लेखक- रोहित और शाहनवाज
इंट्रो- इस पुरे संघर्ष में किसान जरा सा भी पीछे हटने को तैयार नहीं है. जिस ने सरकार की नाक में दम कर के रख दिया है. इस आंदोलन के अंत में जो भी परिणाम निकले. यह इसलिए याद रखा जाएगा कि घमंडी सरकार को घुटने के बल बैठा दिया ?
दिल्ली-गाजीपुर बोर्डर जिसे दिल्ली गेट भी कहा जाता है, इन दिनों अपना इतिहास फिर से लिख रहा है. तीन पीढ़ियों का एक साथ एक जगह बैठ कर, अपनी एक मांग के लिए लड़ना ऐतिहासिक है. आंदोलन की खासियत अब यह नहीं है कि ये अड़ियल सरकार को चुनौती दे रहे हैं बल्कि यह कि यहां अनुभव, दक्षता और जोश का जबरदस्त तालमेल बन चुका है.
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आंदोलन में युवा, जिन की उम्र कोई 18-25 है, वालिंटियर हैं. दोड़तेभागते हैं, लंगर बांटते हैं. लेकिन बिना थके खुश रहते हैं. आंदोलन के पुराने तौरतरीकों से थोड़ा अलग खुद को पाते हैं तो ट्रोली में लगे स्पीकर पर देशप्रेमी गाने सुन कर खुद में मस्त भी रहते हैं.
मंच, बातविचार, और रणनीति की जिम्मेदारी वे प्रोढ़ आंदोलनकारियों के कंधो पर है, जो अब खेतों में मुख्य रूप से किसान हैं. जिन के ऊपर घरों की जिम्मेदारी है, जो अब अपने परिवार में मुखिया के तौर पर स्थापित हो रहे हैं. ये आंदोलन में बीच की कड़ी हैं. जो युवाओं के बीच में भी हैं और बुजुर्गों में भी. नियंत्रण और समझाना बुझाना इन्ही पर है. ये अपने साथ ढोलमजीरा, आंदोलनकारी गानों की किताब ले कर आए तो हैं, लेकिन युवाओं के डीजे की घमक पर भी कभीकभी थिरक लेते हैं, उन के साथ उठबैठ जाते हैं. उन्हें आंदोलन की दशोदिशा समझते समझाते हैं.
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वहीँ, सब से मजबूत कड़ी वे बुजुर्ग हैं जो इस आंदोलनों को नीव दे रहे हैं. उन का यहां होना ही सभी का खुद पर विश्वास को बनाए रखना है. यह विश्वास शब्दों के माध्यम से पिरोना मुश्किल है, इस के लिए उन तमाम किसान धरना स्थलों की धूल को महसूस करने की जरूरत है जहां इन्होने अपना मौजूदा आशियाना बनाया हुआ है. आंदोलन में उन का आदर सत्कार किसान मौजूदा आंदोलन को ले कर कई जवाब दे देते हैं. इस के लिए जरुरी नहीं कि किसी बड़े लेखक की सिधान्त्वादी किताब को उठाया जाए. सब से पहली जरुरत यह कि उन धरना स्थलों पर जाया जाए, जहां मीलोंमील तक आज अन्नदाता बैठने पर मजबूर हुए हैं.
कोई आंदोलन कब सफल हो सकता है? यह सवाल पेचीदा है. इस के लिए वाइट कालर बुद्धिजीवी तबका अपने पास कई सैधांतिक जवाब रखता है. इस का जवाब देने वाले बहुत बार खुद सवालों के घेरे में आए, या खुद सवाल बनते चले गए. लेकिन गाजीपुर बोर्डर पर मौजूद किसान हीरा सिंह कहते हैं, “आंदोलन में सफलता तभी संभव है जब भरोसा सरकार पर नहीं अपनों पर हो, और हम इस समय सरकार पर बिलकुल भरोसा नहीं कर रहे हैं.”
यह जवाब कितना सटीक है इस पर बात हो सकती है, लेकिन आंदोलन की गरज और 2014 के बाद से बहुमत वाली घमंडी मोदी सरकार को उस की जगह इस आंदोलन ने जरूर दिखा दी है.
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कृषि कानूनों के खिलाफ बीते 9 दिनों से दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों ने अब अपना रुख और कड़ा कर लिया है. यही हाल गाजीपुर बोर्डर पर भी देखने को मिला है. पहले के मुकाबले वहां किसान अपनी मांगो पर ज्यादा अडिग और मजबूत दिखाई दिए हैं. संख्याबल में भी बढ़ोतरी देखने को मिली है. जहां पहले भारतीय किसान यूनियन ही उस आन्दोलन को संचालित कर रही थी, अब उस जगह बाकी यूनियनें भी केन्द्रित होना शुरू हो चुकी हैं. 3 तारीख से पहले उन्हें प्रशासन ने फ्लाईओवर के नीचे समेट कर रखा था, लेकिन समय के साथ उन्होंने अपनी ताकत बढ़ाई और यूपी से दिल्ली घुसने वाले फ्लाईओवर पर अपना कब्जा जमा लिया है. जिस सरकार को यह आंदोलन बिना नेतृत्व के बिखरा हुआ दिखाई दे रहा था और इसी बात पर आंदोलन का कुप्रचार कर रही थी, वही सरकार दो बार की वार्ता अब तक किसानों के बीच कर चुकी है.
गाजीपुर में मंच की भी अब अहम् भूमिका बनती जा रही है. यूनियन लीडर के प्रतिनिधि अपनी बातों को तो रख ही रहे हैं, लेकिन अब जमीन पर बैठे श्रोता किसान भी वक्ता के तौर पर उभर रहे हैं.
72 वर्षीय ओमवीर उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले से श्यामपुर गांव से 35 किलोमीटर दूर दिल्ली-गाजीपुर बोर्डर पर डटे हुए हैं. सर पर गमछा, हाथ में लाठी, धोती कुर्ता पहने, कमजोर सूखी नाड़ियों के साथ ठीक वही आभास करवा रहे हैं जैसा सरकार और एसी कमरों में बैठे शहरी लोग किसानों में ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं.
ओमवीरजी यहां सिर्फ कानूनों में खामियों के चलते नहीं आए, बल्कि उन की यूपी राज्य में किसानों से जुडी कई समस्याए हैं.
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वे कहते हैं, “किसान वह कौम है, जिस का अगर घर का छप्पर चू रहा हो फिर भी बारिश की ही कामना करेगा. श्यामपुरा में हमारी सिर्फ 2 एकड़ जमीन है. हमारे गांव में इतने छोटे किसान हैं कि किसी के पास इतनी जमीन भी होना बड़ी बात है. हम अपनी फसल सरकारी मंडी में भी बेचने जाते हैं तो हमें वहां से तरहतरह के बहाने कर के भगा दिया जाता है. कभी कहते हैं कि गोदाम भर गए हैं, तो कभी आजकल आजकल कर के 4-4 दिन तक तैयार फसल को मंडी के बाहर सड़ने छोड़ दिया जाता है. फिर हमें मजबूरी में वहीँ मौजूद बिचौलियों को अपनी फसल सस्ते दाम में बेचना पड़ता है. फिर वही बिचौलियों सरकारी अधिकारियों के साथ सांठगांठ कर उसे सरकारी दामों पर बेच देते हैं.
“यह कालाबाजारी खुले आम होती है. सभी को इस के बारे में पता होता है. यहां तक की सरकार भी इसे जानती है, लेकिन इस पर कार्यावाही करने की जगह कह रही है कि अब हम कालाबाजारी को ही कानूनी कर रहे हैं.”
वे आगे कहते हैं, “यूपी में किसी किसान के लिए बिजली की बड़ी समस्या है. सरकार कहती है कि हम ने गांवगांव तक बिजली पहुंचा दी है, लेकिन यह नहीं बताती कि किस दाम में लोगों को मुहैया करवा रहे हैं. उत्तर प्रदेश में घर के 2 बल्ब और एक पंखा चलाने का बिजली बिल 1500-2000 तक बैठ जाता है. अगर हमारे खेत में साढ़े 7 किलोवाट का ट्यूबवेल का मोटर लगा है तो उस का खर्चा 2400 तक आ जाता है. किसान इतना पैसा कैसे दे पाएंगे?”
ओमवीरजी यहां अपने 7 चौपाली दोस्तों के साथ 27 तारीख को आ गए थे. चौपाल यानी वह जगह जहां गांव के बड़े बुजुर्ग बैठा करते हैं, समय बिताते हैं, जहां वे दीनदुनिया में क्या चल रहा उस पर बातविचार करते हैं, और मजा करते हैं. लेकिन ट्रेक्टर के ऊपर बैठे बुजुर्ग ओमवीर और उन के दोस्तों की मदमस्त हंसने की आवाज यह साफ बता गई कि जगह और समय कोई भी हो, जहां हम यार बैठ जाते हैं, वहां सिक्का हमारा ही चलेगा.
कब वे वहां श्रोता से वक्ता बन गए इस का उन्हें खुद आभास नहीं. वे कहते हैं, “जो हम यहां से से कह रहे हैं वह हमारी पीड़ा है. और यह पीड़ा सब की है, जिसे यहां किसान अपनी आवाज मानते हैं, लेकिन मौजूदा सरकार सुनना नहीं चाहती. हम ने सरकार में मोदी’योगी चुनी है जिन के बाल बच्चन नहीं हैं तो वे क्या जाने कि उन की पढ़ाई कैसी होती है?”
स्वाभिमान के खातिर
3 तारीख को किसानों के नेतृत्व की केंद्र से दुसरे दौर की मीटिंग हुई थी. जाहिर है मीटिंग के दरमियान कुछ तस्वीरें सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुई, जिस में किसान नेता सरकारी लजीज खाना ठुकरा कर अपने साथ लाए लंगर का खाना खाते दिखे. यह होना भी अपनेआप में एक ऐतिहासिक मिसाल है. इस कारण नहीं कि ऐसा कर के उन्होंने सरकार को अपने इरादों का स्पष्ट जवाब दिया हो, बल्कि इसलिए कि ऐसा कर उन्होंने अपने लोगों के साथ इमानदार होने का वचन दिया. भारत के लोगों को इस बात से यह समझना चाहिए कि एक लंबे समय के बाद ही आंदोलन का ऐसा चेहरा हमारे सामने उभर कर आया है जहां बात स्वाभिमान की हो, नैतिक-अनैतिक की हो, जहां मसला नाक का हो, और विश्वास का हो.
इस आंदोलन को समझने के लिए जरुरी नहीं कि हम शहरी लोगों के लिए यही मात्र एक उदाहरण है. इस के लिए तो दिल्ली के बोर्डरों में स्थित किसी भी चक्केजाम पर जा कर महसूस किया जा सकता है. वहां एकदुसरे के प्रति सेवाभाव और विश्वास साफ देखी जा सकती है. आन्दोलनकारियों ने धरनास्थलों पर एक व्यवस्था बना ली है. मानों अब वे इस का अभ्यस्त हो चुके हैं.
मंच, खानापीना, रजाईकंबल, स्वास्थ्य जांच के लिए डाक्टर यहां तक कि आंदोलन में शामिल होने की शिफ्ट बन चुकी है, मानो वे एकदुसरे को बहुत करीब से जानतेपहचानते हैं. यह दिखाता है कि वे सिर्फ हंगामा खड़ा करने, या हुल्लड़बाजी के लिए नहीं आए हैं बल्कि कोशिश यही कि मौजूदा हालत बदलें.
किसान समस्या गहरी
बिजनौर जिला, अफजलगढ़ के नजदीक गांव सोह्वाला से 44 वर्षीय जशपाल सिंह, अपने 2 बेटों के साथ इस आंदोलन में शुरू के दिन से ही जुड़े हुए हैं. वे लगभग 200 किलोमीटर से यहां पहुंचे हैं. उन से जब पूछा कि अब तो सरकार ने एमएसपी देने का की मांग पूरी कर दी है तो क्या समस्या है.
जशपाल कहते हैं, “हम धरती का सीना चीरना जानते हैं तो एमएसपी छीनना भी, अभी तो यह किसान विरोधी कानून वापस भी लेने होंगे. लेकिन हम छोटे किसानों के लिए एमएसपी का फायदा तभी होगा, जब यह सब जगह लागू होगा. एफसीआई की मंडी में तो हम पहले भी अपनी फसल बेच नहीं पाते थे. लेकिन अब तो लग रहा है जो बचाकूचा हक भी था वो भी छिन्न रहा है. अब किसान अपनी हकों के लिए अदालत का दरवाजा भी नहीं खटखटा सकता. अब अगर उसे कहे मुताबिक़ दाम व्यापारी से नहीं मिलेगा, तो ज्यादा से ज्यादा वह एसडीएम के पास जा सकता है. और इतना तो सब जानते हैं एसडीएम किस की जेब में रहेगा.”
वे आगे कहते हैं, “यह सरकार बेरोजगारी मुक्त, गरीबी मुक्त, अच्छे दिन वाले भारत की बात करते हुए आई थी, लेकिन इस ने तो गरीबों को ही सरकार से मुक्त कर दिया है. सरकार सत्ता में आते कहती है हम ने किसानों का इतना कर्जा माफ़ कर दिया, इतना फंड दे दिया. मेरा कहना यह कि अगर हमें फसल का उचित दाम मिल जाए तो हमें फंड की जरुरत नहीं. बल्कि उल्टा हम हीं सरकार को फंड कर दे देंगे.”
जशपाल के पास अपनी निजी 2 हेक्टयर यानी, सरल हिसाब यह कि 5 एकड़ जमीन है. पिछले वर्ष उन्होंने अपने खेत में मुंजी बोई थी. जिसे पंजाब, हरियाणा और बाकि राज्यों में धान कहा जाता है. अपनी जमीन में उगाई धान में 120 किलो गेहूं बोई. जिस में बीज का खर्चा 4-5 हजार रूपए बैठा. फिर उस के ऊपर पड़ने वाली खाद, जुताई का कुल खर्च 10,000 रूपए का पड़ा. सिंचाई के लिए 20 लीटर डीजल का खर्चा 1000 रूपए पड़ा. और यह सिंचाई 21 दिन बाद और फिर 15 दिन बाद 3 बार करनी पड़ती है. यह तो शुरूआती है, इस के फसल को बेहतर बनाने के लिए यूरिया, जिंक इत्यादि का खर्चा भी अच्छा खासा बेठ जाता है.
यह सब होने के बाद, कटाई, घाई (दाना निकालना), भूसा छंटवाना कई खर्चे हैं. इस के बाद यह पैदावार मंडी में जा कर इतनी कम कीमत पर बिकती है कि 6 महीने की कमाई में बच्चों को पालना मुश्किल हो जाता है. ऊपर से इन सब खर्चों के लिए जगहजगह से कर्जा लेना पड़ता है. अगर कमाई नहीं होगी तो उस कर्जे को चुका कैसे पाएंगे?” यशपाल यह हिसाब बताते हुए हंसते हैं, और मेरी और देख कर कहते हैं, “यह आप नहीं समझोगे. आप शहरी हो.”
अब यह हकीकत है कि किसान आन्दोलन अपना जोर पकड़ चुका है. आगे आने वाले समय में अगर सरकार यूँही किसानों को टालती रही तो यह आंदोलन और भी ज्यादा जोर पकड़ेगा, जिसे सरकार को संभालना मुश्किल होगा. शहरी तबके भी अब किसानों की समस्या को समझते हुए किसानों को समर्थन दे रहा है. छात्र अपनी जिम्मेदारी समझते हुए किसानों के साथ काँधे से कंधा मिलाते देखे जा सकते हैं. सरकार इस पुरे आन्दोलन के चलते बेकफुट पर दिखाई दे रही है.
सरकार द्वारा किसानों पर तमाम कीचड़ उछालने के बाद उलटी किरकिरी होनी शुरू हो चुकी है. दो बार की बैठकें वैसे ही फ़ैल हो चुकी हैं, और तीसरी वार्ता शनिवार को शुरू हुई. किसानों ने सरकार को आगाह कर दिया है अगर बात नहीं मानी गई तो 8 तारीख को भारत बंद कर दिया जाएगा. जाहिर है, समय बढ़ने के साथ किसानों का हुजूम भी तमाम बोर्डरों पर दिखाई दे रहा है और देगा. टीकरी में कथित तौर पर किसानों का रोड ब्लाक बोर्डर से होते हुए बहादुरगढ़ के रास्ते सांपला गांव तक लंबा हो चूका है, जिस की कुल लंबाई 40 किलोमीटर बताई जा रही है. इस पुरे संघर्ष में किसान जरा सा भी पीछे हटने को तैयार नहीं है. लेकिन इस आंदोलन के अंत में जो परिणाम निकले. अंत में सवाल इस आन्दोलन के ऊपर यही खड़ा होगा कि छोटे दर्जे के किसानों को यह आंदोलन क्या बदलाव दे पाया?