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पार्टी चंदा बन गया गले की फांस

भारतीय राजनीति में इस समय अगर कोई सब से विवादित विषय है तो वह है पार्टी फंड. राजनीतिक पार्टियां इस पर चर्चा करने से बचती हैं. यही कारण है कि पार्टी चंदे को ये सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखने के पक्ष में हैं. तृणमूल के पार्टी चंदे को ले कर चर्चा का बाजार गरम है. इस से पहले इसी दौर से गुजर चुकी है आम आदमी पार्टी. उस का चुनाव आयोग को चुनाव खर्च का ब्योरा देने में टालमटोल रवैया चर्चा का विषय रहा है. वैसे पार्टी चंदे के मामले में आम आदमी पार्टी को केंद्र से क्लीनचिट मिल चुकी है और अब मामला ठंडा पड़ चुका है. तृणमूल पार्टी में चंदे और पार्टी की आय को ले कर विवाद थमने का नाम  नहीं ले रहा है. चुनाव आयोग को पार्टी ने आयव्यय का जो हिसाब दिया वह सारदा चिटफंड कांड मामले की जांच कर रही सीबीआई को दिए गए हिसाब से न केवल अलग है बल्कि उस में जमीनआसमान का फर्क है. ऐसे में सवाल उठता है कि किस हिसाब को सही माना जाए. गौरतलब है कि सारदा चिटफंड मामले की जांच में जो तथ्य निकल कर आए हैं उन से सीबीआई को शक है कि आम लोगों की गाढ़ी कमाई का पैसा पार्टी फंड में गया है.

चुनाव आयोग व आयकर में छूट

आयकर में छूट पाने के मकसद से राजनीतिक पार्टियां चुनाव आयोग को अपने आयव्यय का हिसाब देती हैं. एसोसिएशन फौर डैमोक्रेटिक रिफौर्म यानी एडीआर की एक रिपोर्ट से साफ है कि तमाम राजनीतिक पार्टियों के 75 प्रतिशत चंदे का स्रोत अज्ञात होता है. 2004-05 से ले कर 2011-12 यानी 8 सालों में राजनीतिक पार्टियों को 4,895 करोड़ रुपए का चंदा मिला, जिस में से 3,674 करोड़ रुपए का चंदा अज्ञात स्रोत से मिला है. एडीआर की रिपोर्ट में कांगे्रस, भाजपा, माकपा, भाकपा, बसपा और एनसीपी जैसी पार्टियों से मिले आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है.

सारदा का पैसा पार्टी में

सारदा चिटफंड कांड के बाद सीबीआई की जांच में पाया गया कि सारदा के पैसे के बल पर ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांगे्रस ने 2012 में विधानसभा चुनाव लड़ा है. सारदा मीडिया, जिस में पिं्रट और इलैक्ट्रौनिक दोनों मीडिया शामिल हैं, की भूमिका इस जीत में बड़ा फैक्टर रही है. वहीं तृणमूल सरकार बनने के बाद जितने भी उपचुनाव हुए, सब में सारदा ने पानी की तरह पैसा बहाया है. माना जा रहा है कि 2010 में सिंगूर और नंदीग्राम में कृषि जमीन के अधिग्रहण के बाद आंदोलन की जो पृष्ठभूमि तैयार हुई उस में सारदा मीडिया का बड़ा हाथ रहा है.

पेंटिंग्स की बिक्री से आय

सीबीआई ने तृणमूल से 2010 से ले कर 2014 तक पार्टी के आयव्यय का हिसाब भी मांगा. चूंकि तृणमूल की ओर से जो हिसाब दिया गया है उस में दावा किया गया है कि पार्टी फंड का एक बड़ा हिस्सा पार्टी आलाकमान की पेंटिंग्स की बिक्री से मिली रकम का है. इसीलिए अब सीबीआई की ओर से पेंटिंग्स की बिक्री का भी विस्तृत हिसाब मांगा गया है. लेकिन अब तक उस का जो भी हिसाब सामने आ रहा है, वह बहुत ही भ्रामक है.ममता की पेंटिंग्स की बिक्री का जो हिसाब पार्टी के पूर्व महासचिव मुकुल राय ने चुनाव आयोग को दिया है उस में पेंटिंग्स की बिक्री से 2011-12 में 3.94 करोड़ रुपए और 2012-13 में 2.53 करोड़ रुपए की आय की घोषणा की गई थी. सारदा कांड की जांच के दौरान पार्टी फंड का मामला जब तक गरमाया तब तक मुकुल राय की पार्टी के तमाम बड़े पदों से छुट्टी की जा चुकी थी. लेकिन पार्टी के अलगअलग स्तरों पर सार्वजनिक तौर पर जो हिसाब बताए जा रहे हैं उन से एक तरफ और अधिक भ्रम फैल रहा है तो दूसरी तरफ राज्य की जनता भी पार्टी को शक की नजर से देख रही है.

गौरतलब है कि सीबीआई को पेंटिंग्स की बिक्री का विस्तृत हिसाब भेजे जाने से पहले खुद ममता ने ही निगम चुनाव के दौरान आयोजित 2 जनसभाओं में अलगअलग हिसाब दिया. पहली बार ममता ने कहा कि 2 या 3 प्रदर्शनियों में 250-300 पेंटिंग्स ही प्रदर्शित की गई थीं, जिन में एक पेंटिंग 20 लाख रुपए में बिकी. बाकी अन्य 1 लाख से 5 लाख रुपए में बिकीं. बहुत सारी पेंटिंग्स उन्होंने अपने प्रशंसकों को ऐसे ही बांट दी हैं. उन्होंने यह भी साफतौर पर कहा कि कोई भी पेंटिंग 2 करोड़ रुपए में नहीं बिकी. लेकिन इस के ठीक 2 दिनों बाद एक दूसरी जनसभा में उन्होंने 2-3 चरणों में 300 पेंटिंग्स की प्रदर्शनी में कुल 9 करोड़ रुपए की बिक्री की बात कही. इस तरह उन्होंने 300 पेंटिंग्स की बिक्री से पार्टी फंड में 9 करोड़ रुपए आने की बात की. mउधर, सीबीआई के पास तृणमूल से निष्कासित सांसद व पत्रकार कुणाल घोष का वह पत्र है जिस में उन्होंने दावा किया है कि सारदा प्रमुख सुदीप्त सेन ने 1 करोड़ 86 लाख रुपए में ममता बनर्जी की पेंटिंग खरीदी थी. वहीं, सुदीप्त सेन ने भी स्वीकार किया है कि उन्होंने ममता बनर्जी की एक पेंटिंग 1.86 करोड़ रुपए में खरीदी थी. तृणमूल कांगे्रस के पार्टी फंड और आयव्यय का मामला ममता बनर्जी व उन की पार्टी के लिए गले की फांस बन चुका है. इस सिलसिले में ममता बनर्जी से ले कर पार्टी के छोटेबड़े नेता अलगअलग बयान दे रहे हैं. जितने बयान आ रहे हैं, कड़ी और भी अधिक उलझती जा रही है. सीबीआई यह भी जानना चाहती है कि जिन पेंटिंग्स की बिक्री हुई है वे किसी दबाव में या किसी को खुश करने के लिए तो नहीं खरीदी गई हैं.

