Download App

फिर अलापा गया हिंदू राष्ट्र का राग

आज तक भारत एक राष्ट्र नहीं बन सका और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस के प्रमुख हैं कि वे भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का राग अलापे जा रहे हैं. जब भी भारत में केंद्र या किसी राज्य में भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा की सरकार बनती है तो आरएसएस इसी तरह की मांग करना शुरू कर देता है.

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का हिंदू राष्ट्र का राग इसलिए बेतुका है क्योंकि भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य है, और उस का संविधान धर्मनिरपेक्षवादी है. उस में कहा गया है कि कोई भी धर्म राज्य का धर्म नहीं बनेगा. नेपाल कुछ साल पहले तक हिंदू देश था, जिस पर आरएसएस को बहुत गर्व था, पर अब वह लोकतांत्रिक राष्ट्र बन गया है. ऐसे में आरएसएस लोकतांत्रिक भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का दिवास्वप्न क्यों देख रहा है? वह अच्छी तरह जानता है कि भारत में वर्णवाद से पीडि़त जातियों में अस्मिता और स्वतंत्रता की चेतना लगातार एक बड़ी सामाजिक क्रांति की चेतना बनती जा रही है, जो भारत को कभी हिंदू राष्ट्र नहीं बनने देगी.

बेतुका है राग

हिंदू राष्ट्र का राग इसलिए भी बेतुका है क्योंकि हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति और हिंदू समाज में ही एक राष्ट्र की भावना नहीं है. इसे थोड़ा समझ लिया जाए. राष्ट्र का अर्थ है कौम. यह अंगरेजी के ‘नेशन’ शब्द का अनुवाद है, ‘कंट्री’ शब्द का नहीं. उर्दू में ‘नेशन’ के लिए ‘कौम’ शब्द का इस्तेमाल होता है. हिंदी में ‘राष्ट्र’ शब्द से ‘देश’ का भ्रम होता है, जबकि यह गलत है. इस का सही अर्थ ‘कौम’ है. अगर हम हिंदी में राष्ट्र का दूसरा शब्द तलाशेंगे तो वह ‘नस्ल’ ही हो सकता है. वैसे भी राष्ट्रवाद और नस्लवाद में कोई खास अंतर नहीं है. हिंदू राष्ट्र, हिंदू कौम या हिंदू नस्ल कुछ भी कह लीजिए, मतलब एक ही है.

गौरतलब सवाल ये हैं कि क्या हिंदू धर्म एक कौम या नस्ल का धर्म है? क्या हिंदू संस्कृति एक ही कौम या नस्ल की समान संस्कृति है? क्या हिंदू समाज एक ही कौम या नस्ल का समतावादी समाज है? कोई भी सामान्य हिंदू इन तीनों सवालों का जवाब हां में नहीं दे सकता. हिंदू धर्म में ब्राह्मण श्रेष्ठता का राग है, हिंदू संस्कृति में ब्राह्मण श्रेष्ठता का दंभ है और हिंदू समाज में हजारों जातियों का असमान विभाजन है. ऐसे में इस पागलपन का क्या इलाज है कि भारत हिंदू राष्ट्र बन जाएगा? यह किस तरह का हिंदू राष्ट्र बनाया जाएगा, ब्राह्मण श्रेष्ठता का, ब्राह्मण वर्चस्व का या ब्राह्मण शासन का?

सनातन धर्म के उत्थान का समय आ गया है, क्या मतलब है? क्या आर्य समाज, ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज सब बेकार के सुधार थे? हैरत की बात है कि अब आर्य समाजी इस का प्रतिरोध नहीं कर रहे जबकि सनातन धर्म का उत्थान पौराणिक धर्म का ही उत्थान है. सनातन धर्म का मतलब वैदिक या उपनिषेदिक धर्म का उत्थान नहीं है. वह रामायण व महाभारत के मिथकीय इतिहास को ही भारत का असली इतिहास मानता है और पौराणिक धर्म को ही सनातन धर्म मानता है. आर्य समाज पौराणिक धर्म का खंडन करता है, फिर वह संघ के सनातन धर्म का विरोध क्यों नहीं कर रहा, आखिर क्यों?

भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का काम केवल आज हो सकता है, फिर कभी नहीं. इस का क्या यह मतलब नहीं है कि आज देश में संघ की सरकार है, वे निर्भय हो कर हिंदू राष्ट्रवाद के संविधानविरोधी मिशन को आगे बढ़ा सकते हैं? पर, यह काम आसान नहीं है. इस के लिए भारत के संविधान को बदलना होगा, जो संघ के वश की बात नहीं है. लेकिन हां, संघ अपने इस मिशन से हिंदू राष्ट्रवाद का धर्मोन्माद जरूर बनाए रख सकता है पर वह आगे चल कर उस की राजनीति इकाई भाजपा के लिए यह आत्मघाती साबित होगा. दूसरे धर्म वालों के प्रति नस्लवादी नफरत फैला कर हिंदू राष्ट्रवाद को कायम करना देश को नष्ट करेगा.

नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा

नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा की साझेदारी वैसी ही लग रही है जैसी जवाहरलाल नेहरू और निकिता ख्रुश्चेव की एक जमाने में थी. जिस तरह से जवाहरलाल नेहरू रूसियों के आगेपीछे बिछे फिरते रहे थे, आज नरेंद्र मोदी अमेरिकियों को गले लगा रहे हैं. 1950 के दशक में देश के कम्युनिस्टों ने भारत को रूसी खेमे में धकेला था और 2010 के दशक से उद्योगपति व अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के अमीर भारत को अमेरिकी खेमे में खींच रहे हैं.

रूसी हनीमून ने भारत का बहुत नुकसान किया. अंगरेजी शासन के तुरंत बाद भारत की आर्थिक नीतियों ने पलटा खाया और भारतीय उद्योगपति सरकारी अफसरों व नेताओं के गुलाम हो गए. कोटा लाइसैंस यानी परमिटराज में कुछ ने तो पैसा बनाया पर ज्यादातर जनता का पैसा निखट्टू, निकम्मे भ्रष्ट सरकारी अफसरों व सरकारी उद्योगों को नष्ट करने के लिए सौंप दिया गया. 1947 का ठीकठाक देश 1970 तक कंगाल हो गया. 2010 के दशक का देश कोई महान काम कर रहा हो, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता पर फिर भी सरकारी शिकंजों की ढील के बाद हमारी सस्ती और अर्धकुशल लेबर फोर्स के कारण देश खासी प्रगति कर रहा है. अब, क्या हम पूरी तरह अमेरिकी कंपनियों और अमेरिकी बैंकरों के गुलाम हो जाएंगे?

बराक ओबामा अकेले भारत नहीं आए, कई जहाज भर कर अमेरिकी उद्योगपति भी आए और भारतीय उद्योगपति ओबामा की आड़ में उन से मिलने के लिए घंटों कतार में लगे रहे. वे बिल गेट्स और मेलिंडा गेट्स की तरह देश से किसी बीमारी या गरीबी को दूर करने के लिए अमेरिका से नहीं आए, वे अपनी कंपनियों की बैलेंस शीटों को मोटा करने के लिए आए. उन्हें भारत की गंदगी, गरीबी या गिरीपिटी हालत से कोई हमदर्दी नहीं है. बराक ओबामा से दोस्ती का अर्थ अगर भारत की जनता में स्वतंत्रताओं, परिश्रम, नई तकनीक को अपनाना, अनुशासन, स्वच्छ वातावरण, साफगोई होता तो बात दूसरी होती पर कोई राष्ट्रपति ये चीजें उपहार में दूसरे देश में नहीं देता. इन्हें तो उस देश की जनता ही देती है. बराकनरेंद्र दोस्ती में इस के आदानप्रदान के लक्षण कहीं नहीं दिख रहे. नमस्ते कहना देश को अपनाना नहीं है, देश को फुसलाना है ठीक वैसे ही जैसे रूस ने राजकपूर की फिल्मों को अपनाकर फुसलाया था.

अमेरिका आज खुद सामाजिक संकटों में घिरा है. वहां अमीर-गरीब के बीच की खाई बहुत चौड़ी हो गई है. अश्वेत राष्ट्रपति के होने के बावजूद वहां अश्वेतों में भय है. रिपब्लिकन पार्टी के समर्थक गर्भपात व सेम सैक्स विवाहों का विरोध कर धर्म थोप रहे हैं. स्कूलों में जबरन बाइबिल पढ़ाई जा रही है कि दुनिया 7 दिनों में बनी. वह अमेरिका आज हमारे किस काम का जो अपना घर ठीक न कर पा रहा हो. वह बराक ओबामा हमारे किस काम का जिस की पार्टी हाल में संसद के दोनों सदनों में बहुमत खो चुकी हो. हम इस तमाशे को किस बात का भाव दे रहे हैं.

 

ओबामा की चेतावनी

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत की यात्रा के दौरान नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में हिंदू कट्टरता में विश्वास करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार को पूरा समर्थन व सहयोग देने का, बराबरी का, आर्थिक समझौतों का भरोसा तो दिलाया पर साथ ही जातेजाते यह भी कह गए कि भारत देश का संविधान धर्म की स्वतंत्रता देता है और धर्म के नाम पर अनुच्छेद 25 के अनुसार किसी से भेदभाव नहीं किया जा सकता.

राष्ट्रपति बराक ओबामा ने साफ जता दिया कि वे नई सरकार के धार्मिक कट्टरता फैलाने वाले गुपचुप प्रोग्राम से अनभिज्ञ नहीं हैं और उन्हें विकास व गुड गवर्नेंस के पीछे धार्मिक व्यापार को फैलाने की चेष्टा की जानकारी है. पर वे खुल कर यह नहीं कह पाए कि यह अनुच्छेद 25 असल में महिलाओं और परिवारों पर एक भारी दबाव डालने वाला भी सिद्ध हो रहा है. भारतीय संविधान का धार्मिक स्वतंत्रता जैसा सिद्धांत दुनिया के बहुत देशों में है पर हर देश में धर्म के व्यापारियों के हाथ में यह आम लोगों को बरगलाने वाला महाशास्त्र सा बना हुआ  है जिस का विरोध करना या जिस की पोल खोलने का हक दूसरे धर्म वालों, सरकारों, अदालतों को तो छोडि़ए, उसी धर्म के विचारकों व सुधारकों को भी नहीं.

बराक ओबामा ने मोदी सरकार को चेतावनी दी है तो वहीं उन्होंने हिंदू व मुसलिम कट्टरपंथियों को यह एहसास कराया है कि वे सदियों पुराने धार्मिक रीतिरिवाजों को बिना संकोच, बिना किसी नियंत्रण के अपने भक्तों पर थोपते रहे और अपनी पोल खोलने वालों के मुंह पर ताले जड़ते रहे हैं. धर्म का अधिकार जो भारतीय संविधान देता है, किस काम का, किस के लिए और कौन इस का फायदा उठाता है? तिलक लगाना, टोपी पहनना, पूजापाठ करना, दान देना किस भक्त को कौन सा लाभ देते हैं कि सरकार व संविधान इन को थोपने वालों को संरक्षण दे और लोकतंत्र के महारक्षक अमेरिका के राष्ट्रपति इस का समर्थन करें?

इस देश में औरतों पर अत्याचार, उन के बलात्कार, बलात्कार के बाद उन्हें दोषी मानना, विवाह पर दहेज का बोझ, लड़की वालों का बारबार सिर झुकाना, औरतों को पूजास्थलों में धकेलना, विधवाओं को वृंदावन जैसी जगह छोड़ना, उन्हें सफेद कपड़ों में रहने देना, तलाक होने पर उन्हें ही दोषी करार देना सब धर्म की ही तो देन हैं. धर्म ने देश को ही नहीं, सारी दुनिया को खेमों में बांट दिया है. आज एक बार फिर नए साम्राज्य रुपएपैसे और शक्ति के लिए नहीं, धर्म के महत्त्व के नाम पर बन रहे हैं. पोप रोमन कैथोलिक साम्राज्य बनाने में लगे हैं; रूस के पुतिन और्थोडौक्स रूसी चर्च को दंभ दे रहे हैं; बोको हरम, इसलामिक स्टेट और तालिबानी कट्टर इसलाम को; तो भारत में हिंदुत्व का डंका बज रहा है. ये सब हर घर को धर्म का गुलाम बनाने में लगे हैं. धर्म की तरफदारी बराक ओबामा आखिर क्यों कर गए?

भारत अमेरिकी रिश्तों को क्या मिलेगी नई दिशा?

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के तीन दिवसीय दौरे ने भारतअमेरिकी रिश्तों को नई ताजगी दी है. इस दौरे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीना और भी चौड़ा हो गया है क्योंकि उन का रुतबा और कूटनीतिक प्रभाव भी बढ़ा है, देश को राजनीतिक फायदा भी होगा. दोनों देशों के बीच हुए आपसी करारों से होने वाले नफानुकसान को ले कर बहस चल पड़ी है. विरोधियों, खासतौर से वामपंथी परमाणु, व्यापार, जलवायु परिवर्तन जैसे समझौतों को ले कर मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं कि ये गरीबों पर भारी पड़ेंगे पर भाजपा और कौर्पोरेट जगत में खुशी की लहर है. अमेरिकाभारत की बढ़ती नजदीकी पड़ोसी पाकिस्तान और चीन को रास नहीं आ रही है.

25 जनवरी को व्यापारियों, अधिकारियों के बड़े लावलश्कर के साथ दिल्ली पहुंचे बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनने के बाद दूसरा भारत दौरा था. इंडिया गेट पर हुई गणतंत्र दिवस परेड को देखने के अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा का मकसद रक्षा, पर्यावरण, कारोबार जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा देना रहा. भारत ने अमेरिकी उद्योग जगत के लिए लाल कालीन बिछाने में कोईर् कसर नहीं छोड़ी. मोदीओबामा में रक्षा, व्यापार, वाणिज्य तथा जलवायु परिवर्तन जैसे अहम क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने पर सहमति हुई है. परमाणु जवाबदेही कानून में देश के भीतर परमाणु दुर्घटना होने पर कौन उत्तरदायी होगा, मुद्दे के चलते दोनों देशों के बीच जौर्ज बुश और मनमोहन सिंह के असैन्य परमाणु करार के रास्ते में ठहराव आ गया था.

अब इस यात्रा से टूटी कड़ी फिर जुड़ी है जो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन के कार्यकाल में शुरू हुई थी और जिस का चरम 2008 में परमाणु समझौता था. असल में भारतीय उत्तरदायित्व कानून परमाणु दुर्घटना के मामले में सीधे तौर पर आपूर्तिकर्ता यानी अमेरिकी कंपनियों को जवाबदेह ठहराता जबकि फ्रांस और अमेरिका ने भारत से कहा कि वह वैश्विक नियमों का पालन करे. अब मोदीओबामा में अंतिम सहमति यह जवाबदेही खत्म करने पर हो गई तथा निगरानी व्यवस्था को भी ओबामा ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए पीछे खींच लिया. अब कनाडा की तरह अमेरिका भी अंतर्राष्ट्रीय निगरानी एजेंसी आईएईए की जांच भर से खुद को संतुष्ट कर लेगा. इस सहमति पर देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हो रही है.

गुजरात और आंध्रप्रदेश  में रिएक्टर लगाने को तैयार बैठी अमेरिकी कंपनियां वेस्ंिटगहाउस और जीई हितैची अब निश्ंिचत हो कर अपना काम शुरू कर पाएंगी. अमेरिकी परमाणु उद्योग के अमेरिका में संयंत्र लगाने में अड़चनें आ रही थीं. अब वह भारत में अपना बोझ डाल सकेगा. परमाणु ऊर्जा के अलावा रक्षा क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच समझौते हुए हैं. कई उपकरणों का उत्पादन भारत में शुरू करने की योजना भी बनी है. अमेरिका दुनिया के बड़े विध्वंसक हथियार बनाने वालों में से है और वह उन की खपत के लिए ग्राहक ढूंढ़ रहा है. अमेरिकी कंपनी जीई हितैची और तोशीबा वेस्ंिटगहाउस के परमाणु रिएक्टरों की लागत 25 से 30 करोड़ के बीच की है जबकि घरेलू तकनीक से बने रिएक्टरों पर प्रति मेगावाट करीब 7 करोड़ रुपए खर्र्च आता है.

विश्व के तमाम ज्वलंत मुद्दों पर भी दोनों देशों के बीच सहमति दिखी. अफगानिस्तान, आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन तथा सुरक्षा परिषद के मुद्दों पर दोनों देशों ने एक जैसे विचार रखे हैं. ओबामा के साथ आए उद्यमियों का बड़ा काफिला भारत के साथ आर्थिक सहयोग में अमेरिकी दिलचस्पी को जाहिर करता है. यह स्वाभाविक है क्योंकि अमेरिका पिछले सालों से आर्थिक मंदी की मार से अछूता नहीं रहा. अब भी वह पूरी तरह उबर नहीं पाया है. वहां बेरोजगारी अब भी संकट बनी हुई है. ऐसे में अमेरिकी कारोबारी अपने उत्पाद के लिए नए बाजार की तलाश में हैं. अमेरिकी उद्यमियों द्वारा भारत में निवेश की संभावना कम ही थी क्योंकि यहां के कानून जटिल हैं. हालांकि मोदी सरकार ने बीमा, बैंक, प्रतिरक्षा उत्पादन जैसे क्षेत्रों में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे और ज्यादा खोलने के साथ ही विदेशी पूंजी का रास्ता साफ करने के लिए कई कदम उठाए हैं. ‘मेक इन इंडिया’ के अपने नारे के जरिए विदेशी व्यापारियों को लुभाने की कोशिश की है. अब मेड इन इंडिया के साथ मेड बाई अमेरिका बन जाएगा.

उम्मीदें और आशंका

ओबामा की भारत यात्रा से उम्मीदों के अलावा कुछ आशंकाएं भी हैं. हथियारों की खरीद और साझा विकास के लिए अमेरिका किस हद तक भारत को तकनीक और विशेषज्ञता देगा, इस मामले में रूस भारत का भरोसेमंद सप्लायर रहा है. हालांकि रूस ने सदा महंगा व खराब सामान दिया है. भारत को दोनों देशों के बीच संतुलन कायम रखना होगा. जलवायु परिवर्तन पर चीन और अमेरिका ने जैसा समझौता किया है वैसा ही करने पर दबाव भारत पर पड़ रहा है. पर भारत आर्थिक विकास की जरूरतों की अनदेखी नहीं करना चाहता. बौद्धिक संपदा अधिकारों पर भारत कितनी नरमी दिखा पाएगा, यह देखना होगा. भारत दवाओं और अन्य मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज नहीं कर सकता.

अमेरिका ने भारत के नियामक और कर व्यवस्था में लगातार सरलता की बात उठाई है. प्रधानमंत्री को जीएसटी, प्रत्यक्ष कर संहिता जैसे मसलों पर राज्यों को साथ लाना होगा. पड़ोसी देश पाकिस्तान आतंक फैलाने की योजना बना कर कई ऐसे प्रयास कर रहा था कि ओबामा का दौरा रद्द हो जाए लेकिन भारत दौरे से पहले बराक ओबामा ने पाकिस्तान को यह साफ संकेत कर दिया था कि वह भारत में आतंक फैलाना बंद करे या फिर अंजाम भुगतने को तैयार रहे. अमेरिका और भारत मिल कर क्या कर सकते हैं, यह अस्पष्ट है पर अमेरिका आर्थिक सहायता पाकिस्तान को न दे तो वहां के अमीरों की हालत पतली हो जाएगी.

ओबामा की भारत यात्रा पर पड़ोसी देशों में अपेक्षित प्रतिक्रियाएं हुईं. पाकिस्तान ने अपने सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ को चीन के दौरे पर भेजा. चीन सरकार यह सोचती है कि अमेरिका और भारत मिल कर उसे घेरने की रणनीति बना रहे हैं, इसलिए चीन ने औपचारिक रूप से इस यात्रा में परमाणु सहयोग को ले कर आलोचना की है. चीन के सरकारी मीडिया द्वारा अमेरिकाभारत के नए रिश्तों को चीन के उभार को रोकने की रणनीति करार दिया गया. चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने कहा है कि पश्चिम ने एक निश्चित तरीके का चिंतन पैदा किया है और इसे बढ़ाचढ़ा कर पेश किया जा रहा है. वह निहित स्वार्थ से चीनी ड्रैगन और भारतीय हाथी को स्वाभाविक विरोधी मानता है.

अखबार में भारत को आगाह करते हुए कहा गया है कि पश्चिम भारत को अपने पड़ोसी देशों की तरफ से पेश खतरों के लिए पूरी तरह तैयार होने के लिए उकसा रहा है और जाल बिछाने की कोशिश की जा रही है. हालांकि भारत नहीं चाहता पर पश्चिमी प्रभाव से वह उधर फिसल रहा है. दक्षिण और पूर्वी चीन सागर को ले कर भारतअमेरिका के साझे बयान से भी चीन की त्योरियां चढ़ गईं. वह चीन सागर को अपनी ऐतिहासिक बपौती मानता है जबकि भारतअमेरिका वहां अंतर्राष्ट्रीय कानूनों वाली व्यवस्था के हिमायती हैं. नरेंद्र मोदी ने जब प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तब उन की विदेश नीति को ले कर कई प्रकार की आशंकाएं थीं पर बहुत कम समय में ही मोदी ने अमेरिका, चीन, जापान, रूस,  नेपाल, भूटान और आस्ट्रेलिया जैसे देशों से भारत के संबंधों पर टेप लगवा लिया है.

एक वक्त वह था जब गुजरात दंगों के बाद अमेरिका ने मोदी को वीजा देने से इनकार कर दिया था. इन दंगों को ले कर उन के बारे में कई तरह के संशय थे. लेकिन धीरेधीरे चुनावी जीत और बतौर प्रधानमंत्री उन की विदेश नीतियों के चलते मोदी की छवि सकारात्मक रुख लेने लगी. कुछ मामलों के चलते नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों को ले कर आशंकाएं थीं पर पिछले दिनों मोदी की अमेरिकी यात्रा और अब ओबामा के दौरे से जिस तरह का माहौल बना है उस से उन तमाम आशंकाओं का समाधान हो गया है. अब वही अमेरिका मोदी की तारीफ करते नहीं थक रहा है.

मोदी ने जिस तरह से ओबामा के सामने भारत को पेश किया है उस से विश्वास और उम्मीदों का  माहौल बना है. आज विकसित देशों में केवल अमेरिका की अर्थव्यवस्था तरक्की कर रही है. भारत की अर्थव्यवस्था के भी तेजी से विकसित हो रहे देशों में अव्वल रहने की उम्मीदें जताई जा रही हैं. दक्षिण एशिया ही नहीं, एशिया, हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में दोनों देशों के सहयोग का रणनीतिक व सामरिक दृष्टि से महत्त्व जगजाहिर है. आशा की जा सकती है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के इस दौरे के दौरान हुए परस्पर समझौते और वादे सकारात्मक व दूरगामी नतीजे देंगे.

बिंब प्रतिबिंब

ऐश की खुशी का राज

यह फैसला जरा देरी से आया वरना ऐश्वर्या राय बच्चन आज से ज्यादा खुश होतीं. दरअसल, मिस वर्ल्ड सौंदर्य प्रतियोगिता की अध्यक्ष जूलिया मार्ले ने अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा से बिकिनी राउंड हटाने का निर्णय किया है. उन के मुताबिक, इस राउंड से न तो महिलाओं और न ही हम में से किसी का फायदा होता है, ऐसे में इस को हटाया जाना ही उचित था. जूलिया के इस फैसले का स्वागत करते हुए ऐश्वर्या कहती हैं कि यह बिलकुल ठीक फैसला लिया गया है. जब 1994 में वे इस प्रतियोगिता में बतौर प्रतियोगी भाग ले रही थीं तो बिकिनी के लिहाज से उन की बौडी सर्वश्रेष्ठ नहीं थी, ऐसा मानती हैं खुद ऐश्वर्या, बावजूद इस के उस साल मिस वर्ल्ड का खिताब उन्होंने ही जीता. ऐसे में वे बिकिनी राउंड को निर्णायक भी नहीं मानतीं.

*

लव जिहाद और करीना

विश्व हिंदू परिषद की महिला शाखा दुर्गा वाहिनी ने लव जिहाद के मुद्दे को फिर से हवा दी है. इस बार इस संगठन ने निशाना बनाया है बौलीवुड अभिनेत्री करीना कपूर को. संगठन ने एक कैंपेन के तहत लव जिहाद के खिलाफ आवाज उठाते हुए एक पत्रिका जारी की है. यहां तक तो ठीक था लेकिन कवर पर करीना कपूर की विवादास्पद तसवीर लगा कर संगठन सस्ती लोकप्रियता बटोरने पर आमादा दिखता है. तभी तो पत्रिका के कवर पर करीना कपूर की तसवीर में आधा चेहरा हिंदू महिला का, जिस में उन के माथे पर सिंदूर है जबकि आधे चेहरे पर बुरकानुमा नकाब है. वीएचपी नेता कोर्टकचहरी का विकल्प होने की बात भले ही करते हों लेकिन बिना इजाजत, करीना की तसवीर का इस्तेमाल करना जायज नहीं ठहराया जा सकता.

*

परदे पर बाल ठाकरे

इन दिनों चाहे सियासी हस्ती हो या धार्मिक गुरु, सब को फिल्मी परदे पर दिखने का शौक चढ़ा है. डेरा सच्चा सौदा के विवादास्पद प्रमुख बाबा रामरहीम खुद के पैसे और अभिनय से सजी फिल्म ‘मैसेंजर औफ गौड’ ले कर आए हैं वहीं, शिवसेना प्रमुख रहे बाल ठाकरे पर एक मराठी फिल्म बन चुकी है. ‘बालकडू’ नाम की इस फिल्म का पिछले दिनों म्यूजिक रिलीज इवैंट हुआ. इस दौरान बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे व शिवसेना सांसद संजय राउत भी मौजूद थे. फिल्म में बाल ठाकरे की पुरानी राजनीतिक रैलियों से असल आवाज उठा कर वौयसओवर के तौर पर डाली गई है जो फिल्म में समयसमय पर सुनाई देती है.

*

बाफ्टा में लंच बौक्स

इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी व निमरत कौर अभिनीत फिल्म ‘द लंच बौक्स’  ने एक और उपलब्धि हासिल करते हुए ब्रिटेन के औस्कर कहे जाने वाले अवार्ड समारोह बाफ्टा (ब्रिटिश एकेडमी फिल्म ऐंड टैलीविजन आर्ट्स) 2015 में नामांकन हासिल कर लिया है. बाफ्टा में ‘द लंच बौक्स’ को ‘बैस्ट फौरेन लैंग्वेज’ श्रेणी में नौमिनेट किया गया है. निर्देशक रितेश इसे अपनी सब से बड़ी उपलब्धि बताते हुए कहते हैं कि दुनिया की बेहतरीन फिल्मों के बीच मेरी फिल्म को नौमिनेशन मिलना मेरे व टीम के लिए गर्व की बात है. विदित हो कि इस कैटेगिरी में ‘द लंच बौक्स’ के साथ पोलैंड-डेनमार्क, रशिया, ब्राजील व बेल्जियम की फिल्में टक्कर में हैं.

खेल खिलाड़ी

एक समय था जब खिलाडि़यों के लिए उन का सब से बड़ा सम्मान उन का ट्रौफी या मैडल हुआ करता था लेकिन बदलते वक्त के साथ इन की भी फितरत बदल गई है. अब ये सरकारी पुरस्कारों को ही सब से बड़ा मैडल मानने लगे हैं. शायद इसीलिए अब वे मैदान में मैडलों के लिए जुझारूपन दिखाने के बजाय मैदान के बाहर सम्मान या पुरस्कार पाने के लिए ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं. कुछ महीने पहले अर्जुन पुरस्कार के लिए विवाद हुआ था और अब पद्मभूषण के लिए मामला गरमाया हुआ है. इस बार भारतीय बैडमिंटन की स्टार सायना नेहवाल को ले कर विवाद खड़ा हो गया. सायना ने अपना स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि उन्होंने कभी भी सम्मान की मांग नहीं की. उन का सवाल सिर्फ इतना था कि उन का नाम गृह मंत्रालय में क्यों नहीं भेजा गया. किसी भी खिलाड़ी को सम्मान उस के योगदान को देख कर दिया जाता है, यह बात सायना को भी मालूम है पर उन्हें यह समझने की जरूरत है कि इस के लिए किसी सिफारिश या आवेदन की जरूरत नहीं होती है. ऐसा भी नहीं है कि सायना को सम्मान नहीं दिया गया है. उन्हें वर्ष 2009 में अर्जुन अवार्ड और वर्ष 2010 में देश का सर्वोच्च खेल पुरस्कार राजीव गांधी खेलरत्न तथा पद्मश्री अवार्ड मिल चुके हैं. बावजूद इस के, एक पुरस्कार की दावेदारी में अपने नाम न आने पर बखेड़ा खड़ा करना उन की जैसी प्रतिभावान खिलाड़ी को शोभा नहीं देता.

दरअसल, आज के खिलाडि़यों को अब खेल की भूख कम, अवार्डों की भूख ज्यादा लगने लगी है. ओलिंपिक या राष्ट्रमंडल खेल में एक पदक हासिल किया नहीं कि अवार्ड्स के लिए हल्ला शुरू कर देते हैं. यह भी सही है कि अवार्ड्स के मामले में खेल मंत्रालय से ले कर खेल संघों के बीच गुटबंदी इतनी है कि खिलाड़ी अपने आकाओं को खुश करने के लिए चमचागीरी में लग जाते हैं ताकि उन का नाम अवार्ड के लिए आगे भेजा जाए. सम्मान मिलना वाकई गर्व की बात होती है. लेकिन सम्मान अपनेआप पैदा होता है, आप उसे जबरन पैदा नहीं कर सकते. यह तो किसी हस्ती को उन के योगदानों को देखते हुए दिया जाता है. इस के लिए किसी की सिफारिश या मीडिया में शोरगुल करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. माना कि देश में चमचागीरी, राजनीति और खेमेबाजी के चलते खेल और खिलाडि़यों के साथ पक्षपात होता है लेकिन एक खिलाड़ी की सच्ची प्रतिभा, हुनर कोे बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता, उसे जाहिर होना ही है.

*

नए युग की शुरुआत

आस्ट्रेलिया और भारत के बीच 4 टैस्ट मैचों की सीरीज आस्ट्रेलिया ने 2-0 से जीत ली है. भारत की तरफ से युवा बल्लेबाजों ने आस्ट्रेलिया की बाउंस पिच पर अच्छा प्रदर्शन किया, वहीं हमेशा की तरह गेंदबाजों ने निराश किया. हार और जीत की बात छोड़ दें तो यह सीरीज विराट कोहिली के लिए अहम थी क्योंकि महेंद्र सिंह धौनी के टैस्ट कैरियर से संन्यास लेने के बाद कोहिली को यह साबित करना था कि वे अब कप्तानी के लिए परिपक्व हो चुके हैं. टीम इंडिया को लो और्डर बैट्समैन के लिए सोचना नहीं पड़ेगा क्योंकि भुवनेश्वर इस सीरीज में बेहतर विकल्प बन कर उभरे हैं. अजिंक्य रहाणे, मुरली विजय के साथ लोकेश राहुल ने भी अपने को साबित कर दिखाया कि वे भी विदेशी पिचों पर अपना कमाल दिखा सकते हैं.

यानी विराट कोहिली की सेना में ऐसे खिलाड़ी भी हैं जो जरूरत पड़ने पर मैच को बचा सकते हैं लेकिन टीम इंडिया की परेशानी शुरू से ही खराब गेंदबाजी रही है, खासकर विदेशी पिचों पर. ईशांत शर्मा, उमेश यादव, भुवनेश्वर कुमार, मोहम्मद शमी और रविचंद्रन अश्विन सभी चारों टैस्ट मैचों में आस्ट्रेलिया के 20 विकेट झटकने में असफल रहे. नए गेंदबाजों को घरेलू क्रिकेट में तलाशना होगा. वैसे देखा जाए तो यह सीरीज हमेशा याद की जाएगी क्योंकि युवा आस्ट्रेलियाई खिलाड़ी फिलिप ह्यूज की आकस्मिक मौत के बाद सीरीज पर ग्रहण लगता नजर आ रहा था. मानसिक रूप से कोई खिलाड़ी खेलना नहीं चाह रहा था पर कार्यक्रम में फेरबदल कर इसे शुरू किया गया. फिर मेलबर्न टैस्ट के बाद भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धौनी ने टैस्ट से संन्यास की घोषणा कर दी, जो चौंकाने वाला था. उस के बाद आस्ट्रेलियाई कप्तान माइकल क्लार्क अनफिट हो गए. ऐसे में दोनों टैस्ट टीमों के लिए नए कप्तानों की घोषणा करनी पड़ी. मुश्किल दौर में जिस तरह से युवा खिलाडि़यों ने अपनी प्रतिभा दिखाई, उसे देख कर विशेषज्ञों ने इसे क्रिकेट में नए युग का उदय माना.

चंचल छाया

अगली

यह डार्क फिल्म हर किसी के मतलब की नहीं है, पर इस का मजा और ही है. जो इसे पचा सके, वे इस फिल्म को बहुत सराह सकते हैं. ‘अगली’ पूरी तरह से अनुराग कश्यप टाइप की फिल्म है. उन्होंने ‘गैंग्स औफ वासेपुर’ फिल्म से दर्शकों में अपनी खासी पैठ बना ली है. ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ डार्क शेडेड फिल्में ही बनाते हैं. बतौर निर्माता ‘लव शव ते चिकन खुराना’ में उन्होंने दर्शकों को अपनी अलग ही प्रतिभा दिखाई.

वैसे ‘अगली’ फिल्म इतनी ज्यादा अगली यानी गंदी भी नहीं है. पूरी फिल्म 10 साल की एक बच्ची की किडनैपिंग और पुलिस की तहकीकात पर आधारित है. कहानी मुंबई शहर की है, जहां एसीपी शौमिक बोस (रोनित राय) अपनी पत्नी शालिनी (तेजस्विनी कोल्हापुरे) के साथ रहता है. शौमिक से पहले ऐक्टर राहुल कपूर (राहुल भट्ट) शालिनी का पति था. उन की बेटी कली (अंशिका श्रीवास्तव) है. दोनों के बीच तलाक हो गया था. शौमिक ने शालिनी का फोन सर्विलांस पर लगा रखा है. राहुल कपूर अपनी बेटी कली से हर शनिवार मिलने आता है. एक शनिवार वह कली को साथ ले कर अपने दोस्त कास्ंटग डायरैक्टर के घर जाता है. लेकिन वह कली को ऊपर साथ नहीं ले जाता और कार में अकेला छोड़ जाता है. वापस लौटने पर कली गायब हो चुकी होती है. अब हर पात्र इस किडनैपिंग, पुराने गिलेशिकवे या आर्थिक लाभ उठाने की कोशिश करता है. एसीपी शौमिक को लगता है कि कली का अपहरण राहुल कपूर ने ही कराया है. शालिनी भी ऐसा ही मानती है. शौमिक तहकीकात शुरू करता है.

फिरौती की रकम मांगने वालों में शालिनी का भाई सिद्धांत यानी लड़की का मामा और राहुल का ही दोस्त चैतन्य और उस की डांसर गर्लफ्रैंड राखी (सुरवीन चावला) हैं. लेकिन कली फिर भी नहीं मिलती. शालिनी चाहती है कि फिरौती का पैसा उस का पिता दे दे और राहुल का दोस्त चैतन्य कहता है कि शालिनी का नया पति पुलिस अफसर पैसों का इंतजाम करे. इन दोनों के पास कली है या नहीं, यह अंत में पता चलता है. अंत में कली की लाश मिलती है जिसे किसी बच्चे उठाने वाले गैंग ने उठाया था और उसे बेहोश कर छोड़ दिया था. तब उसे महसूस होता है कि कली को बचाया जा सकता था. हालांकि कहानी का कोई सिरपैर नहीं है पर है भी क्योंकि यह तलाकशुदा पतिपत्नी राहुल और शालिनी, नए पतिपत्नी शालिनी और पुलिस अफसर शौमिक, क्लासमेट रहे शौमिक और राहुल, राहुल और उस के दोस्त चैतन्य, शालिनी और उस के भाई सिद्धांत, शालिनी और सिद्धांत के अमीर पिता के संबंधों का रोचक पर कड़क चित्रण करती है. जीवन के काले रंग कितने गहरे और कितने वीभत्स हो सकते हैं, इन्हें रोचक ढंग से फिल्माया गया है. अनुराग कश्यप ने पुलिस तहकीकात से सोचसमझ वाले दर्शकों को कुछ हद तक बांधे रखा है और सस्पैंस बनाए रखा है. एक कड़क पुलिस अफसर की भूमिका में रोनित राय ने बहुत बढि़या ऐक्ंटग की है. तेजस्विनी कोल्हापुरे और राहुल भट्ट ने भी अच्छा काम किया है. सुरवीन चावला ने छोटी सी भूमिका में सैक्सी अदाएं बिखेरी हैं. यह फिल्म बहुत कम पैसों में, लगभग 5 करोड़ रुपए में बनी है, इसलिए इस में ज्यादा ताम झाम नहीं है. फिल्म के क्लाइमैक्स में एक कविता सुनाई पड़ती है. पूरी फिल्म में हिंसात्मक दृश्य भरे पड़े हैं. इन से बचा जा सकता था.

*

टेक इट ईजी

यह फिल्म बच्चों पर बनी है पर बच्चों से ज्यादा मातापिताओं के मतलब की है और सच कहें तो उन की आंखें खोलने वाली फिल्म है. लेकिन इस से उन्हें कोई सीख मिलेगी, यह भूल जाइए. साथ ही यह आज के पब्लिक स्कूल और पांचसितारा कहलाए जाने वाले स्कूलों को कोसती भी नजर आती है. आज मातापिता अपने बच्चों पर हर वक्त यह प्रैशर बनाए रहते हैं कि उन्हें फर्स्ट आना है, 95 प्रतिशत मार्क्स लाने हैं. वे अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को बच्चों पर थोपते नजर आते हैं. बच्चे को बड़ा हो कर क्या बनना है, यह मांबाप तय करते हैं. एक बार अगर बच्चा फर्स्ट आ भी जाता है तो मम्मीपापा हर बार उस से फर्स्ट आने की उम्मीद लगाए रहते हैं. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि सुपीरियर और इन्फीरियर का यह कंपीटिशन मासूमों के दिलों में नफरत भी भर सकता है.

मातापिताओं को सीख देने वाली ऐसी ही कुछ और फिल्में पहले भी आ चुकी हैं. इन में आमिर खान की ‘तारे जमीं पर’ और शाहिद कपूर की ‘पाठशाला’ प्रमुख थीं. इस फिल्म के निर्देशक ने बेशक एक अच्छा विषय चुना है लेकिन अनुभवहीन कलाकारों के अभिनय और फिल्म को पेश करने के ढंग के कारण फिल्म का कुछ हिस्सा ही दर्शकों को बांधे रखता है, खासकर फिल्म का आखिरी आधे घंटे का हिस्सा. क्लाइमैक्स में मातापिताओं को जो सीख दी गई है उस में लफ्फाजी ज्यादा है. फिर भी ‘टेक इट ईजी.’ एक बार इसे देख लें. फिल्म की कहानी 2 स्कूली बच्चों रघु (यश धानेकर) और अजय (प्रसाद रेड्डी) की है. वे एक पांचसितारा अंगरेजी स्कूल में पढ़ते हैं. रघु के पिता आजाद (राज जुत्शी) अपने जमाने के प्रसिद्ध ऐथलीट थे. वे 4 बार एशियाड चैंपियन रह चुके थे, अब अपाहिज हैं. रघु को अपने पिता की वजह से उस स्कूल में ऐडमिशन मिला है. वे रघु को भी ऐथलीट बनाना चाहते हैं. अजय के पिता एक मल्टीनैशनल कंपनी में काम करते हैं. अजय पर हर वक्त क्लास में प्रथम आने का प्रैशर रहता है.

एक दिन रघु और अजय स्कूल के खेल के मैदान में आमनेसामने होते हैं. दोनों रेस में  फर्स्ट आना चाहते हैं. अगर रघु रेस जीतता है तो उसे और उस की बहन को स्कूल में आगे पढ़ने दिया जाएगा. और अगर अजय रेस जीतता है तो उसे स्कौलरशिप मिलेगी. स्कूल की चेयरपर्सन (सुप्रिया कार्निक) किसी भी कीमत पर रघु को हारते हुए देखना चाहती हैं. वह अजय के मांबाप पर उस के जीतने का प्रैशर बनाती है. रेस शुरू होती है. बचपन से ही कमजोर दिल वाला रघु ट्रैक पर गिर पड़ता है लेकिन रेस में शामिल सभी अन्य प्रतियोगी छात्र रघु को कंधों पर उठा कर रेस पूरी कर एक मिसाल कायम करते हैं. मध्यांतर से पहले फिल्म में रघु और अजय के परिवार वालों का अपने बच्चों पर प्रथम आने का हर वक्त दबाव बनाए रखना ही दिखाया गया है. असली कहानी तो मध्यांतर के बाद शुरू होती है. लेकिन यहां छात्रों द्वारा रामलीला का मंचन करना और उस में उलटेसीधे संवाद बोलना निर्देशक का विषय से हट जाना दर्शाता है. निर्देशक ने मांबाप की दिक्कतों को भी दिखाया है. अजय के पिता अपने बेटे को एस्ट्रोनौट बनाना चाहते हैं. दूसरी ओर एक नाकाम ऐथलीट अपने बेटे के जरिए अपने सपने सच करना चाहता है.

निर्देशक ने क्लाइमैक्स में रेसिंग ट्रैक पर दोनों प्रतिस्पर्धी बच्चों को दौड़ाया जरूर है लेकिन वह फिल्म में वैसा टैंपो पैदा नहीं कर पाया है जो ‘भाग मिल्खा भाग’ में था. अभिनय की दृष्टि से कहें तो बच्चे अभिनय के कच्चे हैं. बड़े कलाकार भी असर नहीं छोड़ पाते. गीतसंगीत तो मानो है ही नहीं. छायांकन अच्छा है.

*
बदलापुर बौयज

बौलीवुड में हौकी, क्रिकेट, मुक्केबाजी, फुटबाल जैसे जानेमाने खेलों पर कई फिल्में बन चुकी हैं, मगर आज तक कबड्डी पर किसी ने ध्यान नहीं दिया. देश में इस साल कबड्डी लीग प्रीमियर का आयोजन होने पर बौलीवुड वालों का ध्यान इस पर केंद्रित हुआ और फटाफट ‘बदलापुर बौयज’ जैसी बेसिरपैर की फिल्म बना डाली गई. बेशक यह कबड्डी पर बनी पहली फिल्म है लेकिन इसे इतने ज्यादा बचकाने तरीके से बनाया गया है कि यह दर्शकों पर प्रभाव नहीं छोड़ पाती. ‘बदलापुर बौयज’ 2009 में आई तमिल फिल्म ‘वेनिल्ला कबड्डी खुजू’ की रीमेक है. अन्य खेलों की तरह कबड्डी के खेल में भी राजनीति की घुसपैठ को इस फिल्म में प्रमुखता से दिखाया गया है. लेकिन फिल्म की पटकथा और कबड्डी टीम के कमजोर किरदारों के कारण फिल्म बेअसर है. फिल्म की कहानी एक गांव बदलापुर से शुरू होती है. वहां के लोग जिला कलैक्टर से नहर खुदवाने की मांग कर रहे हैं. गांव का एक आदमी जिला प्रशासन के विरोध में आत्मदाह कर लेता है. उस का 5 साल का बेटा विजय (निशान) एक जमींदार के यहां काम करने लगता है.

विजय को कबड्डी खेलने का शौक है. एक दिन गांव में राष्ट्रीय कबड्डी कोच सूरजभान सिंह (अन्नू कपूर) का आना होता है. वह विजय को कबड्डी खेलते देखता है तो उस से प्रभावित होता है. एक दिन गांव की फिसड्डी कबड्डी टीम को एक टूर्नामैंट खेलने के लिए इलाहाबाद जाना पड़ता है. किसी तरह कबड्डी टीम को टूर्नामैंट में एंट्री मिल जाती है. कोच सूरजभान सिंह इस गांव की टीम का कोच बन जाता है. यह टीम फाइनल तक पहुंच जाती है. विजय का एक ही लक्ष्य है कि बदलापुर की टीम जीते और वह मुख्यमंत्री के करीब जाए और गांव की नहर वाली फाइल उन तक पहुंचाए. आखिरकार बदलापुर की टीम जीत जाती है लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है. गंभीर चोट लगने के कारण विजय की मौत हो जाती है. मरतेमरते विजय अपनी बात मुख्यमंत्री तक पहुंचा ही जाता है.

फिल्म में सिवा अन्नू कपूर और अमन वर्मा के सभी कलाकार नए हैं. निर्देशक उन से सही ढंग से काम नहीं ले पाया है. क्लाइमैक्स में भी सिवा ड्रामे के कुछ नहीं है. निर्देशक कबड्डी के खेल में घुसी राजनीति को भी असरदायक ढंग से नहीं दिखा सका है. गीतसंगीत बेकार है. छायांकन ठीकठाक है.

मैं सामाजिक ठेकेदार नहीं : अनुराग कश्यप

निर्देशक महेश भट्ट को प्रेरणा स्रोत मानने वाले फिल्मकार अनुराग कश्यप ने फिल्म ‘गैंग औफ वासेपुर’ से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अलग पहचान बनाई थी. उस के बाद से वे अपनी हर फिल्म को अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों को ध्यान में रख कर ही गढ़ते हैं. कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में सराहना बटोर रही उन की फिल्म ‘अगली’ अब भारत में रिलीज हो चुकी है. इस में उन्होंने इंसान के अंदर की कू्ररता, छल, कपट और स्वार्थ पर से परदा उठाया है. मजेदार बात यह है कि अनुराग कश्यप ने सरकार व सैंसर बोर्ड के फिल्म के दौरान स्मोकिंग के दृश्यों के वक्त परदे पर ‘धूम्रपान सेहत के लिए खतरनाक है’ वाक्य लिखने के नियम के खिलाफ अदालती लड़ाई शुरू की थी. उस वक्त उन्होंने कहा था कि वे इस मुद्दे पर अदालत का निर्णय आने के बाद ही फिल्म ‘अगली’ को रिलीज करेंगे. पर अदालती लड़ाई हारने के बाद उन्होंने फिल्म रिलीज कर दी. पेश हैं उन से बातचीत के मुख्य अंश.

आखिरकार आप ने स्मोकिंग के मुद्दे पर अपनी लड़ाई खत्म कर फिल्म को रिलीज कर ही दिया?

मैं ने जो मुद्दा उठाया है उस से मैं ने समझौता नहीं किया है. मगर मुझे अपनी फिल्म को बहुत ज्यादा समय तक डब्बे में बंद रखना उचित नहीं लगा. यह फिल्म कई ‘इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल्स’ में धूम मचा चुकी है. लोग इस फिल्म को ले कर उत्सुक थे. मैं नहीं चाहता था कि मेरी पिछली फिल्म ‘पांच’ की ही तरह ‘अगली’ भी डब्बे में बंद रहे. मैं ने इस फिल्म में अभिनय करने वाले कलाकारों का भी खयाल करते हुए इस फिल्म को थिएटर में ले जाने का निर्णय लिया.

‘अगली’ को दर्शकों ने उतना पसंद नहीं किया जितनी उम्मीद की जा रही थी?

‘अगली’ फिल्म एक डार्क फिल्म है. इस तरह की फिल्में धीरेधीरे दर्शकों के बीच अपनी पैठ बनाती हैं. फिल्म प्यार, दोस्ती सहित हर मानवीय रिश्ते पर गहरी चोट करती है. मैं ने इस फिल्म में मानवीय रिश्तों की उन विषम स्थितियों को कहानी में पिरोया है, जिन्हें अमूमन दूसरे फिल्मकार समाज का स्याह पक्ष मान कर छोड़ देते हैं.

फिल्म देखने के बाद यह बात उभर कर आती है कि इंसान को किसी भी रिश्ते पर यकीन नहीं करना चाहिए?

मैं ने कोई निर्णय नहीं सुनाया है. मैं ने फिल्म के अंदर एक 9 साल की लड़की के लापता होने के बाद परिजनों के बीच आपसी दुश्मनी, खींचतान, स्वार्थ, लालच और रिश्तों की कमजोरियों का चित्रण किया है. हम ने सवाल उठाया है कि जिस समाज में हम खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं, उस समाज में बच्चे कितने सुरक्षित हो सकते हैं.

किस बात ने सब से ज्यादा विचलित किया कि आप ने ‘अगली’ बनाने का निर्णय लिया?

हमें बहुत सी बातें विचलित करती हैं. सब से ज्यादा हमें हमारे अंदर की हीनभावना विचलित करती है. हर इंसान अपने अंदर हीन भावना ले कर घूमता है और उसे सत्य बना कर, उस में चढ़ कर, उसे सच साबित करने पर लगा रहता है. दिल्ली में जो घटना घटी, उस के लिए सारा दोष टैक्सी कंपनी पर डाल कर लोग चुप हो गए. इस टैक्सी कंपनी के आने से 10 लोगों को तकलीफ थी, उन्हें सिर्फ मौका ही चाहिए था. उन की समस्या खत्म हो गई. पर उन्हें दूसरे अभाव तो दिखते नहीं हैं. सिर्फ इकोनौमी डैवलप करने से, बाकी कुछ नहीं करने से कोई समस्या हल नहीं होगी. अमीर व गरीब के बीच का गैप इतना बढ़ता जा रहा है तो वह गुस्सा कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में तो निकलेगा ही.

आप को नहीं लगता कि हमारे यहां लोगों में हीरोइज्म की लत बढ़ती जा रही है?

हमारे यहां हीरोइज्म बिना किसी वजह के है. हमारा हीरोइज्म बिना जिम्मेदारी वाला है. यहां लोग सोचते हैं कि हम हीरो बन गए, तो हमें हीरोइन मिलेगी. इंसान यह नहीं सोचता कि जब आप कुछ करते हैं या कोई जिम्मेदारी उठाते हैं, तो उस की प्रतिक्रिया भी होती है. लोगों को सही शिक्षा मिले, तो सबकुछ अपनेआप बदल जाएगा. फिर लोगों को यह बात भी समझ में आ जाएगी कि सिनेमा सिर्फ मनोरंजन है, जो परदे पर ही अच्छा लगता है. निजी जिंदगी में यदि आप हीरोगीरी दिखाते हैं तो उस के परिणाम भुगतने ही पड़ते हैं.

सिनेमा में बदलते हीरोइज्म पर आप की क्या सोच है?

अब सिनेमा में हीरोइज्म नहीं होता है. पहले अमिताभ बच्चन का मिडल क्लास का हीरोइज्म था. पहली बार एक वर्किंग क्लास का हीरो परदे पर आया था. उस का समय के अनुरूप गुस्सा बाहर निकला और लोगों ने उस के साथ रिलेट किया. वह एंटी नैरोबियन हीरो था. वह कम से कम उस वक्त की कुछ बात कह रहा था. मगर आज की तारीख में कोई भी फिल्मी पात्र कुछ नहीं कह रहा.

आप मानते हैं कि आज के हीरो एस्केपिस्ट हो गए हैं?

आज के सभी हीरो एस्केपिस्ट हैं. आज का फिल्मी हीरो हीरोइन के साथ गीत गाने व गुंडों को मारने के अलावा कुछ नहीं करता. आज का हीरो अपनी बौडी बनाता है. पहले का हीरो बौडी नहीं बनाता था बल्कि वह लोगों से जुड़े मुद्दों व समस्याओं के लिए लड़ता था.

आप के लिए सिनेमा क्या माने रखता है?

सिनेमा बहुत बड़ा और सशक्त माध्यम है. हम सिनेमा के माध्यम से कुछ भी कह सकते हैं, किसी भी बात को लोगों तक ले जा सकते हैं. सिनेमा अपनेआप में बहुत एक्साइटिंग मीडियम है. इसे बनाने में भी आनंद आता है. 2 घंटे तक लोगों को सिनेमाघर के अंदर बैठाए रखना भी चुनौती है. मगर इन दिनों आदमी के अंदर का सारा मलाल ट्विटर व फेसबुक पर आ रहा है. कहने के लिए कुछ बचा ही नहीं.

आप भी ट्विटर पर बहुत सक्रिय हैं?

मैं ने अब छोड़ दिया. ट्विटर पर बहुत कुछ उड़ेलने के बाद मुझे लगा कि मेरे अंदर कुछ बच ही नहीं रहा है.

फिल्मों से जुड़े लोग भी सोशल मीडिया में अपनी फिल्मों को प्रमोट कर बौक्स औफिस कलैक्शन को बढ़ाने की बात सोच रहे हैं?

बौक्स औफिस के आंकड़े नहीं बदलते मगर फिल्म को ले कर अवेयरनैस बढ़ती है, जैसे कि मेरी फिल्मों के दर्शक वे नहीं हैं जोकि टीवी देखते हैं. मेरी फिल्म को यदि मैं टीवी पर प्रमोट करूंगा तो दर्शक नहीं मिलेंगे पर इंटरनैट पर यदि मैं अपनी फिल्म को प्रमोट करता हूं तो दर्शक मिल जाएंगे. फिल्म किस तरह की है, उस पर भी काफीकुछ निर्भर करता है. पर अब हर फिल्मकार व कलाकार अपनी आत्मसंतुष्टि के लिए ट्विटर व फेसबुक पर खुद को प्रमोट करने लगा है.

क्या वास्तव में सिनेमा बदला?

सिनेमा और दर्शक दोनों बदल रहे हैं. कुछ अच्छे के लिए तो कुछ बुरे के लिए, मगर बदल रहे हैं. अब मेनस्ट्रीम में हर बड़ी फिल्म एकजैसी लगती है. इन फिल्मों से कंटैंट गायब हो गया. तो दूसरी तरफ अब छोटाछोटा सिनेमा बन रहा है. आप नजर दौड़ाएंगे तो पाएंगे कि इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल्स में भारत की छोटी फिल्में काफी हावी हैं. पिछले साल सनडांस इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में ‘लायर्स डायस’ थी. यह फिल्म 12 अवार्ड बटोर चुकी है. फिल्म ‘कोर्ट’ या ‘किला’ ने जितने अवार्ड जीते हैं, वह अपनेआप में इतिहास है. पर इस तरह के सिनेमा यानी कंटैंट वाली फिल्मों की चर्चा मीडिया भी नहीं करता.

इन दिनों सिनेमा जगत में वुमेन इंपावरमैंट की काफी बातें हो रही हैं?

वुमेन इंपावरमैंट को ले कर सिर्फ बातें होती हैं, बाकी कुछ नहीं. मैं इस पर फिल्म नहीं बनाना चाहता. यह मेरी जिम्मेदारी नहीं. मैं औरतों को अपनी जिंदगी में जिस तरह से देखता हूं उसी तरह से औरतों को अपने सिनेमा में पेश करता हूं. वुमेन इंपावरमैंट के लिए सही मानों में काम करने वाले लोग फेसबुक व ट्विटर पर आ कर चिल्लाते नहीं हैं.

सिगरेट कंपनियों के निशाने पर महिलाएं

दक्षिण कोलकाता के एक चौराहे पर चाय की एक गुमटी. आमनेसामने रखी बैंचों पर हाथों में चाय के कुल्हड़ लिए लड़केलड़कियों का समूह. उन के मध्य राष्ट्रीयअंतर्राष्ट्रीय राजनीति से ले कर फैशन, औनलाइन शौपिंग, लेटेस्ट टैक्नोलौजी, कैरियर जैसे विषयों पर बहस चल रही है. कुल मिला कर बंगाल में जिसे चाय के ‘प्याले में तूफान’ के रूप में जाना जाता है, वह अड्डा अपने पूरे शबाब पर है. अचानक इशिता ने जींस की पौकेट से ‘लाइट’ सिगरेट का एक पैकेट निकाला और मीना की ओर बढ़ाया. ग्रुप में राजदीप भी है, जिस का सिगरेट और इस के धुएं से छत्तीस का आंकड़ा है. लड़कियों के सिगरेट पीने के तो वह घोर खिलाफ है.

बहस का मुद्दा हर तरफ से सिमट कर लड़कियों के सिगरेट पीने की ओर मुड़ गया. इशिता सिगरेट पीने के पक्ष में तर्क दिए जा रही है और राजदीप इस के खिलाफ तर्क दे रहा है. इशिता राजदीप के तर्क को मानने को तैयार नहीं है. कुल मिला कर उस का कहना है कि वह ट्यूशन के पैसे से अपना पौकेटमनी निकालती है. अपने खर्च के लिए किसी पर निर्भर नहीं है. ऐसे में अब इन पैसों से वह सिगरेट पिए या चौकलेट खाए, पूरी तरह से उस का अपना मामला है. इस पर किसी को बोलने का अधिकार नहीं है. वहीं, मीना का तर्क है कि वह सिगरेट रोज नियम से नहीं पीती. जब कभी दिल चाहता है तो पी लेती है. वह ‘रेगुलर’ सिगरेट के बजाय ‘ब्लू’ सिगरेट पीती है. इस में टार या निकोटिन कम होता है और इस से नुकसान भी कम होता है.

जब से बाजार में ई-सिगरेट यानी ब्लू सिगरेट आई है, महिला स्मोकर की संख्या में दिनोंदिन इजाफा हो रहा है. पल्लवी भट्टाचार्य किसी पानसिगरेट की दुकान से सिगरेट लेने के बजाय औनलाइन शौपिंग करती है, वह भी ब्लू यानी ई-सिगरेट. पल्लवी बताती है कि चार्जेबल ई-सिगरेट किसी रेगुलर सिगरेट से कहीं अधिक सुरक्षित है. वहीं, ये अलगअलग फ्लेवर में मिल जाती हैं. तंबाकू से ले कर मेंथौल, चैरी, वनीला, पीच के फ्लेवर में. इस का होंठों के बीच रखा जाने वाला सिरा सिलीकोन का होता है, जिस से लीकेज की संभावना नहीं होती है.

आंकड़ों की जबानी

इसी साल जनवरी में अमेरिकन मैडिकल एसोसिएशन की ओर से विश्वभर में सिगरेट ट्रैंड पर की गई एक समीक्षा रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिस में भारत में महिला स्मोकर का आंकड़ा लगभग 1 करोड़ 20 लाख 10 हजार का बताया गया. समीक्षा में कहा गया कि 1980 से ले कर 2012 के बीच पुरुषों में सिगरेट पीने के चलन में कमी आई है. यह चलन 33.8 फीसदी से घट कर 23 फीसदी रह गया है. जबकि महिला स्मोकर की संख्या बढ़ी है. औसतन 10 में 1 लड़का जहां 18.8 साल में सिगरेट पीना शुरू करता है, वहीं 5 में से 1 लड़की औसतन साढ़े 17 साल में सिगरेट पकड़ लेती है. औसत रूप से लड़कियां दिनभर में जहां 7 सिगरेट पीती हैं वहीं लड़कों का आंकड़ा 6.1 का है.

बहरहाल, सिगरेट पीने के चलन के बारे में राष्ट्रीय कैंसर संस्थान और विश्व स्वास्थ्य संगठन की समीक्षा कहती है कि अपेक्षाकृत रईस परिवार के लोगों के बीच सिगरेट से जुड़ी बीमारियों को ले कर जागरूकता बढ़ने के कारण पुरुषों में इस का चलन दिनोंदिन कम हो रहा है. लेकिन इन्हीं परिवार की महिलाओं में सिगरेट का चलन बढ़ रहा है. समीक्षा में इस का कारण बताया गया है कि आजकल इन परिवारों की महिलाएं व लड़कियां ज्यादातर प्रोफैशनल नौकरी या कैरियर में होती हैं. जाहिर है इन के हाथों में पैसे होते हैं. इन के दिमाग में या तो महिलाओं की आजादी की भावना काम करती है या फिर ‘स्टेटस कौंशसनैस’ इन्हें सिगरेट की ओर मोड़ देती है. इसी कारण सिगरेट बनाने वाली कंपनियां महिलाओं को ध्यान में रखते हुए सस्ती लाइट सिगरेट बाजार में ले कर आई हैं. सिगरेट कंपनियों ने ऐसा तीसरी दुनिया के देशों को ध्यान में रख कर किया है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की समीक्षा रिपोर्ट यह भी कहती है कि लाइट सिगरेट के बारे में कंपनियां बाजार में यह अवधारणा बनाने में काफी हद तक कामयाब रही हैं कि इन में टार या निकोटिन की मात्रा बहुत कम होती है. इन से होंठ काले नहीं पड़ते. जाहिर है लाइट के बारे में बाजार में यह धारणा बन गई है कि एक तरफ होंठों की खूबसूरती के लिए कोई खतरा नहीं है तो दूसरी ओर सेहत के नजरिए से भी इस तरह की सिगरेट कम नुकसानदेह होती है. सिगरेट कंपनियों के ऐसे प्रचार के कारण ही बड़ी संख्या में लड़कियों और महिलाओं का झुकाव सिगरेट की तरफ देखने में आ रहा है. इतना ही नहीं, लाइट सिगरेट को सुरक्षित मान कर वे अधिक लंबा कश ले रही हैं. इस कारण नुकसान की मात्रा कहीं से भी कम नहीं हो रही है. नतीजतन, बड़ी संख्या में महिलाएं नौन कम्युनिकेबल डिजीज यानी एनसीडी की शिकार हो रही हैं.

दक्षिणपूर्व एशिया में भारत, बंगलादेश और श्रीलंका के साथ दक्षिण अफ्रीका के तीसरी दुनिया के अंतर्गत आने वाले देशों की महिलाओं के बीच दिनोंदिन सिगरेट पीने का चलन बढ़ रहा है. कुल मिला कर इन देशों में क्या लड़कियां क्या लड़के उन में औसतन 15 साल की उम्र से सिगरेट पीने का चलन शुरू होते देखा गया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की समीक्षा में बताया गया है कि पूरी दुनिया में हर साल लगभग 50 लाख लोग धूम्रपान से जुड़ी बीमारी से मारे जाते हैं. इन में 15 लाख महिलाएं होती हैं. 2030 तक सिगरेट पी कर मरने वालों की संख्या 80 लाख तक जा सकती है और उस में 25 लाख महिलाओं की भागीदारी होगी.

इस से पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से 2010 में प्रकाशित एक समीक्षा रिपोर्ट में कहा गया था कि दुनिया के 151 देशों में आधे से अधिक देशों में बराबर संख्या में पुरुषों और महिलाओं में सिगरेट पीने का चलन है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, इन दिनों सिगरेट कंपनियों के निशाने पर महिलाएं हैं. महिलाओं को ही ध्यान में रख कर तमाम प्रचार किए जा रहे हैं. ये कंपनियां महिलाओं के बीच अपनी बिक्री बढ़ाने के मकसद से उन के सौंदर्य, व्यक्तित्व, आत्मसम्मान, व्यक्तिगत आजादी जैसी भावना को उकसाते हुए प्रचार कर रही हैं.

पूंजी बाजार

निजी क्षेत्र की प्रतिभाओं से मदद

सरकारी बैंकों में घपले की घटनाएं तेजी से उजागर हो रही हैं. शीर्ष अधिकारी गड़बड़ी करने के आरोप में जेल की हवा खा रहे हैं. बैंक जो ऋण दे रहा है, उस की उगाही उन के लिए कठिन हो रही है और उन का बड़ा पैसा डूब रहा है. बैंकों की गैर निष्पादित राशि में लगातार इजाफा हो रहा है. सरकारी क्षेत्र के बैंकों के पास इसे रोकने का कोई उपाय नहीं है. यह प्रबंधन के स्तर पर कमजोरी का परिणाम है, इसलिए प्रबंधन में सुधार लाने की जरूरत है. बैंक प्रशासन ने इस स्तर पर सुधार के लिए मन बना लिया है. ऋण के प्रवाह को तेज करने तथा वसूली की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित बनाने के लिए पहल की जा रही है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा भी है कि बैंकों को और अधिक स्वायत्तता दिए जाने की जरूरत है. इस क्रम में सब से पहले उस एकाधिकार को समाप्त किया जा रहा है जिस में बैंक के कर्मचारी को ही शीर्ष पद तक पहुंचने का अधिकार है. इस क्रम में बैंक के अध्यक्ष, प्रबंध निदेशक को निजी क्षेत्र के बैंकों से प्रतिभाओं को तोड़ कर लाने की योजना पर भी काम चल रहा है. निजी क्षेत्र में प्रतिभाएं हैं और यदि कारोबार को मजबूत व प्रतिस्पर्धी बनाना है तो इस तरह के कदम उठाने लाजिमी हैं. सरकारी क्षेत्र के बैंकों को बदले माहौल के अनुकूल अपने स्तर और क्षमता में सुधार लाने होंगे.

बैंक प्रशासन भी मानता है कि बैंकों की सेहत में सुधार लाने का यही सही वक्त है और इस काम को प्रतिभाओं की मदद से ही आसान बनाया जा सकता है. विशेषज्ञ और प्रतिभाएं बैंक के कर्मचारियों के घेरे से बाहर भी हैं. बदले दौर में सीमाओं में रहने की सारी परंपराएं टूट रही हैं. ठेके पर कर्मचारियों की भरती की जा रही है. अच्छा प्रदर्शन नहीं करने वाले कर्मचारी अपना रास्ता तलाश रहे हैं और प्रतिभाओं को अवसर मिल रहा है. बैंकिंग व्यवस्था बाजार का अहम हिस्सा है और इसे बाजार के बदले माहौल के हिसाब से मजबूत बनाने की जरूरत है. यह काम बाजार की प्रतिभाओं को जोड़ कर ही पूरा किया जा सकता है.

*

टोल संग्रहण पर जाम

सड़कों पर यातायात को व्यवस्थित बनाए रखने के लिए लालबत्ती जैसी व्यवस्था अहम है. इस से सुचारु यातायात संचालित होने के साथ ही दुर्घटना जैसी स्थिति से भी बचाव होता है. वाहनों की बढ़ती संख्या के कारण छोटी पड़ती सड़कों पर यह व्यवस्था धीरेधीरे गुजरे जमाने की कहानी बन रही है. इस में बदलाव की जरूरत है. कारण, एक तो वाहनों की चंद मिनट में ही लंबी लाइन लग जाती है और इस से ईंधन का बड़ा नुकसान होता है. सड़क पर लगने वाले जाम अथवा लालबत्ती पर स्टार्ट वाहनों से कितना ईंधन बेवजह खर्च होता है, इस का अनुमान सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के बयान से लगाया जा सकता है. वे कहते हैं कि टोल संग्रहण की इलैक्ट्रौनिक्स व्यवस्था चालू करने से पिछले वर्ष दिसंबर तक देश को 86 हजार करोड़ रुपए की बचत होने का अनुमान है. उन का कहना है कि राष्ट्रीय राजमार्गों पर टोल संग्रहण की ई-व्यवस्था उपलब्ध होगी तो इस से न सिर्फ ईंधन बचेगा बल्कि पर्यावरण को होने वाले नुकसान से बचाया जा सकता है. यही नहीं, टोल वसूली की वजह से लगने वाले जाम से भी बचा जा सकता है. मंत्री के अनुसार, मार्च तक देश में कुल 473 टोल प्लाजा ई-प्रणाली से जुड़ जाएंगे. इस प्रणाली से टोल प्लाजा पर जाम नहीं लगेगा और इस से ट्रक संचालकों से

26 हजार करोड़ रुपए और अन्य वाहनों से 60 हजार करोड़ रुपए सालाना की बचत होगी. मतलब यह कि टोल संग्रहण की परंपरागत व्यवस्था के कारण हम को अब तक 86 हजार करोड़ रुपए का सालाना नुकसान हो रहा है. तेल की इस बरबादी से बचने के लिए लालबत्ती पर बरबाद होने वाले तेल को भी बचाने की व्यवस्था की जानी चाहिए. लालबत्ती पर खड़े वाहनों को स्टार्ट नहीं रखने की हिदायत की कोई चालक परवा नहीं करता, जिस से देश को बड़ा नुकसान हो रहा है. इसे रोके जाने की सख्त जरूरत है.

*

शहरी आबादी का संकट

अब तक भारत को गांवों का देश कहा जाता रहा है. कारण, यहां बड़ी आबादी गांवों में बसती है. गांवों में लोगों की सीमित आवश्यकताएं हैं. अशिक्षा और गरीबी का गांव पर कब्जा रहा है. शहरी क्षेत्र की आबादी को शिक्षित और संपन्न समझा जाता रहा है और उन के माथे पर सभ्य होने का तमगा लटका दिया जाता है. कुछ लोग शहरों को अच्छी जीवनशैली का मानक मानने की भूल भी कर बैठते हैं लेकिन आज वास्तविकता इस के ठीक विपरीत है. हाल में आए एक सरकारी आंकड़े के अनुसार, देश के शहरी क्षेत्रों में 27.6 फीसदी लोग गरीबी की रेखा से नीचे यानी बीपीएल हैं. इस हिसाब से देश में शहरी गरीबों की आबादी साढ़े 10 करोड़ के आसपास है.

इस का मतलब यह भी हुआ कि हमारे यहां करीब 38 करोड़ लोग शहरों में रहते हैं. सब से अधिक 14.63 फीसदी गरीब दिल्ली में रहते हैं. दिल्ली में लाखों लोगों के पास रात काटने के लिए छत नहीं है और वे खुले आसमान के नीचे सर्द रातें बिताते हैं. ऊपर से सरकार का दावा है कि देश में शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है. इस में हर साल 2.3 प्रतिशत का इजाफा हो रहा है और इस हिसाब से 2030 तक देश की 59 करोड़ आबादी शहरों में निवास करेगी. उस के अगले 10 वर्ष यानी 2040 तक देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या शहरों में होगी. यह आंकड़ा अपनी जगह है लेकिन जमीनी हकीकत चिंता बढ़ाती है. शहरों में गरीबों की संख्या बढ़ेगी तो शहरी जीवन कठिन हो जाएगा. शहरों की व्यवस्था बदल जाएगी और उस की जो नई तसवीर होगी, वह डरावनी होगी. इस स्थिति से बचने के लिए शहरों में रोजगार के अवसर बढ़ाने होंगे. गांव में आज मनरेगा जैसे कार्यक्रमों के कारण सीमित जरूरतों को आसानी से पूरा किया जा रहा है और वहां एक तरह से संपन्नता बढ़ रही है लेकिन शहरों में जरूरत ज्यादा है, इसलिए सीमित आय उन्हें पूरा नहीं कर सकती.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें