संध्या हर साल दीवाली का त्योहार अपने परिवार के साथ ही मनाती थी. वही शाम को पूजा-अर्चना, फिर घर-बाहर की दीया-बत्ती, पटाखे, खाना-पीना, पड़ोसियों-दोस्तों में मिठाईयों का आदान-प्रदान और बस लो मन गयी दीवाली. एक बारं संध्या कम्पनी के काम से लालपुर गयी थी. जिस औफिस में उसको काम था, उसके बगल वाली बिल्डिंग के लौन में उसने बहुत सारे नन्हें-नन्हें बच्चों को खेलते देखा था. पहले तो उसको लगा कि कोई छोटा-मोटा स्कूल है, मगर वहां लगे एक धुंधले से बोर्ड पर जब उसकी नजर पड़ी तो पता चला कि वह एक अनाथाश्रम है. लंच टाइम में फ्री होने पर संध्या उस अनाथाश्रम को देखने की इच्छा से भीतर चली गयी. दरअसल बच्चों के प्रति उसका खिचांव ही उसे वहां ले गया. बरसों से उसकी कोख सूनी थी. शादी के दस साल तक एक बच्चे की चाह में उसने शहर के हर डौक्टर, हर क्लीनिक के चक्कर लगा डाले थे, हर तरह की पूजा-पाठ कर ली थी, मगर उसकी मुराद पूरी नहीं हुई. धीरे-धीरे उसने अपना मन काम में लगा दिया और उसकी मां बनने की इच्छा कहीं भीतर दफन हो गयी. मगर उस दिन उन छोटे-छोटे बच्चों को लॉन में खेलता देख उसकी कामना फिर जाग उठी.
अनाथाश्रम में जीरो से सात सात तक के कोई पच्चीस बच्चे थे. बिन मां-बाप के बच्चे. जिन्हें पता ही नहीं कि परिवार क्या होता है. मां-बाप का प्यार क्या होता है. वे तो यहां बस आयाओं के रहमो-करम पर पल रहे थे. उनके इशारे पर उठते-बैठते, सोते-जागते और खेलते-खाते थे. संध्या ने देखा कि कुछ बच्चे यहां-वहां पड़े रो रहे थे, मगर उनको उठा कर छाती से चिपकाने वाला कोई नहीं था. आयाएं अपनी बातों में मशगूल थीं. संध्या ने अनाथाश्रम चलाने वाले के बारे में पूछा तो पता चला कि वह शनिवार को आते हैं और दोपहर तक रहते हैं. बाकी दिनों में अनाथाश्रम का सारा जिम्मा वहां काम करने वाली चार आयाएं ही उठाती थीं.
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उस दिन के बाद से संध्या अक्सर ही उस अनाथाश्रम में जाने लगी थी. वह जगह उसके घर से ज्यादा दूर नहीं थी. एक शनिवार जाकर वह अनाथाश्रम के मालिक से भी मिल आयी थी और उन्होंने संध्या के वहां आने और बच्चों के साथ वक्त गुजारने पर कोई आपत्ति भी नहीं जाहिर की थी. दरअसल संध्या एक बड़ी कम्पनी में अच्छी पोस्ट पर काम कर रही थी. जिसका हवाला देने पर अनाथाश्रम के मालिक पर काफी प्रभाव पड़ा था. जब संध्या ने उनसे कहा कि वह बच्चों की जरूरत की चीजें डोनेट करना चाहती है, तो यह सुनकर वह खुश हो गये थे. संध्या जल्दी ही उन नन्हें-नन्हें बच्चों के साथ घुलमिल गयी थी. संडे की शाम तो वह उन बच्चों के लिए ही खाली रखने लगी थी और बच्चे भी उसके आने का इंतजार करते थे क्योंकि वह जब भी आती थी उनके लिए चॉकलेट्स, बिस्कुट, फल और चिप्स आदि के ढेर सारे पैकेट्स लेकर आती थी.
दीवाली आने वाली थी. संध्या ने अबकी दीवाली अलग तरह से मनाने का फैसला किया था. अपनी योजना से उसने जब अपने पति और परिवार के दूसरे सदस्यों को अवगत कराया तो वह भी खुशी-खुशी उसके फैसले में शामिल हो गये. योजना था कि इस बार की दीवाली सपरिवार अनाथाश्रम के बच्चों के साथ मनाएंगे. संध्या की ननद तो उनकी योजना के बारे में सुनकर खुशी से नाच उठी. हर साल एक जैसी दीवाली मनाने से यह योजना बहुत हट कर थी. दीवाली के दो दिन पहले ही संध्या और उसकी ननद बाजार से ढेर सारे पटाखे, दीये, मिठाइयां, चौकलेट्स, फल आदि खरीद लाये थे. दीवाली के साथ-साथ जाड़ा भी दस्तक दे देता है, इसको देखते हुए संध्या ने छोटी-छोटी पच्चीस दुलाइयां भी खरीद ली थीं. वहां की आयाओं के लिए साड़ियां और मिठाइयां अलग से पैक करवा ली थीं. घर के दूसरे सदस्यों ने भी संध्या की योजना में खूब हाथ बंटाया. दीवाली वाले दिन जब संध्या की सास ने उसके सामने एक बड़ा सा बैग खोला तो उसमें चार-पांच कम्बल, नन्हें-नन्हें मोजे, टोपे, स्वेटर्स, तौलिये, पाउडर के डिब्बे, सोप वगैरह देखकर तो संध्या खुशी के मारे अपनी सास के गले लग गयी. इन सब चीजों की तो उन बच्चों को बहुत जरूरत थी. पता नहीं मां और बाबू जी कब चुपके-चुपके जाकर इतनी सारी खरीदारी कर आये थे. संध्या के पति ने भी कमाल कर दिया. शौपिंग से हमेशा दूर रहने वाले पतिदेव टोकरी भर के खिलौने खरीद लाए थे.
दीवाली वाले दिन शाम को तीन बजे संध्या का पूरा परिवार सारे सामान के साथ अनाथाश्रम की ओर रवाना हो गया. अनाथाश्रम के गेट पर जैसे ही संध्या की गाड़ी रुकी, अन्दर शोर सा मच गया – संध्या दीदी आ गयीं, संध्या दीदी आ गयीं चिल्लाते एक आया भागती हुई गेट पर पहुंच गयी. उसके पीछे कई बच्चे भी भागते आये. सारे आकर संध्या से लिपट गये. संध्या के सास-ससुर, पति और ननद यह नजारा देखकर भावुक हो उठे. संध्या ने सबका परिचय वहां के लोगों से करवाया. उस दिन अनाथाश्रम के मालिक भी अपने परिवार के साथ वहां उपस्थित थे. सबने मिलकर पूरे अनाथाश्रम में दीये और मोमबत्तियां लगायीं. बच्चे तो इतने सारे लोगों को अपने बीच देख कर बेहद उत्साहित थे. संध्या ने सारे बच्चों को इकट्ठा करके एक मजेदार कहानी भी सुनायी. फिर कई तरह के खेल खेले गये. बच्चों को जब उनके मनपसंद तोहफे मिले तो वह खुशी से झूम उठे. किसी को गुड़िया, किसी को बत्तख, किसी को बंदर तो किसी को हाथी. बच्चे एक दूसरे को अपने खिलौने दिखाते घूम रहे थे. आज पूरा अनाथाश्रम खुशी के अलग ही रंग में रंगा हुआ था. बच्चे संध्या को छोड़ते ही न थे. कोई उसकी गोद में बैठा चौकलेट खा रहा था तो कोई उसकी पीठ पर झूल रहा था. संध्या की ननद भी जब से आयी थी उनके साथ खेलने में मशगूल थी. शाम को सबने एक साथ मिलकर दीवाली की पूजा की. फिर पटाखों का डिब्बा निकाला गया और बाहर के लौन में खूब जम कर पटाखे छुड़ाए गये. खूब रोशनी की गयी. बड़े बच्चों के हाथों में फुलझड़ियां भी दी गयीं. बच्चों को मिठाइयां, फल और चौकलेट्स बांटे गये. सच पूछो तो अबकी दीवाली संध्या के परिवार के लिए ही नहीं, बल्कि अनाथाश्रम के बच्चों, आयाओं और उसके मालिक के लिए भी बिल्कुल नयी और अनोखी थी.
रात को सबने इकट्ठा होकर खाना बनवाने में मदद की और खाने के बाद जब संध्या ने बच्चों के लिए लाए जरूरी सामान का बैग खोला तो अनाथाश्रम के मालिक भावुक होकर बोल पड़े – बहनजी, अगर शहर के कुछ अन्य लोग भी आपकी तरह का दिल रखते तो यह बच्चे अनाथ न कहलाते. हम अपनी हैसियत भर जो हो सकता है, इन बच्चों के लिए करते हैं मगर वह कम ही पड़ता है. जिस तरह आप इन बच्चों से जुड़ी हैं, इनको अपनापन दिया है, इनकी जरूरतों को समझा है, ऐसा कोई कोई ही समझता है. अपना त्योहार हमारे इन बच्चों के साथ मनाना बहुत बड़ी बात है और आप इनके लिए जो तोहफे और जरूरत का सामान लायी हैं वह हमारे लिए बहुत बड़ी मदद है.
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तब से संध्या हर साल दीवाली और होली इन्हीं नन्हें-मुन्नों के साथ मनाती है और इसमें हर साल उसके परिवार वाले भी शामिल होते हैं. क्या आपका दिल नहीं चाहता रुटीन से हट कर कुछ करने का? किसी के चेहरे पर मुस्कान बिखेरने का? सच्ची और असली खुशी पाने का? अगर करता है तो अपने खींचे हुए दायरों से बाहर निकलें. घर से बाहर निकलें. अपने आसपास नजर डालें. कितने वृद्धाश्रम हैं जहां मौत की कगार पर बैठे बूढ़ों की बुझती आंखों में आप अबकी त्यौहार में खुशियों की चमक पैदा कर सकते हैं. कितने अनाथाश्रम हैं जहां बच्चों को एक पैकेट फुलझड़ी की देकर आप उनकी खुशियों को आसमान पर पहुंचा सकते हैं. अगर यह न कर सकें तो देखें अपनी कॉलोनी के गार्ड को, अपनी मेड को, अपने रिक्शेवाले को, अपने ड्राइवर को… क्या इस दीवाली उनके बच्चों के लिए छोटा सा उपहार देकर आप उनके परिवार में थोड़ी सी खुशी भेज सकते हैं… अगर हां, तो इतना ही कर दीजिए… मगर इस दीवाली कुछ हट कर जरूर करिये…