किस फूल से बिछुड़े हैं कि फिरते हैं परेशां
जंगल में भटकती खुशबू की तरह हम
कौन सी जमीं थी जो खो दी है हम ने
उड़ते फिरते हैं आवारा अब्र जैसे हम
खुद को ही खोया था खुद को ही पाना था
दुनिया को दुनिया में ही खोजा किए हम
गर्दिश में थे सितारे पर हौसले थे बुलंद
कदमों से तेज रास्ते भागा किए हरदम
मुहब्बत की खुशबू थी, तेरा फसाना था
तनहाइयों को जिस से सजाया किए हम
अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में
मुहब्बत के ही नगमे गाया किए हम.
– डा. रेणु मिश्रा
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