Download App

महायोग : 10वीं किस्त

अब तक की कथा :

मानसिक तनाव, शारीरिक थकान तथा अंधकारमय भविष्य की कल्पना ने दिया की सोचनेसमझने की शक्ति कमजोर कर दी थी. घुटन के अतिरिक्त उस के पास अपना कहने के लिए कोई नहीं था. सास के साथ मंदिर जाने पर वहां उस को एक साजिश का सुराग मिला. वह अपने साथ घटित होने वाले हादसों के रहस्य को समझने की अनथक चेष्टा करने लगी.

अब आगे…

यह वही नील था जो दिया डार्लिंग और दिया हनी जैसे शब्दों से दिया को पुकारता था. उस के मस्तिष्क ने मानो कुछ भी सोचने से इनकार कर दिया और अपने सारे शरीर को रजाई में बंद कर लिया. यौवन की गरमाहट, उत्साह, उमंग, चाव, आशा सबकुछ ही तो ठंडेपन में तबदील होता जा रहा था. पूरे परिवार की प्यारी, लाड़ली दिया आज हजारों मील दूर सूनेपन और एकाकीपन से जूझते हुए अपने बहुमूल्य यौवन के चमकीले दिनों पर अंधेरे की स्याही बिखरते हुए पलपल देख रही है. घर से फोन आते थे, दिया बात करती पर अपनी आवाज में जरा सा भी कंपन न आने देती. वह जानती थी कि उस की परेशानी से उस के घर वालों पर क्या बीतेगी. इसीलिए वह बिना कुछ कहेसुने चुपचाप उस वातावरण में स्वयं को ढालने का प्रयास करती. मांबेटे दोनों का स्वभाव उस की समझ से परे था.

नील लगभग सवेरे 8 बजे निकल जाता और रात को 8 बजे आता. एक अजीब प्रकार का रहस्य सा पूरे वातावरण में छाया रहता. कभीकभी रेशमी श्वेत वस्त्रों से सज्जित एक लंबे से महंतनुमा व्यक्ति की काया उस घर में प्रवेश करती. दिया को उन के चरणस्पर्श करने का आदेश मिलता. फिर वे नील की मां के साथ ऊपर उन के कमरे में समा जाते. घंटेडेढ़ घंटे के बाद नीचे उतर कर अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से उसे घूरते हुए वे घर से निकल कर सड़क पर खड़ी अपनी गाड़ी में समा जाते. दिया का कभी उन से परिचय नहीं कराया गया था परंतु वह जानती थी कि वे सज्जन जानते हैं कि वह दिया है, नील की तथाकथित पत्नी. उन की दृष्टि ही उसे सबकुछ कह जाती थी. वह चुपचाप दृष्टि झुकाए रहती. न जाने क्यों उसे उन महानुभाव की दृष्टि में कुछ अजीब सा भाव दृष्टिगोचर होता था जिसे वह बिना किसी प्रयास के भी समझ जाती थी. सब अपनेअपने कमरों में व्यस्त रहते. दिया को शुरूशुरू में तो बहुत अटपटा लगा, रोई भी परंतु बाद में अभ्यस्त हो गई. लगा, यही कालकोठरी सा जीवन ही उस का प्रारब्ध है.

‘‘दिया, यहां बिजली बहुत महंगी है,’’ एक दिन अचानक ही सास ने दिया से कहा.

वह क्या उत्तर देती. चुपचाप आंखें उठा कर उस ने सास के चेहरे पर चिपका दीं.

‘‘तुम तो नीचे सोती हो न. दरअसल, सुबह 5 बजे तक बिजली का भाव बिलकुल आधा रहता है…’’

दिया की समझ में अब भी कुछ नहीं आया. अनमनी सी वह इधरउधर देखती रही. ‘क्या कहना चाह रही हैं वे?’ यह वह मन में सोच रही थी. ‘‘मैं समझती हूं, रात में अगर तुम वाशिंगमशीन चालू कर दो तो बिजली के बिल में बहुत बचत हो जाएगी.’’ वह फिर भी चुप रही. कुछ समझ नहीं पा रही थी क्या उत्तर दे.

2 मिनट रुक कर वे फिर बोलीं, ‘‘और हां, खास ध्यान रखना, अपने कपड़े मत डाल देना मशीन में. और जब भी टाइम मिले, लौन की घास मशीन से जरूर काट देना.’’

दिया बदहवास सी खड़ी रह गई, यह औरत आखिर उसे बना कर क्या लाई है? उस से बरतन साफ नहीं हो रहे थे, खाना बनाने में वह पस्त हो जाती थी और अब यह सब. दिया की सुंदर काया सूख कर कृशकाय हो गई थी. पेट भरने के लिए उस में कुछ तो डालना ही पड़ता है. दिया भी थोड़ाबहुत कुछ पेट में डाल लेती थी. हर समय उस की आंखों में आंसू भरे रहते. ‘‘अब इस तरह रोने से कुछ नहीं होगा दिया. सब को पता है यहां पर इंडिया की तरह नौकर तो मिलते नहीं हैं. हम ने तो सोचा था कि तुम इतनी स्मार्ट हो तो…पर तुम्हें तो कुछ भी नहीं आता. आजकल की लड़कियां कितनी ‘कुकरी क्लासेज’ करती हैं, तुम ने तो लगता है कि कुछ सीखने की कोशिश ही नहीं की,’’ उन के मुख पर व्यंग्य पसरा हुआ था.

दिया को लगा वह बुक्का फाड़ कर रो देगी, कैसी औरत है यह? औरत है भी या नहीं? मांपापा को यहां की स्थिति से अवगत करा कर वह उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी, फिर भी अपने लिए उसे कुछ सोचना तो होगा ही. वह सारी उम्र इस कठघरे में कैद नहीं हो सकती थी. मन और तन स्वस्थ हों तो वह कुछ सोच सकती थी परंतु उस के तो ये दोनों ही स्वस्थ नहीं थे. हर क्षण उस के मन में यही सवाल कौंधता रहता कि आखिर उसे लाया क्यों गया है यहां? क्या केवल घर की केयरटेकर बना कर? और यदि वह नील की पत्नी बन कर आई थी तो नील से अब तक उस का संबंध क्यों नहीं बन पाया था? यह सब उस की समझ से बाहर की बात थी जिस पर अब वह अधिक जोर नहीं दे रही थी क्योंकि वह भली प्रकार समझ चुकी थी कि उसे यहां से निकलने के लिए सब से पहले स्वयं को स्वस्थ रखना होगा. इसलिए वह स्वयं को सहज रखने का प्रयास करने लगी.

जैसेजैसे वह सहज होती गई उस के मस्तिष्क ने सोचना शुरू कर दिया. अचानक उसे ध्यान आया कि वह तो यहां पर ‘विजिटिंग वीजा’ पर आई हुई थी और अभी तक उस का यहां के कानून के हिसाब से कोई ‘पंजीकृत विवाह’ आदि भी नहीं कराया गया था, इसलिए कुछ तो किया जा सकेगा. इसी विचार से उस ने अपनी अटैची उतारी और उसे पलंग पर रख कर अटैची की साइड की जेबें टटोलने लगी. जैसेजैसे उस के हाथ खाली जगह पर अंदर की ओर गए, उस का मुंह फक्क पड़ने लगा. अटैची में उस का पासपोर्ट नहीं था. कहां गया होगा पासपोर्ट? उस ने सोचा और पूरी अटैची उठा कर पलंग पर उलट दी. पर पासपोर्ट फिर भी न मिला.

काफी रात हो चुकी थी. इस समय रात के 3 बजे थे और उनींदी सी दिया अपना पासपोर्ट ढूंढ़ रही थी. थकान उस के चेहरे पर पसर गई थी और पसीने व आंसुओं से चेहरा पूरी तरह तरबतर हो गया था. उस का मन हुआ, अभी दरवाजा खोल कर बाहर भाग जाए. मुख्यद्वार पर कोई ताला आदि तो लगा नहीं रहता था. परंतु जाऊंगी भी तो कहां? वह सुबकसुबक कर रोने लगी और रोतेरोते अपनी अलमारी के कपड़े निकाल कर पलंग पर फेंकने लगी. उसे अच्छी तरह से याद था कि उस ने अटैची में ही पासपोर्ट रखा था. नील और उस की मां लगभग साढ़े छह, सात बजे सो कर उठते थे. आज जब वे उठ कर नीचे आए तो दिया के कमरे की और दिया की हालत देख कर हकबका गए. दिया सिमटीसिकुड़ी सी पलंग पर फैले हुए सामान के बीच एक गठरी सी लग रही थी. मांबेटे ने एकदूसरे की ओर देखा और दोनों ने कमरे में प्रवेश किया. कमरे में फैले हुए सामान के कारण मुश्किल से उन्हें खड़े होने भर की जगह मिली.

‘‘दिया,’’ नील ने आवाज दी पर दिया की ओर से कोई उत्तर नहीं आया.

‘‘दिया बेटा, उठो,’’ सास ने मानो स्वरों में चाशनी घोलने का प्रयास किया परंतु उस का भी कोई उत्तर नहीं मिला.

‘‘मौम, कहीं…’’ नील ने घबरा कर मां से कुछ कहना चाहा.

‘‘नहीं, नहीं, कुछ नहीं,’’ मां ने बड़ी बेफिक्री से उत्तर दिया. फिर दिया की ओर बढ़ीं.

‘‘दिया, उठो, यह सब क्या है?’’

इस बार दिया चरमराई, नील ने आगे बढ़ कर उसे हिला दिया, ‘‘दिया, आर यू औलराइट?’’ उस के स्वर में कुछ घबराहट सी थी.

‘‘हांहां, ठीक है. लगता है रातभर इस के दिमाग में उधेड़बुन चलती रही है. अब आंख लग गई होगी. चलो, किचन में चाय पी लेते हैं, तब तक उठ जाएगी.’’ नील पीछे घूमघूम कर देख रहा था पर मां किचन की ओर बढ़ गई थीं. शायद नील के मन में कहीं न कहीं दिया के लिए नरमाहट पैदा हो रही थी परंतु मां का बिलकुल स्पष्ट आदेश…वह करे भी तो क्या? उसे वास्तव में दिया के लिए बुरा लगता था, लेकिन वह अपना बुरा भी तो नहीं होने दे सकता था. उस का अपना भविष्य भी तो त्रिशंकु की भांति अधर में लटका हुआ था. उस के विचारों में उथलपुथल होती रही और इसी मनोदशा में वह 2 प्यालों में चाय ले कर मां के पास डाइनिंग टेबल पर आ बैठा था. मां तब तक बिस्कुट का डब्बा खोल कर बिस्कुट कुतरने लगी थीं.

‘‘मौम, यह ठीक नहीं है.’’

‘‘अब क्या कर सकते हैं? मैं भी कहां चाहती थी कि यह सब हो पर…उस दिन  धर्मानंदजी आए थे, तब भी उन्होंने यही बताया कि अभी डेढ़दो साल तक तुम दिया से संबंध नहीं बना सकते. इस के बाद भी तुम दोनों का समय देखना पड़ेगा.’’

‘‘पर मौम, अभी तो हम ने शादी के लिए भी एप्लाई नहीं किया है. फिर…’’

‘‘शादी के लिए एप्लाई करने का अभी कोई मतलब ही नहीं है जब तक इस के सितारे तुम्हारे फेवर में नहीं आ जाते. वैसे भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?’’ मां ने सपाट स्वर में अपने बेटे

से कहा. ‘‘मैं ने तो आप से पहले ही कहा था. अभी तो नैंसी  जरमनी गई हुई है. आएगी तो मैं उस के साथ बिजी हो जाऊंगा पर इस का…’’

‘‘अब बेटा, वह तुम्हारा पर्सनल मामला है. मैं तो कभी नहीं चाहती थी कि तुम नैंसी  से रिलेशन बनाओ. वह तुम्हारे साथ शादी करने के लिए भी तैयार नहीं है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है, मौम, मैं तो उस के साथ बहुत खुश हूं. आप को बहू चाहिए थी. इतनी खूबसूरत लड़की को देख कर मैं भी बहक गया पर आप मुझे उस से दूर रहने के लिए जोर दे रही हैं,’’ नील मां से नाराज था.

दिया कब रसोई के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी, किसी को पता नहीं चला. मांबेटे की बात सुन कर दिया के पैर लड़खड़ाने लगे थे. कहां फंस गई थी वह? दबे कदमों से चुपचाप आ कर वह कुरसी पर बैठ गई.

‘‘अरे दिया, उठ गई बेटा, आज तो बहुत सोई और ये सब क्या है?’’ रसोईघर से निकलते हुए सास ने एक के बाद एक सवाल उस पर दाग दिए.

‘‘गुडमौर्निंग दिया, आर यू ओके?’’ नील ने भी अपनी सहानुभूति दिखाने की कोशिश की.

दिया ने एक दृष्टि दोनों की ओर डाली. उस की क्रोध और पीड़ाभरी दृष्टि से  मांबेटे क्षणभर के लिए भीतर से कांप उठे, फिर तुरंत सहज भी हो गए.

‘‘माय पासपोर्ट इज मिसिंग?’’ दिया ने कुछ जोर से कहा.

‘‘अरे, कहां जाएगा? यहीं होगा कहीं तुम्हारे कपड़ों के बीच में. कोई तो आताजाता नहीं है घर में जो चुरा कर ले जाएगा. और किसी को करना भी क्या है तुम्हारे पासपोर्ट का?’’ कितनी बेशर्म औरत है. दिया ने मन ही मन सोचा.

अब तक दिया समझ चुकी थी कि इस प्रकार यहां उस की दाल नहीं गलेगी. अभी तक उस की सास उसे केवल 2-3 बार मंदिर और दोएक बार मौल ले कर गई थीं. मंदिर में भी उसे भारत से आई हुई रिश्तेदार के रूप में ही परिचित करवाया गया था. उसी मंदिर में उस ने उस लंबेचौड़े गौरवपूर्ण पुरुष को देखा था जिसे उस की सास धर्मानंदजी कहती थीं. अभी चाय पीते समय जरूर वे उसी आदमी के बारे में बातें कर रही थीं. उस ने सोचा, ‘पर वह क्यों नील को उस से दूर रखना चाहता है?’

‘‘चलो, चलो, ये सब ठीकठाक कर के अपनी जगह पर जमा दो. मिल जाएगा पासपोर्ट, जाएगा कहां. और अभी करना भी क्या है पासपोर्ट का?’’ दिया की सास ने अपना मंतव्य प्रस्तुत कर दिया.

‘‘आओ, मैं तुम्हारी हैल्प करता हूं. मौम, आप दिया के लिए प्लीज चाय बना दीजिए. यह बहुत थकी हुई लग रही है,’’ नील ने मां से खुशामद की.

‘‘नो, थैंक्स, मैं बना लूंगी जब पीनी होगी,’’ दिया ने कहा और सामान समेट कर अटैची में भरने लगी. कुछ दिनों से जो साहस वह जुटाने की चेष्टा कर रही थी वह फिर से टूट रहा था.

नील दिया के साथ उस का सामान फिर से जमाने का बेमानी सा प्रयास कर रहा था जिस से कभीकभी उस का शरीर दिया के शरीर से टकरा जाता परंतु दिया को इस बात से कोई रोमांच नहीं होता था. दिया एक कुंआरी कन्या थी जिस के तनमन में यौवन की तरंगों का समावेश रहा ही होगा परंतु जब शरीर ही बर्फ हो गया तो…? फिलहाल तो उस का मस्तिष्क अपने पासपोर्ट में ही अटका हुआ था. उस के मन ने कहा, जरूर यह मांबेटे की चाल है परंतु प्रत्यक्ष में तो वह कुछ कहने या किसी प्रकार के दोषारोपण करने का साहस कर ही न सकती थी.

ऊपर से एक और रहस्य, ‘यह नैंसी  कौन है? और नील से उस का क्या रिश्ता हो सकता है?’ उस का मस्तिष्क जैसे उलझता ही जा रहा था. कोई भी तो ऐसा नहीं था जिस से बात कर के वह अपनी उलझनों का हल ढूंढ़ती. कभी नील उस से बात करने का प्रयास करता भी तो पहले तो उस का ही मन न होता पर बाद में उस ने सोचा कि वह बात कर के ही नील से वास्तविकता का पता लगा सकती है. उसे नील के करीब तो जाना ही होगा, तभी उसे पता चल सकेगा कि आखिर वह किस प्रकार इस जाल से छूट सकेगी? वह अंदर ही अंदर सोचती हुई अपनेआप को संभालने का प्रयास कर रही थी. परंतु उस के इस प्रकार के थोड़ेबहुत प्रयास पर नील की मां पानी फेर देतीं. वे किसी न किसी बहाने से नील को उस के पास से हटा देती थीं. उन दोनों की बातें सुनने के बाद उसे यह तो समझ में आने लगा था कि हो न हो, ये सब करतूतें भी कोई ग्रहोंव्रहों के कारण ही हो रही हैं पर पूरी बात न जान पाने के कारण वह कुछ भी कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाती.

आज फिर नील की मां उसे मंदिर ले गईं. वहां पर काफी लोग जमा थे. पता चला, कोई महात्मा प्रवचन देने आए थे, इंडिया से. दिया कहां इन सब में रुचि रखती थी परंतु विवशता थी, बैठना पड़ा सास के साथ. दिया का मन उन्हें सास स्वीकारने से भी अस्वीकार कर रहा था. कैसी सास? किस की सास? जैसेजैसे दिन व्यतीत होते जा रहे थे उस का मन अधिक और अधिक आंदोलन करने लगा था. यहां सीधी उंगली से घी नहीं निकलने वाला था, दिया की समझ में यह बात बहुत पहले ही आ चुकी थी. प्रश्न यह था कि उंगली टेढ़ी की कैसे जाए? इस के लिए कोई रास्ता ढूंढ़ना बहुत जरूरी था.