फैसले के पहले सजा भुगतते व्यापमं घोटाले के आरोपी

उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व मध्य प्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव के 52 वर्षीय व्यवसायी बेटे शैलेष यादव की जिंदगी में भले ही किसी चीज, खासतौर से पैसों, की कमी न थी पर उस के दिमाग पर क्ंिवटलों बोझ और दिल में अपराधबोध व ग्लानि इस तरह घर कर गई थी कि उस की वैभवशाली जिंदगी, जिस के लिए आम लोग तरसते हैं, उसे भार लगने लगी थी. इस अवसाद और परेशानी से छुटकारा पाने के लिए शैलेष को इकलौता रास्ता खुदकुशी का लगा जो उस ने बीती 25 मार्च को कर डाली. शैलेष की मौत पर देशभर में खासा बवाल मचा. मौत की खबर के साथ ही यह बात भी चस्पां हो कर आई कि शैलेष मध्य प्रदेश के व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्यापमं घोटाले काआरोपी था और कभी भी गिरफ्तार किया जा सकता था. कुछ दिन पहले ही मध्य प्रदेश एसटीएफ ने उसे नोटिस भेजा था. वह शिक्षक भरती घोटाले का आरोपी था. इस चर्चित घोटाले की जांच कर रही एसटीएफ के मुताबिक, शैलेष ने 10 उम्मीदवारों की नियुक्ति कराने के लिए पैसा लिया था. यह रकम शैलेष ने अपने एक अंतरंग मित्र विजय पाल के जरिए मध्य प्रदेश के राजभवन में ली थी. शैलेष की मौत कुदरती थी या फिर खुदकुशी, यह भले ही राज की बात रहे लेकिन हालात इशारा कर रहे हैं कि आत्महत्या की संभावनाएं ज्यादा हैं.

जमीर पर भारी जुर्म

शैलेष समझ गया था कि अब बच पाना मुश्किल है. वजह, व्यापमं घोटाले में कई दिग्गजों की गिरफ्तारी पहले ही हो चुकी थी. जाहिर है कि वह भी गिरफ्तार होता तो पिता के साथ घरपरिवार की मुश्किलें और तनाव भी बढ़ते. रामनरेश यादव एक भरेपूरे परिवार के मुखिया हैं. राजनीति में उन का अलग नाम और मुकाम है. व्यापमं घोटाले के पहले तक उन के दामन पर कोई दाग न लगना उन की ईमानदारी का ही सुबूत माना जाता रहा था. शैलेष की मौत के दिन उन के दूसरे 2 बेटे कमलेश और अजय उन की सेवा में लगे थे. अंतिम संस्कार के वक्त रामनरेश यादव को भी विशेष हवाई जहाज से लखनऊ ले जाया गया जो अपने अधेड़ बेटे की लाश देख फूटफूट कर रो पड़े. अब से कोई 30 साल पहले उन के एक बेटे ने पढ़ाई के दौरान ही खुदकुशी कर ली थी. कहना मुश्किल है कि एक और बेटे की लाश देख रामनरेश यादव पर क्या गुजरी होगी लेकिन तय है, उन्होंने भी शैलेष की तरह उस घड़ी को कोसा होगा जब जरा से लालच में उन्होंने भी कुछ नियुक्तियों की सिफारिश, कथित तौर पर ही सही, की थी.

शैलेष सरीखा करोड़पति धनाढ्य महज 3 लाख रुपए के लालच में पिता के नाम और रसूख का बेजा इस्तेमाल कर सकता है, इस सवाल का जवाब साफ है कि हां कर सकता है. जब खुद पिता ही इस से अछूते नहीं रह पाए तो बेटा तो आखिर बेटा ही होता है, तजरबे में हमेशा पिता से दो कदम पीछे लेकिन नासमझी में चार कदम आगे रहता है. शैलेष यादव कोई आदतन पेशेवर मुजरिम नहीं था लेकिन लगता ऐसा है कि व्यापमं घोटाले में वह सिर्फ इस बिना पर शामिल हो गया था कि कोई क्या कर लेगा, पिता राज्यपाल हैं और किसी की क्या मजाल जो राजभवन में दाखिल हो कर आंख उठा कर बात करने की जुर्रत करे. पर जब ऐसा हो गया तो उसे समझ आया कि यह लोकतंत्र है, जमींदारी नहीं. जब गवर्नर पिता को ही एसटीएफ नहीं बख्श रही तो बेटा तो दूर की बात है. जब शिकंजा कस गया तो शैलेष को समझ नहीं आया कि अब क्या किया जाए. तनाव और अवसाद में जीते एकांत में वह शायद यही सोचता रहा होगा कि कितना अच्छा होता अगर सिफारिश न की होती. अब अगर पुलिस दूसरे मामूली मुजरिमों की तरह गिरफ्तार कर ले जाएगी तो सियासत और खानदान में खासी जगहंसाई होगी यानी जमीर पर जुर्म भारी पड़ने लगा था जिस का एक दुखद अंजाम यही होना था, जो हुआ.

इन की भी हालत खस्ता

शैलेष यादव ने तो मर कर मुक्ति पा ली लेकिन व्यापमं घोटाले के कई दिग्गज जेल में पड़े तरहतरह की बीमारियों व परेशानियों से आजिज हैं. इन लोगों ने पद का दुरुपयोग करते बेईमानी तो कर डाली लेकिन अब उस की खासी कीमत चुका रहे हैं. जेल की जिंदगी जिन्हें बहैसियत विचाराधीन कैदी रास नहीं आ रही उन में सब से ऊपर और बड़ा नाम लक्ष्मीकांत शर्मा का है जिन की हैसियत व रसूख गिरफ्तारी के पहले शिवराज सिंह चौहान के बाद दूसरे नंबर पर हुआ करते थे. विधानसभा के पिछले चुनाव में हैरतअंगेज तरीके से अपनी परंपरागत सीट सिरोंज से चुनाव हारने वाले लक्ष्मीकांत शर्मा के पैरों की आहट भी राजनीतिक और प्रशासनिक गलियारों में माने रखती थी. वे आरएसएस के नजदीकी रहे हैं और लालकृष्ण आडवाणी के भी. इस के अलावा, तमाम भाजपाई दिग्गजों की नजरेंइनायत लक्ष्मीकांत पर रही हैं.

जेल की हवा खा रहे लक्ष्मीकांत ब्लडप्रैशर और डायबिटीज के मरीज हैं. लक्ष्मीकांत शर्मा पर भी फर्जी भरतियां करवाने और पद के प्रभाव का बेजा इस्तेमाल करते पैसा खा कर नौकरियां दिलवाने का आरोप है. कभी पेशे से पुरोहित रहे इस पूर्व मंत्री का अधिकांश वक्त अब उंगलियों पर पंचांग गिनते व्यतीत होता है कि किन ग्रहनक्षत्रों की क्रूर दशा के चलते यह दुर्गति हुई. अब भी वे कर्मों का दोष मानने को तैयार नहीं हो रहे. उलटे, ग्रहनक्षत्रों के अनुकूल होने का इंतजार कर रहे हैं कि जमानत कब मिलेगी और बाहर आ कर क्याक्या कहना व करना है. उन से मिलने जाने वालों में शुमार एक पत्रकार की मानें तो लक्ष्मीकांत काफी दुबले हो गए हैं. कोई भाजपा दिग्गज उन की खैरखबर नहीं ले रहा. अपने जुर्म से ज्यादा वे भाजपा की अनदेखी के चलते तनाव में रहते हैं.

