैसे, पद और पुरस्कारों की ?ाड़ी लगा रही हैं, पर हकीकत तो यही है कि आज भी देश में खेलों के प्रति जनून की कमी है. आर्थिक मदद की लीपापोती होती है और जब खिलाड़ी को अपनी प्रतिभा निखारने की सब से ज्यादा जरूरत होती है, तब उन्हें अंगूठा दिखा दिया जाता है. इस सब के बावजूद अगर खिलाड़ी देश का नाम पूरी दुनिया में रोशन करते हैं तो वे यकीनन शाबाशी के हकदार हैं.
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आज हम जानेंगे उन खिलाडि़यों के बारे में जिन्होंने टोक्यो ओलिंपिक खेलों में मैडल जीत कर पोडियम पर देश का मानसम्मान बढ़ाया है :
-नीरज चोपड़ा : भालाफेंक में स्वर्ण पदक : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में सोने का तमगा हासिल करने वाले भाला फेंक ऐथलीट नीरज चोपड़ा का जन्म 24 दिसंबर, 1997 को हरियाणा के पानीपत शहर में हुआ था. उन के पिता का नाम सतीश कुमार है और माता का नाम सरोज देवी. नीरज चोपड़ा के पिता हरियाणा के पानीपत जिले के एक छोटे से गांव खंडरा के किसान हैं, जबकि इन की माताजी गृहिणी हैं. नीरज चोपड़ा के कुल 5 भाईबहन हैं, जिन में वे सब से बड़े हैं. भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा ने कम उम्र में ही भाला फेंकना शुरू कर दिया था. दरअसल, वे बचपन में बहुत ज्यादा मोटे थे और वजन घटाने के लिए उन्होंने स्टेडियम जाना शुरू किया था. वहां उन्होंने कुछ सीनियर खिलाडि़यों को भाला फेंकते देखा था, तभी से उन के हाथ में भी भाला आ गया था. अनुभवी भाला फेंक खिलाड़ी जयवीर चौधरी ने साल 2011 में नीरज चोपड़ा की प्रतिभा को करीब से देखा था. उन्होंने बढ़ावा दिया तो बेहतर सुविधा हासिल करने के उद्देश्य से नीरज पंचकूला के ताऊ देवीलाल स्टेडियम में आ गए और साल 2012 के आखिर में वे अंडर-16 के राष्ट्रीय चैंपियन बन गए थे. यहां बता दें कि साल 2012 में जब नीरज चोपड़ा एक दिन बास्केटबौल खेल रहे थे, तो उन की वही कलाई टूट गई थी,
जिस से वे भाला फेंकते हैं. तब एक बार को उन्हें लगा था कि शायद अब वे कभी भाला नहीं फेंक पाएंगे. लेकिन अपनी मेहनत और कड़ी लगन से उन्होंने वह पड़ाव भी पार कर लिया था. नीरज चोपड़ा ने साल 2014 में अपने लिए एक भाला खरीदा था, जो 7000 रुपए का था. इस के बाद उन्होंने इंटरनैशनल लैवल पर खेलने के लिए 1,00,000 रुपए का भाला खरीदा था. चूंकि नीरज चोपड़ा एक किसान परिवार से हैं तो खेल में हाथ आजमाना उन के लिए बहुत ज्यादा मुश्किल था, पर जब साल 2017 में सेना में उन की नौकरी लगी तो एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘‘हम किसान हैं. परिवार में किसी के पास सरकारी नौकरी नहीं है और मेरा परिवार बड़ी मुश्किल से मेरा साथ देता आ रहा है. लेकिन अब यह एक राहत की बात है कि मैं अपनी ट्रेनिंग को जारी रखने में कामयाब हूं.’’ साल 2019 में नीरज चोपड़ा को दाहिनी कुहनी की आर्थ्रास्कोपिक सर्जरी करवानी पड़ी थी, इस वजह से लगभग एक साल तक वे खेलों से दूर रहे. कोविड-19 की महामारी के दौरान लागू प्रतिबंधों के कारण उन्हें अभ्यास करने में भी काफी परेशानी हुई थी और वे ओलिंपिक से पहले कई अहम इंटरनैशनल टूर्नामैंटों में हिस्सा नहीं ले पाए थे.
