लेखक-रोहित और शाहनवाज
लगभग सात हफ़्तों से अधिक समय से चले आ रहे किसान आन्दोलन पर सुप्रीम कोर्ट ने 11-12 जनवरी को हस्तक्षेप किया. कोर्ट के इस आदेश से जहां लोगों को यह लग रहा है कि किसान अब इस मसले पर गदगद हो गए होंगे और जीत की खुशियां मना रहे होंगे. वहीँ जमीन पर ऐसा होता दिखाई नहीं दे रहा है. इस आदेश के आने के बाद किसान अब और भी असंतुष्ट और असहाय महसूस कर रहे हैं. और यह बात जाहिर तब हुई जब ठीक अगले दिन यानि 13 जनवरी को किसानों ने लोहड़ी की खुशियां मनाने के बजाय, विवादित कृषि कानूनों को जलाते हुए नाराजगी दिखा कर न्यायपालिका और सरकार को अपना फैसला फिर से जाहिर किया. साथ में उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इन कृषि कानूनों को ले कर उन की शुरुआत से चलती आ रही मांग क्या है.
सुप्रीम कोर्ट के आए इस आदेश को ले कर जब हम सीधा ग्राउंड पर किसान नेताओं से बात करने गए तो उन के भीतर एक स्पष्टता दिख रही थी कि यह कानून बिना वापस कराए वे यहां से जाने को बिलकुल भी तैयार नहीं है व सुप्रीम कोर्ट के जारी किए आदेश से वे संतुष्ट नहीं हैं. ऐसे में सवाल बनता है कि आखिर क्या कारण है कि सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप करने के बावजूद भी किसान इस कहर बरपाती ठंड में जमे हुए हैं? आखिर वह क्या आदेश हैं जिस पर गहमागहमी चल रही है और सुप्रीम कोर्ट के आदेश को किसानों के बीच शक के दायरे में खड़ा करती है?
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कोर्ट में सुनवाई
11 जनवरी के दिन देश की सर्वोच्च न्यायलय के द्वारा विवादित कृषि कानूनों को ले कर सुनवाई हुई. यह सुनवाई 3 याचिकाओं पर हुई. सुनवाई 3 न्यायधीशों की बेंच की अगुवाई में की गई, जिस में चीफ जस्टिस एसए बोबड़े की अगुवाई में जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस वी रामासुब्रमनियम शामिल थे. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने कृषि कानूनों को ले कर किसानों के विरोध से निपटने के तरीके पर केंद्र सरकार पर नाराजगी जताई और कहा कि, किसानों के साथ उन के बातचीत के तरीके निराशाजनक है. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने किसानों से कहा कि कानून के अमल पर स्टे करेंगे और स्टे तब तक होगी जब तक कमिटी बात करेगी ताकि बातचीत की सहूलियत पैदा हो. कोर्ट ने वैकल्पिक जगह पर प्रदर्शन के बारे में भी किसानों को सोचने के लिए कहा. साथ ही महिलाओं और बुजुर्गों को अपने गांव वापिस चले जाने को ले कर टिप्पणी भी की. हालांकि किसान संगठनों ने उसी दिन प्रेस कांफ्रेंस कर यह बात साफ कर दी कि वह इस कानूनी प्रक्रिया अथवा कमिटी का हिस्सा नहीं बनेंगे. बल्कि सीधा सरकार से बात करेंगे.
केंद्र की ओर से अटोर्नी जनरल केके वेणुगोपाल, सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता और किसान संगठनों की ओर से एके सिंह, दुष्यंत दवे, एचएस फुल्का, प्रशांत भूषण, कोलिन गंजाल्वेस, इत्यादि पेश हुए. वही बिल का समर्थन करने वाले राज्य से हरीश साल्वे पेश हुए.
अगले दिन 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों को स्टे पर रखने का आदेश दिया. आन्दोलन कर रहे किसान संगठनों को आश्चर्य तब हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने 4 सदस्यीय कमिटी का गठन किया. जिस में अशोक गुलाटी, डाक्टर प्रमोद जोशी, अनिल घनवत, भूपिंदर सिंह मान शामिल थे. हालांकि ध्यान देने वाली बात यह है की इस 4 सदस्यों की कमिटी बनाए जाने के 1 दिन बाद ही भूपिंदर सिंह मान अपना नाम वापस ले चुके हैं. इस से पहले भी आरएम लोढ़ा इस कमिटी की अध्यक्षता का प्रस्ताव ठुकरा चुके हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, “हमें समिति बनाने का अधिकार है जो वास्तव में हल चाहतें हैं वे समिति के पास जा सकते हैं. ये समिति हम अपने लिए बना रहे हैं.” जिस के बाद विवाद इस कमिटी के सदस्यों के अपोइन्ट किए जाने को ले कर गरमा गया है. जिस ने सुप्रीम कोर्ट को ले कर कई शंकाओं के बीज आंदोलित किसानों के भीतर बो दिए हैं.
किसानों का एतराज
सुप्रीम कोर्ट और किसानों के बीच बने इस नए गतिरोध को ले कर जब हम ने किसान संगठनों के नेताओं से इस पुरे प्रकरण के संबंध में बात की, तो उन्होंने बताया कि उन की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में किसी प्रकार की याचिका दायर ही नहीं की गई. पंजाब किसान यूनियन के नेता सुखदर्शन नत ने कहा, “कोर्ट ने 8 किसान नेताओं को समन भेजा था कि आप आएं और अपना पक्ष रखें. क्योंकि कोर्ट का सम्मान हर कोई करता है और हम भी करते हैं तो यहां से कुछ वकीलों को भेजा गया था, कि वहां (कोर्ट) में जाएं और जा कर यह कह दें कि हम इस में पार्टी नहीं होंगे.”
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सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं को ले कर जब भारतीय किसान यूनियन (चढूनी) के प्रेसिडेंट गुरनाम सिंह चढूनी से बात की गई तो वे कहते हैं, “सुप्रीम कोर्ट में हम नहीं गए हैं. हमें लगता है कि यह सरकार का एक षड़यंत्र था. सरकार ने पहले ही यह विकल्प खोजा की अगर सरकार से कुछ नहीं होता तो कोर्ट के माध्यम से इस मामले को टाल दिया जाए. इस का अंदेशा हमें पहले दिन से ही था कि यह मामला कोर्ट में जाएगा, कोर्ट इस पर स्टे लगाएगा और इस मामले पर कमिटी का गठन करेगा. लेकिन हमें ये उम्मीद नहीं थी की कमिटी के सदस्य वे उन को बनाएंगे जो पहले से ही सरकार और इन कानूनों के पक्ष में हैं.”
कमिटी से नाराजगी
जाहिर है सुप्रीम कोर्ट ने जिन 4 सदस्यों की कमिटी बनाई थी, उस पर काफी विवाद होता हुआ दिखाई दे रहा है. इन चार सदस्यों की राय अलगअलग माध्यमों से सरकार और नए कृषि कानूनों को ले कर जाहिर होती रही है. ऐसे में दोआबा किसान यूनियन के प्रेसिडेंट कुलदीप सिंह दोआबा कहते हैं, “कमिटी से हम पहले दिन से इनकार करते आए हैं. कमिटी का मतलब होगा मामले को सुलझाना नहीं बल्कि डिले करना. जो नाम सुप्रीम कोर्ट ने दिए भी हैं, वे कभी किसानों के पक्ष में नहीं हो सकते. चारों सदस्य वे हैं जो पहले ही इन कानूनों के फेवर में हैं. ये लोग वही भाषा बोलते हैं जो सरकार कहती है, ऐसे में निष्पक्ष बातविचार का सवाल ही नहीं उठता.”
गौरतलब है की सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए कमिटी के नामों से कोर्ट की निष्पक्षता पर सवाल उठता है. चारों सदस्यों के कृषि कानूनों के समर्थन में पब्लिक डोमेन में आकर अपने विचार स्पष्ट कर चुके हैं. इस लिस्ट में मौजूद नामों में से पहले सदस्य, अशोक गुलाटी हैं. अशोक गुलाटी भारत में महत्वपूर्ण कृषि अर्थशास्त्रियों में से एक माने जाते है. यह वही अशोक गुलाटी हैं जो मई 2020 में कृषि कानूनों में किए जाने वाले बदलावों को ले कर मोदी सरकार की प्रशंसा कर चुके हैं. उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में अपने एक लेख में कहा था कि, “मोदी सरकार देश की कृषि सेक्टर में सुधारों को शुरू करने के लिए बधाई के पात्र हैं.” यानि अशोक गुलाटी पहले ही सरकार और इन कानूनों के पक्ष में अपनी दलील दे चुके हैं.
इस लिस्ट के दुसरे सदस्य अनिल घनवत हैं. घनवत महाराष्ट्र स्थित किसान यूनियन शेतकारी संगठन के प्रेसिडेंट हैं. इस संगठन के फाउंडर शरद जोशी के संबंध में भारतीय किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढूनी बताते हैं कि, “20 साल पहले जब वाजपयी की सरकार थी उस समय डब्लूटीओ लागु हुआ था. ये लोग डब्लूटीओ के तब से समर्थक थे. हिन्दुस्तान की मार्किट में विकसित देशों के दखल के अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र में इन लोगों ने भूमिका निभाई थी. ये तो अमेरिका का एजेंट है. मुझे जब इस बारे में पता चला तो मैंने बगावत कर दी. और आज वही लोग इस कमिटी में हैं.”
देखने वाली बात यह है कि यह वही संगठन है जिस ने अक्टूबर में, कृषि कानूनों के समर्थन में प्रदर्शन किया था. दिसम्बर में हिन्दू बिजनेसलाइन अखबार से बात करते हुए घनवत ने कहा था कि, “इन कानूनों को वापस लेने की आवश्यकता नहीं है, जिन्होंने किसानों के लिए अवसरों को खोल दिया है.”
लिस्ट के तीसरे सदस्य प्रमोद कुमार जोशी हैं. वे कृषि नीति विशेषज्ञ और दक्षिण एशिया अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के पूर्व निदेशक रह चुके हैं. सितम्बर 2020 में इजरायली एग्री-बिजनेस कंसल्टिंग फर्म एग्रीविजन द्वारा आयोजित एक पैनल डिस्कशन में जोशी ने अपनी बात रखी थी. जिस में उन्होंने कृषि कानूनों की वकालत करते हुए यह कहा था कि, “खेती को लाभदायक बनाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों को बनाने में ये कानून सहायक होंगे.” यही नहीं एमएसपी के संबंध में जोशी ने यह भी कहा है कि “कानून द्वारा एमएसपी को अनिवार्य करना बहुत कठिन है. एमएसपी का कानून का मतलब एमएसपी पर अधिकार होगा. जिन्हें एमएसपी नहीं मिलेगी वे कोर्ट जा सकेंगे और एमएसपी नहीं देने वालों को दंडित किया जाएगा.” यानि प्रमोद कुमार जोशी भी पूरी तरह से सरकार और कृषि कानूनों का समर्थन करते हैं.
कमिटी से अपना नाम वापस लेने वाले भूपिंदर सिंह मान भी इन कृषि कानूनों के पक्ष में दिखाई देते रहे हैं. मान राजसभा के पूर्व सांसद रह चुके हैं और भारतीय किसान यूनियन (मान) के प्रेसिडेंट हैं. मान ने हरियाणा, महाराष्ट्र, बिहार और तमिलनाडु के किसान संगठनों के साथ मिल कर सरकार को इन तीनों कानूनों में कुछ संशोधनों के साथ लागु किए जाने की मांग को ले कर मेमोरेंडम सौप चुके हैं.
भारतीय किसान यूनियन (पंजाब) के जनरल सेक्रेटरी बलवंत सिंह बहरामके का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश पॉलिटिकली मोटीवेटेड रहा है. वह कहते हैं, “हम यह पहले भी कह चुके हैं और अब आप के माध्यम से भी कह रहे हैं की देश के प्रधानमंत्री और माननीय सुप्रीम कोर्ट हम किसानों के लिए उलटे फैसले लेंगे तो हम यह सड़कें तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक यह वापस नहीं ले लिए जाते. क्योंकि यह कानून हमारे पुरे किसान परिवारों के लिए डेथ वारंट हैं.”
महिलाओं और बुजुर्गों पर टिप्पणी अनावश्यक
किसान आंदोलन में एक बड़ी संख्या महिलाओं और बुजुर्गों की है. खासकर इन में महिलाएं अधिक मजबूती के साथ आंदोलन में डटी हुई हैं. ये महिलाएं न सिर्फ इस आंदोलन का स्तम्भ बनी हुई हैं बल्कि वे अपने किसान वजूद के होने का भी एहसास करा रही हैं. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस ने सुनवाई के दौरान कहा कि, “हम नहीं समझ पा रहे की महिलाएं वहां क्यों आईं हैं. मैं चाहता हूं कि आप उन्हें यह बता दें की सीजेआई उन्हें वापस चले जाने के लिए कह रहे हैं.” हालांकि इस टिप्पणी पर जवाब देते हुए दुष्यंत दवे ने कहा कि महिलाओं और बुजुर्गों को कोई वहां ले कर नहीं आया बल्कि वे खुद यहां आएं हैं. यह उन के अस्तित्व का भी सवाल है. इस टिप्पणी को ले कर जब हम ने वहां मौजूद महिला आन्दोलनकारियों से बात करने की कोशिश की तो महिलाओं ने साफ कहा कि वह वापस जाने वाले नहीं हैं. वह यहां अपने परिजनों के साथ न केवल डटी रहेंगी बल्कि ट्रैक्टर यात्रा में भी उन के साथ रहेंगी. सरकार और सुप्रीम कोर्ट को यदि उन की इतनी चिंता है तो तीनों कृषि कानून वापस ले ले और वे वापस चले जाएंगी.
