मैं काफी कोशिश कर रहा था कि इस विषय पर न लिखूं. लेकिन, पिछले 15 दिनों से लगातार मीडिया में इस मुद्दे को सनसनीखेज बनाकर चलाए जाने से अब तंग आ चुका हूं. सुशांत क्या खाते थे?, क्या पीते थे?, उनके क्या सपने थे?, कैसे रहते थे?, दोस्त कोन थे?, भाई क्या करता है?, पिताजी रो रहे हैं?, कमरे कितने हैं?, चादर कैसी है? चाँद पर घर लिया है इत्यादि यह सब बातें मीडिया द्वारा जबरन लोगों को परोसी जा रही हैं.
जाहिर है उनकी खुदखुशी ने पुरे देश को हैरान किया है, जिसे किसी के लिए भी यकीन कर पाना आसान नहीं है. ऐसे मोके पर किसी भी मानवीय प्रवृति वाले इंसान का दुखी होना लाजमी हैं, और होना भी चाहिए. यही तो इंसान को इंसान से जोड़ता है. लेकिन जब यही मानवीयता लोगों के लिए दिखावा और मीडिया के लिए पैंसा कमाने का धंधा बन जाए तो ठगा हुआ भी महसूस होता है.
मैं फ़िल्में अधिक नहीं देखता. लेकिन फ़िल्मी कलाकारों को पहचान जरूर लेता हूँ. मुझे याद है पहली बार सुशांत को मैंने तब जाना था जब देश में जातिवादी एहंकार के चलते कुछ लोग पद्मावत फिल्म का विरोध कर रहे थे (हांलाकि फिल्म देखने के बाद लगा की इस फिल्म का विरोध करणी सेना को नहीं बल्कि प्रगतिशील तबके द्वारा होना चाहिए था). खैर, करणी सेना का विरोध इतना बढ़ा कि डायरेक्टर भंसाली को उनके लोगों ने थप्पड़ तक जड़ दिया.
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इसी के चलते सुशांत सिंह ने अपने नाम के आगे लगने वाले जातीय पहचान “राजपूत” को हटा दिया था. उनके इस फैसलें से उन्होंने यह साबित किया कि वह सिर्फ पर्दे के कलाकार ही नहीं बल्कि समाज के भी कलाकार है. जाहिर है उनके इस फैसले ने मुझे प्रभावित किया था. और मुझे भी प्रसंशक बना दिया. किन्तु उस समय देश के इन्ही सोशल मीडिया यूजर्स ने, जो आज दिन रात उनकी गाथा गाते थकते नहीं, उनके इस कदम पर उन्हें खूब ट्रोल कर रहे थे.
लेकिन मसला यहां यह नहीं है कि सुशांत कैसे कलाकार थे. मसला यह है कि देश में सुशांत की मौत के अलावा और भी कुछ हो रहा है जो इस खबर को सनसनीखेज बनाके दबाया जा रहा है. जाहिर है देश में कोरोना का कहर अभी भी जारी है. देश में साढ़े 5 लाख कोरोना के मामले सामने आ चुके हैं जिसमें अभी तक 16,475 लोगों की मौत हो चुकी है. हांलाकि, मीडिया में अब कोरोना से मरने वाले लोगों की मौत महज आकड़ा बन कर रह गए हैं. इस पर केंद्र सरकार से सवाल करना मानो पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा हो गया है.
जिस तालाबंदी को ब्रह्मास्त्र मान कर प्रधानमंत्री 21 दिन के युद्ध की घोषणा कर रहे थे. उस युद्ध की विफलता की चर्चा न तो मीडिया में है, और न ही इस कारण लोगों के बीच है. आखिर इतने कठोर तालाबंदी के कारण आज देश की अर्थव्यवस्था पूरी तरह बर्बाद हो चुकी है. लोगों की उपभोक्ता क्षमता ख़त्म हो चुकी है. करोड़ों लोगों की नोकरी जा चुकी हैं. लोग भूख से बेदम हो चले हैं. कितने लोग मौत के घाट उतर चुके है, या उसी की प्रतीक्षा में है. लेकिन यह खबरे मीडिया में ठहर ही नहीं रही है.
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तालाबंदी में आत्महत्या”एँ”
आज सुशांत की मौत को लेकर मीडिया में इस बहस को खूब चलाया जा रहा है. एंकर चीख चीख कर कह रहे हैं कि बॉलीवुड में परिवारवाद खूब चलता है. जिसकी वजह सुशांत ने तंग आकर आत्महत्या की. चलो यह माना भी जाए किन्तु इसी दौरान कितने लोग गरीबी, भुखमरी, तालाबदी से उपजे मानसिक तनाव से आत्महत्या कर चुके हैं किन्तु उस पर कोई बात करने को तैयार नहीं. कोई एक प्राइम चलाने को तैयार नहीं. अकेले झारखंड राज्य के आकड़ों को देखा जाए हर 4 घंटे 50 मिनट के भीतर लोगों ने इस तालाबंदी में आत्महत्याएँ की हैं. झारखंड सरकार द्वारा जारी किये आकड़ों में मार्च से लेकर जून 25 तक 449 लोग आत्महत्या कर चुके हैं. अगर इन आकड़ों को माना जाए तो हर दिन 5 लोग आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं. इस मामले पर जानकारों का कहना है कि इसका बड़ा कारण बेरोजगारी, पैंसों की तंगी, लाकडाउन से उपजा मानसिक तनाव है.
जाहिर है देश में पहले से रगड़ खाती अर्थव्यवस्था को लाकडाउन ने और खराब स्थिति में लाकर छोड़ दिया है. देश इस समय अभूतपूर्व बेरोजगारी झेल रहा है. और यह समझ आ रहा है कि इसे वापस पटरी पर सामान्य होने में लम्बा समय लगने वाला है. ऐसे में इस तरह की घटनाएं सरकार की नाकामियों को दिखाता है.
वहीँ झारखंड के अलावा अकेले लुधियाना से 100 आत्महत्याओं के होने की पुष्टि हुई है. जिसमें मुख्य तौर पर वही बेरोजगारी, पैसों की तंगी, परिवार की जिम्मेदारी इत्यादि बाते सामने आई हैं. मरने वालों में अधिकतम 30-40 साल की उम्र के युवा हैं. जाहिर है यह उम्र अपने करियर और घर की जिम्मेदारी सँभालने के लिए सबसे ज्यादा दबावयुक्त होती है. यह चीजें सीधा दर्शाती है कि मीडिया का बड़ा खेमा आत्महत्या का सिर्फ एक एंगल सेट करने में लगा हुआ है. जिसमें वह लगातार दर्शकों के दिमाग में यह डालने की कोशिश कर रहा है कि आत्महत्या का तालुक सिर्फ आर्थिक नहीं होता.
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अपवाद से चीजें निर्धारित नहीं होती
जाहिर है यह बात सही है कि आत्महत्या का ताल्लुक सिर्फ आर्थिक नहीं होता. किन्तु कौन सी चिंताएं मानसिक रूप से अधिक दिक्कत में डाल सकती है उसमें सबसे बड़ा कारण आर्थिक होता है. भारत में आए दिन कर्ज तले दबे सैकड़ों किसान आत्महत्या करने पर मजबूर होते हैं. कितने ही बेहतर करियर(नोकरी) पाने के चक्कर में पढ़ाई में असफल होने के दुःख के चलते आत्महत्या कर लेते हैं. कितने ही घर में खाने का निवाला न होने के चक्कर में परिवार सहित जहर खा कर जान दे देते हैं. किन्तु ऐसे अपवाद ही होते है जिनके पास रोजगार, पैसों, घर की जिम्मेदारी की समस्या नहीं होने के बावजूद आत्महत्या करते हैं.
किन्तु मीडिया का सुशांत की आत्महत्या (जिसमें लगातार कहा जा रहा है कि दोलत, शोहरत, अच्छा जीवन सब कुछ था) को विशेष तौर पर उठाना यह दर्शाता है कि उनकी प्राथमिकता में बहुसंख्यक स्तर पर होने वाले आत्महत्याओं पर बहस खड़ी करने का नहीं है बल्कि चर्चित मामले को सनसनी बना कर इस मामले में टीआरपी बटोरने का है. वहीँ अगर देखा जाए तो सुशांत की आत्महत्या को केंद्र में लाकर वह उन तमाम आत्महत्याओं से ध्यान हटवाना चाहते हैं जो इस तालाबंदी के समय लोगों ने घरों में परेशान होकर की हैं. फिर चाहे वह बेरोजगारी के कारण हो, भुखमरी के कारण हो या तालाबंदी के तनाव के चलते हो.
इसके पीछे कुछ और मंशा?
किन्तु यह मामला इतना सीधा नहीं लगता जितना दिख रहा है, बल्कि इसके पीछे राजनीतिक रैपर भी लपेटा हुआ है. ध्यान हो तो भारत देश की तालाबंदी बाकी देशो के मुकाबले अधिक कठोर थी. इससे जो सबसे बड़ी समस्या उभर कर आई थी वह प्रवासी मजदूरो की समस्या थी. जाहिर है इससे उत्तर भारत में बिहार राज्य सबसे अधिक प्रभावित राज्यों में से एक था. जहां लाखों की संख्या में लोगों ने घर वापसी की. ऐसे में सबसे बड़ी दिक्कत उनके सामने भूख और रोजगार की उभर कर आई है.
किन्तु सुशांत के मरने के बाद खासकर बिहार के लोगों में अब यह मामला क्षेत्रीय अस्मिता वाला एंगल भी जोड़ रहा है. जितनी मीडिया में सुशांत की खबर चलती है उतना लोगों को लगता है कि उनके प्रदेश का एक होनहार लड़का लगभग उसी परिवारवाद का शिकार हुआ, जिसे देश ने कांग्रेस कार्यकाल में भोगा, और जिसकी दावेदारी अब तेजस्वी ठोकना चाहते है बिहार में. इसीलिए मीडिया और भाजपा के लिए यह खबर दोनों हाथ लड्डू आने जैसा भी है. मसला यह कि फिलहाल बिहार में तेजस्वी को नेता के तौर पर लोग स्वीकार नहीं करना चाहते है लेकिन बचेकूचे “लालू के बेटे” वाले टेग को इस तरीके से उखाड़ने की कोशिश की जा रही है.
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कई हित साधे गए?
खैर, इस मुद्दे से न सिर्फ बिहार प्रकरण बल्कि भारत-चीन के मुद्दे पर घिरती सरकार को लोगों का ध्यान बिद्काने में ख़ासा मदद मिली. जो सवाल यहां वहां से उठ कर भारत-चीन मसले पर सरकार से हो रहे थे, उन्हें सुशांत की आत्महत्या की ताबड़तोड़ कवरेज करके दबाया गया. जिन लोगों को सीमा पर तनाव की चिंता और शहीदों के मरने का दुःख होना था उन्हें उससे ज्यादा मजा सेलेब्रिटी क्लैश की अपडेटड खबरे पढने में आ रहा था. जो लोग अभिनन्दन के पकिस्तान के कब्जे में लिए जाने पर राष्ट्रीय शोक मना रहे थे उन्हें देश के 10 जवान चीन ने पकड़े उसकी कोई चिंता तक नहीं थी, यहां तक की मलाल तक नहीं हुआ जब यह खबर सामने आई.
देश के लोग सेलेक्टिव क्यों हो चले हैं?
आज हालत यह है कि सरकार देश का नियंत्रण पूरी तरह से डंडे के जौर पर करना चाहती है. पुलिस बल को विशेष छूट दी जा रही है. डंडो की आजमाइश लगातार चल रही है. जो डंडे से नहीं डर रहा उसे देशद्रोही बताया जा रहा है. मुकदमा ठोका जा रहा है. तालाबंदी में यह हाल देखा ही था कि किस तरह से लोगों को भोजन देने की जगह डंडे मारे जा रहे थे. लाखों लोग रास्तों में सैकड़ों मील पैदल चले. कई लोग रास्तों में भूखे पेट मर खप गए. लेकिन लोग इन मामलों में संवेदनशील नहीं हुए.
किन्तु अगर तालाबंदी को छोड़ भी दिया जाए तो देश में अन्यथा डंडो के जौर पर सरकार चलाने पर विश्वास किया जा रहा है. ताजा उदाहरण, तमिलनाडु (तूतीकोरिन) में हुई बाप-बेटे की पुलिस कस्टडी में हुई मौत इसका गवाह है कि किस तरह से पुलिस को सम्पूर्ण अधिकार दिए जा रहे हैं. छोटी छोटी चीजों पर हद पार प्रताड़ना की जा रही है. किन्तु लोगों और मीडिया के लिए तमिलनाडु की घटना चुप्पी साधना मानवीय संवेदना के परखच्चे उड़ाने जैसा हैं. यह गैर मानवीयता व्यवहार दिखाता है कि लोग संवेदना प्रकट करने का सिर्फ दिखावा करते हैं. अगर सच में हमारे भीतर संवेदना होती तो कलाकार सोनू सूद को प्रवासी मजदूरों की मदद करने के लिए हीरो या वीर बनाने की जगह सबसे पहले सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाता. उनसे उनकी लापरवाहियों पर सवाल किया जाता.
आज हकीकत यह है कि देश में स्थिति असमान्य है. लोगों के पास रोजगार नहीं है, या है तो हमेशा जाने का डर लगा रहता है. देश भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा है. लोग आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं. भुखमरी बड़ी समस्या बनकर उभर कर सामने आ चुकी है. जिस कारण मौतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है. सरकार देश में संभावित उठते रोष को या तो डंडे के बल पर दबाना चाहती है या ध्यान भटकाना चाहती है. लोग जिसे अपनी मानवीय संवेदना समझ रहे है वह या तो भटकाव है या भक्ति है. यही कारण भी है कि लगातार ऐसे मुद्दे लोगों के सामने जबरन हद से ज्यादा परोसे जा रहे हैं जिससे आम लोगों का एक सीमा से ज्यादा कोई लेना देना नहीं है. जिससे न तो उनके रोजगार के मुद्दे हल होने वाले है और न ही स्वास्थय सम्बन्धी. जिससे न तो उन्हें रोटी मिलने वाली है न शिक्षा.