धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के आरोप में आईएएस जैसे पदाधिकारी भी आएदिन अखबारों की सुर्खियां बनते हैं. पर हर आईएएस अफसर ऐसा नहीं होता है. कुछ ऐसे भी आईएएस अफसर होते हैं जो न सिर्फ पद की प्रतिष्ठा बनाए रखते हैं, बल्कि ईमानदारी का भी उदाहरण पेश करते हैं.

आज ऐसी स्थिति देखसुन कर कि अनेक आईएएस अधिकारी भ्रष्टाचार के आरोप में निलंबित हो रहे हैं, मैं ने दांतों तले उंगली दबा ली. मु झे आश्चर्य होता है कि ऐसी बुद्धि के मालिक कि उन का चयन आईएएस जैसे मुश्किल व सम्माननीय पद के लिए हो जाता है, तो फिर उन की प्रतिभा को काठ क्यों मार जाता है. वे न केवल गलत कदम उठाने की सोचते हैं, बल्कि बढ़ा भी डालते हैं. इस वजह से मात्र उन की प्रतिष्ठा ही मटियामेट नहीं होती, बल्कि नौकरी से हाथ धोने की नौबत तक आ जाती है.

आईएएस अधिकारियों की ऐसी गलत सोच देखसुन कर मु झे अचानक 1968 के बैच के आईएएस डा. गिरीश चंद्र श्रीवास्तव और उन के कुछ बाद ही आईएएस बनीं उन की धर्मपत्नी रोली श्रीवास्तव का सम्मान के साथ स्मरण हो आया.

रोली अपने पति से कुछ जूनियर रहीं. जब से गिरीश चंद्र और रोली ने अपनाअपना पदभार संभाला, बहुत ही ईमानदारी व कर्तव्यनिष्ठा से सरकार की सेवा करते रहे. इस से पहले कि उन के बारे में कुछ विशेष लिखूं, संक्षिप्त में उन का परिचय देना जरूरी है.

गिरीश का जन्म उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में 1942 में हुआ था. संयोग से उस समय बस्ती के जिलाधिकारी कोई गिरीश चंद्र थे. उन की मां ने उन्हीं के नाम पर अपने बेटे का नाम गिरीश चंद्र रख दिया, यह सोच कर कि मेरा बेटा भी एक दिन आईएएस बनेगा, जो भविष्य में सत्य हो कर सामने आया भी. गिरीश बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के रहे. हाईस्कूल से ही एमएससी टौपर और स्कौलरशिप होल्डर रहे. 18 वर्ष की आयु में उन्होंने एमएससी जियोफिजिक्स बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से किया था. आईएएस में बैठने की अभी आयु न होने के कारण वे जियोलौजिकल सर्वे औफ इंडिया में 4 वर्ष फर्स्टक्लास गजटेड औफिसर के पद पर कार्यरत रहे. 22 वर्ष की आयु होने पर वे यूपीएससी एग्जाम में अपने पहले ही प्रयास में सफल हो गए.

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कुछ समय बाद ही वे रोली श्रीवास्तव, आईएएस, के साथ परिणयसूत्र में बंधे. दोनों पतिपत्नी की नियुक्ति अधिकतर अलगअलग स्थानों पर ही होती रही. जैसे, जब गिरीश की नियुक्ति मिजोरम में हुई तब रोली शिलौंग में रहीं. गिरीश स्थानांतरित हो कर दिल्ली आए, तो रोली को नागपुर जाना पड़ा. लगभग पूरी सर्विस में अलगअलग स्थानों पर रहते हुए दोनों पतिपत्नी अपनेअपने विभागों का कार्य अत्यंत सत्यनिष्ठा से संभालते रहे.

हां, एक स्थान पर उन को साथ रहने का सुअवसर जरूर प्राप्त हुआ. वह था गोवा. गोवा में गिरीश चंद्र चीफ सैक्रेटरी औफ गोवा के सम्माननीय पद पर नियुक्त किए गए. रोली ने भी वहां पर चीफ कमिश्नर औफ इनकमटैक्स के पद का भार संभाला. वहां पर पतिपत्नी अपनेअपने विभाग का कार्य अत्यंत सत्यनिष्ठा और ईमानदारी का परिचय देते हुए करते रहे. हर व्यक्ति जो उन के संपर्क में आता, उन की प्रशंसा किए बिना नहीं रहता. उन को किसी प्रकार का प्रलोभन दे कर विचलित करने का साहस कोई नहीं कर सकता था. लगभग 3 वर्ष वे दोनों गोवा में रहे.

घटना उस समय की है जब गिरीश दिल्ली में थे. गिरीश की मां हमेशा उन्हीं के साथ रहती थीं. अचानक वे गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गईं. उन्हें अस्पताल में भरती कराना पड़ा. अकेले रहने के कारण गिरीश को मां को अस्पताल में देखने और औफिस का भी काम करने में कुछ दिक्कत आ रही थी. यहां यह बताना जरूरी है कि उन दिनों गिरीश को औफिस के अन्य कार्यों के साथ इंजीनियरों की भरती करने का भी काम देखना पड़ता था.

सो, उन के अंडर कार्य करते दोएक इंजीनियरों ने उन से अनुरोध किया कि ‘सर, आप निश्चिंत हो कर औफिस का कार्य करें, हम लोग अस्पताल में मांजी की देखभाल कर लेंगे.’

लेकिन गिरीश ने स्पष्ट मना करते हुए कहा, ‘नहीं, मां की देखभाल का इतना बड़ा एहसान मैं किसी का नहीं ले सकता. मैं ने अपने भाइयों को बुला लिया है. वे लोग यथासंभव शीघ्र आ जाएंगे, आप लोगों को परेशान होने की जरूरत नहीं है.’

गिरीश ने बाद में बताया, ‘‘मां की सेवा का इतना बड़ा ऋण मैं कैसे ले सकता था. आज वे हमें अपना ऋणी बना कर कल कहते कि फलां इंजीनियर की नियुक्ति कर दीजिए तो मेरा ऋणी मन क्या जवाब देता? मां की सेवा के प्रतिदान में मैं गलत काम करने के लिए विवश हो जाता, जो मु झे कतई स्वीकार नहीं होता.’’ इतनी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की भावना से परिपूर्ण रहे गिरीश.

एक अन्य छोटी सी घटना में भी उन का बड़प्पन  झांकता नजर आता है. एक औफिस में वे मुआयना करने के लिए गए थे. भीषण गरमी थी. उन्होंने पीने के लिए पानी मंगाया. तुरंत ही ट्रे में कोल्डड्रिंक और शिकंजी ले कर लोग सामने आ गए. गिरीश ने देखा तो नाराज होते हुए कहा, ‘यह क्या? मैं ने पानी मांगा था, जितना कहा जाए, बस, उतना ही किया करिए.’ अधिकारीगण  झेंप से गए, फिर केवल पानी ही ले कर सामने आने का साहस कर सके.

रोली भी अपने पति के नक्शेकदम पर चलती रहीं. किसी की मजाल भी नहीं थी कि किसी गलत काम के लिए कोई उन से कहने की हिम्मत कर सके. बहरहाल, इसी तरह समय सरकता रहा.

सरकते समय के साथ 2004 का आगमन हुआ और डा. गिरीश चंद्र श्रीवास्तव ने नौकरी से अवकाश ग्रहण कर लिया. अपने पति से कुछ जूनियर रहीं रोली की अभी 4 वर्ष नौकरी शेष थी. सो, उन्होंने कोशिश कर के शेष समय अपने होम डिस्ट्रिक्ट इलाहाबाद के लिए नियुक्ति ले ली. ऐडमिनिस्ट्रेशन सर्विस में यह छूट देने का नियम है कि अवकाश ग्रहण करने से 3-4 वर्ष शेष रहने पर यदि चाहें तो होम डिस्ट्रिक्ट मिल सकता है.

रोली की इलाहाबाद नियुक्ति मिलना गिरीश को भी अच्छा प्रतीत हुआ. वे अभी दिल्ली में ही थे. जौब जौइन करने के लिए रोली इलाहाबाद आ गईं, अपनी मां के पास.

गिरीश अपना वांछनीय सामान समेट कर प्रयागराज ट्रेन से इलाहाबाद के लिए निकल पड़े. उन्होंने अपने पहुंचने की सूचना भी भेज दी. यात्रा के दौरान रात्रि में फोन पर रोली की मां ने बात कर के बताया कि रोली को बुखार आ गया है, लेकिन चिंता की बात नहीं है, डाक्टर को बुला कर दिखा दिया है.

लेकिन अनहोनी उन के सुखद दिनों को लील लेने के लिए करीब ही खड़ी थी. सुबह 4 बजे रोली ने उठ कर पानी पिया और अपनी मां से मंद आवाज में बोलीं, ‘‘मां, सुबह जीसी आ रहे हैं, उन का ध्यान रखना.’’ वे गिरीश को जीसी ही कह कर संबोधित करती थीं.

बेटी की बात सुन कर मां ने कहा, ‘‘तुम को चिंता करने की जरूरत नहीं है, तुम आराम करो.’’

रोली को जैसे अपने अनंतपथ पर जाने का पूर्वाभास हो गया था, अत्यंत क्षीण आवाज में बोलीं, ‘‘मां, मु झे भय लग रहा है कि कहीं ट्रेन लेट न हो.’’

मां ने हलकी  िझड़की लगाई, ‘‘बिना मतलब मन में शंका करने की जरूरत नहीं है, आराम से सो जाओ.’’

मां की डांट से रोली दूसरी तरफ करवट बदल कर सो गईं, कभी न उठने के लिए.

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घर पहुंच कर गिरीश को गहरा आघात लगा, जैसे क्षणभर में सबकुछ खत्म हो गया हो, आंखों से खून टपक पड़ा. जीवनसाथी का साथ पलभर में छूट गया था, साथ रहने का सुनहरा महल ढह गया था. कुदरत की इस निष्ठुरता पर वे हाथ मल कर रह गए, किसी से कुछ कहतेसुनते नहीं बना.

आजकल गिरीश चंद्र श्रीवास्तव दिल्ली में ही अपनी बेटी पुण्य सलीला के साथ रहते हैं. वे भी आईएएस हैं और गृह मंत्रालय में कार्यरत हैं. कुछ समय तो गिरीश आईएएस और पीसीएस परीक्षाओं में उत्तीर्ण उम्मीदवारों का साक्षात्कार भी लेते रहे, लेकिन अब नहीं लेते.

देख कर व सम झ कर अफसोस होता है कि ऐसे ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी अब देखने व सुनने को कम मिलते हैं.

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