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-रवि कुमार दहिया : कुश्ती में रजत पदक : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में कुश्ती के फ्रीस्टाइल 57 किलोग्राम भारवर्ग में रजत पदक जीतने वाले रवि कुमार दहिया देखते ही देखते देश और दुनिया में मशहूर तो हो गए हैं पर उन के इस मुकाम तक पहुंचने के पीछे 13 साल की जीतोड़ मेहनत छिपी है. रवि कुमार दहिया के मुश्किल सफर में उन के किसान पिता राकेश दहिया का अहम योगदान रहा है, जो अपने बेटे को नामचीन पहलवान बनाने के लिए हमेशा दूध, देशी घी, लस्सी पहुंचाते रहे. उन के पास कोई बड़ी जायदाद नहीं थी, बल्कि वे तो अपने घर का गुजारा जमीन पट्टे पर ले कर करते थे. रवि कुमार ने अखाड़े में जितना पसीना बहाया है, उस से ज्यादा उन के पिता ने संघर्ष किया है. वे 4 बजे सुबह उठ कर 5 किलोमीटर चल कर नजदीकी रेलवे स्टेशन पहुंचते थे और वहां से तकरीबन 60 किलोमीटर दूर दिल्ली के आजादपुर रेलवे स्टेशन उतर कर वहां से 2 किलोमीटर दूर छत्रसाल स्टेडियम पहुंचते थे. राकेश कुमार दहिया ने अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए एक इंटरव्यू में बताया था, ‘‘एक बार रवि की मां ने उस के लिए मक्खन निकाला और मैं उसे कटोरे में ले गया. वहां रवि ने मक्खन पर आए पानी को हटाना चाहा तो मक्खन ही जमीन पर गिरा दिया. ‘‘मैं ने उस से कहा कि हम बेहद मुश्किलों से तुम्हारे लिए यह सब करते हैं. तब रवि ने मेरी त्याग की भावना की कद्र की और जमीन पर गिरे मक्खन को भी खा लिया.’’ हरियाणा के सोनीपत जिले के नाहरी गांव के रवि कुमार दहिया छोटी सी उम्र में ही अपने गांव के गुरु हंसराज से कुश्ती के दांवपेंच सीखने लगे थे और फिर 10 साल की उम्र से उन्होंने दिल्ली के छत्रसाल स्टेडियम में महाबली सतपाल के मार्गदर्शन में कुश्ती के गुर सीखने शुरू कर दिए थे. रवि कुमार दहिया ने सब से पहले तब लोगों का ध्यान खींचा था जब साल 2015 में जूनियर वर्ल्ड चैंपियनशिप में वे सिल्वर मैडल जीतने में कामयाब रहे थे. इस के बाद 2018 में अंडर-23 वर्ल्ड चैंपियनशिप में भी उन्होंने सिल्वर मैडल हासिल किया था. साल 2019-20 की एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में वे गोल्ड मैडल जीतने में कामयाब रहे थे.
– सेखोम मीराबाई चानू : वेटलिफ्टिंग में चांदी का तमगा : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में भारत को यादगार शुरुआत देने वाली मीराबाई चानू नेवेटलिफ्ंिटग के 49 किलोग्राम भारवर्ग में सिल्वर मैडल जीतने के बाद पिज्जा खाने की इच्छा जताई थी, पर वे जिस घर और इलाके से आती हैं, वहां दो वक्त का भोजन पकाने के लिए भी कई किलोमीटर दूर से पानी और लकडि़यां लानी पड़ती हैं. मीराबाई चानू के लिए सिल्वर मैडल को चूमना किसी अमीर बच्चे की तरह चांदी का चम्मच मुंह में रख कर जन्म लेने जैसा आसान नहीं था. उन्होंने तो खुद अपनी मेहनत से अपने भीतर की निडर चानू को जन्म दिया था और इस लमहे को हकीकत बनाने के लिए उन्हें न जाने कितने सालों से रोजाना एक के बाद एक कई बाधाओं को पार करना पड़ा था. भारत के खूबसूरत उत्तरपूर्वी राज्य मणिपुर की राजधानी इंफाल से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर नोंगपोक काकजिंग गांव की रहने वाली मीराबाई 6 भाईबहनों में सब से छोटी हैं. उन का बचपन पास की पहाडि़यों में लकडि़यां काटते और तालाब से पानी लाते हुए बीता था. इस के बावजूद 8 अगस्त, 1994 को जन्मी मीराबाई चानू ने अपने बचपन में ही फैसला कर लिया था कि वे खेलों से जुड़ेंगी. पहले तो वे तीरंदाज बनना चाहती थीं, लेकिन शायद पूरा देश उन के मजबूत कंधों पर उस लोहे का भार देखना चाहता था जिस ने हालिया ओलिंपिक खेलों में उन्हें चांदी का तमगा दिलाया. हकीकत तो यह है कि किसी गरीब घर की लाड़ली के लिए सपने देखना तो आसान है पर उन्हें पूरा करने की राह में कांटों की सेज होती है.