अचानक धर्मानंदजी दिखाई पड़े. गौरवपूर्ण, लंबे, सुंदर शरीर वाला यह पुरुष उसे वैसा ही रहस्यमय लगता था जैसे नील व उस की मां थे. उस की दृष्टि धर्मानंद के पीछेपीछे घूमती रही. न जाने उसे क्यों लग रहा था कि हो न हो, यह आदमी ही उस के पिंजरे का ताला खोल सकेगा. नील की मां के पास बहुत कम लोग आतेजाते थे. उन में धर्मानंद उन के बहुत करीब था, दिया को ऐसा लगता था. अब प्रवचन चल रहा था. तभी दिया ने देखा कि नील की मां मंदिर में बने हुए रसोईघर की ओर जा रही हैं. उसे एहसास हुआ कि उसे उन के पीछेपीछे जा कर देखना चाहिए. वह चुपचाप उठ कर पीछेपीछे चल दी. उस का संशय सही था. नील की मां धर्मानंदजी से मिलने ही गई थीं. वह चुपचाप रसोई के बाहर खड़ी रही. दिया के कान उन दोनों की बातें सुनने के लिए खड़े हो गए थे. वहबड़ी संभल कर रसोईघर के दरवाजे के पीछे छिप कर खड़े होने का प्रयत्न कर रही थी. दोनों की फुसफुसाहट भरी बातें उस के कानों तक पहुंच रही थीं.

‘‘धर्मानंद आप ने पासपोर्ट संभाल कर रखा है?’’

‘‘हां, ठीक जगह रखा है. पर… क्या फर्क पड़ता है अगर खो भी जाए तो…?’’ धर्मानंद ने बड़े सपाट स्वर में प्रश्न का उत्तर दिया. फिर आगे बोले, ‘‘देखिए मिसेज शर्मा, इस लड़की के तो कहीं गुणवुण मिलने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं. आप ने किस से मिलवाई थीं इन की कुंडलियां?’’

‘‘अरे भई, जब हम इंडिया गए तो आप यहां थे और जब हम यहां आए तो आप इंडिया पहुंच गए. मुझे जन्मपत्री रवि से ही मिलवानी पड़ीं. आप की जगह उस समय तो वही था यहां,’’ नील की मां का राज दिया पर खुलता जा रहा था.

‘‘और इस लड़की की दादी थीं कि पत्री मिलाए बिना एक कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं थीं. सो, जल्दीबाजी में…’’

‘‘आप भी, आप तो जानती हैं रवि को मैं ही सिखा रहा हूं. अभी तो जुम्माजुम्मा आठ भी दिन नहीं हुए यह विद्या सीखते हुए उसे. अभी क्या औकात उस की? वैसे भी अपना नील तो नैंसी के साथ इतना कस कर बंधा हुआ है. यह तो बेचारी वैसे ही फंस गई,’’ धर्मानंद के स्वरों में मानो दिया के लिए कुछ करुणा सी उभर रही थी.

‘‘अरे धर्मानंदजी, मैं ने बताया तो था कि यह है बहुत बड़े घर की. अगर इस के घरवालों को यह सब पता चल गया तो फजीहत हो जाएगी हमारी. आप ही बताइए कोई उपाय?’’

‘‘लड़की है भी प्यारी, सुंदर सी. अगर कहीं नील ने इस के साथ रिलेशन बना लिया तो उस का भविष्य तो गया पानी में. वैसे तो वह नैंसी के साथ खुश है. आप ने क्यों शादी करा दी उस की?’’ धर्मानंद को दिया से सहानुभूति होती जा रही थी, ‘‘इस से तो किसी गरीब घर की साधारण लड़की लातीं तो उस का भी उद्धार हो जाता और आप का काम भी.’’

‘‘नैंसी तो शादी करने के लिए तैयार ही नहीं है न. और अगर शादी कर भी लेगी तो क्या मेरे साथ निभा सकती है? पर आप ने तो नील को संबंध बनाने तक से रोक दिया है.’’

‘‘भई, मेरा जो फर्ज था, मैं ने किया. अब आप को या नील को जैसा ठीक लगे करिए,’’ धर्मानंद विचलित से हो गए थे.

‘‘अरे नहीं धर्मानंद, आप के बगैर बताए क्या हम एक कदम भी चलते हैं? आप की जब तक ‘हां’ न हो, नील को उस की तरफ ताकने भी नहीं दूंगी. मैं कहां चाहती थी कि दिया को इस तरह की परेशानी हो पर जब आप…और मुझे लगा था कि नील पर से खतरा टल जाएगा तो यहीं दिया से इस की शादी करवा देंगे. इतनी सुंदर और अमीर बहू पा कर वह नैंसी को भूल जाएगा. पर…’’ दिया ने लंबी सांस छोड़ी. उस को अपना पूरा जीवन ही गर्द और गुबार से अटा हुआ दिखाई देने लगा. वह चुपचाप दरवाजे के पीछे से हट कर भक्तों की भीड़ में समा गई जहां तबले, हारमोनियम व तालियों के साथ  भक्तजन झूम रहे थे. कुछ देर बाद नील की मां ने आ कर देखा, दिया वैसे ही आंख मूंद कर बैठी थी. उन्होंने चैन की सांस ली और मानो फिर कुछ हुआ ही न हो, सबकुछ वैसा चलने लगा जैसा चल रहा था.

अगले दिन सुबह घर में हंगामा सा उठ खड़ा हुआ. नील काम पर जाने की तैयारी कर रहा था कि अचानक माताजी धड़धड़ करती हुई ऊपर से नीचे उतरीं. ‘‘दिया, तुम से कितनी बार कहा है कि अपने कपड़े वाशिंग मशीन में नील के कपड़ों के साथ मत डाला करो, पर तुम बारबार यही करती हो.’’

‘‘तो मैं अपने कपड़े कैसे धोऊं?’’ उस दिन दिया के मुंह से आवाज निकल ही गई.

‘‘कैसे धोऊं, क्या मतलब? अरे, यहां क्या चूना, मिट्टी, धूल होता है जो तुम्हारे कपड़ों में लगेगा? पानी से निकाल कर सुखा दो. कितनी देर लगती है?’’

‘‘पर, मुझ से नहीं धुलते कपड़े. मुझ को कहां आते हैं कपड़े धोने?’’ दिया रोंआसी हो कर बोल उठी.

नील चुपचाप अपना बैग संभाल कर बाहर की ओर चल दिया था. शायद वह जानता था कि आज दिया की अच्छी प्रकार से खबर ली जाएगी. दिया ने 2-3 मिनट बाद कार स्टार्ट होने की आवाज भी सुनी. उसे लगा आज तो वह भी कमर कस ही लेगी. अगर ये उसे परेशान करेंगी तो उसे भी जवाब तो देना ही होगा न? आखिर कब तक वह बिना रिश्ते के इस कबाड़खाने में सड़ती रहेगी.

‘‘देखो दिया, मैं तुम्हें फिर से एक बार समझा रही हूं, तुम नील के कपड़ों के साथ अपने कपड़े मत धोया करो. क्या तुम नहीं चाहतीं कि नील सहीसलामत रहे? हर शादीशुदा औरत अपने पति की सलामती चाहती है और तुम…कितनी बार समझाया तुम्हें…’’

‘‘मुझे समझ में नहीं आता कपड़े एकसाथ मशीन में धोने में कहां से नील की सलामती खतरे में पड़ जाएगी?’’

‘कायर कहीं का,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘और कहां से है वह शादीशुदा?’ न जाने कितनी बार उस का मन होता है कि वह मांबेटे का मुंह नोच डाले. अगर अपने घर पर होती तो…बारबार ऐसे ही सवाल उस के जेहन में तैरते रहते हैं. वह अपने मनोमंथन में ही उलझी हुई थी.

‘‘तुम्हें क्या मालूम कितने खतरनाक हैं तुम्हारे स्टार्स, शादी हो गई, चलो ठीक पर अब नील को बचाना तो मेरा फर्ज है न. पंडितजी ने बताया है कि अभी कुछ समय उसे तुम से दूर रखा जाए वरना…यहां तक कि तुम्हारे साए से भी,’’ नील की मां ने हाथ नचा कर आंखें मटकाईं. इतनी बेहूदी औरत. बिलकुल छोटे स्तर के लोग जैसे बातें करते हैं, वह वैसे ही हाथ नचानचा कर बातें कर रही थी. उन के यहां नौकरों को भी जोर से बोलने की इजाजत नहीं थी. दिया का यौवन मानो उस की हंसी उड़ाने लगा था. ऐसा भी क्या कि कोई तुम पर छा जाए, तुम्हें दबा कर पीस ही डाले और तुम चुपचाप पिसते ही रहो.

‘‘तुम सुन रही हो दिया, मैं ने क्या कहा?’’ उस के कानों में मानो किसी ने पिघला सीसा उड़ेल दिया था.

‘‘जी, सुन रही हूं. आप केवल अपने बेटे को प्रोटैक्ट करना चाहती हैं. मुझे बताइए, मेरा क्या कुसूर है इस में? आप ने क्यों मुझे इस बेकार के बंधन में बांधा है? मैं तो शादी करना भी नहीं चाहती थी. जबरदस्ती…’’

‘‘अरे वाह, बाद में तुम्हारी रजामंदी से शादी नहीं हुई क्या? तुम ने नील को पसंद नहीं किया था क्या? और तुम्हारी वो दादी, जो मेरे नील को देखते ही खिल गई थीं, उन की मरजी नहीं थी तुम्हारी शादी नील से करवाने की?’’

‘‘शादी करवाने की उन की इच्छा जरूर थी लेकिन आप ने मेरे साथ इतना अन्याय क्यों किया? मैं क्या कहूं आप से, आप सबकुछ जानती थीं.’’

दिया की आवाज फिर से भरभरा गई, ‘‘मेरा और नील का रिश्ता भी क्या है जो…’’ आंसू उस की आंखों से झरने लगे.

‘‘वहां पर आप ने वादा किया था कि मैं अपना जर्नलिज्म का कोर्स करूंगी लेकिन यहां पर मुझे कैद कर के रख लिया है. कहां गए आप के वादे?’’

‘‘दिया अब तो जब तक तुम्हारे स्टार्स ही तुम्हें फेवर नहीं करते तब तक तो हम सब को ही संभल कर रहना पड़ेगा,’’ नील की मां ने चर्चा की समाप्ति की घोषणा सी करते हुए कहा.

दिया का मन फिर सुलगने लगा. उसे लगा कि अभी वह सबकुछ उगल देगी परंतु तुरंत यह खयाल भी आया कि यदि वह सबकुछ साफसाफ बता देगी तब तो उस पर और भी शिकंजे कस जाएंगे. एक बार अगर इन लोगों को शक हो गया कि दिया को सबकुछ मालूम चल गया है तब तो ये धूर्त लोग कोई और रास्ता अपना लेंगे, फिर उस के हाथ में कुछ भी नहीं रह जाएगा. परिस्थितियां कैसे मनुष्य को बदल देती हैं. ऐसी लाड़ली, खिलंदड़ी सी दिया को अपना पिंजरा खोलने के लिए चाबी ढूंढ़नी थी. अब उसे यहां सालभर होने को आया था. मां, पापा, भाइयों के फोन आते तो वह ऐसी हंसहंस कर बात करती मानो कितनी प्रसन्न हो. यश सहारा ले कर चलने लगे थे. उन्होंने काम पर भी जाना शुरू कर दिया था.

दिया की समझ में नहीं आ रहा था यह गड़बड़ घोटाला. एक ओर तो उस ने नील की मां को धर्मानंदजी से यह कहते सुना था कि उन्होंने सोचा था कि नील दिया को पा कर नैंसी को भूल जाएगा दूसरी ओर वे हर पल दिया पर जासूसी करती रहती थीं. यों तो दिया का मन अब बिलकुल भी नील को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था परंतु उसे नील के माध्यम से ही अपने पिंजरे की चाबी प्राप्त करनी थी. इसलिए उस ने भावनाओं से काम न ले कर दिमाग से काम लेना शुरू कर दिया था. इस औरत को कैसे वश में करे, यह सब से कठिन समस्या थी उस के सामने. आज तो उस की जबान खुल ही गई थी. काफी सोचविचार करने के बाद उस ने अपने को संतुलित किया और फिर से चुप्पी साध ली.

‘‘नील को यूनिवर्सिटी के काम से जरमनी जाना है,’’ नील की मां ने एक दिन दिया के हाथ की गरमागरम रोटी खाते हुए कहा.

‘‘जरमनी?’’ दिया का माथा ठनका. ऐसा लगा, जरमनी का जिक्र अभी कुछ दिन पूर्व ही सुना था उस ने.

खाना खा कर नील की मां ने प्लेट सिंक में रखी और एक बार फिर बोलीं, ‘‘नील ये कपड़े रख कर गया है. तुम खाना निबटा कर मशीन लगा देना. हीट पर डाल दोगी तो जल्दी ही सूख जाएंगे. रात को ही प्रैस कर देना. सुबह 10 बजे की फ्लाइट है. घर से तो साढ़े 6 बजे ही निकल जाना पड़ेगा,’’ कहतीकहती वे रसोईघर से बाहर चली गईं. दिमाग की उड़ान के साथसाथ उस का शरीर भी मानो फटाफट चलने लगा. आज जब वह सब काम निबटा कर कमरे में आई तब दोपहर के 3 बजे थे. खिड़की पर बैठ बाहर टकटकी लगाए उसे पता ही नहीं चला कब नील की मां कमरे में आ पहुंचीं.

‘‘दिया, कपड़े हो गए?’’ उन्होंने इधरउधर देखते हुए पूछा.

‘‘हां, हो गए होंगे,’’ उस ने दीवार पर लटकी घड़ी पर दृष्टि घुमा कर देखी. 4 बज गए थे.

वह उठी और जा कर मशीन में से कपड़े ला कर हीट पर डाल दिए. अभी बाहर बारिश हो चुकी थी, इसलिए कपड़े अंदर ही डालने थे. चाय का टाइम हो चुका था. किचन में जा कर उस ने चुपचाप चाय बनाई और 2 प्यालों में छान ली. आदत के अनुसार माताजी बिस्कुट के डब्बे निकाल कर टेबल पर बैठी थीं. दिया भी आ कर टेबल पर बैठ गई. सासूमां ने बिस्कुट कुतरते हुए डब्बा उस की ओर बढ़ाया. दिया ने बिना प्रतिरोध के बिस्कुट निकाल लिया और कुतरने लगी. वह वातावरण को जाननेसमझने, उस से निकल भागने के लिए नौर्मल बने रहने का स्वांग करने लगी थी तो माताजी को यह उन की विजय का एहसास लगने लगा था. भीतर ही भीतर सोचतीं, ‘आखिर जाएगी कहां? भूख तो अच्छेअच्छों को सीधा कर देती है. फिर इस की तो बिसात क्या, सीधी हो जाएगी.’

‘‘मैं सोचती हूं दिया, तुम लंदन घूम आओ,’’ अचानक ही चाय की सिप ले कर उन्होंने दिया से कहा.

दिया का मुंह खुला का खुला रह गया. सालभर से घर के बंद पिंजरे में उस चिडि़या के पिंजरे का दरवाजा खुलने की आहट से वह चौंक पड़ी. ‘क्या हो गया इन्हें?’ उस ने सोचा. इस में भी जरूर कोई भेद ही होगा. 

– क्रमश:

भाषाई तरक्की की एक झलक

किसी दिन कोई आप से बात करते समय उत्तर प्रदेश को उत्तर प्रदेशा कह बैठे तो चौंकिएगा बिलकुल मत. जब केरल को केरला और महाराष्ट्र को हमारे अंगरेजीदां महाराष्ट्रा कह सकते हैं तो भाषाई तरक्की करतेकरते हम उन जैसों की नकल करते हुए उत्तर प्रदेश को उत्तर प्रदेशा क्यों नहीं कह सकते. फिर राजस्थान को राजस्थाना और बिहार को बिहारा कहने में भी क्या हर्ज है?

वैसे, यह कोई हंसनेहंसाने की बात नहीं है. हंसना है तो कपिल का शो देखिए और द्विअर्थी संवादों पर जम कर हंसिए. यह भी तो भाषाई तरक्की है कि एक शब्द के अनेक अर्थ निकालो. अपने पर बन आए तो साफसाफ कह दो, ‘तुम ने मेरी कही बात का अर्थ गलत निकाला.’ चुनावी महासमर में नेताओं ने यही कह कर अपना पिंड छुड़ाया वरना उन का राजनीतिक पिंडदान करने को चुनाव आयोग तुला बैठा था. हिंदी के कवियों में केशवदास को ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा जाता है क्योंकि उन की क्लिष्ट भाषा को समझने के लिए पांडित्य की आवश्यकता होती है और उन की एकएक पंक्ति के 5-5 अर्थ होते हैं. जो समझ में न आए वही सब से बड़ा विद्वान.

न समझ में आना भाषा की तुरुप चाल होती है. फिर क्यों न एक किस्सागोई हो जाए. नौजवानी के दिनों में, गरीबों की तरह हम भी पढ़ाई करने के बाद बेरोजगार हो गए. घर वालों ने साफसाफ कह दिया- अपने पैरों पर खड़े हो जाओ, जैसे अभी तक हम उन के पैरों पर खड़े थे. खैर, अखबारों में खाली जगह देखते और साक्षात्कार देने के लिए निरीह अंगद की तरह रावण के दरबार में उपस्थित हो जाते. कभी एक मुंह वाला रावण मिलता तो कभी 3 और 4 मुंह वाला. लेकिन एक बार दशानन से सामना हो गया. एक अस्पताल में एक लिपिक (क्लर्क) की जगह खाली थी. हम ने सोचा, इस के लिए कौन अप्लाई करेगा, चलो कोशिश करते हैं. साक्षात्कार वाले दिन देखा, 150 बंदों की भीड़ थी. साक्षात्कारकक्ष में बेरोजगार प्रवेश करने के बाद फटाफट ऐसे बाहर आ रहे थे जैसे धक्के मार कर किसी चोर को बाहर निकाला जाता है.

उम्मीद जगी कि अपने बाहर निकाले जाने का नंबर भी जल्दी ही आने वाला है. लगभग 4 घंटे के इंतजार के बाद अपना नंबर आ ही गया. पता नहीं कैसे दशानन में से एक सिर ने दया खा कर कहा, ‘प्लीज, बी सीटेड.’ लेकिन हम को ऐसा आभास हुआ जैसे कह रहा हो, ‘गैट आउट, तुम्हारी यहां आने की जुर्रत कैसे हुई?’

हम सांस रोक कर कुरसी पर बैठ गए. एक दूसरे सिर ने कहा, ‘अच्छा, तो जनाब अंगरेजी साहित्य में परास्नातक हैं.’ उन 10 सिरों में से 2-3 सिर ऐसे थे जिन्हें अंगरेजी साहित्य का ज्ञान था. उन सिरों ने बाकी सिरों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हम से अंगरेजी साहित्य पर प्रश्न करने शुरू कर दिए. आधे घंटे तक हम उन के प्रश्नों के उत्तर देते रहे. इस आधे घंटे में उन्होंने चौसर से ले कर विक्रम सेठ तक पर प्रश्न पूछ डाले, जैसे हम क्लर्क के नहीं अंगरेजी के प्रवक्ता पद पर नियुक्त किए जाने वाले हों.

तब हम ने भी सोच लिया कि तुरुप चाल का समय आ गया है. बहुत देर हो गई इन को हमें सतातेसताते. अब मामला आरपार का होगा. हम ने अंगरेजी के जनसाधारण से बाहर के एक क्लिष्ट शब्द को चुना और विषय को घुमाफिरा कर कहा, ‘‘डा. जौनसन वाज द फर्स्ट इंगलिश लेक्जिकोग्राफर.’’ हम ने देखा कि हमारी लेक्जिकोग्राफर की तुरुप चाल में 2-3 सिर ही नहीं, पूरे दशानन फंस गए. साक्षात्कार इसी बिंदु पर समाप्त हो गया और साथ ही हमारा सैलेक्शन भी तुरंत हो गया. उन में से किसी को लेक्जिकोग्राफर का अर्थ नहीं पता था और अपनी हीनता को छिपाने के लिए उन्होंने हमें अंगरेजी का प्रकांड विद्वान समझ लिया.

माफ करना, भाषा की तुरुप चाल समझाने के लिए यह किस्सागोई करनी पड़ी. हिंदुस्तान के बेरोजगारो, यह तुरुप चाल तुम्हारे काम आ जाए तो यूज कर लेना. इस की कोई फीस मुझे भेजने की आवश्यकता महसूस मत करना, बेरोजगारी के दर्द के हम सहोदर जो ठहरे. इस किस्सागोई के बाद हम फिर अपने विषय पर आते हैं. जब से रामदेव ने योग सिखाना शुरू किया. योग की तरक्की में चारचांद लग गए. रामदेव की तरक्की में कितने चांद लगे, कह नहीं सकते. लेकिन उन की कृपा से योग बढि़या बिजनैस बन गया और ऐक्सपोर्ट हो कर अमेरिका पहुंच गया. लेकिन अमेरिका ने बड़ी होशियारी से योग का जैसे पेटैंट करा लिया हो और उसे योगा बना कर हमारे ही सिर पर दे मारा.

अमेरिकन मेड योगा इतना लोकप्रिय हुआ कि अब तो मीडिया वाले, बहुत से पत्रकार बंधु योग को योगा ही लिखतेबोलते हैं, आमजन की क्या कहें? जनाब अंगरेजी की श्रेष्ठता अपने देश में ऐसे ही हावी है जैसे लोकल भाषाओं के स्कूलों पर इंगलिश मीडियम के स्कूल. इस के लिए एक दिलचस्प बात भी सुन लीजिए. यह वाकेआ हिंदुस्तान की 1857 की क्रांति के समय का है जिस का वर्णन जौन पैम्बले ने अपनी पुस्तक ‘द राज द इंडियन म्यूटिनी ऐंड द किंगडम औफ अवध’ में किया है. 1857 की क्रांति के बाद जब अंगरेजों ने कानपुर को जीत लिया और वे लखनऊ को जीतने की सोचने लगे तब अंगरेजों ने कहा, ‘लक नाऊ’. देखिए जनाब तब से आज तक हम लखनऊ की गलत स्पैलिंग (लकनाऊ) ही लिखते आ रहे हैं क्योंकि लखनऊ की यह स्पैलिंग हमें अंगरेजों ने दी. हमारी क्या हिम्मत कि हम उसे सही कर के (लखनऊ) लिखें.

प्रसिद्ध व्यंग्यकार रविंद्रनाथ त्यागी ने इसी संदर्भ में अपने व्यंग्य ‘पहाड़ों पर’ में एक स्थान पर लिखा है-‘बद्रीविशाल जाने के दो द्वार हैं. एक, हरिद्वार और दूसरा, कोटद्वार. कोटद्वार को सदा से शुद्ध हिंदी के प्रेमी रेलवे विभाग ने स्टेशन पर कोटद्वारा लिखा है, जिस से उस की शक्ति भावना प्रकट होती है.’ असम को आसाम और उड़ीसा को ओडिशा लिखा जाना एक सामान्य प्रक्रिया हो गई है. हिंदी के अनेक दिग्गज पत्रपत्रिकाएं भी आंखें बंद कर के इसी परिपाटी पर चल रही हैं. एक बार प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह ने अपने एक लेख में जिक्र किया था कि उन की किसी निकट संबंधी छोटी लड़की ने उन से अरुणाचल प्रदेश की राजधानी पूछी. तत्काल उन के ध्यान में राजधानी का नाम याद नहीं आया. तब उन्होंने किसी की हैल्प ली. उन्हें बताया गया कि अरुणाचल प्रदेश की राजधानी आईटा नगर है. बाद में उन्होंने उस अंगरेजीदां के उच्चारण की गलती महसूस की जो ईटानगर को आईटानगर कह गया.

अच्छा हुआ जो पश्चिम बंगाल सरकार ने कलकत्ता का नाम बदल कर कोलकाता कर दिया वरना अंगरेजीदां तो कलकत्ता को भी कैलकटा बोलने लगे थे जिसे सुनते ही ऐसा आभास होता था जैसे किसी का गला काट दिया हो.आईजोल को आईझाल और मछलीपटनम को मचिलीपटनम लिखनाबोलना सामान्य बात होती जा रही है. इलाहाबाद को अलाहाबाद मेरे परदादाओं के जमाने से बोला जा रहा है. कठमुल्ला अब इसे अल्लाहाबाद भी कहने लगे हैं. अंगरेजी में चंडीगढ़ और चांदीगढ़ में तो कोई फर्क ही नहीं है. आप इस भ्रम में तो बिलकुल भी मत आइए कि राबर्ट्स गंज, पोर्ट केनिंग, पोर्ट ब्लेयर, विलियम नगर, नेपियर रोड, डाल्टेन गंज, नागालैंड, वास्कोडिगामा जैसे स्थान यूरोप में हैं. ये सब भारत में ही हैं और इन के जैसे सैकड़ों स्थान और भी हैं जिन का वर्णन कर के मैं आप को भारत के इंग्लिश्तान होने का आभास नहीं देना चाहता. वैसे नोएडा के बारे में आप की क्या राय है? क्या आप इस का पूरा नाम अपने बच्चे को बता सकते हैं?

इस में निराश होने की बिलकुल आवश्यकता नहीं. हमारे देश में 1652 भाषाएं बोली जाती हैं जिन में 63 विदेशी हैं. इतनी भाषाएं किसी एक देश में बोली जाती हों, ऐसा कोई देश इस धरती पर तो है नहीं, संपूर्ण ब्रह्मांड की मैं बात करता नहीं. फिर हमारे देश में भाषाई तरक्की न होगी तो क्या अमेरिका और फ्रांस में होगी. हमारे संविधान ने भी हमें बताया है, ‘इंडिया दैट इज भारत.’ याद रखिए, हिंदी हमारी राजकीय भाषा है जो कुछ शर्तों के कारण कभी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन सकती. पता नहीं, किस की याद में हम 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाते हैं. यह हिंदी की जन्मतिथि है कि मरणतिथि.

यह भी खूब रही

मेरी सहेली को स्वैटर बुनने का बहुत शौक है. उस के हाथों में अकसर ऊन और सलाइयां रहती हैं. एक दिन हम दोनों लोकल बस में आगे की सीट पर बैठी थीं और वह आदत के अनुसार स्वैटर बुन रही थी व बातें भी कर रही थी. तभी राउंडअबाउट पर ज्योंही बस मुड़ी, जोर से झटका लगा और ऊन के गोले लुढ़कते हुए बस के दरवाजे से बाहर गिर गए. बुनने वाला स्वैटर हाथ में और ऊन के गोले सड़क पर घूम रहे थे. सवारियों का हंसहंस कर बुरा हाल था. ड्राइवर ने यह नजारा देखा तो मुसकराते हुए बस रोक दी और हम दोनों ने फटाफट जितना भी हो सका ऊन समेट लिया. उस दिन के बाद मेरी सहेली स्वैटर तो बुनती है मगर ध्यान से.