तकरीबन ऐसी ही हालत उन के सहयोगी, विदिशा के खनन कारोबारी सुधीर शर्मा की है जो अकसर लक्ष्मीकांत शर्मा के साथ ही जेल के अस्पताल में इलाज करवाने जाता है. अरबों की जायदाद के मालिक सुधीर शर्मा को जेल की बेस्वाद दालरोटी पेट से नीचे उतारने के लिए पानी के घूंट इस्तेमाल करने पड़ते हैं. व्यापमं घोटाले के एक और आरोपी सिद्धार्थ प्रसाद को पेट में मरोड़े उठने की शिकायत रहती है.

ये तो पागल हो गए

जिन लोगों ने पैसा बनाते हुए प्रदेश के लाखों युवाओं का भविष्य बिगाड़ने का गुनाह किया उन में एक अहम नाम  डा. विनोद भंडारी का भी है जिस की हालत पागलों सरीखी हो चली है. कभी दूसरे दिग्गज आरोपियों की तरह महंगी व बड़ी कारों में चलने वाला और वातानुकूलित सुख भोगने वाला विनोद भंडारी जब बेवजह हंसना शुरू करता है तो हंसता ही चला जाता है, जिसे चुप कराने की कोशिश में जेलकर्मी और दूसरे कैदी खुद को हंसने से रोक नहीं पाते. लेकिन दूसरे ही पल जब वह रोना शुरू करता है तो चुपचाप लगातार आंसू बहाता रहता है. लगभग पागलपन की कगार पर पहुंच चुके इस आरोपी के बारे में एक जेलकर्मी की मानें तो वह नाटक नहीं कर रहा है, उस की दिमागी हालत वाकई नाजुक है. उस का इलाज चल रहा है.

विनोद भंडारी कोई दार्शनिक नहीं है जो इस बात पर हंसते हुए खुद को दोष दे कि आखिरकार बेईमानी करने की जरूरत क्या थी या कहे कि मैं तो अपने किए पर रो रहा हूं. दरअसल, जेल का माहौल अच्छेअच्छों के कसबल ढीले करने के साथ उन्हें मानसिक तौर पर तोड़ देता है, यही उस के साथ हो रहा है.

टूटे अरमान और दिल

ये उदाहरण तो व्यापमं घोटाले के कुछ मगरमच्छों के थे जिन्होंने करोड़ों रुपए बनाए लेकिन कुछ ऐसे भी हैरानपरेशान लोग हैं जिन की हैसियत घोटाले के इस खेल में प्यादे सरीखी थी. ये वे लोग हैं जो पैसों के दम पर डाक्टर बने और जब पकड़े गए तो ऐसे दोराहे पर खडे़ हैं जहां न कोई अपना साथ दे रहा है न ही उन के पास अब कोई मंजिल है. इन में से एक है सुरेंद्र शर्मा, जिस की शादी अप्रैल 2015 में होनी तय हुई थी. पीएमटी फर्जीवाडे़ में सौल्वर की हैसियत से बैठने वाला सुरेंद्र अब अपनी जिंदगी की गुत्थी सौल्व नहीं कर पा रहा है. मार्च 2015 में ही गिरफ्तार हुए इस होनहार नौजवान की सगाई टूटने के कगार पर है. वजह, उस का आरोपी होना है. अब लड़की वाले उस से किनारा करने लगे हैं जिन का सोचना सटीक और व्यावहारिक भी है कि ऐसे शख्स को लड़की क्यों दें जिसे सजा हो सकती है.

एक दूसरे आरोपी डा. राहुल यादव की सगाई तो नवंबर 2014 में बुंदेलखंड इलाके के एक विधायक की बेटी के साथ हुई थी. सगाई के वक्त लड़की वाले खुश थे कि डाक्टर दामाद मिल रहा है, समाज में नाम भी होगा और लड़की भी खुश रहेगी. लेकिन उस के गिरफ्तार होते ही सगाई टूट गई और अब टूटा दिल लिए राहुल सलाखों के पीछे बैठा अपने किए पर पछता रहा है.

एक और आरोपी ब्रजभान सिंह राजपूत का किस्सा तो और भी दिलचस्प है. इस डाक्टर को एक नर्स से प्यार हो गया और उस ने फर्जीवाड़े में शामिल होते अपनी प्रेमिका को एमबीबीएस में दाखिला यह सोचते दिला दिया कि दोनों मियांबीवी बाद में कभी क्लिनिक या नर्सिंग होम खोल कर प्रैक्टिस करेंगे और खूब पैसा बना कर ऐश व मौज की जिंदगी जिएंगे. अभी ब्रजभान शादी की तैयारियों में जुटा ही था कि घोटालेबाजों में उस का नाम भी आ गया और गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. अब उस की माशूका नर्स डाक्टर बनने से पहले ही फरार हो गई है. वह कभी भी गिरफ्तार हो सकती है. एक और आरोपी है डा. दुष्यंत भदौरिया जिस की सग?ाई भिंड के एक विधायककी बेटी से हुई थी और ससुर ने वादा किया था कि शादी में होंडा सिटी या फौर्चुनर कार देंगे. पर जैसे ही घोटाले में दुष्यंत का नाम आया तो ससुरजी ने मुंह फेर लिया, मानो जानते ही न हों. जेल में बंद यह दुष्यंत अब अपनी शकुंतला की याद में आंसू बहाते सोचता रहता है कि काश, फंसे न होते तो ये दिन न देखने पड़ते.

काश कि ये लोग फंसे न होने के बजाय यह सोच पाते कि बेईमानी न करते तो सुकून से रहते हुए चैन की बेखौफ जिंदगी जी रहे होते. बेईमानी के इस खेल में लोगों ने तात्कालिक फायदा देखा, दीर्घकालिक नुकसान नहीं देखे. किसी ने पैसा कमाने तो किसी ने अच्छा ओहदा व नौकरी पाने के लिए ऐसा शौर्टकट रास्ता चुना जिस से किसी का कोई फायदा नहीं हुआ. टूटे दिल और अरमान लिए प्रदेश के हजारों डाक्टरों की जान सांसत में है कि जाने कब एसटीएफ उन के दरवाजे पर दस्तक दे दे कि चलो तुम्हारे खिलाफ सुबूत मिल गए हैं. ये वे नाकाबिल लोग हैं जो पैसों के दम पर काबिल बन गए. जो पकड़े गए उन की हालत देख तरस आता है कि पद पाने के लिए पहले घर वालों ने जमीनजायदाद और गहने तक बेच दिए और अब लाड़ले की जमानत व मुकदमेबाजी में भी आर्थिक तौर पर बरबाद हो रहे हैं.

व्यापमं घोटाले के फैसले तक इन का क्या होगा. अभी तो इस मामले की चार्जशीट तक पूरी दाखिल नहीं हुई है. और इस साल हो पाएगी, ऐसा लग भी नहीं रहा. वजह, रोज एक गिरफ्तारी इस में हो रही है और दूसरी तरफ राजनीति भी गरम है. कांग्रेस चारों तरफ से भाजपा और खासतौर से सीएम शिवराज सिंह चौहान को घेर रही है. फैसले के पहले सजा भुगत रहे तमाम आरोपियों के साथ किसी को हमदर्दी नहीं है. आम लोग यही मना रहे हैं कि ये यों ही जेल में सड़ते रहें जिस से दूसरे लोगों को सबक मिले और इन्हें भी अपने कुकर्मों का एहसास हो. ऐसे में सहज समझा जा सकता है कि लोग इस घोटाले को ले कर उदासीन नहीं हैं. कोई आरोपी खुदकुशी करे, बीमार हो या किसी की सगाई टूटे, इस पर आम लोग खुश हैं कि किया था तो अब भुगतो भी.

