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चंचल छाया

बेबी

‘बेबी’ फिल्म किसी बच्चे या बेबी पर नहीं है, यह आतंकवाद पर बनी फिल्म है और ‘बेबी’ उस आतंकवाद को खत्म करने के लिए एक मिशन है. दर्शकों को पिछले वर्ष आई फिल्म ‘हौलिडे’ याद होगी. वह फिल्म भी आतंकवाद के खात्मे पर थी और उस में भी अक्षय कुमार ने एक मिशन के तहत आतंकवादियों का सफाया किया था. यह फिल्म भी ठीक उसी प्रकार की है. दोनों फिल्मों की कहानियों में कई समानताएं हैं.

इस फिल्म की कई विशेषताएं हैं. एक तो फिल्म की कहानी और पटकथा काफी कसी हुई है, दूसरे, फिल्म की गति काफी तेज है, कहीं भी फिल्म स्लो नहीं होती. फिल्म का संपादन इतना चुस्त है कि दर्शक दम साधे सीटों पर जमे रहते हैं. फिल्म में सिर्फ आतंकवाद का मुद्दा ही नहीं है, एक अंडर कवर एजेंट की जिंदगी को भी दिखाया गया है. अंडर कवर एजेंट के दिल में देश की सुरक्षा का जनून भरा होता है. वह मरने से नहीं डरता. हालांकि उसे पता होता है कि उस के पकड़े जाने पर उस के देश की सरकार उसे पहचानने से भी इनकार कर देगी, फिर भी वह अपने देश के लिए जीजान तक लगा देता है. इस फिल्म के अंडर कवर एजेंट के घर में उस की पत्नी भी है. हर बार वह अपनी पत्नी को झूठी कहानी सुनाता है.

नीरज पांडे की यह कहानी देशभक्ति से ओतप्रोत है. 26 नवंबर, 2008 को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद कुछ अफसरों की एक टीम बनाई जाती है. उस मिशन का नाम ‘बेबी’ रखा जाता है. इस टीम के मुखिया हैं फिरोज (डैनी). एक जांबाज अफसर अजय सिंह टीम का नेतृत्व करता है. शुक्लाजी (अनुपम खेर) टीम में टैक्नीशियन है. इस टीम में एक महिला एजेंट प्रिया (तापसी पन्नू) भी है और एक मजबूत कदकाठी वाला जय सिंह राठौड़ (राणा दग्गूनाती) भी है. इन का काम आतंकियों की पहचान करना और उन के मनसूबों को विफल करना है. अजय सिंह को एक खूंखार आतंकवादी बिलाल खान (के के मेनन) की तलाश है. मिशन बेबी की शुरुआत इस्तांबुल से होती है. मिशन के सदस्यों को पता चलता है कि आतंकी धर्म के नाम पर किसी खास समुदाय के लोगों को बरगला कर अपने साथ कर रहे हैं और उस समुदाय के लोग अपने देश पर भरोसा खोते जा रहे हैं. अजय सिंह अपने साथियों के साथ मिल कर बिलाल खान को मार गिराता है और आतंकवादियों को बरगलाने वाले एक धार्मिक नेता (यह किरदार हाफिज सईद जैसा लगता है) को गिरफ्तार कर भारत वापस लौटता है.

फिल्म की यह कहानी शुरू होते ही दौड़ लगाती है और अंत में आतंकवादियों के मरने के बाद जा कर रुकती है. इस फिल्म के निर्देशक नीरज पांडे अक्षय कुमार के साथ ‘स्पैशल-26’ में काम कर चुके हैं. इसलिए उन्हें पता था कि इस फिल्म की मुख्य भूमिका सिर्फ अक्षय कुमार ही कर सकता है, क्योंकि ‘स्पैशल-26’ में वे अक्षय की काबिलीयत को देख चुके थे और अक्षय ने भी निराश नहीं किया है. पूरी फिल्म में उस के ऐक्शन सीन भरे पड़े हैं. उस ने अपनी ऐक्ंिटग से अपने फैंस को खुश किया है. फिल्म का क्लाइमैक्स जानदार है. अक्षय के अलावा अनुपम खेर और तापसी पन्नू ने भी काफी ऐक्शन किए हैं जिन्हें देख कर मजा आता है. बाकी कलाकारों का काम भी अच्छा है. हर कलाकार अपने काम में व्यस्त नजर आता है. फिल्म में लव सीन और कौमेडी की गुंजाइश बिलकुल नहीं थी. फिल्म का गीतसंगीत प्रभावित नहीं करता. छायांकन बढि़या है. आबूधाबी के रेत के टीले खूबसूरत लगते हैं.

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तेवर

फिल्म ‘तेवर’ के तेवर घिसेपिटे हैं. जहां तक फिल्म के नायक अर्जुन कपूर की बात है तो यह फिल्म उस के पिता बोनी कपूर ने बनाई है. इसलिए यह तो पक्का है कि फिल्म के हर फ्रेम में अर्जुन ही होगा. फिल्म में एक गीत है, ‘मैं हूं सुपरमैन, सलमान का फैन’, तो जनाब, इस बौलीवुडिया अर्जुन को निर्देशक ने ‘दबंग’, ‘बौडीगार्ड’ के सलमान खान और ‘सिंघम’ के अजय देवगन की तरह दे दनादन फाइट करते हुए दिखाया है. ‘तेवर’ तेलुगू फिल्म ‘ओक्काडू’ की रीमेक है. फिल्म में ऐसा कुछ नहीं है जो झकझोरे. ‘तेवर’ की कहानी उत्तर प्रदेश की है जहां बाहुबलियों का सरकार और पुलिस पर दबदबा बना रहता है. मथुरा शहर का बाहुबली गजेंद्र सिंह (मनोज वाजपेयी) गृहमंत्री का भाई है. उसे एक पत्रकार की बहन राधिका (सोनाक्षी सिन्हा) को देखते ही उस से प्यार हो जाता है. राधिका उस के प्यार को ठुकरा देती है तो गजेंद्र सिंह उस के पत्रकार भाई की सरेआम हत्या कर देता है. राधिका का पिता डर कर उसे मथुरा से बाहर भाग जाने को कहता है.

राधिका बस स्टैंड पहुंचती है तो गजेंद्र सिंह वहां पहुंच कर उसे जबरदस्ती उठा कर ले जाने लगता है. वहीं पर आगरा का पिंटू शुक्ला (अर्जुन कपूर) राधिका को गजेंद्र सिंह के चंगुल से छुड़ा कर भगा ले जाता है. गजेंद्र सिंह के बहुत से गुंडे पिंटू और राधिका के पीछे लग जाते हैं. भागमभाग लगी रहती है और पिंटू सब की धुनाई करता रहता है. पिंटू और राधिका के बारे में जब पिंटू के पिता एस पी (राज बब्बर) को पता चलता है तो वह पिंटू को गजेंद्र से पंगा न लेने को कहता है. गजेंद्र राधिका को अपने साथ ले जाता है परंतु पिंटू पिता की हिरासत से भाग कर गजेंद्र और उस के गुंडों से अकेले ही भिड़ जाता है. गजेंद्र पिंटू पर गोली चलाने ही वाला होता है कि उस का भाई उसे अपने प्यादे से इसलिए मरवा डालता है क्योंकि गजेंद्र ने सरेआम अपने बड़े भाई गृहमंत्री को थप्पड़ मारा था. अर्जुन और राधिका का मिलन होता है. फिल्म की गति तेज है. अर्जुन कपूर से ज्यादा मनोज वाजपेयी ने प्रभावित किया है. सोनाक्षी सिन्हा की ऐक्ंिटग कामचलाऊ है. राज बब्बर ने अपना प्रभाव छोड़ा है. फिल्म का निर्देशन कुछ हद तक अच्छा है. गीतसंगीत साधारण है. फिल्म में एक आइटम सौंग भी है जो श्रुति हसन पर फिल्माया गया है. फिल्म का छायांकन अच्छा है. मथुरा, आगरा, दिल्ली के अलावा कुछ और शहरों में भी शूटिंग की गई है.

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डौली की डोली

‘डौली की डोली’ एक कौमेडी फिल्म है, जिस में सोनम कपूर ने अपनी चुलबुली अदाओं से दर्शकों को हंसाने की कोशिश की है. ‘भाग मिल्खा भाग’ में एक सीधीसादी लड़की का रोल करने के बाद उस ने ‘खूबसूरत’ में अपने चुलबुलेपन से दर्शकों को चौंकाया और ‘इंजन की सीटी पे म्हारो बम डोले’ गाने पर टल्ली हो कर खूब धूमधड़ाका किया. ‘डौली की डोली’ में भी उस? ने ‘खूबसूरत’ जैसी ऐक्ंिटग ही की है. इस फिल्म में सोनम कपूर ने लुटेरी दुलहन का किरदार निभाया है. कुछ वर्ष पहले देश में लुटेरी दुलहन के किस्से अखबारों में पढ़ने को मिलते थे. यह दुलहन शादी वाली रात को ही घर के सभी लोगों को बेहोश कर घर का सारा कीमती सामान ले कर चंपत हो जाती थी. निर्देशक अभिषेक डोगरा ने इसी विषय पर यह हलकीफुलकी कौमेडी फिल्म बनाई है.

फिल्म की कहानी घिसीपिटी और धीमी है. निर्देशक दर्शकों को बांधे रखने में नाकामयाब रहा है. कहानी डौली (सोनम कपूर) की है. वह इंस्पैक्टर रौबिन सिंह (पुलकित सम्राट) से प्यार करती थी. अचानक कुछ ऐसा हुआ कि रौबिन चाहते हुए भी डौली से शादी नहीं कर पाया. अब डौली का मकसद रह जाता है, शादी करो और ससुराल वालों को लूट कर अगली सुबह रफूचक्कर हो जाओ. इस काम के लिए वह एक गिरोह से मिलती है. इस गिरोह में नकली बाप, नकली भाई और नकली दादी है. एक फोटोग्राफर भी है.

डौली पहले एक हरियाणवी नौजवान सोनू शेरावत (राज कुमार राव) से शादी करती है. वह उस के परिवार वालों को बेहोश कर कीमती सामान ले कर भाग जाती है. उस के बाद वह एक पंजाबी युवक मनोज चड्ढा (वरुण शर्मा) के परिवार वालों को चूना लगाती है. तभी इंस्पैक्टर रौबिन उसे गिरफ्तार कर लेता है. वह कभी डौली से प्यार करता था. डौली उसे भी अपने जाल में फंसाती है और उसे भी ठग कर फरार हो जाती है. अभिषेक डोगरा के निर्देशन में बनी यह पहली फिल्म है. उस ने फिल्म में इमोशंस भी डालने की कोशिश की है. उस ने दुलहन बनी सोनम कपूर को हर दृश्य में दूल्हे और उस के परिवार वालों को नशीला दूध पिलाते हुए दिखाया है. यह बात हजम नहीं होती. क्या सभी लोग इतने बेवकूफ होते हैं कि बहू के हाथ से दूध का गिलास ले कर गटागट पी जाएं? फिर भी छोडि़ए इन बातों को, कौमेडी जो है. सोनम कपूर कई दृश्यों में खूबसूरत लगी है, खासकर वरुण शर्मा के साथ शादी के मौके पर लहंगा पहने हुए. पूरी फिल्म उसी पर फोकस्ड है. राजकुमार राव का हरियाणवी भाषा में बोलना अच्छा लगता है. डौली के भाई की भूमिका में जीशान अयूब का काम भी अच्छा है. इस से पहले वह ‘रांझणा’ में अपनी अदाकारी दिखा चुका है. पुलकित सम्राट को देख कर तो चुलबुल पांडे की याद ताजा हो आती है. फिल्म में मलाइका अरोड़ा पर एक गरमागरम आइटम डांस भी डाला गया है. फिल्म में एक और किरदार दादी का बड़ा ही रोचक है. वह सिर्फ एक ही डायलौग बोलती है, ‘बेटी दे दी, सबकुछ दे दिया.’ इस के अलावा फिल्म में कुछ और रोचक प्रसंग भी हैं जैसे लुटेरी दुलहन द्वारा अपनी सास की ब्रापैंटी भी चुरा कर ले जाना. फिल्म का गीतसंगीत असरदायक नहीं है. छायांकन अच्छा है.

बिंब प्रतिबिंब

जैकलीन के अच्छे दिन

सलमान खान की फिल्म ‘किक’ की सफलता से सब से ज्यादा किसी के कैरियर को फायदा पहुंचा है तो वह नाम है जैकलीन फर्नांडीज. फिल्म की सफलता के बाद उन के पास बड़ीबड़ी फिल्मों के औफरों की लाइन लग गई. एक तरफ जहां उन की रणवीर कपूर और अर्जुन रामपाल के साथ फिल्म ‘रौय’ रिलीज होने को है तो दूसरी तरफ उन्हें मोहम्मद अजहरुद्दीन पर बन रही फिल्म में इमरान हाशमी के अपोजिट साइन कर लिया गया है. गौरतलब है कि इस बायोपिक में भारतीय क्रिकेट टीम के भूतपूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन की भूमिका इमरान हाशमी निभाएंगे और संगीता बिजलानी का रोल जैकलीन फर्नांडीज करती नजर आएंगी. माना जा रहा है कि बायोपिक फिल्म में काम करना उन के कैरियर में अच्छे दिन जरूर लाएगा.

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भारतरत्न और बिग बी

सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को पद्म विभूषण से सम्मानित करने की जब से खबर आई, बधाइयों का तांता लग गया. उन्हें बधाई देने वालों में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी हैं, जो न सिर्फ उन्हें बधाई देती हैं बल्कि उन्हें भारतरत्न का हकदार भी मानती हैं. ट्विटर पर ममता बनर्जी का कहना है कि बिग बी के लिए पद्म विभूषण काफी नहीं है. वे भारतरत्न के काबिल हैं. हालांकि बिग बी ने इस बात पर किसी तरह का विवाद न पैदा हो जाए. इसलिए बात को खत्म करते हुए जवाब दिया कि मैं भारतरत्न के काबिल नहीं हूं. देश ने मुझे जो सम्मान दिया है, मैं उसी से गर्व महसूस कर रहा हूं. वैसे, कहने वालों का तो यहां तक कहना है कि ममता ने बिग बी के बहाने मोदी सरकार पर निशाना साधा है.

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‘रहस्य’ को हरी झंडी

वास्तविक घटनाक्रमों पर आधारित ज्यादातर फिल्मों को ले कर कभी सैंसर बोर्ड तो कभी आमजन में विवाद पैदा हो जाता है. ऐसा ही एक मामला कथित तौर पर आरुषि हत्याकांड पर आधारित फिल्म ‘रहस्य’ के साथ होता दिख रहा था. आरुषि के मातापिता नूपुर और राजेश तलवार ने इस फिल्म को अपनी बेटी की जिंदगी पर आधारित मानते हुए कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. लेकिन बौंबे हाईकोर्ट ने फिल्म को हरी झंडी दिखा दी है. अदालती फैसले से खुश फिल्म निर्देशक मनीष गुप्ता कहते हैं कि उन्होंने इस फिल्म को बनाने में बहुत मेहनत की थी अगर यह फिल्म रुक जाती तो उन्हें काफी नुकसान होता. इस फिल्म में के के मेनन, टिस्का चोपड़ा, आशीष विद्यार्थी प्रमुख भूमिकाओं में नजर आएंगे.

