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आत्महत्या क्या यह खुदगर्जी नहीं?

मम्मी, पापा मुझे माफ कर देना, मैं हमेशा के लिए जा रही हूं, मैं स्वेच्छा से फांसी लगा रही हूं, आई लव यू.’’
–प्रेरणा.

यह 4 वाक्यों का सुसाइड नोट है. 16 वर्षीय पे्ररणा निभोरे का घर का नाम पिंकी था. वह भोपाल के हबीबगंज क्षेत्र में रहती थी. घर में मातापिता के अलावा 2 बहनें और एक भाई भी है. घर के मुखिया देवचंद निभोरे पेशे से वैल्डर हैं. बीती 24 दिसंबर की सर्द रात में साढ़े 3 बजे वे बाथरूम जाने उठे तो उन्होंने अपनी लाड़ली बेटी को अपने कमरे में दुपट्टे के सहारे फांसी पर झूलते देखा. देवचंद की नींद, होश, चैन, सुकून सब एक झटके में उड़ गए. 25 दिसंबर को वे सकते और सदमे की सी हालत में थे. उन के चेहरे पर क्षोभ, ग्लानि और शर्ंमदगी के मिलेजुले भाव थे. पिंकी ऐसा भी कर सकती है, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था. सूचना मिलने पर पुलिस आई, जांचपड़ताल की तो पता चला, प्रेरणा अकसर बीमार रहती थी. उसे चक्कर आते थे और कभीकभी दौरा भी पड़ता था.

प्र्रेरणा एक कहानी थी जो शुरू होने से पहले ही खत्म हो गई. लेकिन इस कहानी के दूसरे किरदारों की हालत भी मुर्दों से कम नहीं. उस की दोनों बहनों का रोतेरोते बुरा हाल था. वे कभी मां को ढाढ़स बंधातीं जो रोतेरोते अचेत हो जाती थीं तो सहम कर, वे भाई से लिपट कर रोने लगती थीं जिस का स्वेटर आंसुओं से भीगा था. इन तीनों की यह गुहार सुन कर मौजूद लोग भी रोंआसे हो उठते कि कोई तो पिंकी को वापस ला दे. प्रेरणा एकदम अबोध या नादान नहीं थी. उस की परेशानी जो भी रही हो, उस के साथ चली गई. लेकिन उसी के महल्ले में महज 4 घर दूर कुछ महिलाएं चर्चा कर रही थीं कि बीमारी तो बहाना है. जरूर कुछ और बात है जो छिपाई जा रही है, आखिर लड़की जवान जो थी.

निभोरे परिवार का दुख वक्त के साथसाथ कम होता जाएगा लेकिन यह विश्लेषणात्मक चर्चा जिंदगीभर उन का पीछा नहीं छोड़ने वाली, जिस का खासा खमियाजा परिवार के सदस्यों को भुगतना पड़ेगा. एक ऐसी गलती की सफाई उन्हें जिंदगीभर देनी पड़ेगी जो उन्होंने की ही नहीं. जिंदगी के वे बेहद तकलीफदेह पल होते हैं जब आप किसी और की गलती का स्पष्टीकरण देने को मजबूर हों. मामला खुदकुशी का हो तो इस का प्रभाव तो और गहरा पड़ता है. 3 दिन में ही देवचंद निभोरे को यह अहसास बेवजह नहीं होने लगा कि दोनों बेटियों की तो दूर की बात है, अब बेटे की शादी भी वे आसानी से नहीं कर पाएंगे. प्रेरणा ने इन सब बातों और दूरगामी नतीजों से कोई वास्ता नहीं रखा कि उस की एक गलती से सारा परिवार किनकिन और कैसेकैसे संकटों व सवालों का सामना लंबे वक्त तक करेगा. वह तो मर कर मरी है लेकिन बाकी 5 लोग तो जीतेजी मृतप्राय से हैं. ये पांचों प्रेरणा को याद कर दुखी होते रहेंगे और जिंदगीभर सहज नहीं हो पाएंगे.

घाव जिंदगीभर का

भोपाल के एक 65 वर्षीय रिटायर्ड सरकारी अधिकारी हरिनारायण सक्सेना (बदला नाम) भी सहज नहीं हो पाए हैं. 21 साल पहले उन की पत्नी आशा (बदला नाम) ने आत्महत्या कर ली थी. तब बेटा 8 और बेटी 4 साल की थी. अपने सुसाइड नोट में आशा ने भी यही कहा था कि वह अपनी मरजी से खुदकुशी कर रही है, उस की मौत के बाद किसी को परेशान न किया जाए. अपने पति को संबोधित करते आशा ने यह भी कहा था कि बच्चों का खयाल रखना. हरिनारायण ने बच्चों की खातिर दूसरी शादी नहीं की और जैसेतैसे अकेले बच्चों की परवरिश की. वे बताते हैं, ‘‘जिंदगी में ऐसे कई मौके आए जब आशा को मैं ने याद किया और उसे कोसा भी, काश वह देख पाती कि बिन मां के बच्चे किन कठिनाइयों और परेशानियों में पलते हैं. खासतौर से बेटी को बड़ा करने में तो मैं रो दिया. कई बातें और परेशानियां ऐसी थीं जिन्हें बिटिया मुझ से साझा नहीं कर सकती थी. मैं सब कुछ समझता था पर बेबस था. एक अनजाना सा डर लंबे वक्त तक मेरे दिलोदिमाग पर छाया रहा. कुछ महीनों तक तो मैं इतना असुरक्षित रहा कि दोनों बच्चों के बीच में सोता था और उन्हें देखता रहता था कि कहीं वे भी…’’

नम आंखों से हरिनारायण बताते हैं कि शुरू के 2 साल जब उन्हें रिश्तेदारों और समाज के भावनात्मक सहयोग की जरूरत थी तब हुआ उलटा, हमदर्दी की चाशनी में शक का जहर हर कोई घोल जाता था. लिहाजा, उन्होंने खुद को समाज से जानबूझ कर काट लिया. कुछ दिनों में वे तीनों सामान्य हुए और उन्होंने बच्चों में जीने का जोश भरा. हर मुमकिन कोशिश यह रहती थी कि उन्हें न मां की याद आए और न ही उस की कमी खले. आशा से जुड़ी हर वह चीज उन्होंने घर से हटा दी जो बच्चों को मां की याद दिलाती थी. वे बताते हैं कि एक हद तक वे इस में कामयाब भी रहे. इसी दीवाली के बाद जब उन्होंने बेटे की शादी के लिए अखबार में विज्ञापन दिया तो कई जगह बात चली. देशभर से प्रस्ताव आए लेकिन उन्हें झटका उस वक्त लगा जब पहले ही दौर की परिचयात्मक बातचीत में लड़की वालों ने उन से आशा की आत्महत्या के बाबत पूछा. कई पर तो वे झल्ला उठे कि बेटी की शादी करनी है या 21 साल पहले हुए सुसाइड की इन्वैस्टीगेशन करनी है.

बुजुर्ग, पके हुए हरिनारायण बेहद शांत लहजे में यह भी मानते हैं कि लड़की वालों की भी क्या गलती, जिस घर में भी वे बेटी देंगे उस के अतीत की तो छानबीन करेंगे ही. विवाह के लिए प्रस्ताव अब भी आते हैं तो मैं अब पहले ही खुलेतौर पर लड़की वालों को बता देता हूं कि लड़के की मां ने आत्महत्या की थी. पहले इस बात पर गौर कर मन बनाएं फिर आगे की बातचीत करना बेहतर होगा. शादी की बातचीत निर्णायक रूप में कहीं नहीं पहुंच पा रही है तो जाहिर है इस की असल वजह आशा है जो मां होने के माने नहीं समझ पाई. केवल सुसाइड नोट में पति को निर्दोष ठहरा देने से दुनिया और समाज ने उसे सच नहीं मान लिया. बकौल हरिनारायण, ‘‘सब कुछ होते हुए भी मेरे पास कुछ नहीं है. जिंदगीभर मैं एक अपराधबोध, शर्मिंदगी और ग्लानि में जिया. बच्चों की हालत भी जुदा नहीं. वे बड़े हो गए हैं और सबकुछ समझते हैं. उन की हालत देख मेरा कलेजा मुंह को आता है. जब उन के हमउम्र होटलों और पार्टियों में लाइफ एंजौय कर रहे होते हैं तब वे घर में बैठे लैपटौप पर खुद को व्यस्त रखने की कोशिश कर रहे होते हैं. ऐसे में मैं आशा को दोषी क्यों न ठहराऊं.’’हरिनारायण की बात में दम है और वास्तविकता भी. आत्महत्या कर लेना आसान है लेकिन यह देख पाना उतना ही मुश्किल है कि इस के खुद से जुड़े लोगों पर क्याक्या तात्कालिक और दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेंगे.

मजबूरी या खुदगर्जी

इन 2 और इस किस्म के लाखोंकरोड़ों मामले देख साफ कहा जा सकता है कि आत्महत्या एक स्वार्थ है जिस में मरने वाला अपने परिजनों, जिम्मेदारियों और भविष्य से कोई लगाव नहीं रखता. खुदकुशी के मामलों को नजदीक से देखने पर पता चलता है कि वह महज खुदगर्जी थी. ‘स्वेच्छा से मर रहा हूं’ जैसे कथन और उद्घोषणा बताते हैं कि आत्महत्या करने वाले में पर्याप्त समझ थी. फौरी तौर पर वह ऐसी समस्या या परेशानी से घिर गया था जिस का कोई हल उसे नहीं सूझ रहा था, इसलिए उसे जिंदगी खत्म कर लेना आखिरी विकल्प लगा. मशहूर मनोचिकित्सक सिंगमंड फ्रायड से ले कर आज के मनोचिकित्सक भी मानते हैं कि अगर आत्महत्या करने वाले को कुछ सैकंड का भी वक्त मिले तो वह अपना फैसला बदल सकता है. यह थ्योरी शुरू से ही विवादों में रही है और अब तो अप्रासंगिक नजर आने लगी है. वजह, हर दूसरी आत्महत्या काफी सोचसमझ कर और अलग तरीके से की जा रही है.

अगर जिंदगी खत्म करने की मुकम्मल वजहें हों तो एक बार मरने वाले से सहमत हुआ जा सकता है कि उस का जीना वाकई दुश्वार हो चला था. लेकिन 80 फीसदी मामलों से साबित यह होता है कि मृतक की मंशा खुद को नहीं, अपने आसपास के लोगों को सजा देने की थी. यह बात पारिवारिक और सामाजिक तौर पर बेहद बारीकी से देखी जानी चाहिए. वजह, आत्महत्या करने वाला अकसर आत्मकेंद्रित होता है और उसे सिवा अपनी परेशानी के कुछ और नजर नहीं आता. कई सुझाव इस बाबत दिए जाते हैं और ऐसे आत्मघाती लोगों की पहचान के लक्षण भी बताए जाते हैं. लेकिन दिक्कत उस वक्त पेश आती है जब उन्हें लोग सामान्य, स्वस्थ लोगों में देखना शुरू कर देते हैं. दरअसल, हर आत्महत्या एक अलग ढंग का मामला होती है और उस की वजह भी अलग होती है.

अधिकांश युवा प्रेमप्रसंग, बेरोजगारी, कैरियर और पढ़ाई में पिछड़ने पर आत्महत्या करते हैं तो अधेड़ लोगों की समस्या विवाहेतर संबंध, कोई बड़ी गलती, दांपत्य कलह या कार्यालयीन व कारोबारी परेशानी में पड़ जाना होती है. इस उम्र में आर्थिक जिम्मेदारियां ज्यादा होती हैं, लिहाजा कर्ज भी खुदकुशी की अहम वजह होती है. युवतियों और महिलाओं के मद्देनजर देखें तो कुछ और वजहें भी जुड़ी रहती हैं. मसलन, अविवाहित स्थिति में गर्भ ठहर जाना, कोई बड़ा भावनात्मक झटका और कई कारणों से पैदा हुआ अवसाद. सब से ज्यादा आत्महत्याएं पढ़ाई, कैरियर और प्रेमप्रसंग में असफलता को ले कर हो रही हैं. यह उम्र जीने की होती है, सपने देखने और उन्हें साकार करने की होती है, झूमने, नाचनेगाने की होती है. इसी में कोई खुदकुशी जैसी गलती कर बैठे तो उसे मजबूरी करार दे कर दोषमुक्त नहीं किया जा सकता. उस के परिवारजनों को इस के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

पूरे देश सहित भोपाल में भी आएदिन इन्हीं वजहों के चलते युवा ऐसे खुदकुशी करते हैं मानो कहीं टहलने जा रहे हों. होस्टल्स और किराए के मकान में रह रहे युवाओं को किसी चीज की कमी नहीं होती. अभिभावक उन की हर जरूरत पूरी करने के लिए पैसा देते हैं. इस के बाद भी वे मामूली बातों पर आत्महत्या करें तो दोटूक कहा जा सकता है कि उन्होंने आत्महत्या नहीं की बल्कि अपने मातापिता व भाईबहनों की हत्या की है. भारतीय परिवार व्यवस्था की मिसाल इसलिए भी दी जाती है कि इस में एक सदस्य बीमार पड़ता है तो बाकी सब उस की तीमारदारी में जुट जाते हैं. उस के स्वस्थ हो जाने तक वे बीमारों की तरह रहते हैं.

गत 17 नवंबर को भोपाल के कोलार इलाके में 19 वर्षीय विशाल यादव की आत्महत्या इस की अपवाद नहीं. विशाल एक प्राइवेट मैडिकल कालेज में एमबीबीएस प्रथम वर्ष का छात्र था. उस के पिता इंद्रजीत यादव हरियाणा के रेवाड़ी जिले में रहते हैं. हादसे के दिन विशाल ने एक इमारत की छठी मंजिल से कूद कर आत्महत्या कर ली थी. आत्महत्या के पहले उस ने अपने एक दोस्त को वाट्सएप पर मैसेज किया था कि मैं जा रहा हूं, मेरा फेसबुक स्टेटस अपडेट कर देना, तुम तो जानते हो कि किस को क्या कहना है. उस का दोस्त मैसेज की मंशा समझ पाता, इस के पहले ही विशाल कूद गया. यह लड़का कतई जिंदगी और अपने परिजनों के प्रति गंभीर नहीं था. उसे आत्महत्या करना एक रोमांचक खेल लग रहा था.

वाट्सएप पर उस ने लिखा था, ‘‘आई लव फ्री फाल, फोन साथ ले जा रहा हूं, सौंग सुनूंगा रास्ते में, आई एम बुलेटप्रूफ, नथिंग टू लूज…आफ्टर अ सैकंड, मेरी लाइफ के हर क्वेश्चन का आंसर मेरे पास होगा. आई एम वैरी हैप्पी फौर दैट, बाय, कल पेपर देने जाओ. आई हैव वैरी मच कौमन विद मेल कैरेक्टर औफ फौल्ट इन अवर स्टार्स. नाम याद भी नहीं आ रहा है अब उस का तो… ऐंड एक और मम्मी का कौल आया अभी. वे बारबार कह रही हैं मैडिसिन ले आया, बीमार है. मैं तो परमानैंट मैडिसिन लेने जा रहा हूं. टेक केयर ऐंड से बाय टू औल औफ माय फ्रैंड्स ऐंड ईवन से, माय बाय टू माय डैड ऐंड ब्रदर ऐंड टैल देम कि मैं ने कभी शो नहीं किया कि मैं उन्हें लव नहीं करता, बट आय लव देम…’’

हिंदी और टूटीफूटी अंगरेजी मिश्रित सुसाइट नोट में मूर्खता ज्यादा है जिस पर भावुकता का मुलम्मा चढ़ा कर खुद को सही ठहराने की कोशिश विशाल ने की है. मौत के बाद दोस्तों ने बताया कि उस का पर्चा बिगड़ गया था, इसलिए उस ने आत्महत्या की होगी. क्या बिगड़ा था, यह अहम नहीं है पर हकीकत में जो बिगड़ा विशाल जैसे युवा उसे देख ही नहीं पाते. जिंदगी इन के लिए खिलवाड़ है और घर वाले मजाक हैं. कथित रूप से एक पर्चा बिगड़ने पर खुदकुशी जैसा घातक फैसला कर लेना अपरिपक्वता, अवसाद, हताशा या तनाव की नहीं बल्कि खुदगर्जी की बात है. खुद से और हालात से भागने की बात है. नई पीढ़ी के युवा कभी नहीं देखते, न ही सोचते कि मातापिता उन्हें कैसे पाल कर बड़ा करते हैं. 1200 किलोमीटर दूर बैठी मां, बेटे की मामूली बीमारी में दवा की चिंता कर रही है पर बेटे को मां की भावनाओं, सपनों और उम्मीदों की परवा नहीं. यह वही मां है जो रातरात भर जाग कर उस की गीली नैप्पी साफ करती है. पिता खुद हजार रुपए वाले मामूली मोबाइल फोन से काम चला ले पर बेटे की खुशियां और स्टेटस के लिए उसे 10-15 हजार रुपए का स्मार्ट फोन दिलाता है. इस के बाद भी बेटा कहे कि ‘बाय, बट आय लव यू’ तो उस पर तरस ही खाया जा सकता है. वह किसी से प्यार करता नहीं लगता सिवा अपनी बेहूदगियों से.

इंद्रजीत यादव अपने बेटे विशाल का शव ले कर घर पहुंचे होंगे तो उन पर क्या गुजरी होगी, इस का अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. कह पाना मुश्किल है कि वे बेटे की लाश ले गए या खुद की. एक हंसताखेलता परिवार लंबे वक्त के लिए बल्कि हमेशा के लिए शोक में डूब गया. मातापिता कैसे बचपन में उंगली पकड़ कर पार्क घुमाने ले जाते हैं, बच्चों की जरूरतें, फरमाइशों और जिद पूरी करने के लिए खुद की जरूरतों में कटौती करते हैं. ऐसी बातों, जो दरअसल त्याग हैं, से विशाल जैसे युवा कोई सरोकार नहीं रखते. वे जिंदगी देने वाले मातापिता से उन की खुशी बड़ी बेरहमी से छीन लेते हैं जिस का कतई हक उन्हें नहीं है.

अधकचरी फिलौसफी में जीने वाले और उसी में अपनी बात कहने को ही उपलब्धि मानने वाले युवा मातापिता और परिजनों पर टूटे दुखों के पहाड़ का अंदाजा नहीं लगाते तो यह उन की पर्चा बिगड़ने या कोई दूसरे किस्म की परेशानी नहीं बल्कि खुदगर्जी है. विशाल के दोस्त गमगीन आंखों से अपने दोस्त के इस कायराना कदम को देखते अपने स्तर पर विश्लेषण करते रहे, शायद कुछ ने इंद्रजीत की हालत देख कोई सबक सीखा हो. बेटे की गलती में मातापिता उम्रभर अपनी गलती ढूंढ़ने की गलती करते रहेंगे. अब उन के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. वे खामोश हैं और यही खामोशी उन की नियति बन गई है.

विशाल ने आत्महत्या नहीं की है बल्कि 3 हत्याओं का गुनाह किया है. एक आदमी अपनी कथित व्यक्तिगत परेशानियों के चलते खुदकुशी करता है पर खुद से जुड़े लोगों को एक स्थायी दर्ददुख दे जाता है जिस का कोई इलाज नहीं. मृत आदमी की याद, खासतौर से वह युवा हो, तो अकसर टीसती है, कसक देती है. आत्महत्या के अधिकांश मामलों में वजह कतई मरने लायक नहीं होती, लोग उस का सामना करने की कोशिश ही नहीं करते. इस नए दौर, जिस में संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, के नुकसान भी हैं और फायदे भी. बच्चों को सुखसुविधाएं ज्यादा मिल रही हैं. पिछली पीढ़ी की तरह उन्हें अभावों से नहीं जूझना पड़ रहा. ऐसे में उन की अहम जिम्मेदारी यह है कि वे घर वालों का खयाल रखें. जिंदादिली के साथ परिजनों, खासतौर से मातापिता, भाईबहनों की खुशी के लिए जिंदा रहें. आत्महत्या कभी किसी समस्या का समाधान नहीं रहा. समाधान है हालात से लड़ते रहना, उन्हें अपने मुताबिक ढालना बजाय इस के कि पलायन कर लिया जाए और पूरे परिवार को दुख के अंधे कुएं में लंबे वक्त के लिए ढकेल दिया जाए.

