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खेल खबर

भारत में ओलिंपिक अभी दूर

कयास यह लगाया जा रहा था कि वर्ष 2024 में ओलिंपिक खेलों के लिए भारत मेजबानी का दावा कर सकता है. लेकिन अब इन अटकलों पर विराम लग गया है. क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक संघ के अध्यक्ष थौमस बाक ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद साफ कर दिया कि भारत की ओर से ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं रखा गया है. ऐसे में भारतीय खिलाडि़यों और खेलप्रेमियों के लिए यह अच्छी खबर तो नहीं कही जा सकती लेकिन कड़वी सचाई यह है कि भारत अभी ओलिंपिक के लिए तैयार नहीं है. जिस तरह भारतीय खेल संघों में राजनीति और भ्रष्टाचार का आलम है उस से उबर पाना अभी मुश्किल है. अकसर खेल संघों और खेल मंत्रालय के अधिकारियों के बीच खींचतान चलती रहती है. खिलाडि़यों को विश्वस्तरीय सुविधाओं की बात तो छोडि़ए उन्हें बुनियादी सुविधाएं तक नहीं मिल पातीं. खेल पुरस्कारों को ले कर अकसर विवाद होते रहते हैं. और वैसे भी भारत में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हुए घोटाले जगजाहिर हैं. राजनेता, नौकरशाह और खेल पदाधिकारियों ने करोड़ोंअरबों कमा कर कैसे अपनी तिजोरियां भरीं, यह भी किसी से छिपा नहीं है. इस के लिए भारतीय ओलिंपिक संघ को भ्रष्टाचार के आरोपों में निलंबित कर दिया गया था. यह अलग बात है कि अब यह निलंबन हट गया है. लेकिन राष्ट्रमंडल के दौरान जिन स्टेडियमों को बनाने में करोड़ों रुपए खर्च हुए वे स्टेडियम आज सफेद हाथी साबित हो रहे हैं. न तो उन का उचित रखरखाव हो पा रहा है और न ही उन का इस्तेमाल ही हो पा रहा है. पहले तो जो बदइंतजामी है, उसे ठीक करना होगा. खेल संघों को राजनीति और भ्रष्टाचार से मुक्त करना होगा, तभी खेल और खिलाडि़यों का भला होगा और हम ओलिंपिक जैसे बड़े आयोजनों के लिए तैयार हो पाएंगे.

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अब ये हुए आमनेसामने

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की अंदरूनी लड़ाई नई बात नहीं है. इस बार 2 दिग्गज आईसीसी के चेयरमैन एन श्रीनिवासन और बीसीसीआई के सचिव अनुराग ठाकुर आमनेसामने हैं. वजह, आईसीसी की ओर से बीसीसीआई को सूचना दी गई कि अनुराग ठाकुर के एक सट्टेबाज से रिश्ते हैं और उन्हें उन से दूर रहना चाहिए. इस बात का जवाब अनुराग ठाकुर ने एक पत्र के माध्यम से दिया कि इस के पीछे एन श्रीनिवासन का हाथ है क्योंकि बीसीसीआई में मेरा सचिव बनना उन को खल रहा है. खैर, खेल संघ राजनीति का अड्डा तो बन ही चुके हैं, लगेहाथ कांग्रेस को भी मौका मिल गया और कांग्रेस प्रवक्ता सुष्मिता देव ने कहा कि अनुराग ठाकुर के सट्टेबाजों के साथ संबंध होने के बारे में अखबारों में खबरें छपी हैं और आश्चर्य की बात यह है कि न खाऊंगा, न खाने दूंगा जैसे जुमले देने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी के एक युवा नेता ऐसे सट्टेबाजों के साथ उठबैठ रहे हैं.

क्रिकेट में सट्टेबाजों के वारेन्यारे हो रहे हैं, यह सभी जानते हैं और इस गोरखधंधे के बारे में आईसीसी और बीसीसीआई में कुंडली मार कर बैठे अधिकारियों को यह सब मालूम है. इस खेल में बड़ेबड़े उद्योगपति, नौकरशाह, अभिनेता, राजनेता और खिलाड़ी सभी शामिल हैं. इस खेल में जो बड़ी मछली है उसे कुछ नहीं होता, अकसर छोटी मछलियों को आगे कर दिया जाता है. छोटेमोटे बुकीज व सट्टेबाजों की गिरफ्तारी और जांच कमेटी बिठाने से सट्टेबाजी पर लगाम नहीं लग सकती. जब तक इस खेल से जुड़े भ्रष्ट आला अधिकारी व सट्टेबाजी के असली आका गिरफ्त में नहीं आएंगे, खेल के नाम पर सजा कैसीनो का यह बाजार यों ही गुलजार होता रहेगा.

सनी लियोनी से बातचीत

कनैडियन पौर्न स्टार सनी लियोनी अब बौलीवुड में अपने पैर जमा रही हैं. रिऐलिटी शो ‘बिग बौस’ के बाद वे फिल्म ‘जिस्म 2’, ‘शूट आउट एट वडाला’, ‘जैकपौट’, ‘रागिनी एमएमएस 2’ जैसी फिल्मों में अभिनय कर चुकी हैं. हाल ही में उन की फिल्म ‘एक पहेली लीला’ प्रदर्शित हुई, जिस में वे दोहरी भूमिका में नजर आईं. फिल्म की रिलीज से पहले चर्चाएं थीं कि इस फिल्म के बाद सनी लियोनी की इमेज बदल जाएगी मगर फिल्म देख कर सारे दावे खोखले साबित हुए. इस बाबत उन का इस प्रतिनिधि से कहना है-

मैं ने कभी कोई दावा नहीं किया. मुझे ही नहीं मेरे निर्माताओं को भी पता है कि मैं जिस फिल्म का हिस्सा बनूंगी उसे सैंसर बोर्ड केवल ‘ए’ प्रमाणपत्र ही देगा. मेरी इमेज की चर्चा मीडिया से जुड़े लोग करते रहते हैं. मैं ने अपनी इमेज को ले कर कभी कुछ नहीं कहा. मैं स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगी कि मेरे प्रशंसक मेरे साथ तब से जुड़े हुए हैं जब मैं पौर्न ऐक्ट्रैस थी. बौलीवुड में आने के बाद वे मेरे साथ अब भी जुड़े हुए हैं. मुझे लगता है कि मेरी तरक्की के साथ एक दिन मेरी इमेज बदल जाएगी और मेरे दर्शक भी मेरे साथ बदल जाएंगे लेकिन मैं अपनी इमेज बदलने का कोई प्रयास नहीं कर रही हूं. मैं सिर्फ यह प्रयास कर रही हूं कि लोग मुझे समझ सकें कि मैं एक सशक्त अदाकारा हूं. सिर्फ ग्लैमरस ही नहीं बल्कि चुनौतीपूर्ण किरदार भी कर सकती हूं.

यह उत्तर लचर और बेबुनियाद है. सनी न तो अदाकारा हैं और न ही सशक्त. वे तो सिर्फ पौर्न व ग्लैमरस रोल कर सकती हैं और फिल्मकार भी उन की इसी इमेज को भुना कर अश्लील संवादों व कहानियों पर फिल्में बना रहे हैं.

अपनी सैक्सी इमेज पर वे कहती हैं, ‘‘यह सही है कि मेरी फिल्म में एक किस्म का ग्लैमर और सैक्सीनैस रहती है और रहेगी क्योंकि हर दर्शक फिल्में किन्हीं खास कारणों से ही देखने के लिए जाता है. अगर मैं रितिक रोशन की फिल्म देखने जाती हूं तो मुझे इंतजार रहता है कि वे कब अपनी शर्ट उतार फेंकेंगे. अगर मैं प्रियंका चोपड़ा, दीपिका पादुकोण और जैकलीन की फिल्में देखती हूं तो इसलिए कि वे सुंदर हैं. मैं इंतजार करती हूं कि उन की अगली फिल्म कब आएगी. मुझे लगता है कि दर्शक भी मुझे इसी तरह से देखते हैं.’’

यह ठीक है कि वे पौर्न फिल्मों में बनी रहें तो नाम व पैसा कमा सकती हैं लेकिन अभिनय उन के वश का नहीं. करीब आधा दर्जन फिल्में करने के बाद न तो उन का अभिनय परिपक्व हुआ, न ही डायलौग डिलीवरी. सिर्फ बदन उघाड़ू प्रदर्शन के जरिए आखिर कब तक टिका जा सकता है. बहरहाल, अपनी फिल्मी यात्रा के बाबत वे कहती हैं कि जब वे ‘बिग बौस’ का हिस्सा बनी थीं उस वक्त उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था कि वे बौलीवुड से जुड़ पाएंगी. पर अब स्थिति बदल चुकी है. फिर भी कई ऐसे बड़े प्रोडक्शन हाउस हैं जो नहीं चाहते कि वे बौलीवुड में रहें. उन की फिल्मों को उन के प्रशंसक इतना पसंद करते हैं कि उन्हें दूसरी फिल्में मिल जाती हैं. बौलीवुड की उन की अब तक की जो यात्रा है वह उन के अपने प्रशंसकों की वजह से ही है.

