मन में हौसला हो और कुछ कर दिखाने का जज्बा तो कुछ भी नामुमकिन नहीं. अलबत्ता यह जज्बा और जोश पोगापंथियों को ठोकर मार खुद को नई पहचान देने की हो तो बात ही क्या.
कहते हैं, भारत जैसे देश में जहां अधिकांश लोग अब भी धर्म, पूजापाठ, अंधविश्वास के आगे हथियार डाल कर अपना भविष्य बेकार कर लेते हैं, वहीं महाराष्ट्र की रहने वाली प्रांजल पाटिल ने आंखों की रोशनी जाने के बाद न तो हिम्मत हारी और न ही किसी की दया का पात्र बन कर जीवन काटने जैसा रास्ता अपनाया. उन्होंने पढाई से दोस्ती कर ली, किताबों से बातें करना सीख लिया.
मेहनत ने दिलाई सफलता
कुछ लोगों ने इसका मजाक भी उङाया होगा, किसी ने संवेदनाएं जताई होंगी पर होना तो वही था, जिसे प्रांजल मन ही मन में ठान चुकी थी.
प्रांजल ने अपने पहले ही प्रयास में यूपीएससी की सिविल सेवा परीक्षा में 773वां रैंक हासिल कर दूसरों के लिए मिसाल बन गईं. ऐसा कर वे देश की पहली नेत्रहीन महिला आईएएस बनने का गौरव पाई हैं.
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अचानक चली गई आंखों की रौशनी
महाराष्ट्र के उल्लासनगर की रहने वाली प्रांजल बचपन से ही काफी मेधावी थीं. दिक्कत यह था कि प्रांजल की आंखों की रोशनी कमजोर थी. मातापिता ने कई अस्पतालों के चक्कर लगाए पर 6 साल होतेहोते उस की आंखों की रोशनी पूरी तरह चली गई.
जिंदगी अब पूरी तरह बदल चुकी थी पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपना लक्ष्य निर्धारित कर जम कर मेहनत करने लगीं.
शुरुआती शिक्षा
प्रांजल की शुरुआती शिक्षा मुंबई के श्रीमती कमला मेहता स्कूल से पूरी हुई. इस स्कूल में ब्रेल लिपि में शिक्षा दी जाती है. प्रांजल ने 10वीं की शिक्षा इस स्कूल से लेने के बाद 12वीं की पढ़ाई चंदाबाई से पूरी की और फिर आगे की पढ़ाई सेंट जेवियर कालेज, मुंबई और फिर एमए की पढाई जेएनयू, दिल्ली से पूरी की.
साबित किया खुद को
प्रांजल ने अपनी बेहतरीन क्षमता से यह साबित कर दिया है कि शारीरिक अक्षमता कैरियर बनाने और सपने पूरे करने में बाधक नहीं होते. यही वजह है कि शारीरिक रूप से अक्षम लोग न सिर्फ शिक्षा बल्कि खेलों में भी सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं.
समाज का बङा तबका भी अब अपनी सोच में परिवर्तन ला चुका है और दिव्यांगों को अब पहले से बेहतर माहौल मिलने लगा है.