अब तक की कथा :

मानसिक तनाव, शारीरिक थकान तथा अंधकारमय भविष्य की कल्पना ने दिया की सोचनेसमझने की शक्ति कमजोर कर दी थी. घुटन के अतिरिक्त उस के पास अपना कहने के लिए कोई नहीं था. सास के साथ मंदिर जाने पर वहां उस को एक साजिश का सुराग मिला. वह अपने साथ घटित होने वाले हादसों के रहस्य को समझने की अनथक चेष्टा करने लगी.

अब आगे…

यह वही नील था जो दिया डार्लिंग और दिया हनी जैसे शब्दों से दिया को पुकारता था. उस के मस्तिष्क ने मानो कुछ भी सोचने से इनकार कर दिया और अपने सारे शरीर को रजाई में बंद कर लिया. यौवन की गरमाहट, उत्साह, उमंग, चाव, आशा सबकुछ ही तो ठंडेपन में तबदील होता जा रहा था. पूरे परिवार की प्यारी, लाड़ली दिया आज हजारों मील दूर सूनेपन और एकाकीपन से जूझते हुए अपने बहुमूल्य यौवन के चमकीले दिनों पर अंधेरे की स्याही बिखरते हुए पलपल देख रही है. घर से फोन आते थे, दिया बात करती पर अपनी आवाज में जरा सा भी कंपन न आने देती. वह जानती थी कि उस की परेशानी से उस के घर वालों पर क्या बीतेगी. इसीलिए वह बिना कुछ कहेसुने चुपचाप उस वातावरण में स्वयं को ढालने का प्रयास करती. मांबेटे दोनों का स्वभाव उस की समझ से परे था.

नील लगभग सवेरे 8 बजे निकल जाता और रात को 8 बजे आता. एक अजीब प्रकार का रहस्य सा पूरे वातावरण में छाया रहता. कभीकभी रेशमी श्वेत वस्त्रों से सज्जित एक लंबे से महंतनुमा व्यक्ति की काया उस घर में प्रवेश करती. दिया को उन के चरणस्पर्श करने का आदेश मिलता. फिर वे नील की मां के साथ ऊपर उन के कमरे में समा जाते. घंटेडेढ़ घंटे के बाद नीचे उतर कर अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से उसे घूरते हुए वे घर से निकल कर सड़क पर खड़ी अपनी गाड़ी में समा जाते. दिया का कभी उन से परिचय नहीं कराया गया था परंतु वह जानती थी कि वे सज्जन जानते हैं कि वह दिया है, नील की तथाकथित पत्नी. उन की दृष्टि ही उसे सबकुछ कह जाती थी. वह चुपचाप दृष्टि झुकाए रहती. न जाने क्यों उसे उन महानुभाव की दृष्टि में कुछ अजीब सा भाव दृष्टिगोचर होता था जिसे वह बिना किसी प्रयास के भी समझ जाती थी. सब अपनेअपने कमरों में व्यस्त रहते. दिया को शुरूशुरू में तो बहुत अटपटा लगा, रोई भी परंतु बाद में अभ्यस्त हो गई. लगा, यही कालकोठरी सा जीवन ही उस का प्रारब्ध है.

‘‘दिया, यहां बिजली बहुत महंगी है,’’ एक दिन अचानक ही सास ने दिया से कहा.

वह क्या उत्तर देती. चुपचाप आंखें उठा कर उस ने सास के चेहरे पर चिपका दीं.

‘‘तुम तो नीचे सोती हो न. दरअसल, सुबह 5 बजे तक बिजली का भाव बिलकुल आधा रहता है…’’

दिया की समझ में अब भी कुछ नहीं आया. अनमनी सी वह इधरउधर देखती रही. ‘क्या कहना चाह रही हैं वे?’ यह वह मन में सोच रही थी. ‘‘मैं समझती हूं, रात में अगर तुम वाशिंगमशीन चालू कर दो तो बिजली के बिल में बहुत बचत हो जाएगी.’’ वह फिर भी चुप रही. कुछ समझ नहीं पा रही थी क्या उत्तर दे.

2 मिनट रुक कर वे फिर बोलीं, ‘‘और हां, खास ध्यान रखना, अपने कपड़े मत डाल देना मशीन में. और जब भी टाइम मिले, लौन की घास मशीन से जरूर काट देना.’’

दिया बदहवास सी खड़ी रह गई, यह औरत आखिर उसे बना कर क्या लाई है? उस से बरतन साफ नहीं हो रहे थे, खाना बनाने में वह पस्त हो जाती थी और अब यह सब. दिया की सुंदर काया सूख कर कृशकाय हो गई थी. पेट भरने के लिए उस में कुछ तो डालना ही पड़ता है. दिया भी थोड़ाबहुत कुछ पेट में डाल लेती थी. हर समय उस की आंखों में आंसू भरे रहते. ‘‘अब इस तरह रोने से कुछ नहीं होगा दिया. सब को पता है यहां पर इंडिया की तरह नौकर तो मिलते नहीं हैं. हम ने तो सोचा था कि तुम इतनी स्मार्ट हो तो…पर तुम्हें तो कुछ भी नहीं आता. आजकल की लड़कियां कितनी ‘कुकरी क्लासेज’ करती हैं, तुम ने तो लगता है कि कुछ सीखने की कोशिश ही नहीं की,’’ उन के मुख पर व्यंग्य पसरा हुआ था.

दिया को लगा वह बुक्का फाड़ कर रो देगी, कैसी औरत है यह? औरत है भी या नहीं? मांपापा को यहां की स्थिति से अवगत करा कर वह उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थी, फिर भी अपने लिए उसे कुछ सोचना तो होगा ही. वह सारी उम्र इस कठघरे में कैद नहीं हो सकती थी. मन और तन स्वस्थ हों तो वह कुछ सोच सकती थी परंतु उस के तो ये दोनों ही स्वस्थ नहीं थे. हर क्षण उस के मन में यही सवाल कौंधता रहता कि आखिर उसे लाया क्यों गया है यहां? क्या केवल घर की केयरटेकर बना कर? और यदि वह नील की पत्नी बन कर आई थी तो नील से अब तक उस का संबंध क्यों नहीं बन पाया था? यह सब उस की समझ से बाहर की बात थी जिस पर अब वह अधिक जोर नहीं दे रही थी क्योंकि वह भली प्रकार समझ चुकी थी कि उसे यहां से निकलने के लिए सब से पहले स्वयं को स्वस्थ रखना होगा. इसलिए वह स्वयं को सहज रखने का प्रयास करने लगी.

जैसेजैसे वह सहज होती गई उस के मस्तिष्क ने सोचना शुरू कर दिया. अचानक उसे ध्यान आया कि वह तो यहां पर ‘विजिटिंग वीजा’ पर आई हुई थी और अभी तक उस का यहां के कानून के हिसाब से कोई ‘पंजीकृत विवाह’ आदि भी नहीं कराया गया था, इसलिए कुछ तो किया जा सकेगा. इसी विचार से उस ने अपनी अटैची उतारी और उसे पलंग पर रख कर अटैची की साइड की जेबें टटोलने लगी. जैसेजैसे उस के हाथ खाली जगह पर अंदर की ओर गए, उस का मुंह फक्क पड़ने लगा. अटैची में उस का पासपोर्ट नहीं था. कहां गया होगा पासपोर्ट? उस ने सोचा और पूरी अटैची उठा कर पलंग पर उलट दी. पर पासपोर्ट फिर भी न मिला.

काफी रात हो चुकी थी. इस समय रात के 3 बजे थे और उनींदी सी दिया अपना पासपोर्ट ढूंढ़ रही थी. थकान उस के चेहरे पर पसर गई थी और पसीने व आंसुओं से चेहरा पूरी तरह तरबतर हो गया था. उस का मन हुआ, अभी दरवाजा खोल कर बाहर भाग जाए. मुख्यद्वार पर कोई ताला आदि तो लगा नहीं रहता था. परंतु जाऊंगी भी तो कहां? वह सुबकसुबक कर रोने लगी और रोतेरोते अपनी अलमारी के कपड़े निकाल कर पलंग पर फेंकने लगी. उसे अच्छी तरह से याद था कि उस ने अटैची में ही पासपोर्ट रखा था. नील और उस की मां लगभग साढ़े छह, सात बजे सो कर उठते थे. आज जब वे उठ कर नीचे आए तो दिया के कमरे की और दिया की हालत देख कर हकबका गए. दिया सिमटीसिकुड़ी सी पलंग पर फैले हुए सामान के बीच एक गठरी सी लग रही थी. मांबेटे ने एकदूसरे की ओर देखा और दोनों ने कमरे में प्रवेश किया. कमरे में फैले हुए सामान के कारण मुश्किल से उन्हें खड़े होने भर की जगह मिली.

‘‘दिया,’’ नील ने आवाज दी पर दिया की ओर से कोई उत्तर नहीं आया.

‘‘दिया बेटा, उठो,’’ सास ने मानो स्वरों में चाशनी घोलने का प्रयास किया परंतु उस का भी कोई उत्तर नहीं मिला.

‘‘मौम, कहीं…’’ नील ने घबरा कर मां से कुछ कहना चाहा.

‘‘नहीं, नहीं, कुछ नहीं,’’ मां ने बड़ी बेफिक्री से उत्तर दिया. फिर दिया की ओर बढ़ीं.

‘‘दिया, उठो, यह सब क्या है?’’

इस बार दिया चरमराई, नील ने आगे बढ़ कर उसे हिला दिया, ‘‘दिया, आर यू औलराइट?’’ उस के स्वर में कुछ घबराहट सी थी.

‘‘हांहां, ठीक है. लगता है रातभर इस के दिमाग में उधेड़बुन चलती रही है. अब आंख लग गई होगी. चलो, किचन में चाय पी लेते हैं, तब तक उठ जाएगी.’’ नील पीछे घूमघूम कर देख रहा था पर मां किचन की ओर बढ़ गई थीं. शायद नील के मन में कहीं न कहीं दिया के लिए नरमाहट पैदा हो रही थी परंतु मां का बिलकुल स्पष्ट आदेश…वह करे भी तो क्या? उसे वास्तव में दिया के लिए बुरा लगता था, लेकिन वह अपना बुरा भी तो नहीं होने दे सकता था. उस का अपना भविष्य भी तो त्रिशंकु की भांति अधर में लटका हुआ था. उस के विचारों में उथलपुथल होती रही और इसी मनोदशा में वह 2 प्यालों में चाय ले कर मां के पास डाइनिंग टेबल पर आ बैठा था. मां तब तक बिस्कुट का डब्बा खोल कर बिस्कुट कुतरने लगी थीं.

‘‘मौम, यह ठीक नहीं है.’’

‘‘अब क्या कर सकते हैं? मैं भी कहां चाहती थी कि यह सब हो पर…उस दिन  धर्मानंदजी आए थे, तब भी उन्होंने यही बताया कि अभी डेढ़दो साल तक तुम दिया से संबंध नहीं बना सकते. इस के बाद भी तुम दोनों का समय देखना पड़ेगा.’’

‘‘पर मौम, अभी तो हम ने शादी के लिए भी एप्लाई नहीं किया है. फिर…’’

‘‘शादी के लिए एप्लाई करने का अभी कोई मतलब ही नहीं है जब तक इस के सितारे तुम्हारे फेवर में नहीं आ जाते. वैसे भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?’’ मां ने सपाट स्वर में अपने बेटे

से कहा. ‘‘मैं ने तो आप से पहले ही कहा था. अभी तो नैंसी  जरमनी गई हुई है. आएगी तो मैं उस के साथ बिजी हो जाऊंगा पर इस का…’’

‘‘अब बेटा, वह तुम्हारा पर्सनल मामला है. मैं तो कभी नहीं चाहती थी कि तुम नैंसी  से रिलेशन बनाओ. वह तुम्हारे साथ शादी करने के लिए भी तैयार नहीं है.’’

‘‘क्या फर्क पड़ता है, मौम, मैं तो उस के साथ बहुत खुश हूं. आप को बहू चाहिए थी. इतनी खूबसूरत लड़की को देख कर मैं भी बहक गया पर आप मुझे उस से दूर रहने के लिए जोर दे रही हैं,’’ नील मां से नाराज था.

दिया कब रसोई के बाहर आ कर खड़ी हो गई थी, किसी को पता नहीं चला. मांबेटे की बात सुन कर दिया के पैर लड़खड़ाने लगे थे. कहां फंस गई थी वह? दबे कदमों से चुपचाप आ कर वह कुरसी पर बैठ गई.

‘‘अरे दिया, उठ गई बेटा, आज तो बहुत सोई और ये सब क्या है?’’ रसोईघर से निकलते हुए सास ने एक के बाद एक सवाल उस पर दाग दिए.

‘‘गुडमौर्निंग दिया, आर यू ओके?’’ नील ने भी अपनी सहानुभूति दिखाने की कोशिश की.

दिया ने एक दृष्टि दोनों की ओर डाली. उस की क्रोध और पीड़ाभरी दृष्टि से  मांबेटे क्षणभर के लिए भीतर से कांप उठे, फिर तुरंत सहज भी हो गए.

‘‘माय पासपोर्ट इज मिसिंग?’’ दिया ने कुछ जोर से कहा.

‘‘अरे, कहां जाएगा? यहीं होगा कहीं तुम्हारे कपड़ों के बीच में. कोई तो आताजाता नहीं है घर में जो चुरा कर ले जाएगा. और किसी को करना भी क्या है तुम्हारे पासपोर्ट का?’’ कितनी बेशर्म औरत है. दिया ने मन ही मन सोचा.

अब तक दिया समझ चुकी थी कि इस प्रकार यहां उस की दाल नहीं गलेगी. अभी तक उस की सास उसे केवल 2-3 बार मंदिर और दोएक बार मौल ले कर गई थीं. मंदिर में भी उसे भारत से आई हुई रिश्तेदार के रूप में ही परिचित करवाया गया था. उसी मंदिर में उस ने उस लंबेचौड़े गौरवपूर्ण पुरुष को देखा था जिसे उस की सास धर्मानंदजी कहती थीं. अभी चाय पीते समय जरूर वे उसी आदमी के बारे में बातें कर रही थीं. उस ने सोचा, ‘पर वह क्यों नील को उस से दूर रखना चाहता है?’

‘‘चलो, चलो, ये सब ठीकठाक कर के अपनी जगह पर जमा दो. मिल जाएगा पासपोर्ट, जाएगा कहां. और अभी करना भी क्या है पासपोर्ट का?’’ दिया की सास ने अपना मंतव्य प्रस्तुत कर दिया.

‘‘आओ, मैं तुम्हारी हैल्प करता हूं. मौम, आप दिया के लिए प्लीज चाय बना दीजिए. यह बहुत थकी हुई लग रही है,’’ नील ने मां से खुशामद की.

‘‘नो, थैंक्स, मैं बना लूंगी जब पीनी होगी,’’ दिया ने कहा और सामान समेट कर अटैची में भरने लगी. कुछ दिनों से जो साहस वह जुटाने की चेष्टा कर रही थी वह फिर से टूट रहा था.

नील दिया के साथ उस का सामान फिर से जमाने का बेमानी सा प्रयास कर रहा था जिस से कभीकभी उस का शरीर दिया के शरीर से टकरा जाता परंतु दिया को इस बात से कोई रोमांच नहीं होता था. दिया एक कुंआरी कन्या थी जिस के तनमन में यौवन की तरंगों का समावेश रहा ही होगा परंतु जब शरीर ही बर्फ हो गया तो…? फिलहाल तो उस का मस्तिष्क अपने पासपोर्ट में ही अटका हुआ था. उस के मन ने कहा, जरूर यह मांबेटे की चाल है परंतु प्रत्यक्ष में तो वह कुछ कहने या किसी प्रकार के दोषारोपण करने का साहस कर ही न सकती थी.

ऊपर से एक और रहस्य, ‘यह नैंसी  कौन है? और नील से उस का क्या रिश्ता हो सकता है?’ उस का मस्तिष्क जैसे उलझता ही जा रहा था. कोई भी तो ऐसा नहीं था जिस से बात कर के वह अपनी उलझनों का हल ढूंढ़ती. कभी नील उस से बात करने का प्रयास करता भी तो पहले तो उस का ही मन न होता पर बाद में उस ने सोचा कि वह बात कर के ही नील से वास्तविकता का पता लगा सकती है. उसे नील के करीब तो जाना ही होगा, तभी उसे पता चल सकेगा कि आखिर वह किस प्रकार इस जाल से छूट सकेगी? वह अंदर ही अंदर सोचती हुई अपनेआप को संभालने का प्रयास कर रही थी. परंतु उस के इस प्रकार के थोड़ेबहुत प्रयास पर नील की मां पानी फेर देतीं. वे किसी न किसी बहाने से नील को उस के पास से हटा देती थीं. उन दोनों की बातें सुनने के बाद उसे यह तो समझ में आने लगा था कि हो न हो, ये सब करतूतें भी कोई ग्रहोंव्रहों के कारण ही हो रही हैं पर पूरी बात न जान पाने के कारण वह कुछ भी कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाती.

आज फिर नील की मां उसे मंदिर ले गईं. वहां पर काफी लोग जमा थे. पता चला, कोई महात्मा प्रवचन देने आए थे, इंडिया से. दिया कहां इन सब में रुचि रखती थी परंतु विवशता थी, बैठना पड़ा सास के साथ. दिया का मन उन्हें सास स्वीकारने से भी अस्वीकार कर रहा था. कैसी सास? किस की सास? जैसेजैसे दिन व्यतीत होते जा रहे थे उस का मन अधिक और अधिक आंदोलन करने लगा था. यहां सीधी उंगली से घी नहीं निकलने वाला था, दिया की समझ में यह बात बहुत पहले ही आ चुकी थी. प्रश्न यह था कि उंगली टेढ़ी की कैसे जाए? इस के लिए कोई रास्ता ढूंढ़ना बहुत जरूरी था.

अचानक धर्मानंदजी दिखाई पड़े. गौरवपूर्ण, लंबे, सुंदर शरीर वाला यह पुरुष उसे वैसा ही रहस्यमय लगता था जैसे नील व उस की मां थे. उस की दृष्टि धर्मानंद के पीछेपीछे घूमती रही. न जाने उसे क्यों लग रहा था कि हो न हो, यह आदमी ही उस के पिंजरे का ताला खोल सकेगा. नील की मां के पास बहुत कम लोग आतेजाते थे. उन में धर्मानंद उन के बहुत करीब था, दिया को ऐसा लगता था. अब प्रवचन चल रहा था. तभी दिया ने देखा कि नील की मां मंदिर में बने हुए रसोईघर की ओर जा रही हैं. उसे एहसास हुआ कि उसे उन के पीछेपीछे जा कर देखना चाहिए. वह चुपचाप उठ कर पीछेपीछे चल दी. उस का संशय सही था. नील की मां धर्मानंदजी से मिलने ही गई थीं. वह चुपचाप रसोई के बाहर खड़ी रही. दिया के कान उन दोनों की बातें सुनने के लिए खड़े हो गए थे. वहबड़ी संभल कर रसोईघर के दरवाजे के पीछे छिप कर खड़े होने का प्रयत्न कर रही थी. दोनों की फुसफुसाहट भरी बातें उस के कानों तक पहुंच रही थीं.

‘‘धर्मानंद आप ने पासपोर्ट संभाल कर रखा है?’’

‘‘हां, ठीक जगह रखा है. पर… क्या फर्क पड़ता है अगर खो भी जाए तो…?’’ धर्मानंद ने बड़े सपाट स्वर में प्रश्न का उत्तर दिया. फिर आगे बोले, ‘‘देखिए मिसेज शर्मा, इस लड़की के तो कहीं गुणवुण मिलने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं. आप ने किस से मिलवाई थीं इन की कुंडलियां?’’

‘‘अरे भई, जब हम इंडिया गए तो आप यहां थे और जब हम यहां आए तो आप इंडिया पहुंच गए. मुझे जन्मपत्री रवि से ही मिलवानी पड़ीं. आप की जगह उस समय तो वही था यहां,’’ नील की मां का राज दिया पर खुलता जा रहा था.

‘‘और इस लड़की की दादी थीं कि पत्री मिलाए बिना एक कदम आगे बढ़ने को तैयार नहीं थीं. सो, जल्दीबाजी में…’’

‘‘आप भी, आप तो जानती हैं रवि को मैं ही सिखा रहा हूं. अभी तो जुम्माजुम्मा आठ भी दिन नहीं हुए यह विद्या सीखते हुए उसे. अभी क्या औकात उस की? वैसे भी अपना नील तो नैंसी के साथ इतना कस कर बंधा हुआ है. यह तो बेचारी वैसे ही फंस गई,’’ धर्मानंद के स्वरों में मानो दिया के लिए कुछ करुणा सी उभर रही थी.

‘‘अरे धर्मानंदजी, मैं ने बताया तो था कि यह है बहुत बड़े घर की. अगर इस के घरवालों को यह सब पता चल गया तो फजीहत हो जाएगी हमारी. आप ही बताइए कोई उपाय?’’

‘‘लड़की है भी प्यारी, सुंदर सी. अगर कहीं नील ने इस के साथ रिलेशन बना लिया तो उस का भविष्य तो गया पानी में. वैसे तो वह नैंसी के साथ खुश है. आप ने क्यों शादी करा दी उस की?’’ धर्मानंद को दिया से सहानुभूति होती जा रही थी, ‘‘इस से तो किसी गरीब घर की साधारण लड़की लातीं तो उस का भी उद्धार हो जाता और आप का काम भी.’’

‘‘नैंसी तो शादी करने के लिए तैयार ही नहीं है न. और अगर शादी कर भी लेगी तो क्या मेरे साथ निभा सकती है? पर आप ने तो नील को संबंध बनाने तक से रोक दिया है.’’

‘‘भई, मेरा जो फर्ज था, मैं ने किया. अब आप को या नील को जैसा ठीक लगे करिए,’’ धर्मानंद विचलित से हो गए थे.

‘‘अरे नहीं धर्मानंद, आप के बगैर बताए क्या हम एक कदम भी चलते हैं? आप की जब तक ‘हां’ न हो, नील को उस की तरफ ताकने भी नहीं दूंगी. मैं कहां चाहती थी कि दिया को इस तरह की परेशानी हो पर जब आप…और मुझे लगा था कि नील पर से खतरा टल जाएगा तो यहीं दिया से इस की शादी करवा देंगे. इतनी सुंदर और अमीर बहू पा कर वह नैंसी को भूल जाएगा. पर…’’ दिया ने लंबी सांस छोड़ी. उस को अपना पूरा जीवन ही गर्द और गुबार से अटा हुआ दिखाई देने लगा. वह चुपचाप दरवाजे के पीछे से हट कर भक्तों की भीड़ में समा गई जहां तबले, हारमोनियम व तालियों के साथ  भक्तजन झूम रहे थे. कुछ देर बाद नील की मां ने आ कर देखा, दिया वैसे ही आंख मूंद कर बैठी थी. उन्होंने चैन की सांस ली और मानो फिर कुछ हुआ ही न हो, सबकुछ वैसा चलने लगा जैसा चल रहा था.

अगले दिन सुबह घर में हंगामा सा उठ खड़ा हुआ. नील काम पर जाने की तैयारी कर रहा था कि अचानक माताजी धड़धड़ करती हुई ऊपर से नीचे उतरीं. ‘‘दिया, तुम से कितनी बार कहा है कि अपने कपड़े वाशिंग मशीन में नील के कपड़ों के साथ मत डाला करो, पर तुम बारबार यही करती हो.’’

‘‘तो मैं अपने कपड़े कैसे धोऊं?’’ उस दिन दिया के मुंह से आवाज निकल ही गई.

‘‘कैसे धोऊं, क्या मतलब? अरे, यहां क्या चूना, मिट्टी, धूल होता है जो तुम्हारे कपड़ों में लगेगा? पानी से निकाल कर सुखा दो. कितनी देर लगती है?’’

‘‘पर, मुझ से नहीं धुलते कपड़े. मुझ को कहां आते हैं कपड़े धोने?’’ दिया रोंआसी हो कर बोल उठी.

नील चुपचाप अपना बैग संभाल कर बाहर की ओर चल दिया था. शायद वह जानता था कि आज दिया की अच्छी प्रकार से खबर ली जाएगी. दिया ने 2-3 मिनट बाद कार स्टार्ट होने की आवाज भी सुनी. उसे लगा आज तो वह भी कमर कस ही लेगी. अगर ये उसे परेशान करेंगी तो उसे भी जवाब तो देना ही होगा न? आखिर कब तक वह बिना रिश्ते के इस कबाड़खाने में सड़ती रहेगी.

‘‘देखो दिया, मैं तुम्हें फिर से एक बार समझा रही हूं, तुम नील के कपड़ों के साथ अपने कपड़े मत धोया करो. क्या तुम नहीं चाहतीं कि नील सहीसलामत रहे? हर शादीशुदा औरत अपने पति की सलामती चाहती है और तुम…कितनी बार समझाया तुम्हें…’’

‘‘मुझे समझ में नहीं आता कपड़े एकसाथ मशीन में धोने में कहां से नील की सलामती खतरे में पड़ जाएगी?’’

‘कायर कहीं का,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘और कहां से है वह शादीशुदा?’ न जाने कितनी बार उस का मन होता है कि वह मांबेटे का मुंह नोच डाले. अगर अपने घर पर होती तो…बारबार ऐसे ही सवाल उस के जेहन में तैरते रहते हैं. वह अपने मनोमंथन में ही उलझी हुई थी.

‘‘तुम्हें क्या मालूम कितने खतरनाक हैं तुम्हारे स्टार्स, शादी हो गई, चलो ठीक पर अब नील को बचाना तो मेरा फर्ज है न. पंडितजी ने बताया है कि अभी कुछ समय उसे तुम से दूर रखा जाए वरना…यहां तक कि तुम्हारे साए से भी,’’ नील की मां ने हाथ नचा कर आंखें मटकाईं. इतनी बेहूदी औरत. बिलकुल छोटे स्तर के लोग जैसे बातें करते हैं, वह वैसे ही हाथ नचानचा कर बातें कर रही थी. उन के यहां नौकरों को भी जोर से बोलने की इजाजत नहीं थी. दिया का यौवन मानो उस की हंसी उड़ाने लगा था. ऐसा भी क्या कि कोई तुम पर छा जाए, तुम्हें दबा कर पीस ही डाले और तुम चुपचाप पिसते ही रहो.

‘‘तुम सुन रही हो दिया, मैं ने क्या कहा?’’ उस के कानों में मानो किसी ने पिघला सीसा उड़ेल दिया था.

‘‘जी, सुन रही हूं. आप केवल अपने बेटे को प्रोटैक्ट करना चाहती हैं. मुझे बताइए, मेरा क्या कुसूर है इस में? आप ने क्यों मुझे इस बेकार के बंधन में बांधा है? मैं तो शादी करना भी नहीं चाहती थी. जबरदस्ती…’’

‘‘अरे वाह, बाद में तुम्हारी रजामंदी से शादी नहीं हुई क्या? तुम ने नील को पसंद नहीं किया था क्या? और तुम्हारी वो दादी, जो मेरे नील को देखते ही खिल गई थीं, उन की मरजी नहीं थी तुम्हारी शादी नील से करवाने की?’’

‘‘शादी करवाने की उन की इच्छा जरूर थी लेकिन आप ने मेरे साथ इतना अन्याय क्यों किया? मैं क्या कहूं आप से, आप सबकुछ जानती थीं.’’

दिया की आवाज फिर से भरभरा गई, ‘‘मेरा और नील का रिश्ता भी क्या है जो…’’ आंसू उस की आंखों से झरने लगे.

‘‘वहां पर आप ने वादा किया था कि मैं अपना जर्नलिज्म का कोर्स करूंगी लेकिन यहां पर मुझे कैद कर के रख लिया है. कहां गए आप के वादे?’’

‘‘दिया अब तो जब तक तुम्हारे स्टार्स ही तुम्हें फेवर नहीं करते तब तक तो हम सब को ही संभल कर रहना पड़ेगा,’’ नील की मां ने चर्चा की समाप्ति की घोषणा सी करते हुए कहा.

दिया का मन फिर सुलगने लगा. उसे लगा कि अभी वह सबकुछ उगल देगी परंतु तुरंत यह खयाल भी आया कि यदि वह सबकुछ साफसाफ बता देगी तब तो उस पर और भी शिकंजे कस जाएंगे. एक बार अगर इन लोगों को शक हो गया कि दिया को सबकुछ मालूम चल गया है तब तो ये धूर्त लोग कोई और रास्ता अपना लेंगे, फिर उस के हाथ में कुछ भी नहीं रह जाएगा. परिस्थितियां कैसे मनुष्य को बदल देती हैं. ऐसी लाड़ली, खिलंदड़ी सी दिया को अपना पिंजरा खोलने के लिए चाबी ढूंढ़नी थी. अब उसे यहां सालभर होने को आया था. मां, पापा, भाइयों के फोन आते तो वह ऐसी हंसहंस कर बात करती मानो कितनी प्रसन्न हो. यश सहारा ले कर चलने लगे थे. उन्होंने काम पर भी जाना शुरू कर दिया था.

दिया की समझ में नहीं आ रहा था यह गड़बड़ घोटाला. एक ओर तो उस ने नील की मां को धर्मानंदजी से यह कहते सुना था कि उन्होंने सोचा था कि नील दिया को पा कर नैंसी को भूल जाएगा दूसरी ओर वे हर पल दिया पर जासूसी करती रहती थीं. यों तो दिया का मन अब बिलकुल भी नील को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था परंतु उसे नील के माध्यम से ही अपने पिंजरे की चाबी प्राप्त करनी थी. इसलिए उस ने भावनाओं से काम न ले कर दिमाग से काम लेना शुरू कर दिया था. इस औरत को कैसे वश में करे, यह सब से कठिन समस्या थी उस के सामने. आज तो उस की जबान खुल ही गई थी. काफी सोचविचार करने के बाद उस ने अपने को संतुलित किया और फिर से चुप्पी साध ली.

‘‘नील को यूनिवर्सिटी के काम से जरमनी जाना है,’’ नील की मां ने एक दिन दिया के हाथ की गरमागरम रोटी खाते हुए कहा.

‘‘जरमनी?’’ दिया का माथा ठनका. ऐसा लगा, जरमनी का जिक्र अभी कुछ दिन पूर्व ही सुना था उस ने.

खाना खा कर नील की मां ने प्लेट सिंक में रखी और एक बार फिर बोलीं, ‘‘नील ये कपड़े रख कर गया है. तुम खाना निबटा कर मशीन लगा देना. हीट पर डाल दोगी तो जल्दी ही सूख जाएंगे. रात को ही प्रैस कर देना. सुबह 10 बजे की फ्लाइट है. घर से तो साढ़े 6 बजे ही निकल जाना पड़ेगा,’’ कहतीकहती वे रसोईघर से बाहर चली गईं. दिमाग की उड़ान के साथसाथ उस का शरीर भी मानो फटाफट चलने लगा. आज जब वह सब काम निबटा कर कमरे में आई तब दोपहर के 3 बजे थे. खिड़की पर बैठ बाहर टकटकी लगाए उसे पता ही नहीं चला कब नील की मां कमरे में आ पहुंचीं.

‘‘दिया, कपड़े हो गए?’’ उन्होंने इधरउधर देखते हुए पूछा.

‘‘हां, हो गए होंगे,’’ उस ने दीवार पर लटकी घड़ी पर दृष्टि घुमा कर देखी. 4 बज गए थे.

वह उठी और जा कर मशीन में से कपड़े ला कर हीट पर डाल दिए. अभी बाहर बारिश हो चुकी थी, इसलिए कपड़े अंदर ही डालने थे. चाय का टाइम हो चुका था. किचन में जा कर उस ने चुपचाप चाय बनाई और 2 प्यालों में छान ली. आदत के अनुसार माताजी बिस्कुट के डब्बे निकाल कर टेबल पर बैठी थीं. दिया भी आ कर टेबल पर बैठ गई. सासूमां ने बिस्कुट कुतरते हुए डब्बा उस की ओर बढ़ाया. दिया ने बिना प्रतिरोध के बिस्कुट निकाल लिया और कुतरने लगी. वह वातावरण को जाननेसमझने, उस से निकल भागने के लिए नौर्मल बने रहने का स्वांग करने लगी थी तो माताजी को यह उन की विजय का एहसास लगने लगा था. भीतर ही भीतर सोचतीं, ‘आखिर जाएगी कहां? भूख तो अच्छेअच्छों को सीधा कर देती है. फिर इस की तो बिसात क्या, सीधी हो जाएगी.’

‘‘मैं सोचती हूं दिया, तुम लंदन घूम आओ,’’ अचानक ही चाय की सिप ले कर उन्होंने दिया से कहा.

दिया का मुंह खुला का खुला रह गया. सालभर से घर के बंद पिंजरे में उस चिडि़या के पिंजरे का दरवाजा खुलने की आहट से वह चौंक पड़ी. ‘क्या हो गया इन्हें?’ उस ने सोचा. इस में भी जरूर कोई भेद ही होगा. 

– क्रमश:

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