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जय जवान, जय किसान

सालों पहले भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था. आज उसी नारे को टाइटल बना कर एक फिल्म बन कर तैयार है. यह फिल्म शास्त्रीजी के जीवन को बड़े परदे पर उतारेगी. फिल्म में आजादी से पहले ब्रिटिशों से लड़ाई, गांधीजी के दौर और शास्त्रीजी की इस दौरान क्या भूमिका रही, रोशनी डाली गई है. फिल्म में ओमपुरी, प्रेम चोपड़ा, जतिन खुराना और अखिलेश जैन जैसे कलाकार हैं. शास्त्रीजी की भूमिका अखिलेश जैन कर रहे हैं. फिल्म के प्रचार के दौरान अखिलेश शास्त्रीजी के गेटअप में नजर आए. वैसे इस तरह की फिल्में बनाना चुनौती भरा काम होता है, लेकिन ऐसी फिल्में बनना सार्थक सिनेमा के लिए जरूरी है.

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‘हवाईजादा’ आयुष्मान

लंबे अरसे से सफलता की बाट जोह रहे अभिनेता आयुष्मान खुराना को फिल्म ‘हवाईजादा’ से बेहद उम्मीदें हैं. आयुष्मान का कहना है कि चूंकि यह पीरियड फिल्म है, इसलिए जरूरत से ज्यादा मेहनत करनी पड़ी. इतना ही नहीं, उन्होंने अपने किरदार को जीवंत बनाने के लिए मराठी भी सीखी है. बता दें कि फिल्म शिवकर तलपड़े नाम के व्यक्ति पर आधारित है. माना जाता है कि 1895 में इसी शख्स ने सब से पहले हवाई जहाज बनाया था. उस ने किस तरह अंगरेजों के जमाने में यह जहाज बनाया और किस तरह ब्रिटिश सरकार ने उस के सामने मुश्किलें खड़ी कीं, इन्हीं बातों के इर्दगिर्द फिल्म का कथानक रचा गया है. उम्मीद करते हैं कि ‘हवाईजादा’ आयुष्मान के कैरियर को आसमान की ऊंचाई तक ले जाए.

वसंतोत्सव

तुम्हारे घर की खिड़की से

मैं देखना चाहती हूं मधुमास

तुम्हारे घर के सारे कमरों में

भर देना चाहती हूं मोगरे की सुगंध

और चंदन की शीतलता

तुम्हारे घर की सारी दीवार पर

कच्ची हलदी के रंग से

लिख देना चाहती हूं प्रेम

तुम्हारे घर के आंगन में

बनाना चाहती हूं

पीले गेंदे के फूल से रंगोली

उतार लाना चाहती हूं

तुम्हारे घर की छत पर

आकाश से पीले रंग के बादल

परोसना चाहती हूं

तुम्हें पीतल की पीली थाली में

बना कर तुम्हारे घर की

रसोई में पीले चावल

तुम्हारे घर के एक कोने में बैठ कर

तुम्हें सुनाना चाहती हूं

पीली डायरी में लिखी कविता

और एक कोने में बैठ कर

लिखना चाहती हूं

प्रेम की बहुत सारी कहानी

तुम्हारे घर की सारी सीढि़यों पर

रख देना चाहती हूं थोड़ीथोड़ी चांदनी

और सभी अलमारियों पर

रखना चाहती हूं थोड़ीथोड़ी धूप

तुम्हारे घर में तुम्हारी हथेलियों पर

रखना चाहती हूं पलाश में रंगी हुई

बहुत सारी शरबती बातें

तुम्हारे घर के दरवाजों पर

बांधना चाहती हूं

आम के महकते पत्तों का बंदनवार

तुम्हारे घर की हर ईंट में

भर देना चाहती हूं ढेर सारी हंसी

तुम्हारे घर की चौखट पर

रख देना चाहती हूं समंदर भर खुशी

इस बार कुछ इस तरह मनाना चाहती हूं

मैं वसंतोत्सव…

             – शुचिता श्रीवास्तव

शादी व्यंग्यविचार

शादी एक एडवैंचर ट्रिप है — युद्ध पर जाने की तरह.

शादी से पहले आंखें पूरी तरह खुली रखनी चाहिए और शादी के बाद आधी मूंद लेनी चाहिए.

उन 2 लोगों का मिलन होता है जिन में से एक कभी सालगिरह याद नहीं रखता और दूसरा उसे कभी भूलता नहीं.

प्यार करो, युद्ध नहीं, बेकार की बातें हैं. शादी करो तो ये दोनों साथसाथ कर सकते हो.

आदर्श विवाह सिर्फ अंधी बीवी और बहरे पति के बीच ही हो सकता है.

शादी एक ऐसी प्रेमकहानी है जिस का नायक पहले अध्याय में ही मर जाता है.

शादी वह रस्म है जिस में औरत के हाथ में अंगूठी और पुरुष की नाक में नकेल पड़ती है.

शादी एक शब्द भर नहीं है, वह एक पूरा वाक्य है.

शादी होने तक मुझे मालूम नहीं था कि खुशी क्या होती है, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.

सभी शादियां हंसीखुशी संपन्न होती हैं. मुश्किल तो तब आती है जब साथसाथ रहना पड़ता है.

शादी वह रस्म है जिस के बाद पुरुष का अपनेआप पर नियंत्रण नहीं रह जाता.

शादी का सफल होना सही साथी पाने पर ही नहीं बल्कि खुद के सही होने पर भी निर्भर करता है.

मेरी आप को यही सलाह है कि आप शादी जरूर कीजिए. अच्छी पत्नी मिली तो आप सुखी हो जाएंगे और बुरी मिली तो आप दार्शनिक बन जाएंगे.

मैं ने कभी शादी नहीं की, लेकिन लोगों को बताता हूं कि मैं तलाकशुदा हूं ताकि लोग यह न समझें कि मेरे साथ कुछ गड़बड़ है.

यदि विवाह संस्था नहीं होती तो पुरुष और महिलाएं मिल कर किसी अजनबी से लड़ते.

विवाह को सफल बनाने के लिए 2 की जरूरत होती है. असफल बनाने के लिए एक ही काफी है.

मैं ने शादी नहीं की. मुझे उस की जरूरत भी महसूस नहीं हुई. मेरे घर में 3 पालतू प्राणी थे जो पति की जरूरत को पूरा कर देते थे–कुत्ता था, जो सुबह गुर्राता था, तोता था, जो दोपहर भर कसमें खाता था और बिल्ली थी, जो रात को देर से लौटती थी.

हास्य का जरिया बनती पिंक ब्रिगेड

क्या आप ने कभी गौर किया है कि हास्य की विभिन्न विधाओं, फिर चाहे वह चुटकुला हो, कार्टून हो, हास्य कविता हो या व्यंग्य हो, में अकसर महिलाओं को ही निशाना क्यों बनाया जाता है, क्योें उन्हें ही मजाक का पात्र बनाया जाता है? आप कोई भी टीवी चैनल, अखबार या पत्रपत्रिका उठा कर देखिए, महिलाओं पर ही अधिक जोक्स, व्यंग्य देखने को मिलते हैं. औफिस में भी जहां महिलापुरुष एकसाथ काम करते हैं, हंसीमजाक में महिलाओं के फैशन, उन की चालढाल, उन की बातचीत, उन की शारीरिक बनावट पर व्यंग्य किए जाते हैं. और तो और, सोशल नैटवर्किंग साइट्स के चैट बौक्स या मोबाइल के जरिए भी ऐसे ही जोक्स भेजे जाते हैं.

जैंडर आधारित भेदभाव

अंगरेजी में कहावत है, ‘मैन आर फ्रौम मार्स, वीमेन आर फ्रौम वीनस’ यानी पुरुष मंगल ग्रह से और महिलाएं शुक्र ग्रह से आई हैं. यानी दोनों अलगअलग हैं फिर चाहे वे शारीरिक रूप से हों, मानसिक रूप से या स्वभाव के तौर पर. पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय से जुड़े अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा स्त्री व पुरुषों के मस्तिष्क पर किए गए अध्ययन के अनुसार, महिला व पुरुष दोनों की मस्तिष्क संरचना भिन्न होती है जिस से उन के अलगअलग परिस्थितियों में अलगअलग व्यवहार व प्रतिक्रिया को समझा जा सकता है. शायद इसी आधार पर महिलाएं व्यंग्य का शिकार अधिक होती हैं.

महिलाएं और फैशन

निसंदेह प्रकृति ने स्त्रियों को ऐसा बनाया है कि वे सुंदर दिखना चाहती हैं और अपनी खूबसूरती को बरकरार रखने के लिए कुछ भी कर गुजरती हैं. सर्दियों में महिलाएं बिना शाल के शादी अटैंड करती हैं. मैरिज गार्डन के ओपन लौन की सर्द हवा में, जहां मर्दों के दांत किटकिटाने लगते हैं वहां ये वीर बालाएं एक्स्ट्रा रुपए दे कर दरजी से बनवाए ब्लाउज के यू कट व डीप नैक को दिखाने के लिए स्वेटर नहीं पहनतीं. 4 घंटे के फंक्शन में उन्हें अपनी चारों ड्रैसें पहननी होती हैं. हर नई ड्रैस पहनने से पहले यह कन्फर्म करना होता है कि पहले वाली सब ने देखी या नहीं. ऐसी बहादुर वीरांगनाओं का हर साल 26 जनवरी को सम्मान होना चाहिए. कैसा लगेगा जब घोषणा होगी कि पिंकी कुमारी ने अदम्य साहस, अटूट इच्छाशक्ति और अद्भुत पराक्रम का परिचय देते हुए भीषण शीत लहर के बीच इस सीजन की 7 शादियां बिना शौल व स्वेटर के अटैंड कीं. नारीशक्ति का यह रूप अद्भुत है जिस के लिए वे बधाई की पात्र हैं.

शौपिंग एडिक्शन

शौपिंग की एडिक्ट महिलाएं खरीदारी का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहतीं. इस के पीछे भी उन की खूबसूरत दिखने और तारीफ पाने की चाहत झलकती है. अपने इस शौक को वे पति पर इमोशनल अत्याचार कर के पूरा करवाती हैं. शौपिंग से परेशान पति अपनी पत्नी की शौपिंग करने को टालने के लिए नित नए बहाने ढूंढ़ता रहता है-

त्नी : सुनिए जी, मुझे एक नई साड़ी दिला दीजिए, प्लीज.

पति : लेकिन तुम्हारी अलमारी तो साडि़यों से भरी पड़ी है, फिर नई क्यों?

पत्नी : वे सभी साडि़यां तो महल्ले वालों ने देख ली हैं.

पति : हम साड़ी क्यों खरीदें. महल्ला ही बदल लेते हैं.

बातूनी स्वभाव

गप करने में सब से आगे रहती हैं महिलाएं. फिर चाहे वे औफिस में हों, पड़ोस में हों या मार्केट में. इसीलिए उन के ऊपर जोक्स बनते हैं. जैसे एक सिंगल लाइनर चुटकुला- रेल का महिला डब्बा वह होता है जो इंजन से भी ज्यादा आवाज करता है. इसी तरह एक अन्य प्रसिद्ध चुटकुला जिस में पत्नी अपने पति से कहती है, सुनो, मैं 2 मिनट में पड़ोसिन से मिल कर आ रही हूं. आप आधे घंटे बाद पानी भर लीजिएगा. सिर्फ अपनी कहने वाली और पति की न सुनने वाली पत्नी पर एक अन्य जोक-

पति : एक लेखक ने लिखा है कि पति को भी घर के मामलों में बोलने का हक होना चाहिए.

पत्नी : देखो, वह बेचारा भी लिख ही पाया, बोल नहीं पाया.

ऐसा नहीं है कि पुरुषों पर जोक्स या व्यंग्य नहीं बनते लेकिन जो बनते हैं वे भी ऐसे पुरुषों पर बनाए जाते हैं जो पत्नी से डरते हैं या घर के वे काम करते हैं जो महिलाओं के लिए निर्धारित हैं, जैसे रसोई में खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चे संभालना, बरतन मांजना आदि. ये सभी काम कम पुरुष ही करते हैं और बहुमत ऐसे लोगों का है जो इन कामों को करने में अपनी तौहीन समझते हैं.

खानपान और महिलाएं

जिस समाज में औरतें आज भी रसोई की बागडोर अपने हाथ में संभालती हैं, वहां भी महिलाओं पर जोक्स बनते हैं फिर चाहे वे उन के खानेपीने के शौक को ले कर हों या कुकिंग में उन के माहिर होने को ले कर-

पत्नी : खाने में क्या बनाऊं– इटैलियन, इंडियन, कौंटिनैंटल या चायनीज?

पति : पहले तुम बना लो, नाम तो शक्ल देख कर रख लेंगे.

पुरुष प्रधान समाज

समाज में जहां पुरुषों के लिए महिलाओं पर अपना रोब जमाना शान की बात समझी जाती थी वहां अब महिलाएं घर से बाहर निकल कर दोहरी जिम्मेदारी संभालने लगी हैं. ऐसे में पुरुषों को महिलाओं से दबने या उन्हें बराबरी का दरजा देने को उन के डरपोक व कमजोर होने के रूप में देखा जाता है और उस पर भी जोक्स बनते हैं. उदाहरण के तौर पर, पतियों की भारी मांग पर एक नई ऐप लौंच की जा रही है ‘डर’. इस में आप को सिर्फ ‘वाइफ’ कहना होगा और यह अपनेआप सारी वैबसाइट्स बंद कर देगी, चैट छिपा देगी, सभी स्पैशल फोल्डर छिपा देगी और सब से अच्छा फीचर यह कि यह ऐप अपनेआप ही आप की पत्नी की तसवीर को मोबाइल का वालपेपर बना देगी. इन जोक्स का विश्लेषण कुछ इस तरह भी किया जा सकता है कि या तो पत्नियां शक्की स्वभाव की होती हैं या फिर पति आशिकमिजाज होते हैं जो हासपरिहास का कारण बनते हैं.

महिलाओं को देर से समझ आता है मजाक

कैलिफोर्निया स्थित स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के अनुसार, किसी व्यंग्य, चुटकुले या कार्टून को समझने के लिए महिलाएं, पुरुषों की तुलना में अपने मस्तिष्क के अधिक हिस्से का इस्तेमाल करती हैं. उन्हें चुटकुले सुनने या कार्टून देखने के बाद पुरुषों की अपेक्षा थोड़ी अधिक देर में हंसी आती है. लेकिन अच्छी पंचलाइन का वे पुरुषों की तुलना में ज्यादा लुत्फ उठाती हैं. इस अध्ययन का उद्देश्य खुलासा करना था कि हमारा हास्य बोध कैसे काम करता है. अध्ययन के तहत महिलाओं को कार्टून दिखा कर उन की प्रतिक्रिया ली गई जिस में पाया गया कि महिलाओं ने मजेदार चुटकुलों पर प्रतिक्रिया जाहिर करने में कुछ ज्यादा वक्त लिया. शायद इसीलिए ‘रहने दो, तुम्हें समझ नहीं आएगा’ या ‘अरे, तुम तो मजाक भी नहीं समझती हो’ जैसे वाक्य महिलाओं के लिए आम सुने जाते हैं. इस का एक नमूना पेश है :

पत्नी : सुनो जी, अखबार में खबर है कि एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी को बेच डाला.

पति : ओह, कितने में?

पत्नी : एक साइकिल के बदले में. कहीं तुम भी तो ऐसा नहीं करोगे?

पति : मैं इतना मूर्ख थोड़े ही हूं, तुम्हारे बदले में तो एक कार आ सकती है.

टीवी और फिल्मों से उड़नछू होता हास्य

बीते साल जब मशहूर हास्य कलाकार रौबिन विलियम्स ने खुदकुशी की तब किसी ने हास्य कलाकारों को ले कर बेहद दिलचस्प और अजीबोगरीब धारणा प्रस्तुत करते हुए कहा था कि दुनियाभर के कलाकारों, खासतौर से हास्य कलाकारों की मौत आकस्मिक और तनावग्रस्त परिस्थितियों में होती है. कितनी अजीब बात है कि परदे पर दुनिया को हंसाने वाले ज्यादातर हास्य कलाकार या तो चार्ली चैपलिन, भगवान दादा व महमूद जैसे मुफलिसी या तनाव में अपना आखिरी वक्त काटते हैं या फिर रौबिन की तरह मौत को गले लगा लेते हैं. इन दिनों टीवी और सिनेमा पर दिखाया जाने वाला हास्य भी लगता है मुफलिसी और डिप्रैशन की गिरफ्त में है. इसीलिए मनोरंजन के माध्यमों से हास्य लगभग गायब हो चुका है.

ज्यादातर शो या तो किसी पुरुष कलाकार को भौंडी महिला के गैटअप में पेश कर मजाक के नाम पर अश्लीलता परोसते हैं और बाकी सीनियर कलाकारों की मिमिक्री की आड़ में उन्हीं की बेइज्जती करने में मसरूफ दिखते हैं. फिल्मों की बात तो मत ही कीजिए, वहां तो हंसाने के लिए किसी किरदार को अंधा या लूलालंगड़ा बना कर उस की अपंगता से उपजी विसंगतियों पर हंसने को कहा जाता है. या फिर किसी महिला की साड़ी का पल्लू नीचे खिसका कर हंसाने की बेहूदगीभरी कोशिश की जाती है. बड़ा सवाल है कि आखि?र क्यों टीवी और फिल्मों पर सामाजिक सरोकारों से भरे हास्य की कमी होती जा रही है? आइए, जवाब तलाशते हैं.

हास्य के सामाजिक सरोकार

दुनिया में अगर किसी कलाकार ने हास्य को सामाजिक विसंगतियों के साथ सटीक ढंग से पेश किया है तो वे हैं चार्ली चैपलिन. चार्ली ही अकेले हास्य कलाकार थे जिन्होंने हास्य का ऐसा स्वरूप रचा, जिस में विनोद के साथसाथ संवेदनशीलता, विचार, व्यंग्य और कू्रर व्यवस्था पर प्रहार था. उन की बनाई लगभग सारी फिल्में समाज के वंचित तबके की आवाज को हास्य की चाशनी में लपेट कर प्रस्तुत करती हैं. उन्हीं की बनीबनाई छवि की नकल कर राज कपूर ने भारत से रूस तक लोकप्रियता हासिल की. उन की फिल्मों में दी ग्रेट डिक्टेटर, दी गोल्ड रश, मौडर्न टाइम्स, सर्कस ऐसी ही हैं जो व्यवस्था के मारे लोगों की बेबसी को हास्य के सहारे सब तक पहुंचाती हैं.

मशहूर फिल्म दी गोल्ड रश का जूतों के सूप वाला सीन याद कीजिए. जोरदार बर्फबारी के बीच सोने की तलाश में आए समूह में खाने का संकट है. जब कोई उपाय नहीं सूझता तो चार्ली अपना बूट गरम बरतन में उबालते हैं. मानो सूप बना रहे हों. फिर लकड़ीनुमा चमचे से बारीबारी जूतों को उबाल कर एक बरतन में जूतों को सूप समेत परोसा जाता है. अब उन जूतों को फौर्क के साथ खाते देख दर्शक खिलखिलाए बिना नहीं रहते. उस के ठीक बाद चार्ली जूतों के तले से कीलें निकाल कर यों चूसते हैं, मानो कोई जायकेदार चिकन डिश से लेगपीस का लुत्फ उठा रहा हो. अभाव और जानलेवा परिस्थितियों में उत्पन्न ऐसा स्वाभाविक हास्य विरला ही दिखता है.

हमारे यहां आज भी हास्य में किसी को केले के छिलके पर ही गिरा कर हंसाया जाता है. आज भारत के टीवी प्रोग्राम्स या फिल्म में पौलिटिकल सटायर तो दूर गांव, गरीब और सामाजिक मसलों पर हास्य रचने के बजाय इन्हीं को मजाक का विषयवस्तु बना दिया जाता है. अब कोई कौर्पोरेट जगत और सत्ताधारियों पर कटाक्ष कर सिनेमा नहीं बना सकता. चार्ली चैपलिन ने अपनी एक किताब में कहा है, ‘‘मेरा दर्द किसी के लिए हंसने की वजह हो सकता है, पर मेरी हंसी कभी भी किसी के दर्द की वजह नहीं होनी चाहिए.’’ उन्होंने ताउम्र दूसरों पर हंसने के बजाय खुद को निशाना बनाया लेकिन हम तो टीवी पर आएदिन किसी न किसी को मजाक की आड़ में चोटिल करते रहते हैं. शायद बदली मानसिकता और अपने बजाय दूसरों पर हंसने की प्रवृत्ति के चलते सार्थक हास्य की इतनी कमी खलती है.

मजाक और व्यंग्य में फर्क

आज के ज्यादातर हास्य कलाकार और लेखक हास्य और व्यंग्य में अंतर नहीं कर पाते. इसीलिए कई बार संवेदनशील मसलों को भी व्यंग्य की कसौटी पर रखने के बजाय मजाक के तराजू पर तौल दिया जाता है. जैसा कि आएदिन आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल का फूहड़ अंदाज में चुटकी लेते हुए मजाक उड़ाया जाता है. इन्हें यह बात समझ नहीं आती कि हास्य और व्यंग्य एक जैसे लगते हुए भी प्रकृति में काफी अलहदा हैं. आज कोई हास्य कलाकार राजनीतिक, सामाजिक और अन्य क्षेत्र की हस्तियों को ले कर चार्ली जैसा व्यंग्य क्यों नहीं रच पा रहा है, यह सवाल है. एक समय हृषिकेश मुखर्जी, बासु चटर्जी और कुंदन शाह जैसे निर्देशक आम आदमी और समाज की तकलीफों को हलकेफुलके व्यंग्य के अंदाज में कहते थे पर अब तो साजिद खान जैसे निर्देशकों को हंसाने के लिए अफीम के परांठे खा कर हंगामा मचाने जैसे बेतुके सीन लिखने पड़ते हैं. उन की फिल्म हमशकल्स में कभी बौनों को ले कर तो कभी महिलाओं को ले कर भद्दा मजाक साफ दिखता है.

डिमांड, दबाव व सासबहू ड्रामा

हास्य के गिरते स्तर और इस की कमी के पीछे निजी चैनल्स की गलाकाट प्रतिद्वंद्विता और टीआरपी का फर्जी पैमाना भी है. हर चैनल चाहता है कि अगर बेसिरपैर के हास्य व सासबहू ड्रामा से टीआरपी आती है तो उसी को बारबार दोहराओ. इस के साथसाथ फिल्मों या टीवी पर हास्य लिखने वाले ज्यादातर लेख के सामाजिक संदर्भों से बच कर लिखते हैं या फिर द्विअर्थी संवादों को ही हास्य का पैमाना समझते हैं. कई हास्य लेखक बताते हैं कि उन्हें चैनल प्रोड्यूसर के कहने पर ही चुटकुले तैयार करने पड़ते हैं, मिमिक्री आइटम लिखने पड़ते हैं. ग्लोबलाइजेशन के बाद यहां हर चीज में बिजनेस और मुनाफा ढूंढ़ा जा रहा है. टैलीविजन और फिल्मी हस्ती जयंत कृपलानी, जो धारावाहिक जी मंत्री जी में काफी पसंद किए गए थे, के मुताबिक आज के हास्य कार्यक्रमों में हास्य नहीं बल्कि सिर्फ चुटकुले सुनाए जाते हैं. हास्य वह चीज है जो हमारे जीवन के किसी हिस्से से आता है.

वे कहते हैं कि एक कार्यक्रम में तीन मेजबान हैं जो आप के चुटकुला सुनने से पहले ही हंसना शुरू कर देते हैं और चुटकुला खत्म होने तक लगातार हंसते रहते हैं और उस के बाद पता चलता है कि चुटकुले में हंसने लायक कुछ था ही नहीं.

हास्य का सूरतेहाल

हास्य कार्यक्रमों के नाम पर टीवी पर कौमेडी नाइट विद कपिल, कौमेडी क्लास, यम किसी से कम नहीं, तारक मेहता का उल्टा चश्मा, यम हैं हम, बड़ी दूर से आए हैं और एफआईआर जैसे कुछ कार्यक्रम चल रहे हैं. इन चंद नामों के अलावा टीवी पर अपराध, फंतासी आधारित, सासबहू और डौक्यूमैंट्रीनुमा सीरियल्स की भरमार है. यही हाल फिल्मों का है. हास्य पर पूरी तरह से आधारित आखिरी फिल्म नो एंट्री ही याद आती है. यों तो इस में कई कौमेडी के बेहतरीन सींस थे लेकिन क्लाइमैक्स में जब सभी पुरुष किरदार पहाड़ी से लटके हैं और अचानक सांप आ जाता है, तो दर्शकों के ठहाके सुनने वाले होते हैं. उस पर बीन की धुन पर मेरा तन डोले मेरा मन डोले का बैकग्राउंड संगीत हंसी में चारचांद लगा देता है. नो एंट्री के बाद की बनी क्या कूल हैं हम और मस्ती जैसी फिल्में हास्य के नाम पर एडल्ट जोक्स से ज्यादा कुछ नहीं थीं.

मशहूर हास्य कलाकार जौनी लीवर का कहना है कि आजकल हास्य प्रस्तुति गायब होती जा रही है. फिल्मों में हास्य की जगह पर संवाद और मारधाड़ प्रधान होते जा रहे हैं. जबकि हास्य भावभंगिमा और संकेतों वाली कला है. पहले के समय हास्य फिल्म का जरूरी हिस्सा होता था जो कहानी के साथ पिरोया जाता था. उसी दौर में उत्पल दत्त, देवेन वर्मा, अमोल पालेकर, डेविड, ओम प्रकाश, महमूद, जौनी वाकर, धूमल, मुकरी, जगदीप, मनोरमा, टुनटुन, राजेंद्रनाथ, किशोर कुमार, केश्टो मुखर्जी और असरानी जैसे हास्य कलाकारों का उदय हुआ लेकिन बाद में फिल्मों में कौमेडी का अलग से ट्रैक जुड़ने लगा, शायद यह ट्रैंड दक्षिण भारतीय फिल्मों से आयातित था. लिहाजा, कहानी से कोई सरोकार न होने के चलते हास्य लगभग अनदेखा कर दिया गया. कौमेडी में सबकुछ चलता है, यही कुतर्क हास्य को गायब करने में महत्त्व भूमिका अदा करता रहा.

बदलते दौर से उम्मीद बाकी

जब हास्य अपने सर्वश्रेष्ठ दौर में था तब राज कपूर ने श्री 420 व जागते रहो में सामाजिक व्यवस्था की विसंगति पर खासा कटाक्ष किया. ऐसे ही कई फिल्मकारों ने सार्थक हास्य फिल्में बनाई. कुंदन शाह ने जाने भी दो यारों, हृषिकेश मुखर्जी ने गोलमाल, चुपकेचुपके व रंगबिरंगी, बासु चटर्जी ने चमेली की शादी, खट्टामीठा व छोटी सी बात, सई परांजपे ने कथा, दिल्लगी व चश्मे बद्दूर, गुलजार ने अंगूर जैसी उत्कृष्ट हास्य फिल्में दीं.

जाने भी दो यारो का वह महाभारत के मंचन वाला दृश्य तो कल्ट बन चुका है. महाभारत के किरदारों में जब दूसरे ऐतिहासिक कथाओं के पात्र घुसते हैं तो दर्शक पेट पकड़ लेते हैं. कोई अर्जुन का 2 रुपए का धनुष तोड़ रहा है तो कोई पंजाबी लहजे में अपने ही कौरव साथियों को धमका रहा है. मजा तो तब आता है जब एक लाश को द्रौपदी बना कर मंच पर लाया जाता है और उस के चीरहरण को कौरवों के ही पात्र रोकने लगते हैं. रंगमंच पर महाभारत की यह खिचड़ी आज भी आंखों में हंसी के आंसू ले आती है. कह सकते हैं कि 80 के दशक के आखिर तक हास्य खारिज होने लगा. बाद में स्टैंडअप आर्टिस्ट आ गए और सामाजिक सरोकार से जुड़े हास्य की जगह चुटकुलों पर आधारित कौमेडी होने लगी, जिसे सुन कर त्वरित हंसी तो आ जाती है लेकिन उस का असर भी त्वरित उतर जाता है.

अच्छी बात यह है कि पिछले एक दशक में सार्थक हास्य का कम ही सही, दोबारा से चलन शुरू हुआ है. फिल्मकारों का एक खास वर्ग है जो अपनी फिल्मों में सामाजिक मसलों को हास्य या कहें सटायर के लहजे में सफलतापूर्वक पेश करता है. इस में सब से पहला नाम निर्देशक राजकुमार हिरानी का आता है. हिरानी अपनी फिल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस से ले कर पीके तक अपनी हास्य की गुणवत्ता बरकरार रखे हैं. उन की मुन्ना भाई एमबीबीएस जहां चिकित्सा व्यवस्था की जड़ता व खामियों को मजेदार ढंग से उजागर करती है तो वहीं लगे रहो मुन्ना भाई महात्मा गांधी के विचारों को गांधीगीरी के नए कलेवर में पेश करती है. उन्होंने थ्री इडियट्स में देश की शिक्षा व्यवस्था और आगे बढ़ने की होड़ पर कटाक्ष किया और हालिया रिलीज पीके में तो धर्म के धंधेबाजों पर किए गए हास्यास्पद कटाक्ष से सब वाकिफ हैं ही. उन्हीं की तरह दिबाकर बनर्जी ने खोसला का घोसला, ओए लकी लकी ओए में हास्य के साथ गंभीर मसले दर्शकों के सामने रखे. तेरे बिन लादेन,  पीपली लाइव और ओह माई गौड जैसी कई फिल्मों में हास्य का सहारा ले कर लोगों को गुदगुदाया गया.

ओह माई गौड के एक मजेदार सीन में जब कृष्ण का मौडर्न अवतार ले कर अक्षय कुमार कांजी भाई के घर प्रकट होते हैं तो कांजी उन्हें भगवान की नंगे पेट और दर्जनों हाथों वाली तसवीरें दिखा कर कहता है कि हमारे भगवान ऐसे होते हैं, तेरी तरह सूटबूट में नहीं घूमते. जवाब में कृष्ण का किरदार कहता है कि वह क्या है फेसबुक पर अभी हमारी नई फोटो अपडेट नहीं हुई है. जौली एलएलबी में अदालती प्रक्रिया से उकताए वकील त्यागी का संवाद सुनिए, ‘‘बचपन से फिल्मों में सुनते आए हैं कि कानून के हाथ लंबे होते हैं…घंटा लंबे होते हैं.’’ इन तमाम फिल्मों में हर तरह के समाज की बेबसी और आकांक्षाओं को दिखाया गया था. इन दिनों फिल्म निर्माण की 2 धाराएं चल रही हैं. एक बड़े सितारों को ले कर महंगी फिल्म बनाने की और दूसरी, सीमित बजट में विषय केंद्रित फिल्में बनाने की. दूसरी धारा की फिल्मों में प्रयोग करने और जोखिम उठाने की ज्यादा संभावना होती है, लिहाजा अगर इन्हें बढ़ावा मिले तो शायद मनोरंजन की दुनिया से हास्य की कमी दूर हो जाए.

जीवन की मुसकान

रात के 8 बजे थे. काफी बारिश हो रही थी. मैं कार द्वारा कपूरथला से पूर्णिया की ओर जा रही थी. मोबाइल की घंटी बजी, आवश्यक कौल देख कर मैं ने कार किनारे खड़ी की और बात करने लगी. तभी मुझे लगा कि कार का अगला हिस्सा नीचे की ओर झुका जा रहा है. फोन बंद कर मैं कार से उतरी तो देखा कार के अगले पहिए बंपर समेत कीचड़ में धंस गए हैं. मैं ने गाड़ी स्टार्ट कर निकालने की कोशिश की लेकिन कार टस से मस न हुई. क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा था. तभी एक संभ्रांत से सज्जन पैदल उधर से गुजरे. मुझे पानी में खड़े देख कर पूछा, ‘मैडम, क्या बात है?’ मैं ने अपनी परेशानी बताई तो वे रुक गए और साइकिल पर जाते 2 लोगों को रोका व उन की सहायता से गाड़ी निकलवाने की कोशिश की पर गाड़ी निकल न सकी.

तभी एक मालवाहक टैंपो उधर से गुजरा. उन सज्जन ने उसे रोक कर सहायता मांगी. ड्राइवर राजी हो गया. उस ने एक रस्सी निकाली और बंपर से बांधने की कोशिश की लेकिन बंपर तो कीचड़ में धंसा था तो उस ने पीछे से रस्सी बांध कर खींचा तो रस्सी ही टूट गई. तब उस ने 4-5 आदमियों को बुला कर धक्का लगाने को कहा और खुद कार स्टार्ट कर गाड़ी को बाहर निकाल दिया. मैं ने खुशीखुशी टैंपो वाले और उस के साथियों को 400 रुपए दिए. वे सज्जन पूरे समय मेरे साथ खड़े रहे. घबराहट में मैं उन को धन्यवाद कह कर, गाड़ी ले कर चली आई. उन का परिचय नहीं पूछा. रास्ते में मैं सोचने लगी, स्वार्थ से भरी इस दुनिया में निस्वार्थ सहायता करने वाले लोग भी हैं.

ऋतु अरोरा, लखनऊ (उ.प्र.)

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कुछ दिन पहले मेरी दादी काफी बीमार हो गईं. उन्हें बिलासपुर के एक हौस्पिटल में भरती कराया गया. उन की शुगर एकदम डाउन हो गई थी. डाक्टरों ने मुझ से शक्कर लाने को कहा. रात के 12 बज रहे थे. मेरा घर हौस्पिटल से काफी दूर था. मैं आसपास दुकान में शक्कर की तलाश के लिए निकला. एक घर के सामने एक बुजुर्ग दंपती बैठे थे. मैं ने उन से जा कर अपनी समस्या बताते हुए पूछा, ‘‘आंटीजी, यहां कहीं आसपास किराने की दुकान है क्या?’’

उन्होंने कहा, ‘‘दुकानें तो सामने ही हैं पर वे बंद हो चुकी हैं.’’ उन के पति ने कहा, ‘‘शक्कर चाहिए तो हम से ले जाओ.’’ इतने में उन की पत्नी ने एक डब्बे में शक्कर के साथसाथ कुछ मिठाइयों के पीस भी ला कर मुझे दिए, जिस से मेरी दादी को काफी आराम मिला. मैं आज भी उन दंपती का हृदय से आभारी हूं.

सौरभ वर्मा, बिलासपुर (छ.ग.)

नास्तिक न होऊं तो क्या होऊं

कंजूस सेठ करोड़ीमल समुद्रतट पर अपने परिवार के साथ तफरीह करने गए थे. ज्वार के दिन थे. अचानक समुद्र में एक बड़ी लहर आई और उन के 2 साल के बच्चे झुम्मन को अपने साथ बहा कर ले गई. क्या हुआ, यह ठीक से समझ में आने तक झुम्मन एकदो बार लहरों पर दिखाई दिया और फिर गायब हो गया. सेठ करोड़ीमल की जान हलक में आ गई. झट उन्होंने दोनों हाथ आकाश की तरफ उठाए, रेत में घुटने टेके और गिड़गिड़ाए, मेरे बच्चे को बचा लो. मेरा सबकुछ लुटा जा रहा है.

सेठ करोड़ीमल गिड़गिड़ा ही रहे थे कि पहले से भी बड़ी एक लहर और आई और झुम्मन को किनारे पटक कर चली गई. सेठ करोड़ीमल एक पल में होश में आए. सामने अपने बच्चे को जिंदा देख कर उन की जान में जान आई. उन्होंने झुम्मन को ध्यान से देखा, ऊपर से नीचे तक ताका और फिर आकाश की तरफ मुंह उठा कर गुस्से से बोले, इसीलिए तो मुझे तुम पर श्रद्धा नहीं होती. आज तक तुम ने मेरी एक भी प्रार्थना सुनी है? मैं नास्तिक न होऊं तो क्या होऊं? तुम्हें मेरी जरा भी फिक्र नहीं है. अब यही देखो, मेरा बच्चा तो बच गया लेकिन उस का मोबाइल कहां गया, बताओ?                      

बच्चों के मुख से

मेरी 8 वर्षीय बेटी चेरी एक दिन बोली, ‘‘मम्मी, आज मुझे टिफिन में पोहा बना कर देना.’’ मैं ने उसे टिफिन में पोहा बना कर दे दिया. स्कूल से जब वह वापस आई तो बहुत खुश थी, चहक कर बोली, ‘‘मम्मी, मेरी सब सहेलियों को पोहा बहुत टेस्टी लगा. सब ने मुझ से कहा, ‘वाह, तेरी मम्मी कितना अच्छा पोहा बनाती हैं.’’’

‘‘अच्छा,’’ मैं ने प्यार से उस से कहा.

‘‘हां मम्मी, तो मैं ने उस से कहा कि मेरी मम्मी बहुत अच्छी कुकर हैं. खाना बहुत अच्छा बनाती हैं.’’

उस की बात सुन कर मुझे जोर से हंसी आ गई और मैं ने उसे समझाया कि अच्छा खाना बनाने वाले को ‘कुकर’ नहीं ‘कुक’ कहते हैं.

विनीता राहुरीकर, भोपाल (म. प्र.)

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बात मेरी चचेरी बहन के विवाह की है. बरातियों के स्वागत के लिए गरमागरम चाय, कौफी, सूप की व्यवस्था की गई थी. 12 बजे रात को शादी का विधिविधान आरंभ हुआ. सभी बुजुर्ग व महिलाएं स्टाल पर जा कर गरमागरम कौफी की चुसकियां ले रहे थे. तभी मेरी 5 वर्षीया भतीजी ईशा आई. उस ने मुझ से बड़े प्यार से कहा, ‘‘बूआ, मुझे भी कौफी चाहिए.’’

मैं ने सहमति देते हुए कहा, ‘‘ठीक है, जाओ ले लो.’’

इस पर ईशा ने बड़ी मासूमियत से कहा, ‘‘मेरे पास पैसे नहीं हैं, पैसे दो न.’’ उस की बात सुन कर मैं ही नहीं, आसपास खड़े लोग भी मुसकरा उठे. दरअसल, विवाह में लगे स्टौल को भी वह दुकान समझ बैठी थी.

मृणालिनी, कोलकाता (प.बं.)

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मेरी 2 पोतियां हैं–मनु और इनु. वे 3 व 4 साल की हैं. मुझे सब्जी वगैरह लाने के लिए रोज बाजार जाना पड़ता है. मैं जब भी बाहर जाने लगती हूं तो बच्चे साथ में जाने के लिए मचलने लगते हैं. एक दिन गरमी में जब मैं बाहर जाने के लिए निकलने लगी तो वे पीछे लग गए और बोलने लगे, ‘‘आप कहां जा रहे हो, हम भी जाएंगे.’’ मैं ने उन्हें साथ न ले जाने के बहाने से उन से कहा, ‘‘मैं धक्के खाने जा रही हूं.’’ तो बच्चे एकसाथ बोल पड़े, ‘‘हम भी धक्के खाएंगे.’’ बच्चों के मुख से निकले इस वाक्य को याद कर हम सब आज भी हंसे बिना नहीं रह पाते.

विमलजीत छाबड़ा, महासमुंद (छ.ग.)

शादी के बाद कैरियर में बे्रेक क्यों : गुरुदीप पुंज

मुंबई की रहने वाली गुरुदीप ने अपने अभिनय कैरियर की शुरुआत मौडलिंग से की. उन को पहचान मिली ‘संजीवनी’, ‘सिंदूर तेरे नाम का’, ‘नच बलिए’ व ‘दिया और बाती हम’ सीरियलों से. गुरुदीप ने फिल्म ‘राउडी राठौर’ में भी काम किया. गुरुदीप  ने ‘संजीवनी’ के साथी कलाकार अर्जुन पुंज से साल 2006 में शादी की. 2010 में उन की बेटी मेहर हुई. अर्जुन और गुरुदीप दोनों ने एकसाथ ‘दिया और बाती हम’ में काम किया है. पेश हैं उन से हुई बातचीत के खास अंश :

शादी से पहले और शादी के बाद अपने कैरियर में क्या बदलाव महसूस करती हैं?

शादी से पहले हमारा ध्यान केवल कैरियर पर होता है. शादी के बाद हमें पति, परिवार और बच्चे सभी पर ध्यान देना पड़ता है. यह सब बहुत मजे से व्यवस्थित हो जाता है. हमें यह महसूस नहीं होता कि कैरियर के चक्कर में हमें क्या गंवा देना पड़ा. काम के बाद अपने परिवार के साथ समय गुजार कर बहुत अच्छा लगता है. काम का सारा बोझ, तनाव बच्चों की एक मुसकान मात्र से दूर हो जाता है.

एक सोच होती थी कि शादी और उस पर बच्चे होने के बाद अभिनय के कैरियर में ब्रेक  लग जाता था?

अब ऐसा नहीं होता. शादी और बच्चों के बाद भी कैरियर को आगे बढ़ाया जा सकता है. टीवी ही नहीं, फिल्मों में भी ऐसे तमाम उदाहरण मौजूद हैं जब कलाकारों ने कैरियर के ऊंचे शिखर पर शादी की है. शादीके बाद भी लोग उन को पसंद करते हैं. टीवी की दुनिया में ऐसे बहुत उदाहरण हैं. शादी और बच्चों को कैरियर पर ब्रेक मानने वाली बात मुझे बेमानी लगती है.

क्या इस की वजह यह नहीं है कि आज की औरत शादी और बच्चों के बाद भी अपने को फिट रख सकती है?

सही बात है. आज औरतों को अपने को फिट और सुंदर बनाए रखने की कला आती है. वे अपने पर पहले से अधिक ध्यान देती हैं. वे महिलाएं ही नहीं जो फिल्मी कैरियर में हैं. आम महिलाएं भी आज अपनी सेहत और सुंदरता के प्रति बहुत जागरूक हैं.

आप और आप के पति दोनों ही अभिनय के क्षेत्र से हैं. एक ही फील्ड में काम करने में कोई परेशानी तो नहीं होती?

मुझे तो इस में कोई परेशानी नहीं होती है. मुझे तो लगता है कि एक फील्ड में काम करने का लाभ ही होता है. पतिपत्नी के बीच अनबन तो हर उस जगह हो सकती है जहां आपसी प्यार और सहयोग नहीं होगा. हम ने कई बार एकदूसरे के साथ वाले रोल किए हैं. ‘दिया और बाती हम’ में हम एकदूसरे के अपोजिट भूमिका की. परदे पर हम भले ही अलगअलग हों पर घर में साथसाथ होते हैं. परदे पर काम करते समय हमें यह भूलना पड़ता है कि हम पतिपत्नी हैं. हम अपने अभिनय पर आपस में बात करते हैं. हम जानते हैं कि सब से अच्छी सलाह हमें आपसी बातचीत के बाद ही पता चल सकेगी.

आप की बेटी करीब 4 साल की है. वह अपनी ‘स्टार मौम’ को कैसे देखती है?

बच्चे हमें देखते बडे़ होते हैं. वे धीरेधीरे सबकुछ समझ लेते हैं. कई बार हम बेटी को शूटिंग पर ले जाते हैं. अब वह स्कूल जाने लगी है. हमें सब से ज्यादा परेशानी उस के साथ स्कूल जाने में होती है. सब हम लोगों से मिलने के चक्कर में लग जाते हैं. हमारी बेटी को अपनी स्टार मौम और डैड दोनों से बहुत प्यार है.

आप की दूसरी हौबीज क्या हैं?

मुझे तरहतरह के खाने बनाने का शौक है. इस के लिए मैं पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाले रेसिपी के लेख बहुत पढ़ती हूं. गृहशोभा व सरिता में प्रकाशित होने वाली रेसिपी हम ने बहुत पढ़ी हैं. इन से बहुत सीखने को मिला है. एक टैलीविजन चैनल पर कुकिंग प्रोग्राम ‘बच्चा पार्टी’ और एबीसी (औल बाउट कुकिंग) होस्ट किए. मेरे पति तो एक रेस्तरां भी चलाते हैं. पंजाबी फूड खासतौर पर पसंद है. मुझे घूमना भी बहुत पसंद है.

नैगेटिव रोल करने के बाद क्या कैरियर पर किसी तरह का नैगेटिव प्रभाव पड़ता है?

मेरा मानना है कि कलाकार को हर तरह के रोल करने चाहिए. इस से ऐक्ंिटग के तमाम शेड्स करने को मिलते हैं. मुझे ऐसे रोल करने में कोई परेशानी नहीं होती. इस को मैं चैलेंज के रूप में लेती हूं. मुझे सब से ज्यादा मुश्किल वैसे रोल निभाने में आती है जहां मुझे पुरुष का किरदार निभाने को कहा जाता है. ‘दिया और बाती हम’ में मुझे एक सीन में दाढ़ीमूंछ लगा कर पुरुष बनना पड़ा था.

शादी के बाद अपने को फिट कैसे रखें?

आप अपने से प्यार करना शुरू कर दीजिए. अपने को फिट रखने में केवल थोड़ी सी जागरूकता और ऐक्सरसाइज की जरूरत है. खानपान का ध्यान रखें. फैट बढ़ाने वाली चीजें न खाएं. ऐसी चीजें टेस्टी जरूर लगती हैं पर इन से बचना पडे़गा. सब से जरूरी चीज स्किन केयर होती है. इस के लिए पानी खूब पिएं. अपने फिगर को ध्यान में रख कर अपने लिए ड्रैस का चुनाव करें. इस के अलावा मेकअप का प्रयोग जरूरत के हिसाब से ही करें.

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