पंजाब किसान यूनियन की नेता जसबीर कौर नत ने सुप्रीम कोर्ट के द्वारा इस सुझाव को ले कर कहा कि, “कृषि कोई ऐसा काम नहीं है जो सिर्फ मर्दों के साथ जुडी हुई है. खेती का काम ऐसा है जिस में पूरा परिवार मिल कर मेहनत करता है जिस में महिलाएं भी शामिल हैं. यही कारण है की वे इस एजिटेशन में भी शामिल हैं. उन्हें कृषि से न तो अलग देखने की जरुरत है और न ही कमजोर समझने की.” जसबीर कहती हैं, “भारत में कृषि क्षेत्र में लगभग 75% योगदान महिलाओं का होता है. जिस में महिलाओं के अधीन सिर्फ 12% ही जमीन है. यह कंसर्न सरकार और कोर्ट के अधीन होना चाहिए.”
वह आगे कहती है, “महिलाओं और बुजुर्गों को वापस भेज कर क्या सरकार यहां यह चाहती है की नौजवान यहां रहे और वे उन पर फोर्स इस्तेमाल कर उन्हें भड़काएं. फिर उन्हें इस एजिटेशन को हिंसक कहने का बहाना मिल जाए. महिलाओं और बुजुर्गों का इस एजिटेशन में होना ही इस बात की गारंटी है की हम किसी प्रकार की कोई हिंसा नहीं चाहते.”
असमंजस और असंतुष्टि
पिछले 50 दिनों से लगातार यह आंदोलन दिल्ली के बौर्डेरों पर बना हुआ है. ऐसे में किसानों का खूब पैसा भी खर्च हो रहा है. वहां आए किसान अपना शत प्रतिशत योगदान देने के मकसद से वहां संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे में हर प्रकार से वे अपना योगदान दे रहे हैं. यह बहुत आसानी से देखा जा सकता है किसान अपना काम छोड़ कर वहां आने पर मजबूर हुए हैं. बहुत लोग अपना पेशेगत काम को छोड़ कर वहां निःशुल्क सेवा भाव से अपना योगदान दे रहे है. ऐसे में वह घर की संपत्ति और अपनी बचत को आन्दोलन में झोंक रहे हैं. कोई मुफ्त खाना बांट रहा है, कोई मुफ्त जूते सिल रहा हैं तो कोई मुफ्त बाल काट रहा है. कोई अपनी खेती किसानी छोड़ कर वहां आया हुआ है.
कोई भी व्यक्ति यह जोखिम तभी लेता है जब उसे बड़े नुक्सान के होने का डर हो. आज वहां पर किसान इसी डर और अपना भविष्य बचाने के चलते दिन रात वहां बैठे हुए हैं. ऐसे में किसानों को इस कानून के स्टे में जाने से ज्यादा डर बना हुआ है. भारतीय किसान यूनियन (कादिआं) के स्पोक्सपर्सन रवनीत बरार का कहना है की, “हमारी बात उन से है जिन्होंने ये कानून बनाए हैं. अब इस का सोल्यूशन तो सरकार ही देगी. इसे वापस तो सरकार को ही करना पड़ेगा ना. अब यह स्टे में है तो सरकार भी अपना पल्ला झाड़ेगी की मामला सुप्रीम कोर्ट के अधीन है.” वह आगे कहते है, “स्टे में डालने का मतलब रिपील करना नहीं है. बल्कि आन्दोलन को खत्म करने का नैतिक दबाव डालना है. और हम यहां पर कानूनों को रिपील करवाने आएं हैं. आप ही बताइए कि अगर हम यहां से उठ जाते हैं और कल को सरकार दोबारा इन कानूनों को लागू करती है तो हमारे पास क्या चारा बच पाएगा. हमारा मोमेंटम तो टूट जाएगा. यह तो ऐसा लग रहा है जैसे सरकार ने हमारे और अपने बीच में सुप्रीम कोर्ट की एक नई दीवार खड़ी कर दी हो.”
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानून को होल्ड कर देने से किसानों के बीच असमंजस और असंतुष्टि भी पैदा हुई है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा उन याचिकाओं पर सुनवाई नहीं करने, जिन में इन विवादित कृषि कानूनों को असंवैधानिक बताया गया था, पर किसानों को हैरान करता है. इसलिए जिस आदेश से देश के बड़े हिस्से को यह लग रहा हो कि वह किसानों के पक्ष में है, किन्तु किसानों की समझ से यह एक प्रकार से सरकार की इच्छा को किसानों पर थोपने जैसा है.