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हमारी बेडि़यां

हमारे दफ्तर में एक अधिकारी की नईनई पोस्ंटग हुई थी. पदोन्नति पा कर उन्होंने सीधे हमारे दफ्तर में जौइन किया था. उन में जोश कुछ ज्यादा था. कुरसी पर बैठते ही अपने चपरासी को फरमान सुना दिया कि मैं हर शनिवार को काली गाय को गुड़ और दाल (चने की दाल) खिला कर ही अपनी कुरसी पर बैठता हूं. मैं जब तक काली गाय को गुड़ और दाल खिला कर उस के पैर नहीं छू लेता तब तक कलम नहीं खोलता हूं. सो, तुम्हें हर शनिवार को काली गाय का इंतजाम करना पड़ेगा. काली गाय का इंतजाम करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं था. वहां तो तमाम गायें ऐसे ही घूमती रहती थीं. एक शनिवार काली गाय नहीं मिली. एक ऐसी गाय मिली जो पूरी काली तो थी लेकिन कहींकहीं उस की पीठ पर सफेद छींटे थे. अधिकारी ने देखते ही कहा कि यह तो पूरी काली नहीं है. हम लोगों ने समझाया कि साहब, 95 प्रतिशत यह काली है, सफेद छींटे का कोई खास मतलब नहीं है. हम लोगों के समझाने पर अधिकारी ने गाय को गुड़ और दाल खिलाई. अब गाय के पैर छूने की बारी थी, सो आगे के पैर तो उन्होंने आसानी से छू लिए लेकिन जैसे ही पिछले पैर छूने को बढ़े, गाय ने पीछे से लात मार दी. लात अधिकारी के सिर में लगी. खून बहने लगा. उन्हें हम लोगों ने अस्पताल में भरती करा दिया. कई दिन बाद जब वे दफ्तर आए तो उन्होंने हम लोगों से कहा कि तुम लोगों ने मेरे साथ धोखा किया. हम ने पूछा, ‘‘क्या?’’ वे बोले, ‘गाय पूरी काली नहीं थी, इसलिए उस ने मुझे लात मार दी.’

एस पी सिंह, लखनऊ (उ.प्र.)

*

मैं झारखंड राज्य के वैद्यनाथधाम देवघर नामक क्षेत्र में रहती हूं. यहां परंपरा है कि जब कोई मर जाएगा तब उसे मुखाग्नि देने वाला व्यक्ति 12 दिनों तक लगातार सुबह की बेला में श्मशानघाट पर जाएगा और नदी में स्नान कर के एक लोटा पानी मृतक के अस्थिकलश पर अर्पित करेगा. पिछले वर्ष 19 अक्तूबर को हमारे पड़ोस में रहने वाला एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति गुजर गया जिसे मुखाग्नि उस के 18 साल के बेटे ने दी. यह लड़का शरीर से थोड़ा रुग्ण है, फिर भी लोगों ने उस के लिए भी निर्धारित नियम लागू कर दिया. किंतु इस का परिणाम भयंकर साबित हुआ. लड़के को बुखार आ गया, सांस लेने में तकलीफ हुई. उसे अस्पताल में भरती कराया गया. हैरानी यह है कि स्थानीय लोग परंपरा बदलने के लिए अब भी तैयार नहीं हैं. 

प्रेमशीला गुप्ता, देवघर (झारखंड)

कमाल देखिए

सियासत की गहरी चाल देखिए

कभी तीर, कभी शमशीर, ढाल देखिए

वही मसीहा, सितमगर भी है वही

उन की रहमदिली का कमाल देखिए

होगा ये मुल्क कभी चिडि़या सोने की

अब आम आदमी को बदहाल देखिए

कर रहे हैं यूं तो हम रोज तरक्की

फिर भी मांगते हैं भीख, मिसाल देखिए

मांगते हैं हम जिंदगी से हिसाब

जिंदगी पूछती है हम से सवाल देखिए

हम ने ही उन्हें भेजा है दिल्ली भोपाल

दे रहे हैं वे हमें धक्के मजाल देखिए

माना कि हम हैं पंछी आजाद गगन के

मगर कभी शिकारी तो कभी जाल देखिए.

        – रमेशचंद्र शर्मा

शरशय्या

स्त्रियां अधिक यथार्थवादी होती हैं. जमीन व आसमान के संबंध में सब के विचार भिन्नभिन्न होते हैं परंतु इस संदर्भ में पुरुषों के और स्त्रियों के विचार में बड़ा अंतर होता है. जब कुछ नहीं सूझता तो किसी सशक्त और धैर्य देने वाले विचार को पाने के लिए पुरुष नीले आकाश की ओर देखता है, परंतु ऐसे समय में स्त्रियां सिर झुका कर धरती की ओर देखती हैं, विचारों में यह मूल अंतर है. पुरुष सदैव अव्यक्त की ओर, स्त्री सदैव व्यक्त की ओर आकर्षित होती है. पुरुष का आदर्श है आकाश, स्त्री का धरती. शायद इला को भी यथार्थ का बोध हो गया था. जीवन में जब जीवन को देखने या जीवन को समझने के लिए कुछ भी न बचा हो और जीवन की सांसें चल रही हों, ऐसे व्यक्ति की वेदना कितनी असह्य होगी, महज यह अनुमान लगाया जा सकता है. शायद इसीलिए उस ने आग और इलाज कराने से साफ मना कर दिया था. कैंसर की आखिरी स्टेज थी.

‘‘नहीं, अब और नहीं, मुझे यहीं घर पर तुम सब के बीच चैन से मरने दो. इतनी तकलीफें झेल कर अब मैं इस शरीर की और छीछालेदर नहीं कराना चाहती,’’ इला ने अपना निर्णय सुना दिया. जिद्दी तो वह थी ही, मेरी तो वैसे भी उस के सामने कभी नहीं चली. अब तो शिबू की भी उस ने नहीं सुनी. ‘‘नहीं बेटा, अब मुझे इसी घर में अपने बिस्तर पर ही पड़ा रहने दो. जीवन जैसेतैसे कट गया, अब आराम से मरने दो बेटा. सब सुख देख लिया, नातीपोता, तुम सब का पारिवारिक सुख…बस, अब तो यही इच्छा है कि सब भरापूरा देखतेदेखते आंखें मूंद लूं,’’ इला ने शिबू का गाल सहलाते हुए कहा और मुसकरा दी. कहीं कोई शिकायत, कोई क्षोभ नहीं. पूर्णत्वबोध भरे आनंदित क्षण को नापा नहीं जा सकता. वह परमाणु सा हो कर भी अनंत विस्तारवान है. पूरी तरह संतुष्टि और पारदर्शिता झलक रही थी उस के कथन में. मौत सिरहाने खड़ी हो तो इंसान बहुत उदार दिलवाला हो जाता है क्या? क्या चलाचली की बेला में वह सब को माफ करता जाता है? पता नहीं. शिखा भी पिछले एक हफ्ते से मां को मनाने की बहुत कोशिश करती रही, फिर हार कर वापस पति व बच्चों के पास कानपुर लौट गई. शिबू की छुट्टियां खत्म हो रही थीं. आंखों में आंसू लिए वह भी मां का माथा चूम कर वापस जाने लगा.

‘‘बस बेटा, पापा का फोन जाए तो फौरन आ जाना. मैं तुम्हारे और पापा के कंधों पर ही श्मशान जाना चाहती हूं.’’ एअरपोर्ट के रास्ते में शिबू बेहद खामोश रहा. उस की आंखें बारबार भर आती थीं. वह मां का दुलारा था. शिखा से 5 साल छोटा. मां की जरूरत से ज्यादा देखभाल और लाड़प्यार ने उसे बेहद नाजुक और भावनात्मक रूप से कमजोर बना दिया था. शिखा जितनी मुखर और आत्मविश्वासी थी वह उतना ही दब्बू और मासूम था. जब भी इला से कोई बात मनवानी होती थी, तो मैं शिबू को ही हथियार बनाता. वह कहीं न कहीं इस बात से भी आहत था कि मां ने उस की भी बात नहीं मानी या शायद मां के दूर होने का गम उसे ज्यादा साल रहा था.

आजकल के बच्चे काफी संवेदनशील हो चुके हैं, इस सामान्य सोच से मैं भी इत्तफाक रखता था. हमारी पीढ़ी ज्यादा भावुक थी लेकिन अपने बच्चों को देख कर लगता है कि शायद मैं गलत हूं. ऐसा नहीं कि उम्र के साथ परिपक्व हो कर भी मैं पक्का घाघ हो गया हूं. जब अम्मा खत्म हुई थीं तो शायद मैं भी शिबू की ही उम्र का रहा होऊंगा. मैं तो उन की मृत्यु के 2 दिन बाद ही घर पहुंच पाया था. घर में बाबूजी व बड़े भैया ने सब संभाल लिया था. दोनों बहनें भी पहुंच गई थीं. सिर्फ मैं ही अम्मा को कंधा न दे सका. पर इतने संवेदनशील मुद्दे को भी मैं ने बहुत सहज और सामान्य रूप से लिया. बस, रात में ट्रेन की बर्थ पर लेटे हुए अम्मा के साथ बिताए तमाम पल छनछन कर दिमाग में घुमड़ते रहे. आंखें छलछला जाती थीं, इस से ज्यादा कुछ नहीं. फिर भी आज बच्चों की अपनी मां के प्रति इतनी तड़प और दर्द देख कर मैं अपनी प्रतिक्रियाओं को अपने तरीके से सही ठहरा कर लेता हूं. असल में अम्मा के 4 बच्चों में से मेरे हिस्से में उन के प्यार व परवरिश का चौथा हिस्सा ही तो आया होगा. इसी अनुपात में मेरा भी उन के प्रति प्यार व परवा का अनुपात एकचौथाई रहा होगा, और क्या. लगभग एक हफ्ते से मैं शिबू को बराबर देख रहा था. वह पूरे समय इला के आसपास ही बना रहता था. यही तो इला जीवनभर चाहती रही थी. शिबू की पत्नी सीमा जब सालभर के बच्चे से परेशान हो कर उस की गोद में उसे डालना चाहती तो वह खीझ उठता, ‘प्लीज सीमा, इसे अभी संभालो, मां को दवा देनी है, उन की कीमो की रिपोर्ट पर डाक्टर से बात करनी है.’

वाकई इला है बहुत अच्छी. वह अकसर फूलती भी रहती, ‘मैं तो राजरानी हूं. राजयोग ले कर जन्मी हूं.’ मैं उस के बचकानेपन पर हंसता. अगर मैं उस की दबंगई और दादागीरी इतनी शराफत और शालीनता से बरदाश्त न करता तो उस का राजयोग जाता पानी भरने. जैसे वही एक प्रज्ञावती है, बाकी सारी दुनिया तो घास खाती है. ठीक है कि घरपरिवार और बच्चों की जिम्मेदारी उस ने बहुत ईमानदारी और मेहनत से निभाई है, ससुराल में भी सब से अच्छा व्यवहार रखा लेकिन इन सब के पीछे यदि मेरा मौरल सपोर्ट न होता तो क्या कुछ खाक कर पाती वह? मौरल सपोर्ट शायद उपयुक्त शब्द नहीं है. फिर भी अगर मैं हमेशा उस की तानाशाही के आगे समर्पण न करता रहता और दूसरे पतियों की तरह उस पर हुक्म गांठता, उसे सताता तो निकल गई होती उस की सारी हेकड़ी. लगभग 45 वर्ष के वैवाहिक जीवन में ऐसे कई मौके आए जब वह महीनों बिसूरती रही, ‘मेरा तो भविष्य बरबाद हो गया जो तुम्हारे पल्ले बांध दी गई, कभी विचार नहीं मिले, कोई सुख नहीं मिला, बच्चों की खातिर घर में पड़ी हूं वरना कब का जहर खा लेती.’ बीच में तो वह 3-4 बार महीनों के लिए गहरे अवसाद में जा चुकी है. हालांकि इधर जब से उस ने कीमोथैरेपी न कराने का निश्चय कर लिया था, और आराम से घर पर रह कर मृत्यु का स्वागत करना तय किया था, तब से वह मुझे बेहद फिट दिखाई दे रही थी. उस की 5%-5%% की धाकड़ काया जरूर सिकुड़ के बच्चों जैसी हो गई थी लेकिन उस के दिमाग और जबान में उतनी ही तेजी थी. उस की याददाश्त तो वैसे भी गजब की थी, इस समय वह कुछ ज्यादा ही अतीतजीवी हो गई थी. उम्र और समय की भारीभरकम शिलाओं को ढकेलती अपनी यादों के तहखाने में से वह न जाने कौनकौन सी तसवीरें निकाल कर अकसर बच्चों को दिखलाने लगती थी.

उस की नींद बहुत कम हो गई थी, उस के सिर पर हाथ रखा तो उस ने झट से पलकें खोल दीं. दोनों कोरों से दो बूंद आंसू छलक पड़े.

‘‘शिबू के लिए काजू की बरफी खरीदी थी?’’

‘‘हां भई, मठरियां भी रखवा दी थीं.’’ मैं ने उस का सिर सहलाते हुए कहा तो वह आश्वस्त हो गई.

‘‘नर्स के आने में अभी काफी समय है न?’’ उस की नजरें मुझ पर ठहरी थीं.

‘‘हां, क्यों? कोई जरूरत हो तो मुझे बताओ, मैं हूं न.’’

‘‘नहीं, जरूरत नहीं है. बस, जरा दरवाजा बंद कर के तुम मेरे सिरहाने आ कर बैठो,’’ उस ने मेरा हाथ अपने सिर पर रख लिया, ‘‘मरने वाले के सिर पर हाथ रख कर झूठ नहीं बोलते. सच बताओ, रानी भाभी से तुम्हारे संबंध कहां तक थे?’’ मुझे करंट लगा. सिर से हाथ खींच लिया. सोते हुए ज्वालामुखी में प्रवेश करने से पहले उस के ताप को नापने और उस की विनाशक शक्ति का अंदाज लगाने की सही प्रतिभा हर किसी में नहीं होती, ‘‘पागल हो गई हो क्या? अब इस समय तुम्हें ये सब क्या सूझ रहा है?’’

‘‘जब नाखून बढ़ जाते हैं तो नाखून ही काटे जाते हैं, उंगलियां नहीं. सो, अगर रिश्ते में दरार आए तो दरार को मिटाओ, न कि रिश्ते को. यही सोच कर चुप थी अभी तक, पर अब सच जानना चाहती हूं. सूझ तो बरसों से रहा है बल्कि सुलग रहा है, लेकिन अभी तक मैं ने खुद को भ्रम का हवाला दे कर बहलाए रखा. बस, अब जातेजाते सच जानना चाहती हूं.’’

‘‘जब अभी तक बहलाया है तो थोड़े दिन और बहलाओ. वहां ऊपर पहुंच कर सब सचझूठ का हिसाब कर लेना,’’ मैं ने छत की तरफ उंगली दिखा कर कहा. मेरी खीज का उस पर कोई असर नहीं था.

‘‘और वह विभा, जिसे तुम ने कथित रूप से घर के नीचे वाले कमरे में शरण दी थी, उस से क्या तुम्हारा देह का भी रिश्ता था?’’

‘‘छि:, तुम सठिया गई हो क्या? ये क्या अनापशनाप बक रही हो? कोई जरूरत हो तो बताओ वरना मैं चला.’’ मैं उन आंखों का सामना नहीं करना चाहता था. क्षोभ और अपमान से तिलमिला कर मैं अपने कमरे में आ गया. शिबू ने जातेजाते कहा था, मां को एक पल के लिए भी अकेला मत छोडि़एगा. ऐसा नहीं है कि ये सब बातें मैं ने पहली बार उस की जबान से सुनी हैं, पहले भी ऐसा सुना है. मुझे लगा था कि वह अब सब भूलभाल गई होगी. इतने लंबे अंतराल में बेहद संजीदगी से घरगृहस्थी के प्रति समर्पित इला ने कभी इशारे से भी कुछ जाहिर नहीं किया. हद हो गई, ऐसी बीमारी और तकलीफ में भी खुराफाती दिमाग कितना तेज काम कर रहा था. मेरे मन के सघन आकाश से विगत जीवन की स्मृतियों की वर्षा अनेक धाराओं में होने लगी. कभीकभी तो ये ऐसी मूसलाधार होती हैं कि उस के निरंतर आघातों से मेरा शरीर कहीं छलनीछलनी न हो जाए, ऐसा संदेह मुझ को होने लगता है. परंतु मन विचित्र होता है, उसे जितना बांधने का प्रयत्न किया जाए वह उतना ही स्वच्छंद होता जाता है. जो वक्त बीत गया वह मुंह से निकले हुए शब्द की तरह कभी लौट कर वापस नहीं आता लेकिन उस की स्मृतियां मन पर ज्यों की त्यों अंकित रह जाती हैं.

रानी भाभी की नाजोअदा का जादू मेरे ही सिर चढ़ा था. 17-18 की अल्हड़ और नाजुक उम्र में मैं उन के रूप का गुलाम बन गया था. भैया की अनुपस्थिति में भाभी के दिल लगाए रखने का जिम्मा मेरा था. बड़े घर की लड़की के लिए इस घर में एक मैं ही था जिस से वे अपने दिल का हाल कहतीं. भाभी थीं त्रियाचरित्र की खूब मंजी खिलाड़ी, अम्मा तो कई बार भाभी पर खूब नाराज भी हुई थीं, मुझे भी कस कर लताड़ा तो मैं भी अपराधबोध से भर उठा था. कालेज में ऐडमिशन लेने के बाद तो मैं पक्का ढीठ हो गया. अकसर भाभी के साथ रिश्ते का फायदा उठाते हुए पिक्चर और घूमना चलता रहा. इला जब ब्याह कर घर आई तो पासपड़ोस की तमाम महिलाओं ने उसे गुपचुप कुछ खबरदार कर दिया था. साधारण रूपरंग वाली इला भाभी के भड़कीले सौंदर्य पर भड़की थी या सुनीसुनाई बातों पर, काफी दिन तो मुझे अपनी कैफियत देते ही बीते, फिर वह आश्चर्यजनक रूप से बड़ी आसानी से आश्वस्त हो गई थी. वह अपने वैवाहिक जीवन का शुभारंभ बड़ी सकारात्मक सोच के साथ करना चाहती थी या कोई और वजह थी, पता नहीं.

भाभी जब भी घर आतीं तो इला एकदम चौकन्नी रहती. उम्र की ढलान पर पहुंच रही भाभी के लटकेझटके अभी भी एकदम यौवन जैसे ही थे. रंभाउर्वशी के जींस ले कर अवतरित हुई थीं वे या उन के तलवों में साक्षात पद्मिनी के लक्षण थे, पता नहीं? उन की मत्स्यगंधा देह में एक ऐसा नशा था जो किसी भी योगी का तप भंग कर सकता था. फिर मैं तो कुछ ज्यादा ही अदना सा इंसान था. दूसरे दिन नर्स के जाते ही वह फिर आहऊह कर के बैठने की कोशिश करने लगी. मैं ने तकिया पीछे लगा दिया.

‘‘कोई तुम्हारी पसंद की सीडी लगा दूं? अच्छा लगेगा,’’ मैं सीडी निकालने लगा.

‘‘रहने दो, अब तो कुछ दिनों के बाद सब अच्छा और शांति ही शांति है, परम शांति. तुम यहां आओ, मेरे पास आ कर बैठो,’’ वह फिर से मुझे कठघरे में खड़ा होने का शाही फरमान सुना रही थी.

‘‘ठीक है, मैं यहीं बैठा हूं. बोलो, कुछ चाहिए?’’

‘‘हां, सचसच बताओ, जब तुम विभा को दुखियारी समझ कर घर ले कर आए थे और नीचे बेसमैंट में उस के रहनेखाने की व्यवस्था की थी, उस से तुम्हारा संबंध कब बन गया था और कहां तक था?’’

‘‘फिर वही बात? आखिरी समय में इंसान बीती बातों को भूल जाता है और तुम.’’

‘‘मैं ने तो पूरी जिंदगी भुलाने में ही बिताई है,’’ वह आंखें बंद कर के हांफने लगी. फिर वह जैसे खुद से ही बात करने लगी थी, ‘‘समझौता. कितना मामूली शब्द है मगर कितना बड़ा तीर है जो जीवन को चुभ जाता है तो फांस का अनदेखा घाव सा टीसता है. अब थक चुकी हूं जीवन जीने से और जीवन जीने के समझौते से भी. जिन रिश्तों में सब से ज्यादा गहराई होती है वही रिश्ते मुझे सतही मिले. जिस तरह समुद्र की अथाह गहराई में तमाम रत्न छिपे होते हैं, साथ में कई जीवजंतु भी रहते हैं, उसी तरह मेरे भीतर भी भावनाओं के बेशकीमती मोती थे तो कुछ बुराइयों जैसे जीवजंतु भी. कोई ऐसा गोताखोर नहीं था जो उन जीवजंतुओं से लड़ता, बचताबचाता उन मोतियों को देखता, उन की कद्र करता. सब से गहरा रिश्ता मांबाप का होता है. मां अपने बच्चे के दिल की गहराइयों में उतर कर सब देख लेती है लेकिन मेरे पास में तो वह मां भी नहीं थी जो मुझे थोड़ा भी समझ पाती.

‘‘दूसरा रिश्ता पति का था, वह भी सतही. जब अपना दिल खोल कर तुम्हारे सामने रखना चाहती तो तुम भी नहीं समझते थे क्योंकि शायद तुम गहरे में उतरने से डरते थे क्योंकि मेरे दिल के आईने में तुम्हें अपना ही अक्स नजर आता जो तुम देखना नहीं चाहते थे और मुझे समझने में भूल करते रहे…’’

‘‘देखो, तुम्हारी सांस फूल रही है. तुम आराम करो, इला.’’

‘‘वह नवंबर का महीना था शायद, रात को मेरी नींद खुली तो तुम बिस्तर पर नहीं थे, सारे घर में तुम्हें देखा. नीचे से धीमीधीमी बात करने की आवाज सुनाई दी. मैं ने आवाज भी दी मगर तब फुसफुसाहट बंद हो गई. मैं वापस बैडरूम में आई तो तुम बिस्तर पर थे. मेरे पूछने पर तुम ने बहाना बनाया कि नीचे लाइट बंद करने गया था.’’ ‘‘अच्छा अब बहुत हो गया. तुम इतनी बीमार हो, इसीलिए मैं तुम्हें कुछ कहना नहीं चाहता. वैसे, कह तो मैं पूरी जिंदगी कुछ नहीं पाया. लेकिन प्लीज, अब तो मुझे बख्श दो,’’ खीज और बेबसी से मेरा गला भर आया. उस के अंतिम दिनों को ले कर मैं दुखी हूं और यह है कि न जाने कहांकहां के गड़े मुर्दे उखाड़ रही है. उस घटना को ले कर भी उस ने कम जांचपड़ताल नहीं की थी. विभा ने भी सफाई दी थी कि वह अपने नन्हे शिशु को दुलार रही थी लेकिन उस की किसी दलील का इला पर कोई असर नहीं हुआ. उसे निकाल बाहर किया, पता नहीं वह कैसे सच सूंघ लेती थी.

‘‘उस दिन मैं कपड़े धो रही थी, तुम मेरे पीछे बैठे थे और वह मुझ से छिपा कर तुम्हें कोई इशारा कर रही थी. और जब मैं ने उसे ध्यान से देखा तो वह वहां से खिसक ली थी. मैं ने पहली नजर में ही समझ लिया था कि यह औरत खूब खेलीखाई है, पचास बार तो पल्ला ढलकता है इस का, तुम को तो खैर दुनिया की कोई भी औरत अपने पल्लू में बांध सकती है. याद है, मैं ने तुम से पूछा भी था पर तुम ने कोई जवाब नहीं दिया था, बल्कि मुझे यकीन दिलाना चाहते थे कि वह तुम से डरती है, तुम्हारी इज्जत करती है.’’

तब शिखा ने टोका भी था, ‘मां, तुम्हारा ध्यान बस इन्हीं चीजों की तरफ जाता है, मुझे तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखता.’

मां की इन ठेठ औरताना बातों से शिखा चिढ़ जाती थी, ‘कौन कहेगा कि मेरी मां इतने खुले विचारों वाली है, पढ़ीलिखी है?’ उन दिनों मेरे दफ्तर की सहकर्मी चित्रा को ले कर जब उस ने कोसना शुरू किया तो भी शिखा बहुत चिढ़ गई थी, ‘मेरे पापा हैं ही इतने डीसैंट और स्मार्ट कि कोई भी महिला उन से बात करना चाहेगी और कोई बात करेगा तो मुसकरा कर, चेहरे की तरफ देख कर ही करेगा न?’ बेटी ने मेरी तरफदारी तो की लेकिन उस के सामने इला की कोसने वाली बातें सुन कर मेरा खून खौलने लगा था. मुझे इला के सामने जाने से भी डर लगने लगा था. मन हुआ कि शिखा को एक बार फिर वापस बुला लूं, लेकिन उस की भी नौकरी, पति, बच्चे सब मैनेज करना कितना मुश्किल है. दोपहर में खाना खिला कर इला को लिटाया तो उस ने फिर मेरा हाथ थाम लिया, ‘‘तुम ने मुझे बताया नहीं. देखो, अब तो मेरा आखिरी समय आ गया है, अब तो मुझे धोखे में मत रखो, सचसच बता दो.’’

‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है, पूरी जिंदगी बीत गई है. अब तक तो तुम ने इतनी जिरह नहीं की, इतना दबाव नहीं डाला मुझ पर, अब क्यों?’’

‘‘इसलिए कि मैं स्वयं को धोखे में रखना चाहती थी. अगर तुम ने दबाव में आ कर कभी स्वीकार कर लिया होता तो मुझे तुम से नफरत हो जाती. लेकिन मैं तुम्हें प्रेम करना चाहती थी, तुम्हें खोना नहीं चाहती थी. मैं तुम्हारे बच्चों की मां थी, तुम्हारे साथ अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहती थी. तुम्हारे गुस्से को, तुम्हारी अवहेलना को मैं ने अपने प्रेम का हिस्सा बना लिया था, इसीलिए मैं ने कभी सच जानने के लिए इतना दबाव नहीं डाला.

‘‘फिर यह भी समझ गई कि प्रेम यदि किसी से होता है तो सदा के लिए होता है, वरना नहीं होता. लेकिन अब तो मेरी सारी इच्छाएं पूरी हो गई हैं, कोई ख्वाहिश बाकी नहीं रही. फिर सीने पर धोखे का यह बोझ ले कर क्यों जाऊं? मरना है तो हलकी हो कर मरूं. तुम्हें मुक्त कर के जा रही हूं तो मुझे भी तो शांति मिलनी चाहिए न? अभी तो मैं तुम्हें माफ भी कर सकती हूं, जो शायद पहले बिलकुल न कर पाती.’’ ओफ्फ, राहत का एक लंबा गहरा उच्छ्वास…तो इन सब के लिए अब ये मुझे माफ कर सकती है. वह अकसर गर्व से कहती थी कि उस की छठी इंद्रिय बहुत शक्तिशाली है. खोजी कुत्ते की तरह वह अपराधी का पता लगा ही लेती है. लेकिन ढलती उम्र और बीमारी की वजह से उस ने अपनी छठी इंद्रिय को आस्था और विश्वास का एनेस्थिसिया दे कर बेहोश कर दिया था या कहीं बूढ़े शेर को घास खाते हुए देख लिया होगा. इसी से मैं आज बच गया

सच और विश्वास की रेशमी चादर में इत्मीनान से लिपटी जब वह अपने बच्चों की दुनिया में मां और नानी की भूमिका में आकंठ डूबी हुई थी, उन्हीं दिनों मेरी जिंदगी के कई राज ऐसे थे जिन के बारे में उसे कुछ भी पता नहीं. अब इस मुकाम पर मैं उस से कैसे कहता कि मुझे लगता है यह दुनिया 2 हिस्सों में बंटी हुई है. एक, त्याग की दुनिया है और दूसरी धोखे की. जितनी देर किसी में हिम्मत होती है वह धोखा दिए जाता है और धोखा खाए जाता है और जब हिम्मत चुक जाती है तो वह सबकुछ त्याग कर एक तरफ हट कर खड़ा हो जाता है. मिलता उस तरफ भी कुछ नहीं है, मिलता इस तरफ भी कुछ नहीं है. मेरी स्थिति ठीक उसी बरगद की तरह थी जो अपनी अनेक जड़ों से जमीन से जुड़ा रहता है, अपनी जगह अटल, अचल. कैसे कभीकभी एक अनाम रिश्ता इतना धारदार हो जाता है कि वह बरसों से पल रहे नामधारी रिश्ते को लहूलुहान कर जाता है. यह बात मेरी समझ से परे थी.

जिंदगी

कहने को तो हम

जिंदा हैं मगर

बस चल रही हैं सांसें

यूं ही बेतरतीब सी

बेजान शरीर का बोझ उठाए

चलते जा रहे हैं हम

पर क्या सचमुच

वाकई हम जिंदा हैं?

जब निष्प्राण हैं सब भावनाएं

दम तोड़ रही है इंसानियत

बेजान हो गए हैं रिश्ते

क्या जिंदगी सिर्फ यही है?

सिर्फ जिंदा मत रहो दोस्त

आगे बढ़ कर जी लो तुम

बांट लो किसी का दर्द

अपना दुख भी कर लो कम

जिंदगी जीने के लिए ही तो है

तुम मुरदों के नहीं

जिंदा इंसानों के शहर में रहते हो

इसीलिए भावनाओं में प्राण दो

और इंसानियत को बल दो

किसी का गम अपनाओ

किसी की खुशियां बन जाओ

क्योंकि हम जिंदा हैं

और जिंदगी हमीं से है.

                 – अर्चना भारद्वाज

बात ऐसे बनी

मैं ने शिक्षक पद हेतु साक्षात्कार के लिए अपने पैतृक गांव से सिल्चर के लिए प्रस्थान किया. वर्ष 1993 में अगस्त का महीना था. असम में भयंकर बाढ़ आई हुई थी. ट्रेन सेवा ठप हो गई थी. यात्रियों की भीड़ थी. मैं किसी तरह बिहार पहुंचा. वहां से गुवाहाटी जाने के लिए बस पर सवार हुआ. बस के चलने में कुछ देरी थी. मुझे प्यास लग रही थी. मैं अपनी अटैची बस में छोड़ कर सामने एक नल पर पानी पीने गया. पानी पीने के बाद मैं ने बस की तरफ मुड़ कर देखा तो बस वहां नहीं थी. मेरे सारे मूल प्रमाणपत्र अटैची में ही थे. मुझे चिंता होने लगी कि मैं साक्षात्कार कैसे दे पाऊंगा. मैं चारों तरफ देख रहा था. बसों का रंग, आकार एकजैसा होने के कारण पहचान नहीं पा रहा था. अचानक आवाज सुनाई दी, ‘‘ए लड़के, इधर आ.’’ मैं ने मुड़ कर देखा, वह बस का कंडक्टर था. वह मुझ पर गुस्सा कर रहा था. मैं चुप रहा. उस ने कहा कि अब बस से नीचे उतरना तो ड्राइवर या कंडक्टर से पूछ लेना कि बस कितनी देर तक रुकेगी. मैं अपनी सीट पर बैठ गया. गुवाहाटी पहुंच गया. वहां से सिल्चर गया. सफलता मिली. आज मैं शिक्षक हूं. कंडक्टर की हिदायत अभी तक याद है. उस ने मुझे हिदायत दी थी कि कभी भी बस से ड्राइवर या कंडक्टर से पूछे बिना नहीं उतरना. उस दिन को नहीं भूलता. अब मैं यात्रा के दौरान बस या ट्रेन से उतर कर पानी पीने या कोई सामान खरीदने में बहुत सावधानी बरतता हूं.

अनिरुद्ध पाठक, धनबाद (झारखंड)

*

मैं बीए की छात्रा थी. मेरी बड़ी बहन अपने 3 साल के बेटे बबलू को ले कर ससुराल से आई थी. बबलू बहुत प्यारा था. मैं रोज उसे शाम को घर के आसपास घुमाती थी. हमारे घर के सामने एक प्रोफैसर साहब रहते थे. अपनी खिड़की से ही देखते रहते थे. एक दिन उन्होंने बबलू को अपने पास बुला कर उस से बातें कीं और चौकलेट दी. फिर तो वे अकसर बबलू के साथ खेलते व उसे अपने घर ले जाते. बबलू तो थोड़े दिनों बाद अपनी मां के साथ चला गया पर प्रोफैसर व मेरी घनिष्टता बढ़ती गई. परिणाम यह हुआ कि आज वे बबलू के मौसा हैं. प्रोफैसर साहब ने बतलाया, ‘‘बबलू के साथसाथ आप भी हमें अच्छी लगती थीं. कारण यह नहीं था कि आप सुंदर थीं, जिस प्यार तथा ममता से आप बबलू को खिलाती थीं उस ने हमें आकर्षित किया. मां तो हमारी बचपन में ही चल बसी थीं. पिता ने दूसरी शादी की और सौतेली मां ने पूरा सौतेलापन दिखाया. प्यारममता को तरस गए थे. वह आप में दिखा.’’ यह कहतेकहते उन की आंखें नम हो गईं. 

आशा भटनागर, कल्याण (महा.)

सूक्तियां

तर्क

जो तर्क करने को तैयार न हो वह अंधविश्वासी, जो तर्क न कर सके वह मूर्ख और जिस में तर्क करने का साहस ही न हो वह गुलाम है.

रहस्य

जिस ने इतना भी जाहिर कर दिया कि उस के पास कोई भेद है, तो उस ने आधा भेद तो खोल दिया, बाकी आधा वह कब तक सुरक्षित रख पाएगा?

प्रायश्चित्त

आदमी अपने गलत काम का सब से अच्छा प्रायश्चित्त यह कर सकता है कि दूसरों को वैसा करने से आगाह कर दे.

इंद्रियां

जिस पुरुष की इंद्रियां अपने वश में नहीं वह एक ऐसा मकान है जिस की दीवारें गिर चुकी हैं.

परिश्रम

प्रतिभा किसी बड़े काम को शुरू तो कर लेती है, किंतु कठोर श्रम ही उसे पूरा करता है.

सज्जन

सज्जन वही है जो उन व्यक्तियों का भी सम्मान करता है जो उस के किसी काम नहीं आ सकते.

समय

भूत और भविष्य सब से अच्छा लगता है, वर्तमान सब से बुरा.

निन्यानवे का चक्कर

पतिपत्नी

पहले थे 63,

समय बीतने के साथ

हो गए 36,

क्योंकि सारा चक्कर

99 का था.

    – राजेंद्र श्रीवास्तव

टू फिंगर टैस्ट

सरिता ने अपने अप्रैल (द्वितीय) अंक की कवर स्टोरी ‘टू फिंगर टैस्ट, बलात्कार के बाद फिर बलात्कार’ में कहा था कि टू फिंगर टैस्ट अवैज्ञानिक व अमानवीय है और उसे बलात्कार की शिकार महिला के लिए मैडिकल बलात्कार करार दिया था. यह बात दिल्ली सरकार द्वारा हाल ही में जारी गाइडलाइंस में कही गई है. दिल्ली सरकार के सूत्रों के अनुसार दिल्ली सरकार अपने उस विवादित आदेश को वापस लेगी जिस में बलात्कार पीडि़ता के लिए टू फिंगर टैस्ट की इजाजत देने की बात कही गई थी. दिल्ली सरकार का इस बारे में कहना है कि एक अधिकारी की गलती की वजह से ऐसा आदेश जारी हुआ था, इस के लिए उस के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी. दिल्ली सरकार के इस विवादित आदेश का सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा भी लंबे समय से विरोध होता रहा है. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि टू फिंगर टैस्ट पीडि़ता को उतनी ही पीड़ा पहुंचाता है जितना उस के साथ हुआ रेप. कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी देते हुए यह भी कहा था कि इस से पीडि़ता का अपमान होता है और यह उस के अधिकारों का हनन भी है.

टू फिंगर टैस्ट अमानवीय व अवैज्ञानिक है क्योंकि बलात्कार जैसा दंश झेल रही पीडि़ता को जब टू फिंगर टैस्ट से गुजरना पड़ता है तो उस के जख्म नए सिरे से रिसने लगते हैं. इस टैस्ट से औरत के स्वाभिमान, उस की इज्जत को ठेस पहुंचती है. उक्त महिला हो सकता है हस्तमैथुन करती हो, एंजौयमैंट के लिए सैक्स टौयज यूज करती हो. ऐसे में टीएफटी के आधार पर किसी महिला को बदचलन करार दिया जाना सरासर गलत है और रेप के बाद टीएफटी टैस्ट दोबारा रेप करने जैसा है.

दिल्ली सरकार द्वारा जारी नए दिशानिर्देश के अनुसार :

1.            बलात्कार के हर मामले में टू फिंगर टैस्ट जरूरी नहीं होगा.

2.            पीडि़ता सहमत होगी तभी टू फिंगर टैस्ट किया जाएगा.

3.            अगर पीडि़ता नाबालिग हो तो उस के मातापिता की सहमति के बाद ही टू फिंगर टैस्ट किया जाएगा.

4.            पीडि़ता के चरित्र पर प्रश्न नहीं खड़े किए जाएंगे.

5.            टू फिंगर टैस्ट से यह नहीं समझा जाएगा कि पीडि़ता पहले भी यौन संबंध बना चुकी है. टू फिंगर टैस्ट कोई चरित्र प्रमाणपत्र नहीं होगा.

6.            टैस्ट के बहाने निजता का हनन नहीं किया जाएगा.

7.            टैस्ट के दौरान रिकौर्ड में महिला पुलिस कौंस्टेबल के हस्ताक्षर अनिवार्य होंगे.

8.            अस्पताल प्रशासन यह चैक करेगा कि डाक्टर दिशानिर्देशों का पालन कर रहे हैं अथवा नहीं.

दिल्ली सरकार द्वारा बनी टीम, जिस में 2 स्त्री रोग विशेषज्ञ व एक फोरैंसिक विशेषज्ञ शामिल हैं, ने 14 पन्नों के दिशानिर्देश जारी किए हैं. ये सभी दिशानिर्देश वही हैं जो सरिता की एक्सपर्ट पैनल टीम ने दिए थे. उम्मीद जताई जा सकती है कि इस नई गाइडलाइंस से टीएफटी जैसे उस भयावह मैडिकल प्रोसैस पर रोक लगेगी जिस से पीडि़ता को यौन उत्पीड़न के बाद गुजरना पड़ता है और अन्य राज्य भी इसे अपनाएंगे.

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