Download App

गोद ली अर्पिता राजकुमारी की तरह हुई विदा

हर तरफ बहती बदलावों की बयार के बीच भारत में शादियों के आयोजनों में भी बदलाव दिख रहे हैं. शादी केवल पतिपत्नी के बंधन तक  सीमित नहीं रह गई है. शादियों के मौकों पर होने वाले आयोजनों की एक नई कारोबारी दुनिया बन गई है. अब शादियां किसी इवैंट सी हो गई हैं. वे दिन लद गए जब दुलहन के घर वाले शादी के आयोजन में पूरी तरह से व्यस्त नजर आते थे जबकि दूल्हा पक्ष वाले जेब में हाथ डाले नजर आते थे. अब दुलहन और दूल्हा दोनों ही पक्ष वाले शादी समारोह में केवल शामिल होने पहुंचते हैं. जबकि आयोजन का सारा काम इवैंट कंपनियां देख रही होती हैं. अब यह भी जरूरी नहीं कि शादी वहीं हो जिस शहर में लड़की रहती हो. शादी वहां भी हो सकती है जहां लड़की चाहती हो.

देश में शादियों के भव्य से भव्य आयोजन होने लगे हैं. शादियों के इन आयोजन से एक अलग तरह का व्यवसाय तैयार हो गया है. शादी के भव्य आयोजन के जरिए भी कुछ सामाजिक संदेश मिलते हैं. शादी का आयोजन कैसा भी हो, इस की सफलता आपसी प्यार और विश्वास पर टिकी होती है. फिल्म अभिनेता सलमान खान ने अपनी बहन अर्पिता की शादी जिस तरह से पूरे शाही अंदाज में की है उस से गोद लिए बच्चों के प्रति एक अहम सामाजिक संदेश भी लोगों तक पहुंचा है. फिल्म अभिनेता सलमान खान की बहन अर्पिता खान के बारे में शादी के पहले कम ही लोगों को पता था. ज्यादातर लोग अर्पिता खान को सलमान खान की बहन के रूप में ही पहचानते थे. हर भाई की तरह सलमान खान ने अपनी बहन ही शादी पूरी धूमधाम से की.

इस शादी के होने से पहले ही इस की काफी चर्चा हो रही थी. लेकिन जब यह शादी संपन्न हुई तब यह बात आम हुई कि अर्पिता बौलीवुड ऐक्टर सलमान खान के पिता सलीम खान की गोद ली बेटी हैं. सलीम खान ने 1981 में हेलन से शादी के बाद बहुत कम उम्र में अर्पिता को गोद लिया था. 5 भाईबहनों में अर्पिता सब से छोटी हैं. वे सलमान खान, अरबाज खान, सोहेल खान और अलवीरा से छोटी हैं. अर्पिता ने लंदन कालेज औफ फैशन से मार्केटिंग और मैनेजमैंट की डिगरी ली है. इस के बाद वे मुंबई में एक आर्किटैक्ट के रूप में इंटीरियर डिजाइनिंग फर्म में जौब करती हैं.

अर्पिता अपने भाइयों की लाड़ली हैं. वे भविष्य में फिल्म प्रोडक्शन में काम करना चाहती हैं. अर्पिता की इच्छा है कि वे खुद का अपना फैशन ब्रैंड लौंच करें. अर्पिता की दोस्ती हिमाचल प्रदेश के रहने वाले आयुष शर्मा के साथ हो गई. दोनों दोस्ती के रिश्ते को शादी में बदलना चाहते थे. आयुष दिल्ली में रहते हैं. वे हिमाचल प्रदेश के मंडी शहर के रहने वाले हैं. आयुष एक राजनीतिक परिवार से हैं. उन के पिता अनिल शर्मा हिमाचल में मंत्री रहे हैं. आयुष के दादा सुखराम हिमाचल के जानेमाने नेता हैं. वे क ांग्रेस के मशहूर नेता रहे हैं. वे कई बार लोकसभा के सदस्य रहे और केंद्र में मंत्री भी रहे हैं.

आयुष दिल्ली में रह कर अपने परिवार का बिजनैस संभाल रहे हैं. आयुष पर फिल्मी दुनिया का रंग चढ़ा हुआ है. वे मुंबई में रह कर फिल्मों में अपना कैरियर भी बनाना चाहते हैं. अर्पिता के साथ आयुष की दोस्ती ने रंग पकड़ा और लोगों ने बातें करनी शुरू कीं तो सलमान खान ने दोनों परिवारों को एक जगह बैठा कर उन की शादी की बात तय कर दी.

बहन की हसरत का खयाल

सलमान खान का परिवार मुंबई में रहता है और आयुष का परिवार दिल्ली में रहता है. अर्पिता की हसरत थी कि उस की शादी दिल्लीमुंबई से दूर हैदराबाद में होटल ताज के फलकनुमा पैलेस में हो. अर्पिता ने यह बात अपनी भाभी सीमा खान से कही. सीमा, सलमान खान के छोटे भाई सोहेल खान की पत्नी हैं. अर्पिता और सीमा छुट्टियां मनाने के लिए हैदराबाद गई थीं. वहां उन्होंने जब फलकनुमा पैलेस देखा तो उसे बहुत पसंद किया. अर्पिता की पसंद का पता जब भाई सलमान खान को चला तो उन्होंने अर्पिता और आयुष की शादी फलकनुमा पैलेस में करने की तैयारी की. इस के लिए 1 करोड़ रुपए प्रतिदिन के हिसाब से 2 दिन के लिए फलकनुमा पैलेस को बुक किया. फिल्मी दुनिया की ही नहीं, दूसरे क्षेत्र की बड़ी हस्तियों को भी इस में बुलाया गया. हैदराबाद में शादी के बाद रिसैप्शन मुंबई में देने का फैसला किया गया.

शादी की तैयारी में सलमान खान ने ड्रैस से ले कर खानपान तक में शाही अंदाज को दिखाने का पूरा प्रयास किया. दुलहन बनी अर्पिता राजकुमारी की तरह विदा हुईं. सलमान खान ने एक भाई की तरह अर्पिता की शादी में हर रस्म अदा की तो उन के पिता सलीम खान ने शादी में ठुमके लगाए. सलमान खान ने एक बहन की शादी में शानदार आयोजन किया जो लोगों के लिए भाईबहन के स्नेह का स्मरणीय उदाहरण बन गया. इसे लोग सालोंसाल याद रखेंगे. अर्पिता की शादी में हैदराबाद को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे कि वह मिनी मुंबई हो गया हो. अर्पिता ने गोल्डन ड्रैस पहन रखी थी जिस में वे किसी परी को भी मात दे रही प्रतीत हो रही थीं.

जानकारों का मानना है कि इस शादी में 50 करोड़ रुपए से ऊपर का खर्च आया होगा. देश और समाज में अभी तक गोद लिए बच्चों को एक अलग नजर से देखा जाता था. उन को बहुत अच्छी सामाजिक स्वीकृति नहीं थी. अर्पिता के प्रति सलमान खान और उन के परिवार का व्यवहार देख कर समाज में एक संदेश गया कि गोद  लिए बच्चों का भी अपने बच्चों के साथ पालनपोषण किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए. गोद लिए बच्चों को अगर सामाजिक स्वीकृति हासिल हो जाए तो समाज की एक बड़ी परेशानी दूर हो सकती है. देश में बच्चों को गोद लेने के संबंध में कानून को भी सरल करना पडे़गा. अभी गोद लेने का कानून बहुत पेचीदा है, जिस के चलते लोग बच्चा गोद लेने से बचने की कोशिश करते हैं.

संदेश दे रही फिल्मी हस्तियां

फिल्मी हस्तियों में सलीम खान के अलावा दूसरे तमाम लोग और भी हैं जो बच्चों को गोद ले कर उन का पालनपोषण कर रहे हैं. 39 साल की अभिनेत्री और मिस यूनिवर्स का खिताब पा चुकीं सुष्मिता सेन ने 2 लड़कियों को गोद ले रखा है. सुष्मिता सेन ने शादी नहीं की है. वे सिंगल मदर के रूप में अपनी 2 गोद ली बेटियों का पालनपोषण कर रही हैं. सुष्मिता सेन की बड़ी बेटी रिनी करीब 14 साल की हो चुकी है. उस को सुष्मिता ने साल 2000 में गोद लिया था. सुष्मिता ने साल 2010 में दूसरी बेटी अलीशा को गोद लिया. उस समय वह 3 माह की थी.  

