लेखक-रोहित और शाहनवाज
अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पूरी दुनिया में महिलाओं के संघर्ष का प्रतीक है. इस दिन को महिलाओं के लिए ऐतिहासिक माना जाता है. यह दिन सिर्फ ट्विटर, फेसबुक या इन्स्टा पर स्वीट स्टोरीज शेयर करने का नहीं बल्कि उस राजनीतिक जीत का मसला है जिस ने महिलाओं को पंख दिए, आजादी का स्वाद चखाया और फिर पितृसत्तात्मक समाज में अपने हक के अधिकारों के लिए लड़ने की सीख दी.
आज से 102 साल पहले अमेरिका के शिकागो से शुरू हुआ बुनकर महिलाओं का आन्दोलन जब शिकागो की सड़कों पर चलने लगा तो मर्दवादी अहंकार में डूबी सत्ता इसे बर्दाश्त नहीं कर पाई. जाहिर है उस दौरान सत्ता की जरुर यह सोच थी कि ‘मर्दों के नीचे वाली यह औरतें आवाज बुलंद कर चीख कैसे सकती हैं? एक तो सब से निचले दर्जे की मजदूर और ऊपर से महिला?’ जिस कारण राज्य ने इस आन्दोलन का बुरी तरह दमन करने की कोशिश की. महिलाओं के इस विरोध के चलते अमेरिका की उस समय की सोशलिस्ट पार्टी ने अगले साल 1909 में पहला महिला दिवस मनाने का फैसला किया. जिस ने महिलाओं के निरंतर चलने वाले संघर्ष का रास्ता खोल दिया. जिस के बाद यह दिन का नाम इतिहास के पन्नों में पूरी दुनिया के लिए महिलाओं के संघर्ष के रूप में दर्ज किया गया.
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दिल्ली के अलगअलग बौर्डरों पर किसान आन्दोलन को 100 दिनों से अधिक हो चुके हैं. सरकार के अड़ियल रवय्ये और भारी नजरंदाजी के बावजूद किसानों का हौसला और जज्बा अभी भी कायम है. हजारों की संख्या में किसान अभी भी दिल्ली की सीमाओं में 3 नए विवादित कानूनों को वापस करवाने की मांग को ले कर इकठ्ठा हैं. इस आंदोलित संख्या में ना सिर्फ पुरुष हैं बल्कि एक बड़ी संख्या महिलाओं की भी हैं जो ना सिर्फ पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला कर चल रही हैं बल्कि नेतृत्व भी दे रही हैं. यही महिलाएं हैं जो विश्व की महिलाओं से जुड़ कर सही मायनों में ‘महिला दिवस’ को साकार कर तमाम बोर्डरों पर महिला दिवस मना रही हैं.
भारत में महिला दिवस की जरुरत और किसान आन्दोलन में इस दिन के महत्व को ले कर ‘सरिता’ टीम किसानों के धरनास्थलों पर गई. जहां इस मौके के लिए आई कई महिलाओं से बात की गई. इन्ही में से एक जसबीर कौर नथ, जो इस समय किसान आन्दोलन को नेतृत्व कर रही हैं उन्होंने इस ख़ास मौके पर ‘सरिता’ पत्रिका से बात की. उन्होंने कहा, “आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ऐसा दिन बन गया है जिस पर सरकार झूठी चिंता जाहिर करने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रूपए बहा देती है. दिल्ली के बोर्डरों पर इतने दिनों से हजारों महिलाएं बैठी हैं लेकिन सरकार उन की बात सुन ने को राजी नहीं. यह सरकार ‘महिला सरकार’ की बात करती थी. लेकिन इन की अधिकतर नीतियाँ महिला विरोधी रहती हैं. आज इस दिन को मनाने का सही उद्देश्य है कि अपने हम अपने बीते संघर्षों से प्रेरणा लेते हुए महिलाओं के लिए बेहतर समाज बनाने के लिए संकल्प करें, और आज किसान आन्दोलन में हम इस दिन के माध्यम से यही संकल्प करेंगे.
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जसबीर कौर क्लारा जेटकिन और रोजा लैक्जमबर्ग को अपनी प्रेरणा मानती हैं. उन का मानना है कि यह वह अंतर्राष्ट्रीय नेता थीं जिन्होंने इस दिन को सार्थक बनाया. पूरी दुनिया में महिलाओं को उन के बुनियादी हक़ मिले इसलिए इन महिला नेताओं ने यह दिन महिलाओं को समर्पित किया.
पिछले 103 दिनों से लगातार टिकरी बौर्डर पर बैंठी 65 वर्षीय किसान नेता जसबीर कौर नथ मनसा जिले के मनसा शहर से आती हैं. वह पिछले 35 सालों से सामाजिक मुद्दों को ले कर एक्टिव रही हैं. जसबीर कौर का पूरा परिवार भारत के उन गिनेचुने लोगों में से एक होगा जो कई वर्षों से किसानों और दबेकुचले तबके की बुनियादी आवाजों को उठाने के लिए समर्पित है.
मंच से जसबीर का टेंट टिकरी बौर्डर पर मेट्रो पुल के पिल्लर 783 के करीब है. जसबीर की उपयोगिता टिकरी पर हमेशा मुख्य मंच के नजदीक ही होती है. टिकरी जैसी महत्वपूर्ण जगह में उन के कद और काबिलियत को इसी तौर पर समझा जा सकता है कि उन्हें संयुक्त किसान मोर्चा की तरफ से मंच के संचालन, क्राउड मैनेजमेंट और फंड इकठ्ठा करने की मुख्य जिम्मेदारी सोंपी गई है. यह अपनेआप में दिलचस्प है कि वह ऐसी मां भी हैं जिन्होंने अपनी बेटी को अपने साथ संघर्ष का साथी बनाया. उन की बेटी नवकिरण नथ वही आन्दोलनकारी है जिस ने अपने कुछ साथियों के साथ मिल कर ट्राली टाइम्स न्यूज़पेपर (पहला किसान अखबार) की स्थापना की.
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जसबीर कौर ‘सरिता’ पत्रिका के माध्यम से कहती हैं, “जब हम आन्दोलन में होते हैं तो प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़ा हुआ कोई भी संघर्ष जो हिस्टोरिक होता है वह दुनिया में सभी संघर्षरत लोगों के लिए जरुरी होता है. महिला दिवस का भी किसान आन्दोलन के लिए महत्व है. यह दोनों आन्दोलन संघर्षों की मिसाल है. इसलिए इन इन का सेलिब्रेशन जरुरी है.”
महिलाओं के इसी जज्बे को समझने के लिए सरिता टीम ने सिंघु बौर्डर की यात्रा की. सिंघु बौर्डर वह पहली जगह है जहां किसानों का हुजूम लाठी’डंडे खाते हुए दिल्ली के लिए पहुंचा था. यहीं से देश के आम लोगों की नजर किसानों के मुददे पर पड़ी और यह जगह पुरे किसान आन्दोलन का केंद्रीय स्पोट भी बना.
ऐसे ही हमारी मुलाक़ात मंच से सोनीपत की तरफ करीब 2 किलोमीटर आगे बैठीं राजकौर (28) से हुई. राजकौर पटियाला के गुरथल गांव से आती हैं. वह सिंघु बोर्डर पर रेगुलरली आतीजाती हैं लेकिन इस बार वह महिला दिवस को ले कर 1 मार्च से ही लगातार बनी हुई हैं. स्वभाव से आत्मविश्वासी दिखती राजकौर कहती हैं, “हमारे गांव में कमेटियां बनी हुई हैं जो देखती है कि किस दिन किस को धरने पर जाना है. यह कमिटी पिंडों में लोकल लेवल पर प्रोग्राम को भी आयोजित करती हैं. इस समय गांव में फसल का बहुत काम है. इसलिए इसे देखते हुए कमिटी ने बोर्डर पर शिफ्ट लगाईं हैं. इस की खासियात यह है कि पिंडों में महिलाएं आपस में बैठ कर राजनेतिक बातें करती हैं, और सहीगलत पर सोचविचार करने लगी हैं.”
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वहीँ 70 साल की हरदीप अपनी उम्र के कारण तकलीफ में रहती हैं. हरदीप कौर भी पटियाला जिला से आई हैं. वह यहां 3 बार आ चुकी हैं. पैरों में भारी दर्द होता है डाक्टरों ने लम्बी यात्रा करने से मना किया है लेकिन वह फिर भी यहां यहां ट्राली से हिचकौले खाते हुए पहुंची हैं. उन का मानना है कि आन्दोलन में आना उन की नैतिक जिम्मेदारी है, अगर वह यहां नहीं आई तो खुद से नजर में गुनाहगार हो जाएगी..
हरदीप को महिला दिवस के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन वह कहती हैं, “इस आन्दोलन ने महिलाओं को हिम्मत दी है, उन का आत्मविश्वास बढ़ाया है. जो महिलाएं पहले घर पर झाड़ूकटका कर रही थी वह यहां आ कर नारे लगा रही हैं, भाषण दे रही हैं. जो औरतें पहले ट्रेक्टर छूती भी नहीं थी वह ट्रेक्टर चला रही हैं.. खुद दूर अपने पिंडों से ड्राइव कर के आती हैं.”
इस बात को जसबीर कौर ने खुल कर बताया. जसबीर कहती हैं, “हमारी सोसाइटी पुरुष प्रधान है जिस में वे समझते हैं कि खाना पकाना, कपड़े धोना, झाड़ूकटका करना औरतों का काम है. आज 3 महीने से ऊपर हो गए हैं. (हंसते हुए) जो भी हो आज मर्द यहां अपने झूठे बर्तन कपड़े धो रहे हैं, खुद के लिए खाना बना रहे हैं, अपनी जगहों पर झाड़ू लगाते हैं. इन कामों को ले कर एक जिम्मेदारी का एहसास सभी को हुआ है.”