चक्कर में ममता

पश्चिम बंगाल की आग उगलने वाली नेता ममता बनर्जी को सारदा चिटफंड की लगाई आग से अब अपने पल्लू को बचाना पड़ रहा है. धीरेधीरे यह साफ हो रहा है कि सारदा चिटफंड से तृणमूल कांगे्रस के नेताओं को धन मिल रहा था और तभी सारदा चिटफंड गांवगांव पहुंच गया था. गरीबों को मोटे ब्याज का लालच दे कर उस ने हजारों करोड़ रुपए खा लिए थे, जो कहां गए, पता नहीं है. इसी पैसे से कई सांसदों ने चुनाव लड़ा था, यह बात अब जांच एजेंसियों के जरिए मालूम हुई है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को आरोपी मंत्रियों को बचाना मुश्किल हो रहा है.

यह पक्का है कि तृणमूल कांगे्रस को चुनाव लड़ने के लिए कहीं से तो पैसा मिला ही है. चूंकि वह उद्योग विरोधी है इसलिए यह पैसा उसे कोलकाता के उद्योगपतियों ने नहीं दिया था. कोलकाता के उद्योगपति व व्यापारी तो धर्मभीरु, अंधविश्वासी हैं. वे भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दे कर पुण्य कमाना चाहते हैं. सारदा चिटफंड विशुद्ध बंगाली उपक्रम था जिस ने गरीब जनता का पैसा जमा कर के गरीबों की सरकार बनाने में सहायता की थी पर अब लेने के देने पड़ रहे हैं. गरीबों की पार्टियों को फंड की हमेशा दिक्कत रहती है. मायावती, समाजवादी दल, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान जैसों को पैसा जमा करना हमेशा भारी रहा है क्योंकि उन के कार्यकर्ता कर्मठ हों तो भी न तो गांठ से पैसा खर्च कर सकते हैं और न ही चाहते हैं. उन्हें हर ऐसा आसामी भाता है जो थोड़ाबहुत पैसा दे जाए.

तृणमूल कांगे्रस ने सारदा चिटफंड का सहारा लिया हो तो कोई बड़ी बात नहीं. अब अमीरों की पार्टियां कांगे्रस व भारतीय जनता पार्टी उस सहारे को छीन कर ममता बनर्जी को नष्ट कर के ही मानेंगी. यह पक्का दिख रहा है कि ममता बनर्जी अब आक्रामक न हो कर सुरक्षात्मक रवैया अपनाए हुए हैं और वे ज्यादा दिन टिक न पाएंगी. उन के 2 मंत्री जेल में हैं और सत्ता में होने के बावजूद ममता अपने मंत्रियों को जेल से निकाल नहीं पा रहीं. उन के पास सिवा रोनेचिल्लाने के, कुछ खास नहीं है. ममता बनर्जी जैसी जुझारू नेता को खयाल रखना चाहिए था कि वे पैसे वालों को बांट कर रखें. यदि बड़े पैसे वालों, टाटा जैसों का विरोध करना है तो उन्हें छोटे व्यापारियों का संरक्षक बनना चाहिए था, जो पार्टी को लगातार पैसा दे सकें. जो लोग सारदा चिटफंड के खजाने भर सकते थे वे ममता बनर्जी को कुछ न देंगे, यह नहीं माना जा सकता. चिटफंड, चीट फंड यानी धोखा फंड है, यह लोगों को अरसे से मालूम है और जो सरकार में हैं वे तो जानते ही हैं. ममता उन के चक्कर में फंसीं, यह बात यह बताने को काफी है कि आग उगलने वाले गलों को किस तरह ईंधन की भी जरूरत होती है.

सत्ता, नौकरशाही और जनता

धर्म परिवर्तन के मुद्दे को ले कर लोकसभा और राज्यसभा का शीतकालीन सत्र सामान्य नहीं चल सका. सरकार जिन कानूनों को पारित कराना चाहती थी उन्हें उसे अध्यादेश के जरिए लागू करना पड़ा है. बिना विपक्ष के योगदान व लेनदेन के कई कानून, जिन में इंश्योरैंस कंपनियों में विदेशियों की भागीदारी और किसानों को लूटने वाले जमीन अधिग्रहण कानून शामिल हैं, अब लागू हो गए हैं. यह लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली की खूबी है कि लोकसभा में भारी बहुमत व राज्यसभा में जोड़तोड़ कर काम चला सकने वाली पार्टी भी कम से कम संसदीय तरीकों से तानाशाही नहीं चला सकी. सांसदों ने भारतीय जनता पार्टी के कट्टर समर्थकों द्वारा देश के अलग हिस्सों में हिंदू धर्मांतरण की नौटंकी खेल कर जो तेवर दिखाने की कोशिश की वह एक तरह से संसद के थोड़े से सांसदों के कारण फिलहाल फेल हो गई.

संसद में काम न हो पाने को अब निकम्मापन नहीं कहा जाना चाहिए, उसे तो जनता के अधिकारों की रक्षा करना कहना चाहिए. कई दशकों से हर नया कानून, जो संसद पारित करती है, असल में सरकार के हाथों में और शक्ति देता है जबकि जनता से छीनता है. कानूनों के जरिए सरकार यदाकदा ही अपने पर कोई नियंत्रण लगाती है. कानून का राज अब जनता का राज नहीं, सरकारी नौकरशाही का राज बन गया है. अंगरेजों ने जो कानून बनाए थे उन में से अधिकांश जनता के हित में थे क्योंकि उस समय अंगरेजों के पास असीमित अधिकार थे. उन्होंने कानूनों के जरिए सरकारी नौकरशाही व अफसरशाही के पर कतरे थे. 1947 के बाद व संविधान बनने के बाद नैतिक तौर पर सारे अधिकार जनता के हाथों में आ गए पर अब हर नया कानून जनता के हक छीनता नजर आता है.

संसद का काम तो यह है कि वह सरकार के मंसूबों को काबू में रखे. वे ही कानून पारित होने दे जो आवश्यक हैं. सरकार का क्या, वह तो प्रैस रजिस्ट्रेशन कानून भी पारित कराना चाहती है जिस से प्रैस का अधिकार सरकार द्वारा दिया गया लाइसैंस बन जाए और अखबार तब टैलीविजन की तरह हल्ला तो मचा सकें पर असल आलोचना न कर पाएं. संसद में कम काम होना जनता के लिए लाभदायक है. विपक्षी दलों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने सरकारी मनमानी को नियंत्रित किया और भारतीय जनता पार्टी को इंदिरा गांधी वाला अध्यादेशों का रास्ता अपनाने को मजबूर किया.

विपक्षी दलों ने साबित कर दिया कि विकास, भ्रष्टाचारमुक्त नारे पहले के समाजवाद और गरीबी हटाओ जैसे हैं और उन का मकसद सत्ता पाना था जो पूरा हो गया. असल मकसद मंदिरों के मार्फत पैसा कमाना है जिस में भाजपाई जम कर लग गए हैं उसी तरह, जिस तरह इंदिरा गांधी ने निजी क्षेत्र के कारखाने व्यवसायियों से छीन कर अपने चहेतों को सौंप दिए थे. भारतीय जनता पार्टी कुछ व्यवसायियों व विदेशी कंपनियों को किसानों की जमीन दिलवा रही है. संसद जितने दिन इसे रोक सके, अच्छा ही है.

लोकतंत्र और कट्टरपंथ

लोकतंत्र या कहिए वोटतंत्र, इस की खासीयत यह है कि यह नापसंद लोगों को भी पसंद करने को मजबूर करता है. जैसे नरेंद्र मोदी को जम्मूकश्मीर में सत्ता पाने के लिए भारतीय जनता पार्टी की हिंदू कट्टरवादिता मुसलिम वोटों को हासिल करने के चलते छोड़नी पड़ी वैसे ही श्रीलंका में राष्ट्रपति चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को तमिलों को पुचकारना पड़ा. अफसोस, श्रीलंका के तमिल व मुसलिम अल्पसंख्यकों ने महिंदा राजपक्षे की तानाशाही को गले नहीं लगाया और नएनवेले मैत्रीपाल सिरीसेना को भारी वोट दिए.

नतीजा यह हुआ कि जहां महिंदा राजपक्षे को 57.68 लाख वोट मिले, तमिलों और मुसलिमों के इलाकों से अतिरिक्त वोट पा कर मैत्रीपाल सिरीसेना ने 62.17 लाख वोट हासिल कर लिए और महिंदा राजपक्षे का तानाशाही युग फिलहाल समाप्त कर दिया. मैत्रीपाल सिरीसेना राजपक्षे की सरकार में ही स्वास्थ्य मंत्री थे. श्रीलंका में बदलाव की बयार भारत के लिए अच्छी है क्योंकि राजपक्षे चीन को सहूलियतें दे कर भारत को जानबूझ कर सुइयां चुभो रहे थे. भारत सरकार राजपक्षे से खफा थी पर आजकल बड़ा होते हुए भी कोई देश अपने से छोटे से देश का भी कुछ बिगाड़ नहीं सकता.

श्रीलंका में महिंदा राजपक्षे ने काफी काम किए थे. उन्होंने तमिल टाइगर्स का सफाया कर के श्रीलंका को आतंकवाद और गृहयुद्ध से मुक्ति दिलाई थी. श्रीलंका भारत से कहीं ज्यादा साफसुथरा, उन्नत देश नजर आता है. वह अपनी शानदार सड़कों, खुले माहौल, बढि़या हरियाली के कारण पर्यटन का आकर्षण बनता जा रहा है. भारत में जो लोग एक जाति, एक धर्म, एक वर्ग के राज के सपने देख रहे हैं उन्हें सबक लेना चाहिए कि लोकतंत्र हो या तानाशाही, शासकों को सब को साथ ले कर चलना पड़ेगा. कोई भी सरकार अब अपने छोटे वर्ग पर कोई अत्याचार कर ही नहीं सकती. अगर बात वोटों की न हो तो भी सरकार के लिए एक हद से ज्यादा आतंक ढाना पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उत्तरी कोरिया और क्यूबा की तरह खतरनाक साबित हो सकता है. सरकार या तानाशाह तो मजे में रहता है पर जनता को भारी कीमत चुकानी पड़ती है. क्या भारत के कट्टरपंथी इस से सबक सीखेंगे? यह देश तभी आगे बढ़ेगा, समाज तभी बंधनों से मुक्त होगा जब हरेक के लिए बराबर के अवसर होंगे और धर्म, पार्टी, पंथ, आश्रम के नाम पर, दूसरों की तो छोडि़ए अपनों पर भी, कोई बात जोरजबरदस्ती न थोपी जाए.

 

पीके का विरोध अभिव्यक्ति की आजादी बाधित

धर्म के नाम पर चल रहे पाखंडों की पोल खोलने वाले अखबार और सिनेमा जैसे माध्यमों पर कट्टरपंथियों का कहर खतरनाक दौर में पहुंच चुका है. बोलने, लिखने की स्वतंत्रता को हिंसा के जरिए दबाने की कोशिशें की जा रही हैं. भारत में राजकुमार हिरानी और आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ का विरोध, धरनाप्रदर्शन, सिनेमाहालों में तोड़फोड़, पुतला दहन व उसे बैन करने की मांग और पेरिस में दशकों से मजहबी पाखंडों को लेखों, कार्टूनों के माध्यम से उजागर करने के लिए मशहूर साप्ताहिक पत्रिका ‘शार्ली एब्दो’ के दफ्तर पर हमला कर 10 पत्रकारों समेत 12 लोगों की हत्या किए जाने से जाहिर है कि कट्टरपंथी पोल खुलने के भय से किस कदर बौखला कर  शांति, प्रेम, अहिंसा, इंसानियत जैसी धर्र्म की तमाम सीखों को ताक पर रख अहिंसक खूनी खेल पर उतारू हैं.

‘पीके’ फिल्म पर हिंदू धर्र्म विरोधी होने के आरोप लग रहे हैं. आरोपों को ले कर हिंदू संगठनों ने फिल्म के खिलाफ मोरचा खोल दिया. सिनेमाहालों में पोस्टर फाड़ डाले, टिकट खिड़कियों पर टिकटें नहीं बिकने दीं. विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना, हिंदू महासभा जैसे संगठनों ने विधु विनोद चोपड़ा, राजकुमार हिरानी, आमिर खान को गिरफ्तार करने की मांग की. हिंदू संगठनों द्वारा फिल्म पर सैंसर बोर्ड से प्रतिबंध लगाने की मांग की गई पर बोर्ड द्वारा ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया गया. विरोध के बावजूद पीके देशभर के सिनेमाहालों में कामयाबी के झंडे गाड़ती रही. इस फिल्म ने कमाई के सारे रिकौर्ड तोड़ दिए. सोचने वाली बात यह है कि अगर फिल्म पीके से आम जनता या भक्त नाराज होते तो इतनी भीड़ नहीं उमड़ती. फिल्म दूसरे दिन ही फ्लौप हो जाती. और यदि फिल्म से भगवान नाराज होते तो इसे इतनी बड़ी सफलता नहीं मिलती. इधर, अपनी फिल्म के खिलाफ प्रदर्शनों से दुखी राजकुमार हिरानी तमाम आरोपों से इनकार करते हुए कहते हैं कि यह फिल्म किसी धर्र्म का अपमान नहीं करती. फिल्म मानव की एकात्मकता को दर्शाती है.

फिल्म का नजारा

यह प्रतिनिधि जब फिल्म देखने गया तो दिल्ली के प्रशांत विहार का पीवीआर दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था. फिल्म देखने वालों में बड़े, बुजुर्ग, बच्चे, युवा, महिलाएं सब थे. लोग परिवार के साथ आए थे. फिल्म देखने वालों में दिखने में ज्यादातर हिंदू ही लग रहे थे. फिल्म का नायक आमिर खान जब भोलेपन से धर्र्म, ईश्वर को ले कर सवाल पूछता है तो सिनेमा हाल में बैठे दर्शक बारबार संवादों और दृश्यों पर तालियां बजाते थे. हंसते, ठहाके लगाते थे. दरअसल, फिल्म में विरोध करने लायक कुछ नहीं है. फिल्म में उन्हीं कुख्यात, बदनाम बाबाओं के प्रपंच दिखाए गए हैं जो आप के और हमारे बीच में हैं या जेलों में बैठे हैं. पीके में धर्म के नाम पर चल रहे ढोंग को उजागर किया गया है. खुद को ईश्वर से साक्षात्कार कराने का दावा करने वाले तथाकथित बाबाओं के पाखंडों की पोल खोली गई है.

फिल्म में बताया गया है कि हम जन्म से ही धर्म का मार्का ले कर पैदा नहीं हुए. फिल्म मनोरंजन के साथ अंधविश्वासों पर प्रहार करती है, कुछ पाखंडों की तरफ ध्यान खींचती है. फिल्म के कई दृश्यों में आंशिक तौर पर ईसाइयत, इसलाम और अन्य संप्रदायों में चल रहे पाखंडों पर भी सवाल उठाए गए हैं. पीके का नायक लाखों मील दूर किसी दूसरे ग्रह से धरती पर उतरता है. आते ही उस के वाहन का रिमोट एक आदमी झपट कर भाग जाता है. अब वह इस के बिना वापस नहीं लौट सकता. वह देखता है, धर्मस्थलों की भरमार है जहां खुलेआम पैसों का लेनदेन होता है. भगवान के दलाल पैसे ले कर काम कराने, परेशानियां दूर करने का धंधा करते हैं पर गारंटी नहीं लेते. पीके हैरान होता है और इन बातों पर एतराज जताता है.

एक टीवी पत्रकार जगतजननी उस का साथ देती है और न्यूज चैनल के जरिए सचाई भक्तों के सामने रखती है. पीके मंदिरों में जाता है, पंडों के पास जाता है. बदले में पैसा चढ़ाता है पर उस का रिमोट नहीं मिलता. वह अपना चढ़ावा वापस  ले लेता है और भगवान के लापता होने के पोस्टर बांटता है. वह देखता है यहां हर धर्र्म के रिवाज अलगअलग हैं, वेशभूषा अलगअलग है. वह समझ नहीं पाता कि यहां धर्म की रेखाएं किस ने खींची हैं. वह लोगों की पीठ पर उस की मुहर खोजता है. पीके हर काम के लिए लोगों से सुनता है, ‘ईश्वर जाने, ईश्वर जाने’. ऐसे में वह भी अपना रिमोट भगवान से पाने के लिए जुट जाता है. उसे पता चलता है कि उस का रिमोट एक तपस्वी के पास है जो उसे शिव के डमरू का विशेष भाग प्रचारित कर अपना धंधा चला रहा होता है. एक तपस्वी बाबा को देखता है कि वह लोगों की ईश्वर से बात कराता है. बाद में वह उसे रौंग नंबर करार देता है. आखिर उस बाबा की पोल खुलती है.

धर्म के ठेकेदार

इस तरह की बातों को ले कर भगवान और उन्हें मानने वालों के बीच मंदिरों, मठों, मसजिदों, गिरिजाघरों में बैठे कुछ गुरु, बाबा नाखुश हैं कि फिल्म ने उन का मजाक उड़ाया है और वे इसे अपने पंथ का अपमान समझ रहे हैं. यह कोई पहली बार नहीं, धर्म के दुकानदारों का बहुत पहले से परदाफाश होता रहा है. चमत्कारी, तपस्वी बाबाओं, गुरुओं, संतों की चालाकियों का भंडाफोड़ सामने आता रहा है.

‘सरिता’ पत्रिका पिछले 65 वर्षों से अधिक समय से धर्म के कर्मकांडों, बाबाओं, पाखंडी गुरुओं की असलियत को निर्भीकता से उजागर करती आई है. परिणामस्वरूप सरिता को भी ऐसे ही विरोधों का सामना करना पड़ता रहा है. पुलिस, अदालतों, धर्र्म के ठेकेदारों के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा है. फिल्म आम जनता के मनोभावों का सटीक चित्रण है. पीके सरिता के अभियान का एक मामूली उदाहरण है. बलात्कार के आरोप में जेल में बंद आसाराम की दुकानदारी पर लिखने पर उस के अनुयायी दफ्तर में घुस आए थे और अपने इस गुरु के खिलाफ लिखने से बाज आने की चेतावनी दी थी. इसी तरह महाकुंभ मेलों में चमत्कारी बाबाओं के ढोंग, गुरुओं के कारोबार पर लिखा गया. तब भी धर्र्म के ठेकेदारों द्वारा धमकियां दी गईं.

हत्या के आरोप में जेल गए शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती, धर्म की आड़ में भगवा पहने स्वामी भीमानंद चित्रकूट वाले की सैक्स रैकेट चलाने की करतूत या भभूत से सोने की चेन, प्रसाद निकालने की कलाबाजी दिखाने वाले सत्य साईं बाबा हों, 400 अनुयायियों को नपुंसक बनाने की सीबीआईर् जांच झेल रहे गुरमीत रामरहीम हों, ऐसे हर पाखंडी की पैसा बनाने की चालों, साजिशों पर सरिता ने बेबाकी से लिखा है. इस ने मठों, आश्रमों, मदरसों, चर्चों के भी अनैतिक किस्सों और पंडेपुजारियों, मुल्लामौलवियों, पादरियों की ठगी के प्रति जनता को सतर्क रहने का अपना पत्रकारीय दायित्व निभाया है. सरिता कोई नया धर्म नहीं चलाना चाहती. वह संविधान में मिली अभिव्यक्ति की आजादी और वैज्ञानिक विचारों के प्रचारप्रसार में अपने दायित्व को पूरा करने में जुटी है. अपनी बेबाकी की वजह से सरिता कट्टरपंथियों की आंख की किरकिरी बनीरही.   इस तरह की फिल्मों का पहले भी विरोध होता रहा है. आश्चर्य की बात है कि विरोध उन का नहीं जो धर्म के नाम पर भक्तों को तरहतरह के कर्मकांड बता कर ठग रहे हैं, विरोध उन का किया जा रहा है जो ऐसा करने वालों को फिल्म बना कर, लेखों, कार्टूनों के माध्यम से बेनकाब कर रहे हैं. पाखंडी बाबाओं के खिलाफ धरनेप्रदर्शन क्यों नहीं होते?

आस्था के नाम पर धर्र्म की पहरेदारी करने वाले संगठनों को धर्म के ढोंगढकोसलों, बाबाओं, गुरुओं में कोईर् बुराई नहीं दिखाईर् देती? धर्म के नाम पर रोज पैदा हो रही बुराइयों के खिलाफ कोई कुछ क्यों नहीं कहता? छुआछूत का भेदभाव, सतीप्रथा भी धर्र्म की देन हैं, इन का विरोध करने वाले भी क्या धर्र्म का अपमान नहीं कर रहे हैं?

विरोध तर्कपूर्ण नहीं

फिल्म का तर्कपूर्ण विरोध कहीं नहीं है. विरोध करने वालों ने फिल्म देखी ही नहीं है. मजे की बात यह है कि जो पीके का विरोध कर रहे हैं, वही लोग फ्रांस में पत्रकारों पर हुए हमले की निंदा करते हुए सुने जा रहे हैं. पीके का विरोध करने वाले और शार्ली एब्दो पर हमला करने वालों में आखिर कितना फर्क है? वे विचारों को रोकने के लिए हिंसा की पराकाष्ठा को पार कर चुके हैं जबकि पीके के विरोधी विचारों को दबाने के लिए धमकियां, तोड़फोड़ का सहारा ले रहे हैं. दोनों की सोच एक ही है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को गैरकानूनी, अलोकतांत्रिक ढंग से कुचल देना. धर्म के कारोबारी सरकारों से, सेना से और पुलिस से नहीं, पैन, पैंसिल से खौफ खाते हैं. हिंदुत्व और इसलामी कूढ़मगज वही करेंगे जो वे कर रहे हैं. कार्टून, लेख और फिल्मों का सामना नहीं किया जा सकता. ये माध्यम धर्म के धंधे को गहरी चोट पहुंचा रहे हैं. धर्म का धंधा बहुत फायदे वाला है जो बिना कोई उत्पादन किए अकूत मुनाफा बटोरता है.

विचारों से परिवर्तन

विचारों से समाज बदलता है. इन में जहां तरक्की की क्षमता होती है, सर्वनाश की शक्ति भी है. दुनिया के सामने आज सब से बड़ा सवाल यही है कि ऐसे विचारों से कैसे निबटा जाए जो चरमपंथ को बढ़ावा देते हैं, मानव को कुचल देने की मंशा रखते हैं. आखिर हम किस दिशा में जा रहे हैं? यह प्रगति विरोधी स्थिति है. हैरानी की बात है कि कोई धर्म, ईश्वर, अवतार, अलौकिक शक्ति से सीधा जुड़ा बाबा किसी छोटी सी फिल्म, कार्टून या लेख से खतरे में आ जाता है. इस का अर्थ यह हुआ कि इन सब का अस्तित्व बहुत छोटा है और फिल्म, लेख, कार्टून में बड़ी ताकत है और वे इन के झूठ की पोल खोलने की ताकत रखते हैं.    

अच्छी बात यह है कि  धर्मभीरु देश के लोगों की सिनेमाहालों में बढ़ती भीड़ ने उन विरोधियों की बोलती बंद कर दी जो शुरू में हल्ला मचा रहे थे. वे शायद सोच रहे थे कि जनता भी फिल्म के विरोध में सड़कों पर उतर आएगी पर ऐसा नहीं हुआ. यह इसलिए कि दुनिया की बहुत बड़ी आबादी तर्कवाद में यकीन रखती है. लोगों को मालूम है कि धर्म किस तरह सामाजिक असमानता एवं द्वंद्वों का कारण बनता है. आएदिन धर्म का बाना धारण किए बाबा, गुरु, संत कुकर्मों में लिप्त पाए जाते हैं. विरोध के बावजूद फिल्म के प्रति लोगों का सकारात्मक रुझान देश में बदलाव की लहर का प्रमाण है. एक दिन ऐसा आएगा जब लोग मजहबों, बाबाओं, गुरुओं, मुल्लामौलवियों, पादरियों से घृणा करेंगे और दूर भागेंगे.

कट्टरपंथियों को सही जवाब जनता ही दे सकती है. धर्म के बिना भी मानव न केवल जिंदा रह सकता है बल्कि और अधिक तरक्की के रास्ते तय कर सकता है. प्रेम, शांति, अहिंसा और तरक्की के मार्ग में बाधक धर्म को जनता अगर नकार देने की ठान ले तो उस का व पूरे समाज का बेहतर विकास होगा. 

–जगदीश पंवार के साथ लखनऊ से शैलेंद्र सिंह, भोपाल से भारत भूषण श्रीवास्तव, पटना से बीरेंद्र बरियार ज्योति.

विचारों पर कट्टरता का हमला

धर्म की कट्टरता की स्वतंत्रता या आम नागरिक की निडर, निर्भीक, स्पष्टवादी विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता–कौन ऊपर है, यह सवाल आज दुनियाभर में खड़ा हो गया है. दुनियाभर के लोकतंत्रों के संविधान विचारों की स्वतंत्रता, जिस में प्रैस की स्वतंत्रता शामिल है, की बात करते हैं पर असल में यह स्वतंत्रता सरकार के मुकाबले है. आम नागरिक के संगठित धर्मों, माफिया, व्यापारों, उद्योगों, अदालतों, समूहों से कोई स्वतंत्रता नहीं मिलती और दुनियाभर के लेखक व रिपोर्टर हर समय अदृश्य जंजीरों से बंधे रहते हैं.

धर्म की कट्टरता की वापसी, जो इसलामी कट्टरता के मार्फत आई है, सब से खतरनाक है, सरकार की रोकटोक से भी ज्यादा, तानाशाहों के फरमानों से भी ज्यादा. इसलाम और दूसरे धर्मों को भ्रष्टाचार, कुशासन, गलत नीतियों से कोई मतलब नहीं होता पर लोगों के निजी व्यवहार, स्त्रियों के आचरण, स्त्रीपुरुष संबंधों पर उस की कड़ी नजर रहती है और उन पर निर्णय देने का वे अपना एकाधिकार मानते हैं. वे विचारकों, कार्टूनिस्टों, पत्रकारों, लेखकों को उस में दखल न देने के आदेश देते रहते हैं. पेरिस में शार्ली एब्दो पत्रिका के छोटे से दफ्तर पर हमला कर 10 पत्रकारों व 2 पुलिसकर्मियों को दिनदहाड़े मौत के घाट उतार उन्होंने जता दिया कि उन की कट्टरता के खिलाफ विचारों को रौंदने की उन की नीति के आड़े कोई नहीं आ सकता. धर्म के कट्टर अनुयाइयों का खयाल है कि खुद तथाकथित ईश्वर ने उन्हें यह अधिकार दिया है कि दुनिया चलाने के फैसले वे करेंगे और उस में किसी का दखल बरदाश्त न करेंगे.

युगों से धर्म तलवार से अपने को थोपता रहा है. बौद्ध राजाओं ने अहिंसा का मार्ग नहीं अपनाया और यह हिंसा दूसरों, विधर्मियों, शत्रुओं के खिलाफ ही नहीं, अपनों के खिलाफ भी होती रही है. सभी ग्रंथों में खुदबखुद इस हिंसा का जिक्र है, शायद चेतावनी के रूप में कि जो भी धर्म के विरुद्ध हो, चाहे अपना या पराया तलवार को झेलेगा. आज तलवारों की जगह एके 47 ने ले ली है, टैंकों ने ले ली है और पाकिस्तान व ईरान आएदिन परमाणु बम तक की धमकी देते रहते हैं. कार्टूनिस्ट की तो बिसात ही क्या है. धर्म डरता इसलिए है कि वह ताश के पत्तों के घर में रहता है जो तर्क की हलकी हवा में उड़ जाए. कमाल यह है कि इस के बावजूद धर्म के घर खड़े हैं और फलफूल रहे हैं. जो शक्ति, पैसा और अंधभक्ति धर्म जमा कर लेते हैं वह एक अच्छा शासक, नेता, विचारक नहीं जमा कर पाता. पर यह धर्म की श्रेष्ठता नहीं, धर्म बेचने व थोपने की चतुराई है.

इसलामिक आतंकवाद की प्रतिक्रिया होगी और पक्की बात है कि नास्तिक, अनीश्वरवाद और तार्किक लोग अब ज्यादा मुखर होंगे. पेरिस का हमला आम व्यक्ति पर है, 9/11 की तरह अमेरिकी सरकार पर नहीं. इस का जवाब दुनिया की शिक्षित जनता को देना होगा.

सत्ता, नौकरशाही और जनता

धर्म परिवर्तन के मुद्दे को ले कर लोकसभा और राज्यसभा का शीतकालीन सत्र सामान्य नहीं चल सका. सरकार जिन कानूनों को पारित कराना चाहती थी उन्हें उसे अध्यादेश के जरिए लागू करना पड़ा है. बिना विपक्ष के योगदान व लेनदेन के कई कानून, जिन में इंश्योरैंस कंपनियों में विदेशियों की भागीदारी और किसानों को लूटने वाले जमीन अधिग्रहण कानून शामिल हैं, अब लागू हो गए हैं. यह लोकतंत्र और संसदीय प्रणाली की खूबी है कि लोकसभा में भारी बहुमत व राज्यसभा में जोड़तोड़ कर काम चला सकने वाली पार्टी भी कम से कम संसदीय तरीकों से तानाशाही नहीं चला सकी. सांसदों ने भारतीय जनता पार्टी के कट्टर समर्थकों द्वारा देश के अलग हिस्सों में हिंदू धर्मांतरण की नौटंकी खेल कर जो तेवर दिखाने की कोशिश की वह एक तरह से संसद के थोड़े से सांसदों के कारण फिलहाल फेल हो गई.

संसद में काम न हो पाने को अब निकम्मापन नहीं कहा जाना चाहिए, उसे तो जनता के अधिकारों की रक्षा करना कहना चाहिए. कई दशकों से हर नया कानून, जो संसद पारित करती है, असल में सरकार के हाथों में और शक्ति देता है जबकि जनता से छीनता है. कानूनों के जरिए सरकार यदाकदा ही अपने पर कोई नियंत्रण लगाती है. कानून का राज अब जनता का राज नहीं, सरकारी नौकरशाही का राज बन गया है. अंगरेजों ने जो कानून बनाए थे उन में से अधिकांश जनता के हित में थे क्योंकि उस समय अंगरेजों के पास असीमित अधिकार थे. उन्होंने कानूनों के जरिए सरकारी नौकरशाही व अफसरशाही के पर कतरे थे. 1947 के बाद व संविधान बनने के बाद नैतिक तौर पर सारे अधिकार जनता के हाथों में आ गए पर अब हर नया कानून जनता के हक छीनता नजर आता है. संसद का काम तो यह है कि वह सरकार के मंसूबों को काबू में रखे. वे ही कानून पारित होने दे जो आवश्यक हैं. सरकार का क्या, वह तो प्रैस रजिस्ट्रेशन कानून भी पारित कराना चाहती है जिस से प्रैस का अधिकार सरकार द्वारा दिया गया लाइसैंस बन जाए और अखबार तब टैलीविजन की तरह हल्ला तो मचा सकें पर असल आलोचना न कर पाएं.

संसद में कम काम होना जनता के लिए लाभदायक है. विपक्षी दलों को धन्यवाद दिया जाना चाहिए कि उन्होंने सरकारी मनमानी को नियंत्रित किया और भारतीय जनता पार्टी को इंदिरा गांधी वाला अध्यादेशों का रास्ता अपनाने को मजबूर किया. विपक्षी दलों ने साबित कर दिया कि विकास, भ्रष्टाचारमुक्त नारे पहले के समाजवाद और गरीबी हटाओ जैसे हैं और उन का मकसद सत्ता पाना था जो पूरा हो गया. असल मकसद मंदिरों के मार्फत पैसा कमाना है जिस में भाजपाई जम कर लग गए हैं उसी तरह, जिस तरह इंदिरा गांधी ने निजी क्षेत्र के कारखाने व्यवसायियों से छीन कर अपने चहेतों को सौंप दिए थे. भारतीय जनता पार्टी कुछ व्यवसायियों व विदेशी कंपनियों को किसानों की जमीन दिलवा रही है. संसद जितने दिन इसे रोक सके, अच्छा ही है.

कालाधन परोसने वाले देशों में भारत का चौथा स्थान

कालेधन की वापसी पर राजनीतिक रंग चढ़ रहा है. कालाधन सत्ता की मलाई चाटने का अच्छा जरिया बन गया है, इसलिए यह राजनीति के केंद्र में आ गया है. विदेशों में कालाधन जमा करने वाले दुनिया के 4 प्रमुख देशों में भारत शामिल है. यह ठीक है कि चीन और रूस के बाद तीसरे स्थान पर खड़ा भारत इस बीच मैक्सिको के बीच में आने के कारण चौथे स्थान पर पहुंच गया है लेकिन यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि 2012 में विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों से जितना कालाधन विदेशों में जमा हुआ, उस का 10 फीसदी धन भारत का था. यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है.

कालेधन की वापसी पर राजनीतिक रंग चढ़ रहा है. कालाधन सत्ता की मलाई चाटने का अच्छा जरिया बन गया है, इसलिए यह राजनीति के केंद्र में आ गया है. विदेशों में कालाधन जमा करने वाले दुनिया के 4 प्रमुख देशों में भारत शामिल है. यह ठीक है कि चीन और रूस के बाद तीसरे स्थान पर खड़ा भारत इस बीच मैक्सिको के बीच में आने के कारण चौथे स्थान पर पहुंच गया है लेकिन यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि 2012 में विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों से जितना कालाधन विदेशों में जमा हुआ, उस का 10 फीसदी धन भारत का था. यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है. – See more at: http://www.sarita.in/finance/financial-news-1#sthash.OIZXAKL8.dpuf

कालेधन की वापसी पर राजनीतिक रंग चढ़ रहा है. कालाधन सत्ता की मलाई चाटने का अच्छा जरिया बन गया है, इसलिए यह राजनीति के केंद्र में आ गया है. विदेशों में कालाधन जमा करने वाले दुनिया के 4 प्रमुख देशों में भारत शामिल है. यह ठीक है कि चीन और रूस के बाद तीसरे स्थान पर खड़ा भारत इस बीच मैक्सिको के बीच में आने के कारण चौथे स्थान पर पहुंच गया है लेकिन यह आंकड़ा चौंकाने वाला है कि 2012 में विकासशील और उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों से जितना कालाधन विदेशों में जमा हुआ, उस का 10 फीसदी धन भारत का था. यह सिलसिला लंबे समय से चल रहा है.

वाशिंगटन स्थित ग्लोबल फाइनैंशियल इंटिग्रिटी ने अपनी ताजा रिपोर्ट में कहा है कि 2003 से 2012 के बीच हर साल 94.76 अरब डौलर अवैध रूप से विदेश भेजे गए. इस तरह से एक अनुमान के अनुसार विदेशी बैंकों में भारत के 28 लाख करोड़ रुपए हैं. उच्चतम न्यायालय के आदेश पर सरकार ने कालाधन का पता लगाने के लिए विशेष जांच दल यानी एसआईटी का गठन किया है. एसआईटी अपने काम में आगे बढ़ रहा है और उस ने अब तक 4,479 करोड़ रुपए का पता लगाया है. उस ने कहा है कि यह पैसा जिनेवा में एचएसबीसी बैंक की शाखा में जमा है.

अब सरकार के समक्ष इस पैसे को वापस लाने की चुनौती है, जो बहुत कठिन है. बहरहाल यह बात चिंतनीय है क्योंकि हमारे करोड़ों लोगों के पास रहने के लिए छत नहीं है, लाखों लोग खाली पेट फुटपाथ पर सो रहे हैं. करोड़ों बच्चे गरीबी की वजह से स्कूल नहीं जा पाते हैं और लाखों लोग गरीबी से तंग आ कर आत्महत्या करते हैं. ऐसी स्थिति में यदि विदेश में कालाधन जमा करने वाले देशों में हमारे देश के लोग लिप्त हैं तो यह दुखद, अन्यायपूर्ण और अमानवीय स्थिति है.

चंचल छाया

पीके

ईश्वर है या नहीं, पूजा करने से कुछ मिलता है या नहीं, पुजारी, मौलवी, पादरी, गंथी किसी काम के हैं या नहीं, इन धर्मों के धर्मस्थल कुछ देते हैं या नहीं, आस्था विश्वास का विषय है या सत्यअसत्य का आदि प्रश्न बहुत गंभीर हैं और इन का आमिर खान व राजकुमार हिरानी ने जिस तरह से ट्रीटमैंट किया है, उस ने विषय को छुआ भर है. यह कहना कि फिल्म पीके किसी की पोल खोल पाती है गलत होगा, क्योंकि जो धरातल व वातावरण इस तरह की फिल्म को चाहिए था, वह ‘पीके’ नहीं दे पाई. धंधेबाजों पर कटाक्ष तो इस फिल्म में खूब किया गया है पर भाषणों से और बहुत अतार्किक ढंग से. बात जो कही गई है वह 100 पैसे सत्य है.

भगवान या ईश्वर की कल्पना कब की गई थी और क्यों की गई थी, यह कहना कठिन है पर इतना पक्का है कि जब से मानव ने सभ्य होना शुरू किया, उसे धूर्त लोगों ने धर्म के चंगुल में फंसा लिया है और शासकों ने धर्म को आम लोगों को नियंत्रित करने का अचूक हथियार मान कर, खूब इस्तेमाल किया, आज भी कर रहे हैं. धर्म के नाम पर धर्म के दलालों ने जितना असत्य, अनाचार, अत्याचार, आतंक, हिंसा, विभाजन, लूट, धोखा, भेदभाव किया है, उतना तो लुटेरों, गुंडों, डाकुओं ने नहीं किया. मजेदार बात यह है कि ये सब करने वाले साफसुथरे रहने का ढोंग सफलता से करते रहे हैं और हर तरह के आक्षेप, आपत्तियों और तार्किक बहसों के बावजूद वे आज भी वैसे ही हैं. या यों कहिए कि और मजबूत हो गए हैं. इस विषय पर एक काल्पनिक ग्रह से आए एलियन के जरिए पृथ्वीवासियों के बीच सुधार करवाने की चेष्टा इस फिल्म की बड़ी कमजोरी है.

राजकुमार हिरानी ने अब तक जितनी भी फिल्में बनाई हैं, लगभग सभी हिट रही हैं. ‘थ्री इडियट्स’ और ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ तो सुपरहिट रही थीं. ‘पीके’ धर्म के धंधेबाजों यानी गौडमैंस पर करारा व्यंग्य करती है. धर्म के धंधेबाज किस तरह लोगों को बेवकूफ बना कर मंदिर बनाने के नाम पर उन से चंदा उगाहते हैं, खुद को सीधे भगवान से साक्षात्कार करने की बातें करते हैं, फिल्म में इस का परदाफाश किया गया है. फिल्म में पीके के किरदार के माध्यम से एक तपस्वी का भी परदाफाश किया गया है, साथ ही उस के माध्यम से बताया गया है कि भगवान, अल्लाह, गौड सब की अलगअलग कंपनियां हैं और उन कंपनियों को उन के मैनेजर चलाते हैं जो लोगों को लूट कर अपनी तिजोरियां भरते हैं. पीके का मानना है कि कोई हिंदू या मुसलमान या सिख या ईसाई नहीं होता. अगर है तो कोई ठप्पा दिखाए. कहां है ठप्पा किसी के शरीर पर. धर्म तो डर का बिजनैस है और बाबा लोग लोगों के डर का फायदा उठाते हैं.

ये तमाम बातें बेशक धर्म और आस्था से जुड़ी हैं मगर राजकुमार हिरानी ने इतने विस्तार से बताई हैं कि दर्शकों को इन बाबाओं की असलियत का पता चलता है. धर्म के धंधेबाजों की बखिया तो ‘ओह माई गौड’ फिल्म में भी उधेड़ी गई थी. फिल्म की कहानी में ड्रामा, कौमेडी, इमोशंस सभी कुछ है. कहानी फिल्म ‘कोई मिल गया’ की तरह किसी अनजान ग्रह से आए एक एलियन की है. वह राजस्थान की एक सुनसान जगह पर अपने स्पेसयान से उतरता है. उस के बदन पर कपड़े नहीं हैं और गले में लौकेटनुमा एक रिमोट कंट्रोल है जिसे स्पेसयान को वापस बुलाने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है.  गांव का एक आदमी उस एलियन का लौकेट छीन कर भाग जाता है और उसे अपना टेपरिकौर्डर पकड़ा जाता है. एलियन गांव में घूमता है और कहीं से कपड़े उठा कर पहनता है. गांव वाले उसे पीके कह कर पुकारते हैं.

एलियन को धरतीवासियों की भाषा नहीं आती. उस की मुलाकात बेल्जियम से लौटी एक युवती जग्गू (अनुष्का शर्मा) से होती है, जिसे उस का प्रेमी सरफराज (सुशांत सिंह राजपूत) छोड़ कर पाकिस्तान चला गया था. उसे जब पीके के बारे में पता चलता है, साथ ही यह भी पता चलता है कि पीके का लौकेट एक तपस्वी (सौरभ शुक्ला) के पास है और उसे वह भगवान शिव के डमरू से गिरा बता कर लोगों से मंदिर बनवाने के लिए चंदा इकट्ठा कर रहा है, तो वह तपस्वी का भंडाफोड़ कर पीके को उस का लौकेट वापस दिलाने और उसे अपने ग्रह पर वापस भेजने का संकल्प लेती है. वह अपने चैनल पर तपस्वी का भंडाफोड़ कर पीके को अपना लौकेट वापस दिलवाती है. पीके वापस अपने ग्रह पर लौट जाता है. इस से पहले वह जग्गू और सरफराज को आपस में मिलवा जाता है.

फिल्म की पटकथा और निर्देशन सधा है, दर्शक सीटों से हिल नहीं पाते. निर्देशक ने फिल्म में छोटीछोटी बातों को भी कौमेडी के अंदाज में दिखाया है. मसलन, डांसिंग कारें यानी कारों में सैक्स करते लोग और उन में से पीके का कपड़े चुरा कर पहनना. साथ ही क्लाइमैक्स में उस ने फिल्म को काफी इमोशनल बना दिया है. राजकुमार हिरानी ने इस फिल्म में बम के धमाकों से एक पूरी ट्रेन को उड़ाते हुए दिखाया है. फिल्म में कई प्रसंग रोचक बन पड़े हैं, मसलन, एक एलियन का भोजपुरी में बोलना. यह कैसे हो पाता है, इस की अलग दास्तान है. कमियों के बावजूद फिल्म बनाने की हिम्मत दिखाना ही प्रशंसनीय है क्योंकि जब धर्म के धंधे पर आंच आती है तो सभी धर्मों के दलाल एकजुट हो जाते हैं. आजकल धर्मदलाल दूसरे धर्मों की आलोचना करना छोड़ चुके हैं क्योंकि उन की नजरें तो चंदे की पेटियों पर हैं जो धर्म के नाम पर भरती रहती हैं. इस तरह की फिल्में मंदिरों, दरगाहों, चर्चों, गुरुद्वारों सभी की चंदा पेटियों पर चोट पहुंचाती हैं. यह फिल्म किसी खास धर्म की विरोधी नहीं, धर्म के धंधे की विरोधी है. पूरी फिल्म आमिर खान के इर्दगिर्द घूमती है, इसलिए बाकी कलाकारों के पास स्कोप कम ही था. तपस्वी की भूमिका में सौरभ शुक्ला मजाकिया ज्यादा लगा है. सुशांत सिंह राजपूत का काम कम है. अनुष्का शर्मा ने आमिर खान के साथ अच्छी ट्यूनिंग की है. बैंड मास्टर की भूमिका में संजय दत्त भी खूब जंचा है. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष साधारण है. छायांकन अच्छा है.

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लिंगा

दक्षिण के सुपरस्टार रजनीकांत की विशेषता है कि वह अपनी फिल्मों को इतना भव्य बना देता है कि दर्शक आंखें फाड़े उस की भव्यता को देखते रह जाते हैं. भव्य सैट,  कलाकारों की भीड़ और मधुर संगीत (भले ही गानों के बोल समझ न आएं) उस की फिल्मों की विशेषता होती है. कुछ साल पहले आई उस की फिल्म ‘कोचडयान’ की तरह ‘लिंगा’ भी भव्य है. रजनीकांत ने एकएक सीन को जोरदार ढंग से शूट किया है. ऐक्शन और स्टंट सीन लाजवाब हैं. जहां तक अभिनय की बात है, रजनीकांत की अपनी एक अलग स्टाइल है. ‘रोबोट’ की बात छोड़ दें तो उस की ऐक्ंटग पिछली अन्य फिल्मों जैसी ही है.

रजनीकांत की फिल्मों की कहानियों में कईकई 100 साल पुराने राजामहाराजा का जिक्र होता है, साथ ही उस की फिल्मों में कोई न कोई मंदिर जरूर दिखाया जाता है. ‘लिंगा’ की कहानी में भी एक प्राचीन मंदिर है जो पिछले 70 सालों से बंद पड़ा है. कहानी ईस्ट इंडिया कंपनी के टाइम की है, जब भारत में राजामहाराजाओं का शासन हुआ करता था. अंगरेजी सरकार के गवर्नर, कलैक्टर उन राजाओं पर अपना दबदबा बनाए रखते थे. दक्षिण के एक शहर में राज लिंगेश्वर ने एक मंदिर बनवाया था, मंदिर में एक शिवलिंग है जो रत्नों से बना है और बेशकीमती है. गांव के लोग राजा लिंगेश्वर का बहुत सम्मान करते थे. राजा के मरने के बाद वह मंदिर बंद पड़ा है. गांव वालों का मानना है कि उसे पूर्णिमा के दिन राजा का वारिस ही खोलेगा. गांव वाले गांव में एक बांध बनवाना चाहते हैं परंतु अंगरेज कलैक्टर इस की परमीशन नहीं देता.

राजा लिंगेश्वर का पोता के लिंगेश्वर उर्फ लिंगा (रजनीकांत की दूसरी भूमिका) अपने 4 दोस्तों के साथ मिल कर छोटीमोटी चोरियां करता है. वह एक ज्वैलरी एग्जिबिशन से 3 करोड़ रुपए की कीमत का एक हार चुराता है और उसे एक ज्वैलर को बेच देता है. लिंगा पकड़ा जाता है. टीवी रिपोर्टर लक्ष्मी (अनुष्का शेट्टी) एक स्टिंग औपरेशन करा कर उस की जमानत करा देती है. वह लिंगा को बताती है कि वह राजा लिंगेश्वर का पोता है और उसे उस के गांव चल कर राजा के मंदिर के कपाट खोलने हैं. लिंगा लक्ष्मी के साथ गांव में आता है जहां उस का स्वागत राजा की तरह होता है. वह राजा के महल में राजा बन कर रहता है. गांव वालों की परेशानियों को सुन कर अंगरेज गवर्नर से बांध बनाने की स्वीकृति ले लेता है और खुद बांध बनवाने में लग जाता है. चूंकि वह सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर चुका था, इसलिए अपनी देखरेख में मजबूत बांध का निर्माण कराता है. उस की राह में कलैक्टर और एक राजनीतिबाज रोड़ा अटकाते हैं. लेकिन लिंगा उस राजनीतिबाज को मार कर बांध का काम पूरा कराता है और गांव वालों की नजर में उन का भगवान बन जाता है.

यह फिल्म तमिल और हिंदी दोनों भाषाओं में बनी है. फिल्म में निर्देशक ने हर ऐसा मसाला डाला है जो दर्शकों को पसंद आता है. भव्य सैट, एक से बढ़ कर एक कौस्ट्यूम्स, हैरतअंगेज ऐक्शन सीन फिल्म की विशेषता है. फिल्म में पैसा पानी की तरह बहाया गया है. मध्यांतर से पहले का हिस्सा देखते वक्त दर्शकों को पता ही नहीं चलता कि कब इंटरवल हो गया. मध्यांतर से पहले बिकिनी पहने सुंदरियों के साथ रजनीकांत का डांस गीत ‘ओ रंगा रंगा रंगा’ अच्छा बन पड़ा है. साथ ही, अनुष्का शेट्टी के साथ भी एक डांस गीत अच्छा है. मध्यांतर के बाद हवा में उड़ते गुब्बारे पर चढ़ कर ऐक्शन सीन करना दर्शकों के रोंगटे खड़े कर देता है. के एस रवि कुमार क निर्देशन अच्छा है. फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा भी है, उस की ऐंट्री इंटरवल के बाद होती है. फिल्म में उस के करने लायक ज्यादा कुछ नहीं है. अनुष्का शेट्टी सुंदर व सैक्सी लगी है. ए आर रहमान का संगीत अच्छा है. तमिल गानों को हिंदी में डब किया गया है. फोटोग्राफी बहुत अच्छी है. एक बड़े विशाल बांध को बनते देख कर अच्छा लगता है.

बिंब प्रतिबिंब

गंभीर सवाल उठाती ‘युवा’

पीके जैसी फिल्मों की सफलता से सार्थक सिनेमा को बढ़ावा मिलता है. जल्द प्रदर्शित होने वाली फिल्म ‘युवा’ भी एक ऐसी फिल्म है जो आजकल के युवाओं की रुचि, पैशन और उन की उलझनों के अलावा महिला सुरक्षा, नशा और बलात्कार जैसे गंभीर मसलों को बेहतरीन तरीके से दिखाती है. इस फिल्म में फिल्म ‘ट्रिप टू भानगढ़’ से चर्चा में आई अभिनेत्री पूनम पांडे प्रमुख किरदार में नजर आएंगी. उन के साथ मशहूर हास्य कलाकार मोहित बघेल, संग्राम सिंह, जिमी शेरगिल, ओम पुरी, रजत कपूर भी नजर आएंगे. खास बात यह है कि पूनम मौडलिंग व अभिनय के साथ अच्छी गायिका भी हैं. उन्होंने शंकर महादेवन के बेटे सिद्धार्थ महादेवन के साथ एक गाना रिकौर्ड भी किया है. राजस्थान के एक पारंपरिक परिवार से आई अभिनेत्री पूनम पांडे को दर्शक जरूर पसंद करेंगे, ऐसी उन की उम्मीद है.

पाइरेसी के मारे फिल्मकार

निर्मातानिर्देशक अनुराग कश्यप की लगभग हर फिल्म किसी न किसी विवाद का शिकार होती है. कभी वे सैंसर बोर्ड से स्मोकिंग सीन्स को ले कर उलझ जाते हैं तो कभी उन की फिल्म में गालियों और हिंसा की अतिरेकता के चलते विवाद होता है. फिलहाल उन की फिल्म ‘अगली’ ने उन की नींद उड़ा दी है. दरअसल फिल्म ‘अगली’ रिलीज के पहले ही इंटरनैट पर लीक हो गई. फिल्म सिनेमाघरों में 26 दिसंबर को रिलीज हुई जबकि 3 दिन पहले से ही यह कई वैबसाइटों पर लीक हो गई. अब पायरेसी के शिकार अनुराग काफी परेशान हैं. चूंकि वे फिल्म के निर्माता भी हैं. एक तो पाइरेटेड सीडी के चक्कर में फिल्म निर्माता पहले से परेशान थे और अब इंटरनैट पर लीक होना निर्माताओं के लिए अच्छी खबर नहीं है.

पीके बनाम ओह माई गौड

आमिर खान अभिनीत बहुचर्चित फिल्म ‘पीके’ दर्शकों व फिल्म समीक्षकों को खासी रास आ रही है. लेकिन फिल्म के साथ एक विवाद भी जुड़ गया है. वह यह कि यह फिल्म अक्षय कुमार और परेश रावल अभिनीत फिल्म ‘ओह माई गौड’ से काफी मिलतीजुलती है. और तो और, खबर यह भी उड़ रही है कि एक समय जब फिल्म ‘ओह माई गौड’ की शूटिंग चल रही थी तो हीरानी और आमिर खान ने निर्देशक उमेश शुक्ला को फिल्म बंद करने के लिए मोटी रकम देने की बात की थी. हालांकि दोनों ही इस बात से इनकार कर रहे हैं लेकिन हीरानी ने इस बात को स्वीकार करते हुए कहा है कि फिल्म का बेसिक प्लौट जरूर ‘ओह माई गौड’ से मिलता था लेकिन बाद में हम ने अपनी कहानी बदल दी.

विदेशी शो में प्रियंका

अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा बौलीवुड की ऐसी अदाकारा हैं जो आजकल इंटरनैशनल लेवल पर अपनी इमेज बनाने में काफी मसरूफ हैं. अब वे अमेरिकन टीवी चैनल पर शो करने जा रही हैं. हौलीवुड के बड़े प्रोडक्शन हाउस एबीसी ने उन्हें इस शो के लिए साइन किया है. वैसे तो प्रियंका को जब यह औफर मिला तो वे काफी बिजी थीं. और उन के मुताबिक, इस शो के लिए वक्त निकालना बिलकुल भी आसान नहीं था लेकिन वे इस बात को भी समझ रही थीं कि ऐसे प्रोजेक्ट कैरियर में बारबार नहीं आते. इसलिए उन्होंने कैसे भी कर के, इस डील को हाथ से जाने नहीं दिया. फिलहाल प्रियंका जल्द ही इस शो की स्क्रिप्ट पढ़ने के लिए अमेरिका जाने वाली हैं.

के बालचंद्र का निधन

के बालचंद्र का नाम भले ही दक्षिण फिल्म इंडस्ट्री में ज्यादा पौपुलर हो लेकिन हिंदी फिल्मों से भी उन का विशेष जुड़ाव था. दादा साहेब फाल्के और पद्मश्री से पुरस्कृत हो चुके बालचंद्र ने कई भाषाओं में करीब 110 से अधिक फिल्में बनाईं. 84 साल के बालचंद्र का बीमारी के चलते 3 दिसंबर को चेन्नई के कावेरी अस्पताल में निधन हो गया. तमिल और तेलुगु के अलावा हिंदी में बनी फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ उन की यादगार फिल्म थी. कमल हासन और रति अग्निहोत्री अभिनीत इस फिल्म ने बेहद कामयाबी पाई थी. सुपरस्टार रजनीकांत को परदे पर लाने का क्रैडिट उन्हीं को दिया जाता है. उन्होंने रजनी के अलावा कमल हासन, सरिता और प्रकाश राज जैसे कलाकार भी दिए हैं. 

उन का आदर्श गोदी-गांव

वैसे तो वे उस दिन से ही पार्टी में घुटन महसूस कर रहे थे जिस दिन चुनाव में लाखों गंवा चुकने के बाद सांसद बन कर दिल्ली को कूच किया था. सोचा था सूद समेत पाईपाई महीनेभर में वसूल कर लेंगे और उस के बाद…बेचारों ने दिल्ली जातेजाते पता नहीं क्याक्या सपने देखे होंगे, वे जानें या फिर उन की आंखें. छोटे बेटे का ये करूंगा तो दामाद को वो. बड़े बेटे को यहां फिट करवा दूंगा तो साले को वहां. भांजे को दिल्ली में कहीं सैटल करवा जीजा का कर्ज भी उतार दूंगा. पर सब सपने धरे के धरे रह गए. कम्बख्त कहीं दांव ही नहीं लग रहा.

अब ऊपर से एक और नया पंगा. कोई गांव गोद लो और फिर उस का विकास करो. प्रकृति भी न, जब देती है तो चोट पर चोट ही देती है. भैयाजी को लगा कि अब तो ये सांसदी सुविधा कम, दुविधा अधिक होती जा रही है. पता नहीं किस घड़ी में चुनाव लड़ने को उठे थे. अगर ऐसे ही चलता रहा तो एक दिन त्यागपत्र दे, घर ही न जाना पड़े. हम ने जवानी में जब मन में कुछ करने का जज्बा था तब जनसेवा के नाम पर घास का तिनका तक न तोड़ा तो अब बुढ़ापे में क्या खाक करेंगे? भैयाजी दुविधा में कि कौन सा गांव गोद लें अपने कार्यकर्ताओं से महीन सर्वे करवाने के बाद भी वे अपने चुनाव क्षेत्र के किसी भी गांव को गोद लेने को फाइनल नहीं कर सके. दूसरी ओर उन के विरोधी थे कि 4-4 गांव तो छोडि़ए वहां की सारी गांववालियों तक को गोद ले अखबारों की सुर्खियां बटोर रहे थे.

‘‘अरे भैया, पागल हो गए सोचतेसोचते कि कौन सा गांव गोद लें और कौन सा छोड़ें, अब तुम ही कहो, कौन सा गांव गोद लें. राजनीति में ये बुरे दिन भी देखने थे जातेजाते. दिल्ली वाले बारबार कुछ और पूछने के बदले बस यही पूछे जा रहे हैं कि कोई गांव गोद लिया कि नहीं, जल्दी सूचना भेजो ताकि…गोद लेने को किसी हसीना को कहते तो अब तक पचासों ले चुके होते. लगता है हमारी तो अक्ल घास चरने जा चुकी है. अब तो हमें लगने लगा है कि अपनी तो गई सांसदी पानी में. अब तुम ही कोई गांव का नाम सुझा दो तो…ये कम्बख्त गांव आखिर होता क्या है? पहली बार ये शब्द सुना है.’’

‘‘भैयाजी, गांव 2 शब्दों के जोड़ से बना है. गां+व=गांव. गांव बोले तो विलेज,’’ मैं ने मौडर्न पाणिनि होते कहा तो वे मेरे ज्ञान के आगे आधे झुके. तब मैं ने आगे कहा, ‘‘धन्यवाद. इस में परेशान होने की कौनो बात नाहीं. अरे साहब, जब आप की अक्ल घास चरने चली ही गई तो समझो आधा गांव तो आप ने गोद ले ही लिया. बचा आधा गांव, वह भी हो जाएगा. आप बताइए तो सही, आप किस किस्म का गांव गोद लेने के इच्छुक हैं? मेरे पास एक से एक उजड़तेगुजरते गांव जेब में भरे पड़े हैं. बस, आप जरा इशारा कर दीजिए कि कैसा गांव चाहिए आप को गोद लेने को?’’ कुछ देर सोचने के बाद वे बोले, ‘‘जिस में केवल और केवल अपने ही वोटर हों. हम विरोधी वोटरों के गांव को गोद ले अपने पांव पर कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहते.’’

‘‘और?’’

‘‘जिस में गोबर करने वाली गायभैंसें, भेड़बकरियां न हों. कुत्तेशुत्ते न हों. असल में गोबरशोबर से हमें अपने विरोधी से भी अधिक नफरत है,’’ उन्होंने मेरी नाक बंद करते हुए कहा तो मेरा दम घुटने लगा.

‘‘अरे साहब, यहां तो अब आदमी तक गोबर करने लग गए हैं. ये सब तो बेचारे चौपाए हैं. ऐसे में गायभैंसों को तो गोबर करने से मत रोकिएगा. अगर आप ने गायभैंसों को गोबर करने से रोक दिया न, तो पता नहीं कितने संतों का मलमूत्र बेचने का धंधा बंद हो जाएगा? वे तो बेचारे गायभैंसों के मलमूत्र पर ही जी रहे हैं. और?’’

‘‘वहां कम से कम सारे पढ़ेलिखे हों. गंवारों के बीच मैं एक पल भी नहीं रह सकता. मैं कभी उन के बीच रहा ही नहीं. उन से कहो कुछ, तो वे उस का मतलब लेते हैं कुछ. ऐसे में संवाद में अवरोध पैदा होता है. और तुम तो जानते ही हो कि हमें विरोध और अवरोध कतई पसंद नहीं.’’

‘‘और?’’

‘‘वहां पर सड़कें चकाचक हों. जब मैं वहां जाऊं तो ऐसा लगे कि…धूल से हमें एलर्जी हो जाती है मेरे भाई.’’

‘‘और?’’

‘‘वहां कोई गरीब नहीं दिखना चाहिए. ये गरीब भी न, वर्ल्ड बैंक इन्हें उठाने के लिए सहायता देतेदेते मर गया.’’

‘‘साहब, इन्हें गरीब ही रहने दो. दुआ मांगो कि ये गरीब ही रहें. ये गरीबी से उठ गए तो हम खाएंगे क्या? और?’’

‘‘वहां के नलों में वाटर नहीं मिनरल वाटर आता हो, बस. वहां चाहे साल में एकाध बार ही जाना हो पर दूसरा पानी हम पी नहीं सकते. क्या फायदा, जो वहां का दूसरा पानी एक बार पी कर ही सालभर पेट पकड़े रहें.’’

‘‘और…’’

इस से आगे भैयाजी कुछ न कह सके.

… तो ऐसा हो सांसदजी का गांव.

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