राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने पिछले दिनों 8 राज्यों- तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, मिजोरम, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र और मेघालय को निर्देश दिया है कि वे अपने यहां बाल संरक्षण गृहों में रह रहे बच्चों को उनके परिवार के पास वापस भेजना सुनिश्चित करें. गौरतलब है कि भारत में जितने बच्चे बाल संरक्षण गृहों में रह रहे हैं, उनमें 70 फीसदी बच्चे अकेले इन्हीं 8 राज्यों के बाल संरक्षण गृहों में रह रहे हैं. वैसे देशभर के बाल संरक्षण गृहों में कुल 2,56,000 बच्चे रहे रहे हैं. इन संरक्षण गृहों में बच्चों को तब लाया जाता है, जब वे अपने घरों में या जहां वे रह रहे हैं, वहां शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से वे सुरक्षित न हों. ऐसे में एनसीपीसीआर के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो का यह निर्देश कि 100 दिनों के भीतर संरक्षण गृहों से बच्चों को वापस उनके घर भेजा जाना जिलाधिकारी और कलेक्टर सुनिश्चित करें,एक निहायत  अटपटा किस्म का आदेश है.

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क्योंकि अगर ये बच्चे जहां रह रहे हैं, वहां सुरक्षित होते या उन्हें किसी किस्म की शिकायत न होती तो भला यहां आते ही क्यों? शायद यही वजह है कि देशभर के 788 मानवाधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं ने एक खुला पत्र लिखकर एनसीपीसीआर के इस प्रस्ताव का विरोध किया है. यह विरोध इसलिए वाजिब है क्योंकि इस कोरोना महामारी के समय, जहां वे बच्चे तक अपने घरों में सुरक्षित नहीं हैं, जिन्हें किसी किस्म की शारीरिक या भावनात्मक असुरक्षा नहीं है, वहीं ऐसे बच्चों को वापस उन घरों में भेजना कितना न्याय संगत होगा,जहां से उन्हें उनकी तमाम तरह की असुरक्षाओं को ध्यान में रखते हुए ही निकाला गया था ? साल 2015 में एनसीपीसीआर ने बच्चों के संरक्षण के लिए जो कानून बनाया था,यह निर्देश उस कानून की मूलभावना का उल्लंघन है.

गौरतलब है कि साल 2018-19 में 7,164 चाइल्ड केयर संस्थाओं के सोशल ऑडिट से मालूम हुआ था कि इनमें 2,56,369 बच्चे रह रहे हैं. कुछ उत्तर-पूर्वी राज्यों में निर्धारित सीमा से अधिक बच्चे शेल्टर्स में रह रहे हैं. इसमें शक नहीं है कि बच्चों को केयर व सुरक्षा की जरूरत है और ये आवश्यकताएं रोजाना के आधार पर बदलती रहती हैं. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि शेल्टर्स में भी बच्चों के साथ कोई खास अच्छा सलूक नहीं होता.

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इस साल सितम्बर में सरकार ने स्वयं संसद में स्वीकार किया कि 2017-18 व 2019-20 के बीच यानी पिछले तीन वर्ष के दौरान एनसीपीसीआर को शेल्टर्स में बच्चों के साथ यातना, यौन शोषण व हिंसा की 41 गंभीर शिकायतें प्राप्त हुईं, जिनमें से सबसे ज्यादा (14) उत्तर प्रदेश से इसके बाद बिहार व मध्य प्रदेश से 8-8 और दिल्ली से सात थीं.लेकिन क्या इसके बावजूद इस कोविड-19 महामारी में बच्चों को शेल्टर्स से उनके घर वापस भेजना ठीक होगा? जवाब है नहीं.

सवाल है,जब एनसीपीसीआर बच्चों की इन तमाम समस्याओं को भली भांति जानता है, तो फिर उन्हें उन्हीं पारिवारिक स्थितियों में क्यों भेजना चाहता है, जहां वह ऐसी स्थितियों का शिकार हुए थे. यह कहने में बहुत आसान है कि बच्चे अपने घर में ज्यादा सुरक्षित होते हैं. लेकिन वे अपने घर में सुरक्षित नहीं थे, तभी तो वहां से निकाले गये और अब जब वापस उन्हीं घरों में जाएंगे तो एक तो वह जिनके संरक्षण में रहेंगे, वे भला अब क्यों उन्हें प्रताड़ित करने से डरेंगे. लेकिन इससे भी बड़ी समस्या इन बच्चों के अंदर उन्हीं घरों में वापस जाने से, जहां से वे यहां आये थे, यह होगी कि उनका आत्मविश्वास बिल्कुल टूट जायेगा. वह हर पल दहशत में जीएंगे.

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इस संबंध में एनसीपीसीआर बहुत मासूम सा तर्क देता है कि वह इन बच्चों को उनके परिवार से मिलाना चाहता है. लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या इन बच्चों को बिना किसी समस्या के उनके घरों से निकालकर बाल संरक्षण घरों में रखा गया था? राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग पता नहीं क्यों उस हकीकत को नहीं समझना चाहता, जिसके चलते यह व्यवस्था की गई है? एनसीपीसीआर तमाम बाल मानवाधिकार संगठनों की अनसुनी करते हुए उन राज्यों में  जिला अधिकारियों और कलेक्टरों को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है कि उसके आदेश का पालन हो. जब बार बार बाल मानवाधिकार संगठन इसके लिए चिंता जताते हैं, तो एनसीपीसीआर के अध्यक्ष प्रियांक कानूनगो कहते हैं कि जिन बच्चों को उनके घर भेजा जाना संभव न हो, उन्हें गोद देने की प्रक्रिया शुरु कर दी जाए.

इस तरह के विकल्पों से लगता है जैसे एनसीपीसीआर बजिद है कि बच्चों को बाल संरक्षण घरों में न रखा जाए; क्योंकि उसके मुताबिक वहां बच्चे सुरक्षित नहीं हैं. यह लगभग वैसा ही तर्क है कि चूंकि पुलिस के द्वारा अपराध रोके जा सकने संभव नहीं हो रहे तो क्यों न पुलिस को डिसमिस कर दिया जाना चाहिए. हैरानी की बात यह है कि जिन तर्कों से एनसीपीसीआर को खुद सोचना चाहिए कि आखिर बच्चों को संरक्षण घरों में रखने की जरूरत क्यों पड़ती है? उल्टे उन्हीं तर्कों से वो बच्चों को यहां न रखने की वकालत कर रहे हैं.

प्रियांक कानूनगो के मुताबिक यह उस राष्ट्र की विफलता होती है, जिसके बच्चों को बाल संरक्षणगृहों में रहना पड़े. निश्चित रूप से वो सही कह रहे हैं, लेकिन क्या जिन घरों में बच्चे असुरक्षित थे, पीड़ित थे, वहां बिना यह सुनिश्चित किये कि स्थितियां कैसी हैं, वापस भेजना कोई समझदारी या राष्ट्रीय गौरव का विषय होगा?

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दरअसल ऐसे मामलों को भौतिक तर्कों की बजाय संवेदनशीलता के आईने में देखना चाहिए. लेकिन संकट ये है कि पिछले कुछ सालों से तमाम संस्थान किसी मामले में तभी संवेदनशील होते हैं, जब ऐसा होने के लिए उन्हें ऊपर से आदेश मिलता है, वरना तो वह कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. बाल संरक्षण गृहों में बच्चों को दोबारा सख्ती के साथ भेजना उनके प्रति कोई अच्छी भावना नहीं बल्कि संवेदनहीनता है.

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