मीराबाई चानू के भी वेटलिफ्टर बनने की राह में कई अड़चनें थीं. पैसे की कमी के चलते मातापिता उन का हौसला बढ़ाने की हालत में नहीं थे. पर जब वे किसी तरह खेल से जुड़ीं तो अपनी ट्रेनिंग और स्कूल के समय में तालमेल बिठाने के लिए भी उन्हें पापड़ बेलने पड़ते थे. वे अपने गांव से 22 किलोमीटर दूर ट्रेनिंग सैंटर तक पहुंचने के लिए 2 बसें बदलती थीं. पैसे न होने पर ट्रक ड्राइवरों से लिफ्ट लेती थीं. मीराबाई चानू ने ओलिंपिक के पोडियम पर चढ़ने के लिए और भी कई तरह की कुरबानियां दी हैं. वे अपने परिवार से दूर रही थीं. वर्ल्ड चैंपियनशिप में हिस्सा लेने के चलते वे अपनी बहन की शादी तक में हिस्सा नहीं ले पाई थीं. साल 2016 के रियो ओलिंपिक खेलों में मीराबाई चानू के नाम के आगे ‘डिड नौट फिनिश’ लिखा गया था. यह तब लिखा जाता है जब आप खेल को पूरा नहीं कर पाते हैं. साल 2016 के बाद मीराबाई चानू का हौसला इतना ज्यादा टूटा कि वे डिप्रैशन में चली गईं और उन्हें हर हफ्ते मनोवैज्ञानिक के सैशन लेने पड़े थे. वे खेल को अलविदा कह देना चाहती थीं, पर उन के भीतर के खिलाड़ी मन ने हार नहीं मानी और उन्होंने दोबारा जबरदस्त वापसी की. अब जब अपनी छाती पर चांदी की चमक लिए मीराबाई घर पहुंची, तो उन की मां सेखोम ओंगबी तोम्गी लीमा और पिता सेखोम कृति मेइतेई खुशी के मारे फूले न समाए, उन की बेटी ने देश का मान जो बढ़ाया है.
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-लवलीना बोरगोहेन : मुक्केबाजी में कांसे का तमगा : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में मुक्केबाजी में भारत को एकलौता कांस्य पदक दिलाने वाली 24 साल की लवलीना बोरगोहेन भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम की रहने वाली हैं. उन का जन्म 2 अक्तूबर, 1997 को असम के गोलाघाट में हुआ था. उन के पिता का नाम टिकेन बोरगोहेन और माता का नाम ममोनी बोरगोहेन है. लवलीना बोरगोहेन की 2 बड़ी जुड़वां बहनें भी हैं. उन की बड़ी बहन ने किक बौक्ंिसग में अपना कैरियर बनाना चाहा, लेकिन किसी कारण वे उसे आगे न बढ़ा सकीं. लवलीना बोरगोहेन ने भी अपने खेल जीवन की शुरुआत किक बौक्ंिसग से ही की थी, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने मुक्केबाजी को अपना लिया था. लवलीना बोरगोहेन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बारपाथर गर्ल्स हाई स्कूल से पूरी की थी. उन के पिता ने अपनी लाड़ली के सपनों को पूरा करने के लिए बहुत संघर्ष किया और कई आर्थिक कठिनाइयों का भी सामना किया है. 9 साल पहले मुक्केबाजी में कैरियर शुरू करने वाली लवलीना बोरगोहेन 2 बार वर्ल्ड चैंपियनशिप में कांस्य पदक भी जीत चुकी हैं. उन के लिए ओलिंपिक खेलों की तैयारी करना आसान नहीं था, क्योंकि कोरोना संक्रमण के कारण वे अभ्यास के लिए यूरोप नहीं जा सकी थीं. इस के अलावा उन की मां की तबीयत खराब थी और पिछले साल उन का जब किडनी ट्रांसप्लांट हुआ तब लवलीना दिल्ली में राष्ट्रीय शिविर में थीं. यह कांस्य पदक लवलीना बोरगोहेन के ही लिए नहीं, बल्कि असम के गोलाघाट में उन के गांव के लिए भी बदलाव लाने वाला रहेगा क्योंकि अब बारो मुखिया गांव तक पक्की सड़क बनाई जा रही है. साल 2006 में लवलीना बोरगोहेन को ‘अर्जुन अवार्ड’ से नवाजा गया था. इस अवार्ड को हासिल करने वाली वे असम की 6ठी खिलाड़ी बन गई हैं.
-बजरंग पूनिया : कुश्ती में कांस्य पदक : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में कुश्ती के फ्रीस्टाइल 65 किलोग्राम भारवर्ग में कांस्य पदक जीतने वाले बजरंग पूनिया का जन्म 26 फरवरी, 1994 को हरियाणा के ?ाज्जर जिले के खड्डन गांव में हुआ था. उन के पिता का नाम बलवान सिंह पूनिया और माता का नाम ओमप्यारी है. बजरंग पूनिया के पिता बलवान सिंह पूनिया भी पेशेवर पहलवान रह चुके हैं. बजरंग पूनिया की पत्नी का नाम संगीता फोगाट है, जो खुद भी पहलवान रह चुकी हैं. वे ‘द्रोणाचार्य अवार्ड’ विजेता महावीर फोगाट की बेटी हैं. बजरंग पूनिया तकरीबन 7 साल की उम्र से कुश्ती खेल रहे हैं. टोक्यो ओलिंपिक खेलों में कांस्य पदक जीतने वाले बजरंग भारतीय रेलवे में राजपत्रित अधिकारी ओएसडी स्पोर्ट्स के पद पर काम करते हैं. उन्होंने विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में 3 बार (2013, 2018, 2019) मैडल अपने नाम किया है. इस में से 2 बार उन्होंने रजत और एक बार कांस्य पदक जीता है. पर उन्हें यह मुकाम बड़ी मुश्किल से हासिल हुआ है. बजरंग पूनिया के पिता बलवान सिंह पूनिया एक इंटरव्यू में बता चुके हैं, ‘‘मैं ने बजरंग को छारा गांव के लाला दीवानचंद अखाड़े में दाखिल करा दिया था. यह अखाड़ा हमारे घर से 35 किलोमीटर दूर था. बजरंग का दिन सुबह 3 बजे शुरू होता था और आज भी उस की यही आदत है.’’ बजरंग पूनिया के परिवार में खेती से जितना आता था, उस से घर का ही गुजारा हो पाता था. वैसे भी, कुश्ती सस्ता खेल नहीं है. बच्चे को पहलवान बनाना है, तो खुराक में घी, दूध, बादाम शामिल करना होता है, जिस पर जम कर खर्चा होता है. बजरंग पूनिया के बड़े भाई हरेंद्र पूनिया अपने छोटे भाई के खानेपीने का ध्यान रखते थे, उन के लिए बादाम रगड़ते थे. वे ही गांव से दूध, फल, घिसा हुआ बादाम और देशी घी ले कर बजरंग के पास जाते थे. बजरंग पूनिया के छत्रसाल स्टेडियम में पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही भारतीय पहलवान योगेश्वर दत्त की निगाह उन पड़ गई थी और उन्होंने शुरुआत में ही बजरंग को अपने अंडर में ले लिया. उन की ट्रेनिंग शुरू की, दांवपेंच सिखाए और आर्थिक मदद भी की. यही वजह है कि बजरंग हमेशा योगेश्वर का नाम लेते हैं.
-पी वी सिंधु : बैडमिंटन में कांस्य पदक : टोक्यो ओलिंपिक खेलों में भारतीय बैडमिंटन खिलाड़ी पी वी सिंधु ने चीन की खिलाड़ी ही बिंग जियाओ को हरा कर कांस्य पदक अपने नाम किया. इस के साथ ही वे लगातार 2 बार ओलिंपिक खेलों में पदक जीतने वाली भारत की पहली महिला बन गईं. पी वी सिंधु की मां पी विजया ने इस जीत पर कहा, ‘‘मैं बेहद खुश हूं कि मेरी बेटी ने कांस्य पदक अपने नाम किया है. सैमीफाइनल मुकाबला हारने के बाद वह काफी दुखी थी. हम ने उस से बात की और उस का हौसला बढ़ाया. वह गोल्ड मिस कर गई, लेकिन कांस्य भी गोल्ड के बराबर ही है.’’ 5 जुलाई, 1995 को हैदराबाद में जन्मी पी वी सिंधु के पिता और माता दोनों वौलीबौल खिलाड़ी रहे हैं. उन के पिता पी वी रमना ने एशियाई खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है. पी वी रमना साल 1986 के एशियाई खेलों में कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय वौलीबाल टीम का हिस्सा थे. साल 2000 में उन्हें ‘अर्जुन अवार्ड’ से सम्मानित किया गया था. वे भारतीय रेलवे के पूर्व कर्मचारी हैं. पी वी सिंधु की मां पी विजया भी भारतीय रेलवे की कर्मचारी हैं. खेल पृष्ठभूमि से आने के कारण पी वी सिंधु को खेलों में अपना कैरियर बनाने के लिए मातापिता के समर्थन की कोई कमी न थी. साल 2008 में जब पुलेला गोपीचंद ने अपनी अकादमी खोली थी, तो वह पी वी सिंधु के घर से लगभग 35 किलोमीटर दूर थी, लेकिन उन के मातापिता अपनी बेटी को ट्रेनिंग के लिए तैयार करने के लिए सुबह 4 बजे उठ जाते थे और यह सिलसिला बरसों तक चलता रहा. पी वी सिंधु साल 2016 में हुए रियो ओलिंपिक खेलों में गोल्ड मैडल जीतने के बहुत करीब थीं, लेकिन वे फाइनल मुकाबले में स्पेन की बैडमिंटन खिलाड़ी कैरोलिना मारिन से 21-12 और 20-15 से हार गई थीं. बैडमिंटन खिलाड़ी पी वी सिंधु को उन की उपलब्धियों के लिए ‘राजीव गांधी खेलरत्न अवार्ड’ के अलावा ‘पद्मश्री अवार्ड’ और ‘अर्जुन अवार्ड’ से भी नवाजा जा चुका है.
पुरुष हौकी टीम : कांस्य पदक विजेता मनप्रीत सिंह : पंजाब के जालंधर जिले के गांव मिट्ठापुर के रहने वाले भारतीय हौकी टीम के कप्तान मनप्रीत सिंह आज ऊंचे मुकाम पर हैं, पर एक दौर ऐसा था जब उन के पास हौकी खरीदने तक के पैसे न थे. वहीं, एक अफवाह ने उन की जिंदगी को जबरदस्त मोड़ दिया था. इस बारे में मनप्रीत सिंह की मां मंजीत कौर बताती हैं कि उन के पति साल 1992 में अकेले दुबई गए थे. साल 1995 में उन के पति को किसी ने ?ाठी खबर दे दी कि पंजाब में उन की पत्नी और उन के बच्चों का किसी ने कत्ल कर दिया है. यह बात सुनते ही उन के पति सदमे में आ गए और मौके पर ही दम तोड़ दिया. बस, यहीं से पूरा परिवार सड़क पर आ गया था. पर मां मंजीत कौर ने हिम्मत न हारी और अपने 3 बच्चों के पालनपोषण की जिम्मेदारी निभाने लगीं. इस के लिए उन्होंने पशुओं को चारा डालने और महिलाओं के कपड़े सिलने का काम किया.
सिमरनजीत सिंह : पंजाब के रहने वाले सिमरनजीत सिंह के पिता जब खेत में हल चलाते थे, तब उन्होंने महज 8 साल की उम्र में हौकी स्टिक थाम ली थी. सिमरनजीत सिंह ने पंजाब के बटाला जिले के गांव चाहल कला के एक परिवार में जन्म लिया था. उन के पिता इकबाल सिंह खेतीबारी किया करते थे, जबकि उन की मां मनजीत कौर घर का कामकाज संभालती थीं. जब 8 साल के सिमरनजीत सिंह को पिता ने हौकी खेलते देखा तो बिना पैसों की परवा किए अपने बेटे को ट्रेनिंग दिलाने के लिए हरियाणा के शाहबाद हौकी स्टेडियम भेजा. कड़ी मेहनत और लगन के दम पर सिमरनजीत सिंह का सलैक्शन साल 2016 में जूनियर वर्ल्ड कप में हुआ था, जहां उन्होंने बैल्जियम की टीम के सामने खेलते हुए चैंपियनशिप के फाइनल मैच में 2-1 से भारत को जीत दिलाने में बेहतरीन प्रदर्शन किया था.
पी आर श्रीजेश : पी आर श्रीजेश का जन्म 8 मई, 1986 को केरल के एर्णाकुलम जिले के कि?ाक्कंबालम गांव के एक किसान परिवार में हुआ था. आज उन्हें बेहतरीन गोलकीपर होने के चलते ‘दीवार’ कहा जाता है. टोक्यो ओलिंपिक में श्रीजेश के शानदार प्रदर्शन से उन के पिता पी वी रवींद्रन की खुशी का ठिकाना नहीं है. एक इंटरव्यू में पी वी रवींद्रन ने बताया, ‘एक गांव में रहते हुए हौकी खेलने के लिए ज्यादा सुविधाएं नहीं थीं. मैं एक किसान हूं और ज्यादा कमाता नहीं हूं. उन दिनों, एक गोलकीपर की किट की कीमत 10,000 रुपए होती थी और हम इसे नहीं खरीद सकते थे. हम ने किसी तरह इधरउधर से पैसे इकट्ठे किए, किट के लिए हमें अपनी गाय भी बेचनी पड़ी थी. आज श्रीजेश अपनी कड़ी मेहनत के दम पर ही इस मुकाम पर पहुंचा है.’
सुरेंदर कुमार : भारत को कांस्य पदक दिलाने वाली टीम के खिलाडि़यों में से एक सुरेंदर कुमार की जिंदगी की कहानी रोमांच से भरी है. उन की मां ने एक इंटरव्यू में बताया कि सुरेंदर कुमार 6ठी क्लास में थे जब उन्होंने हौकी खेलना शुरू किया था. तब उन्होंने सुरेंदर से कहा था कि तुम हौकी में कुछ नहीं कर पाओगे. पिता ने तो हौकी स्टिक दिलाने से इनकार कर दिया था. इस के बाद सुरेंदर के एक पड़ोसी पुरषोत्तम ने उन्हें 500 रुपए की हौकी स्टिक खरीद कर दी थी. सुरेंदर की मां ने बताया कि उन्होंने अपने लिए चीजों में कमी जरूर की लेकिन कभी बच्चे के खेल के लिए किसी चीज की कमी नहीं होने दी. आज बेटे ने कर्ज चुका दिया और पूरे देश को खुशी दे दी. देश के लिए पदक ले कर लौटे सुरेंदर कुमार को उन के पिता मलखान सिंह नए मकान का तोहफा देंगे. तैयार किए जा रहे नए मकान में 2 जगह ओलिंपिक के 2 चिह्न भी लगाए गए हैं. इस से पहले सुरेंदर का परिवार छोटे से मकान में रह रहा है.
अमित रोहिदास : 28 साल के अमित रोहिदास ने राष्ट्रीय टीम की तरफ से 97 मैच खेले हैं. वे ओडिशा के सुंदरगढ़ में उसी गांव के रहने वाले हैं जहां 3 बार के ओलिंपियन और भारतीय हौकी टीम के कप्तान रह चुके दिलीप टिर्की का जन्म हुआ था. अमित रोहिदास ने बताया, ‘‘उन्होंने (दिलीप टिर्की) हम कई गांव वालों को हौकी खेल से जुड़ने के लिए प्रेरित किया. मैं जिस क्षेत्र का रहने वाला हूं वहां के लिए हौकी एक खेल ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक विकास का साधन भी है. मैं ओडिशा का पहला गैरआदिवासी हौकी ओलिंपियन हूं.’’ रोहिदास ने 2013 में मलयेशिया में हुए सुलतान अजलान शाह कप से डैब्यू किया था. वे 2013 एशिया कप में रजत पदक जीतने वाली टीम का हिस्सा थे. सौनामारा में अमित रोहिदास का परिवार सुबह से ही अपने टैलीविजन पर इस उम्मीद में बैठा था कि भारतीय टीम हौकी में पदक जीतेगी और उस के पिता के सपने को पूरा करेगी. ‘‘हमारे पिता की किडनी फेल होने से पिछले साल अक्तूबर में तब उन की मौत हो गई थी जब अमित बैंगलुरु में कैंप में थे. वे कुछ दिनों के लिए पिता के अंतिम संस्कार के लिए वापस आए और दोबारा शिविर में शामिल हो गए. हमारे पिता की इच्छा थी कि किसी दिन अमित भारतीय टीम को भारत के लिए पदक जीतने में मदद करें. अगर वे जीवित होते, तो बहुत खुश होते,’’ यह बात अमित के बड़े भाई निरंजन रोहिदास ने बताई.
-विवेक सागर प्रसाद : मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक छोटे से गांव चांदौन के खिलाड़ी विवेक सागर प्रसाद के पिता रोहित प्रसाद सरकारी प्राइमरी स्कूल गजपुर में शिक्षक हैं. मां कमला देवी गृहिणी और बड़ा भाई विद्या सागर सौफ्टवेयर इंजीनियर है. इस के अलावा 2 बहनें पूनम और पूजा हैं. पूनम की शादी हो चुकी है और पूजा पढ़ाई कर रही है. विवेक सागर प्रसाद के पिता बताते हैं कि वे तो विवेक को हमेशा से इंजीनियर बनाना चाहते थे, लेकिन उसे तो हौकी प्लेयर ही बनना था. विवेक की मां कमला देवी बताती हैं कि बेटे की पिटाई न हो, इस के लिए कई बार उसे उस के पिता से ?ाठ बोलना पड़ा. वह घर नहीं आता तो वे कह देतीं कि वह सब्जी लेने गया है, फिर चुपके से बहन पूजा दूसरे दरवाजे से घर में बुला लेती. भाई विद्यासागर के मुताबिक, जब दोस्तों ने कहा कि विवेक टैलेंटेड है और खूब आगे जाएगा तो उन्होंने अपने पापा को हौकी खेलने के लिए मनाया. –
हरमनप्रीत सिंह : हरमनप्रीत सिंह फुटबौल खिलाडि़यों के परिवार से हैं. उन के पिता सतनाम सिंह पंजाब पुलिस के लिए खेलते थे, जबकि उन के चाचा जेसीटी फगवाड़ा के लिए खेलते थे, जिस में उन्होंने प्रतिष्ठित डूरंड कप जीता था. द्य गुरजंत सिंह : गुरजंत सिंह के परिवार में तो कोई हौकी नहीं खेलता था, पर उन के ननिहाल में जरूर इस खेल का काफी प्रभाव था. वे जब अपने ननिहाल बटाला जाते थे, तो वहां अपने भाइयों को खेलते देखते थे. एक बार वे वहां गए और 3 महीने वहीं रह कर हौकी खेली. इस के बाद वे अपने ममेरे भाई की मदद से चंडीगढ़ की एकेडमी में ट्रेनिंग लेने चले गए. वहां वे स्कूल जाते थे और फिर आ कर ट्रेनिंग करते थे. हालांकि वहां कोई टर्फ नहीं था.
सुमित वाल्मीकि : हौकी खिलाड़ी सुमित वाल्मीकि के पिता प्रताप सिंह सुमित अपने परिवार की संघर्ष की कहानी बताते हुए कहते हैं कि उन के बेटे ने जीजान लगा कर मेहनत की है. सुमित को खिलाड़ी बनाने के लिए उन के दोनों बड़े बेटों ने होटल में मजदूरी की. सुमित के बड़े भाई जय सिंह बताते हैं कि 6 माह पहले उन की माता का देहांत हो गया था. अपनी मां के ?ामके से सुमित ने लौकेट बनवाया और उस में मां का फोटो लगवा रखा है. जब वह ओलिंपिक में गया था तो कह कर गया था कि मां मेरे साथ है और अब की बार हम मैडल जरूर ले कर आएंगे. सुमित की जिद और जनून ने उन को इस मुकाम तक पहुंचाया है. एक ऐसा भी वक्त था जब घंटों कड़ा अभ्यास करने के बाद सूखी रोटी खानी पड़ी. कई बार रोटी पर लगाने के लिए घर में घी तक न होता था. एक वक्त था जब जूते न होने की वजह से सुमित हौकी ग्राउंड से पलट कर वापस घर की ओर चल दिए थे. कोच उन की बेबसी सम?ा गए और जूते देने का वादा कर ग्राउंड पर आने को कहा.
नीलकांत शर्मा : नीलकांत के पिता पंडित थे. उसी की कमाई से उन का घर चलता था. नीलकांत ने बचपन में ही तय कर लिया था कि वे हौकी खेलेंगे, लेकिन यह आसान नहीं था. फुटबौल की लोकप्रियता के कारण हौकी को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया जाता था. ग्राउंड पर अभ्यास के लिए उन्हें केवल वही समय मिलता था जब फुटबौल वाले खिलाड़ी नहीं खेला करते थे. इस सब के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी. साल 2003 में उन्होंने पीएचएम एकेडमी में जा कर ट्रेनिंग की. द्य रुपिंदर पाल सिंह : रुपिंदर पाल के पिता हरिंदर सिंह फरीदकोट के सरकारी बृजेंद्रा कालेज के पास खेल के सामान की दुकान चलाते थे. वे भी स्कूल व कालेज के समय में हौकी खेलते थे. रुपिंदर की फिरोजपुर के प्रसिद्ध हौकी ओलिंपियन परिवार के सदस्य हरमीत सिंह, अजीत सिंह व गगन अजीत सिंह के साथ भी रिश्तेदारी है. रुपिंदर पाल सिंह ने तकरीबन 6 साल की उम्र में फिरोजपुर में संचालित शेरशाह वली हौकी अकादमी में प्रशिक्षण लेना शुरू किया था. आज वे टीम इंडिया के अलावा इंडियन ओवरसीज बैंक के लिए खेलते हैं और इस में नौकरी भी करते हैं.
हार्दिक सिंह : हार्दिक सिंह के पिता वरिंदरप्रीत सिंह पंजाब पुलिस में बतौर एसपी (आपरेशन), जिला बटाला में कार्यरत हैं. वे भी भारतीय टीम के लिए खेल चुके हैं. इस के अलावा हार्दिक सिंह के दादा प्रीतम सिंह भी भारतीय नौसेना के हौकी कोच थे. हार्दिक अपने चाचा और पूर्व भारतीय ड्रेगफ्लिकर जुगराज सिंह को अपना गुरु मानते हैं. उन की चाची राजबीर कौर भी भारत के लिए इंटरनैशनल लैवल पर खेल चुकी हैं. राजबीर कौर के पति गुरमेल सिंह ने 1980 के ओलिंपिक में भाग लिया था, जिस में भारत ने स्वर्ण पदक जीता था.
शमशेर सिंह : शमशेर सिंह मानते हैं कि कठिन परिस्थितियों ने उन्हें जीवन की अनिश्चितताओं के लिए अच्छी तरह तैयार किया है. उन के अनुसार, ‘‘मैं ने बहुत मुश्किल परिस्थितियां देखी हैं. मेरे पिता खेती से आजीविका कमाते थे. हौकी में शुरुआती दिनों में मैं ने कई तरह की परेशानियों का सामना किया जिन में मु?ो आधारभूत चीजों, जैसे स्टिक, किट और जूतों के लिए जू?ाना पड़ा.’’ द्य ललित कुमार उपाध्याय : उत्तर प्रदेश से निकल कर ललित कुमार उपाध्याय टोक्यो पहुंचे. ललित के गांव के हर घर में एक हौकी खिलाड़ी है. वे वाराणसी के शिवपुर क्षेत्र के गांव भगतापुर के एक अतिमध्यम परिवार से हैं. इन के पिता सतीश ने छोटी सी कपड़े की दुकान चला कर बेटे के सपनों को जिंदा रखा. यूपी कालेज में कोच परमानंद मिश्रा ने ललित को हौकी का ककहरा सिखाया. उन का चयन 2018 में राष्ट्रीय हौकी टीम में हुआ. द्य बिरेंद्र लाकरा : ?ारखंड के सिमडेगा में जन्मे बिरेंद्र लाकरा एक आदिवासी परिवार से हैं. शुरुआती प्रैक्टिस घर में करने के बाद उन्होंने सेल हौकी एकेडमी में दाखिला लिया. इस के बाद इन्होंने प्रोफैशनल हौकी में कदम रखा. बिरेंद्र के भाई बिमल जहां इंडियन हौकी टीम में मिडफील्डर के तौर पर रहे, वहीं बहन असुंता लाकरा इंडियन महिला हौकी टीम की कप्तान रहीं. बिरेंद्र लाकरा फिलहाल हौकी इंडिया लीग में रांची रायनोज के लिए खेलते हैं. रांची रायनोज को कुछ समय पहले ही लीग में जोड़ा गया है. इस टीम के मालिकों में भारत के क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धौनी का नाम भी शामिल है.