गुजरात राज्यसभा चुनाव वाकई बड़ा दिलचस्प था, रात 2 बजे के कुछ पहले घोषणा हो पाई कि दिग्गज कांग्रेसी, सोनिया गांधी के राजनैतिक सलाहकार अहमद पटेल आखिरकार आधे वोट से विजयी हो गए. दिन भर अस्सी के दशक के जासूसी उपन्यासों की तर्ज पर न्यूज चेनल्स पर सिर्फ रोमांस नाम के अनिवार्य तत्व को छोडकर रहस्य, रोमांच, कानून, दलीलें और शाकाहारी हिंसा वगेरह सब अनवरत प्रवाहित होता रहा, जिसका लुत्फ भी टीवी से चिपके लोगों ने खूब उठाया और ड्रामा खत्म होने के बाद अंगड़ाई और जम्हाई लेते, इस आत्म आश्वासन यानि बेफिक्री के साथ सो गए कि अभी 26/6/1975 जैसा आपात काल नहीं लगा है.
बात या कथानक बड़ा मामूली राजनीति के लिहाज से था, जिसके तहत भाजपा ने कुछ कांग्रेसी विधायक खरीदते उसी की पार्टी का एक बागी उम्मीदवार खड़ा करते अहमद पटेल को राज्य सभा में पहुचने से रोकने की कोशिश की थी. विधायकों का ईमान और स्वाभिमान कायम रखने की गरज से कांग्रेस अपने 44 विधायकों को बेंगलुरु तरफ एक फाइव स्टार रिसोर्ट में ले गई थी और एन वोटिंग के वक्त लाकर मूछों पर ताव दिया था. अब उनसे बड़ी मूछ तो अमित शाह की है जिन्होने आंखो ही आंखो में 2 कांग्रेसी विधायकों को अपना ईमान बेचने राजी कर लिया. पर ये नौसिखिये एमएलए कथित भुगतान के प्रति आश्वस्त होने मत पत्र अमित शाह को खुले आम दिखा बैठे.
बस गड़बड़ यहीं से शुरू हुई. कुछ कांग्रेसियों को याद आया कि यह कृत्य तो नियम विरुद्ध है और एक वक्त में ऐसे वोट कोर्ट तक रद्द कर चुकी है तो वे सीधे निर्वाचन आयोग जा पहुंचे, जिससे बिके ईमान बाले ये वोट खारिज हो जाएं और अहमद पटेल एक दफा फिर राज्य सभा पहुंच जाएं. ग्रहण के चलते इस बार का रक्षा बंधन बड़ा नीरस सा रहा था, जिससे दुखी टीवी रिपोर्टर्स ने कैमरे गांधीनगर से लेकर दिल्ली तक में फिट कर रखे थे. इस फिटनेस में चुनाव आयोग के इस फैसले ने नई जान फूंक दी कि 2 ईमान रहित विधायकों के वोट गिनती में नहीं लिए जाएंगे. बस फिर शुरू हुआ असल ड्रामा जो खरीद फरोख्त की हदें पार करते लोकतन्त्र नाम की व्यवस्था पर बार बार आया.
दोनों दलों के प्रवक्ताओं और नेताओं के अलावा एंकरनुमा पत्रकारों ने भी अभी तक का संचित ज्ञान स्क्रीन पर उड़ेल दिया. खूब बहसें हुईं, सवाल जवाब हुये, आरोप प्रत्यारोप लगे और सभी एक दूसरे को अपनी गिरहवान में झांकने का सनातनी मशवरा देते रहे. अल्प मात्रा में अशिष्टता भी हुई, जिससे दर्शकों का मनोरंजन ही हुआ. इधर अमित शाह के मतगणना स्थल पर धूनी रमा कर बैठे रहने से कइयों की बाईं आंख फड़कने लगी थी, जिसे अपशगुन का संकेत माना जाता है.
दिल्ली में देर रात अपना सुख और डिनर छोडकर दफ्तर आए चुनाव आयोग के तीन कमिश्नरों ने मतगणना के आदेश दिये, तो भाजपा को अपनी नाक कटती लगी, जिसे कम से कम कटाने उसने मतगणना मे अड़ंगा डाला कि उसकी शिकायत पर भी कारवाई हो, पर तब तक कमिश्नरों के कारिंदे साहबों की फाइलें वगेरह उनकी गाड़ियों में रखते उन्हे जाने हरी झंडी दे चुके थे.
गांधीनगर मे वन डे क्रिकेट मेच सरीखा रोमांच दिखने लगा था. इधर एंकरों ने भी हल्ला मचाना शुरू कर दिया था कि क्या भाजपा के चाणक्य अमित शाह यह बाजी जीत पाएंगे या इस बार पार्टी का असली चेहरा सामने आएगा. यहां तक बात चिंता की नहीं थी, पर मतगणना के आदेश की अवहेलना पर भाजपाई उतारू हो आए तो चेनल्स पर चर्चा यह होने लगी कि क्या अब फैसला सुबह अदालत खुलने पर होगा. तमाम हंसी ठिठोली से परे यह वक्त वाकई भयभीत कर देने वाला था कि अगर भाजपाइयों ने मतगणना नहीं होने दी तो इसका अर्थ और अंजाम क्या होगा. गांधीनगर का रिटर्निंग आफ़ीसर भाजपा के इशारे पर नाच रहा है, यह बात तो वोटिंग के तुरंत बाद सभी को समझ आ गई थी, पर अमित शाह का लगातार बजता डमरू उसे सांस वाली हवा न तो उगलने दे रहा था और न ही ढंग से निगलने दे रहा था.
अब तक इस टीवी नोवल के पन्ने पलटते लोग भी घबराने लगे थे कि यह क्लाइमेक्स तो उम्मीद से परे है. केंद्र के दर्जन भर मंत्री भागा दौड़ी करते जीत का रास्ता तलाश रहे थे और स्क्रीन पर बैठे भाजपा प्रवक्ताओं की टीम इसे अपना हक बता रही थी. कहीं यह हक सुबह होते होते इन्दिरा गांधी के 1975 के हक जैसा न हो जाये, इस बात से डरे लोग बेमन से टीवी का खटका बंद करने ही जा रहे थे कि एंकर्स ने सुखद सूचना यह दी की मतगणना शुरू होने वाली है और जल्द ही नतीजे स्क्रीन पर होंगे, तब तक आप हमारे साथ बने रहिए. इस पर लोगों ने नींद का लोभ और मोह छोडते अमित शाह और स्मृति ईरानी की जीत की खबर के साथ अहमद पटेल की आधे वोट से जीत का एलान भी सुना.
फिर शुरू हुआ कांग्रेसी जश्न और ये दावे कि 2017 के चुनाव में वे भाजपा को इसी तरह गुजरात से पूरी तरह उखाड़ फेंकेगे. अब जो भी हो लेकिन आधा घंटे की मतगणना न होने देने की भाजपाई जिद जो कानून, नियमों और एक संवैधानिक व्यवस्था को ठेंगा बताती हुई थी हल्के में नहीं ली जा सकती और न ही इसे नजरंदाज किया जा सकता. सत्तारूढ़ दल की मनमानी और बेलगाम होने का खामियाजा देश एक बार भुगत चुका है, जिसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मौके बेमौके कर ही देते हैं पर गुजरात राज्यसभा का चुनाव और मतगणना तात्कालिक ही सही किसी इमरजेंसी से कमतर तो नहीं कहे जा सकते.