मेरे 16 वर्षीय बेटे को रतलाम से उज्जैन जाना था. मैं उसे दाहोदभोपाल पैसेंजर ट्रेन में बैठाने के लिए स्टेशन पहुंची और उसे सीट पर बैठाया. ट्रेन के रवाना होने में कुछ समय बाकी था, इस कारण मैं भी उस के पास ही बैठ गई. वह मुझे सामान देखने को कह कर टौयलेट चला गया. जब वह काफी देर तक लौट कर नहीं आया तो मैं उसे देखने पहुंची. मुझे टौयलेट के अंदर से दरवाजा थपथपाने की आवाज आई. टौयलेट के अंदर से बेटे की आवाज सुनाई दी. वह कह रहा था, ‘अंदर से सिटकनी नहीं खुल रही है, दरवाजा खोलो, दरवाजा खोलो.’ बेटे ने टौयलेट के अंदर से तथा मैं ने व अन्य यात्रियों ने बाहर से दरवाजा खोलने की भरसक कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली. मैं सहायता की आस में ट्रेन से नीचे उतरी, मुझे परेशान देख कर प्लेटफौर्म पर मौजूद 2 रेलवे कर्मचारी मेरे पास आए. मैं ने उन्हें सारी बात बताई. उन्होंने तत्परता से टौयलेट की खिड़की में सरिया डाल कर सिटकनी खोली, तब मेरा बेटा टौयलेट से बाहर आ पाया. कुछ क्षण बाद ही ट्रेन रवाना हो गई. मैं उन रेलकर्मियों को धन्यवाद दे कर वापस घर लौटी. मैं हमेशा आभारी रहूंगी उन रेलवे कर्मचारियों की जिन्होंने मेरे बेटे को मुसीबत से बचाया.

विद्या देवी व्यास, रतलाम (म.प्र.)

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मेरी 1995 में शादी हुई. मेरे पति रामटेक में प्राइवेट नौकरी करते थे. शादी के 1 हफ्ते बाद वे मुझे अपने साथ ले कर जा रहे थे. मायके से रामटेक 60 किलोमीटर की दूरी पर है. हम बस स्टैंड पहुंचे. बस मिल गई. उस में काफी भीड़ थी. हमारे पास सामान भी बहुत अधिक था. अचानक हमारे एक रिश्तेदार आ गए. मुझ से व मेरे पति से मिलने के बाद वे मेरे पति से पान खाने का आग्रह करने लगे. पति को पानसुपारी का शौक नहीं है परंतु वे उन का आग्रह टाल नहीं सके और उन के साथ बस स्टैंड से बाहर पान की दुकान पर चले गए. इधर, बस छूट गई. टिकट के पैसे मेरे पास नहीं था. मैं घबरा गई और कंडक्टर को अपनी व्यथा सुनाई कि पति महाशय बस स्टैंड में ही छूट गए हैं, मेरी बात सुन कर बस में बैठे यात्री हंसने लगे. काफी दूर आने पर कंडक्टर ने बस रोकी. मैं ने सारा गृहस्थी का सामान नीचे उतारा. तभी देखा पति महाशय दौड़तेभागते पहुंचे. हम ने एक आटो लिया, वापस बस स्टैंड पहुंचे और 2 घंटे इंतजार के बाद दूसरी बस में बैठे और तब सफर पर निकल सके.

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