वैसे सनी जिन्हें प्रशंसक समझ रही हैं उन में ज्यादातर बी व सी ग्रेड फिल्मों के शौकीन हैं या फिर वे जो हर शुक्रवार को फिल्म का पोस्टर देख सिनेमाघर में घुस जाते हैं. उन्हें न तो फिल्म की गुणवत्ता से मतलब होता है और न कहानी से. इसीलिए उन की अब तक प्रदर्शित फिल्मों ने कुछ खास नहीं दिया.

सफाई देती हुई सनी कहती हैं कि यह सही है कि अब तक उन्होंने ऐसा काम नहीं किया जो चर्चा लायक हो लेकिन बौलीवुड में हमेशा ही अच्छा काम करने की कोशिश की. लेकिन उन के बारे में तथा उन की परफौर्मेंस को ले कर कभी भी अच्छा नहीं लिखा गया. जिन्होंने उन के खिलाफ लिखा उन से वे नाराज नहीं हैं. उन्हें किसी से कोई शिकायत भी नहीं है. प्रशंसकों ने उन का साथ देते हुए फिल्म ‘रागिनी एमएमएस 2’ को सफल बनाया. आप यकीन नहीं करेंगे. मगर ‘रागिनी एमएमएस2’ को इंटरनैट पर इतने अधिक हिट्स मिले कि वे खुद आश्चर्यचकित रह गईं. ये सब जगजाहिर है.

वैसे सनी जिन सोशल मीडिया में हिट होने का हवाला दे रही हैं वहां इतना ज्यादा कचरा फैला है कि अच्छेबुरे का फैसला करना असंभव है. कई बार किसी सामाजिक संदेश से भरे कंटैंट को कोई फीडबैक नहीं मिलता और कभी गालीगलौज के बेवकूफीभरे वीडियो (जैसे एआईबीरोस्ट) को रातोंरात लाखों हिट्स मिल जाते हैं. यह सनसनी फैलाने का जरिया भले हो लेकिन गुणवत्ता व सफलता का पैमाना बिलकुल नहीं है.

अपनी पौर्न छवि के साथ बौलीवुड में स्वीकार्यता को ले कर सनी का मानना है कि उन्होंने अतीत में एडल्ट स्टार की तरह काम किया पर वह उन का प्रोफैशन था. वे निजी जिंदगी में वैसी नहीं हैं. यह बात बौलीवुड के कुछ लोग आज भी नहीं समझना चाहते. उन के अतीत की वजह से लोग डरते थे, उन के साथ काम करने से कतराते थे. बौलीवुड के कई बड़े स्टार कलाकारों ने उन के साथ महज इसलिए काम करने से इनकार कर दिया क्योंकि उन की पत्नियां नहीं चाहती थीं. अब इन स्टार पत्नियों को कौन समझाएगा कि उन की रुचि उन के पति में नहीं है. उन के पास उन्हें बहुत प्यार करने वाले, उन के हर कदम पर उन का साथ देने वाले उन के पति डैनियल हैं.

बता दें कि उन के पति डैनियल अमेरिकन हैं जो कभी उन के मैनेजर और एडल्ट वीडियो में उन के कोऐक्टर हुआ करते थे. बाद में दोनों ने विवाह कर लिया. तब से दोनों एडल्ट फिल्मों का निर्माण करने वाली सनलस्ट कंपनी में बिजनैस पार्टनर हैं.

सनी मानती हैं, ‘‘डेनियल बहुमुखी प्रतिभा के धनी इंसान हैं. वे बेहतरीन कलाकार और म्यूजीशियन हैं. उन की अपनी एक फैक्टरी और अपना म्यूजिकल बैंड है. अमेरिका में उन का अपना प्रोडक्शन हाउस भी है. इस के बावजूद वे मेरे लिए रोशनी है. जब मां की मौत हुई उस वक्त डैनियल ने साथ दिया था. जब मेरे पिता को कैंसर था तब भी वही मेरा व मेरे पूरे परिवार का खयाल रख रहे थे. वे अपने कैरियर के साथ मेरे कैरियर का भी पूरा खयाल रखते हैं.’’ खुद से जुड़ी विवादित पृष्ठभूमि के बावजूद खुल कर जिंदगी के हर पहलू पर बात करने वाली सनी मानती हैं कि इस की एकमात्र वजह यह है कि उन्होंने कभी भी पाखंडपूर्ण जिंदगी जीना नहीं चाहा. वे बचपन से ही स्वतंत्र व मुंहफट एटीट्यूड के साथ जिंदगी जीती आई हैं. यदि उन्होंने एडल्ट एंटरटेनमैंट की राह पकड़ी, तो यह उन का अपना निर्णय था, गलत रहा हो या सही. उन्होंने कभी नहीं कहा कि यह उन का निर्णय नहीं था. उन्हें उन के प्रशंसकों ने स्वीकार किया.

फिल्म ‘एक पहेली लीला’ में पुनर्जन्म जैसे अंधविश्वास से भरे विषय को बढ़ाचढ़ा कर पेश किया गया है. सनी भी इस पर यकीन करती हैं. वे मानती हैं कि पिछले जन्म में उन की जिंदगी कुछ और रही होगी. वे इस बात में यकीन करती हैं कि पिछले जन्म में उन की एनर्जी कुछ अलग रही होगी.

ये बातें उसी तरह हैं जैसे कई कलाकार सफलता के लिए ज्योतिषों के चक्कर में पड़ कर कभी अपना नाम बदलते हैं तो कभी उलटेसीधे कपड़े और लुक्स अपनाते हैं. जबकि इस से सिवा अंधविश्वास को बढ़ावा मिलने के और कुछ नहीं होता.

फिल्मकार दिलीप मेहता ने उन पर एक डौक्यूमैंट्री फिल्माई है. सनी के मुताबिक, ‘‘यह अच्छी, बुरी और अगली है. हर इंसान की जिंदगी में कुछ अच्छा तो कुछ बुरा होता है. मैं ने अपनी तरफ से इस डौक्यूमैंट्री में अपनी जिंदगी के किसी भी पक्ष को छिपाने की कोशिश नहीं की है. मैं ने इस सच को भी बयां किया है कि मैं ने व मेरे पति डैनियल ने जब अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू किया तो हमारे पास बिलकुल पैसे नहीं थे. ‘जीरो’ से शुरुआत की थी. दिलीप मेहता ने मुझ पर 22 हजार घंटे की एक डौक्यूमैंट्री फिल्माई है जिसे अब एडिट कर वे बाजार में लाएंगे.’’

फिल्म कलाकारों के समाजसेवी संस्थाओं से जुड़ने के प्रश्न पर सनी कहती हैं कि वे भी ‘अमेरिकन कैंसर सोसायटी’ के साथ काम कर रही हैं. वे कैंसर से पीडि़त मरीजों व कैंसर की बीमारी के बाद जीवित बचे लोगों की मदद करती हैं. निजी जीवन को ले कर कई कड़े अनुभव झेल चुकी सनी बताती हैं कि जिस शहर में उन का बचपन गुजरा, वहां के लोग उन से नफरत करते हैं. डौक्यूमैंट्री के सिलसिले में जब दिलीप उस शहर में गए तो वहां के लोगों ने उन का काफी विरोध किया.

फिलहाल सनी की इस साल 3-4 फिल्में रिलीज को तैयार हैं जिन में ‘डैंजरस हुस्न’, ‘बेईमान लव’, ‘मस्तीजादे’ और ‘कुछकुछ लोचा है’ प्रमुख हैं.

गौर करने वाली बात यह है कि ये तमाम फिल्में विषयवस्तुओं, गुणवत्ता के लिहाज से सनी लियोनी की पौर्न व ग्लैमर छवि को सस्ते तरीके से भुनाती लगती हैं. फिल्म के नाम पर सनी की पानी में बिकिनी सौंग गाते व थिरकते और द्विअर्थी संवादों के दम पर ऐसी फिल्में रिलीज तो की जा सकती हैं लेकिन अभिनय के मैदान में सनी की पारी लंबी या सफल होगी, यह कहना जल्दबाजी होगी.

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पाठकों की समस्याएं

मैं 22 वर्षीय युवक हूं. कुछ समय पहले मु झे एक लड़की से प्यार हो गया, वह भी मु झे प्यार करने लगी. मैं ने उस से विवाह करने का वादा भी किया. लेकिन कुछ दिन पहले मु झे पता चला कि वह लड़की नौर्मल यानी सामान्य नहीं है. अब मैं उस से विवाह नहीं करना चाहता. लेकिन वह लड़की कहती है कि विवाह करेगी तो केवल मु झ से ही. मैं ने उसे सम झाने की बहुत कोशिश की पर वह नहीं मान रही. उसे बिना दुख पहुंचाए मैं उस से कैसे कहूं कि हमारी शादी नहीं हो सकती. सलाह दें.

