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३ रौबिंसन स्ट्रीट मानसिक बीमार की इंतहा

भारत के मैट्रोपौलिटन शहर कोलकाता के एक पौश इलाके 3 रौबिंसन स्ट्रीट स्थित एक फ्लैट के बैडरूम में पलंग के पास बैंच पर कंबल से ढका हुआ एक नरकंकाल. कंकाल के सिरहाने तरहतरह के अलगअलग साइज के टैडीबीयर कतार में सजे हुए. पलंग के एक ओर 2 कुत्तों के कंकाल. कमरे में पिज्जा, पास्ता, सूखे फल (मेवा नहीं), केक, पेस्ट्री और चौकलेट समेत ढेर सारी खाने की सड़ीगली चीजों का अंबार. बाथरूम में एक अधजली लाश और इन सब के बीच एक जिंदा इंसान, एकदम स्वाभाविक जीवन जीता हुआ. ऐसा लगा जैसे यह हौलीवुड फिल्म निर्माता अलफ्रेड हिचकौक की किसी फिल्म का सैट है. हिचकौक की फिल्म ‘साइको’ का रीमेक. ‘साइको’ में एक होटल के मालिक नौरमैन के हाथों उस की अपनी मां की हत्या हो जाती है. अपराधबोध के कारण वह अपनी मरी हुई मां को कब्र से निकाल कर ले आता है. 10 साल उस ने अपनी मरी मां के साथ गुजारे. इसी क्रम में मां का व्यक्तित्व कब उस ने ओढ़ लिया, पता ही नहीं चला. फिल्म की कहानी अमेरिका के एक सीरियल किलर एडवर्ड के जीवन पर आधारित थी. वह मां जैसी दिखने वाली अधेड़ उम्र की औरतों की हत्या करता और फिर उन की लाश कब्र से निकाल लाता और उन के चमड़े से स्किन सूट बनाता था. उस का मानना था कि इस तरह से एक दिन उस की मां जी उठेगी.

कोलकाता की रौबिंसन स्ट्रीट में हत्या या आत्महत्या का अभी तक सुराग नहीं मिला है. पुलिस के हवाले से बताया गया कि पार्थो डे की सोच थी कि मरने के बाद भी आत्मा घर पर या इस के आसपास होती है. बुलाने पर आती है और फिर एक दिन जी उठती है. रौबिंसन स्ट्रीट के पते का एकमात्र जिंदा इंसान पार्थो डे, कंकाल में तबदील होती गई अपनी दीदी देबजानी डे के साथ ऐसी हालत में 6 महीने से रह रहा था. कल्पनालोक में विचरण करते हुए वह हर रोज दीदी की आत्मा को बुलाता और उस के साथ खाना खाया करता. मामले का खुलासा 10 जून को तब हुआ जब पार्थो डे के घर के बाथरूम से धुआं निकलता हुआ देख सिक्योरिटी गार्ड और स्थानीय लोगों ने दमकल व पुलिस को खबर दी. पिछले 6 महीने से बतौर सिक्योरिटी गार्ड यहां तैनात तपन राय का कहना है कि कहीं कुछ गड़बड़ी है, इस का अंदाज उसे था, लेकिन क्या, इस का पता नहीं चल पाया. वैसे भी घर पर 2 ही लोग थे, लेकिन खानानाश्ता हमेशा 3 लोगों का आता था. घर के जिस हिस्से में ये लोग रहते थे वहां प्रवेश की इजाजत नहीं थी. उन के फ्लैट के बाहर पहुंचने पर एक जोर का भभका जरूर लगता था. इस बारे में सिक्योरिटी गार्ड को यह सोच कर तसल्ली हो जाती कि चूंकि घर पर कोई औरत नहीं है, इसलिए गंदगी के कारण यह गंध आती है.

10 जून की सुबह मकान के मालिक अरविंद डे ने सिक्योरिटी गार्ड को बुला कर कहा था कि आज से पार्थो जो भी करना चाहे, करने देना. जहां जाना चाहे, जाने देना. इस के बाद शाम को फिर से बुला कर अरविंद डे ने उस से 2 बोतल कोल्डडिं्रक्स लाने को कहा. कोल्डड्रिंक्स ला कर देने के बाद सिक्योरिटी गार्ड ने उन्हें नाश्ते के लिए पूछा कि वे क्या खाएंगे. जवाब में उन्होंने कहा कि अब इस की जरूरत नहीं होगी. पार्थो की मां की मृत्यु से पहले सबकुछ ठीकठाक था. अरविंद डे एक ब्रिटिश कंपनी में बेंगलुरु में कार्यरत थे. 1989 में रिटायर होने के बाद पूरा परिवार कोलकाता लौट आया. यहां नियमित रूप से वे एक क्लब में गोल्फ खेला करते थे. आएदिन घर में पार्टियां होती थीं. 2005 में उन की पत्नी आरती डे की कैंसर से मौत के बाद सबकुछ बदल गया. समाज से परिवार कटता चला गया. पार्थो और बहन देबजानी दोनों ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी. पार्थो अमेरिका में कार्यरत था. इंजीनियरिंग करने के बावजूद देबजानी कोलकाता के एक नामी स्कूल में म्यूजिक टीचर थी. मां के जाने के बाद दोनों ने नौकरी छोड़ दी और घर की चारदीवारी में बंद हो गए.

एडवैंचर स्थल बना

इन दिनों 3 रौबिंसन स्ट्रीट, कोलकाता का एक एडवैंचर स्थल बन गया है. इस के चारों ओर पसरे थ्रिल को लोग एंजौय कर रहे हैं. सुबह से ले कर शाम तक लोगों का तांता लगा रहता है. इस घर व इस घर के रहवासियों से जुड़ी रहस्यमयी खबर प्रकाशित होने के अगले दिन से लोगों का हुजूम लगने लगा. यहां आने वालों में तंत्रसाधक से ले कर मातापिता, बच्चों समेत सब हैं. ‘व्योमकेश बक्शी’ के शहर में वैसे भी शौकिया जासूसों की कमी नहीं है. आपस में बतियाते लोग यह कहते सुने गए – ‘हो सकता है पार्थो ने सब की हत्या की हो और खुद के पागल होने का ढोंग कर रहा हो. हो सकता है कंकाल देबजानी का नहीं, किसी और का हो.’

आगंतुक मोबाइल से फटाफट विभिन्न कोणों से तसवीरें लेते हैं. यहां तैनात पुलिस कौंस्टेबल का कहना है कि अब अंदर तो जाने नहीं दिया जा रहा है. फिर भी बाहर से घर की एक झलक देखने के लिए ही बड़ी संख्या में लोग आ रहे हैं. इतना ही नहीं, कुछ लोग तो परिवार समेत पूर्व कोलकाता के गोबरा स्थित पावलव मानसिक अस्पताल में भरती पार्थो डे की एक ‘लाइव’ झलक देखने को पहुंच जाते हैं. एक ने तो कहा कि मकान देख आए, सोचा पार्थो डे की भी एक झलक देख लें. गोया, छुट्टी के दिन वे चिडि़याघर आए हों. पुलिस की जांच में कई सनसनीखेज तथ्यों का खुलासा हुआ है. मसलन, घर के सदस्यों की आपसी बातचीत लगभग नहीं के बराबर थी. घर से बहुत सारी चिट्ठियां और चिट मिली हैं. इन से अनुमान लगाया गया है कि छोटीमोट बातें वे चिट के जरिए करते थे. जबकि ज्यादा व बड़ी बातें चिट्ठियों की मारफत. पिछले साल अगस्त में एक के बाद एक दोनों लैब्राडोर कुत्तों की मौत हुई थी. तब से देबजानी डिप्रैशन में चली गई और उस ने खानापीना छोड़ दिया. इस कारण पिछले साल दिसंबर में देबजानी की मौत हो गई. 6 महीने बाद इस साल मार्च में पिता को बेटी की मृत्यु का पता चल पाया.

