किसी दिन कोई आप से बात करते समय उत्तर प्रदेश को उत्तर प्रदेशा कह बैठे तो चौंकिएगा बिलकुल मत. जब केरल को केरला और महाराष्ट्र को हमारे अंगरेजीदां महाराष्ट्रा कह सकते हैं तो भाषाई तरक्की करतेकरते हम उन जैसों की नकल करते हुए उत्तर प्रदेश को उत्तर प्रदेशा क्यों नहीं कह सकते. फिर राजस्थान को राजस्थाना और बिहार को बिहारा कहने में भी क्या हर्ज है?
वैसे, यह कोई हंसनेहंसाने की बात नहीं है. हंसना है तो कपिल का शो देखिए और द्विअर्थी संवादों पर जम कर हंसिए. यह भी तो भाषाई तरक्की है कि एक शब्द के अनेक अर्थ निकालो. अपने पर बन आए तो साफसाफ कह दो, ‘तुम ने मेरी कही बात का अर्थ गलत निकाला.’ चुनावी महासमर में नेताओं ने यही कह कर अपना पिंड छुड़ाया वरना उन का राजनीतिक पिंडदान करने को चुनाव आयोग तुला बैठा था. हिंदी के कवियों में केशवदास को ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा जाता है क्योंकि उन की क्लिष्ट भाषा को समझने के लिए पांडित्य की आवश्यकता होती है और उन की एकएक पंक्ति के 5-5 अर्थ होते हैं. जो समझ में न आए वही सब से बड़ा विद्वान.
न समझ में आना भाषा की तुरुप चाल होती है. फिर क्यों न एक किस्सागोई हो जाए. नौजवानी के दिनों में, गरीबों की तरह हम भी पढ़ाई करने के बाद बेरोजगार हो गए. घर वालों ने साफसाफ कह दिया- अपने पैरों पर खड़े हो जाओ, जैसे अभी तक हम उन के पैरों पर खड़े थे. खैर, अखबारों में खाली जगह देखते और साक्षात्कार देने के लिए निरीह अंगद की तरह रावण के दरबार में उपस्थित हो जाते. कभी एक मुंह वाला रावण मिलता तो कभी 3 और 4 मुंह वाला. लेकिन एक बार दशानन से सामना हो गया. एक अस्पताल में एक लिपिक (क्लर्क) की जगह खाली थी. हम ने सोचा, इस के लिए कौन अप्लाई करेगा, चलो कोशिश करते हैं. साक्षात्कार वाले दिन देखा, 150 बंदों की भीड़ थी. साक्षात्कारकक्ष में बेरोजगार प्रवेश करने के बाद फटाफट ऐसे बाहर आ रहे थे जैसे धक्के मार कर किसी चोर को बाहर निकाला जाता है.
उम्मीद जगी कि अपने बाहर निकाले जाने का नंबर भी जल्दी ही आने वाला है. लगभग 4 घंटे के इंतजार के बाद अपना नंबर आ ही गया. पता नहीं कैसे दशानन में से एक सिर ने दया खा कर कहा, ‘प्लीज, बी सीटेड.’ लेकिन हम को ऐसा आभास हुआ जैसे कह रहा हो, ‘गैट आउट, तुम्हारी यहां आने की जुर्रत कैसे हुई?’
हम सांस रोक कर कुरसी पर बैठ गए. एक दूसरे सिर ने कहा, ‘अच्छा, तो जनाब अंगरेजी साहित्य में परास्नातक हैं.’ उन 10 सिरों में से 2-3 सिर ऐसे थे जिन्हें अंगरेजी साहित्य का ज्ञान था. उन सिरों ने बाकी सिरों पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हम से अंगरेजी साहित्य पर प्रश्न करने शुरू कर दिए. आधे घंटे तक हम उन के प्रश्नों के उत्तर देते रहे. इस आधे घंटे में उन्होंने चौसर से ले कर विक्रम सेठ तक पर प्रश्न पूछ डाले, जैसे हम क्लर्क के नहीं अंगरेजी के प्रवक्ता पद पर नियुक्त किए जाने वाले हों.
तब हम ने भी सोच लिया कि तुरुप चाल का समय आ गया है. बहुत देर हो गई इन को हमें सतातेसताते. अब मामला आरपार का होगा. हम ने अंगरेजी के जनसाधारण से बाहर के एक क्लिष्ट शब्द को चुना और विषय को घुमाफिरा कर कहा, ‘‘डा. जौनसन वाज द फर्स्ट इंगलिश लेक्जिकोग्राफर.’’ हम ने देखा कि हमारी लेक्जिकोग्राफर की तुरुप चाल में 2-3 सिर ही नहीं, पूरे दशानन फंस गए. साक्षात्कार इसी बिंदु पर समाप्त हो गया और साथ ही हमारा सैलेक्शन भी तुरंत हो गया. उन में से किसी को लेक्जिकोग्राफर का अर्थ नहीं पता था और अपनी हीनता को छिपाने के लिए उन्होंने हमें अंगरेजी का प्रकांड विद्वान समझ लिया.
माफ करना, भाषा की तुरुप चाल समझाने के लिए यह किस्सागोई करनी पड़ी. हिंदुस्तान के बेरोजगारो, यह तुरुप चाल तुम्हारे काम आ जाए तो यूज कर लेना. इस की कोई फीस मुझे भेजने की आवश्यकता महसूस मत करना, बेरोजगारी के दर्द के हम सहोदर जो ठहरे. इस किस्सागोई के बाद हम फिर अपने विषय पर आते हैं. जब से रामदेव ने योग सिखाना शुरू किया. योग की तरक्की में चारचांद लग गए. रामदेव की तरक्की में कितने चांद लगे, कह नहीं सकते. लेकिन उन की कृपा से योग बढि़या बिजनैस बन गया और ऐक्सपोर्ट हो कर अमेरिका पहुंच गया. लेकिन अमेरिका ने बड़ी होशियारी से योग का जैसे पेटैंट करा लिया हो और उसे योगा बना कर हमारे ही सिर पर दे मारा.
अमेरिकन मेड योगा इतना लोकप्रिय हुआ कि अब तो मीडिया वाले, बहुत से पत्रकार बंधु योग को योगा ही लिखतेबोलते हैं, आमजन की क्या कहें? जनाब अंगरेजी की श्रेष्ठता अपने देश में ऐसे ही हावी है जैसे लोकल भाषाओं के स्कूलों पर इंगलिश मीडियम के स्कूल. इस के लिए एक दिलचस्प बात भी सुन लीजिए. यह वाकेआ हिंदुस्तान की 1857 की क्रांति के समय का है जिस का वर्णन जौन पैम्बले ने अपनी पुस्तक ‘द राज द इंडियन म्यूटिनी ऐंड द किंगडम औफ अवध’ में किया है. 1857 की क्रांति के बाद जब अंगरेजों ने कानपुर को जीत लिया और वे लखनऊ को जीतने की सोचने लगे तब अंगरेजों ने कहा, ‘लक नाऊ’. देखिए जनाब तब से आज तक हम लखनऊ की गलत स्पैलिंग (लकनाऊ) ही लिखते आ रहे हैं क्योंकि लखनऊ की यह स्पैलिंग हमें अंगरेजों ने दी. हमारी क्या हिम्मत कि हम उसे सही कर के (लखनऊ) लिखें.
प्रसिद्ध व्यंग्यकार रविंद्रनाथ त्यागी ने इसी संदर्भ में अपने व्यंग्य ‘पहाड़ों पर’ में एक स्थान पर लिखा है-‘बद्रीविशाल जाने के दो द्वार हैं. एक, हरिद्वार और दूसरा, कोटद्वार. कोटद्वार को सदा से शुद्ध हिंदी के प्रेमी रेलवे विभाग ने स्टेशन पर कोटद्वारा लिखा है, जिस से उस की शक्ति भावना प्रकट होती है.’ असम को आसाम और उड़ीसा को ओडिशा लिखा जाना एक सामान्य प्रक्रिया हो गई है. हिंदी के अनेक दिग्गज पत्रपत्रिकाएं भी आंखें बंद कर के इसी परिपाटी पर चल रही हैं. एक बार प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह ने अपने एक लेख में जिक्र किया था कि उन की किसी निकट संबंधी छोटी लड़की ने उन से अरुणाचल प्रदेश की राजधानी पूछी. तत्काल उन के ध्यान में राजधानी का नाम याद नहीं आया. तब उन्होंने किसी की हैल्प ली. उन्हें बताया गया कि अरुणाचल प्रदेश की राजधानी आईटा नगर है. बाद में उन्होंने उस अंगरेजीदां के उच्चारण की गलती महसूस की जो ईटानगर को आईटानगर कह गया.
अच्छा हुआ जो पश्चिम बंगाल सरकार ने कलकत्ता का नाम बदल कर कोलकाता कर दिया वरना अंगरेजीदां तो कलकत्ता को भी कैलकटा बोलने लगे थे जिसे सुनते ही ऐसा आभास होता था जैसे किसी का गला काट दिया हो.आईजोल को आईझाल और मछलीपटनम को मचिलीपटनम लिखनाबोलना सामान्य बात होती जा रही है. इलाहाबाद को अलाहाबाद मेरे परदादाओं के जमाने से बोला जा रहा है. कठमुल्ला अब इसे अल्लाहाबाद भी कहने लगे हैं. अंगरेजी में चंडीगढ़ और चांदीगढ़ में तो कोई फर्क ही नहीं है. आप इस भ्रम में तो बिलकुल भी मत आइए कि राबर्ट्स गंज, पोर्ट केनिंग, पोर्ट ब्लेयर, विलियम नगर, नेपियर रोड, डाल्टेन गंज, नागालैंड, वास्कोडिगामा जैसे स्थान यूरोप में हैं. ये सब भारत में ही हैं और इन के जैसे सैकड़ों स्थान और भी हैं जिन का वर्णन कर के मैं आप को भारत के इंग्लिश्तान होने का आभास नहीं देना चाहता. वैसे नोएडा के बारे में आप की क्या राय है? क्या आप इस का पूरा नाम अपने बच्चे को बता सकते हैं?
इस में निराश होने की बिलकुल आवश्यकता नहीं. हमारे देश में 1652 भाषाएं बोली जाती हैं जिन में 63 विदेशी हैं. इतनी भाषाएं किसी एक देश में बोली जाती हों, ऐसा कोई देश इस धरती पर तो है नहीं, संपूर्ण ब्रह्मांड की मैं बात करता नहीं. फिर हमारे देश में भाषाई तरक्की न होगी तो क्या अमेरिका और फ्रांस में होगी. हमारे संविधान ने भी हमें बताया है, ‘इंडिया दैट इज भारत.’ याद रखिए, हिंदी हमारी राजकीय भाषा है जो कुछ शर्तों के कारण कभी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन सकती. पता नहीं, किस की याद में हम 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाते हैं. यह हिंदी की जन्मतिथि है कि मरणतिथि.