विमला गुगलानी, चंडीगढ़ (यू.टी.)

*

मेरे पति एक दिन औफिस से लौटते समय अपने सहयोगी को साथ ले कर आए जो कुछ दिन पहले ही ट्रांसफर हो कर शहर में आए थे. उन से इन्होंने हम मांबेटी का परिचय इस तरह से दिया कि यह मेरी श्रीमती हैं और यह मेरी बिटिया है जो 11वीं कक्षा में पढ़ रही है. मैं सब के लिए रात के भोजन की तैयारी करने लगी. जब खाना तैयार हो गया तो बेटी मेरी मदद के लिए रसोई में आ गई और खाना परोसने लगी. इन्हें कुछ भी चाहिए होता तो मुझे आवाज लगाते-दीपा, चावल लाना, दीपा, रोटियां लाना, दीपा, स्वीट डिश लाना, मेरी बेटी तुरंत टेबल पर पहुंचा देती. वे सहयोगी जब भोजन कर चुके तो मैं ने भी उन के साथ बैठ कर बातचीत करनी शुरू कर दी व बिटिया वापस अपने कमरे में चली गई. जब वे चलने लगे तो मैं ने उन्हें नमस्कार किया तो वे मुझे नमस्कार कर जोरजोर से कहने लगे, ‘अच्छा दीपा, बायबाय, बाय दीपा.’ मेरे पति भौचक्के से उन का मुंह देखने लगे. जब वे चले गए तो मैं ने पति को समझाया कि तुम्हारे बारबार दीपादीपा करने व बेटी के सामान पहुंचाने से वे उसी का नाम दीपा समझे और जाते समय उसी को बाय कर रहे थे. फिर तो हम दोनों उन की इस हरकत पर खूब हंसे.  

दीपा, भोपाल (म.प्र.)

*

दिल्ली में चुनाव होने वाले थे. सभी कार्यकर्ता घरघर जा कर अपनीअपनी पार्टी का प्रचार कर रहे थे. बीएसपी की एक महिला कार्यकर्त्री मेरे भांजे सुमित के घर आई और कहा कि हाथी पर मुहर लगाना. सुमित ने कहा कि हम तो आप पर मुहर लगाएंगे. कार्यकर्त्री ने सोचा कि यह अशिष्ट व्यवहार कर रहा है जबकि सुमित कहना चाह रहा था-आम आदमी पार्टी (आप) को वोट दूंगा.

कांता रानी, फरीदाबाद (हरियाणा)

दिन दहाड़े

हमारे एक पड़ोसी भैया को बड़ा क्वार्टर मिला था. क्वार्टर की साफसफाई आदि करवाने के बाद वे वहां शिफ्ट करने वाले थे. एक सुबह वे पत्नी से यह कह कर गए कि औफिस जा रहा हूं, वहीं से व्यवस्था कर के ट्रक भेज दूंगा. 2 घंटे बाद उन के दरवाजे पर एक ट्रक आ कर रुका. उस में से उतरे आदमी ने उन की पत्नी के पास जा कर कहा, ‘‘साहब ने ट्रक भेजा है तथा सामान चढ़ाने को कहा है.’’ भाभी बेचारी ने फर्नीचर, टीवी, कूलर, कंप्यूटर आदि सब चढ़वा दिया और ट्रक वाला ले कर चला गया. बाद में भैया आए और बोले, ‘‘ट्रक की व्यवस्था हो गई है, आता ही होगा.’’ जब भाभीजी ने कहा कि वह तो सामान ले गया है. भैया के हाथपांव फूल गए कि सामान कौन ले गया. वह ट्रक वाल दिनदहाड़े उन के घर का सामान ले कर रफूचक्कर हो गया था.

पूनम यादव, दुर्ग (छग)

*

हम लोग 2 साल पहले हरिद्वार गए थे. वहां 3 दिन रहने के बाद हमारी दिल्ली के लिए सुबह 8 बजे की ट्रेन से टिकटें रिजर्व थीं. जैसे ही ट्रेन आई और मेरे पतिदेव ऊपर चढ़े और मैं ट्रेन में चढ़ने वाली थी कि अचानक कई स्त्रियां ट्रेन से नीचे उतरने लगीं और 2-3 मेरे पीछे खड़ी हो गईं. मेरे दोनों हाथों में सामान था. वे स्त्रियां मुझे पीछे से जल्दी चढ़ने के लिए धक्का दे रही थीं. जब मैं ऊपर चढ़ी तो देखा मेरे हाथ से 2 तोले का कंगन काट लिया गया था. तब तक टे्रन भी चलने लगी. हम कुछ नहीं कर सकते थे. वे सब स्त्रियां नदारद थीं.

शोभा आहुजा

*

बात पुरानी है. मैं और मेरी पड़ोसिन दोनों ही जौब करते थे. एकदूसरे को जानते तो थे पर मिलनाजुलना ज्यादा नहीं था. लेकिन उन की नौकरानी हमारे घर रोज ही आ जाती थी, कभी 2 आलू मांगने, कभी ब्रैड के 4 स्लाइस, तो कभी 2 अंडे. मुझे बहुत खीझ होती थी लेकिन पड़ोस का मामला था सो मैं मना नहीं कर पाती थी. एक दिन सुबह जब वह नौकरानी हमारे घर कुछ मांगने आई तो पड़ोसिन ने उसे देख लिया और वहीं से उसे आवाज दे कर कहा कि तुम वहां क्या कर रही हो? मैं ने कहा कि यह तो रोज ही कुछ न कुछ मांगने यहां आती है. यह सुन कर वे बहुत शर्मिंदा हुईं और कहने लगीं कि मैं तो रोज ही इसे पैसे देती हूं सामान लाने के लिए. तब मेरी समझ में आया कि पैसे वह अपनी जेब में रख कर, सामान हमारे घर से ले जाती थी.

कीर्ति सक्सेना, बेंगलुरु (कर्नाटक)

प्यार से तुम ने बुलाया नहीं

वफा उस की कागजी थी शायद

जरा सी आंच न सह सकी शायद

उस के आने का करते रहे इंतजार

कोई गलतफहमी जरूर थी शायद

ख्वाब न पूरे हो सके अपने

हमारी कोशिशों में थी कमी शायद

सांस बेशक उस की चलती रहती है

जीने की तमन्ना मगर खत्म हो चुकी शायद

तुम से मिलने हम आते जरूर लेकिन

प्यार से तुम ने बुलाया नहीं कभी शायद.

      – हरीश कुमार ‘अमित’

 

बच्चों के मुख से

बात उन दिनों की है जब मेरा छोटा बेटा विशाल पहली कक्षा में पढ़ता था. छमाही परीक्षा के बाद उसे रिपोर्टकार्ड मिला. रिपोर्टकार्ड पा कर वह बहुत उत्साहित था. घर में आने वाले हर व्यक्ति को दौड़दौड़ कर अपना रिपोर्टकार्ड दिखाने लगा. उसे गणित में सिर्फ 5 अंक मिले थे. मैं ने उसे समझाया कि बेटा, गणित में बहुत कम अंक मिले हैं, इसलिए तुम्हारा रिपोर्टकार्ड सब को दिखाने योग्य नहीं है. उस ने तुरंत उत्तर दिया कि अम्मा, 5 अंक छोटे बच्चे के लिए बहुत होते हैं. उस वक्त मेरी सहेली इंदू पास में बैठी हुई थी. उस का हंसी के मारे बुरा हाल हो गया.

सरला राव, जमशेदपुर (झारखंड)

*

मेरी बहन का 5 वर्षीय पोता सुमंत बहुत नटखट व बातूनी है. एक दिन वह मुझ से कहने लगा कि मुझे मोटरसाइकिल चलानी आती है पर कोई मुझे चलाने नहीं देता. मैं ने उस से कहा कि अभी तुम छोटे हो, जब बड़े हो जाओगे, कालेज में पढ़ने जाओगे तब मोटरसाइकिल चलाना. वह तपाक से बोला, ‘‘बड़े हो कर तो मैं पापा बनूंगा, फिर चाचा बनूंगा और फिर दादा.’’ उस के इस जवाब पर हम सब खूब हंसे.

नीलिमा राणा, जबलपुर (म.प्र.)

*

बात उन दिनों की है जब मेरी नातिन के.जी. में पढ़ती थी. एक दिन वह स्कूल से घर आई और कहने लगी, ‘मम्मी, मम्मी, मैडम रोजरोज छोटी एबीसी सिखाती हैं. पता नहीं, छोटा वन, टू कब सिखाएंगी.’ उस की यह बात सुन कर हम हंसे बिना न रह सके.

मधु वर्मा, यमुना नगर (हरियाणा)

*
मेरा क्रिशु तब 4 साल का था. उसे सेवदालमोठ की भुजिया बहुत पसंद थी. मना करने पर भी वह खा लेता था. मैं कितना भी गुस्सा होती, वह मानता ही नहीं था. 
एक दिन मैं बाजार गई. वहां से आने पर मैं ने देखा, क्रिशु लेट कर भुजिया खा रहा है. मैं गुस्सा करने लगी. वह झट से उठ कर खड़ा हो गया और रोतेरोते बोला, ‘मां, मैं ने भुजिया नहीं खाई, भुजिया तो सांप खा रहा था, क्योंकि तुम्हीं बोलती हो न कि लेट कर खाने से खाना सांप के पेट में जाता है.’ उस की भोली मासूम बातें सुन कर हम सब काफी देर तक हंसते रहे.

सुधा वर्मा, धनबाद (झारखंड)

आरपार की बात करो

जब कभी इश्क
प्यार की बात करो
न कभी
जीत हार की बात करो

दो घड़ी ये
मिलन की हमारे लिए
कीमती हैं
दीदार की बात करो

डर गए तो
गए इस जमाने से हम
अब चलो
आरपार की बात करो

संग मिल के सनम
खाई थी जो कसम
वक्त है इकरार की
बात करो.

– विनीत

गुमनामी की मांद में बाल सितारे

निर्देशक कौशिक गांगुली सत्यजीत रे की वर्ष 1955 की रिलीज मशहूर फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ में अपू का किरदार निभाने वाले बाल कलाकार सुबीर बनर्जी के जीवन पर फिल्म बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं. दरअसल, सुबीर आज 69 साल के हैं और वे सिनेमा की दुनिया से पूरी तरह से कटे हैं. फिल्म में काम करने के बाद वे सरकारी दफ्तर में कर्मचारी बन गए और बाद में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. उन्हें जीवनभर अपू नाम से बुलाया जाता रहा है. पाथेर पांचाली उन की एकमात्र फिल्म थी. आश्चर्य इस बात का है कि उन्हें इस फिल्म के बारे में कुछ भी याद नहीं है.

हाल ही टीवी और फिल्मों में कई बाल कलाकारों ने दर्शकों का ध्यान खींचा है. फिल्म ‘भूतनाथ’ में अमिताभ बच्चन के साथ काम करने वाला बाल सितारा और धारावाहिक ‘उड़ान’ की नन्ही बाल कलाकार तो स्टार रुतबा भी हासिल कर चुके हैं. पर क्या आगे चल कर ये कलाकार इतने ही चर्चित रहेंगे या फिर ये भी सुबीर कुमार की तरह बाकी जीवन अज्ञातवास में गुजारेंगे? हिंदी सिनेमा में कई ऐसे बाल कलाकार आए जिन्होंने अपनी नन्ही सी उम्र में अभिनय का लोहा मनवाया. इन की अदाकारी कई बार बड़ेबड़े सितारों पर भारी पड़ी तो कई बार इन्होंने मुख्य भूमिकाओं में अपने अभिनय से सब को चौंकाया लेकिन बाद में गायब से हो गए.

मदर इंडिया के बिरजू के बारे में तो कहा जाता है कि मदर इंडिया के बाद उन्हें हौलीवुड की फिल्मों में काम मिल गया. लेकिन हौलीवुड की किन फिल्मों में काम किया और उन का कैरियरग्राफ कैसा रहा, कोई नहीं जानता. फिल्म ‘अग्निपथ’ में आंखों में बूट पौलिश को काजल की तरह लगा कर छोटे विजय का किरदार निभाने वाले बाल कलाकार का गुस्सा ऐंग्री यंगमैन अमिताभ बच्चन से कम नहीं था. याद होगा, इसी कलाकार ने आर के नारायण के उपन्यास पर आधारित धारावाहिक ‘मालगुड़ी डेज’ में स्वामी के किरदार में कितना मार्मिक अभिनय किया था.  सरकार ने बच्चों के लिए मनोरंजक फिल्म बनाने वाली एक संस्था बनाई है पर अब तक न तो बाल कलाकारों का कुछ हुआ है न ही बाल फिल्मों का. हाल ही में दिल्ली में बाल फिल्म फैस्टिवल का आयोजन हुआ. इस दौरान बाल कलाकारों की गायब होती जमात पर कोई बात नहीं हुई.

मास्टर सत्यजीत को दर्शकों ने मनोज कुमार के साथ फिल्म ‘शोर’ में देखा था. उस फिल्म में इस बाल कलाकार ने हैंडीकैप्ड के किरदार को बड़ी सहजता से निभाया था. कुछ और फिल्मों में दिखने के बाद उन्हें फिर नहीं देखा गया. मास्टर राजू भी अपने जमाने के चर्चित बाल कलाकार थे. उन्होंने गुलजार की फिल्म ‘परिचय’ के अलावा राजेश खन्ना के साथ ‘बावर्ची’, ‘अमर प्रेम’ और ‘दाग’ जैसी फिल्मों में काम किया. जावेद अख्तर की पूर्व पत्नी हनी ईरानी भी कभी बतौर बाल कलाकार फिल्मों में काम करती थीं पर बाद में उन्होंने स्क्रिप्ट राइटिंग में कैरियर आजमाया और खासा नाम कमाया. फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ में बहुत सारे बाल कलाकारों ने काम किया. उन्हीं में से एक अहमद खान भी थे. अहमद ने बड़े हो कर अभिनय के बजाय निर्देशन और कोरियोग्राफी में हाथ आजमाया. वे काफी सफल भी रहे. लता मंगेशकर भी चाइल्ड आर्टिस्ट रहीं. सत्यजीत पुरी ने ‘मेरे लाल’, ‘हरे रामा हरे कृष्णा’, ‘अनुराग’ जैसी फिल्मों में अभिनय किया था. बाद में मौका न मिलने पर वे लेखन के क्षेत्र से जुड़ गए. अभिनेत्री और कमल हासन की पूर्व पत्नी सारिका भी बतौर बाल कलाकार हिंदी फिल्मों की पसंद बनी रहीं. उन्होंने ‘आशीर्वाद’, ‘सत्यकाम’, ‘छोटी बहू’ और ‘हमराज’ में बेहतरीन काम किया. बाद में अभिनेत्री के तौर पर उन्हें आंशिक सफलता हासिल हुई. परजान दस्तूर भी एक ऐसा ही नाम है जो बाल कलाकार के तौर पर सब का चहेता रहा पर बतौर अभिनेता गुमनाम ही रहा. सिनेप्रेमी परजान को ‘कुछकुछ होता है’, ‘परजानिया’ और ‘मोहब्बतें’ जैसी फिल्मों में देख चुके हैं.

कुछ बाल कलाकारों ने फिल्मों में लंबी पारी भी खेली. मसलन, सचिन पिलगांवकर. फिल्म ‘नदिया के पार’ में मुख्य भूमिका निभा कर रातोंरात स्टार हुए. सचिन बतौर बाल कलाकार भी उतने ही सफल हुए जितने मुख्य अभिनेता के तौर पर. बतौर बाल कलाकार, उन्होंने ‘बालिका वधू’, ‘मेला’, ‘ब्रह्मचारी’ और ‘ज्वैल थीफ’ जैसी हिट फिल्मों में काम किया. सचिन की तरह अरुणा ईरानी का कैरियर भी काफी सफल रहा. फिल्म ‘कोई मिल गया’ और ‘जागो’ समेत कई सीरियलों में बाल कलाकार के रूप में काम कर चुकी हंसिका मोटवानी आज दक्षिण भारतीय फिल्मों में स्टार अभिनेत्री हैं. महेश भट्ट की फिल्मों में अहम किरदार निभाने वाले कुणाल खेमू को लोगों ने ‘जख्म’ फिल्म में अजय देवगन के बचपन का किरदार संजीदगी से निभाते देखा. आज वे भी सफल अभिनेता हैं.

मधुबाला और मीना कुमारी ने बाल कलाकार के रूप में काम किया था. श्रीदेवी इस मामले में सब से ज्यादा सफल रहीं. बाल कलाकार के तौर पर मात्र 4 साल की उम्र में काम करने के बाद बतौर अभिनेत्री आज भी सफल पारी खेल रही हैं. इसी क्रम में पद्मिनी कोल्हापुरे भी हैं. गौरतलब है कि रितिक रोशन, नीतू सिंह, आशा पारेख, बौबी देओल, आमिर खान, आलिया भट्ट, अभिषेक बच्चन, ऋषि कपूर जैसे कई बड़े नाम बाल कलाकार के तौर पर नजर आ चुके हैं और आज इन की गिनती बड़े स्टार्स में होती है. इस का एक पहलू कुछ लोग यह भी मानते हैं कि ज्यादातर मामलों में उन्हीं बाल कलाकारों को बड़े होने पर मौका मिला जो फिल्मी परिवारों से संबंध रखते थे. जिन के परिवार के सदस्य इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं थे वे बाल कलाकार सुपरहिट होने के बावजूद कहीं गुमनामी के अंधेरे में खो गए.