मार्च 2015 के बाद से जून के दूसरे हफ्ते तक पिता और पुत्र 3 लाशों के साथ रह रहे थे. इस घर से पुलिस को हजारों की संख्या में बिखरी किताबें, 6 डैस्कटौप, 2 लैपटौप, ब्लू फिल्म की बहुत सारी सीडी, ढेर सारे पैनड्राइव और म्यूजिकल इंस्ट्रूमैंट मिले. पार्थो डे की लिखी बहुत सारी डायरियां भी मिली हैं. लेकिन उस की लिखावट और भाषा पुलिस के लिए एक अलग पहेली है. कहीं कोई आध्यात्मिक वाक्य है तो कहीं पारलौकिक. किसी भूतहा फिल्म की तरह घर के हरेक कमरे, यहां तक कि किचन और बाथरूम तक से एक महिला के गाने की धीमीधीमी आवाज गूंजती थी. जांच से पता चला कि 24×7 साउंड सिस्टम पर गाना बजता रहता था, जो ख्यातिप्राप्त ईसाई धर्मप्रचारक जौयसी मैयेर द्वारा गाया गया ईसाचरित है.

डायरी से चौंकाने वाले खुलासे

मामले की तह में पुलिस जितना गहरे जा रही है, मामला उतना ही उलझता जा रहा है. पुलिस को उम्मीद थी कि पार्थो की डायरी इस मामले को सुलझाने में मददगार होगी. लेकिन हो इस का उलटा रहा है. पार्थो की 2 डायरियां मिली हैं. लेकिन ये सिलसिलेवार तरीके से नहीं लिखी गई हैं. टुकड़ेटुकड़े में अलगअलग जगह, अलगअलग रंग के स्केच पैन से लिखी गई हैं, बहुत ही बेतरतीबी से. अपनी एक डायरी ‘माई स्टोरी, माई लाइफ’ में पार्थो लिखते हैं, ‘‘3 रौबिंसन स्ट्रीट कभी एक खूबसूरत बागीचा हुआ करता था. एक डायन की वजह से यह नरक में तबदील हो चुका है. मेरा परिवार बहुत ही अच्छा है. लेकिन उस डायन की वजह से यह अब किसी काम का नहीं रह गया है.’’ इसी तरह डायरी में एक अन्य जगह पार्थो डे ने एक वाक्य में लिखा है, ‘‘दीदी दिनोंदिन आकर्षक होती चली जा रही हैं.’’ एक जगह उन्होंने यह भी लिखा है, ‘‘मां मुझे यौन संबंध बनाने में अक्षम और नपुंसक समझती रही हैं. इसीलिए वे अकसर मेरे कमरे में कामवाली बाई को भेज दिया करती थीं, ताकि मैं उस के साथ यौन संबंध बना सकूं.’’

फिर एक जगह लिखा है, ‘‘मां दीदी से ईर्ष्या करती हैं. ….दीघा में एक दिन मां दीदी को बाथरूम में नंगा करती हैं….’’ इस के आगे कुछ स्पष्ट नहीं है. लेकिन इतना साफ है कि पार्थो ने दीघा की इस घटना को चोरीछिपे देखा है.

एक चिट्ठी में पार्थो लिखते हैं कि ‘‘…क्या मैं ने ऐसी जिंदगी की कामना की थी? इस तरह जीने के कोई माने नहीं हैं.’’ एक दूसरी चिट्ठी में एक अन्य लिखावट में लिखा गया है, ‘‘भगवान पर भरोसा रखो. सब ठीक हो जाएगा.’’ पुलिस का मानना है कि यह चिट्ठी हो सकता है देबजानी की हो क्योंकि वह धार्मिक और आध्यात्मिक प्रकृति की थी. डायरी में एक और जगह पार्थो ने लिखा है, ‘‘मैं अपनी दीदी को बहुत प्यार करता हूं. वह भी मुझे बहुत मानती है. मेरे बाबा मुझे बहुत प्यार करते हैं. और हम लोग अपने कुत्तों से बेइंतहा प्यार करते हैं. लेकिन इस डायन की वजह से ही अब हम लोग एक नरक में वास कर रहे हैं. इसी डायन ने मेरी मां की हत्या कर दी.’’

डायन शब्द का जिक्र पार्थो डे ने अपनी दादी के लिए किया है. दरअसल, पार्थो डे की मां आरती डे की मृत्यु स्तन कैंसर की वजह से 2005 में हुई थी और इस के ठीक 2 साल बाद यानी 2007 में उस की दादी का देहांत हुआ. लेकिन आरती देवी की मौत के बाद पूरे परिवार ने सामाजिक रूप से अपनेआप को अलगथलग कर लिया. रिश्तेदारी और आसपड़ोस से इन का मिलनाजुलना भी बंद हो गया था. कुछ समय पहले अरविंद डे का अपने भाई अरुण डे से बातचीत, मिलनाजुलना शुरू हुआ था लेकिन इस की वजह पारिवारिक संपत्ति थी. समाजशास्त्री अभिजीत मित्र का कहना है कि डायरी का जितना भी अंश प्रकाश में आया है, उस से लगता है कि भाईबहन और मांबेटे के बीच हो सकता है यौन संबंध हों. उन का यह भी कहना है कि अरविंद डे ने आग लगा कर आत्महत्या की है, इस पर भी एक शक की गुंजाइश है. हो सकता 3 रौबिंसन स्ट्रीट में जो कुछ भी घटा हो वह हत्याओं की एक सीरीज हो. और इन तमाम घटनाओं को इल्यूजन और डिसइल्यूजन के तहत मानसिक मामला ठहराए जाने की पार्थो द्वारा कोशिश की जा रही हो.

गौरतलब है कि पहले ही दिन से पार्थो मदर हाउस में कुछ ‘स्वीकार’ करने की बात कह चुका है. साथ में यह भी कहा, ‘‘मैं ने कुछ ऐसा किया है जो हो सकता है कानून की नजर में क्राइम हो, इसीलिए मुझे मदर हाउस में स्वीकार करना है.’’ समाजशास्त्री अभिजीत मित्र और पावलव मानसिक अस्पताल के डाक्टरों का मानना है कि पार्थो डे में अपराधी मानसिकता है जिसे वह छिपाने की कोशिश कर रहा है. इन का मानना है कि वह अपने भीतर प्रेम की भावना को संभाल पाने में अक्षम है. इसीलिए एक के बाद एक हत्याओं के सिलसिले को उस ने अंजाम दिया हो. बंगला जासूसी कथा साहित्य के प्रख्यात लेखक शीर्षंदु मुखोपाध्याय को भी हत्या की साजिश नजर आ रही है. माना जा रहा है कि पिता की भी आग लगा कर हत्या की गई है. हालांकि बाथरूम में कैरोसिन तेल की एक बोतल पाई गई है और बाथरूम का दरवाजा दमकल विभाग के अधिकारियों ने तोड़ा था. फिर भी हत्या का शक जाहिर किया जा रहा है. पार्थो डे चूंकि इंजीनियर है, हो सकता है इस में उस की किसी तरह की करतूत हो. हालांकि पिता अरविंद डे का एक सुसाइड नोट मिला है, लेकिन अभी लिखावट की वैज्ञानिक जांच बाकी है. इस में उन्होंने लिखा था, ‘‘मैं अपनी मरजी से मौत को गले लगा कर इस दुनिया से विदा ले रहा हूं. मेरी मौत के लिए कोई दूसरा जिम्मेदार नहीं है. पार्थो, तुम अच्छे से रहना. बहुतबहुत प्यार. बाबा.’’ पार्थो अपने पिता का ‘लास्ट नोट’ देखने को बेचैन है.

