बात हंसी ठिठोली के अंदाज में शुरू हुई थी जो वाकई अब गंभीर संकट की शक्ल लेती जा रही है, इस बार अभी तक तो न शिवसेना झुकने के मूड में दिख रही और न ही भाजपा जिससे यह रहस्य रोमांच गहराता जा रहा है कि महाराष्ट्र में आखिरकार सरकार कौन बनाएगा और कैसे बनाएगा क्योंकि किसी एक दल के पास 145 का आंकड़ा नहीं है. 24 अक्टूबर को जब विधानसभा चुनाव के नतीजे आए थे तब ऐसा लग रहा था कि थोड़ी सी नोकझोंक और कलह के बाद भाजपा शिवसेना गठबंधन सरकार बना ले जाएगा लेकिन एक हफ्ते से भी ज्यादा का वक्त गुजरने के बाद भी कोई फैसला होता नहीं दिखाई दे रहा तो देश भर में उत्सुकता का माहौल है कि अब क्या होगा.
24 अक्टूबर के नतीजों में 288 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में भाजपा को सबसे ज्यादा 105 शिवसेना को 56 एनसीपी को 54 और कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं. 29 सीटें निर्दलीय और दूसरे छोटे दलों के खाते में गईं थीं. बहुमत हालांकि गठबंधन को मिला था लेकिन पेंच तब फंसा जब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने भाजपा को यह वादा याद दिलाया कि सौदा 50-50 का हुआ था और भाजपा को इसे पूरा करना चाहिए.
दीवाली तक तो भाजपा यही समझती और मानती रही कि उद्धव हमेशा की तरह धौंस दे रहे हैं और कोई दूसरा रास्ता निकलते न देख कुछ शर्तों पर सरकार बनाने राजी हो जाएंगे पर उद्धव ने कड़ा रुख दिखाया तो भाजपा भी झल्ला उठी कि किस किस की सुने और कहां कैसे सरकार बनाए. गौरतलब है कि हरियाणा में भी उसे महज 40 सीटों से तसल्ली कर नई नवेली जननायक जनता पार्टी से हाथ मिलना पड़ा था जो पहली बार में ही 10 सीटें ले गई थी . हरियाणा की गुत्थी तो जेजेपी के दुष्यंत चौटाला को उप मुख्यमंत्री पद देने से सुलझ गई लेकिन महाराष्ट्र का पेंच इस बार कुछ ऐसा फंसा कि किसी भी तरीके से नहीं सुलझ रहा.
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पवार का रोल अहम
अब जब भाजपा भी अपनी जिद पर अड़ गई है कि उद्धव ठाकरे की धौंस धपट में नहीं आएगी तो एनसीपी मुखिया शरद पवार का रोल अहम हो चला है. जो आदतन खामोश हैं और अपने पत्ते नहीं खोल रहे. 50-50 फार्मूले के तहत शिवसेना ढाई साल के लिए अपना मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल में भी आधी हिस्सेदारी मांग रही है. वह भाजपा को अपना वादा याद दिलाने राम की भी दुहाई दे रही है लेकिन भाजपा कह रही है कि उसने ऐसा कोई वादा नहीं किया था तो यह तय कर पाना भी मुश्किल हो रहा है कि असल में बेवफा कौन है.
दोनों खेमों से तरह तरह के आरोप प्रत्यारोप लग रहे हैं जिससे संकट और गहराता जा रहा है. लाख दावों के बाद भी भाजपा 145 तक नहीं पहुंचती दिखाई दे रही तो शिवसेना का तो उसके आसपास फटकना ही नामुमकिन है. अब सभी की निगाहें शरद पवार पर जा टिकी हैं कि वे क्या करेंगे. खामोशी से कलह का आनंद उठाते रहेंगे या 8 नवंबर के ठीक पहले लोकतन्त्र की दुहाई देते किसी एक खेमे को अंदर या बाहर से समर्थन देने की घोषणा कर असल हीरो बनकर उभरेंगे.
हालांकि हीरो तो वे तभी बन गए थे जब एनसीपी ने 54 का आंकड़ा छुआ था और सतारा लोकसभा का प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव जीतते भाजपा के राष्ट्रवाद, हिन्दुत्व, मंदिर निर्माण और कश्मीर से धारा 370 हटाने जैसे जज्बाती मुद्दों की हवा निकालकर रख दी थी. उनकी बदौलत कांग्रेस को भी उम्मीद से ज्यादा सीटें मिल गईं जो हाल फिलहाल महाराष्ट्र संकट पर भाजपा और शिवसेना की तरह ही उनका मुंह ताक रही है कि क्या करना है .
विकल्प कई हैं लेकिन सभी दल दूर की भी देख रहे हैं कि ये कितने टिकाऊ होंगे और कौन किसका कितना साथ दे पाएगा. सबसे आसान रास्ता तो यह है कि शरद पवार भाजपा का साथ बाहर से ही सही दे दें. जिससे सारा संकट एक झटके में दूर हो जाए लेकिन सैद्धान्तिक रूप से यह उनके लिए संभव नहीं क्योंकि यह वही भाजपा है जो चुनाव से पहले उन्हें घोटालेबाज बताकर गिरफ्तार करने तक मन बना चुकी थी और दूसरे वे अगर भाजपा का साथ किसी भी तरीके से देते हैं तो उनकी इमेज और साख पर एक स्थायी बट्टा लग जाएगा कि उन्होंने गिरफ्तारी से बचने उसूलों को ताक पर रख दिया.
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दूसरा रास्ता थोड़ा कठिन है कि शरद पवार शिवसेना को समर्थन दे दें जिसमे सैद्धान्तिक अड़चने अपेक्षाकृत कम हैं क्योंकि उद्धव ठाकरे साफ्ट कार्नर न केवल उनके प्रति बल्कि कांग्रेस के लिए भी दिखाते रहे हैं. उन्होंने कई बार सोनिया और राहुल गांधी की भी तारीफ कर भाजपा को खूब चिढ़ाया है. अगर शरद पवार कहेंगे तो सोनिया गांधी भी शिवसेना को समर्थन देने से हिचकिचाएंगी नहीं क्योंकि उनका मकसद भी भाजपा को कमजोर करना है.
ऐसा होना नामुमकिन नहीं है और यह बात भाजपा भी समझ रही है. लेकिन वह जिद्दी उद्धव ठाकरे के टूटने का इंतजार कर रही है और यही उद्धव भी कर रहे हैं कि भाजपा इस समीकरण से घबराकर उनकी बात मान ले.
एक तीसरा रास्ता जो हाल फिलहाल असंभव सा लगता है. वह, यह है कि कोई रास्ता न निकलते देख खुद उद्धव एनसीपी को मुख्यमंत्री पद की कुर्सी की पेशकश कर भाजपा को वाकई वादा खिलाफी का सबक सिखा दें जिससे सनद रहे. इसमें एकलौती अड़चन मंदिर मुद्दे पर मतभेद की है तो उद्धव कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला सभी को मान्य होगा इसलिए इस पर अब राजनीति के कोई माने नहीं रह गए हैं.
कोई चौथा पांचवा रास्ता किसी को नजर भी नहीं आ रहा सिवाय इसके कि भाजपा शिवसेना में से कोई एक झुकते कांग्रेस और शरद पवार को और मजबूत होने से रोके ये दोनों ही दल अब अपने विधायकों को लेकर भी आशंकित हो चले हैं कि कहीं कुर्सी के लालच में वे थोक में दूसरे पाले में न चले जाएं. अब देखना दिलचस्प होगा कि किसकी सब्र पहले टूटती है, अंदाजा भाजपा की सब्र टूटने का ज्यादा है क्योंकि सबसे बड़ा दल होने के बाद भी वह सरकार नहीं बना पाई तो उसे भविष्य में सौदेबाजी में हर जगह नुकसान उठाना पड़ेगा.