वह आगे कहती हैं, “पहले जो मर्द कहते थे कि रोटी बनाने में कौन सी बड़ी बात है अब उन्हें यहां समझ आ रहा है कि 5 लोगों की रोटी बनाना कितना समय खाऊ और थकाऊ काम है. भले इस से महिलापुरुष में बराबरी नहीं आएगी लेकिन आने वाले समय में महिलाओं की मुक्ति के लिए यह एक पड़ाव का काम जरूर करेगा.”
जसबीर का कहना है कि महिला दिवस को किसान आन्दोलन में मनाया जाना इस बात की मिसाल है कि हमारी मांग और हमारी सोच किस वंचित समाज के लिए है. जसबीर कहती हैं, “यह बहुत बड़ा सवाल है कि औरतों को किसान नहीं समझा जाता. इस में दिक्कत यह है कि अधिकतर किसान औरतों के नाम पर जमीन नहीं है. वह या तो पिता के नाम पर होती है, भाई या पति के नाम पर, या फिर बेटे के नाम पर होती है. यह भेदभाव नहीं है क्या? हां, हसबेंड की अगर डेथ होती है तब घरों में जमीन को पत्नी के नाम की जाती है. देखा जाए तो औरतें खुद को किसान परिवार की तो मानती हैं लेकिन खुद को किसान नहीं बतातीं. जब की खेतों में महिलाओं का योगदान पुरुष से किसी भी हिसाब से कम नहीं है. चाहे दूध के लिए पशुओं को देखना हो, खेत में फसल काटनी हो, नरमा चुगना हो, फसल इकठ्ठा करनी हो, रुपाईबाई करनी हो. यहां तक कि घर का खाना बनाना, खाना खेत में भेजना, घर की देखरेख यह सब भी तो जुड़ा ही हुआ है.”
आन्दोलन से महिलाओं के जीवन पर बदलाव को ले कर हरदीप कौर कहती हैं, “यहां आ कर जब बाकी महिलाओं से बात होती है तो एक दुसरे के बारे में जानने को मिलता है. एकदूसरे के दुःखदर्द सुनने को मिलते हैं. मंच पर चढ़ने का सहस मिलता है. (मुस्कराते हुए) पहले लगता था कि हरियाणा की औरतें परदे में ज्यादा रहती हैं लेकिन वे तो हाथ पकड़ कर मंच में खींच देती हैं. वहां लोकगीत गाते हैं तो हम भी एकदुसरे में जानने लगते हैं.”
बातचीत के दौरान सिंघु पर बैठीं हरदीप की उंगली बड़ी सीधी तरीके से सरकार की नीतियों की तरफ इशारा कर रही करती हैं. वह बहुत कड़क मिजाज में कहती हैं, “हमारे बुजुर्गों ने बहुत मुश्किल से जायदातें बनाई हैं. जो (मोदी) हड़पने को करता है. हम नहीं हड़पने देंगे. बुजुर्गों ने मुश्किल से कमा कर बनाया है हम ने गंवाना थोड़े है. उन के लिए कैर (संभाल) के रखना है अपने लिए, अपनी अगली पीढ़ी के लिए. यह पीढियां बचाने की लड़ाई है.”
इतने में उन के पिंड से आई उन की हमउम्र सहेलियां महिलाएं खिलखिला कर हंसती हैं और कहती हैं, “कोरोना झूट बनाया है मोदी ने. कोई कोरोना नहीं है. इतने दिन से यहां रहे कहां है कोरोना?” फिर थोड़ा सोचती हैं फिर कहती हैं, “हम यहां से तब तक नहीं जाएंगे जब तक यह तीन काले कानून वापस नहीं हो जाते.” अधिकतर दादियां भले हिंदी ठीक से नहीं बोल समझ पाती हों, लेकिन जो हम समझ पाए वह एक यह कि “हम बिना कानून वापस कराए नहीं जाएंगे.”
एक बात तय है कि इस पुरे किसान आन्दोलन में महिलाओं का योगदान महत्वपूर्ण रहा है, बिना महिलाओं के सहयोग के इतने लम्बे समय से चले आ रहे किसान आन्दोलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती. महिलाएं ना सिर्फ अपने खेतखलिहानों में जरुरी काम संभाल रही हैं साथ ही आन्दोलन में भागिदाई निभा कर पितृसत्ता समाज पर भी प्रहार कर रही हैं. कृषि कानूनों पर यहां आ रही महिलाएं अपनी मजबूत राय रखती हैं और जब तक सरकार द्वारा कानून निरस्त नहीं किए जाते तब तक घर वापस न आने के अपने फैसले पर अडिग रहती हैं. इस आन्दोलन ने कई महिला नेताओं को जन्म दिया है जिस की आज देश को सब से ज्यादा जरुरत है. जसबीर का मानना है कि जिस तरह से 8 मार्च को सरकार ने महिलाओं की आवाज दाबाने की असफल कोशिश की जिस के बाद यह दिन इतिहास में दर्ज हुआ, ठीक उसी तरह 18 जनवरी किसानों ने ‘किसान दिवस’ के तौर पर समर्पित किया, जिस आन्दोलन को सरकार भी दबाने की असफल कोशिश कर रही है. यह दिन भी आने वाले समय में पूरी दुनिया में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया जाएगा.