किस फूल से बिछुड़े हैं कि फिरते हैं परेशां

जंगल में भटकती खुशबू की तरह हम

कौन सी जमीं थी जो खो दी है हम ने

उड़ते फिरते हैं आवारा अब्र जैसे हम

खुद को ही खोया था खुद को ही पाना था

दुनिया को दुनिया में ही खोजा किए हम

गर्दिश में थे सितारे पर हौसले थे बुलंद

कदमों से तेज रास्ते भागा किए हरदम

मुहब्बत की खुशबू थी, तेरा फसाना था

तनहाइयों को जिस से सजाया किए हम

अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में

मुहब्बत के ही नगमे गाया किए हम.

       

- डा. रेणु मिश्रा

 

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD48USD10
 
सब्सक्राइब करें

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं

  • सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
  • देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
  • 7000 से ज्यादा कहानियां
  • समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
 

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD100USD79
 
सब्सक्राइब करें

सरिता सब्सक्रिप्शन से जुड़ेें और पाएं

  • सरिता मैगजीन का सारा कंटेंट
  • देश विदेश के राजनैतिक मुद्दे
  • 7000 से ज्यादा कहानियां
  • समाजिक समस्याओं पर चोट करते लेख
  • 24 प्रिंट मैगजीन
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...