लेखिका- आशा शर्मा

आदिकाल से ही औरतों के लिए शुचिता यानी वर्जिनिटी एक आवश्यक अलंकार के रूप में निर्धारित कर दी गई है. यकीन न हो तो कोई भी पौराणिक ग्रंथ उठा कर देख लीजिए.

अहिल्या की कहानी कौन नहीं जानता? शुचिता के मापदंड पर खरा नहीं उतरने के कारण जीतीजागती सांस लेती औरत से पत्थर की शिला में परिवर्तित हो जाने का श्राप मिला था.

पुराणों के अनुसार उस का दोष सिर्फ इतना ही था कि वह अपने पति का रूप धारण कर छद्मवेश में आए छलिए इंद्र को उस के स्पर्श से पहचान न सकी.

शुचिता के सत्यापन का कितना दबाव  औरतों पर हुआ करता था इस का उदाहरण भला कुंती से बेहतर कौन हो सकता है? कुंती, जिसे अपनी शुचिता का प्रमाण विवाह के बाद अपने पति को देना था, ने विवाहपूर्व सूर्य पुत्र कर्ण को जन्म देने के बाद उसे नदी में प्रवाहित कर दिया ताकि उस की शुचिता पर आंच न आए.

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क्या है शुचिता

शुचिता यानी यौनिक शुद्धता का पैमाना.
स्त्री योनि के भीतर एक पतली गुलाबी झिल्ली होती है जिसे हाइफन कहा जाता है. माना जाता है कि प्रथम समागम के दौरान इस के फटने से रक्तस्राव होता है.

जिन स्त्रियों को यह स्राव नहीं होता उन का कौमार्य शक के घेरे में आ जाता है. यह जानते हुए भी कि इस झिल्ली के फटने के कई अन्य कारण भी होते हैं।

समाजिक तानाबाना कुछ इस कदर बुना गया है कि स्त्री का शरीर सिर्फ उस के पति के भोग के लिए है और उस का कौमार्य उस के पति की अमानत.

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अकसर यही पाठ हर स्त्री को पढ़ाया जाता है. यह पाठ स्त्रियों को रटारटा कर इतना कंठस्थ करा दिया जाता है कि इस लकीर से बाहर निकले कदम अपराध की श्रेणी में रख दिए जाते हैं और इस अपराध की सजा स्त्री को ताउम्र भुगतनी पड़ती है.

राजस्थान के सांसी समुदाय में स्त्रियों की वर्जिनिटी जांचने के लिए एक अत्यंत घिनौनी प्रथा प्रचलित है, जिसे कूकड़ी प्रथा कहा जाता है.

इस प्रथा के अनुसार, शादी की पहली रात को स्त्री के बिस्तर पर सफेद धागों का गुच्छा रख दिया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में कूकड़ी कहते हैं.

शारिरिक संबंध बनाने के बाद बिस्तर की सफेद चादर और उस कूकड़ी की जांच होती है. यदि वह रंगदार नहीं है यानी उस में खून के धब्बे नहीं हैं तो यह माना जाता है कि स्त्री के शारीरिक संबंध शादी से पहले कहीं और स्थापित हो चुके हैं। स्त्री को चरित्रहीन करार दे दिया जाता है. इसी आधार पर परिवार और समाज को उसे लांछित और प्रताड़ित करने का अधिकार भी मिल जाता है.

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अमानवीयता की पराकाष्ठा यह होती है कि सुहागरात से पहले यह निश्चित किया जाता है कि कमरे में किसी तरह की कोई नुकीली या धारदार वस्तु न हो ताकि किसी तरह की चोट लगने के कारण रक्तस्राव की संभावना भी न हो. यहां तक कि लड़की के बालों से पिन तक हटा ली जाती है और उस की चूड़ियों को कपड़े से बांध दिया जाता है. इसी तरह का शुचिता परीक्षण महाराष्ट्र के कंजरभाट समाज और गुजरात के छारा समाज में भी प्रचलित है.

स्त्री साथी या संपत्ति

सदियों से यह कहावत प्रचलन में है कि संसार में लड़ाईझगड़े और युद्ध के सिर्फ 3 ही कारण होते हैं- जर, जोरू और जमीन यानी धन, स्त्री और जमीन. पति का शाब्दिक अर्थ मालिक ही होता है. इस रिश्ते से पत्नी को पति की संपत्ति माना जाता है.

शायद इसी तर्क के आधार पर महाभारत की कथानुसार युधिष्ठिर ने द्रौपदी को अपनी संपत्ति मानते हुए जुए में दांव पर लगा दिया था.

समय बेशक बदलता हुआ प्रतीत हो रहा है लेकिन परिस्थितियां आज भी कमोबेश वही हैं. आज भी स्त्री पुरुष की संपत्ति ही समझी जाती है जिस की अपनी कोई स्वतंत्र विचारधारा नहीं हो सकती. जिस के हर व्यक्तिगत फैसले पर पुरुष की सहमति की मुहर आवश्यक समझी जाती है और ऐसा नहीं करने वाली स्त्रियां चरित्रहीन की श्रेणी में गिनी जाती हैं.

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आज भी स्त्रियों की यौनिक शुचिता को उन पर शासन करने या उन्हें नियंत्रित करने का हथियार समझा जाता है.

अकसर 2 दलों के आपसी झगड़े का शिकार महिलाएं बन जाती हैं. लोग अपना बदला चुकता करने के लिए एकदूसरे की बहनबेटियों से बलात्कार तक कर डालते हैं.

दंगों के दंश भी महिलाएं ही झेलती हैं। पुरूष अपनी खीज उतारने के लिए भी बलात्कार करते हैं मानो इस तरह वे उस स्त्री के शरीर पर नहीं बल्कि उस के पूरे वजूद पर अपना अधिकार जमा लेंगे.

मुखर या हावी होती दिखती महिलाओं के साथ भी यही कुकर्म किया जाता है. मांबहन की गालियां भी तो इसी का उदाहरण हैं.

पर कतरने की साजिश

कई कार्यालयों में जहां महिलाएं अधिक प्रतिभाशाली होती हैं, अकसर चारित्रिक उत्पीड़न का शिकार पाई जाती हैं. उन के सहकर्मी जब उन के द्वारा कुशलता से संपादित होने वाले कार्यों की अनदेखी कर उन का चारित्रिक मूल्यांकन करने लगते हैं तो कहीं न कहीं वे मानसिक रूप से टूटती ही हैं.

यही तो पुरुष को चाहिए. स्त्री को तोड़ कर उसे अपने अंकुश में रखना ही तो उस का ध्येय है.

इस बात में कोई दोराय नहीं कि हर क्षेत्र में स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है. प्रतिभा यदि पुरुष से कमतर है तब तक पुरुष को उस की तारीफ से गुरेज नहीं लेकिन जहां कहीं वह पुरुष से 21 हुई, सारा बवाल वहीं से शुरू होता है. ऐसे अनेक उदाहरण हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं.

सीमा मेरी कालोनी में ही रहती है. पतिपत्नी दोनों सरकारी स्कूल में अध्यापक हैं. सीमा अपने पति से जूनियर है, इस नाते स्कूल से संबधित मामलों में उस की सलाह लेती रहती थी. पति का अहं संतुष्ट होता रहता था. अपनी मित्रमंडली में वह सीमा की तारीफ करते नहीं अघाता था.

पिछले साल सीमा प्रतियोगी परीक्षा पास कर के प्रधानाध्यापक क्या बन गई, एक ही झटके में उस की सारी प्रतिभा धूल में मिल गई. सीमा को दूसरे शहर में पोस्टिंग मिली जो उन के घर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर था.

पहले तो उस पर रोजाना आनेजाने के लिए दबाव बनाया गया लेकिन उस के दृढ़ता से मना करने पर उस पर जौइन न करने का दबाव बनाया गया. विरोध करने पर पति ने सीधा उस के चरित्र पर निशाना साध लिया.

“होगा कोई, जिस के लिए घर छोड़ने को तैयार है ताकि जम कर मस्ती की जा सके,” कह कर पति ने तुरुप का पत्ता फेंक कर उस का मनोबल तोड़ने की कोशिश की.

यह तो सीमा भी हिम्मत वाली निकली जिस ने पति की परवाह न कर के अपना नया पदभार ग्रहण कर लिया वरना अधिकतर महिलाओं को तो अपने कैरियर से अधिक अपनी शुचिता ही प्यारी लगती है.

हावी है पुरातन सोच

अति आधुनिक कहे जाने वाले आज के कितने ही युवा हैं जो अपनी पत्नियों के विवाहपूर्व प्रेम प्रसंग को सहजता से स्वीकार कर सकें? शायद एक भी नहीं.

भले ही वे स्वयं अप ने प्रेम के किस्से कितना ही रस ले कर पहली रात अपनी नवविवाहिता को सुनासुना कर उस पर अपनी मर्दानगी का रोब झाड़ें लेकिन पत्नी का किसी के प्रति एकतरफा लगाव उन्हें कतई गंवारा नहीं.

बेशक स्त्रियों को पढ़नेलिखने, घूमनेफिरने या फिर अपना मनचाहा कैरियर चुनने की आजादी मिली है लेकिन आज भी उन की कमाई पर उन का पूरा अधिकार नहीं है. अपने पर किए गए खर्च को भी उन के चरित्र से जोड़ दिया जाता है.

यही कारण है कि विधवा या तलाकशुदा स्त्री का हलका सा श्रृंगार भी समाज की आंखों में खटकने लगता है.

एक जाल है यह

बचपन में मैं ने दादी को गाय दुहते हुए देखा है. वे गाय को दुहने से पहले एक पतली सी रस्सी से उस के दोनों पांव बांध देती थीं.

मैं कहती,”दादी, इतनी बड़ी गाय को इतनी पतली सी रस्सी से कैसे बांध लिया आप ने?”

तब दादी कहतीं,”बेटा, इसे रस्सी की आदत हो गई है. पतलीमोटी से कोई फर्क नहीं पड़ता.”

ठीक ऐसी ही आदत महिलाओं को भी हो चुकी है. अपनी शुचिता को अपनी उपलब्धि समझने की, अपनेआप को पुरुष के संरक्षण में रखने की. पहले पिता, फिर भाई, उस के बाद पति और अंत में बेटा.

स्त्रियों के संरक्षक समाज ने तय कर दिए, वही लकीर वे आज भी पीटे जा रही हैं या यों कहें कि उन्हें इस की आदत हो गई है.

बहुत सी महिलाओं को इस में कोई बुराई भी नहीं दिखती बल्कि उन्हें अच्छा लगता है कि कोई उन का खयाल रख रहा है. इस के पीछे छिपी गुलामी की मानसिकता उन्हें दिखाई नहीं दे रही.

आज भी कुछ खेल, कुछ प्रोफैशन महिलाओं के लिए उचित नहीं समझे जाते जैसे सेना, पर्वतारोहण, साइकिल चलाना आदि। वहीं कुछ खेल और व्यवसाय महिलाओं के लिए उत्तम समझे जाते हैं जैसे टीचिंग, बैंक आदि.

हालांकि वर्जनाएं टूट रही हैं लेकिन उन का प्रतिशत उंगलियों पर गिनने भर जितना ही है.

बदलाव की बयार

फिल्में समाज का आईना समझी जाती हैं. कुछ फिल्में वही दिखाती हैं जो समाज में घटित हो रहा है तो कुछ फिल्मों को देख कर समाज उन का अनुसरण करता है. पुरानी फिल्में देखें तो नायिका को शुचिता की मूर्ति दिखाया जाता था. यौनिक शुद्धता इतना हावी रहता था कि नायिका के मुंह से कहलाया जाता था कि मैं ने फलां पुरुष को अपना सर्वस्व सौंप दिया है. किसी अन्य पुरुष के साथ शादी के बारे में सोचना भी मेरे लिए पाप है.

इसी तरह यदि किसी फिल्म में नायिका से यह कथित पाप यानी विवाहपूर्व गर्भ ठहर गया हो तो स्त्री को ही उम्रभर इस पाप को ढोते हुए दिखाया जाता था.

दूसरी तरफ आज की फिल्में या वैब सिरीज की बात करें तो इन में विवाहपूर्व के शारीरिक संबंध बहुत ही सहज दर्शाए जा रहे हैं. इस तरह के समागम के पश्चात नायिका को किसी गिल्ट, अपराधबोध या शर्मिंदगी का एहसास नहीं होता बल्कि वह अगली सुबह न तो शरमाती हुई उठती है और न ही लाज से उस के गाल गुलाबी होते हैं. वह आम दिनों की ही भांति सहजता से अपना दिनभर का काम निबटाती है.

यह बदलाव की ठंडी बयार सुकून देने वाली है. यदि पुरुष को इस तरह के संबंध के बाद गिल्ट नहीं है तो स्त्री ही क्यों इस गठरी को ढोए?

स्त्री अपनी ऊर्जा शुचिता को सलामत रखने में जाया नहीं करती बल्कि ‘जो हो गया वह मेरी मरजी’ कह कर हवा में उड़ा देती है.

वह ब्रैकअप के बाद आंसू भी नहीं बहाती. लिव इन रिलैशन के रिश्ते इसी श्रेणी में गिने जा सकते हैं.

वैसे भी आजकल शादियां देर से होती हैं और शरीर की भी अपनी मांग होती है। ऐसे में सिर्फ शादी के बाद पति के सामने शुचिता के सत्यापन के लिए आज की लड़कियां अपने आज के रोमांच को खत्म नहीं करना चाहतीं.

लड़कियों का बढ़ता आत्मविश्वास उन्हें हर अपराधबोध से बाहर ला रहा है. उन्हें खुल कर जीने का न्यौता दे रहा है और वे इसे स्वीकार भी कर रही हैं.

सरकार भी उन के पक्ष में कानून बना कर उन के पंखों को मजबूती दे रही है.

आज औरत अकेली यात्राएं कर रही है, अपनी संपत्ति बना रही है, पहाड़ों पर चढ़ रही है, आसमान में उड़ रही है, सागर की गहराई नाप रही है.

सब से बड़ी और सकारात्मक बात कि बलात्कार और ऐसिड अटैक जैसे हादसों के बाद भी महिलाएं मुसकरा कर जी रही हैं यानी शुचिता के सत्यापन को नकार रही हैं और शुचिता की आड़ में अपने ऊपर जबरन शासन से इनकार कर रही हैं.
यही बदलाव तो चाहिए था.

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