एक तरफ जहां प्रशासन व सरकार के खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए हैं वहीं छात्र भी अपनी आवाज मुखर करने से पीछे नहीं हैं. जामिया, एएमयू और जेएनयू समेत देश के तमाम शैक्षणिक संस्थानों के छात्र बगावत कर रहे हैं, लाठी खा रहे हैं, लड़मर रहे हैं लेकिन फिर भी वे सरकार से दबने को तैयार नहीं.
तुम न दोगे आजादी हम लड़ कर लेंगे आजादी
है हक हमारी आजादी है जान से प्यारी आजादी
पूंजीवाद से आजादीसामंतवाद से आजादी
आजादी, आजादी, आजादी…
छात्रों द्वारा दिया यह आजादी का नारा आज देश के विभिन्न हिस्सों में गूंज रहा है. 2016 में जब जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से कन्हैया कुमार का यह नारा उठा था तब उसे देशद्रोही, आतंकवादी, नक्सली क्याक्या नहीं कहा गया. आज एक बार फिर छात्र उसी दौर से गुजर रहे हैं जब सरकार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को देशद्रोह का नाम दे कर दबाने की कोशिश पुरजोर है. यह मोदी सरकार वह सरकार है जो छात्रों को कुचलने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है.
युवा नेता उमर खालिद ने एक ट्वीट में लिखा, ‘‘2005 में जेएनयू में चल रहे एक प्रोटैस्ट के दौरान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को छात्रों ने उन की आर्थिक नीतियों के खिलाफ काले झंडे दिखाए थे. यह एक बड़ी खबर बन गई थी. ऐडमिन ने तुरंत छात्रों को नोटिस भेजा था. अगले ही दिन पीएमओ ने बीच में उतर कर ऐडमिन से छात्रों के खिलाफ किसी भी तरह का ऐक्शन लेने के लिए मना किया था क्योंकि विरोध करना छात्रों का लोकतांत्रिक अधिकार है.’’ वहीं, दूसरी तरफ वर्तमान मोदी सरकार है जिस ने विद्रोह कर रहे छात्रों की बोलती बंद करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी है.
देश की राजनीति में छात्र आंदोलन अत्यधिक महत्त्व रखते हैं. भारत में छात्र आंदोलनों या युवा विरोध प्रदर्शनों का विस्तृत इतिहास रहा है. आजादी से पहले देश की आजादी के लिए युवाओं ने विरोध प्रदर्शनों, आंदोलनों, रैलियों और सत्याग्रहों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया. आजादी के बाद विद्यार्थियों द्वारा स्टूडैंट्स यूनियन का गठन हुआ जिस ने पहलेपहल विद्यार्थियों की आवाज को प्रशासन तक पहुंचाने का काम किया और बाद में देश की सरकारी नीतियों की आलोचना करना शुरू किया. प्रशासन और सरकार को हिला कर रख देने वाले छात्र आंदोलन लोकतंत्र का उदाहरण हैं. लेकिन आज इन्हें दबाने और छात्रों को विरोध करने से रोकने की प्रशासन की कोशिश बढ़ती जा रही है जो लोकतंत्र और देश के संविधान को नकारने से ज्यादा कुछ नहीं.
वर्तमान में नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर जैसे मुद्दों पर छात्र प्रदर्शन कर रहे हैं. नागरिकता संशोधन कानून के मुताबिक भारत सरकार हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई व पारसी शरणार्थियों को तो भारतीय नागरिकता प्रदान करेगी लेकिन मुसलमान शरणार्थियों को नहीं. सिर्फ मुसलमान ही नहीं बल्कि हर धर्म के लोगों ने इस कानून को संविधान के विरुद्ध पाया और यही कारण है कि 12 दिसंबर से ही इस कानून के विरोध में छात्र सड़कों पर उतर आए.
जामिया मिलिया इसलामिया, गुवाहाटी यूनिवर्सिटी, कोटन यूनिवर्सिटी, अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी, मद्रास यूनिवर्सिटी, दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी मुंबई, पंजाब यूनिवर्सिटी व आईआईएम अहमदाबाद समेत कई शैक्षिक संस्थानों के छात्रों ने इस नए कानून के खिलाफ जम कर विरोधप्रदर्शन किया. नतीजतन प्रशासन द्वारा भारत के कई हिस्सों में धारा 144 लगा कर प्रदर्शनों को रोकने की कोशिश की गई. छात्र आंदोलनों से सरकार कितनी भयभीत है, इस का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि सड़कों पर ही नहीं, बल्कि कालेज कैंपस में घुस कर जामिया और अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के छात्रों पर पुलिस ने डंडे बरसाए.
छात्रों पर प्रशासन का पंजा
15 दिसंबर के दिन जामिया के छात्रों पर कैंपस के बाहर पुलिस ने लाठीडंडे बरसाए और कैंपस के अंदर डा. जाकिर हुसैन लाइब्रेरी में घुस कर छात्रों को पीटा. लाइबे्ररी की टूटी खिड़कियों से पुलिस की बर्बरता स्पष्ट दिखाई दे रही थी. पुलिस ने छात्रों पर आंसूगैस भी छोड़ी, साथ ही गोली चलने की आवाज ने छात्रों को अंदर तक झं झोड़ कर रख दिया.
अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र व वर्तमान में जामिया से एलएलएम कर रहे मोहम्मद मिनहाजुद्दीन ने इस विरोध प्रदर्शन के चलते अपनी एक आंख खो दी. अफसोस इस बात का है कि वह इस आंदोलन का हिस्सा तक नहीं था. वह शांति से लाइब्रेरी में बैठा पढ़ रहा था जब पुलिस ने उस पर हमला किया.
मोहम्मद मिनहाजुद्दीन बताता है, ‘‘पुलिस वाले शीशा तोड़ कर अंदर आए थे. इब्न सीना ब्लौक का जो मेन गेट है, वहां पर शीशे वाला गेट है वे उस शीशे को तोड़ कर आए थे, पूरी तैयारी के साथ आए थे कि इन को मारना है. कोई बातचीत नहीं, कोई पूछताछ नहीं, कोई सवालजवाब नहीं, तुम लोग कौन हो, कहां से आए हो, कैसे बैठे हो, कब से बैठे हो, किसी से कुछ नहीं पूछा गया. बस, सीधे मारना शुरू कर दिया. लगभग 7-8 फुट की लाठियां थीं और एकएक बच्चे को 3-3 पुलिस वाले घेर कर मार रहे थे.’’
15 दिसंबर की ही शाम पुलिस अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी कैंपस में भी जामिया की ही तरह घुसी और स्टूडैंट यूनियन प्रैसिडैंट समेत कई छात्रों की पिटाई की. इस झड़प में 60 छात्रों को चोटें आईं और वे बुरी तरह घायल हुए. यूनिवर्सिटी छात्रों के अनुसार न केवल पुलिस ने उन्हें आतंकवादी कहा बल्कि उन से जबरदस्ती ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाने के लिए भी कहा.
विरोध प्रदर्शन और पुलिस की छात्रों पर हिंसा का दौर यहीं नहीं रुका. पुलिस अभी तक खुद तो छात्रों को पीट ही रही थी लेकिन दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में जब गुंडों ने घुस कर छात्रों पर हिंसा की तो पुलिस ने उन्हें रोकने के बजाय गेट के बाहर खड़े हो उन की पहरेदारी भी की. 5 जनवरी की शाम 7:30 बजे हथियारबंद नकाबपोशों ने जेएनयू कैंपस में घुस कर स्टूडैंट यूनियन प्रैसिडैंट आइशी घोष व अन्य छात्रों समेत प्रोफैसरों से भी मारपीट की. पुलिस कैंपस के बाहर थी और 9.30 बजे वह कैंपस में घुसी. इस दौरान छात्रों पर गुंडों का यह हमला चलता रहा. लगभग 23 लोग बुरी तरह घायल हुए व उन्हें एम्स में भरती कराया गया.
जेएनयू स्टूडैंट यूनियन प्रैसिडैंट आइशी घोष के अनुसार, ‘‘घंटों बीत जाने के बाद भी जेएनयू ऐडमिनिस्ट्रेशन में किसी ने आ कर हम से हमारा हाल नहीं पूछा. उन्होंने नहीं पूछा कि हमें किसी तरह की सहायता चाहिए या नहीं. हमारी सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए. छात्र डरे हुए हैं. लेकिन, एक बात साफ है कि हम एक रहेंगे. हमारी लड़ाई एडमिनिस्ट्रेशन के खिलाफ है. हम पर कैंपस में हुई हिंसा के लिए एडमिनिस्ट्रेशन जिम्मेदार है.’’ इस हमले के पीछे भाजपा के छात्र संगठन एबीवीपी का नाम भी सामने आया है लेकिन अब तक उस के खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं की गई बल्कि आइशी घोष पर ही विरोध करने के कारण एफआईआर दर्ज करा दी गई.
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जेएनयू, जिसे वामपंथी विचारधारा के छात्रों के कारण देशद्रोही यूनिवर्सिटी तक कहा जाता है, के स्टूडैंट्स जेएनयू की बढ़ी फीस पर वाइस चांसलर जगदेश एम कुमार व प्रशासन के खिलाफ हफ्तों से विरोधप्रदर्शन कर रहे थे न कि इस नए कानून पर. लेकिन, जेएनयू पर हुए हमले से यह साफ हो गया कि सरकार की मंशा जेएनयू को हमेशा के लिए बंद करने की है जिस से सरकार की आंख का सब से बड़ा कांटा यानी जेएनयू को हमेशा के लिए हटाया जा सके.
जनआंदोलन का बड़ा हिस्सा छात्र
विश्वविद्यालयों से बाहर दिल्ली के शाहीन बाग, मुंबई, असम, त्रिपुरा आदि राज्यों के विभिन्न क्षेत्रों में नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर, राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के खिलाफ हो रहे जनआंदोलनों में छात्र बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं. शाहीन बाग में छात्रों ने ‘रीड टू रिवोल्यूशन’ का एक कोना बनाया है जहां आने वाले हर व्यक्ति को वे किताब देते हैं बैठ कर पढ़ने के लिए, पोस्टर आदि बनाते हैं व लोगों को मदद देने के लिए प्रोत्साहित भी करते हैं.
जिस देश का हर मीडिया हाउस लगातार सरकारी गुलाम बनता जा रहा हो वहां सोशल मीडिया के जरिए ये छात्र सचाई उजागर करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं. आज इंस्टाग्राम, व्हाट्सऐप और फेसबुक जैसे प्लेटफौर्म्स छात्रों के लिए वादविवाद का केंद्र बने हुए हैं. वे छात्र जो विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा हैं अपनी बुलंद आवाज को, अपने विचारों को सोशल मीडिया के जरिए जनजन तक पहुंचा रहे हैं. वहीं इस कानून के समर्थक या कहें मोदीभक्त उन के हौसले को कम करने की पूरी कोशिश में लगे हैं.
एकतरफ जहां मोदीभक्त तर्कहीन वाद की कोशिश में लगे रहते हैं वहीं पढ़ेलिखे छात्रों द्वारा तर्कों के साथ विवरण दिया जाता है. एक छात्र पोस्ट करता है, ‘नरेंद्र मोदी के सपोर्टर्स का कहना है कि लैफ्ट ने एबीवीपी को मारा. हिंदू रक्षा दल के पिंकी चौधरी जेएनयू हिंसा की जिम्मेदारी लेते हैं. तो क्या इस का मतलब यह हुआ कि एबीवीपी को हिंदू रक्षा दल के लोगों ने लेफ्ट विंग के साथ मिल कर मारा है? प्रिय नरेंद्र मोदी, अपने सपोर्टर्स के लिए लौजिक की कुछ क्लासेस लगवा लीजिए, और हां, अमित शाह के साथ खुद भी वह क्लास अटैंड कर लीजिएगा.’
इस में दोराय नहीं कि क्यों जगहजगह सरकार इंटरनैट बंद करने में लगी हुई है? सरकार छात्र विद्रोह को सड़कों से तो साफ करना ही चाहती है, साथ ही, सोशल मीडिया पर भी उन्हें कुछ बोलने नहीं देना चाहती, जैसे उस ने कश्मीर का इंटरनैट बंद कर दिया था. अच्छा है, सरकार छात्रों से डर तो रही है, उसे डरना भी चाहिए.