अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के तीन दिवसीय दौरे ने भारतअमेरिकी रिश्तों को नई ताजगी दी है. इस दौरे से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सीना और भी चौड़ा हो गया है क्योंकि उन का रुतबा और कूटनीतिक प्रभाव भी बढ़ा है, देश को राजनीतिक फायदा भी होगा. दोनों देशों के बीच हुए आपसी करारों से होने वाले नफानुकसान को ले कर बहस चल पड़ी है. विरोधियों, खासतौर से वामपंथी परमाणु, व्यापार, जलवायु परिवर्तन जैसे समझौतों को ले कर मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं कि ये गरीबों पर भारी पड़ेंगे पर भाजपा और कौर्पोरेट जगत में खुशी की लहर है. अमेरिकाभारत की बढ़ती नजदीकी पड़ोसी पाकिस्तान और चीन को रास नहीं आ रही है.

25 जनवरी को व्यापारियों, अधिकारियों के बड़े लावलश्कर के साथ दिल्ली पहुंचे बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनने के बाद दूसरा भारत दौरा था. इंडिया गेट पर हुई गणतंत्र दिवस परेड को देखने के अलावा अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा का मकसद रक्षा, पर्यावरण, कारोबार जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा देना रहा. भारत ने अमेरिकी उद्योग जगत के लिए लाल कालीन बिछाने में कोईर् कसर नहीं छोड़ी. मोदीओबामा में रक्षा, व्यापार, वाणिज्य तथा जलवायु परिवर्तन जैसे अहम क्षेत्रों में सहयोग बढ़ाने पर सहमति हुई है. परमाणु जवाबदेही कानून में देश के भीतर परमाणु दुर्घटना होने पर कौन उत्तरदायी होगा, मुद्दे के चलते दोनों देशों के बीच जौर्ज बुश और मनमोहन सिंह के असैन्य परमाणु करार के रास्ते में ठहराव आ गया था.

अब इस यात्रा से टूटी कड़ी फिर जुड़ी है जो पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन के कार्यकाल में शुरू हुई थी और जिस का चरम 2008 में परमाणु समझौता था. असल में भारतीय उत्तरदायित्व कानून परमाणु दुर्घटना के मामले में सीधे तौर पर आपूर्तिकर्ता यानी अमेरिकी कंपनियों को जवाबदेह ठहराता जबकि फ्रांस और अमेरिका ने भारत से कहा कि वह वैश्विक नियमों का पालन करे. अब मोदीओबामा में अंतिम सहमति यह जवाबदेही खत्म करने पर हो गई तथा निगरानी व्यवस्था को भी ओबामा ने अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हुए पीछे खींच लिया. अब कनाडा की तरह अमेरिका भी अंतर्राष्ट्रीय निगरानी एजेंसी आईएईए की जांच भर से खुद को संतुष्ट कर लेगा. इस सहमति पर देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हो रही है.

गुजरात और आंध्रप्रदेश  में रिएक्टर लगाने को तैयार बैठी अमेरिकी कंपनियां वेस्ंिटगहाउस और जीई हितैची अब निश्ंिचत हो कर अपना काम शुरू कर पाएंगी. अमेरिकी परमाणु उद्योग के अमेरिका में संयंत्र लगाने में अड़चनें आ रही थीं. अब वह भारत में अपना बोझ डाल सकेगा. परमाणु ऊर्जा के अलावा रक्षा क्षेत्र में भी दोनों देशों के बीच समझौते हुए हैं. कई उपकरणों का उत्पादन भारत में शुरू करने की योजना भी बनी है. अमेरिका दुनिया के बड़े विध्वंसक हथियार बनाने वालों में से है और वह उन की खपत के लिए ग्राहक ढूंढ़ रहा है. अमेरिकी कंपनी जीई हितैची और तोशीबा वेस्ंिटगहाउस के परमाणु रिएक्टरों की लागत 25 से 30 करोड़ के बीच की है जबकि घरेलू तकनीक से बने रिएक्टरों पर प्रति मेगावाट करीब 7 करोड़ रुपए खर्र्च आता है.

विश्व के तमाम ज्वलंत मुद्दों पर भी दोनों देशों के बीच सहमति दिखी. अफगानिस्तान, आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन तथा सुरक्षा परिषद के मुद्दों पर दोनों देशों ने एक जैसे विचार रखे हैं. ओबामा के साथ आए उद्यमियों का बड़ा काफिला भारत के साथ आर्थिक सहयोग में अमेरिकी दिलचस्पी को जाहिर करता है. यह स्वाभाविक है क्योंकि अमेरिका पिछले सालों से आर्थिक मंदी की मार से अछूता नहीं रहा. अब भी वह पूरी तरह उबर नहीं पाया है. वहां बेरोजगारी अब भी संकट बनी हुई है. ऐसे में अमेरिकी कारोबारी अपने उत्पाद के लिए नए बाजार की तलाश में हैं. अमेरिकी उद्यमियों द्वारा भारत में निवेश की संभावना कम ही थी क्योंकि यहां के कानून जटिल हैं. हालांकि मोदी सरकार ने बीमा, बैंक, प्रतिरक्षा उत्पादन जैसे क्षेत्रों में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे और ज्यादा खोलने के साथ ही विदेशी पूंजी का रास्ता साफ करने के लिए कई कदम उठाए हैं. ‘मेक इन इंडिया’ के अपने नारे के जरिए विदेशी व्यापारियों को लुभाने की कोशिश की है. अब मेड इन इंडिया के साथ मेड बाई अमेरिका बन जाएगा.

उम्मीदें और आशंका

ओबामा की भारत यात्रा से उम्मीदों के अलावा कुछ आशंकाएं भी हैं. हथियारों की खरीद और साझा विकास के लिए अमेरिका किस हद तक भारत को तकनीक और विशेषज्ञता देगा, इस मामले में रूस भारत का भरोसेमंद सप्लायर रहा है. हालांकि रूस ने सदा महंगा व खराब सामान दिया है. भारत को दोनों देशों के बीच संतुलन कायम रखना होगा. जलवायु परिवर्तन पर चीन और अमेरिका ने जैसा समझौता किया है वैसा ही करने पर दबाव भारत पर पड़ रहा है. पर भारत आर्थिक विकास की जरूरतों की अनदेखी नहीं करना चाहता. बौद्धिक संपदा अधिकारों पर भारत कितनी नरमी दिखा पाएगा, यह देखना होगा. भारत दवाओं और अन्य मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज नहीं कर सकता.

अमेरिका ने भारत के नियामक और कर व्यवस्था में लगातार सरलता की बात उठाई है. प्रधानमंत्री को जीएसटी, प्रत्यक्ष कर संहिता जैसे मसलों पर राज्यों को साथ लाना होगा. पड़ोसी देश पाकिस्तान आतंक फैलाने की योजना बना कर कई ऐसे प्रयास कर रहा था कि ओबामा का दौरा रद्द हो जाए लेकिन भारत दौरे से पहले बराक ओबामा ने पाकिस्तान को यह साफ संकेत कर दिया था कि वह भारत में आतंक फैलाना बंद करे या फिर अंजाम भुगतने को तैयार रहे. अमेरिका और भारत मिल कर क्या कर सकते हैं, यह अस्पष्ट है पर अमेरिका आर्थिक सहायता पाकिस्तान को न दे तो वहां के अमीरों की हालत पतली हो जाएगी.

ओबामा की भारत यात्रा पर पड़ोसी देशों में अपेक्षित प्रतिक्रियाएं हुईं. पाकिस्तान ने अपने सेनाध्यक्ष राहिल शरीफ को चीन के दौरे पर भेजा. चीन सरकार यह सोचती है कि अमेरिका और भारत मिल कर उसे घेरने की रणनीति बना रहे हैं, इसलिए चीन ने औपचारिक रूप से इस यात्रा में परमाणु सहयोग को ले कर आलोचना की है. चीन के सरकारी मीडिया द्वारा अमेरिकाभारत के नए रिश्तों को चीन के उभार को रोकने की रणनीति करार दिया गया. चीन के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने कहा है कि पश्चिम ने एक निश्चित तरीके का चिंतन पैदा किया है और इसे बढ़ाचढ़ा कर पेश किया जा रहा है. वह निहित स्वार्थ से चीनी ड्रैगन और भारतीय हाथी को स्वाभाविक विरोधी मानता है.

अखबार में भारत को आगाह करते हुए कहा गया है कि पश्चिम भारत को अपने पड़ोसी देशों की तरफ से पेश खतरों के लिए पूरी तरह तैयार होने के लिए उकसा रहा है और जाल बिछाने की कोशिश की जा रही है. हालांकि भारत नहीं चाहता पर पश्चिमी प्रभाव से वह उधर फिसल रहा है. दक्षिण और पूर्वी चीन सागर को ले कर भारतअमेरिका के साझे बयान से भी चीन की त्योरियां चढ़ गईं. वह चीन सागर को अपनी ऐतिहासिक बपौती मानता है जबकि भारतअमेरिका वहां अंतर्राष्ट्रीय कानूनों वाली व्यवस्था के हिमायती हैं. नरेंद्र मोदी ने जब प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी तब उन की विदेश नीति को ले कर कई प्रकार की आशंकाएं थीं पर बहुत कम समय में ही मोदी ने अमेरिका, चीन, जापान, रूस,  नेपाल, भूटान और आस्ट्रेलिया जैसे देशों से भारत के संबंधों पर टेप लगवा लिया है.

एक वक्त वह था जब गुजरात दंगों के बाद अमेरिका ने मोदी को वीजा देने से इनकार कर दिया था. इन दंगों को ले कर उन के बारे में कई तरह के संशय थे. लेकिन धीरेधीरे चुनावी जीत और बतौर प्रधानमंत्री उन की विदेश नीतियों के चलते मोदी की छवि सकारात्मक रुख लेने लगी. कुछ मामलों के चलते नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद अमेरिका के साथ भारत के रिश्तों को ले कर आशंकाएं थीं पर पिछले दिनों मोदी की अमेरिकी यात्रा और अब ओबामा के दौरे से जिस तरह का माहौल बना है उस से उन तमाम आशंकाओं का समाधान हो गया है. अब वही अमेरिका मोदी की तारीफ करते नहीं थक रहा है.

मोदी ने जिस तरह से ओबामा के सामने भारत को पेश किया है उस से विश्वास और उम्मीदों का  माहौल बना है. आज विकसित देशों में केवल अमेरिका की अर्थव्यवस्था तरक्की कर रही है. भारत की अर्थव्यवस्था के भी तेजी से विकसित हो रहे देशों में अव्वल रहने की उम्मीदें जताई जा रही हैं. दक्षिण एशिया ही नहीं, एशिया, हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में दोनों देशों के सहयोग का रणनीतिक व सामरिक दृष्टि से महत्त्व जगजाहिर है. आशा की जा सकती है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के इस दौरे के दौरान हुए परस्पर समझौते और वादे सकारात्मक व दूरगामी नतीजे देंगे.

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