बहरहाल, 3 रौबिंसन स्ट्रीट के एकमात्र जीवित बाशिंदे पार्थो डे को गिरफ्तारी के बाद पावलव मानसिक अस्पताल में रखा गया. बताया जाता है कि मानसिक तौर पर बीमारों के साथ पार्थो कतई रहने को तैयार नहीं है. एक दिन पावलव मानसिक अस्पताल के पिछले गेट, जहां मानसिक मरीज के लिए शौच व नहाने के लिए बाथरूम हैं, नहाने से पहले काफी देर चहलकदमी करने के बाद गेट के सुराख से झांक कर बाहर खड़े पत्रकारों से पार्थो डे ने कहा कि गैरकानूनी रूप से उसे यहां बंद कर के रखा गया है. साथ में यह भी कि उस के नाम बहुत सारी संपत्ति है, जिसे वह ‘मदर हाउस’ को दान करना चाहता है. पत्रकारों से बात करते हुए उस ने बताया कि दीदी (देबजानी) की मृत्यु कठिन योग साधना के दौरान हुई है. दीदी स्वभाव से बहुत ही धार्मिक प्रकृति की थीं. उन की योग साधना में वह बाधा नहीं देना चाहता था, इसीलिए उपवास के लिए उस ने कभी रोका नहीं. फिलहाल जांच जारी है. लेकिन इतना तय है कि इस वारदात में सनसनीखेज व रोंगटे खड़े कर देने वाले जासूसी उपन्यास व किसी थ्रिल फिल्म का बहुत सारा मसाला है, वास्तविक खुलासा होना अभी बाकी है.

और भी हैं मिसालें

कोलकाता का यह कोई पहला मामला नहीं है. 2014 में अलीपुरदुआर में लंबे समय से बीमार चल रही शिखा राय की मृत्यु के बाद 20 दिनों तक उन के बच्चे इसी उम्मीद में कि वे ठीक हो जाएंगी, मां को एक वैद्य की दवा पिलाते रहे. इसी तरह दिल्ली के साकेत में भी रौबिंसन स्ट्रीट जैसी घटना घट चुकी है. 2010 में साकेत में शालिनी गुप्ता नाम की एक लड़की अपनी मां की लाश के साथ कई महीनों से रह रही थी. 2008 में वियतनाम में एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी के देहावशेष को एक बहुत बड़ी सी गुडि़या के भीतर ठूंस कर बिस्तर पर लिटा रखा था. इसी बिस्तर पर वह हर रोज मृत पत्नी के देहावशेष के साथ सोया करता था. 2014 में न्यूयार्क के ब्रुकलिन में एक लड़की भी अपनी मृत मां के साथ 3 साल से रह रही थी. वह हर रोज मां को डाइनिंग टेबल पर भी बिठाती. खाना खिला कर बिस्तर में लिटा देती और फिर खुद भी उन के पास सो जाती थी.

ऐसा ही मामला कोलकाता के मालदा में भी सामने आया है. एक मां पर अपनी 4 वर्षीय बच्ची के माथे का मांस खाने का आरोप लगा है. पुलिस के मुताबिक, महिला का देवर जब अपनी भाभी से मिलने गया तो वह वहां के हालात देख कर सहम गया. उस की भाभी प्रमिला मंडल अपनी बेटी का मांस ब्लेड से काट कर खा रही थी. वर्ष 2007 में दिल्ली पुलिस ने पाया कि कालकाजी इलाके में 2 बहनें अपनी सब से छोटी बहन की लाश के साथ रह रही थीं. वे मानसिक रूप से विक्षिप्त थीं.

क्या है सच

रौबिंसन स्ट्रीट की घटना की जांच में पुलिस द्वारा की गई पूछताछ में पार्थो डे ने बताया कि पिछले साल अगस्त महीने में अरविंद डे और उन के भाई अरुण डे के बीच लंबे समय तक मनमुटाव रहने के बाद सुलह हो गई थी. इस सुलह को पार्थो और देबजानी स्वीकार नहीं कर पाए थे. इस को ले कर 3 सदस्यीय परिवार में दो फाड़ हो गया था. पिता अपने अलग कमरे में सिमट गए और भाईबहन अलग. जांच से पता चला कि इन के बीच आपसी संवाद खत्म हो गया था. इस दौरान एक दिन देबजानी डे का एक कुत्ता टेरी मर गया. अगले कुछ दिनों के बाद दूसरा कुत्ता रिकी भी मर गया. ये कुत्ते देबजानी के लिए उस के बच्चों के समान थे. इसीलिए, वह मरे कुत्तों को अपने से अलग नहीं करना चाहती थी. लेकिन पिता अरविंद डे ने इस का विरोध किया. इस से परिवार में खाई बढ़ती चली गई. उधर, देबजानी धीरेधीरे अवसादग्रस्त होती चली गई. उस ने जोगदा मठ से दीक्षा ली हुई थी. गौरतलब है कि दक्षिणेश्वर स्थित जोगदा मठ सत्संग सोसाइटी हिंदूईसाई मत के परस्पर मिलन की बात करती है. देबजानी ने योगक्रिया के नाम पर अन्नजल का त्याग कर दिया.

अगस्त 2014 से ले कर 6 दिसंबर, 2014 तक क्रियायोग के तहत उपवास के बाद देबजानी ने बिस्तर पकड़ लिया. पार्थो ने पुलिस को बताया कि 24 दिसंबर तक उस के आवाज देने पर वह रिसपौंस दिया करती थी. लेकिन उस के बाद अगले 5 दिनों में उस में किसी तरह की हलचल जब नहीं दिखाई पड़ी, तब वह समझ गया कि उस की दीदी नहीं रहीं. पिता तक को उस ने दीदी के मरने की खबर नहीं दी. पार्थो सिक्योरिटी गार्ड से कभीकभार कुछ सूखा खाना मंगवा लिया करता था. उस ने बताया कि जनवरी 2015 में उस के पास नकद रुपए खत्म हो गए. तब वह धीरेधीरे पिता अरविंद डे से बात करने लगा. लेकिन दीदी की मौत की खबर तब भी उस ने पिता को नहीं दी. इस साल 13 मार्च को देबजानी की मौत का पता अरविंद डे को चल गया. अंतिम संस्कार न कर के लाश को घर पर रखे रहने की बात जान कर अरविंद डे और पार्थो के बीच बहुत कहासुनी हुई पर नतीजा कुछ नहीं निकला.

तहकीकात के बाद पुलिस के हाथों लगे तथ्यों से अनुमान लगाया जा रहा है कि एक तरफ मौत के बाद बेटी की लाश को घर पर रखे रहने की बेटे की जिद थी तो दूसरी तरफ ऐशोआराम के कायल, बढि़या शराब पीने के शौकीन और बातबात में पार्टी देने जैसे उन के रईसी अंदाज के कारण अरविंद की माली हालत बिगड़ती चली गई. बताया जाता है कि फरवरी में कोलकाता की एक प्रख्यात ज्वैलरी की दुकान में उन्होंने लगभग 6 लाख रुपए के जेवर बेचे थे. वे इस पारिवारिक मकान को भी किसी प्रोमोटर को बेचना चाहते थे. पर इस के लिए भाई और बेटे को नहीं मना पाए. पुलिस का अनुमान है कि इन्हीं कारणों से अवसादग्रस्त हो कर अरविंद डे ने आत्महत्या की. जहां तक पार्थो डे का सवाल है, तो अब उस का मानसिक इलाज भवानीपुर स्थित इंस्टिट्यूट औफ साइकिएट्री में चल रहा है.

अंधविश्वास के साए में

कोलकाता के रौबिंसन स्ट्रीट कांड में सिर्फ साइको फैक्टर ही नहीं, बल्कि अंधविश्वास का मकड़जाल भी पसरा दिखता है. पुलिस को घर से मिले म्यूजिक सिस्टम, सीडी, दस्तावेज, धार्मिक ग्रंथ व अन्य सामान पार्थो और उस के पूरे परिवार के अंधविश्वास में फं से होने की ओर इशारा करते हैं. मिले सुराग बताते हैं कि परिवार अंधविश्वासी था. फ्लैट के विभिन्न कमरे व ड्राइंगरूम में फै ली तथाकथित धार्मिक गुरुओं की तसवीरें और कंकाल के पास रखी गुरु की फोटो, म्यूजिक सिस्टम में बजते डरावने मंत्र, बहन व कुत्तों की आत्मा को बुला कर पार्थो डे का उन्हें खाना देना, उन से देर तक बात करना साफ जाहिर करता है कि पूरा परिवार अंधविश्वास के गहरे साए में था. खुद पार्थो डे ने अपनी डायरी में इस बात का जिक्र किया है कि उस की अपनी बहन 2013 में कुछ गुरुओं के संपर्क में आ गई और उन के कहे मुताबिक चलती थी.

संपत्ति का पेंच तो नहीं?

इस प्रकरण में हो रही जांच से इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं कि कहीं संपत्ति विवाद के चलते तो हत्याएं नहीं हुई हैं? ऐसा अंदाजा इसलिए भी लगाया जा रहा है क्योंकि इस पौश इलाके में डे परिवार की करोड़ों की संपत्ति को ले कर विवाद चल रहा था. पुलिस जांच में यह तथ्य भी उजागर हुए हैं कि पार्थो के पिता अरविंद डे का अपने भाई अरुण डे के साथ इस चारमंजिला मकान को ले कर विवाद चल रहा था. इतना ही नहीं, मामला अदालत तक पहुंचा था. उस वक्त अदालत ने फैसला अरविंद के हक में सुनाते हुए उन्हें मकान से मिलने वाले किराए की राशि रखने का अधिकार दिया था. पता चला है कि डे परिवार को सिर्फ  किराए व अन्य स्रोत से महीने में करीब 2 लाख रुपए मिलते थे, जबकि परिवार महीने में करीब 40 हजार रुपए ही खर्च करता था. इस के अलावा, परिवार में संपत्ति को बेचने के फैसले पर एकमत न होने की कलह होती थी.

असंवेदनशीलता की हद

कोलकाता के 3 रौबिंसन स्ट्रीट में स्थित ‘हौरर हाउस’ के मानसिक रूप से बीमार पार्थो डे में लोगों की दिलचस्पी इस कदर बढ़ रही है कि वे न केवल घर की तसवीरें और सैल्फी लेने के लिए मोबाइल फोन कैमरे के साथ वहां पहुंच रहे हैं, और सोशल मीडिया पर तसवीरों को पोस्ट कर रहे हैं बल्कि कोलकाता के मंजरी ओपेरा ग्रुप को तो इस घर से अपने नए नाटक का विषय भी मिल गया है और वह जल्द ही इस भयावह मामले को अपने प्रोडक्शन का हिस्सा बनाने जा रहा है. हैरानी की बात है पार्थो डे जिसे डाक्टरों ने भी मानसिक रूप से विक्षिप्त साबित किया है और जिन का इलाज किया जाना चाहिए वह पब्लिक डिस्प्ले का माध्यम बन गया है. यह समाज की उस सोच को दर्शाता है जिस में लोग मानवीय त्रासदी में भी कूल सैल्फी लेने का अवसर ढूंढ़ रहे हैं. एक ऐसा पुरुष जो मानसिक रूप से विक्षिप्त है, उस का तमाशा बनाया जा रहा है और ऐसा लग रहा है उस की प्राइवेसी सरेआम नीलाम हो रही है. पार्थो डे के पूर्व सहपाठी ने टैलीग्राफ  अखबार से भी कहा है कि इस में पार्थो का कोई दोष नहीं है, वह मानसिक रूप से विक्षिप्त है, पर ऐसा दर्शाया जा रहा है जैसे सारा दोष उसी का है.

शिक्षा और अंक का गणित

हर साल 12वीं कक्षा की परीक्षाओं के बाद पूरे देश के अखबार 98 से 100 प्रतिशत तक अंक लाने वाले विद्यार्थियों के फोटोग्राफों से भर जाते हैं. एक जमाना था जब 65 प्रतिशत या 70 प्रतिशत अंक मेधावी छात्रों के आते थे पर अब इतने प्रतिशत अंक लाने वाले उच्च पढ़ाई को अलविदा कहने को मजबूर हो सकते हैं. अब उन्हें मात्र पास माना जाता है, कोई भी उन्हें किसी भी कोर्स में दाखिला देने को तैयार नहीं है. मजेदार बात तो यह है कि 98 प्रतिशत अंक हासिल करने वाले को भी मनचाहे कालेज में मनचाहे कोर्स में प्रवेश नहीं मिलता क्योंकि हर स्तर पर इतने छात्र होते हैं कि गिनती 98, 99, 100 से नहीं 98.1, 98.2, 98.3 से शुरू होती है. इस में शक नहीं कि इतने अंक लाने वाले बेहद परिश्रमी व योग्य होते हैं पर क्या 80 प्रतिशत अंक लाने वाले बेवकूफ हैं? यह कैसी शिक्षा व्यवस्था है जो तय नहीं कर पा रही है कि 12वीं के अंक, जो बाद में जीवनभर एक मील का पत्थर बने रहते हैं, गले का बोझ हैं या पैडेस्टल, जिस पर चढ़ कर विजयी घोषित किया जाता है. 98-100 प्रतिशत अंक लाना कठिन है पर उस के बाद भी मुसीबतों का अंत नहीं है. दरअसल, मैडिकल व इंजीनियरिंग ही नहीं बहुत से और विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवेश पाने के लिए अलगअलग परीक्षाएं देनी होती हैं यानी जो मेहनत की थी और जो सफलता पाई, वह आधीअधूरी ही है.

और ज्यादा अफसोस की बात यह है कि किसी भी संस्थान, कालेज, विश्वविद्यालय में चले जाएं वहां की लाइबे्ररी खाली होगी, लैक्चर कक्षाओं में बहस न के बराबर होगी. कालेज फेस्ट में धूम होगी पर वादविवाद प्रतियोगिता में बैंच खाली होंगी. इन होशियार छात्रों को न ज्यादा लिखना आता है, न पढ़ना. किताबें, लेख, कहानियां, कविताएं लिखने में कहीं दूर, ये अतिमेधावी छात्र स्क्रीन के गुलाम हैं या रट्टूपीर. स्वतंत्र सोच इन की पहुंच से बाहर है. देश के विश्वविद्यालय रैगिंग की घटनाओं को तो पैदा करते हैं पर वे राजनीतिक चेतना के केंद्र हैं, ऐसा नहीं लगता. इतने अंक हासिल करने वाले विद्यार्थियों के ज्ञान का स्रोत गूगल का विकीपीडिया है या मटमैले कागज पर वहीं से चोरी कर छापा गया सामान्य ज्ञान जिस में आलोचना, समालोचना, परिवर्तन की चेष्टा, क्रांति, बदलाव, गायब हैं. भारत में हौंगकौंग, ट्यूनीशिया, मिस्र, न्यूयौर्क के युवाओं के आंदोलन जैसे नहीं हुए तो सिर्फ इसलिए कि सारे भारीभरकम विशाल भवनों में बसे संस्थान शिक्षा नहीं, रट्टूपीर पैदा कर रहे हैं जो किसी तरह लाखों रुपयों के पैकेज वाली एक अच्छी नौकरी चाहते हैं. 98-100 प्रतिशत लाने वाले समाज से कट गए हैं. उन्हें अंकों की इतनी फिक्र हो गई है कि भविष्य के लिए वे न विचारों की स्वतंत्रता का खयाल कर रहे हैं न रूढि़वादी समाज को हिलाने का, उन्हें सिर्फ पैकेज की चिंता है. और सुर्खियां यही बनती हैं कि किस विदेशी कंपनी ने किस युवक को कितने का पैकेज दिया. यह शिक्षा, यह सफलता, यह खर्च, यह योग्यता सब आत्मकेंद्रित हो गए हैं. सफल युवा आत्ममुग्ध हो कर अपनी और केवल अपने को देख रहा है. उस का लक्ष्य नए समाज का निर्माण नहीं, समाज सुधार नहीं, इतिहास, विज्ञान नहीं बल्कि केवल अंक है, चाहे प्रमाणपत्र पर या चैक पर.

फ़िल्मी गॉसिप

कोंकणा की इतिहास क्लास

चालू और मसाला फिल्मों के बीच कई बार ऐसी फिल्में भी आती हैं जो तथ्यात्मक तौर पर सटीक होती हैं. अनंत महादेवन निर्देशित फिल्म ‘गौर हरी दास्तां’ भी ऐसी ही फिल्म है. स्वतंत्रता सेनानी गौर हरी दास की असल जिंदगी से प्रेरित इस फिल्म में मुख्य भूमिका विनय पाठक और कोंकणा सेन निभा रहे हैं. दरअसल, गौर हरी दास को कई साल लग गए थे सरकारी तौर पर साबित करने के लिए कि वे स्वतंत्रता सेनानी थे. दुनियाभर के पुरस्कार समारोहों में प्रशंसित और पुरस्कृत यह फिल्म जल्द ही रिलीज होगी. फिल्म में वास्तविकता लाने के लिए इतिहास की गहन जानकारी रखने वाले स्कौलर्स की पूरी टीम भी इस प्रक्रिया में शामिल रही. फिल्मों में रिसर्च बड़ी जरूरी है वरना अधकचरी जानकारी लिए तमाम फिल्में लोगों को गुमराह ही करती हैं.

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विज्ञापन में फिल्मी जोड़ी

फिल्म ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ के बाद पिछली बार ‘बदलापुर’ में नजर आई हुमा कुरैशी और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की हिट जोड़ी पर इस बार विज्ञापन कंपनियों की नजर पड़ गई है. इस जोड़े की कैमिस्ट्री को भुनाने के लिए नामी ब्रैंड के विज्ञापन में इन्हें कास्ट किया गया है. इस विज्ञापन फिल्म को उन की पिछली हिट फिल्म गैंग्स औफ वासेपुर का एक्सटैंशन भी कहा जा सकता है. ऐसा अकसर देखा गया है कि जो जोड़ी फिल्मी परदे पर दर्शकों को पसंद आती है वह विज्ञापन फिल्मों में भी सराही जाती है. वैसे आजकल विज्ञापन फिल्में करना फिल्मी सितारों के लिए मजे का काम नहीं रह गया है. हालिया मैगी विवाद से कानूनी पचड़े में फंसे बड़े कलाकारों को यह बात समझ आ गई होगी. उम्मीद है कि हुमा और नवाज के साथ ऐसा नहीं होगा.

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आइफा के धुरंधर

साल दर साल भारतीय फिल्मों की विदेशों में बढ़ती लोकप्रियता को भुनाता 16वां आइफा अवार्ड्स समारोह इस बार कुआलालंपुर में हुआ. बाकी सारे अवार्ड समारोहों की तर्ज पर यहां भी शाहिद कपूर की फिल्म ‘हैदर’ और कंगना राणावत की फिल्म ‘क्वीन’ ने खूब सारे पुरस्कार बटोरे. शाहिद को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता और कंगना को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का खिताब मिला, वहीं दीपिका पादुकोण को ‘वुमेन औफ द ईयर’ का पुरस्कार दिया गया. राजू हीरानी ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार फिल्म पीकू के लिए प्राप्त किया. सहायक कलाकार के लिए रितेश देशमुख और तब्बू को फिल्म हैदर के लिए पुरस्कृत किया गया. बैस्ट डेब्यू के लिए फिल्म ‘हीरोपंती’ की जोड़ी टाइगर श्रौफ और कृति सनन को चुना गया.

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भानुशाली का दबमेश

आजकल फिल्मी सितारों के बीच सोशल मीडिया और तकनीक के इस्तेमाल काफी देखने को मिलते हैं. कभी फिल्म का प्रचार करने के लिए तो कभी अपने फैन्स से संवाद के लिए तकनीक का सहारा लेते फिल्मस्टार अब तकनीकी मामलों में बड़े ऐक्सपर्ट हो गए हैं. टीवी और फिल्मों के पौपुलर चेहरे जय भानुशाली ने भी अपनी पत्नी के साथ मिल कर दबमेश वीडियो बनाया है जिसे साजिद नाडियाडवाला एंटरटेनमैंट को समर्पित किया है. वैसे भी इन दिनों इन सितारों पर दबमेश का बुखार सिर चढ़ कर बोल रहा है, ऐसे में यह दोहरा काम होता है, पहला, दर्शकों को मुफ्त में मनोरंजन मिलता है और दूसरा, इन्हें पब्लिसिटी.

फिल्म समीक्षा

दिल धड़कने दो

बहुत से जानेमाने कलाकारों को ले कर यूरोप के एक कू्रज पर फिल्माई गई यह फिल्म विजुअली अच्छी बन पड़ी है. निर्देशिका जोया अख्तर ने एक धनाढ्य वर्ग के परिवार की समस्या को फिल्म में उठाया है. उस का मानना है कि कोई भी परिवार परफैक्ट नहीं होता, चाहे वह मध्यवर्ग का हो या उच्चवर्ग का. हर परिवार में कुछ दिक्कतें, उलझनें होती हैं. धनाढ्य वर्ग की समस्याएं भी मध्यवर्ग जैसी ही होती हैं. वे भी अपने बेटाबेटी में फर्क करते हैं. खुद चाहे बड़ी उम्र में भी फ्लर्ट करते हों पर चाहते हैं कि उन के बेटेबेटियां उन की मरजी से शादी करें. इसी जद्दोजहद में पारिवारिक रिश्तों में तनाव आ जाता है और वे उलझते चले जाते हैं. जोया अख्तर की यह फिल्म खोखले रिश्तों की बात करती है. लोग अपने स्टेटस के प्रति बहुत कौंशस रहते हैं. पार्टियों में वे खुद को ऐसा दिखाते हैं मानो वे सब से ज्यादा सुखी हों परंतु उन के परिवार के सदस्यों में हर वक्त तनाव बना रहता है.

यह फिल्म उन दर्शकों के लिए है जो मारामारी या ऊटपटांग फिल्में देखने से परहेज करते हैं. लंबाई ज्यादा है. पहला 1 घंटा तो निर्देशिका ने किरदारों का परिचय कराने में ही जाया कर दिया है. इसलिए मध्यांतर से पहले फिल्म कुछ बोझिल सी है. रोमांटिक सीन देखने वालों को भी फिल्म निराश करती है. फिल्म की कहानी एक पंजाबी मेहरा परिवार की है. कमल मेहरा (अनिल कपूर) अरबपति हैं. वे हर वक्त अपनी पत्नी नीलम मेहरा (शेफाली शाह) पर अपने पैसों का रौब झाड़ते रहते हैं. कबीर मेहरा (रणवीर सिंह) उन का बिगड़ैल बेटा है. बिजनैस करने में वह जीरो है. कमल मेहरा की बेटी आयशा मेहरा (प्रियंका चोपड़ा) उन के मैनेजर के बेटे सनी (फरहान अख्तर) से प्यार करती थी तो कमल मेहरा ने सनी को पढ़ने के लिए अमेरिका भेज दिया और बेटी की शादी अपनी पसंद के लड़के मानव (राहुल बोस) से कर दी थी. आयशा अपने पति को पसंद नहीं करती.

कमल मेहरा की बेटी अपने मातापिता की शादी की 30वीं सालगिरह पर शहर के कुछ रईसों के साथ कू्रज पर 15 दिन तक घूमने का प्रोग्राम बनाती है. कमल मेहरा की कंपनी घाटे में चल रही है. इस से उबरने के लिए कमल मेहरा ललित सूद (परमीत सेठी) की बेटी नूरी (रिदिमा सूद) से कबीर की शादी का प्लान बनाते हैं. उधर कबीर कू्रज पर डांस करने वाली फारा (अनुष्का शर्मा) पर फिदा हो जाता है. लेकिन कबीर के मातापिता उस पर नूरी से शादी करने का दबाव डालते हैं. इसी दौरान अमेरिका से सनी वापस लौट आता है. उस के आते ही आयशा अपने पति को तलाक दे देती है. पूरा मेहरा परिवार मुसीबत में फंस जाता है. अंत में फारा को शिप से निकाल दिया जाता है तो कबीर फारा के पीछे समुद्र में छलांग लगा देता है. मेहरा परिवार उसे बचा लेता है. उस परिवार को लगता है कि बच्चों को भी अपनी मरजी से जीने का अधिकार है. फिल्म की यह कहानी हमें बहुत कुछ समझाती है. मातापिता को बच्चों पर अपनी मरजी नहीं थोपनी चाहिए. निर्देशिका ने फिल्म में इंसान की तुलना जानवर से की है और कहा है कि इंसान अंदर से कुछ और होते हैं और बाहर से कुछ और. निर्देशिका ने दिखाने की कोशिश की है कि अगर लड़का लड़की से मिलता है तो घर वाले खुश होते हैं और कहते हैं कि लड़का जवान हो गया है और अगर लड़की किसी लड़के से मिलती है तो उस पर बंदिशें लगाई जाती हैं. मातापिता अपनी बात मनवाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. इस फिल्म में पिता अपनी बात मनवाने के लिए जवान बेटे से कहता है, ‘प्लेन लेना है या नहीं…बोल…’

जोया अख्तर की इस फिल्म में उस ने कुछ नया कर के दिखाया हो, लगता नहीं. ‘जिंदगी मिलेगी ना दोबारा’, ‘हनीमून ट्रैवल्स’, ‘लक बाय चांस’ में भी उस ने इसी तरह का ट्रीटमैंट किया था. अनिल कपूर का काम काफी अच्छा है. शेफाली शाह के साथ उस की जोड़ी जमी है. रणवीर कपूर के किरदार में खिलंदड़ापन है तो प्रियंका चोपड़ा बुझीबुझी रही है. फिल्म का संगीत खास नहीं है. इस्तांबुल और ग्रीस की लोकेशनें सुंदर बन पड़ी हैं.

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वैलकम टू कराची

यह फिल्म आप का वैलकम करने वाली नहीं बल्कि टैंशन देने वाली है. इस मुगालते में न रहें कि आप को ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ और ‘जौली एलएलबी’ जैसी परफौर्मेंस देने वाले अरशद वारसी की बढि़या परफौर्मेंस देखने को मिलेगी. अरशद वारसी और जैकी भगनानी ने इस फिल्म में जम कर मूर्खतापूर्ण हरकतें की हैं.

‘बीवी नं. 1’ और ‘हीरो नं. 1’ जैसी दर्जनों सुपरहिट फिल्में देने वाले वाशू भगनानी ने अपने बेटे जैकी भगनानी को एक और मौका देने के लिए इस फिल्म को बनाया है. उस ने अपने बेटे को ले कर कई फिल्में बनाईं लेकिन खोटा सिक्का चल नहीं पाया. इस फिल्म में उस ने अपने पापा को तो निराश किया ही है, दर्शकों के सिर में भी दर्द पैदा किया है. फिल्म में जैकी भगनानी के पिता का किरदार निभा रहा ऐक्टर दिलीप ताहिल उस से कहता है, ‘सोच के लिए दिमाग चाहिए, जो तुम्हारे पास नहीं है.’ ‘वैलकम टू कराची’ में निर्देशक आशीष मोहन ने बहुत से मसालों का प्रयोग किया है लेकिन फिर भी वह फिल्म को मजेदार नहीं बना पाया है. उस ने पूरी फिल्म में अरशद वारसी और जैकी भगनानी से मसखरी कराई है. दोनों ने अपनी ऊटपटांग हरकतों से दर्शकों को हंसाया है लेकिन फिर भी बात बन नहीं सकी है.

फिल्म की कहानी गुजरात में रहने वाले 2 दोस्तों शम्मी (अरशद वारसी) और केदार पटेल (जैकी भगनानी) की है. शम्मी को नेवी से निकाला जा चुका होता है. केदार की तमन्ना अमेरिका जाने की है लेकिन हर बार उसे वीजा नहीं मिल पाता. वह शम्मी के साथ मिल कर बिना वीजा लिए बोट में सवार हो कर अमेरिका के लिए निकल पड़ता है. लेकिन रास्ते में ही समुद्र में उन की बोट डूब जाती है. जब उन्हें होश आता है तो दोनों खुद को कराची में पाते हैं. यहीं से उन के लिए मुश्किलें शुरू होती हैं. दोनों तालिबानियों के हत्थे चढ़ जाते हैं. एक दिन दोनों तालिबानियों के कैंप को रिमोट बम से उड़ा देते हैं. अमेरिका का गुप्तचर विभाग उन पर नजर रखे हुए है. वह उन दोनों की जांचपड़ताल कर उन्हें भारत भेजता है. दोनों नकली पासपोर्ट बनवा कर लौटने की कोशिश करते हैं. हवाई अड्डे पर उन्हें एक तालिबानी कमांडर पायलट के रूप में नजर आता है, जो हवाई जहाज को बम से उड़ाने वाला है. दोनों उस तालिबानी के मंसूबों पर पानी फेर देते हैं और वापस इंडिया लौटते हैं. फिल्म की इस कहानी में कई पेंच हैं. 2 युवकों का गलती से पाकिस्तान पहुंच जाना, मजाकिया स्टाइल में बोलना, उन का तालिबानियों के हत्थे चढ़ जाना, वहां से भागने की कोशिश करना-यहां तक तो ठीक है परंतु उन दोनों को ले कर पाकिस्तान की राजनीति में हलचल मचना, सियासी राजनीति जैसी बातों को ले कर फिल्म को बेकार खींचा गया है. फिल्म के निर्देशन में कमियां हैं. निर्देशक ने सिर्फ अरशद और जैकी पर ही ध्यान केंद्रित किया है, बेचारी लौरेन गौटलिब की तरफ ध्यान नहीं दिया है. इसलिए फिल्म में लव सीन नहीं आ सके हैं.

फिल्म का संगीत चालू टाइप का है. एक गाने के बोल ‘लल्ला लल्ला लोरी दारू की कटोरी…’ दूसरे गाने के बोल, ‘उल्लू के पट्ठे…खजूर में अटके’ हैं. पिता की भूमिका में दिलीप ताहिल हास्यास्पद लगा है. छायांकन अच्छा है.

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इश्कदारियां

इस फिल्म का टाइटल ‘इश्कदारियां’ जरूर है परंतु इस में इश्क गायब है. नायक और नायिका दोनों रूखेरूखे से लगे हैं. नायक महाअक्षय चक्रवर्ती मिथुन चक्रवर्ती का बेटा है. उस की 2-3 फिल्में रिलीज हो चुकी हैं. न वह पहले किसी फिल्म में चला, न ही इस फिल्म में चल पाया है. सपाट और भावहीन चेहरा, ऊपर से खराब संवाद अदायगी ने यह साबित कर दिया है कि वह भविष्य में भी चलने वाला नहीं है. फिल्म की कहानी प्रेमत्रिकोण की है. कहानी अमेरिका से शुरू होती है. अगम दीवान (महाअक्षय चक्रवर्ती) एक अरबपति नौजवान है. एक युवा महिला पत्रकार उस के अरबपति होने की पोल खोलती है. उस का कहना है कि उस के पिता ने हिमाचल प्रदेश में एक परिवार से 20 लाख रुपए की धोखाधड़ी की थी. उसी पैसे से बेटे ने इतना बड़ा अंपायर खड़ा किया है. अगम दीवान को यह बात चुभ जाती है. वह अपने सेक्रेटरी (केविन दवे) के साथ इस बात की सचाई का पता लगाने भारत आता है. वह हिमाचल प्रदेश के उस गांव में जाता है जहां वह परिवार अब भी रहता है. उस परिवार में एक युवती लवलीन (एवलिन शर्मा) अपनी दादी के साथ रहती है. वह डोनेशन लेले कर एक स्कूल चलाती है. अगम दीवान अनजान बन कर लवलीन से मिलता है और स्कूल में नौकरी कर लेता है. वह कदमकदम पर लवलीन की मदद करता है परंतु उसे पता नहीं चलने देता. यहां तक कि जब उसे पता चलता है कि लवलीन अर्जुन (मोहित दत्ता) नाम के एक युवक से प्यार करती है तो वह उस की शादी भी उस से तय करा देता है. अंत में लवलीन को जब अगम दीवान के प्यार के बारे में पता चलता है तो वह शादी का मंडप छोड़ कर उस के साथ हो लेती है.

फिल्म की यह कहानी अच्छाखासा बोर करती है. पटकथा एकदम ढीलीढाली है. 15 मिनट में ही फिल्म अपनी पकड़ छोड़ देती है. हर 2-3 दृश्यों के बाद एवलिन शर्मा का सीन परदे पर आ जाता है. एवलिन शर्मा ने इस फिल्म में नौन ग्लैमरस भूमिका की है. अब तक वह लगभग सभी फिल्मों में बिकिनी में ही नजर आई है. लेकिन इस बार वह फ्लौप साबित हुई है. इस फिल्म में एक सीन है स्टेज पर परफौर्म करने का. जब हौल में एक भी दर्शक नहीं पहुंचता तो नायक लोगों को फ्री टिकट और नाश्तेपानी के लिए कुछ पैसे औफर कर हौल में भिजवाता है. यही हाल इस फिल्म का भी है. फ्री में भी देखने लायक नहीं है. फिल्म का गीतसंगीत बेकार है. हिमाचल की कुछ लोकेशनें अच्छी बन पड़ी हैं.

खेल खिलाड़ी

खेल बीसीसीआई का

एक तरफ विराट कोहली की अगुआई में टीम इंडिया बंगलादेश में टैस्ट सीरीज को ले कर उत्साहित थी तो वहीं पूर्व खिलाड़ी राहुल द्रविड़ को नई जिम्मेदारी मिलने से खुशी है. भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान राहुल द्रविड़ को बीसीसीआई ने भारत ए और अंडर-19 टीम का कोच नियुक्त किया है. इस से ठीक पहले बीसीसीआई ने भारत के 3 दिग्गजों, जो अब रिटायर्ड हो चुके हैं- सचिन तेंदुलकर, वीवीएस लक्ष्मण और सौरव गांगुली को अपनी सलाहकार समिति में जोड़ने की घोषणा की थी. राहुल को भी यह औफर दिया गया था पर उन्होंने सलाहकार समिति में शामिल होने से इनकार कर दिया था. तब से अटकलें लगाई जा रही थीं कि राहुल को नई जिम्मेदारी मिलेगी. पर सवाल उठता है कि द्रविड़ ने आखिर सलाहकार समिति में आने से मना क्यों कर दिया? इस के पीछे कहा जा रहा है कि गांगुली जहां होंगे वहां द्रविड़ नहीं होंगे क्योंकि दोनों की आपस में हमेशा से तनातनी रही है. इस बात में कितनी सचाई है, शायद क्रिकेट के दिग्गज भी न बता पाएं क्योंकि बीसीसीआई में कोई भी काम रहस्यमयी ढंग से होता है और वहां पारदर्शिता के बारे में सोचना ही गलत होगा. वहां घपलों की भरमार है और बीसीसीआई में कुंडली मार कर बैठे आकाओं को लगता है कि कोई खिलाड़ी इन घपलों का परदा उठा न दे इसलिए वे कुछ ऐसे खिलाडि़यों को अपने साथ रखना चाहते हैं ताकि वक्त आने पर उन का इस्तेमाल कर सकें. यह तो जगजाहिर है कि बीसीसीआई को चलाने वाले धनकुबेरों के अलावा राजनेता और कुछ पूर्व क्रिकेट खिलाड़ी भी हैं.

बीसीसीआई को न तो खेल की गुणवत्ता की चिंता है और न ही खिलाडि़यों को बेहतर बनाने की, उसे सिर्फ चिंता है तो पैसों की. शायद इसी डर से कुछ खिलाडि़यों को वह पैसों के दम पर अपने पाले में रखना चाहता है ताकि वे उस के खिलाफ मुंह न खोलें. वैसे भी टीम में जो मौजूदा खिलाड़ी हैं वे कभी भी बीसीसीआई के खिलाफ मुंह खोलते नहीं देखे गए हैं क्योंकि अगर वे ऐसा करेंगे तो वे भलीभांति समझते हैं कि उन का हश्र क्या होगा. और जो नए खिलाड़ी तैयार हो रहे हैं, वे तो बीसीसीआई के खिलाफ बोलने का सोचेंगे भी नहीं. तो फिर बीसीसीआई के अंदर भ्रष्टाचार और भाईभतीजावाद के खिलाफ बोलेगा कौन, यह बड़ा सवाल है.

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फीफा की चमक फीकी

फीफा फुटबाल विश्वकप की जब शुरुआत होती है तो पूरी दुनिया के खेलप्रेमी मस्ती में झूम उठते हैं और रातरात भर जाग कर खेल का आनंद उठाते हैं. पर यह बात पुरुष वर्ग के फुटबाल विश्वकप में होती है. लेकिन इन दिनों फीफा महिला फुटबाल विश्वकप की खुमारी लोगों के सिर चढ़ कर बोल रही है पर उतना नहीं जितना कि पुरुष वर्ग के खेल में देखी जाती है. वैसे वैंकूवर, एडमेटन, विनिपेग, मोकटोन ओटावा और मौंट्रियल में होने वाले मैचों के लिए 10 लाख से अधिक टिकट बिक चुके हैं. कनाडा और चीन में चल रहे इस विश्वकप में 8 देशों की महिला खिलाड़ी अपना दमखम दिखाने में लगी हुई हैं, जिन में सब से प्रबल दावेदार जरमनी और अमेरिका को माना जा रहा है. फीफा इन दिनों भ्रष्टाचार के मामले को ले कर उलझा हुआ है और 5वीं बार अध्यक्ष चुने जाने के बाद सेप ब्लाटर को इस्तीफा देना पड़ा लेकिन फीफा को उम्मीद है कि इस से फर्क नहीं पड़ने वाला है. वैसे कनाडा फुटबाल प्रमुख विक्टर मोंटेग्लियानी का मानना है कि यह टूर्नामैंट फुटबाल के इतिहास के सब से खराब दौर के लिए आशा की किरण बनेगा. भले ही अधिकारी कुछ भी कह लें पर फीफा में भ्रष्टाचार के चलते उस की चमक घटी है. और ऐसा न हो कि यह टूर्नामैंट बेनूर हो जाए. इस टूर्नामैंट में 4-4 टीमों के 6 ग्रुप हैं. कुल 16 टीमें दूसरे राउंड में प्रवेश करेंगी. विश्वविजेता टीम को 20 लाख डौलर का पुरस्कार दिया जाएगा और 5 जुलाई को वैंकूवर में फाइनल मैच खेला जाएगा.

अंधविश्वास

भारत को भावनाओं व आस्थावान लोगों का देश भी कहा जाता है. भावना और आस्था के चलते अधिकांश देशवासी स्वत: अंधविश्वास के शिकार बने हुए हैं. पाखंड की जद में आए कमजोर व गरीब तबके की गाढ़ी कमाई का खासा हिस्सा अंधविश्वास पर खर्च हो जाता है. यही नहीं, देश के पढ़ेलिखे तबके में भी अंधश्रद्धा भरी पड़ी है. इसी धर्मभीरुता का एक दृश्य मध्य प्रदेश में कभी भी देखा जा सकता है. मध्य प्रदेश के रतलाम जिले की आलोट तहसील के गांव बरखेड़ा कलां में जोगणिया माता का मंदिर स्थापित है. वहां हर रविवार सैकड़ों बकरों की बलि दी जाती है. यह मन्नत पूरी होने पर दी जाती है. पाखंड व अंधविश्वास का आलम यह है कि इस घृणित कार्य में स्थानीय प्रशासन भी मदद करता है. आलोट पुलिस थाने में पदस्थ एएसआई रणवीर सिंह भदौरिया भी स्वयं बकरों की खुलेआम बलि देते हुए दिखे. वहां जा कर पता चला कि बकरों की बलि देने के काम के लिए स्पैशलिस्ट होते हैं जिन का कार्य बकरों की मुंडियों को काटना होता है. रविवार, 10 मई का दिन था. हम साथियों के साथ दर्शन करने के लिए जोगणिया माता के मंदिर गए. वहां देख कर मन व्यथित हो उठा. पुलिस अधिकारी रणवीर सिंह भदौरिया हवा में नंगी तलवार लहराते हुए धड़ाधड़ बकरों की मुंडियां काटते हुए चंबल नदी में फेंक रहे थे. अंधविश्वासी लोग जयकारे लगा रहे थे. उन मूक पशुओं की पुकार किसी को भी सुनाई नहीं दे रही थी. सभी जानवरों की मौत का मंजर देख रहे थे. देखते ही देखते सैकड़ों बकरों की मुंडियां नदी के कुंड में फेंकी गईं. पुलिस की वरदी को कलंकित करने का कार्य पुलिस अधिकारी कर रहा था. कानून नाम की कोई चीज दूर तक नजर नहीं आ रही थी.

अंधविश्वास में जकड़ा समाज

ऐसा अंधविश्वास व पाखंड का नंगानाच धर्म के नाम पर हो रहा था. उसी जल से जिस में बकरों की मुंडियां डाली जा रही थीं, आम जनता नहा रही थी. उसी जल को पी कर अपने पूर्वजन्म के पापों को धो रही थी. भारत का संविधान समतामूलक, शोषणविहीन समाज की स्थापना के साथ ही हर जीवप्राणी को जीने का अधिकार देता है. ऐसे में खुलेआम बेजबान जानवरों का कत्लेआम कहां का न्याय है. इसी तरह कई जगह बलिप्रथा थी, जिसे बंद करवाया जा चुका है. यहां भी इस प्रथा को बंद किया जाना चाहिए. इस सिलसिले में कुछ जागरूक लोगों ने रतलाम के पुलिस अधीक्षक से शिकायत की है. लेकिन लगता नहीं है कि प्रशासन कोई पहल करेगा क्योंकि वह व उस के लोग भी तो अंधविश्वास के पुजारी हैं.

बच्चों के मुख से

पड़ोसी का 4 वर्षीय बेटा मोनू जब बच्चों के साथ पार्क में खेलने जाता तो अकसर एक बच्चे से मार खा कर रोता हुआ घर लौटता था. एक दिन उस की मम्मी ने कहा, ‘‘अब जब भी वह तुम्हें मारे तो तुम भी उस की पिटाई कर देना.’’ इस पर मोनू तपाक से बोला, ‘‘मम्मी, आप ही कहते हो कि गंदे बच्चे एकदूसरे को मारते हैं, मैं भी गंदा बच्चा बन जाऊं क्या?’’ मोनू का जवाब सुन कर उस की मम्मी की बोलती बंद हो गई.

निर्मल कांता गुप्ता, कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

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एक दिन मैं पार्क में बैठी थी. बच्चों को दौड़तेखेलते देख रही थी. तभी वहां एक महिला अपने पोते तथा कुत्ते के साथ आई और मेरे साथ बैंच पर बैठ गई. बच्चा लगभग 3-4 साल का था. वह गेंद को दूर तक फेंक देती और दोनों को दौड़ कर लाने को कहती. ऐसा कई बार हुआ और अधिकतर कुत्ता ही पहले गेंद को मुंह में दबाए ले आता. इस पर उस महिला ने अपने पोते से कहा, ‘‘देख, तू अच्छे से नहीं खातापीता न. इसलिए तू तेज दौड़ नहीं पाता है और कुत्ते से हार जाता है,’’ इस पर बच्चे ने कहा, ‘‘दादीमां, ऐसी बात नहीं है, असल में कुत्ते के 4 पैर हैं और मेरे तो 2 ही हैं. इसलिए वह मेरे से जीत जाता है,’’ उस की यह बात सुन कर मैं और उस की दादी हंस पड़ीं.

ईशू मूलचंदानी, नागपुर (महा.)

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एक बार मेरे कमरे की दीवार पर ढेरों चींटियां कतारबद्ध चल रही थीं. मेरा तीन साल का बेटा बहुत ही ध्यान से आधे घंटे से एक ही जगह खड़ेखड़े चींटियों को देख रहा था. मैं ने पूछा, ‘‘बाबू, आप आधे घंटे से क्या देख रहे हो इन चींटियों में?’’ उस ने तुरंत कहा, ‘‘मम्मी, इन लोगों में ऐक्सिडैंट नहीं होता क्या?’’ मैं ने सोचा, ये ऐसा क्यों पूछ रहा है, फिर समझ में आया कि जब चींटियां चलती हैं तो जातीआती चींटियां एकदूसरे से मुंह से मुंह सटा कर निकलती हैं. मुझे बेटे की बात पर पहले तो हंसी आई, फिर एक सोच उभरी कि हम इंसान कभीकभी कितने खुदगर्ज बन जाते हैं कि किसी परिचित को देख कर भी अनदेखा कर के निकल जाते हैं. हम से हजार गुना बेहतर तो ये नन्ही चींटियां हैं जिन की आंखें न (मैं ने कहीं पढ़ा था कि चींटियों के आंखें नहीं होतीं) होते हुए भी वे एकदूसरे से मिले बगैर आगे नहीं बढ़तीं.

उमा श्याम गट्टानी, जोरहाट (असम)

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