भूमि अधिग्रहण की राजनीति

कांगे्रस का भाजपा को गरीब किसानों की जमीन छीनने के कानून बनाने पर कोसना उस बिल्ली का शाकाहारी बनना है जो 900 चूहे पहले ही चट कर चुकी हो. 1947 के बाद कांग्रेस सरकारों ने जिस तरह भूमि अधिग्रहण कानून का दुरुपयोग किया वह तानाशाहों को भी मात कर दे. उस पर हल्ला नहीं मचा क्योंकि देश का संपन्न वर्ग लगातार सस्ती जमीन का फायदा उठाता रहा और गरीबों की नंगी छातियों पर पैर रख कर मौज उड़ाई और बदले में मुंह बंद रखा. यह तो सोनिया गांधी की धुन थी कि उन्होंने तमाम विरोधों के बावजूद 2013 का कानून बनवा दिया जिस ने गरीब किसान की जमीन पर सरकारी बुलडोजरी की तानाशाही समाप्त कर दी. जो जमीनें पिछले 70 सालों में सरकारों ने देशभर में छीनी हैं उन पर कुछ ही सड़कें, रेलें, नहरें बनी हैं. ज्यादातर जमीनें फैलते शहरों ने खाई हैं जिन पर शहरी भव्य मकानों में रह रहे हैं या फिर निजी उद्योग चल रहे हैं. सेना ने जो जमीन ली थी वह 1947 से थोड़ा सा पहले ली थी और उस ने उस का केवल विकास किया.

किसी किसान की जमीन निजी इस्तेमाल के लिए छीनी जाए, यह व्यवस्था गलत है. सरकार को अपने काम के लिए जब जमीन चाहिए हो तो वह टैंडर निकाले, जैसे और सामान खरीदने के लिए करती है. किसान की इच्छा हो तो बेचे और यदि उस की मरजी के पैसे मिलें तो ही बेचे. जब सरकार अरबों रुपयों का सामान टैंडर से खरीद सकती है तो जमीन क्यों नहीं. भारतीय जनता पार्टी को 2014 से पहले जो जनसमर्थन मिल रहा था उस के पीछे जमीन के लालचियों का हाथ था, इस से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताओं में जमीन कानून सब से आगे रहा है. भारत न तो स्वच्छ हुआ न भ्रष्टाचार मुक्त पर जमीन मुक्त होने की तलवार जरूर लटक गई. प्रशासनिक सुधार नहीं हुए, निरर्थक दखलंदाजी करने वाले कानून समाप्त नहीं हुए, कानून व्यवस्था नहीं सुधरी पर जमीन कानून की मरम्मत के लिए सरकार रातदिन एक करने में लगी है. कांगे्रस दूध की धुली नहीं है. 2014 की चुनावी हार ने उसे पापों का प्रायश्चित्त करने का मौका दे दिया है. नरेंद्र मोदी के जमीन कानून के रूप में उसे एक हथियार मिल गया है. राहुल गांधी को डूबती पार्टी को बचाने के लिए तिनका तो मिला है, देखें कितने तिनके जोड़ कर वे नाव बनाते हैं.

स्मार्टफोन के फायदे व नुकसान

स्मार्टफोन निसंदेह एक अद्भुत आविष्कार है जो दुनियाभर की जानकारी एक छोटे से डब्बे में पैक कर देता है और इसे रखने वाला हर तरह की जानकारी जब मरजी हासिल कर सकता है. समस्या इस ‘हर तरह’ से आने लगी है. नाबालिगों और विशेषतौर पर बच्चों के हाथों में वह जानकारी, जो उन के काम की नहीं है, खतरनाक साबित हो सकती है. बच्चे आमतौर पर स्मार्टफोन की तकनीक और गुणों को वयस्क लोगों से जल्दी समझ लेते हैं क्योंकि उन के दिमाग में लैंडलाइन वाला काला फोन होता ही नहीं है. उन्हें बचपन से बटनों की उपयोगिता का एहसास होने लगता है. वे उस जगह पर पहुंच जाते हैं जहां वयस्क नहीं जाते क्योंकि न तो उन के पास समय होता है न जरूरत. बस, यही विवाद का कारण बन रहा है.

स्मार्टफोन जब तक मातापिता और इक्केदुक्के दोस्तों से मिलने के संपर्क सूत्र हों तो ठीक है. इस फोन से छोटे बच्चे भी दुनियाभर में चैटिंग कर सकते हैं, अपने बारे में चाहीअनचाही जानकारी दे सकते हैं. वे पौर्न, अश्लील और आपराधिक जानकारी पा सकते हैं. वे अनजानों से दोस्ती कर सकते हैं. इसलिए स्मार्टफोन बच्चों के हाथों में ऐसा है मानो उन्हें चौराहे पर अकेला छोड़ दिया गया हो. बच्चों में अगर लड़की है तो यह फोन समझो, आफत का निमंत्रण है. बच्चों की स्मार्टफोन की मांग को रोकना मातापिता के लिए लगभग असंभव है. चूंकि हर हाथ में मोबाइल है और हर समय जरूरत होती है, इसे खरीदना तो पड़ेगा ही. कुछ निर्माताओं ने छोटे बच्चों के लिए सुरक्षित स्मार्टफोन बनाए हैं जिन का सौफ्टवेयर ऐसा है कि बहुत सी साइटों पर बच्चे जा ही नहीं सकते. ऐसे में यह पक्का है कि बच्चे इसे खरीदेंगे ही नहीं. उन्हें यह जबरन दिलाया गया तो वे उसे 2-4 दिन में तोड़ डालेंगे. कामकाजी मातापिताओं के लिए छोटे बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन देना अनिवार्य सा है पर यह उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए छुरा पकड़ाने के समान है जिस से वे किसी निर्दोष को नुकसान पहुंचा सकते हैं और खुद को भी. असल में स्मार्टफोन में सुविधाएं होने के बावजूद यह इतना लाभदायक नहीं जितना समझा जा रहा है. इसे एक तरह से ऐसे समझें कि घर के बाहर ही दीवार से सटी पटरी पर आटे, दाल, सब्जियों की दुकानें, कच्चे ढाबे तरहतरह की सुविधाएं तो देते हैं लेकिन वे घर और माहौल में बदबू फैलाए रखते हैं, गंदगी फैलाते हैं, अनचाहों को घर के सामने ला खड़ा कर देते हैं, पटरी पर चलना नामुमकिन कर देते हैं और बच्चों से खेलने की जगह छीन लेते हैं. सो, फैसला आप को करना है–जीवन सुविधाजनक चाहिए या सुव्यवस्थित.

राहुल की सक्रियता

राहुल गांधी बड़े मजे में नरेंद्र मोदी को पाठ पढ़ा रहे हैं कि सत्ता से बाहर रह कर कुछ भी कह देना कितना आसान है और बाहर वाले को न जिम्मेदारी की चिंता करनी पड़ती है न जवाब के असर की. नरेंद्र मोदी ने मई 2014 से पहले चुनावी भाषणों व अन्य सभाओं में सोनिया गांधी व राहुल गांधी पर जम कर कटाक्ष किए थे और समाज का वह वर्ग, जो कांगे्रस सरकार की भ्रष्टाचार की कहानियों से खुन्नस खाए बैठा था, बड़ा खुश हुआ था कि चलो एक जन आया तो जो काले को काला कहने में हिचकता नहीं. तब राहुल गांधी और सोनिया गांधी ही नहीं, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी बहुत दयनीय नजर आते थे और लग रहा था कि वे शब्दों व व्यंग्यबाणों के सैलाब में बह जाएंगे. मई 2014 में ऐसा हुआ भी, पर अब वही कटाक्ष घूम कर नरेंद्र मोदी व भाजपा पर आ रहे हैं. किसी गुमनाम, रहस्यात्मक छुट्टी के बाद लौटे राहुल गांधी ने लगातार व्यंग्यात्मक रवैया अपना लिया.

उन का सूटबूट की सरकार जो नाम लिखे नरेंद्र मोदी के बंद गले के सूट पर मजाक था, वाला व्यंग्य भाजपाइयों को अंदर तक भेद गया. ‘आप के प्रधानमंत्री,’ ‘देश के प्रधानमंत्री’, ‘भाजपा के प्रधानमंत्री नहीं’ जैसे शब्दों से उन्होंने संसद में वही वाक्पटुता दिखाई जो नरेंद्र मोदी दिखाते रहे हैं. नरेंद्र मोदी की विदेश यात्रा पर उन के मजाक, जब वे भारत के दौरे पर हों तो पंजाब के किसानों का हाल पूछ आएं, ने सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया. एक भाजपा मंत्री के किसानों की आत्महत्या को उन की अपनी कमजोरी बताने को ले कर राहुल ने नरेंद्र मोदी की सरकार को किसान विरोधी व कौर्पोरेटरों की सरकार के मुकुट से सजा डाला. मतलब सिर्फ इतना है कि विपक्ष में रह कर बोलना बहुत आसान होता है. राहुल गांधी की बोलती 10 साल बंद थी क्योंकि तब वे जो बोलते, उन्हें करना पड़ता. वे तब गलतियों और कमजोरियों पर सफाई ही दे सकते थे. वे किसी पर निकम्मेपन का आरोप नहीं लगा सकते थे. यह अब नरेंद्र मोदी के साथ हो रहा है. नरेंद्र मोदी विदेश जा रहे हैं तो इसलिए कि यह देश की जरूरत है. वे सैरसपाटे के लिए विदेश नहीं जा रहे. वे अच्छे कपड़े पहन रहे हैं तो इसलिए कि प्रधानमंत्री का पद यह मांग करता है. वे किसानों की जमीन चाहते हैं तो इसलिए कि उन का विचार है कि उद्योग ज्यादा लाभदायक हैं. सत्ता में रह कर वे वैसे ही असहाय हैं जैसे पहले राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह की तिगड़ी थी. जनता को यह समझना होगा कि सत्ताधारी नेता की जिम्मेदारी होती है और विपक्ष का काम मीनमेख निकालना होता है. दोनों ही लोकतंत्र में जरूरी हैं.

जब लेना हो होम लोन

घर खरीदने के लिए होम लोन मददगार साबित होते हैं परंतु कुछ गलतियों की वजह से कई लोग इन्हें हासिल करने में नाकामयाब हो जाते हैं. यहां ऐसी 10 गलतियों के बारे में जानकारी दी जा रही है जिन से बचने पर आसानी से होम लोन प्राप्त किया जा सकता है : 

जरूरत से अनभिज्ञता : घर खरीदने की प्रक्रिया शुरू करने से पहले आप को अपने स्तर पर पर्याप्त खोज करनी चाहिए. किसी अन्य द्वारा दी गई जानकारी या सूचना पर आंख मूंद कर विश्वास न करें. यदि आप खुद यह मेहनत नहीं करेंगे तो हो सकता है कि आप को अपनी मनचाही संपत्ति न मिले या जो मिले उसे खरीदना आप की क्षमता से बाहर हो. सब से पहले उन परियोजनाओं या इलाकों को चिह्नित करें जो आप को अपने मतलब की लगें. फिर इस बात पर गौर करें कि आप की जरूरतों पर इन में से कौन सी संपत्ति खरी उतरती है.

क्रैडिट रिपोर्ट प्राप्त नहीं करना : बैंक या हाउसिंग फाइनेंस कौर्पोरेशन के साथ होम लोन संबंधी बातचीत करने से पहले आप को अपनी क्रैडिट रिपोर्ट को किसी तरह की गलती या गड़बड़ के लिए, जरूर जांच लेनी चाहिए. यदि आप को कोई गलत या गड़बड़ दिखाई दे तो उसे तुरंत चुनौती दें क्योंकि इस से आप का क्रैडिट स्कोर प्रभावित होता है. नकारात्मक क्रैडिट रिपोर्ट आप के लोन लेने की क्षमता पर बेहद बुरा प्रभाव डालती है. अच्छी क्रैडिट रिपोर्ट से आप अधिक लोन लेने के योग्य हो सकते हैं.

व्यावहारिक पहलुओं का ध्यान नहीं रखना : कई बार लोग केवल कुछ ऊपरी बातों पर ही ध्यान देते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि वे अपनी मासिक आय का 80 से 85 फीसदी मासिक किस्त के रूप में अदा कर सकते हैं. हालांकि वे उन खर्चों का ध्यान रखना भूल जाते हैं जो अचानक करने पड़ सकते हैं. इस तरह के गलत आकलन की वजह से आप अपनी क्षमता से अधिक लोन ले सकते हैं जिस से आर्थिक रूप से आप पर बोझ तथा दबाव पड़ सकता है. ऐसे में स्वीट होम के मालिक बनने का ख्वाब आर्थिक समस्या की वजह से बुरा साबित हो सकता है.

लोन देने वालों के बारे में पर्याप्त पड़ताल नहीं करना : विज्ञापनों में किए गए लुभावने वादों तथा आकर्षक ब्याज दरों के प्रस्ताव या दोस्तों एवं परिवार वालों की बातों में आ कर जल्दबाजी में कोई फैसला न करें. पूरी पड़ताल करें. इस के लिए इंटरनैट की सहायता से ब्याज दरों तथा होम लोन औफर्स की आपस में तुलना भी की जा सकती है. आजकल इंटरनैट पर सभी बैंकों के औफर्स तथा उन की ब्याज दरों की सारी जानकारी उपलब्ध होती है, जिस का अध्ययन करने से आप के लिए फैसला करना सरल हो जाएगा.

हड़बड़ी में लोन स्वीकार करना : होम लोन की बात हो तो ध्यान रखें कि आप होम लोन के पहले प्रस्ताव को ही स्वीकार न कर लें. जिस तरह से आप बाजार में खरीदारी के वक्त विभिन्न दुकानों पर घूम कर अपनी पसंद तथा जरूरत की चीज की तलाश करते हैं, ठीक उसी तरह से आप को उपयुक्त होम लोन की खरीदारी करनी चाहिए.

आवेदन में सभी तथ्यों की जानकारी नहीं देना : यह आप के ही हित में है कि आप अपने आवेदन में सारे तथ्य सहीसही जाहिर कर दें. यदि आप के क्रैडिट कार्ड पर राशि बकाया है या पहले से आप ने अन्य लोन ले रखे हैं तो ये आप की होम लोन क्षमता को प्रभावित करेंगे. बेहतर होगा कि आप अपने बारे में सभी तथ्यों को आवेदन में लिख दें. इन बातों को छिपाने का पता चलने पर बैंक आप को होम लोन देने से इनकार कर सकता है.

लोन एग्रीमैंट को अच्छे से नहीं पढ़ना : किसी भी लोन एग्रीमैंट पर साइन करने से पहले उसे अच्छी तरह से पढ़ना जरूरी होता है. इन में कोई ऐसा नियम या शर्त हो सकती है जो आप को बिलकुल मंजूर न हो. इसे पढ़ कर सुनिश्चित हो जाएगा कि आप किस परिस्थिति में पैर रखने जा रहे हैं. यदि आप को किसी शर्त पर आपत्ति है तो उस के बारे में बैंक के साथ बात की जा सकती है.

वित्तीय स्थिति को व्यवस्थित नहीं रखना : अपनी आय तथा व्यय संबंधी वित्तीय आंकड़ों की व्यवस्थित जानकारी रखने से आप को बैंक से लोन लेने में तो आसानी होगी ही, अपनी वित्तीय स्थिति का सटीक आकलन लगाने में भी सहायता होगी. इतना ही नहीं, इस की मदद से आप निकट भविष्य में अपनी आय में होने वाले इजाफे का अनुमान भी लगा सकते हैं.

होम लोन पर इंश्योरैंस नहीं लेना : यदि लोन लेने वाले व्यक्ति के साथ कोई अनहोनी घट जाए तो लोन अदा करने का बोझ परिवार पर आ सकता है. ऐसी किसी परिस्थिति से परिवार को सुरक्षा प्रदान करने के लिए होम लोन का बीमा अवश्य करवाना चाहिए. लोन लेने वाले की मृत्यु की स्थिति में लोन की बाकी सारी राशि को बीमा कंपनी अदा कर देती है. इसी प्रकार क्रिटिकल इलनैस पौलिसी के तहत लोन लेने वाले की आय में किसी गंभीर रोग की वजह से कमी आने पर भी बीमा कंपनी एक तय समय तक किस्तों की अदायगी करती है.

सही रवैया न अपनाना : आप को लोन देने में बैंक की एक अहम भूमिका होती है परंतु इस के लिए आप को उन का अत्यधिक आभारी होने की जरूरत भी नहीं है. कई बार होम लोन देने में बैंकों का अपना हित अधिक समाया होता है और वे आप का फायदा उठा सकते हैं. वास्तव में लोन लेने वाले ग्राहक के रूप में आप के पास अधिक शक्ति होनी चाहिए. बेशक आप को अपने बैंक पर भरोसा हो परंतु लोन से संबंधित प्रोसैसिंग फीस, प्री पेमैंट फीस, लीगल फीस,वैल्युएशन फीस जैसी सभी बातों पर पैनी नजर रखनी चाहिए.

फाल्के का कपूर कनैक्शन

पृथ्वीराज कपूर, राज कपूर और शशि कपूर, ये तीनों नाम एक ही परिवार के हैं और शायद यह पहली पीढ़ी होगी जहां 3 दादा साहेब फाल्के पुरस्कारों का जमावड़ा है. पिछले दिनों शशिकपूर की तबीयत खराब होने के चलते वे दिल्ली नहीं आ सके. लिहाजा  पृथ्वी थिएटर (मुंबई) में पूरे कपूर परिवार की मौजूदगी में यह पुरस्कार अभिनेता शशि कपूर को दिया गया. इस पुरस्कार के बाद भी वही सवाल जस का तस कायम है कि अकसर कलाकारों की स्मरणशक्ति खोने या बीमार व लाचार या कभीकभी मरने के बाद ही बडे़ पुरस्कार क्यों दिए जाते हैं. अगर यह अवार्ड समय रहते मिलते तो इस की खुशी दिलीप कुमार, शशि कपूर और अटल बिहारी वाजपेयी ऐसे कई नाम अपनों से बांट पाते.

स्मार्ट टिप्स

  1. सिर के बाल झड़ रहे हैं तो नारियल तेल में करी पत्तों को उबाल लें. फिर तेल थोड़ा ठंडा कर के सिर पर लगाएं. 20 मिनट बाद सिर धो लें. ऐसा हफ्ते में 2 बार करें.
  2. सुबह उठते ही जैसे आप को लगे कि आप के चेहरे पर पिंपल निकल आया है, वैसे ही तुलसी और नीम की पत्तियां पीस कर मुंहासे पर लगा लें. 15 मिनट के बाद चेहरा धो लें, आप को फर्क जरूर दिखाई देगा.
  3. राइस ब्रान तेल में पौलीअनसैच्युरेटेड फैट पाया जाता है, साथ ही इस में विटामिन व एंटीऔक्सीडैंट भी पाए जाते हैं. यह कोलैस्ट्रौल को कम करता है और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है.
  4. लिप बाम ज्यादा देर तक होंठों पर टिका रहे, इस के लिए पहले होंठों पर हलके रंग का लिप लाइनर लगाएं, उस के बाद लिप ग्लौस लगा कर उस के ऊपर लिप बाम लगाएं.
  5. समर कैंप में बच्चे बहुतकुछ सीखते हैं. फिजिकल फिटनैस के साथसाथ अन्य बच्चों से बातचीत कर उन में आत्मविश्वास का स्तर सुधरता है, वे अधिक आत्मनिर्भर बनते हैं.
  6. टोफू प्रोटीन का एक बेहतरीन स्रोत है. नियमित और पर्याप्त मात्रा में टोफू का सेवन करने वाले प्रोटीन का सेवन करने वाले मांसाहारी लोगों का मुकाबला कर सकते हैं.

फरीदा जलाल से बातचीत

फरीदा जलाल बौलीवुड की उन अभिनेत्रियों में से एक हैं जिन्होंने जिस भी फिल्म में भूमिका निभाई वह हिट हुई. 1960 में बाल कलाकार के रूप में काम शुरू कर उन्होंने 130 फिल्मों में बेटी, बहन, मंगेतर, फैमिली फ्रैंड आदि की भूमिकाएं निभाईं. 80 के दशक में उन्होंने थोड़ा बे्रक लिया. फिर बड़ी बहन, दादी, मां, बुजुर्ग पड़ोसी और विधवा की भूमिकाएं निभाईं. उन्हें फिल्म पारस, हिना, मम्मो और दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे के लिए अवार्ड भी मिले. 65 वर्षीया फरीदा को लगता है कि बड़े परदे पर अच्छा काम करने के बावजूद पहचान के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ता है. अगर फिल्म हिट हो गई और काम की सराहना भी की गई तो भी जरूरी नहीं कि अगली फिल्म में सफलता बरकरार रहे जबकि छोटे परदे पर ज्यादा संभावनाएं होती हैं, दर्शकों से सीधा संवाद होता है. टैलीविजन धारावाहिक ‘देख भाई देख’, ‘शरारत’, ‘बालिका वधू’ के बाद अब वे जी टीवी पर ‘सतरंगी ससुराल’ में विहान की दादीमां की भूमिका निभा रही हैं. उन से मिल कर बात करना रोचक था. पेश हैं अंश :

आप काफी दिनों बाद अभिनय कर रही हैं, इस की वजह?

औफर तो आते थे पर मैं मना करती रही. जो हमेशा से किया उसी को बारबार करने से कोई खुशी नहीं मिलती. इस धारावाहिक के कोप्रोड्यूसर ने जब मुझे इस की कहानी सुनाई तो यह किरदार अलग था. लोग मुझे हंसतीबोलती मां जैसी भूमिका में देखना चाहते हैं. कहानी के मुताबिक, इस सीरियल की भूमिका में अभिनय थोड़ा संजीदा है, सीरियस है. इस में दादी अधिक बोलती नहीं. पर असल में मैं बहुत अधिक बोलती हूं और जल्दीजल्दी बोलती हूं. किरदार का यह अलगपन मुझे अच्छा लगा. मैं ने पहले फिल्मों में काम किया. टीवी पर काम तो बाद में शुरू किया. टीवी और फिल्म में कोई अंतर नहीं होता. दोनों में ऐक्टर कैमरा फेस करते हैं और अपनी भूमिका निभाते हैं.

अपने अभिनय के सफर से खुश हैं? कहीं कोई मलाल तो नहीं कि और बेहतर कर सकती थीं?

मुझे कोई मलाल नहीं. मैं अपने फिल्मी सफर से खुश हूं. टीवी और फिल्म में अंतर इतना होता है कि फिल्म का कुछ पता नहीं होता, फिल्म चली या नहीं चली. उसे 100 लोगों ने देखा या कुछ हजारों ने. टीवी आप घर में देखते हैं. टीवी को घर का नौकर भी देखता है. व्यूअरशिप की भूख सब को होती है. हर कलाकार चाहता है उस के काम को दर्शक देखें, सराहना करें. मैं ने 45 साल फिल्मों में काम किया. मैं कुछ और भी कर सकती थी, यह अगर लोग सोचें तो मुझे खुशी होगी. मुझे इंडस्ट्री से कोई शिकायत नहीं.

फिल्मों में कहानी से ले कर फिल्मांकन तक में आजकल काफी बदलाव आए हैं, इसे किस रूप में देखती हैं?

फिल्मों में आया बदलाव अच्छा है. इस का स्वागत करना चाहिए. जिंदगी का दूसरा नाम बदलाव है. आप उन के बहाव में चलें पर अपने सिद्धांत और नियमों को तोड़ें, यह जरूरी नहीं. यह जरूर खटकता है कि फिल्मों से थीम खत्म हो रही है. पहले लोग कमाई या बौक्स औफिस कलैक्शन को याद नहीं करते थे बल्कि गाने, डायलौग, सीन्स, भूमिका को याद करते थे. मुगलेआजम, नया दौर, प्यासा आदि कुछ ऐसी फिल्में हैं जो दिल को छूती थीं. धक्का लगता है कि वैसी फिल्में अब हम क्यों नहीं बना पा रहे हैं.

मां की भूमिका भी पहले से बदल चुकी है, इस बात से कितनी सहमत हैं?

मां की भूमिका अब फिल्मों में होती ही नहीं. अगर होती भी है तो 2 या 3 सीन जिन में अजीबोगरीब कपड़े पहना दिए जाते हैं. वैसी मां की भूमिका मैं नहीं कर सकती. मां बोल्ड होनी चाहिए, जैसी दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे में थी.

टीवी पर अधिकतर सासबहू की कहानियां होती हैं, जिन में टकराव दिखाया जाता है. रियल लाइफ में सासबहू का रिश्ता कैसे अच्छा बन सकता है

यह रिश्ता व्यक्तिगत होता है पर हर रिश्ते में स्पेस चाहिए. सास को बांटना नहीं आता, इसलिए समस्या आती है. बहू और बेटे को अपने हिसाब से जीने दो. इस से सास की इज्जत बनी रहती है और बेटाबहू से रिश्ता अच्छा बना रहता है.

कमीशनखोरी हमारा राष्ट्रीय दायित्व

आश्चर्य मत करिए, इतना परेशान होने की भी जरूरत नहीं है. कोई चाहे कुछ कहे, कुछ समझे, हम तो खम ठोक कर कहेंगे कि कमीशनखोरी हमारा नैतिक, पारिवारिक, सामाजिक तथा उस सब से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय दायित्व, राष्ट्रीय कर्तव्य है. बिना कमीशन लिए कोई भी कार्य करना सिर्फ अपराध ही नहीं बल्कि घोर राष्ट्रद्रोह है, जिस के अपराधी को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए. बिना कमीशन लिए किसी का कोई भी कार्य करना, अनैतिक ही नहीं अपने ही बंधुबांधवों के साथ अन्याय भी है. इस से पूरे समाज में एक गलत संदेश भी जाता है कि बिना रुपयापैसा लिएदिए भी कार्य हो सकते हैं. साथ ही, इस से रुपए की क्रयशक्ति पर भी गंभीर प्रश्नचिह्न लगता है क्योंकि आमतौर पर यह माना जाता है कि रुपयों के द्वारा कुछ भी खरीदा जा सकता है, किसी को भी खरीदा जा सकता है. तो फिर क्या इन रुपयों से एक अदने से ईमान को नहीं खरीदा जा सकता?

कमीशनखोरी समाज में समानता की भावना का विकास करती है. कमीशन, जहां देने वाले व्यक्ति के आत्मविश्वास में वृद्धि करता है, वहीं लेने वाले व्यक्ति के बैंकबैलेंस को बढ़ाता है. कमीशन देने और लेने वाले व्यक्तियों में स्वस्थ, सौहार्दपूर्ण संबंध बन जाते हैं. उन के संबंधों में खुलापन आ जाता है. वे अंतरंग बन जाते हैं. कमीशन उन के बीच पद की दूरी को पाटने के लिए सेतु का काम करता है. कमीशन लेने के बाद बड़े से बड़ा अधिकारी भी अत्यंत विनम्र हो जाता है तथा कमीशन देने वाला मरियल सा आदमी भी कड़क से कड़क तथा बड़े से बड़े अधिकारी के सिर पर चढ़ कर बात करता है. कमीशन वह मोहनी विद्या है जिस से किसी भी अधिकारी को वश में कर उस से मनमाफिक कार्य करवाए जा सकते हैं. कमीशनरूपी ब्रह्मास्त्र असंभव को भी संभव बना देता है. कमीशन देने के बाद व्यक्ति अपनी कार्यसिद्धि के लिए पूरी तरह निश्ंिचत, पूरी तरह आश्वस्त हो जाता है. उसे पता होता है कि अब चाहे जो भी हो जाए, उस का कार्य हो ही जाएगा.

कमीशन का देश के विकास से सीधा संबंध है क्योंकि कमीशनरूपी चक्र (पहिए) लगने पर फाइलें तीव्र गति से चलने लगती हैं. उन्हें एक टेबल से दूसरी टेबल तक जाने में समय नहीं लगता. फाइलों के निबटते ही रुके हुए विकास कार्यों को जैसे पंख लग जाते हैं, रुके हुए कार्यों के कार्य आदेश निकलने लगते हैं, अटके हुए बिल पास हो जाते हैं. नए कार्यों के लिए मौके तलाशे जाते हैं. इस प्रकार कमीशन देश के विकास की सारी बाधाओं को हटा कर उसे वापस प्रगति के मार्ग पर लाता है. देश का आर्थिक विकास सुनिश्चित करता है.

कमीशन देश की आर्थिक प्रगति में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. चमचमाते बाजार, बड़ेबड़े मौल, चहकतेदहकते मल्टीप्लैक्स इन सब की रौनक, चहलपहल कमीशन की कमाई के बिना असंभव है. कमीशन न हो तो इन के सामने खड़ी रहने वाली नईनई कारों की कतार अदृश्य हो जाएगी. इन में घूमने वाले, पौपकौर्न खाने वाले, महंगेमहंगे गेम्स खेलने वाले, महंगे ब्रैंडेड कपड़े, विलासिता का सामान खरीदने वाली महिलाओं, युवाओं, बच्चों की संख्या में कमी आ जाएगी, मल्टीप्लैक्स में लगी फिल्में दर्शकविहीन हो जाएंगी. सब ओर मायूसी छा जाएगी. कमीशन वह संजीवनी है जो सर्वथा निकृष्ट (कचरा) उत्पाद को भी सर्वोत्कृष्ट बनाने की क्षमता रखती है. इस प्रकार कमीशन गुणवत्ताहीन पदार्थों (उत्पादों) की खपत सुनिश्चित कर के यह विश्वास दिलाता है कि कोई भी पदार्थ या वस्तु अनुपयोगी या बेकार नहीं है, प्रत्येक वस्तु उपयोगी है, सिर्फ उस के उपयोग को उचित ढंग से समझाना आना चाहिए. कमीशन सरकारी अधिकारियों की सहृदयता को बढ़ा कर उन्हें कचरा माल को भी पास कराने के लिए बाध्य करता है.

कहते हैं कि साहूकार को अपने मूल से सूद कहीं अधिक प्यारा, कहीं अधिक प्रिय होता है. इसी प्रकार की कुछ महिमा कमीशन की भी होती है. अधिकारियों, कर्मचारियों को यह अपने वेतन से कहीं अधिक प्यारा होता है. कमीशन की कमाई हाथ में आते ही उन का दिल बल्लियों उछलने लगता है. भ्रष्टाचार का विरोध करने वालों को सिर्फ ये ही नहीं, बल्कि इन के पूरे घर वाले भलाबुरा कहते हैं, जी भर कर गालियां देते हैं. अन्नाजी द्वारा ‘जनलोकपाल विधेयक’ की मांग को ले कर किए गए अनशन पर ऐसे लोगों की प्रतिक्रियाएं तथा भावभंगिमाएं देखने योग्य थीं. उन दिनों इन्हें देख कर लगता था जैसे यदि इस समय अनशनकारी सामने आ जाएं तो वे उन का जाने क्या हश्र कर दें. कमीशन विकास की सतत धारा बहाता है. यह एक ऐसी आदर्श स्थिति का निर्माण करता है जिस में कोई भी उत्पाद, कोई भी निर्माण, कोई भी सामग्री ऐसी टिकाऊ तथा उच्च गुणवत्ता की नहीं होती जिसे देखदेख कर व्यक्ति तंग आ जाए, बोर हो जाए तथा उसे लगे कि यह वस्तु/निर्माण यहां से कब हटेगा? यदि वस्तुएं टिकाऊ तथा गुणवत्तायुक्त होने लगें तो फिर अगली खरीदी कैसे होगी? नए माल की खपत कहां होगी? विकास की प्रक्रिया थम नहीं जाएगी. अरे, जब जीवन क्षणभंगुर है तो फिर सड़क, पुल, इमारतें कैसे स्थायी हो सकते हैं?

कमीशनखोरी व्यक्ति को समृद्ध तो करती ही है, उस की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि करती है. वह आदमी कमीशन तो लेता है, लेकिन उस के बाद काम की गारंटी होती है. कैसा भी उलझा हुआ, अटका हुआ काम हो, यदि एक बार हां कर दी तो फिर निश्ंिचत हो जाइए. आप के कार्य को अच्छेअच्छे भी नहीं रोक सकते. उस का कमीशन लेना ही इस बात की गारंटी है कि आप का कार्य होगा ही होगा. कमीशनखोरी, कर्मचारियों में आपसी सहृदयता तथा सौजन्यता का संचार करती है. कमीशनखोर किसी भी संभावित खतरे या भय की सूचना पहले ही एकदूसरे को दे देते हैं. कमीशनखोरों में एक सहज ही भ्रातृत्वगुण पाया जाता है, जो 2 ईमानदारों में दुर्लभ होता है. कमीशनखोर एकदूसरे के प्रति पूरी तरह ईमानदार होते हैं. कमीशनखोरी रुपए के सतत प्रवाह को भी चालू रखती है जिस से देश की अर्थव्यवस्था पर सकारात्मक असर पड़ता है. बाजार में व्यय करने के लिए इन लोगों की जेब रुपयों से भरी होती है. वे आवश्यक/अनावश्यक सभी तरह के सामानों की खरीद कर लेते हैं. कमीशन का रुपया जेब में हो तो व्यक्ति महीने के अंतिम दिनों में, वेतन मिलने के दिन के समान व्यय करता है. वह स्वयं भी प्रसन्न रहता है तथा बाजार व व्यवसायियों को भी प्रसन्न रखता है. अब यदि बाजार में चहलपहल होगी, सामान की खरीदफरोख्त होगी, तभी तो कलकारखानों की मशीनें चलेंगी, मजदूरों को काम मिलेगा, नए उत्पाद बनेंगे, देश की अर्थव्यवस्था के रुके पहियों को गति मिलेगी.

कमीशनखोरी देश के एक बहुत बड़े वर्ग की आजीविका का साधन भी है. कई सरकारी विभाग तो ऐसे हैं जिन में मध्यस्थों के बिना कोई कार्य हो ही नहीं सकता. बहुत सारे लोग कमीशन से प्राप्त आय के बल पर न सिर्फ अपने परिवार का उचित भरणपोषण करते हैं बल्कि समाज में एक सम्मानित जिंदगी का भी निर्वाह करते हैं. इन मध्यस्थों के बीच में आते ही रुके हुए कार्य फिर प्रारंभ हो जाते हैं, अटकी हुई फाइलों में मानो पंख लग जाते हैं. इन का एक इशारा पाते ही अधिकारी कैसी भी फाइलों पर बिना सोचविचार किए हस्ताक्षर कर देते हैं. ये मध्यस्थ रुके हुए कार्य की सारी बाधाएं हटा कर उसे वापस सही मार्ग पर ले आते हैं, चलने लायक बना देते हैं. अंत में, हमारे देश की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रहे, सभी कर्मचारी प्रसन्न रहें, सरकारी दफ्तरों की रौनक बनी रहे, बाबूराज कायम रहे, विकास कार्य जारी रहे, कमीशन का निर्बाध आदानप्रदान होता रहे, देश प्रगति करे, इन सब के लिए सभी सौदों में कमीशन देना जरूरी है. इसलिए मेरी स्पष्ट सोच है कि कमीशनखोरी हमारा पारिवारिक, नैतिक, सामाजिक दायित्व ही नहीं बल्कि राष्ट्रीय दायित्व है. कहिए, क्या कहते हैं आप?

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