जब तक आप को वास्तविकता का पता नहीं था, आप एकदूसरे को प्यार करते थे, शादी भी करना चाहते थे. लेकिन लड़की के बारे में असलियत जान कर आप विवाह नहीं करना चाहते. आप का निर्णय ठीक है लेकिन आप ने यह नहीं बताया कि लड़की में क्या कमी है. क्या उस का इलाज संभव नहीं है? अगर ऐसा कुछ है तो आप अपनी बात उस तक पहुंचाने के लिए किसी तीसरे का सहारा लीजिए जो आप दोनों को अच्छी तरह जानता हो. समस्या जानते हुए वैवाहिक बंधन में बंधना समझदारी नहीं होगी. आप लड़की को भी समझाइए कि इस से आप दोनों ही खुश नहीं रह पाएंगे. ऐसे में विवाह बंधन में बंधना आप दोनों के लिए अनुचित होगा.*

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मैं 40 वर्षीय सरकारी सेवा में कार्यरत विवाहित कर्मचारी हूं. मेरी समस्या यह है कि मैं एक ही चीज के बारे में सोचता रहता हूं और हमेशा डर सा लगा रहता है, हाथों में पसीना आता है, मन हमेशा उदास रहता है और मरने से भी डर लगता है. मैं सम झ नहीं पा रहा हूं कि मेरे साथ क्या समस्या है और क्या इस का कोई समाधान है?

आप ने यह नहीं बताया कि आप किस चीज के बारे में सोचते रहते हैं और आप को किस बात से डर लगता है? क्या आप के घर के पारिवारिक हालात सामान्य हैं? या वहां कोई समस्या है? अगर ऐसा कुछ है तो पहले उस का समाधान ढूंढि़ए. आप की बातों से लगता है आप डिप्रैशन की अवस्था में हैं. आप मरने के बारे में क्यों सोचते हैं? आप थोड़े दिनों के लिए कहीं घूमनेफिरने जाएं, घरपरिवार के साथ अपनी समस्या शेयर कीजिए. माहौल बदलने से आप के मन की उदासी दूर होगी. अगर इन सब से भी कोई समाधान नहीं निकलता तो किसी मनोचिकित्सक से मिलिए. वे विस्तार से आप की समस्या जान कर आप को समाधान सु झा सकते हैं. समस्याओं से भागना या मरना कोई समाधान नहीं है. उन का डट कर हिम्मत से मुकाबला कीजिए. अपने डर के बारे में खुल कर बात कीजिए, उस का सामना करने की आप को हिम्मत मिलेगी.*

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मैं 19 वर्षीय कालेज का छात्र हूं. 3-4 महीने पहले मेरी एक लड़की से दोस्ती हुई है. इस दौरान हम केवल 5-6 बार ही मिल पाए हैं. मु झे लगता है कि वह जानबू झ कर मु झ से नहीं मिलती. वह कहती है कि जो भी बात करनी है फोन पर कर लिया करो. मिलने से वह कतराती है. लेकिन मैं उस से बारबार मिलना चाहता हूं. उसे किस करना चाहता हूं. फिर चाहे मैं उसे छोड़ दूं. मैं क्या करूं? समाधान बताइए.

आप ने बताया कि आप की दोस्ती को अभी केवल 3-4 महीने ही हुए हैं, आप दोनों 5-6 बार मिल चुके हैं और फोन पर भी बात होती रहती है. ऐसा लगता है आप कुछ ज्यादा ही जल्दबाज हैं. आप की इसी जल्दबाजी को शायद वह लड़की भांप गई है. वह आप से ज्यादा सम झदार लगती है. इसीलिए वह आप से दूरी बना रही है. वैसे भी जब आप उस से शारीरिक इच्छा के कारण दोस्ती कर रहे हैं तो यह गलत है. वह लड़की आप से न मिल कर सही कर रही है. आप अपना यह रवैया बदल डालिए सिर्फ शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए दोस्ती का ढोंग न करें वरना आप खुद तो मुसीबत में पड़ेंगे ही, सामने वाली लड़की को भी परेशानी में डाल देंगे.*

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मैं 24 वर्षीय अविवाहिता हूं. मेरा एक बौयफ्रैंड है. मैं उस से प्यार करती हूं. लेकिन कुछ दिन पूर्व वह मु झे छोड़ कर किसी और से प्यार करने लगा. अब वह उसे छोड़ कर दोबारा मेरे पास आ गया है और कह रहा है कि उस लड़की से गलती से प्यार हो गया था और अब वह केवल मु झ से ही प्यार करता है. इस स्थिति में मु झे क्या करना चाहिए? क्या मैं उस की बात पर विश्वास कर लूं? शंका का समाधान कीजिए.

आप के बौयफ्रैंड के इरादे ठीक नहीं लगते. वह विश्वास के योग्य भी नहीं लग रहा है. आप को छोड़ कर दूसरे के पास जाना और फिर उसे छोड़ कर आप के पास आना और इसे गलती कहना, उस के चरित्र को गलत साबित कर रहा है. आप उस से दूर ही रहिए, इसी में आप की भलाई है.

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मैं 30 वर्षीय विवाहिता हूं. विवाह को 4 वर्ष हो गए हैं. शुरुआत के 2 सालों तक तो सब ठीक चला लेकिन आजकल मेरे व पति के बीच कुछ ठीक नहीं चल रहा. वे मु झे इग्नोर करते हैं और चाहते हैं कि मैं घर की जिम्मेदारियां ठीक से निभाऊं. इसी बीच, मेरी दोस्ती एक लड़के से हो गई है. मैं उसे पसंद करती हूं. क्या मैं उस से दोस्ती बरकरार रखूं? सलाह दीजिए.

आप ने बताया कि शुरुआत के 2 सालों तक सब ठीक रहा तो जानने की कोशिश कीजिए कि उस के बाद ऐसा क्या हो गया कि पति आप से बेरुखी दिखाने लगे. कहीं आप घरपरिवार की जिम्मेदारियों से बेरुखी तो नहीं करने लगीं? अगर ऐसा है तो अपनी जिम्मेदारियों को सही ढंग से निभाइए व समय के साथ रिश्तों में आए बदलाव में नयापन लाने की कोशिश कीजिए. पति को खुश रखने का प्रयास कीजिए. दोबारा पुराने दिन लौट आएंगे. जहां तक उस लड़के से दोस्ती का सवाल है तो उस से दूरी ही रखिए, इसी में भलाई 

सफर अनजाना

मेरे 16 वर्षीय बेटे को रतलाम से उज्जैन जाना था. मैं उसे दाहोदभोपाल पैसेंजर ट्रेन में बैठाने के लिए स्टेशन पहुंची और उसे सीट पर बैठाया. ट्रेन के रवाना होने में कुछ समय बाकी था, इस कारण मैं भी उस के पास ही बैठ गई. वह मुझे सामान देखने को कह कर टौयलेट चला गया. जब वह काफी देर तक लौट कर नहीं आया तो मैं उसे देखने पहुंची. मुझे टौयलेट के अंदर से दरवाजा थपथपाने की आवाज आई. टौयलेट के अंदर से बेटे की आवाज सुनाई दी. वह कह रहा था, ‘अंदर से सिटकनी नहीं खुल रही है, दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो.’ बेटे ने टौयलेट के अंदर से तथा मैं ने व अन्य यात्रियों ने बाहर से दरवाजा खोलने की भरसक कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली. मैं सहायता की आस में ट्रेन से नीचे उतरी, मुझे परेशान देख कर प्लेटफौर्म पर मौजूद 2 रेलवे कर्मचारी मेरे पास आए. मैं ने उन्हें सारी बात बताई. उन्होंने तत्परता से टौयलेट की खिड़की में सरिया डाल कर सिटकनी खोली, तब मेरा बेटा टौयलेट से बाहर आ पाया. कुछ क्षण बाद ही ट्रेन रवाना हो गई. मैं उन रेलकर्मियों को धन्यवाद दे कर वापस घर लौटी. मैं हमेशा आभारी रहूंगी उन रेलवे कर्मचारियों की जिन्होंने मेरे बेटे को मुसीबत से बचाया.

विद्या देवी व्यास, रतलाम (म.प्र.)

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मेरी 1995 में शादी हुई. मेरे पति रामटेक में प्राइवेट नौकरी करते थे. शादी के 1 हफ्ते बाद वे मुझे अपने साथ ले कर जा रहे थे. मायके से रामटेक 60 किलोमीटर की दूरी पर है. हम बस स्टैंड पहुंचे. बस मिल गई. उस में काफी भीड़ थी. हमारे पास सामान भी बहुत अधिक था. अचानक हमारे एक रिश्तेदार आ गए. मुझ से व मेरे पति से मिलने के बाद वे मेरे पति से पान खाने का आग्रह करने लगे. पति को पानसुपारी का शौक नहीं है परंतु वे उन का आग्रह टाल नहीं सके और उन के साथ बस स्टैंड से बाहर पान की दुकान पर चले गए. इधर, बस छूट गई. टिकट के पैसे मेरे पास नहीं था. मैं घबरा गई और कंडक्टर को अपनी व्यथा सुनाई कि पति महाशय बस स्टैंड में ही छूट गए हैं, मेरी बात सुन कर बस में बैठे यात्री हंसने लगे. काफी दूर आने पर कंडक्टर ने बस रोकी. मैं ने सारा गृहस्थी का सामान नीचे उतारा. तभी देखा पति महाशय दौड़तेभागते पहुंचे. हम ने एक आटो लिया, वापस बस स्टैंड पहुंचे और 2 घंटे इंतजार के बाद दूसरी बस में बैठे और तब सफर पर निकल सके.

अमावस्या सं. मेश्राम, नागपुर (महा.)

दर्द के खेत में बैठा हूं

तेरे लौट आने के इंतजार में

मैं तनहाई की डाल पर बैठा हूं

बरसात में उम्मीद का दीप जलाए

मैं यादों के मकड़जाल पर बैठा हूं

आसमान का रंग लाल हो गया

मैं अब तक तेरे खयाल में बैठा हूं

चांद की चांदनी बदल गई कड़ी धूप में

मैं छत की मुंडेर पर बुरे हाल में बैठा हूं

इंतजार में तेरे सूख गई नदिया

मैं उस की तपती रेत पर बैठा हूं

सुहाना मौसम आंधी में बदल गया

मैं अब तक दर्द के खेत में बैठा हूं.

             – मुकुंद प्रकाश मिश्र

सास बहू सोप ओपेरा

‘नख से शिख तक गहनों से लदीफंदी, हैवी वर्क वाली साडि़यों में लिपटी, सोलहशृंगार किए दिनरात साजिशों में व्यस्त, खुन्नस खाई हुई, बातबात पर आंखें मटकाती, लंबीलंबी सांसें लेती, एकदूसरे के खिलाफ आग उगलती, जहरीली हंसी हंसती, आठों पहर होंठों पर कुटिल मुसकान बनाए रखती’, कुछ यही है टीवी धारावाहिकों की सासबहू का असली चित्रण. इन सासबहू के धारावाहिकों में कुछ तो ऐसा है कि रात के 8 बजे ही घरों में सासबहू की साजिश भरे किस्से देखने के लिए टीवी औन हो जाते हैं और घरों में कर्फ्यू सा लग जाता है. दरअसल, सासबहू परिवार का वह महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं या कहें परिवार की धुरी हैं जिन के संबंधों को ले कर न केवल चर्चाएं होती हैं, लेख लिखे जाते हैं बल्कि टीवी धारावाहिकों पर तो इस विषय का मानो एकछत्र राज्य है.

सासबहू ओपेरा का इतिहास

एकता कपूर ने महिलाओं की नब्ज टटोलते हुए वर्ष 2000 में टैलीविजन के स्टार प्लस चैनल पर धारावाहिक ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ से सासबहू के धारावाहिकों का इमोशनल ट्रैंड शुरू किया. साढ़े 8 साल से भी अधिक चलने वाला यह धारावाहिक उस समय का सब से अधिक देखा जाने वाला लोकप्रिय धारावाहिक था. तुलसी, मिहिर, कोमालिका इस धारावाहिक के सर्वाधिक लोकप्रिय किरदार थे. धारावाहिक में इन किरदारों की जिंदगी में कुछ भी घटता था तो लोगों में वह विचारविमर्श का अहम मुद्दा होता था. लोग खुद को उस से जुड़ा पाते थे. धारावाहिक में तुलसी का किरदार भारतीय परिवारों में स्त्रियों के लिए आदर्श बन गया था. इन धारावाहिकों के किरदारों की शोहरत आसमान छूने लगी. ये दर्शकों के बीच खासे लोकप्रिय हो गए. धारावाहिक में भारतीय परंपरा, संस्कृति, रिश्तों की खट्टीमीठी चुहलबाजी, लेटेस्ट फैशन, घर का इंटीरियर आदि सबकुछ था. इस धारावाहिक ने टीवी क्षेत्र में एक क्रांति ला दी थी. इस धारावाहिक को सासबहू पर आधारित धारावाहिकों की सफलता का मापदंड माना जाने लगा. लेकिन बदलते समय के साथ टीवी धारावाहिक का अर्थ सासबहू के झगड़े और षड्यंत्र रचने की कहानी बन गया. सासबहू पर आधारित फार्मूला इतना हिट हुआ कि टीवी की दुनिया इस खास और अनूठे रिश्ते के इर्दगिर्द घूमने लगी.

अगर वर्तमान धारावाहिकों की बात करें तो वे भी घूमफिर कर सासबहू का ही राग अलाप रहे हैं. धारावाहिक में अगर कुछ दिखता है तो केवल सासबहू का राग जिस में सास हमेशा बहू के खिलाफ खड़ी नजर आती है तो बेचारी बहू सास की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करती दिखती है. एक ऐसा ही धारावाहिक है ‘दीया और बाती हम’, जिस में नायिका संध्या आईपीएस औफिसर बनना चाहती है. वह पढ़ीलिखी समझदार, सुशील व पारिवारिक दायित्वों को निभाने वाली बहू है. धारावाहिक के थीम के अनुसार, शुरुआत में तो पति सूरज संध्या को सपोर्ट करता दिखाई देता है लेकिन धीरेधीरे धारावाहिक थीम से हट कर सासबहू पर केंद्रित हो जाता है जिस में सास यानी भाभो चाहती है कि बहू पहले खुद को अच्छी बहू साबित करे, घर व नौकरी में पहली प्राथमिकता घर को दे. यानी वही, बहू पर नियंत्रण करने वाली सास का चरित्र.

नकारात्मक प्रभाव

सासबहू के रिश्ते को आधार बना कर बनने वाले सभी सीरियलों में इस रिश्ते में तनाव, तनातनी, प्रतियोगिता, एकदूसरे को नीचा दिखाने के दृश्य दिखाए जाते हैं जहां सास षड्यंत्र रचती रहती है, घर पर अपना राज चाहती है. वहीं बहू को पीडि़ता के रूप में दिखाया जाता है जो बिना कुछ बोले सबकुछ सहती रहती है. सासबहू के तनावपूर्ण रिश्ते का असर वास्तविक जिंदगी में परिवारों पर पड़ता है. विभिन्न सर्वेक्षणों और शोधों में भी यह बात सामने आई है कि संयुक्त परिवारों में तनाव का 60 प्रतिशत कारण सासबहू के बीच का रिश्ता होता है और सासबहू के ये धारावाहिक इस रिश्ते पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं. ये धारावाहिक सास की इमेज को खराब करते हैं जबकि वास्तविक जीवन में सासबहू का रिश्ता इतना खराब नहीं है जितना धारावाहिकों में दिखाया जाता है. धारावाहिकों में महिलाओं को या तो चालाक व चालबाज या फिर कमजोर या कुंठित दिखाया जाता है जबकि वास्तविक जीवन की बहुओं व सासों के बीच रिश्ते बदल रहे हैं.

बहुएं कामकाजी हैं जिन का सास से कम ही वास्ता पड़ता है और सास भी बहू के साथ एडजस्ट करने की कोशिश करती है लेकिन ये धारावाहिक वास्तविक जीवन के रिश्तों की इस कोशिश पर पानी फेरते नजर आते हैं. वे सासबहू को एकदूसरे के खिलाफ षड्यंत्र करना, चालें चलना सिखाते हैं. जो दांवपेंच इन धारावाहिकों में दिखाए जाते हैं वे आम महिला के वश की बात नहीं है. वे मात्र इस रिश्ते को दिग्भ्रमित कर रहे हैं.

समाज से कोई सरोकार नहीं

भारत में कुल मिला कर 200 से अधिक चैनल हैं और ये मनोरंजन के सब से सस्ते माध्यम हैं. धारावाहिकों में जो दिखाया जाता है उस का समाज या परिवार की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं है. जो इन धारावाहिकों का कंटैंट बनाते हैं उन्हें समाज की समस्याओं की न तो समझ है न ही उन का उद्देश्य इन समस्याओं को समझ कर उस का समाधान पेश करना है. दरअसल, उन का एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है. क्या दिखाया जाए इस की निर्णयशक्ति इन चैनलों को चलाने वाले कौर्पोरेट के पास है जो अपनी कहानियों में ऐसे पात्र गढ़ते हैं जो न सीधेसच्चे हैं और न ही उन में कोई समझदारी है. वे दिखाते हैं केवल हत्या, हिंसा, जालसाजी धोखाधड़ी करती 2 किनारों पर खड़ी 2 औरतें जो एकदूसरे के खिलाफ हैं. ये पात्र समाज को कोई सकारात्मक संदेश देते नहीं दिखाई देते. इन धारावाहिकों में सिर्फ उच्चवर्ग का रहनसहन और उन की तड़कभड़क दिखाई जाती है जिस में आम सासबहू की समस्याएं दूरदूर तक नजर नहीं आतीं. इन धारावाहिकों में घरों में होने वाली उठापटक काफी तड़कभड़क के साथ परोसी जाती है. इन के किरदार या तो पूरी तरह नैतिकता से दूर होते हैं या पूरी तरह आदर्शवादी. वास्तविक जीवन में ऐसी महिलाएं कहां दिखाई देती हैं जो दिनभर सजधज कर कुटिल चालें चलती व षड्यंत्र करती हों.

धर्मभीरु व अंधविश्वासी

एक तरफ इसरो ने मंगल ग्रह में अपना यान छोड़ दिया है लेकिन हमारे टीवी धारावाहिक आज भी पूजापाठ, यज्ञहवन, ग्रहशांति, जन्मकुंडली आदि पर अटके हैं. इन धारावाहिकों में पत्नी के ग्रहों की वजह से पति का जीवन खतरे में पड़ जाता है और वह पति के जीवन की रक्षा के लिए धर्मकर्म, आडंबरों का सहारा लेती है. ये धारावाहिक महिलाओं की छवि को मनमाने तरीके से तोड़मरोड़ कर अपना स्वार्थ साधने हेतु पेश किए जा रहे हैं जो समाज को आगे ले जाने की बजाय पीछे ले जाते प्रतीत होते हैं. शहर में बढ़ते अपराधों के बीच ऐसे पात्र गढ़ने की जरूरत है जो घरबैठी महिलाओं में छद्म डर रोपित करने के बजाय उन्हें मानसिक तौर पर आधुनिक व सुदृढ़ बनाएं, न कि धार्मिक आडंबरों की दलदल में धकेलें.

धारावाहिक का असर

टीवी धारावाहिक का आम महिला पर असर कुछ इस तरह देखने को मिला. गे्रटर नोएडा में एक महिला जो कई दिनों से टीवी पर एक सीरियल देख रही थी, जिस में युवक ससुराल की हालत सुधारने के लिए घरजमाई बन कर रहने लगता है. टीवी सीरियल देख कर यह महिला, जिद पर अड़ गई कि वह भी पति को घरजमाई ही बनाएगी. लेकिन जब पति तैयार नहीं हुआ तो उस ने दहेज का सारा सामान ट्रक में भर कर मायके जाने की तैयारी कर ली. इस तरह धारावाहिकों में दिखाए जाने वाले घटनाक्रम आम जनजीवन की जीवनशैली पर अप्रत्यक्ष रूप से गलत प्रभाव डालते हैं और पारिवारिक अलगाव का कारण बनते हैं.

हमारी बेडि़यां

मेरे एक रिश्तेदार सपरिवार बनारस से रेणुकूट जा रहे थे. रास्ते में दुर्घटना हो गई. उन की कार ट्रक से जा टकराई. 10 दिन हौस्पिटल में रहने के बाद वे लोग घर आए. घटना के बाद उन लोगों को अपनी पड़ोसिन की कही बात याद आई. पड़ोसिन ने कहा था, ‘‘दुर्गाजी की जिस भी मूर्ति में बाघ का मुंह खुला हो वह अशुभ होती है.’’ उन के घर में भी दुर्गा की चांदी की एक मूर्ति थी जिस में बाघ का मुंह खुला हुआ था. यह मूर्ति उपहार में किसी ने दी थी. उन लोगों ने मूर्ति को मंदिर में दान कर दिया. बाद में पता चला कि दुर्घटना का कारण मूर्ति नहीं, ड्राइवर को झपकी आना था. हमारे समाज की विडंबना है कि ज्यादातर पढ़ेलिखे लोग सब सोचतेसमझते हुए भी अंधविश्वास की बेडि़यों से बंध जाते हैं.      

नीरू श्रीवास्तव, मथुरा (उ.प्र.)

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एक बार हमारे गांव राहमर, जनपद गाजीपुर में कामाख्या धाम (जो राहमर के नजदीक है) में 6-7 साधुमहात्मा जैसे लोग पधारे और लोगों की सुखशांति व धनसंपत्ति में बढ़ोतरी के लिए यज्ञ करने के लिए ऐलान किया. धर्मांध जनता उन के दर्शनों के लिए उमड़ी. जिस से जो कुछ बनता, उन के चरणों में चढ़ावा चढ़ाता. उन लोगों ने यज्ञ करने के नाम पर बहुत से धन की उगाही कर ली और एक दिन आधी रात के बाद सारा रुपयापैसा ले कर चंपत हो गए. जब सुबह लोगों को पता चला तो सब हाथ मलते रह गए.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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गरमी के दिनों में हमारी भांजी का विवाह था. पहली भांजी थी, लिहाजा हम तीनों मामामामियां उत्साह के साथ ‘चीकट’ (भात) ले कर पहुंचे. ननद का औपरेशन हुआ था. वे नीचे नहीं बैठ पाती थीं. रस्में शुरू हुईं. हम सभी के लिए साडि़यां, पैंटशर्ट आदि ले कर गए थे. तभी उन की बुजुर्ग रिश्तेदार कहने लगीं कि मामामामी को भांजी के पैर धो कर पीना है. मैं ने विरोध किया पर जेठानीजी तैयार हो गईं. भांजी का अंगूठा धोया गया व हम सब को चरणामृतस्वरूप पीने को दिया गया. बात यहीं खत्म नहीं हुई. वह बुजुर्ग कहने लगीं, बहनबहनोई व भांजी की लटें धो कर उस का पान करना है. उन्होंने एक कटोरा ले कर तीनों के बाल धोए व हमें दिए. मैं ने तो फेंक दिया पर हमारे जेठजी ने पसीनेभरा गंदा पानी पी लिया. गरमी चरम पर थी. थोड़ी देर बाद उन्हें उल्टियां होने लगीं. छोटी जगह होने के कारण वहां डाक्टर भी नहीं था. उन्हें तुरंत गाड़ी में निकटतम शहर ले जाना पड़ा. एक मूखर्तापूर्ण रस्म के कारण हम शादी छोड़ अस्पताल में बैठे थे.

सुजाता गुप्ता, भोपाल (म.प्र.)

सहारे की तलाश

दिल आज फिर दिमाग से विद्रोह कर बैठा. क्या ऐसी ही जिंदगी की उम्मीद की थी उस ने? क्या ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने? खुद वह कितनी संभावनाओं से भरी हुई थी, अपना रास्ता तलाश कर मंजिल तक पहुंचना वह जानती है, रिश्तों के तारों के छोर सहला कर उन्हें जोड़ना भी उसे आता है. जीवनसाथी ऐसा हो जिस पर नाज कर सके. उस का कोई तो रूप ऐसा हो, वह शारीरिक रूप से ताकतवर हो या मानसिक रूप से परिपक्व हो, खुला व्यक्तित्व हो या फिर आर्थिक रूप से हर सुख दे सके या फिर भावनात्मक रूप से इतना प्रेमी हो कि उस के माधुर्य में डूब जाओ. कोई तो कारण होना चाहिए किसी पर आसक्ति का. प्यार सिर्फ साथ रहने भर से हो सकता है, एकदूसरे की कुछ मूलभूत जरूरतें पूरी करने से हो सकता है. लेकिन आसक्ति, बिना काण नहीं हो सकती.

छलकपट से भरा दिमाग, कभी किसी को निस्वार्थ प्यार नहीं कर सकता और न पा सकता है. ऐसे इंसान पर प्यार लुटाना लुटने जैसा प्रतीत होता है. दिमाग समझता है जिंदगी को नहीं बदल सकते हम. इंसान को नहीं बदल सकते. पति की काबिलीयत, स्वभाव या क्षमता को घटाबढ़ा नहीं सकते, सबकुछ ले कर चालाकी से अपनी टांग ऊपर रखने की आदत को नहीं बदल सकते. पर खुद को बदल सकते हैं, खुद के नजरिए को बदल सकते हैं. दिमाग की यह घायल समझ दिल से आंसुओं के सैलाब में बह जाती है जब दिल नहीं सुन पाता है किसी की, जब दिल खुद से ही तर्क करने लग जाता है. पूरी जिंदगी रीत गई, अब क्या समेटना है. अब तक जिंदगी के हर पहलू को अपने सकारात्मक नजरिए से देखती रही. पर कब तक दिल में उठ रही नफरत को दबाती रहती. क्या किसी ऐसे ही जीवनसाथी की कल्पना की थी उस ने जो सिर्फ बिस्तर पर ही रोमांटिक प्रणयी हो.

आज वैभवी के दिल के तार झनझना गए थे. उस के पिताजी ने अपनी छोटी सी जायदाद के 2 हिस्से कर अपने दोनों बच्चों में बांट दिए थे. भैया का परिवार मुंबई में रहता था. उस की नौकरी वहीं पर थी. वह खुद दिल्ली में रहती थी और मांपिताजी चंडीगढ़ में रहते थे. डाक्टर ने पिताजी को हर्निया का औपरेशन कराने के लिए कह दिया था. पिताजी काफी समय से तकलीफ में थे. जब वह पिछली बार चंडीगढ़ गई थी तो मां ने पिताजी की तकलीफ के बारे में उसे बताया था. वह विचलित हो गई थी. उस ने भैया से फोन पर बात की तो भाई ने यह कह कर मजबूरी जता दी थी कि इतनी छुट्टी उसे एकसाथ नहीं मिल सकती कि वह चंडीगढ़ जा कर औपरेशन करा सके और साथ ही मां से तेरी भाभी की बिलकुल नहीं बनती, इसलिए मुंबई ला कर भी औपरेशन की बात नहीं सोच सकता.

‘‘वैसे भी तू जानती है वैभवी, छोटा सा फ्लैट, पढ़ने वाले बच्चे, बीमार आदमी के साथ बडे़ शहर में बहुत मुश्किल हो जाती है,’’ भैया ने मजबूरी जताते हुए कहा.

‘‘तो फिर क्या पिताजी को ऐसे ही तकलीफ में मरने के लिए छोड़ दें,’’ वैभवी के स्वर में तल्खी आ गई थी.

‘‘तो फिर तू चली जा या फिर प्रकाश चला जाए. उस की तो सरकारी नौकरी है, छुट्टी मिलने में इतनी दिक्कत भी नहीं होगी,’’ उस के स्वर की तल्खी भांप कर वह भी चिढ़ गया था.

‘‘लेकिन भैया, बेटे के होते हुए दामाद का एहसान लेना क्या ठीक है?’’ वह अपने को संयमित कर लाचारी से बोली थी.

‘‘क्यों? जब हिस्सा मिला तब तो बेटीदामाद जैसी कोई बात नहीं हुई और जब जिम्मेदारी निभाने की बात आई तो वह दामाद हो गया,’’ भैया भुन्नाता हुआ बोला.

वह दुखी हो गई थी. दिल किया कि कोई तीखा सा जवाब दे दे. पर चुप रह गई. आखिर गलत भी नहीं कहा था. पर यह सब कहने का अधिकार भी भैया को तब ही था जब वह अपने कर्तव्य का हर समय पालन करता.

वह तो जायदाद में हिस्सा बिलकुल भी नहीं चाहती थी. उस ने पिताजी को बहुत मना भी किया था पर एक तो मांपिताजी की जिद और दूसरे, प्रकाश की चाहत भांप कर उस ने हां बोल दी. सोचा, जायदाद पा कर ही सही, प्रकाश उस के मांपिताजी के लिए नरम रुख अपना ले. इस के अलावा जरूरत पड़ने पर उसे चंडीगढ़ जाने में भी आसानी हो जाएगी. एकदम मना नहीं कर पाएगा प्रकाश उसे. पर भैया के व्यवहार में तब से तटस्थता आ गई थी. भाभी तो हमेशा से ही तटस्थ थीं. पर भैया का व्यवहार वैसे सामान्य था. उसे अपनी परवा नहीं थी. बस, मांपिताजी का ध्यान रख ले भैया, इसी से वह खुश रहती. पर भैया के जवाब से उस का दिल टूट गया था. भैया का अगर जवाब ऐसा है तो प्रकाश का जवाब तो वह पहले से ही जानती है. फिर भी उस ने सोचा एक बार तो प्रकाश से बात कर के देख ले. उस से और मां से पिताजी के औपरेशन का तामझाम नहीं संभलेगा. कोई भी परेशानी खड़ी हो गई तो एक पुरुष का साथ तो होना ही चाहिए औपरेशन के समय. प्रकाश का मूड ठीक सा भांप कर एक दिन उस ने प्रकाश से बात कर ही ली.

‘‘पिताजी की तकलीफ बढ़ती ही जा रही है प्रकाश, कल भी बात हुई थी मां से. डाक्टर कह रहे हैं कि समय से औपरेशन करवा लो.’’

‘‘हां तो करवा लें,’’ प्रकाश के चेहरे के भाव एकदम से बदल गए थे.

‘‘तुम चलोगे चंडीगढ़, कुछ दिन की छुट्टी ले कर?’’

‘‘क्यों, उन के बेटे का क्या हुआ?’’

‘‘किस तरह से बोल रहे हो, प्रकाश. बात की थी मैं ने भैया से, छुट्टी नहीं मिल रही उन्हें. थोड़े दिन की छुट्टी तुम ले लो न. औपरेशन करवा कर तुम आ जाना. फिर कुछ दिन मैं रह लूंगी. फिर थोड़े दिन के लिए भैया भी आ जाएंगे. तो पिताजी की देखभाल हो जाएगी.’’

‘‘मुझे भी छुट्टी नहीं मिलेगी अभी,’’ कह कर प्रकाश उठ कर बैडरूम की तरफ चल दिया, ‘‘और हां,’’ वह रुक कर बोला, ‘‘तुम भी वहां लंबा नहीं रह सकती हो, यहां खानेपीने की दिक्कत हो जाएगी मुझे,’’ इतना कह कर प्रकाश चला गया.

उस ने भी हार नहीं मानी. और उस के पीछे चल दी, चलतेचलते उस ने कहा, ‘‘प्रकाश, उन्होंने हम दोनों भाईबहन को अपना सबकुछ बांट दिया है तो हमारा भी तो उन के प्रति फर्ज बनता है.’’

‘‘तो,’’ प्रकाश तल्खी से बोला, ‘‘बेटी को ही दिया है क्या, बेटे को नहीं दिया, वह क्यों नहीं आ जाता?’’

‘‘उफ,’’ वैभवी का सिर भन्ना गया. प्रकाश के तर्क इतने अजीबोगरीब होते हैं कि जवाब में कुछ भी कहना मुश्किल है. संवेदनहीनता की पराकाष्ठा तक चला जाता है. दिल घायल हो गया. पिताजी के 2 अपंग सहारे प्रकाश और भैया जिन पर पिताजी ने अपना सबकुछ लुटा दिया, जिन्हें पिताजी ने अपना आधार स्तंभ समझा, आज कैसा बदल गए हैं. इस के बाद उस ने प्रकाश से कोई बात नहीं की. चुपचाप अपना रिजर्वेशन करवाया और जाने की तैयारी करने लगी. प्रकाश के तने हुए चेहरे की परवा किए बिना वह चंडीगढ़ चली गई. उस की बेटी इंजीनियर थी और जौब कर रही थी. 2 दिन बाद वह कुछ दिनों की छुट्टी में घर आ रही थी. वैभवी ने उसे वस्तुस्थिति से अवगत करवाया और चंडीगढ़ चली गई. मां ने वैभवी को देखा तो उन्हें थोड़ा सुकून मिला.

वैभवी को देख मां ने कहा, ‘‘दामाद जी नहीं आए?’’

‘‘तुम्हारा बेटा आया जो दामाद आता,’’ वह चिढ़ कर बोली, ‘‘बेटी काफी नहीं है तुम्हारे लिए?’’

मां चुप हो गईं. एक वाक्य से ही सबकुछ समझ में आ गया था. पिताजी ने कुछ नहीं पूछा. दुनिया देखी थी उन्होंने. फिर कुछ पूछना और उस पर अफसोस करने का मतलब था पत्नी के दुख को और बढ़ाना. सबकुछ समझ कर भी ऐसा दिखाया जैसे कुछ हुआ ही न हो. पिताजी का जिस डाक्टर से इलाज चल रहा था उन से जा कर वह मिली. औपरेशन का दिन तय हो गया. उस ने प्रकाश व भाई को औपचारिक खबर दे दी. डरतेडरते उस ने पिताजी का औपरेशन करवा दिया. मन ही मन डर रही थी कि कोई ऊंचनीच हो गई तो क्या होगा. पर पिताजी का औपरेशन सहीसलामत हो गया, उस की जान में जान आई. पिताजी को जिस दिन अस्पताल से घर ले कर आई, मन में संतोष था कि वह उन के कुछ काम आ पाई. पिताजी को बिस्तर पर लिटा कर, लिहाफ उढ़ा कर उन के पास बैठ गई. उन के चेहरे पर उस के लिए कृतज्ञता के भाव थे जो शायद बेटे के लिए नहीं होते. आज समाज में बेटी को पिता की जायदाद में हक जरूर मिल गया था लेकिन मातापिता अपना अधिकार आज भी बेटे पर ही समझते हैं.

पिताजी ने आंखें बंद कर लीं. वह चुपचाप पिताजी के निरीह चेहरे को निहारने लगी. दबंग पिताजी को उम्र ने कितना बेबस व लाचार बना दिया था. भैया व प्रकाश, पिताजी के 2 सहारे कहां हैं? वह सोचने लगी, उसे व भैया को पिताजी ने कितने प्यार से पढ़ायालिखाया, योग्य बनाया, वह लड़की होते हुए भी अपने पति की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता की जरूरत पर आ गई. लेकिन भैया, वह पुरुष होते हुए भी अपनी पत्नी की इच्छा के विरुद्ध अपने पिता के काम नहीं आ पाए. सच है रिश्ते तो स्त्रियां ही संभालती हैं, चाहे फिर वह मायके के हों या ससुराल के. लेकिन पुरुष, वह ससुराल के क्या, वह तो अपने सगे रिश्ते भी नहीं संभाल पाता और उस का ठीकरा भी स्त्री के सिर फोड़ देता है. पिताजी कुछ दिन बिस्तर पर रहे. उन की तीमारदारी मां और वह दोनों मिल कर कर रही थीं. भैया ने पापा की चिंता इतनी ही की थी कि एक दिन फुरसत से मां व पिताजी से फोन पर बातचीत करने के बाद मुझ से कहा, ‘‘कुछ जरूरत हो तो बता देना, कुछ रुपए भिजवा देता हूं.’’

‘‘उस की जरूरत नहीं है, भैया,’’ रुपए का तो पिताजी ने भी अपने बुढ़ापे के लिए इंतजाम किया हुआ है. उन्हें तो तुम्हारी जरूरत थी. उस ने कुछ कहना चाहा पर रिश्तों में और भी कड़वाहट घुल जाएगी, सोच कर चुप्पी लगा गई और तभी फोन कट गया.

वैभवी 15 दिन रह कर घर वापस आ गई. प्रकाश का मुंह फूला हुआ था. उस ने परवा नहीं की. चुपचाप अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गई. प्रकाश ने पिताजी की कुशलक्षेम तक नहीं पूछी पर उस की सास का फोन उस के लिए भी और उस के मांपिताजी के लिए भी आया, उसे अच्छा लगा. सभी बुजुर्ग शायद एकदूसरे की स्थिति को अच्छी तरह से समझते हैं. उस की बेटी वापस अपनी नौकरी पर चली गई थी. पिताजी की हालत में निरंतर सुधार हो रहा था, इसलिए वह निश्ंिचत थी. उस के सासससुर देहरादून में रहते थे. सबकुछ ठीक चल रहा था कि तभी एक दिन उस की सास का बदहवास सा फोन आया. उस के ससुरजी की तबीयत अचानक बिगड़ गई थी और उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा था. वे दोनों तुरंत देहरादून के लिए निकल पड़े. प्रकाश का भाई अविनाश, जो पुणे में रहता था, अपनी पत्नी के साथ देहरादून पहुंच गया. पता चला कि प्रकाश के पापा को दिल का दौरा पड़ा था. एंजियोग्राफी से पता चला कि उन की धमनियों में रुकावट थी. अब एंजियोप्लास्टी होनी थी.

अविनाश की पत्नी छवि स्कूल में पढ़ाती थी, वह 2-4 दिन की छुट्टी ले कर आई थी. पापा को तो एंजियोप्लास्टी और उस के बाद की देखभाल के लिए लंबे समय की जरूरत थी. प्रकाश के पापा अभी अस्पताल में ही थे. छवि की छुट्टियां खत्म हो गई थीं. वह वापस जाने की तैयारी करने लगी.

‘‘मैं भी चलता हूं, भैया,’’ अविनाश बोला, ‘‘छवि अकेले कैसे जाएगी?’’

‘लेकिन अविनाश, पापा को लंबी देखभाल और इलाज की जरूरत है. कुछ दिन हम रुक लेते हैं, कुछ दिन तुम छुट्टी ले कर आ जाओ,’’ प्रकाश बोला.

‘‘भैया, हम दोनों की तो प्राइवेट नौकरी है, इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिल पाएंगी और मम्मीपापा को पुणे भी नहीं ले जा सकता, छवि भी नौकरी करती है,’’ कह कर उन्हें कुछ कहने का मौका दिए बिना दोनों पतिपत्नी पुणे के लिए निकल गए.

अब प्रकाश पसोपेश में पड़ गया. बड़ा भाई होने के नाते वह अपनी जिम्मेदारियों से नहीं भाग सकता था. उस ने सहारे के लिए वैभवी की तरफ देखा. पर वहां तटस्थता के भाव थे. मौका पा कर धीरे से बोला, ‘‘वैभवी, मम्मीपापा को अपने साथ ले चलते हैं, वहां आराम से इलाज और देखभाल हो जाएगी. यहां तो हम इतना नहीं रुक पाएंगे. या फिर एंजियोप्लास्टी करवा कर मैं चला जाता हूं, तुम रुक जाओ, मैं आताजाता रहूंगा.’’

‘‘क्यों? मैं क्यों रुकूं, फालतू हूं क्या? नौकरी नहीं कर रही हूं? तो क्या मेरी ही ड्यूटी हो गई, छवि या अविनाश नहीं रह सकता यहां?’’

‘‘लेकिन जब वे दोनों जिम्मेदारियां नहीं उठाना चाह रहे हैं तो पापा को ऐसे तो नहीं छोड़ सकते हैं न. किसी को तो जिम्मेदारी उठानी ही पड़ेगी.’’

‘‘हां तो, जिम्मेदारी उठाने के लिए सिर्फ हम ही रह गए. और सेवा करने के लिए सिर्फ मैं. कल को पापा की संपत्ति तो दोनों के बीच ही बंटेगी, सिर्फ हमें तो नहीं मिलेगी, मुझ से नहीं होगा.’’ कह कर पैर पटकती हुई वैभवी कमरे से बाहर निकल गई. बाहर लौबी में सास बैठी हुई थीं, उदास सी. उन का हाथ पकड़ कर किचन में ले गई वैभवी. उन्होंने सबकुछ सुन लिया था, उन के चेहरे से ऐसा लग रहा था. आंखों में आंसू डबडबा रहे थे. चेहरे पर घोर निराशा थी.

‘‘मां,’’ वह उन का चेहरा ऊपर कर के बोली, ‘‘खुद को कभी अकेला मत समझना, हम हैं आप के साथ और आप की यह बेटी आप की सेवा करने के लिए है, मुझ पर विश्वास रखना, मैं प्रकाश के साथ सिर्फ नाटक कर रही थी, मैं उन्हें कुछ एहसास दिलाना चाहती थी, मुझे गलत मत समझना. आप के पास कुछ भी न हो, तब भी आप के बच्चों के कंधे बहुत मजबूत हैं, वे अपने मातापिता का सहारा बन सकते हैं.’’

सास रो रही थीं. उस ने उन्हें गले लगा लिया. सास को सबकुछ मालूम था, इसलिए सबकुछ समझ गई थीं. मांबेटी जैसा रिश्ता कायम कर रखा था वैभवी ने अपनी सास के साथ. और हर प्यारे रिश्ते का आधार ही विश्वास होता है. उस की सास को उस पर अगाध विश्वास था.

‘‘मां, चलने की तैयारी कर लो चुपचाप. यहां लंबा रहना संभव नहीं हो पाएगा. आप और पापा हमारे साथ चलिए, दिल्ली में अच्छी चिकित्सा सुविधा मिल जाएगी और पापा की देखभाल भी हो जाएगी, आप बिलकुल भी फिक्र मत करो, मां. सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर डाल कर निश्ंिचत रहो. पापा की देखभाल हमारी जिम्मेदारी है.’’ सास का मन बारबार भर रहा था. वे चुपचाप अपने कमरे में आ गईं. वैभवी भी अपने कमरे में गई और अटैची में कपड़े डालने लगी. प्रकाश सिटपिटाया सा चुपचाप बैठा था. वह स्वयं जानता था कि वह वैभवी को कुछ भी बोलने का अधिकार खो चुका है. अटैची पैक करतेकरते वैभवी चुपचाप प्रकाश को देखती रही. अपनी अटैची पैक कर के वैभवी प्रकाश की तरफ मुखातिब हुई, ‘‘तुम्हारी अटैची भी पैक कर दूं.’’

‘‘वैभवी, एक बार फिर से सोच लो, पापा को ऐसे छोड़ कर नहीं जा सकते हम. मुझे तो रुकना ही पड़ेगा, लेकिन नौकरी से इतनी लंबी छुट्टी मेरे लिए भी संभव नहीं है. मांपापा को साथ ले चलते हैं, वरना कैसे होगा उन का इलाज?’’

प्रकाश का गला भर्राया हुआ था. वह प्रकाश की आंखों में देखने लगी, वहां बादलों के कतरे जैसे बरसने को तैयार थे. अपने मातापिता से इतना प्यार करने वाला प्रकाश, आखिर उस के मातापिता के लिए इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है?

पिताजी की याद आते ही उस का मन एकाएक प्रकाश के प्रति कड़वाहट और नकारात्मक भावों से भर गया. लेकिन उस के संस्कार उसे इस की इजाजत नहीं देते थे. वह अपने सासससुर के प्रति ऐसी निष्ठुर नहीं हो सकती. कोई भी इंसान जो अपने ही मातापिता से प्यार नहीं कर सकता, वह दूसरों से क्या प्यार करेगा. और जो अपने मातापिता से प्यार करता हो, वह दूसरों के प्रति इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? उसे अपनेआप में डूबा देख कर प्रकाश उस के सामने खड़ा हो गया, ‘‘बोलो वैभवी, क्या सोच रही हो, पापा को साथ ले चलें न? उस ने प्रकाश के चेहरे पर पलभर नजर गड़ाई, फिर तटस्थता से बोली, ‘‘टैक्सी बुक करवा लो जाने के लिए.’’

कह कर वह बाहर निकल गई. प्रकाश कुछ समझा, कुछ नहीं समझा पर फिर घर के माहौल से सबकुछ समझ गया. पर वैभवी उसे कुछ भी कहने का मौका दिए बगैर अपने काम में लगी हु थी. तीसरे दिन वे मम्मीपापा को ले कर दिल्ली चले गए. पापा की एंजियोप्लास्टी हुई, कुछ दिन अस्पताल में रहने के बाद पापा घर आ गए. उन की देखभाल वैभवी बहुत प्यार से कर रही थी. प्रकाश उस के प्रति कृतज्ञ हो रहा था. पर वह तटस्थ थी. उस के दिल का घाव भरा नहीं था. प्रकाश को तो उस के पिताजी की सेवा करने की भी जरूरत नहीं थी. उस ने तो सिर्फ औपरेशन के वक्त रह कर उन को सहारा भर देना था, जो वह नहीं दे पाया था. उस के भाई के लिए भलाबुरा कहने का भी प्रकाश का कोई अधिकार नहीं था. जबकि उस ने अपना भी हिस्सा ले कर भी अपना फर्ज नहीं निभाया था. ये सब सोच कर भी वैभवी के दिल के घाव पर मरहम नहीं लग पा रहा था. पापा की सेवा वह पूरे मनोयोग से कर रही थी, जिस से वह बहुत तेजी से स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे. उस के सासससुर उस के पास लगभग 3 महीने रहे. उस के बाद सास जाने की पेशकश करने लगीं पर उस ने जाने नहीं दिया, कुछ दिनों के बाद उन्होंने जाने का निर्णय ले लिया. प्रकाश और वैभवी उन्हें देहरादून छोड़ कर कुछ दिन रुक कर, बंद पड़े घर को ठीकठाक कर वापस आ गए.

सबकुछ ठीक हो गया था पर उस के और प्रकाश के बीच का शीतयुद्ध अभी भी चल रहा था, उन के बीच की वह अदृश्य चुप्पी अभी खत्म नहीं हुई थी. प्रकाश अपराधबोध महसूस कर रहा था और सोच रहा था कि कैसे बताए वैभवी को कि उसे अपनी गलती का एहसास है. उस से बहुत बड़ी गलती हो गई थी. वह समझ रहा था कि इस तरह बच्चे मातापिता की जिम्मेदारी एकदूसरे पर डालेंगे तो उन की देखभाल कौन करेगा. कल यही अवस्था उन की भी होगी और तब उन के बेटाबेटी भी उन के साथ यही करें तो उन्हें कैसा लगेगा. एकाएक वैभवी की तटस्थता को दूर करने का उसे एक उपाय सूझा. वह वैभवी को टूर पर जाने की बात कह कर चंडीगढ़ चला गया. प्रकाश को गए हुए 2 दिन हो गए थे. शाम को वैभवी रात के खाने की तैयारी कर रही थी, तभी दरवाजे की घंटी बज उठी. उस ने जा कर दरवाजा खोला. सामने मांपिताजी खड़े थे.

‘‘मांपिताजी आप, यहां कैसे?’’ वह आश्चर्यचकित सी उन्हें देखने लगी.

‘‘हां बेटा, दामादजी आ गए और जिद कर के हमें साथ ले आए, कहने लगे अगर मुझे बेटा मानते हो तो चल कर कुछ महीने हमारे साथ रहो. दामादजी ने इतना आग्रह किया कि आननफानन तैयारी करनी पड़ी.’’

तभी उस की नजर टैक्सी से सामान उतारते प्रकाश पर पड़ी. वह पैर छू कर मांपिताजी के गले लग गई. उस की आंखें बरसने लगी थीं. पिताजी के गले मिलते हुए उस ने प्रकाश की तरफ देखा, प्रकाश मुसकराते हुए जैसे उस से माफी मांग रहा था. उस ने डबडबाई आंखों से प्रकाश की तरफ देखा, उन आंखों में ढेर सारी कृतज्ञता और धन्यवाद झलक रहा था प्रकाश के लिए. प्रकाश सोच रहा था उस के सासससुर कितने खुश हैं और उस के खुद के मातापिता भी कितने खुश हो कर गए हैं यहां से. जब अपनी पूरी जवानी मातापिता ने अपने बच्चों के नाम कर दी तो इस उम्र में सहारे की तलाश भी तो वे अपने बच्चों में ही करेंगे न, फिर चाहे वह बेटा हो या बेटी, दोनों को ही अपने मातापिता को सहारा देना ही चाहिए.

ऐसा भी होता है

मेरी एक सहेली है जो निसंतान है. एक दिन अचानक उस के पति को दिल का दौरा पड़ा. उन्हें तुरंत सरकारी अस्पताल में दाखिल कराया गया. डाक्टरों ने जांच के बाद कहा कि 12 घंटे के भीतर एक औपरेशन करना पड़ेगा. इस के लिए रुपए जमा करा दें. उस दिन इतवार था सो बैंक बंद होने के कारण मदद के लिए हमारी मित्र ने अपने पति के बड़े भाई को फोन किया. उन से कहा कि अगले दिन वे रुपए निकाल कर दे देंगी. पर पति के बड़े भाई ने रुपए होते हुए भी इनकार कर दिया. बहुत दौड़धूप के बाद भी रुपए का इंतजाम नहीं हो सका और उस के पति की मौत हो गई. कोई संतान न होने के कारण अंतिम क्रिया के लिए फिर से मदद मांगने पर पति के भाई ने जवाब दिया कि पहले मकान हमारे नाम करो, तब साथ देंगे. उस ने ऐसे स्वार्थी लोगों के नाम मकान करना उचित नहीं सम झा. इसलिए उस ने आसपास के लोगों की मदद से सारे काम निबटाए. यह सुन कर मैं दंग रह गई कि क्या ऐसा भी होता है कि मौत के गम में डूबी अकेली महिला से उस के रिश्तेदार सौदेबाजी करते हैं? लोगों में मानवता क्या एकदम मर चुकी है?

उषा शर्मा, कोलकाता (प.बं.)

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मेरी नईनई नौकरी लगी थी. कालेज तक की पढ़ाई घर पर रह कर की थी और अकेला कभी बाहर नहीं रहा था. सो, दुनियादारी का ज्यादा ज्ञान नहीं था. दीवाली आने में 3 दिन थे. छुट्टी ले कर मैं अपने घर, जोकि दूसरे शहर में था, जाने के लिए बस अड्डे पर पहुंचा. उसी दिन मेरे अकाउंट में बोनस की रकम आई थी. सो, वहां एक एटीएम से बोनस के सारे रुपए निकाल कर बस का इंतजार करने लगा. कुछ देर बाद एक नवयुवक, जिस की उम्र 16-17 साल रही होगी, गेरुआ वस्त्र पहने और हाथ में सांप पकड़े हुए आया. उस ने मु झ से 1-2 रुपए मांगे. मैं ने पर्स से निकाल कर उसे 2 रुपए देने की कोशिश की. उस की नजर मेरे पर्स के पैसों पर पड़ गई. सो, पता नहीं कैसे उस ने मु झे सम्मोहित कर पैसे लूटने शुरू किए. लोग देख कर हंस रहे थे, बस. इतने में मेरी कंपनी का सुपरवाइजर, जो वहां अपने रिश्तेदारों को छोड़ने आया था, ने देखा तो उस लड़के को पकड़ कर 2-3 थप्पड़ रसीद कर दिए और लूटे गए पैसे वापस ले कर मु झे दे दिए. अब  मैं सांप वालों या ऐसे ठग लोगों से दूर रहता हूं.

सुमित कौशल, आगरा (उ.प्र.)

बच्चों के मुख से

मेरी 5 वर्षीया बेटी दिव्या बड़ी बातूनी और हाजिरजवाब है. एक दिन मेरे पति औफिस से आते हुए 1 किलो गाजर ले आए और शाम को गाजर का हलवा बनाने की फरमाइश की. हलवा बनाते समय दूध तो सूख गया पर चीनी नहीं सूखी. तब मैं ने कहा, ‘क्या करें, हलवा तो बन गया पर चीनी बहुत पानी छोड़ रही है.’ पति के जवाब से पहले ही दिव्या ने तुरंत कहा, ‘तो चीनी को निचोड़ कर हलवे में डालना था.’ उस के जवाब पर हम दोनों खिलखिला कर हंस पड़े.

अनिल कुमार  झा, बूंदी (राज.)

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मेरा 6 साल का बेटा विकास दूसरी कक्षा में पढ़ता था. एक बार उस के पापा बीमार हो गए. एक दिन विकास नामालूम किस तरह घर से निकल कर बाजार में केमिस्ट की दुकान पर पहुंच गया और केमिस्ट को 1 रुपया देते हुए बोला, ‘दवाई दे दो, मेरे पापा बीमार हैं.’ दुकानदार उसे पहचान गया, चूंकि वह 2-4 बार अपने पापा के साथ दुकान पर गया था. दुकानदार ने उसे हाजमोला की एक गोली दे दी. उस ने विकास को अपने नौकर के साथ घर तक पहुंचा दिया. आज भी वह बात याद कर के मेरा मन भर आता है.

आशा भटनागर, कल्यान (महा.)

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जब मेरी छोटी बेटी विदिशा नर्सरी में थी तो मैं ने एक बार टिफिन में उसे खजूर दिए थे. थोड़ी दूर पर बैठे उस के सहपाठी को सम झ नहीं आ रहा था कि मेरी बेटी कौन सा, फल लाई है. उस ने कहा, ‘‘मु झे पता है, तुम इमली खा रही हो न?’’ मेरी बेटी ने ‘हां’ में सिर हिला दिया. घर पर आ कर सारा वृत्तांत सुनाया तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘तुम ने सच क्यों नहीं बताया?’’

तो उस ने तपाक से कहा, ‘‘सरप्राइज रखने के लिए.’’ उस की बातें सुन कर हम हंसे बिना नहीं रह सके.

सुधा विजय, मदनगीर (न.दि.)

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मेरी बड़ी बेटी दर्शिता जब ढाई साल की थी तब उस के पेट में बहुत दर्द होता था और मैं पानी में हींग मिला कर उस के पेट पर लगा देती थी. एक बार हम टीवी देख रहे थे. एक नया सीरियल शुरू हुआ जिस का टाइटल सौंग था ‘प्यार का दर्द है मीठामीठा प्यारा…’ टीवी पर बारबार यह लाइन आ रही थी. मेरी बेटी उसे देखती रही. फिर अचानक बोली, ‘‘मम्मी, इस को हींग लगा दें.’’ जब हमें सम झ में आया कि वह टीवी के हींग लगाने की कह रही है तो हंसतेहंसते हमारे पेटदर्द हो गया.

नेहा प्रधान, कोटा (राज.)

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