फिल्म ‘ब्लैक’ में आयशा कपूर और फिल्म ‘तारे जमीं पर’ में दर्शील सफारी जैसे बाल कलाकारों का अभिनय कोई नहीं भूल सकता. इसी तरह फिल्म ‘भूतनाथ’ में बिग बी के साथ काम करने वाले बंकू यानी अमन सिद्दीकी का आत्मविश्वास देखते ही बनता है. ‘आई एम कलाम’, ‘नन्हे जैसलमेर’, ‘चिल्लर पार्टी’ में बाल कलाकारों की लंबी फौज अभिनय प्रतिभा के साथ लबरेज दिख रही है. उन का आगे चल कर कैसा कैरियर होगा, यह वक्त ही बताएगा. दरअसल सही मार्गदर्शन न मिलने के चलते वे सही दिशा नहीं पकड़ पाते. इस के अलावा कुछ बाल कलाकारों को यह गुमान हो जाता है कि वे स्टार हो गए हैं. कम उम्र का यह गुमान उन्हें गुमनाम कर देता है. इस के अलावा कई बाल कलाकार फिल्मों के ढांचे में बहुत दिनों तक खुद को फिट नहीं रख पाते. लिहाजा, वे बहुत जल्दी भुला दिए जाते हैं, जैसा फिल्म ‘स्लमडौग मिलेनियर’ के बाल कलाकारों के साथ हुआ है. वरिष्ठ फिल्म समीक्षक जय प्रकाश चौकसे के मुताबिक, ऐक्ंिटग बाल कलाकार की शिक्षा में बाधा बनती है. इस के विशिष्ट होने के भाव के कारण उन का बचपन अपनी स्वाभाविकता और मासूमियत खो देता है. ख्याति जैसे बेलगाम घोड़े की सवारी में गिर जाना स्वाभाविक है. शायद, इसी वजह से वह अपने मूल अभिनय से कट कर खास से आम बन जाता है.

बाल कलाकार तब और अब

श्वेता प्रसाद : विशाल भारद्वाज की फिल्म मकड़ी के लिए बतौर बाल कलाकार राष्ट्रीय पुरस्कार जीतने वाली लड़की श्वेता प्रसाद वेश्यावृत्ति के आरोप में गिरफ्तार की गई थी. हालांकि बाद में उसे क्लीनचिट मिल गई.

बेबी गुड्डू उर्फ शाहिदा बेगम : 80 के दशक में ‘आखिर क्यों’, ‘समंदर’ और ‘घरपरिवार’ जैसी फिल्मों में नजर आई. अब दुने की एक एअरलाइंस कंपनी में काम करती हैं.

मास्टर मंजूनाथ : ‘मालगुड़ी डेज’ धारावाहिक और फिल्म ‘अग्निपथ’ में काम किया. अब एक सौफ्टवेयर कंपनी में सेवारत हैं.

शफीक सईद : मीरा नायर की फिल्म ‘सलाम बौंबे’ में राष्ट्रीय पुरस्कार जीता. बाद में जूनियर आर्टिस्ट का काम किया. इन दिनों बेंगलुरु में रिकशा चलाते हैं.

मास्टर अलंकार : ‘शोले’, ‘डौन’, ‘ड्रीम गर्ल’ जैसी कई सुपरहिट फिल्मों में काम किया. इन का यूएस में बिजनैस है.

परजान दस्तूर : फिल्म ‘कुछकुछ होता है’ के क्यूट सरदार और फिल्म ‘परजानिया’ में गंभीर भूमिका करने के बाद इन दिनों अभिनय छोड़ कर पढ़ाई में व्यस्त हैं.

अविनाश मुखर्जी : धारावाहिक ‘बालिका वधू’ से मिली पहचान. इन दिनों घर पर पढ़ाई कर रहे हैं.

सत्यजीत पुरी : बतौर बाल कलाकार फिल्म ‘मेरे लाल’, ‘हरि दर्शन’, ‘बिदाई’ के बाद युवावय में ‘अर्जुन’, ‘शोला और शबनम’ में काम के बावजूद नहीं मिली पहचान. इन दिनों निर्देशक बनने के लिए संघर्षरत.

मास्टर बिट्टू उर्फ विशाल देसाई : फिल्म ‘चुपकेचुपके’, ‘मिस्टर नटवरलाल’, ‘याराना’ में काम किया. निर्देशक बनने के लिए संघर्षरत.

सना सईद : फिल्म ‘कुछकुछ होता है’, ‘हर दिल जो प्यार करेगा’ और ‘बादल’ में काम किया. पिछले दिनों फिल्म ‘स्टूडेंट औफ द ईअर’ में भी काम किया. फिलहाल कोई काम नहीं है.

बेबी फरीदा : 60 के दशक में फिल्म ‘दोस्ती’, ‘राम और श्याम’, ‘जबजब फूल खिले’ और ‘काबुलीवाला’ में काम किया. कहते हैं उन्हें फिल्म ‘बौबी’ के लिए लीड रोल मिला था पर इनकार कर दिया. इन दिनों टीवी पर दादी के किरदार निभा रही हैं.

बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट, कौमेडी शो छोटे मियां से घरघर पौपुलर हुए मोहित बघेल भी टीवी से फिल्मों में आए. सलमान खान अभिनीत फिल्म ‘रेडी’ में अमर सिंह चौधरी के किरदार ने मोहित को सलमान का चहेता बना दिया. नतीजतन, मोहित उन के साथ फिल्म ‘जय हो’ में नजर आए. साथ ही जल्द ही ‘नो एंट्री’ के सीक्वल ‘नो एंट्री में एंट्री’ में भी वे कौमेडी करते नजर आएंगे. बाल कलाकारों के अचानक लाइमलाइट में आने और फिर गुमनाम हो जाने के सवाल पर मोहित का नजरिया कुछ और है. उन के मुताबिक, एक चाइल्ड आर्टिस्ट को अपनी कामयाबी को स्थिर रखना नहीं आता. ज्यादातर बाल कलाकार सफलता के नशे में सवार हो कर यह भूल जाते हैं कि वे बड़े भी हो रहे हैं और वयस्क होते ही बाल कलाकार की छवि से बाहर आ कर अभिनय करना होगा. यही वजह है कि जैसेजैसे वे बड़े होते हैं, लोकप्रियता से दूर होने लगते हैं. इस मामले में वे खुद सबक लेते हुए कहते हैं कि बाल कलाकार हमेशा बच्चा बन कर नहीं रह सकता. मैं भी इसीलिए फिल्म ‘युवा’ से अपनी बाल कलाकार छवि से मुक्त हो कर मुख्य अभिनेता बनने के सफर पर निकल चुका हूं. उम्मीद है उन्हें बतौर बाल कलाकार ही नहीं, बल्कि वयस्क अभिनेता के तौर पर भी कामयाबी व पहचान मिलेगी.

मजबूती के बाद शेयर बाजार में सुनामी

शेयर बाजार ने नए वर्ष 2015 का स्वागत मजबूती के साथ किया. बीते दिसंबर में विनिर्माण क्षेत्र का आंकड़ा सकारात्मक रहने से बाजार ने उत्साहजनक जवाब दिया और नए साल के दूसरे कारोबारी दिवस को बौंबे स्टौक एक्सचेंज यानी बीएसई का सूचकांक 4 सप्ताह के शीर्ष तक पहुंच गया. निरंतर नई ऊंचाई को छूते सूचकांक ने वर्ष 2014 के आखिर में 2009 के बाद पहली बार सर्वाधिक सालाना उपलब्धि दर्ज की. 5 साल में यह स्तर हासिल करने से निवेशकों का मनोबल बढ़ा है. सरकार भी विदेशी निवेश का प्रवाह बढ़ाने के लिए कदम उठा रही है.

नए साल की शुरुआती बढ़त के बाद पहले सप्ताह में ही सूचकांक को हलका झटका लगा और दूसरे दिन तो बाजार में सुनामी आ गई, सूचकांक 855 अंक ढह गया. 5 साल में 1 दिन की इस सब से बड़ी गिरावट के कारण निवेशकों के 2.75 लाख करोड़ रुपए डूब गए. नैशनल स्टौक एक्सचेंज यानी निफ्टी भी 252 अंक गिर गया. कच्चे तेल के दाम विश्व बाजार में 50 डौलर प्रति बैरल से नीचे आने को इस गिरावट की बड़ी वजह माना जा रहा है. शेयर बाजार में गिरावट का एक कारण यूनान का आंतरिक संकट भी बताया जा रहा है जिस के चलते यूरो के मुकाबले डौलर लगातार मजबूत हो रहा है. यूरो इस दौर में 9 साल के निचले स्तर पर है. विश्लेषक यूनान के संकट को आंतरिक राजनीतिक संकट मानते हैं जो जल्द ही हल हो जाएगा. उन्हें लगता है कि यह सब क्षणिक स्थिति है और निवेश के तेज होने व उपभोक्ताओं का खर्च बढ़ने से कंपनियों को फायदा होगा और इस आर्थिक साल के अंत तक बाजार 33 हजार अंक को पार कर जाएगा.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें