आपदा को अवसर में बदलने की बात अगर पीपीई निर्माण में आत्म निर्भर होने को ले जाकर की जा रही है तो बात चिंता के साथ साथ शर्म की भी है.
21 मई के देश भर के प्रमुख अखबारों में भारत सरकार द्वारा जारी एक इश्तहार छपा था जिसकी शुरुआत ही इन शब्दों से हुई थी कि पिछले 60 दिनों में भारत में 500 से अधिक पीपीई कवरआल्स निर्माता विकसित हुए हैं जिनकी उत्पादन क्षमता प्रतिदिन 4 लाख से अधिक है. 20 मार्च 2020 तक देश में पीपीई कवरआल्स का कोई उत्पादन नहीं होता था.
इस गुणगान के बाद इस विज्ञापन में पीपीई की प्रयोगशाला जांच और यूनिक सर्टिफिकेशन कोड की जानकारी दी गई थी जिससे यह यूं ही खामोख्वाह और बेमकसद न लगे. विज्ञापन का इकलौता मकसद लोगों को यह बताना था कि वे गर्व करें क्योंकि पीपीई एकाएक ही भारत में बड़े पैमाने पर बनने लगी है और चूंकि इसके लिए अब हम विदेशों के मोहताज नहीं रह गए हैं इसलिए इस अभूतपूर्व उपलब्धि पर फख्र करना तो बनता है. 12 मई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में इसका जिक्र कुछ इस तरह किया था मानो हमने यूरेनियम की खोज कर ली है जो हमें विश्वगुरु बनाने की तरफ एक अहम कदम है.
दर्जीगिरी है यह –
जिस पीपीई पर बलात गर्व करबाया जा रहा है उसे समझें तो सरकार की बुद्धि और मंशा पर तरस ही आता है. दरअसल में पीपीई यानि पर्सनल प्रोटेक्टिव इकयूपमेंट कोई भारी भरकम तकनीक बाला चिलीत्सीय उपकरण नहीं है जिसमें किसी फेकटरी या विशेषज्ञो की जरूरत पड़ती हो. आसान शब्दों में कहा जाये तो यह एक तरह का रेनकोट यानि बरसाती सिलने जैसा आइटम है जिसे कोई साधारण दर्जी भी आसानी से छोटे से कमरे में सिल सकता है. और ऐसा ही अधिकतर जगह हो भी रहा है इसलिए देखते ही देखते सैकड़ों इकाइयां इसकी लग भी गईं.
ये भी पढ़ें-भूमिगत पानी का मालिक कौन किसान या सरकार?
पीपीई बनाने एक सिलाई मशीन और कपड़ा या महीन प्लास्टिक, पोलिथीन पर्याप्त है. एक श्रमिक या दर्जी एक दिन में 4-5 पीपीई आसानी से बना सकता है. कोरोना संकट के समय ये पीपीई बहुत महंगी विदेशों से खरीदी गईं थीं जबकि एक अच्छी गुणवत्ता बाली पीपीई की औसत लागत 500 रु भी नहीं आती और यह 800 रु में बिक रही है.
यानि लोकल लोकल ही साबित हो रहा है जिसके कोई तयशुदा दाम और पैमाने नहीं होते. भोपाल के गुलमोहर इलाके में मास्क और पीपीई बनाकर मांग के मुताबिक इन्हे स्थानीय तीन निजी नर्सिंग होम में सप्लाई कर रहीं तनुजा गोडबोले बताती हैं पीपीई की कीमत कच्चे माल के इस्तेमाल के मुताबिक 250 रु से लेकर 1200 रु तक होती है. तनुजा के मुताबिक इन दिनों मांग बढ़ रही है और सप्लाई कम है.
त्रिपुरा मेडिकल कालेज के एक असिस्टेंट प्रोफेसर अर्कदीप्त चौधरी ने तो बेहद सस्ता मास्क तैयार कर डाला है जिसकी लागत 25 – 30 रु आती है जबकि बाजार में यही मास्क जो पीपीई किट के साथ इस्तेमाल होता है 250 से लेकर 499 रु में मिलता है. दिलचस्प बात यह है कि स्टॉपड्रॉप नाम के इस मास्क को उन्होने पोलिस्टर पट्टियों और नकाब से मिलाकर तैयार किया है. बक़ौल अर्कदीप्त चौधरी जिस अस्पताल में वे काम करते हैं उसने मास्क का परीक्षण करने के बाद 300 मास्क खरीदे हैं और 2 हजार और मास्क का आर्डर दिया है. तिरूपुर एक्सपोर्ट एसोशिएशन यानि टीइए के अध्यक्ष राजा शनमुगम के मुताबिक टीइए अभी तक 20 हजार पीपीइ और 10 लाख मास्क बना चुका है हाल ही में 1 लाख मास्क केरल सरकार को मांग पर दिये गए हैं. टीइए कच्चा माल खासतौर से महाराष्ट्र और गुजरात से ले रहा है जिसका पूरा फायदा दक्षिण भारत की निर्यात इकाइयां उठा रहीं हैं.
ये भी पढ़ें-पंडितों के धंधे की खुल गई पोल: पूजापाठ धर्म नहीं, धंधा है
सार ये कि गमछे की ही तरह पीपीई की कीमतों में हर जगह भारी अंतर है. सूरत की एक कंपनी यूनिवर्सल डिस्पोज़ेबल पर्सनल प्रोटेक्शन ईक्विपमेंट पीपीई 340 रु प्रति नग बेच रही है तो सूरत की ही एक दूसरी कंपनी नायलोन नॉन डिस्पोज़ेबल किट जो दोबारा इस्तेमाल की जा सकती है 1150 रु में बेच रही है. कीमतों में यह अंतर बताता है कि उत्पादक सरकार द्वारा निर्धारित मापदण्डों का उल्ङ्घ्घन कर रहे हैं , इस बाबत भोपाल के एक नामी नर्सिंग होम के एक सीनियर डाक्टर से सवाल किया गया तो वे मज़ाक उड़ाने के अंदाज में बोले ये मापदंड क्या हैं यह किसी को नहीं मालूम और यह भी कि ये हैं भी या नहीं.
कटघरे में सरकार –
12 मई के भाषण में नरेंद्र मोदी ने आत्मनिर्भरता को जो राग अलापा था उसका एक बड़ा आधार पीपीई ही थी. पीपीई देश में बनने लगे हैं यह अच्छी बात है लेकिन वे किस तरह बन रहे हैं यह ऊपर बताए उदाहरणो से साफ भी होता है. सोचा जाना लाजिमी है कि सरकार 2014 से क्या कर रही थी जबकि इसे बनाना दुनिया का सबसे आसान काम है तब इस तरफ सरकार का ध्यान क्यों नहीं गया कि ये चिकित्सीय बरसातियाँ हम देश में भी बना सकते हैं. यह अदूरदर्शिता और लापरवाही नहीं तो क्या थी और आज कहा जा रहा है कि हमारी इस अदूरदर्शिता और लापरवाही पर ही गर्व कर लो क्योंकि हालफिलहाल गर्व करने लायक कुछ और है नहीं. हालांकि पहले भी नहीं था.
अगर समझदारी दिखाते सरकार पहले से ही पीपीई देश में बना या बनबा रही होती तो कोरोना संक्रमण जाहिर है कम होता , डाक्टर्स और स्वास्थकर्मी कम संक्रमित होते और प्यास लगने पर कुआं खोदने की जरूरत नहीं पड़ती. बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी लेकिन लोगों की अज्ञानता का फायदा उठाते इसका प्रचार दूसरी गलती या चालाकी है. क्या लोग इस बात पर गर्व करना पसंद करेंगे कि हम गमछों के साथ साथ बरसातियाँ भी सिलने लगे हैं.
दरअसल में कोरोना को लेकर दुनिया की सबसे बुद्धिमान सरकार और उसके मुखिया के पास बताने रोज रोज के बढ़ते संक्रमितों और मौतों के सिवा कुछ है नहीं , हाँ ढकने जरूर काफी कुछ है जिसमें सड़कों पर भूख प्यास से दम तोड़ते प्रवासी मजदूर खास हैं जिन पर पुलिस डंडे दरियादिली से बरसा रही है. इन आंकड़ों और हालातों को पीपीई के गर्व से ढंकने की कोशिश हर्ज की बात नहीं.
क्या पीपीई यानि मेडिकल रेनकोट का निर्माण देश की दम तोड़ चुकी अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला देगा इसका जबाब भी शायद ही कोई समझदार नागरिक हाँ में देना पसंद करेगा क्योंकि सफ़ेद झूठ बोलने की और मूर्ख बनाने की कला हर कोई नहीं जानता. ऋषि मुनियों और तपस्वियों के इस महान देश में अगर पीपीई बनना वाकई कोई उपलब्धि की बात है और 6 साल से इसका न बनना कोई अनुपलब्धि नहीं थी तो आइये चूकें नहीं , गर्व करें इस बात पर भी कि हम हथियारों के सबसे बड़े खरीददार हैं पर उन्हें नहीं बना सकते सो कुछ और न सही पीपीई सही, इससे सरकार की लाज (निर्लज्जता नहीं) तो ढकी रहेगी.