फिल्मी अभिनेत्री रवीना टंडन ने 21 साल की उम्र में 1995 में 2 लड़कियों को गोद लिया.  गोद लेते समय छाया 8 साल की और पूजा 11 साल की थीं. रवीना टंडन का कहना है कि ये बच्चियां उन की छोटी बहनों की तरह हैं. पहले लोग बाहर के बच्चों को गोद लेने से बचते थे. लोगों का प्रयास होता था कि किसी अपने सगेसंबंधी के बच्चे को गोद लें. उस समय फिल्म डायरैक्टर सुभाष घई ने अपने छोटे भाई की बेटी मेघना को गोद लिया था. वे इस बात को सभी से छिपा कर रखना चाहते थे. मेघना अब सुभाष घई के फिल्म इंस्टिट्यूट में काम करती हैं.

फिल्म ‘सलामे इश्क’ बनाने वाले निखिल आडवाणी ने दिसंबर 2006 में एक बेटी को गोद लिया. ‘खोसला का घोसला’ और ‘ओय लकी लकी ओय’ फिल्म बनाने वाले दिबाकर बनर्जी ने मुंबई के अनाथालय से एक लड़की को गोद लिया और उस का नाम ईरा रखा. कोरियोग्राफर संदीप सोपारकर ने लंबी कानूनी लड़ाई के बाद बेटे अर्जुन को गोद लिया. पुरुष होने के कारण बच्चा गोद लेने में उन को परेशानी आई. अर्जुन को संदीप ने शादी होने से पहले गोद ले रखा था. संदीप के परिवार में कई गोद लिए बच्चे हैं. वे कहते हैं, ‘‘गोद लेने में कोई बुराई नहीं है. यह अच्छी बात है.’’

गोद लेने में संकोच कैसा

बांझपन समाज की सब से बड़ी समस्या है. एक ओर समाज की दकियानूसी सोच के कारण लोग बच्चे गोद लेने से परहेज करते हैं तो दूसरी ओर देश में बच्चा गोद लेने का कानून इतना जटिल है कि लोग इस से बचने की कोशिश करते हैं. इस कारण बच्चा पैदा करने के लिए लोग साधुसंत, बाबा, नीमहकीम सभी की चौखट पर पहुंच जाते थे. कई बार पत्नी को तलाक देने का यह सब से बड़ा कारण होता था कि वह बच्चे पैदा नहीं कर पा रही है. अगर देश में गोद लेने को सामाजिक स्वीकृति मिल जाए तो बहुत सारी कुरीतियों को दूर किया जा सकता है. गोद लेने के 2 लाभ होते हैं. एक, मांबाप को संतान मिल जाती है, दूसरे, बिना मांबाप के बच्चे को मातापिता मिल जाते हैं. 

सामाजिक स्वीकृति न मिलने के कारण मातापिता चोरी हो चुके बच्चों को गोद लेने की कोशिश करते हैं. इस कारण समाज में नवजात बच्चों की चोरी की घटनाएं बढ़ने लगी हैं. कई बार मातापिता बच्चे गोद लेना चाहते हैं पर कानूनी परेशानी की वजह से वे बच्चे को खुले तौर पर गोद न ले कर गैरकानूनी रूप से गोद लेते हैं. इस के बाद उसे वे समाज के सामने ऐसे पेश करते हैं जैसे वह उन का अपना खुद का बच्चा हो.

मिले सामाजिक स्वीकृति

लखनऊ में रहने वाले दंपती ने इस का कारण बताते हुए कहा, ‘‘शादी के 9 साल के बाद जब हमारे कोई बच्चा नहीं हुआ और डाक्टरों ने बच्चा होने की संभावना से इनकार कर दिया तो हम ने बच्चा गोद लेने की सोची. हमारे घरपरिवार वालों का दबाव था कि हम अपने ही सगेसंबंधी के बच्चे को गोद लें. हम इस से बचना चाहते थे. हमें लगता था कि ऐसे में बच्चे पर केवल हमारा अधिकार नहीं होगा. बड़ा हो कर बच्चा अपने असली मातापिता से भावनात्मक रूप से जुड़ जाएगा. ‘‘एक दिन हम लोगों ने तय किया कि हम नवजात बच्चा गोद ले लें और उसे अपना बच्चा कह कर ही पालें. इस के लिए हम दोनों अपने शहर से दूर गए. वहां एक अस्पताल में संपर्क किया. अस्पताल वालों के पास एक औरत थी जो बच्चे को जन्म दे कर पालना नहीं चाहती थी. हम ने वहां से बच्चा लिया. कुछ माह बाहर रहे. इस के बाद अपने बच्चे की तरह उसे ले कर घर आए. आज हम उसे अपने बच्चे की तरह ही पाल रहे हैं. समाज भी उसे हमारा बच्चा ही मानता है.

हम जानते हैं कि यह गैरकानूनी था पर हमारे सामने कोई दूसरा रास्ता नहीं था. आज मेरा मानना है कि समाज को न केवल गोद लिए बच्चे को बल्कि बच्चा गोद लेने वाले मातापिता को भी सम्मान की नजरों से देखना चाहिए.

सीख लेने की जरूरत

समाज की सोच बदलने से एक नया बदलाव होगा, जो तमाम दूसरी बुराइयों को खत्म कर देगा. सलमान खान ने जिस तरह से अपनी बहन अर्पिता की शादी की उस से गोद लिए बच्चों के प्रति समाज की धारणा बदलने में मदद मिल सकेगी. लखनऊ के गोमतीनगर इलाके में मनीषा मंदिर है. यहां पर लोग उन छोटी बच्चियों को छोड़ जाते हैं जिन्हें वे अपने पास नहीं रखना चाहते. लखनऊ में ऐसे कई शिशुकेंद्र हैं. इस तरह के केंद्र देश के दूसरे शहरों में भी हैं. इन केंद्रों में बहुत सारे ऐसे बच्चे होते हैं जिन को कोई गोद नहीं ले पाता. ऐसे में समाज की मदद से इन की शादी की जाती है. ‘अपना घर’ नाम से सामाजिक संस्था चला रही डा. निर्मला सक्सेना कहती हैं, ‘‘गोद लेने को सामाजिक स्वीकृति मिल जाए तो अनाथ बच्चों को मातापिता मिल सकते हैं. बड़ेबडे़ लोगों के सामने आने से दूसरों की सोच भी बदलती है. इस माने में देखें तो सलमान खान की शाही शादी से सामाजिक उद्देश्य को भी पूरा किया जा सकता है.’’

सरकारी मनमानी

हमारी सरकारों की आदत बन गई है कि वे किसी न किसी तरह आम आदमी की राह में रोड़े अड़ाएं. गनीमत है कि अदालतें इन रोड़ों को अभी तक हटाने में सक्षम हैं. पर पता नहीं कब केंद्र की गुस्सैल सरकार अपनी धौंस जमाने लगे और संविधान ही बदलने लगे, जैसा इंदिरा गांधी ने कई बार किया. भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी धीरेधीरे उस बहुमत की ओर बढ़ रहे हैं कि जिस से सरकार अपनी मनमानी कर सके.हाल में शिक्षा के मामलों में सरकार की मनमानी दिखी भी. पंडितों को नौकरियां उपलब्ध कराना सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा मंत्री स्मृति ईरानी ने फरमान जारी कर दिया कि केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत अनिवार्य होगी. गनीमत है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगा दी कि कम से कम मार्च तक संस्कृत को न थोपा जाए. उम्मीद की जाए कि तब तक सरकार का जोश ठंडा पड़ जाएगा.

वहीं, पिछली निकम्मी, भ्रष्ट सरकार की तरह नई सरकार भी दिल्ली में नर्सरी स्कूलों में प्रवेश के मनमाने नियम थोपने पर अड़ी थी. नर्सरी स्कूल निजी संस्थाओं द्वारा चलाए जाते हैं और एक तरह से ये दुकानें हैं जहां बच्चे कुछ घंटे खेलने, बात करने, पढ़ने, ड्राइंग करने के लिए मिलते हैं और उतनी देर मांएं अपना काम कर सकती हैं. उन में प्रवेश को ले कर धांधलियां होती हैं. पर वे ऐसी हैं जैसी सिनेमाहाल में नई फिल्म के लिए टिकटें ब्लैक की जाती थीं. यह कोरा व्यापारिक मामला है. इस का शिक्षा से कोई लेनादेना नहीं. नर्सरी स्कूल तो मुख्यतया आयागीरी का काम करते हैं. फिर भी सरकार अड़ी थी कि नियम उस के चलेंगे. अब उच्च न्यायालय ने सभी नियमों को गैरकानूनी करार दे दिया है. यह सही निर्णय है जो मातापिता को भटकाएगा नहीं और प्रबंधकों को राहत देगा.

सरकारें हर रोज जीवन के रोजमर्रा तौरतरीकों पर नियम बनाती रहती हैं. घर में पत्नी को कैसे रखें से ले कर हवाई जहाज में कैसे बैठें तक के लिए नियम बना डाले गए हैं और हर नियम का अर्थ है किसी सरकारी अफसर को अतिरिक्त अधिकार देना. शिक्षा के क्षेत्र में अधपढ़े लोग मंत्रालयों में भी अपनी चला रहे हैं और कुकुरमुत्तों की तरह उगे निजी संस्थानों में भी. इन की जुगलबंदी सरकारी नियमों की आड़ में शिक्षा और छात्रों का बेड़ा गर्क कर रही है. शायद, सब यही चाहते हैं कि हमेशा की तरह इस देश की जनता अनपढ़ या अशिक्षित ही रहे.

रामपाल की गिरफ्तारी

हरियाणा में हिसार जिले के बरवाला गांव स्थित रामपाल के किलेनुमा आश्रम पर पुलिस को धावा बोलने में कड़ी मशक्कत करनी पड़ी जैसे कि ‘आपरेशन ब्लू स्टार’ में भिंडरावाले को पकड़ने के लिए फौज की बटालियन को करनी पड़ी थी जिस का नतीजा यह हुआ था कि खालिस्तान का आंदोलन तो खत्म हो गया पर इंदिरा गांधी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. रामपाल अभी तक भिंडरावाला बना नहीं था पर वह कुछ उन्हीं कदमों पर चल रहा था. उस ने लाखों लोगों को भक्त बना डाला जो पैसा तो देते ही हैं, जान तक देने को तैयार हैं. उन्हीं के बलबूते वह अदालती आदेशों की अवहेलना कर रहा था पर उच्च न्यायालय की सख्ती के कारण पुलिस को हिचकिचाते हुए ही सही, आश्रम पर धावा बोलना पड़ा.

इस तरह के गुरु देशभर में फैले हैं और आश्रमों में शहंशाहों की तरह रह रहे हैं. ये देश के नए जागीरदार और छोटे राज्य बने हुए हैं. किसी भी सड़क पर चले जाइए, हर 20-25 किलोमीटर की दूरी पर एक भव्य इमारत किसी आश्रम की दिख जाएगी. धर्म को बेचने का जो संगठित षड्यंत्र रचा जा रहा है, रामपाल उसी की देन है और उसे एक अति महत्त्वाकांक्षी की खप्ती समझना गलत होगा.

मानवता की रक्षा के लिए भगवान ने धर्म को बनाया है, धर्म के दुकानदार इन झूठे बोलों को इतनी बार बोलते हैं कि वे सच लगने लगते हैं. धर्म की दुकान पर सदाचार, भाईचारा, परिश्रम, दया, भक्ति, दान, बराबरी बिकते हैं, यह सोच कर लोग अपनी गाढ़ी कमाई खर्च करते रहते हैं और धीरेधीरे उस के मकड़जाल में इतने फंस जाते हैं कि मारनेमरने को पुण्य कार्य समझने लगते हैं. रामपाल ने जो किया वह विश्वभर में हो रहा है, हमारे यहां कुछ ज्यादा हो रहा है. यहां अब हर जाति अपना गुरु खोजखाज कर पेश कर रही है और उसे स्वर्णजडि़त सिंहासनों पर बिठा कर खुद को धन्य मान रही है.

रामपाल और आसाराम जैसे तो कानूनी गिरफ्त में आ गए हैं पर उन्हें अपवाद मानें. धर्मों का धंधा अभी भी जोरों पर है और धड़ाधड़ नए आश्रम बन रहे हैं व पुराने फैल रहे हैं. धर्मप्रचार का यह काम सदियों से हो रहा है. हाल के दशकों में इस ने कुछ ज्यादा जोर पकड़ा है. अफसोस यह है कि यह जानते हुए भी कि धर्म के नाम पर ही देश का विभाजन हुआ, धर्म के चलते ही हुए सैकड़ों दंगों में लाखों मारे गए फिर भी धर्म को महत्त्व देने का काम बंद नहीं हो रहा. उलटे धर्म की पोल खोलने, उस में पोल के अलावा है ही क्या, वालों पर सरकार हावी होती है और उसी से रामपाल व आसाराम जैसों को शह मिलती है.

धर्म की रक्षा का संवैधानिक अधिकार मौलिक मानव अधिकारों के विरुद्ध है क्योंकि धर्म मानव अधिकारों व मानव स्वतंत्रता पर अंकुश लगाता है. हर भक्त अपने धर्म का मानसिक व शारीरिक गुलाम बन जाता है. इसी गुलामी का फायदा धर्मगुरु उठाते हैं. वे भक्तों को वृहत धर्म से, गुलामों की खरीदफरोख्त की तरह, किराए पर या खरीद कर अपने पंथ या आश्रम में ले आते हैं.

रामपाल ने सत्ता को चुनौती दी थी. अदालतों ने न जाने क्यों उसे गंभीरता से लिया. अदालत रामपाल को सत्ता और भीड़ से अलग कर देखने को अड़ गई और सत्ता की हिम्मत नहीं हुई कि वह देश की न्यायव्यवस्था से कोरे शब्दों में कह सके कि हम आप की नहीं सुनते. अदालत की सख्ती का ही नतीजा है कि रामपाल को गिरफ्तार किया गया वरना पूर्र्र्र्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा और वर्तमान मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के लिए रामपाल जैसे गुरुओं को गिरफ्तार करना तो दूर, उन को किसी तरह का नोटिस भी भेजने की भी मजाल नहीं है.

सरकारी रिश्वतखोरी

सरकारी आदमी हर गुनाह से ऊपर होता है. वह तो नेताओं से भी ऊपर है. वह ग्रंथों में वर्णित श्रेष्ठों की तरह है जिन्हें कोई दंड नहीं दिया जा सकता. स्मृतियों में निर्देश है कि श्रेष्ठ को तो हत्या का भी पाप नहीं लगता. हत्या के अपराध में उस का अपमान करना ही काफी दंड होता है. इसलिए जब नोएडा के एक इंजीनियर यादव सिंह के घर पर छापे में 1,000 करोड़ रुपए की संपत्ति मिलने की खबर आई तो मोटे शब्दों में छपा था कि दंड के नाम पर उन का पद छीन लिया गया है और उन्हें सूखी जगह पर भेज दिया गया है.

सुब्रत राय को सुप्रीम कोर्ट ने बंद कर रखा है. ओमप्रकाश चौटाला बंद हैं. जयललिता जेल में रहीं और अब जमानत पर हैं. कितने ही व्यापारी जेलों में हैं. आम आदमी तो सरकारी ईंट उठाने के जुर्म में भी महीनों की कैद काट आते हैं पर सरकार के आदमी को कोई छू नहीं सकता. सरकारी नौकर, पुलिस वाला व सैनिक सब इन गुनाहों से ऊपर दिखते हैं. अमेरिका में भी कुछ ऐसा ही है. वहां की अदालत ने एक गोरे पुलिस अधिकारी को बरी कर दिया जिस ने निहत्थे अश्वेत युवा को गोली मार दी थी क्योंकि अफसर के अनुसार वह भागने की कोशिश कर रहा था. सरकारें अपने आदमियों के प्रति इतनी संवेदनशील रहती हैं कि कहीं उन्होंने विद्रोह कर दिया तो पूरा शासन ही बिगड़ न जाए. यही नहीं, उन्हें यह डर भी होता है कि कहीं सरकारी अफसर सरकार की निरंकुशता की पोल न खोल दें. अदालतें रामपाल जैसे ढोंगी के लिए तो गिरफ्तारी के आदेश दे सकती हैं पर एक रिश्वतखोर जज, आईएएस अफसर, पुलिस आयुक्त को अदालत में पेश होने तक के आदेश देने से कतराती हैं.

इस अफसर के पास नोएडा, ग्रेटर नोएडा व यमुना ऐक्सप्रैसवे प्राधिकरणों का चार्ज था और यह मायावती के करीबी लोगों में था. इस अफसर के समय लाखोंकरोड़ की जमीनें दिल्ली व आगरा के बीच किसानों से जबरन ली गईं और उन्हें बिल्डरों को बेचा गया. इस छीनाझपटी में लेनदेन तो होना ही था. गरीब किसानों की जमीनों पर अब रेस ट्रैक बन रहे हैं, होटल बन रहे हैं, कीमती मकान बन रहे हैं, फर्राटे से गाडि़यां दौड़ सकें ऐसी सड़कें बन रही हैं. ये सब मुफ्त में तो नहीं होता. सैकड़ों को नजराने देने होते हैं. चूंकि अंत में जनता इस नजराने को जमीन की कीमत का हिस्सा मान लेती है, इसलिए वह कोई आपत्ति नहीं करती. बात आईगई, हो जाती है.

इस अफसर पर गाज क्यों गिरी, यह तो शायद कभी पता न चले क्योंकि सरकार कभी ही अपने लोगों पर पर भी छापा मारने की कार्यवाही करती है. चाहे लोकपाल बनवा लो, लोकायुक्त बनवा लो या केंद्रीय जांच ब्यूरो लगवा लो, जब केंद्रीय ब्रांच ब्यूरो के प्रमुख पाकसाफ न साबित हो रहे हों, फिर भी खुले घूम रहे हों तो अदने से अफसर पर छापा मारा जाना किसी रंजिश का नतीजा ही है, रिश्वतखोरी दूर करने का प्रयास नहीं, यह समझ लें.w

नए साल का अंदाज-ए-स्वागत

नया साल हर किसी के लिए ढेरों खुशियां व समृद्धि ले कर आए इस के लिए हर कोई नए साल का स्वागत अलगअलग तरीके से, हर बार नए अंदाज में करना चाहता है. लोग नए साल का स्वागत पूरी मौजमस्ती के साथ कर सकें इस के लिए नाइट क्लब, मूवी थिएटर, रिसौर्ट, रैस्तरां, एम्यूजमैंट पार्क आदि सभी जगहों पर खास इंतजाम किए जाते हैं जहां नाचगाने के साथ खानेपीने का भी अनोखा इंतजाम किया जाता है. वहां हर उम्र के लोग साल के अंतिम दिन को खुशीपूर्वक विदाई देते हैं और नए साल का जोशपूर्ण स्वागत करते हैं.

इवैंट मैनेजमैंट का सहारा

आज की भागदौड़ भरी जीवनचर्या में लोग एकदूसरे से मिल कर उत्सव नहीं मना सकते, इसलिए वे अधिकतर मैसेज और फोन कौल को सहारा बना लेते हैं. पिछले 5 वर्षों से नया साल अलगअलग क्रेजी तरीके से मनाया जाने लगा है. इस के लिए लोग इवैंट मैनेजमैंट का सहारा लेते हैं. इस बारे में मुंबई की क्राफ्ट वर्ल्ड के इवैंट और्गेनाइजर मनोज महाले बताते हैं कि नए साल की शुरुआत के 1 महीने पहले से ही लोग उन्हें कौंटैक्ट करने लगते हैं. इस साल करीब 15 पार्टियां अरेंज करनी हैं. ये पार्टियां इसलिए अच्छी होती हैं कि इन में कई परिवार मिल कर पैसे खर्च करते हैं. जिस में लाइट, खाना, डांस शो या किसी कलाकार को आमंत्रित करना भी शामिल होता है. करीब 40 लोगों की टीम मनोज के साथ काम करती है. पार्टी स्थल में लाइट का प्रबंध खास होता है. ये पार्टियां बजट के अनुसार आयोजित की जाती हैं.

आजकल टाटा स्काई की ओर से कराओके सर्विस भी उपलब्ध है जिसे ले कर आप घर पर खुद गाना गा सकते हैं. दरअसल, बड़े शहरों में भीड़भाड़ भरे रास्ते से जा कर कहीं पार्टी मनाना एक समस्या होती है. वहां रात को घर वापस आना भी मुश्किल होता है. ऐसे में घर पर अगर सुकून के कुछ पल अपनों के साथ बिता लिए जाएं तो क्या कहने.

सितारों की खास तैयारी

टीवी अभिनेत्री जिया मानेक अपने नववर्ष के प्लान के बारे में बताती हैं, ‘‘इस बार मैं घर पर ही अपने परिवार के साथ नया साल मनाने वाली हूं. मेरा घर 16वीं मंजिल पर है, इसलिए वहां से पटाखे छोड़ने की खूबसूरती बालकनी से देख सकूंगी.’’

अभिनेत्री श्रद्धा आर्या का कहना है, ‘‘मैं दिल्ली जा रही हूं. वहां मेरे सारे कजिंस रहते हैं. पूरा परिवार एकसाथ होने वाला है और मैं दिल्ली की ठंड का स्वागत घर पर रह कर करूंगी.’’

कुछ कलाकार नए साल का स्वागत मुंबई से बाहर या विदेशों में जा कर करने वाले हैं. उन का कहना है कि मुंबई उन की कर्मभूमि है जहां रिलैक्स करना मुश्किल होता है. ऐसे में बाहर किसी प्राकृतिक स्थान पर जा कर नए साल को मनाना सुखद होता है.

अभिनेत्री दिव्यंका त्रिपाठी कहती हैं कि इस बार वे अपने मंगेतर शरद मल्होत्रा के साथ विदेश घूमने जा रही हैं. अगले साल वे शादी के बारे में सोचेंगी. नए साल का वे खुशियों के साथ स्वागत करेंगी.

कोरियोग्राफर और फिल्म निर्माता फराह खान के लिए 2014 काफी सफल रहा. उन की फिल्म ‘हैप्पी न्यू ईयर’ ने उन्हें अच्छी कामयाबी दिलाई, वे इस का ही सैलिब्रेशन अपने परिवार और दोस्तों के साथ करने वाली हैं.

टीवी अभिनेता रित्विक धनजानी भी नए साल के शो में व्यस्त रहते हैं. वे कहते हैं, ‘‘अगर इस साल समय मिला और कोई काम नहीं रहा तो पत्नी आशा नेगी और दोस्तों के साथ मुंबई से बाहर घूमने जाऊंगा क्योंकि इस समय मौसम खुशनुमा रहता है. परिवार व दोस्त साथ हों, तो घूमने का मजा दोगुना हो जाता है.’’

नए साल में केवल खुशियां पाना ही नहीं, बल्कि आने वाले हर काम का भी स्वागत करना चाहिए. टीवी अभिनेत्री रतन राजपूत कहती हैं कि मैं मुंबई में रहूंगी. उस दौरान अपने मातापिता, दोस्तों के बीच रहना चाहती हूं. इस के अलावा नए साल में जो भी काम मुझे मिलेगा. उस का स्वागत करने के लिए मैं तैयार हूं.

अभिनेता करन कुंद्रा नए साल की शुरुआत अपनी मेहनत और उद्देश्य पूर्ति के साथ करना चाहते हैं. उन का कहना है कि इस के लिए मुझे मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ रहना जरूरी है. इस के लिए वे सही डायट लेंगे और नियमित जिम जाने की कोशिश करेंगे.

अभिनेत्री पायल के नए शो ‘महाकुंभ’ की इन दिनों शूटिंग चल रही है. वे व्यस्त हैं लेकिन नए साल का स्वागत वे अपने भाई और मातापिता के साथ बाहर जा कर करेंगी. उन की मां दिल्ली से मुंबई आ रही हैं, इस तरह वे नए साल के मौके पर काफी दिनों बाद मां के हाथ का बना खाना खाएंगी.

बहरहाल, नए साल को मनाने का जश्न हर किसी को अच्छा लगता है क्योंकि इस अवसर पर आप अपने मित्र, परिजन से मिल पाते हैं, उन के साथ अपने पूरे साल के कार्यकलापों का आदानप्रदान कर सकते हैं. कुछ समय उन के साथ बिताते हैं. इन सब से हर रिश्ता फिर से नया हो जाता है. साथ ही, पुराने साल को विदा कर आप नए साल में ऊर्जावान हो कर प्रवेश करते हैं.

श्रीमती की नजर

जब तक हम अविवाहित थे यह बात हमारी समझ से परे थी कि पत्नियों की नजर अपने पतियों पर कम उन की पौकेट पर अधिक होती है. तब यह सुन कर ऐसा लगता था मानो पत्नी कोई सुलताना डाकू हो जो पति की जेब पर डाका डाल कर दरियादिली से अपने और अपने बच्चों के ऊपर पैसा लुटाती हो.

जो भी हो, अविवाहित रहते हुए हम कभी भी इस बात से इत्तेफाक न रख सके कि पत्नी की नजर पति की पौकेट पर होती है. तब तो शादी के खयाल मात्र से ही मन में खुशी का बैंडबाजा बजने लगता था. ‘आह, वो ऐसी होगी, वो वैसी होगी’ यही सोचसोच कर मन में लड्डू फूटते रहते थे.

पत्नी का मतलब हमारी दृष्टि में एक सच्ची जीवनसाथी जो पति का खूब खयाल रखती है उस से अधिक कुछ और नहीं था. पत्नी का पौकेटमार होना हमारे लिए सोचना भी पाप था. वह उम्र ही ऐसी थी.

यह सही है कि जब तक नदी में गोता न लगा ले तब तक उस की गहराई की केवल कल्पना की जा सकती है, वास्तविक गहराई नहीं जानी जा सकती. ऊंट को अपनी ऊंचाई का सही आभास तब तक नहीं होता जब तक वह पहाड़ के नीचे से न निकल जाए.

हर मर्द शादी से पहले अपनेआप को बड़ा ऊंचा ऊंट समझता है और जब शादी के पहाड़ के नीचे से गुजरता है तब उसे अपने वास्तविक कद का पता चलता है. बड़ेबड़े हिटलर पत्नी के आगे पानी मांगते हैं जब वह टेढ़ी या तिरछी नजर से देखती है.

हम भी बचपन से अपने को बड़ा पढ़ाकूपिस्सू और कलमघिस्सू समझते रहे. अपनेआप को बड़ा ज्ञानी, ध्यानी समझते रहे. हमें ऐसा लगता था जैसे सारी दुनिया का ज्ञान हम ने ही बटोर रखा है. कोई रचना प्रकाशित हुई नहीं कि बल्लियों उछलने लगते थे.

शादी के बाद जब एक रचना छप कर आई तो श्रीमतीजी पर रोब गालिब करने और अपने लेखक होने की महानता को सत्यापित कराने के लिए उस रचना को महत्त्वपूर्ण सर्टिफिकेट की तरह उन के सम्मुख प्रस्तुत किया. श्रीमतीजी ने पहले तो उस रचना को बड़ी ही उपेक्षित नजर से देखा. इस से हमारा दिल दहल गया. लेकिन हमारा सम्मान रखते हुए 2-3 लाइनें पढ़ीं और फिर पूछा, ‘‘डार्लिंग, इस का कितना पैसा मिलेगा?’’

हम श्रीमती के प्रश्न और प्रश्नवाचक नजर से कुछ असहज हुए और फिर अचकचाते हुए बोले, ‘‘ये तो छापने वाले जानें.’’

यह सुनते ही श्रीमतीजी ने रचना को एक ओर रखते हुए कहा, ‘‘माल (रचना) तुम्हारा और कीमत जानें पत्रिका वाले, यह भी कोई बात हुई.’’

हम ने श्रीमतीजी को थोड़ा समझाते हुए कहा, ‘‘अभी हम इतने बड़े कालिदास नहीं हुए कि अपनी रचनाओं की कीमत स्वयं तय करें. वे छाप देते हैं, क्या यह कम बड़ी बात है.’’

‘‘टाइमवेस्ट और कुछ नहीं,’’ श्रीमतीजी हमें बालक की तरह नसीहत देती हुई बोलीं.

उस दिन हमें कुछकुछ लगा कि पत्नियां पौकेटमार भी होती हैं, पैसे पर नजर रखती हैं.

उस दिन हमें सचमुच यह भी लगा कि अपुन की औकात क्या है? मन तो हुआ कि सब लिखनापढ़ना छोड़ दें और डिगरी कालेज की लेक्चररी में ही अपनी जिंदगी काट दें. पर लिखने का कीड़ा जिसे काटता है वही जानता है. इस के काटने के दर्द में कितना मजा होता है.

जब भी श्रीमतीजी हमें लिखता हुआ देखतीं तो मुंह बिचका कर निकल जातीं, जैसे हम न जाने कितना घटिया और मनहूस काम कर रहे हों. उस समय श्रीमतीजी की नजर में हम स्वयं को कितना लज्जित महसूस करते, उस का वर्णन करना मुश्किल है. इस अपमान से बचने का हमारे पास एक ही रास्ता बचा था कि श्रीमतीजी की नजरों से बच कर चोरीछिपे लिखा जाए.

एक दिन ऐसा हुआ कि हम ने अपना सीना कुछ चौड़ा महसूस किया. हुआ यह कि 2 रचनाओं के चैक एकसाथ आ गए. इन चैकों की रकम इतनी थी कि श्रीमतीजी की पसंद की साड़ी आराम से आ सकती थी. हम ने श्रीमतीजी को मस्का लगाते हुए कहा, ‘‘लो महारानीजी, तुम्हारी साड़ी आ गई.’’

साड़ी का नाम सुनते ही श्रीमतीजी ऐसे दौड़ी चली आईं जैसे भूखी लोमड़ी को अंगूरों का गुच्छा लटका नजर आ गया हो. आते ही चहकीं, ‘‘कहां है साड़ी? लाओ, दिखाओ?’’

हम ने दोनों चैक श्रीमतीजी को पकड़ा दिए. श्रीमतीजी ने दोनों चैकों की धनराशि देखी और थैंक्यू बोलते हुए हमारे गाल पर एक प्यारी चिकोटी काट ली. हम इस प्यारी चिकोटी से ऐसे निहाल हो गए जैसे हमें साहित्य अकादमी का साहित्यरत्न अवार्ड मिल गया हो.

हमें एकबारगी यह ख्वाब आया कि श्रीमतीजी यह तो पूछेंगी ही कि किन रचनाओं से यह धनराशि प्राप्त हुई है. लेकिन उन्होंने यह पूछने की जहमत नहीं उठाई. बस, कसी हुई नजर से इतना कहा, ‘‘जहां से ये चैक आए हैं वहीं रचना भेजा करो. मुफ्त वालों के लिए लिखने की जरूरत नहीं है.’’

हम मान गए कि श्रीमतीजी को हमारी रचनाओं से मतलब नहीं, उन की नजर सिर्फ आने वाले चैकों पर है.

इस के बाद जब कभी भी पोस्टमैन आता तो हम से पहले श्रीमतीजी उस के दर्शन के लिए पहुंच जातीं. एक दिन पोस्टमैन की आवाज आते ही श्रीमतीजी रसोई से दौड़ती हुई दरवाजे पर पहुंचीं. हम भी चहलकदमी करते हुए श्रीमतीजी  के पीछेपीछे दरवाजे तक पहुंचे.

पोस्टमैन बोला, ‘‘बाबूजी, आप का मनीऔर्डर है.’’

श्रीमतीजी हमें बिना कोई अवसर दिए तुरंत बोलीं, ‘‘कितने का है?’’

‘‘मैडमजी, 50 रुपए का.’’

‘‘क्या? क्या कहा, 50 रुपए का?’’ श्रीमतीजी ऐसे मुंह बना कर बोलीं जैसे पोस्टमैन से बोलने में गलती हो गई हो.

हम ने स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘‘अरे भाई, ठीक से देखो. आजकल 50 रुपए कोई नहीं भेजता, 500 रुपए का होगा.’’

हमारे कहने पर पोस्टमैन ने एक बार फिर से मनीऔर्डर को देखा. धनराशि अंकों में देखी, शब्दों में देखी. फिर आश्वस्त हो कर बोला, ‘‘बाबूजी, 50 रुपए का ही है.’’

जैसे ही पोस्टमैन ने 50 रुपए का नोट निकाल कर श्रीमतीजी की ओर बढ़ाया तो वे खिन्न हो कर बोलीं, ‘‘यह दौलत इन्हीं को दे दो, बच्चे टौफी खा लेंगे.’’

पोस्टमैन ने व्यंग्यात्मक मुसकराहट के साथ वह 50 रुपए का नोट हमारी ओर बढ़ा दिया. मेरे लिए तो वह 50 रुपए का नोट भी किसी पुरस्कार से कम नहीं था. लेकिन श्रीमतीजी के खिन्नताभरे व्यंग्यबाण और पोस्टमैन की व्यंग्यात्मक हंसी ऐसी लग रही थी जैसे हिंदी का लेखक दीनहीन, गयागुजरा और फालतू का प्राणी हो जिस को कई प्रकार से अपमानित किया जा सकता हो और बड़ी आसानी से मखौल का पात्र बनाया जा सकता हो.

उस दिन श्रीमतीजी की नजर में हम 50 रुपए के आदमी बन कर रह गए थे.

जान पर भारी अंधविश्वास

16 नवंबर, 2014 को मुरादाबाद जनपद के अमरोहा के अदलपुर ताज गांव से 16 श्रद्धालु एक टाटा मैजिक में सवार हो कर बरेली के आंवला में होने वाले एक सत्संग में भाग लेने के लिए सुबह 6.30 बजे निकले. जैसे ही वह कुंदरकी के पास पहुंचे तभी तेज गति से आ रहे भूसे से लदे ट्रक ने टक्कर मार दी. हादसा जबरदस्त था. चीखपुकार मची, लेकिन बहुत जल्द चीखें शांत हो गईं. सभी लोग खून से लथपथ थे. सड़क खून से लाल हो गई. मैजिक की टीन के टुकड़ों ने लोगों के शरीर को छलनी कर दिया. किसी तरह लोगों को निकाला गया. हादसे में 10 महिलाओं सहित 12 लोगों की मौत हो गई. पोस्टमार्टम हाउस पर लाशों की कतार लग गई. यह देख कर हर कोई गमजदा था. सत्संग में जा रहे लोगों के साथ यह कोई पहला हादसा नहीं था. 4 साल पहले रामपुर रोड पर इसी तरह के हादसे में 22 लोगों की मौत हो गई थी. इस से पहले सत्संग में जा रही बस के दुर्घटनाग्रस्त होने से 17 लोगों की जान चली गई थी.

गाजियाबाद निवासी हरवीर की बात करें तो उस की माली हालत अच्छी नहीं थी. उसे किसी ने सलाह दी कि वह गंगा नहाए तो न सिर्फ उस के पाप धुल जाएंगे बल्कि आर्थिक रूप से भी वह संपन्न हो जाएगा. खुशहाली का यह टोटका उसे शौर्टकट भी लगा और अच्छा भी. इस के लिए उस ने शुभदिन वट अमावस्या,

28 मई, 2014 के दिन का चुनाव भी कर लिया.

वह जानता था कि अमावस्या के चलते भारी भीड़ रहेगी, इसलिए 27 मई की अर्द्धरात्रि को एक वैन में खुद हरवीर, उस की पत्नी शीला, 7 माह की बेटी लवी, 8 साल की चंचल, 10 साल की संध्या, 2 भतीजे-4 वर्षीय वंश, 5 वर्षीय यश, उस के जीजा मुकेश, जोकि दिल्ली के मंगोलपुरी से उसी शाम पुण्य लाभ की मंशा से आए थे, उन की पत्नी गीता, 24 वर्षीय बेटी प्रियंका, प्रियंका की डेढ़ वर्षीय बेटी चाहत, मुकेश की दूसरी विवाहित बेटी रिंकी, उस का पति विजय व उन का 4 साल का बेटा गौरव सवार हो कर ब्रजघाट के लिए निकल गए. वैन में कुल 14 लोग सवार थे. सब से पहले पुण्य पाने की चाहत में सभी ने तड़के

4 बजे से पहले ही स्नान कर लिया. खास दिन कमाई करने के लिए बैठे पंडेपुजारियों ने भी उन सब के तिलक लगा कर बोहनी कर ली. स्नान के बाद हरवीर हरहर गंगे कर के वापस हो लिया. उस ने सोचा कि उस के सारे संकट गंदगी व कचरे से छटपटा रही गंगा ने अपने सिर ले लिए हैं. 5 बजे के आसपास तेज रफ्तार वैन जैसे ही राष्ट्रीय राजधानी मार्ग संख्या 24 पर पिलखुवा इलाके में पहुंची तभी आगे चल रहे एक ट्रक ने अचानक बे्रक लिए और वैन तेज आवाज के साथ उस से जा टकराई. टक्कर भीषण थी. वैन के परखचे उड़ चुके थे. पुलिस व राहगीरों ने सभी फंसे लोगों को निकाला, तो उन में से हरवीर, उस की पत्नी शीला, बेटी लवी, चंचल, बहन गीता, उस के पति मुकेश, गीता की दोनों बेटियां प्रियंका, रिंकी व प्रियंका की बेटी चाहत की मृत्यु हो गई. बाकी गंभीर रूप से घायल हो गए.

इसी दिन एक पंडित के कहने पर पति की लंबी उम्र की कामना करने गंगा स्नान को जा रही शशि शर्मा की ट्रक से कुचल कर मृत्यु हो गई.

1 साल पहले गंगा दशहरा के खास अवसर पर गंगा नहा कर वापस जा रहे 24 श्रद्धालुओं ने एक भीषण हादसे में अपनी जान गंवा दी. दरअसल, बुलंदशहर जिले के मुकुंदगढ़ी गांव के लोग, महिलाओं व बच्चों के साथ एक मेटाडोर में सवार हो कर गंगा स्नान व दीपदान करने के लिए गए थे. वे तड़के वापस आ रहे थे कि मेटाडोर की टक्कर औरंगाबाद क्षेत्र के शेखपुरा गांव के पास सामने से आ रही रोडवेज बस से हो गई. बेहद भीषण दुर्घटना में मेटाडोर के परखचे उड़ गए. उन के लिए गंगा स्नान रक्त का स्नान बन गया. मौतों का सिलसिला यहीं नहीं रुका. नरौरा, बुगरासी, अनूपशहर व ब्रजघाट में 6 से ज्यादा श्रद्धालुओं की गंगा में डूबने से मौत हो गई. 15 अन्य श्रद्धालु गंगा में डूब गए जिन्हें बमुश्किल निकाला गया.

अंधविश्वास की परकाष्ठा कहें या विडंबना कि ऐसी दुर्घटनाओं से भी कोई सबक नहीं लिया जाता. साल में कई मौके आते हैं जब गंगा स्नान के लिए विभिन्न धार्मिक स्थानों पर रेलमपेल रहती है और लोग मारे जाते हैं. सड़कों पर लंबा जाम लग जाता है, तो लोग मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं कुछ इस तरह जैसे किसी धार्मिक स्थान पर न जा कर युद्ध में जाने से पहले वाक् व शारीरिक शक्ति का अभ्यास कर रहे हों. गेरुआ वस्त्र पहने, लालपीली चुन्नी माथे से बांधे लोग व तिलकधारी भी शर्मसार कर देने वाली गालियां देते हैं.

समाज को यह पाठ पढ़ाने वाले कि ‘बहनों की इज्जत करनी चाहिए, बच्चों को अच्छे संस्कार देने चाहिए’, भी यह भूल जाते हैं कि बहनबेटियां व बच्चे उन की गालियों से शर्मसार हो जाते हैं. लड़ने वाले ये हाथ गंगाघाट, मठ, मंदिर में पहुंच कर ऐसे झुक कर जुड़ जाते हैं जैसे उन्होंने कोई पाप ही न किया हो. गालियां देने वाली जबान भी कथित भगवान का नाम बुदबुदाती है. शराब पी कर ‘हरहर गंगे’ बोल कर डुबकियां लगाई जाती हैं. इन के अलावा, छिछोरों की फौज अलग से रहती है. उन का काम गंगा में नहाती महिलाओं व लड़कियों को निहारना होता है. मौका मिलने पर वे छेड़छाड़ करने से भी नहीं चूकते.

जान है तो जहान है

सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर के जो लोग गंगा स्नान के नाम पर वहां जाते हैं उन की अकाल मृत्यु क्या दर्शाती है? लोग सोचते हैं कि वे पुण्य काम के नाम पर जा रहे हैं इसलिए उन की हर तरह

की गारंटी भगवान ही ले, फिर चाहे वे शराब पिएं या तेज रफ्तार गाडि़यां दौड़ाएं. यह पुरानी कहावत तो याद ही रखनी चाहिए कि जान है तो जहान है. जब कोई हादसा हो जाए तो पंडेपुजारी उसे ईश्वर की मरजी बताते हैं. दरअसल, उन की खुशहाली के आर्थिक गणित का गुणाभाग दुख, तकलीफों से मारे लोगों पर ही चलता है. जो चले जाते हैं उन्हें भूल कर वे नई पौध पर ध्यान लगाते हैं. न कोई टैक्स न पंजीकरण का झंझट. कहीं भी चादर बिछाई और शुरू हो गया कर्मकांड. 

अफसोसजनक यह कि अंधविश्वास की पट्टी जान पर भी भारी पड़ रही है, फिर भी लोग अंधभक्ति नहीं छोड़ रहे. कर्म अच्छा न हो और सुबहशाम गंगा में डुबकियां लगाएं तो कोई लाभ नहीं. बिना मेहनत व संघर्ष के कुछ फल नहीं मिलता. वरना गंगा घाटों के किनारे बसने वाले लोग दुनिया के सब से अमीर लोगों की सूची में शामिल होते.

जब संघ करेगा सामाजिक न्याय तो क्या करेगा जनता परिवार?

केंद्र में मोदी की सरकार बनने के बाद सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीति करने वालों ने जनता परिवार को एक बार फिर से एकजुट करने की कोशिश शुरू कर दी है. जनता परिवार 1988 में लोकदल, कांग्रेस (एस) और बोफोर्स मसले पर कांग्रेस सरकार को घेरने वाले पूर्व कांग्रेसी नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनमोरचा के गठजोड़ से उपजा था. समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव, जनता दल युनाइटेड के नीतीश कुमार, जनता दल (सैक्युलर) के एच डी देवगौड़ा, समाजवादी जनता पार्टी के कमल मोरारका और इंडियन नैशनल लोकदल के ओम प्रकाश चौटाला ने हाथ मिलाते हुए एकजुटता का संदेश देने की कोशिश की. इन नेताओं ने मुलायम सिंह को अपना नेता भी चुन लिया है.

ये वही लोग हैं जो जनता दल से समयसमय पर अलग होते थे. जनता दल की सरकार में प्रधानमंत्री वी पी सिंह का मंडल कमीशन की रिपोर्ट को स्वीकारने को ही इन नेताओं ने अपनी सब से बड़ी उपलब्धि कह कर, अलगअलग कुनबों में बंटते हुए राजनीति के निजीकरण का फुटकर खेल खेलना शुरू कर दिया था.

2006-07 में जब अंबानी बंधुओं के लिए सपा सरकार दादरी में भूमि अधिग्रहण कर रही थी तो वी पी सिंह ने इसे जनविरोधी बता कर जमीन में किसानों के हक में हल चलाया तो मुलायम सिंह ने उन की गिरफ्तारी करवा दी. ऐसे में मंडलवादी राजनीति के ये पैरोकार जब मंडलवादी राजनीति की सीमाओं के साफ होने और प्रस्तावित नई पार्टी हेतु जनसमर्थन जुटाने के लिए दूसरे मुद्दों को तलाशने की बात कह रहे हैं तो इस पर शक होना स्वाभाविक है.

संघ की नीति

आज जब आरएसएस भी आरक्षण समर्थक हो गया है तब ऐसे में किसी जनता परिवार की एकजुटता की समीक्षा जरूरी हो जाती है. अक्तूबर 2014 में लखनऊ में हुई आरएसएस की अखिल भारतीय केंद्रीय कार्यकारी मंडल की बैठक के पूर्व ही कोर कमेटी में उस के परिवारी संगठनों की तरफ से आ रहे एजेंडों ने साफ कर दिया था कि वे दलितोंपिछड़ों को खास तरजीह देंगे.

इसे सिर्फ हिंदुत्ववादी छवि के साथ लगे कट्टरता के टैग को हटाने की प्रक्रिया से हट कर उस के समरसता जैसे अभियानों का कथित सामाजिक न्याय और सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति करने वालों के समक्ष एक सुनियोजित, संगठित रणनीति के रूप में देखने की जरूरत है, जिस की कोई काट फिलहाल किसी जनता परिवार के सदस्य के पास नहीं है.

दीवाली को छुआछूत मुक्ति को समर्पित करते हुए विश्व हिंदू परिषद यानी विहिप ने साफ किया कि वह ऐसे संबंध निर्माण करना चाहता है जो किसी भी राजनीतिक प्रक्रिया से न टूटें. अपने राजनीतिक चेहरे भाजपा को मजबूती देने में संघ को दलितोंपिछड़ों का साथ दूर तक और स्थायी चाहिए. इसी के तहत विहिप ने दलितों से चौकाभोजन का नाता जोड़ने और हिंदू परिवार मित्र की रणनीति अपनाई है.

युवाओं में संघ की लोकप्रियता और हिंदुत्व की भावना मजबूत करने के लिए तीर्थस्थलों को पर्यटन स्थल की तरह विकसित करने का भी प्रस्ताव पेश किया है.

पिछड़ों की गोलबंदी

दलितोंपिछड़ों को संघ ढांचे में स्थायी स्वरूप देने की प्रक्रिया, उस सामाजिक न्याय की राजनीति, जो हिंदू धर्म में ससम्मान स्थान पाने के लिए या समाहित होने के लिए ही थी, को संकट में ला देगा. इसीलिए सामाजिक न्याय के नाम पर दलितों और पिछड़ों को गोलबंद करने वाली राजनीतिक पार्टियां इसे संघ द्वारा वंचित तबके को गुमराह करने की कोशिश बता रही हैं. पर अगर हम इन अस्मितावादी रुझानों से हट कर देखें तो संघ जो कर रहा है, उसे ईमानदारी से पूरा कर देगा तो क्या होगा?

आखिर सवाल साथ बैठने, खानेपीने का ही तो था? आखिर दलित और पिछड़ों को इस वक्त क्या चाहिए? इस का आकलन करने की जरूरत है.

दूसरे, जनता परिवार के सदस्यों ने जो गोलबंदी की थी वह सवर्णवादी राजनीति के खिलाफ थी. उसे मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आने के बाद सवर्णों की प्रतिक्रिया के रूप में उग्र प्रदर्शनों ने मजबूती दी थी.

इन दिनों उत्तर प्रदेश और बिहार को केंद्रित करते हुए भाजपा ने लगातार कई फेरबदल सिर्फ इसलिए किए कि सामाजिक न्याय के नाम पर जो राजनीति की जा रही है, उस से वह निबट सके. ऐसे में भाजपा को सिर्फ सांप्रदायिक कह कर अनदेखा नहीं किया जा सकता. धार्मिकता भाजपा का गुप्त एजेंडा नहीं है. देखना यह चाहिए कि वह जिस दलितपिछड़े समूह को आकर्षित कर रही है उस की कहीं यही इच्छा तो नहीं है जिसे भाजपा पूरा कर रही है?

क्या जमीनी हकीकत

इस बात की विवेचना करने की भी जरूरत है कि लालू यादव द्वारा बिहार के समस्तीपुर में लालकृष्ण आडवाणी का राम मंदिर रथ रोकने को या फिर उत्तर प्रदेश की तरह मुलायम द्वारा उन को उत्तर प्रदेश की सीमा में न घुसने देने के वादे को बारबार दोहरा कर धार्मिकता के खिलाफ खड़े योद्धा का जो बखान किया जाता है उस की जमीनी हकीकत क्या है?

बिहार में भागलपुर दंगों के 25 साल बाद भी उस के पीडि़त इंसाफ की बाट जोह रहे हैं, वहां पर धार्मिक हमला करने वाले यादव जाति के ही लोग थे. क्या पीडि़ता के साथ इंसाफ हुआ है?

कुछकुछ ऐसा ही मुलायम सिंह के उत्तर प्रदेश में भी है. बाबरी मसजिद के गुनाहगार कल्याण सिंह, जो उस समय भाजपा मुख्यमंत्री थे, को क्या एक दिन की भी सजा हुई है? ऊपर से मुलायम सिंह उन्हें अपने साथ ले लेने की जुर्रत करते हैं. वह किसी जनता की अपील को भांपते हुए ऐसा करते हैं.

झुकाव किस की तरफ

उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव में भाजपा और उस के सहयोगियों को 73 सीटों पर मिली अप्रत्याशित जीत के बाद यह धारणा बलवती हुई है कि पिछड़ी व दलित जातियों, खासतौर पर निचली पिछड़ी व दलित जातियों, का एक बड़ा हिस्सा भाजपा के प्रति आकर्षित हुआ है.

उस के बाद प्रदेश की राजधानी लखनऊ में इन दिनों पिछड़ी जातियों के समाजवादी सम्मेलनों की एक बाढ़ सी आ गई है. जगहजगह बड़ेबड़े होर्डिंगों से राजधानी से यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि निचली पिछड़ी जातियों का झुकाव सपा की तरफ बरकरार है. कभी निषाद तो कभी प्रजापति सम्मेलन करने वाली मुलायम सिंह की सपा को यह समझना चाहिए कि राजनीति में वैचारिक गोलबंदी होती है न कि ठेकेदारों की.

जहां तक राजनीतिक गोलबंदी का सवाल है तो वह आरएसएस, अपनी राजनीतिक विंग भाजपा के लिए कर ही रहा है. ठेकेदारों का क्या, आज सपा का टैंडर पास है तो वह सपा के साथ हैं, कल जिस का होगा, वे उस के यहां होंगे.

ब्राह्मणवाद या मनुवाद विरोधी राजनीति में 2 तरह की सोच आम हैं. एक यह कि मनुवादी वर्ण व्यवस्था जाति आधारित न हो कर कर्म आधारित थी, लेकिन ब्राह्मणवादी ताकतों ने इसे जाति आधारित कर, पूरे दलितपिछड़े समुदाय को समाज के निचले पायदान पर धकेल दिया. तो वहीं दूसरा, आर्य-अनार्य की बहस, जिस के तहत वंचित तबके को अनार्य कहते हुए आर्यों द्वारा उन की पूरी व्यवस्था को कब्जाने की बात कही जाती है.

यादवों की लोरिक सेना, राजभरों की सुहेल देव सेना जैसी अवधारणाओं को ले कर कुछ पिछड़ी जातियां अपनी आक्रामक छवि से अपने वंशजों के क्षत्रिय होने के दावे करती हुई दिखती हैं. ऐसी कई बहसों में उलझी सामाजिक न्याय की राजनीति के बौद्धिक प्रकोष्ठ इस तरह की बहसों को फिर स्थापित करने की कोशिश में हैं.

सब का अपना एजेंडा

उत्तर प्रदेश व बिहार में सामाजिक न्याय के ठेकेदार कमंडल के पीछे पड़ने के बाद अल्पसंख्यकों के प्रति बढ़ती धार्मिकता के वैचारिक पहलुओं पर न खुद को टिका पाए और न ही अपने जनाधार को.

मायावती कभी भाजपा के साथ सरकार बनाने को तैयार हो जाती हैं तो कभी बाबरी मसजिद के विध्वंस में गुनाहगार माने जाने वाले कल्याण सिंह को मुलायम सिंह अपने साथ ले लेते हैं.

यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. क्योंकि मुलायम व मायावती किसी कट्टर धर्म विरोधी राजनीति की पैदावार नहीं हैं. वे तो हिंदू समाज के अंतर्विरोधों की पैदाइश हैं. जो कांशीराम 1992 में धार्मिकता विरोधी मुहिम में शामिल रहे, जब भाजपा के साथ सरकार बनाने का सवाल आया है तो उन्हीं के साथ चल दिए. 

अगस्त 2003 में जब मायावती के सिर से ताज छिना तो मुलायम ने बड़े स्तर पर दलबदल करा कर सत्ता को हथियाया. इस सरकार के पीछे अमर सिंह और राजनाथ सिंह का मुलायम प्रेम कौन भूल सकता है. उस समय संघ ने यह कहा था कि उस के एजेंडे को जो आगे बढ़ाएगा वह उस के साथ है और मौजूदा सरकार उस के माकूल है.

जाति आधारित राजनीति

जब संघ कहता है कि उस के लोग हर राजनीतिक दल में हैं तो उस का अभिप्राय हार्डकोर संघी से नहीं होता. वह उस वैचारिक प्रक्रिया की बात करता है जिस के तहत वह दूसरों को समाहित करता है.

1947 में जो कांग्रेस राज करने आई थी उस में आज के मंत्रियों से ज्यादा कट्टरपंथी थे. संघ को दोष देने से अधिक इस राजनीतिक प्रक्रिया के गुणदोषों की चर्चा करनी होगी. 2013 में मुजफ्फरनगर व आसपास की सांप्रदायिक हिंसा को जाट बनाम मुसलिम बताने वाले मुलायम सिंह को 2012 में फैजाबाद में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर भी अपने विचार रखने चाहिए जहां भाजपा के विधायक रामचंद्र यादव के नेतृत्व में यादवों ने संगठित रूप से मुसलमानों पर हमले किए.

कथित सामाजिक न्याय के आंदोलन के खात्मे की तसवीर साफ होती जा रही है. साथ बैठने, खानेपीने तक की इच्छा पर आधारित इस तबके की राजनीति को फासीवाद के बड़े खतरे के खिलाफ खड़ा करने की कोई कोशिश नहीं हुई.

यह किसी भूल के तहत नहीं, बल्कि सोचीसमझी साजिश के तहत हुआ क्योंकि अगर ऐसा होता तो दलितपिछड़ा, जातियों में नहीं बल्कि अपने वर्गीय गोलबंदी में लड़ता, जो जाति आधारित राजनीति को संकट में ला देता. जातिगत राजनीति की अंतिम शरणस्थली हिंदुत्ववादी ढांचा ही है जो किसी दलित में मुसलमानों के प्रति उसी तरह के घृणाभाव को दिखाता है जितना किसी सवर्ण में उस के प्रति दिखता है.

संघ परिवार को मालूम था कि अब जब मुसलमान अपने हकहुकूक की बात करने लगा है तब वह उस के खिलाफ पिछड़ोंदलितों को खड़ा कर देगी. सच्चर कमेटी के बारे में बिना किसी जानकारी के दलितपिछड़ा रिपोर्ट की सिफारिशों के खिलाफ हो जाता है. वह उस के निर्धारित कोटे से मुसलिम को आरक्षण देने के सवाल को संघ की भाषा में तुष्टीकरण कहने लगता है.

सामाजिक न्याय के नाम पर जनता परिवार से निकले नेताओं और दलों की तरफ से जो कुछ हो रहा था वह हिंदुत्व में पीछे से शामिल होने की प्रक्रिया थी, किसी नए निर्माण की प्रक्रिया नहीं थी. तो अब सामाजिक न्याय के खिलाड़ी फिर से क्यों किसी नए निर्माण की बात कर रहे हैं?

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें