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सिंघम रिटर्न्स 2

रोहित शेट्टी द्वारा निर्देशिंत ‘सिंघम रिटर्न्स’ उन की पिछली फिल्म ‘सिंघम’ का सीक्वल है. इस बार फिल्म में खलनायकों का जमावड़ा है, जिन से नायक अकेला ही मुकाबला करता है, जैसे कि अमूमन हिंदी फिल्मों में दिखाया जाता रहा है.

हां, ‘सिंघम रिटर्न्स’ में शेर वाली दहाड़ नहीं है. ‘सिंघम रिटर्न्स’ का यह शेर दहाड़ने के बजाय गोलियां बरसाता है. ‘सिंघम रिटर्न्स’ ऐक्शन ड्रामा फिल्म है. रोहित शेट्टी ने फिल्म के हीरो बाजीराव सिंघम को पहले भी पुलिस अफसर दिखाया था, इस बार भी वह पुलिस की वरदी में है, मगर अब वह डीसीपी बन गया है. इस बार उस का मुकाबला किसी डौन से नहीं है, एक राजनीतिबाज और उस के चेले भ्रष्ट बाबा से है. यह बाबा अपने भक्तों को बेवकूफ बना कर उन की धनदौलत को लूटता है, सुंदरसुंदर स्त्रियों का देह शोषण करता है और रात के अंधेरे में वे सभी काली करतूतें करता है जो ज्यादातर बाबा लोग किया करते हैं.

यह सब करने के लिए बाबाओं को कौन बढ़ावा देता है? उन के अंधविश्वासी भक्त और नेता ही तो बाबाओं की जयजयकार करते हैं. फिल्म में एक जगह बाबा के मुंह से कहलवाया भी गया है, ‘आम आदमी की तकलीफ डर पैदा करती है और डर अंधविश्वास को पैदा करता है. और फिर अंधविश्वास बाबाओं को पैदा करता है.’ फिल्म में इस बाबा ने कई नाटकीय हरकतें की हैं. गनीमत है कि निर्देशक ने बाबाओं की करतूतों को दिखाने की कोशिश की है और माहौल की चिंता नहीं की है. वरना इस फिल्म में नया कुछ भी नहीं है. पुलिस अफसर और भ्रष्ट राजनीतिबाज का ड्रामा है. डीसीपी बाजीराव सिंघम की पोस्ंिटग अब गोआ से मुंबई में हो चुकी है. वह उन भ्रष्ट नेताओं को पकड़ने के लिए मुहिम चलाता है, जिन का कनैक्शन ब्लैकमनी से है.

भ्रष्ट नेता प्रकाशराव (जाकिर हुसैन) के दम पर प्रदेश में मुख्यमंत्री अधिकारी (महेश मांजरेकर) की सरकार चल रही है. प्रकाशराव को एक बाबा (अमोल गुप्ते) का आशीर्वाद प्राप्त है, जिस के माध्यम से वह करोड़ों रुपयों का लेनदेन कर चुनाव में अपनी पार्टी को जीत दिलाना चाहता है. प्रकाशराव एक आदर्शवादी नेता गुरुजी की हत्या भी करवाता है. वह एक पुलिस अफसर को भी मरवाता है. बाजीराव  सिंघम मामले की जांच करता है और उसे प्रकाशराव व बाबा के खिलाफ कई सुबूत मिल जाते हैं. वह उन्हें गिरफ्तार कर लेता है परंतु सरकारी दबाव पड़ने पर उसे उन्हें रिहा करना पड़ता है. आखिरकार वह पुलिस की वरदी उतार कर उन दोनों को खत्म कर डालता है. फिल्म यही दर्शाती है कि हमारी कानून व्यवस्था तो लचर है. जो करना है मारपीट कर कर लो चाहे खलनायक हो या नायक हो.

निर्देशक ने फिल्म में अनुपम खेर को अन्ना हजारे का सा लुक दे कर उसे आदर्शवादी दिखाने की कोशिश की है. आम आदमी पार्टी की याद दिलाने वाले प्रसंग भी फिल्म में डाले गए हैं. दूसरी ओर फिल्म में जबरदस्त ऐक्शन सीन भी हैं, गोलीबारी के साथसाथ रौकेट लौंचरों से मिसाइलें दागी गई हैं और बम धमाके किए गए हैं जो अस्वाभाविक हैं. कारों को हवा में उड़ा कर उन में विस्फोट कराए गए हैं. यह सब देख कर लगा जैसे किसी वार फिल्म के सीन देख रहे हैं. ये हथियार युद्धों में इस्तेमाल होते हैं या आतंकवादियों के हाथ में होते हैं. फिल्म का क्लाइमैक्स अटपटा है. पूरी पुलिस फोर्स का वरदियां उतार कर सड़कों पर जुलूस की शक्ल में चलना व भ्रष्ट नेताओं के साथ भिड़ जाना कानून और संविधान से बचकाना खेल लगता है. पता नहीं क्यों हमारे निर्माता तर्क को ताक पर रख कर काम करते हैं.

अजय देवगन पर अब उम्र हावी लगती है. फिर भी उस ने अच्छे ऐक्शन सीन दिए हैं. अमोल गुप्ते ने अब तक कई फिल्में निर्देशित की हैं. इस फिल्म में वह भौंडा बहुरुपिया बाबा बन कर रह गया है. महेश मांजरेकर का काम अच्छा है. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष कुछ ठीक है. फिल्म के अंत में योयो हनी सिंह का आइटम सौंग अच्छा बन पड़ा है. फिल्म के संवाद अच्छे हैं. अजय देवगन ने कई संवाद मराठी भाषा में बोले हैं, जो अखरते नहीं हैं. फिल्म का छायांकन अच्छा है. और हां, इस फिल्म में करीना कपूर भी है पर क्यों है, इस को जानने के लिए सीआईडी वाले दया (दयानंद चंद्रशेखर शेट्टी) से पूछना होगा.

अखिल की जोरदार वापसी

भारतीय मुक्केबाज अखिल कुमार मिश्रा ने कोरिया के इंचियोन में होने वाले एशियाई खेलों की 10 सदस्यीय भारतीय पुरुष टीम में शानदार वापसी की है. बैंथमवेट 56 किलोग्राम भारवर्ग से लोकप्रियता हासिल करने वाले अखिल अब 19 सितंबर से 4 अक्तूबर तक होने वाले एशियाई खेलों में 60 किलोग्राम भारवर्ग में मैदान में उतरेंगे. 2008 के एआइबीए विश्व कप में कांस्य पदकधारी अखिल ने अपने चयन के बाद कहा, ‘‘किसी भी खेल में प्रैक्टिस बहुत जरूरी होती है. चोट लगने और पुलिस की ट्रेनिंग के चलते मैं मुक्केबाजी से दूर हो गया था. एक समय तो मेरा वजन भी बढ़ कर 75 किलोग्राम हो गया था. लेकिन परिवार और दोस्तों ने मेरा हौसला बनाए रखा. मेरी पत्नी और ससुर भी मुक्केबाज हैं. उन की भी मदद और अपने आत्मविश्वास के कारण मैं दोबारा रिंग में आया हूं.’’

वर्ष 2006 के राष्ट्रमंडल खेलों के स्वर्ण पदकधारी और वर्ष 2008 ओलिंपिक खेलों के क्वार्टरफाइनल में पहुंचने वाले इस मुक्केबाज को अपने कैरियर में लगातार चोटों से जूझना पड़ा जिस के कारण वे वर्ष 2012 में लंदन ओलिंपिक में भाग नहीं ले सके थे लेकिन उम्मीद है कि इस बार जब वे मैदान में उतरेंगे तो कुछ हलचल जरूर करेंगे.

इस के अलावा 49 किलोग्राम में एल देवेंद्र सिंह, 52 किलोग्राम में मदनलाल, 56 किलोग्राम में शिव थापा, 64 किलोग्राम में मनोज कुमार, 69 किलोग्राम में मनदीप जांगड़ा, 75 किलोग्राम में विकास कृष्ण, 81 किलोग्राम में कुलदीप सिंह, 91 किलोग्राम में अमृतप्रीत सिंह के अलावा 91 किलोग्राम से अधिक भारवर्ग में सतीश कुमार शामिल हैं. वहीं, महिला दल में 5 बार विश्व चैंपियनशिप जीतने वाली मैरी कौम 51 किलोग्राम भारवर्ग में, राष्ट्रमंडल की रजत पदक विजेता एल सरिता देवी 60 किलोग्राम भारवर्ग में और 75 किलोग्राम भारवर्ग में पूजा रानी मैदान में उतरेंगी.

घर के शेर बाहर ढेर

भारतीय क्रिकेट टीम इन दिनों आलोचनाओं से दोचार हो रही है. वजह साफ है, हमेशा की तरह टीम इंडिया के धुरंधर विदेशी धरती पर कोई कारनामा नहीं दिखा पाए. लौर्ड्स टैस्ट की ऐतिहासिक जीत के बाद लग रहा था कि शायद टीम इंडिया आगे भी कुछ इसी तरह कारनामा करेगी पर अगले टैस्ट मैच में टीम इंडिया बिखर गई.

टैलीविजन चैनलों और अखबारों में फिर से बहस शुरू हो गई कि महेंद्र सिंह धौनी को अब कप्तानी छोड़ देनी चाहिए क्योंकि विदेशी मैदानों में धौनी का रिकौर्ड देखें तो वे 17 टैस्ट में टीम की कप्तानी कर चुके हैं जिन में 13 टैस्ट भारत हार चुका है.

वैसे भारतीय क्रिकेटरों की हमेशा से ही यह कमजोरी रही है कि घरेलू मैदान में वे शेर हो जाते हैं और विदेशी धरती पर जाते ही उन्हें ढेर होने में देर नहीं लगती. दरअसल, भारतीय टीम को तेज और उछालभरी पिचों पर खेलने की आदत नहीं है क्योंकि घरेलू मैदानों की पिचें इस तरह नहीं बनाई जाती हैं. यह समझ से परे है कि आखिर विदेशी पिचों की भांति यहां वैसी पिचों का निर्माण क्यों नहीं किया जाता. वहीं, बात केवल पिचों की ही नहीं है. बल्लेबाजी में मध्य क्रम को मजबूत करना होगा क्योंकि विराट कोहली की गैरमौजूदगी में मौजूदा टीम के पास कोई ऐसा खिलाड़ी नहीं है जिस से कि मध्यक्रम मजबूत नजर आ रहा हो. गेंदबाजी और क्षेत्ररक्षण में भी टीम इंडिया विदेशी पिचों पर खरी नहीं उतरती.

दरअसल, आईपीएल के आने के बाद क्रिकेट का स्तर लगातार गिर रहा है और टीम इंडिया लगातार विपक्षी टीमों के सामने घुटने टेकती नजर आ रही है. यह सच है कि क्रिकेट खिलाड़ी अब कारोबारियों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गए हैं. तभी तो मशहूर इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘विदेशी खेल अपने मैदान पर’ में आईपीएल के नकारात्मक पहलुओं को उजागर करते हुए कहा है कि मुझे डर था कि आईपीएल के बहाने जन्मा क्रिकेट क्लब का नया ढांचा पुराने और सुस्थापित रणजी टूर्नामैंट को बरबाद कर देगा और राष्ट्रीय क्रिकेट को भी नुकसान पहुंचाएगा.

यहां रामचंद्र गुहा की बातें एकदम सटीक बैठ रही हैं. इसलिए केवल धौनी को बदलने से क्रिकेट के अच्छे दिन नहीं आने वाले हैं, क्रिकेट खेल को बचाना है तो ताबड़तोड़ क्रिकेट यानी आईपीएल के साथसाथ टैस्ट क्रिकेट और एकदिवसीय मैचों के लिए खिलाडि़यों पर भी ध्यान देना होगा, वरना हम घर के ही शेर साबित होते रहेंगे.

सफर अनजाना

बात पुरानी है, मैं और मेरे पति ट्रेन से सैकंड क्लास डब्बे में इंदौर जा रहे थे. हम जहां बैठे, ठीक उस के दूसरी तरफ दूसरा परिवार बैठा था. उन के साथ तकरीबन 8-10 साल के 2 छोटे बच्चे थे. वे रात को खाने के समय ट्रेन में इधरउधर दौड़ते फिर रहे थे और उन के मातापिता उन के मुंह में खाने का ग्रास डाले जा रहे थे. बच्चे खाना बर्थ पर गिरा रहे थे. उन के मातापिता पढ़ेलिखे लग रहे थे, लेकिन फिर भी बच्चों को ऐसा करने से मना नहीं कर रहे थे.

भोजन के कारण गंदी हुई सीटें देख कर हमें बहुत खराब लग रहा था. भोजन के बाद उन्होंने खाने के लिए कुछ फल निकाले. बच्चे फलों के छिलके व बीज कंपार्टमैंट में ही इधरउधर फेंकने लगे. जब ट्रेन के चलने का समय हुआ व और यात्री डब्बे में आने लगे तो हमें हैरानी हुई कि उन्होंने अपना सामान पैक करना शुरू कर दिया और कहने लगे, ‘चलो, अपनी सीट पर चलते हैं.’ यह देख कर कि पढ़ेलिखे लोग भी ऐसी हरकत करते हैं, मैं हैरान थी.

डिंपल पंडया, अहमदाबाद (गुज.)

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मैं उज्जैन से पुणे जा रहा था. ट्रेन में हमारी खिड़की वाली सीट थी. पास की बर्थ पर नवविवाहित दंपती बैठे थे. यात्रा शुरू होने के 1 घंटे बाद पास बैठे सज्जन बोले, ‘‘सर, मिसेज का जी बहुत मितला रहा है, उल्टी जैसा हो रहा है. इन्हें खिड़की के पास बैठने देंगे तो शायद इन्हें राहत मिलेगी.’’ मैं इनकार न कर सका. शेष यात्रा में वे हंसते, मुसकराते, बतियाते और चुहलबाजी करते रहे. तबीयत खराब जैसी कोई बात मुझे दिखाई नहीं दी.

कुछ ही देर बाद उसी कोच में बैठे अपने परिचित मित्र से मैं मिलने गया. वे अपनी सीट पर नहीं थे. मैं लौट आया. उन महाशय, जिन की पत्नी को मैं ने अपनी सीट दी थी, ने मुझे जाते हुए तो देखा था लेकिन तुरंत ही वापस लौटते नहीं देखा था. मैं ने सुना, वे अपनी पत्नी से कह रहे थे, ‘‘क्यों, उसे बेवकूफ बना कर तुम्हें खिड़की के पास कैसा बिठाया?’’ उन महाशय की पत्नी ने चूंकि मुझे वापस लौटते देख लिया था, इसलिए उस ने होंठों पर उंगली रख चुप रहने के लिए इशारा किया. वे सकपका गए.

बड़ौदा से आगे किसी स्टेशन पर उतरने के लिए जैसे ही वे खड़े हुए, मैं स्वयं को रोक न सका. नाराज होते हुए पूछा, ‘‘क्यों भई, पत्नी को खिड़की के पास बैठाने के लिए झूठ बोलते तुम्हें शर्म नहीं आई?’’ ‘‘इस में शर्म की क्या बात है? आप से जबरदस्ती तो नहीं की थी हम ने? पूछा था तो आप इनकार कर देते.’’ जहां धन्यवाद या आभार मानने की अपेक्षा की जाती है वहां रूखे शब्दों में प्रतिप्रश्न सुन कर मैं निरुत्तर हो भौचक उस व्यक्ति को देखता रह गया.

डा. एम जी नाडकर्णी, उज्जैन (म.प्र.)

हमारी बेडि़यां

घटना नागपुर जिले के एक गांव की है. 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली किशोरी का उसी के गांव के एक युवक से प्रेमसंबंध था. परिजनों को यह पसंद न था और उन्होंने किशोरी को प्रेमसंबंध खत्म करने की हिदायत दी लेकिन वह अपने प्रेमी को छोड़ने के लिए तैयार न हुई. युवक से प्रेमसंबंध खत्म कराने के लिए परिजन किशोरी को एक 66 वर्षीय तांत्रिक के पास ले गए. तांत्रिक ने लड़की के सामने परिजनों से गहन पूछताछ की और विशेष शक्ति से उपचार करने का झांसा दिया. तांत्रिक की 26 वर्षीय एक महिला सहयोगी भी उस के साथ रहती है. उसी सहयोगी की मदद से तांत्रिक ने किशोरी को अपने विशेष उपचार कक्ष में ले जा कर पूरी तरह नग्न कर दिया. उस के अंगों से खेलते हुए तांत्रिक ने उस का 2-3 बार बलात्कार किया. अस्मत लुटने के बाद किशोरी को बेहोशी की दवा दे कर सुला दिया गया.

तांत्रिक ने परिजनों को युवक के प्रेम का भूत किशोरी के दिल और दिमाग से पूरी तरह से निकालने के लिए कुछ और प्रभावी उपचार भी जरूरी बता कर उन्हें घर भेज दिया. रात 7 बजे से तांत्रिक ने किशोरी पर अघोरी उपचार शुरू किया. पूर्णरूपेण नग्न किशोरी पर दिया रख कर कई जगह चटके दिए गए. इस दौरान पानी पीपी कर छात्रा बेहोश होती रही और तांत्रिक अपनी महिला सहयोगी के सामने ही किशोरी से रात 10 बजे तक उपचार के बीच बारबार बलात्कार कर रंगरेलियां मनाता रहा. महिला सहयोगी उसे बारबार उकसाती रही. जब तांत्रिक व उस की महिला सहयोगी दोनों सो गए तब पीडि़त किशोरी दुष्टों के चंगुल से छूट कर अपने घर पहुंची और रोरो कर सारे मामले की जानकारी परिजनों को दी.

गंगाप्रसाद मिश्र, नागपुर (महा.)

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घटना थोड़े समय पहले की है, सोमवार का दिन था. मैं रोज की तरह मंदिर जा रही थी. रास्ते में एक साधु, जिस के एक हाथ में कमंडल, दूसरे हाथ में नाग की पिटारी थी, मुझ से बोला, ‘‘बेटी, आज सोमवार है, नाग देवता को दूध पिलाएगी तो नाग देवता तेरा भला करेंगे.’’

मैं ने 2 रुपए का सिक्का उस के कमंडल में डाल दिया.

वह बोला, ‘‘तेरी क्या मनोकामना है?’’

मैं ने कहा, ‘‘मेरे बच्चे अच्छे नंबरों से पास हो जाएं.’’

वह बोला, ‘‘तेरे पर्स में जो सब से बड़ा नोट है वह इस कमंडल में डाल दे.’’

उस वक्त मेरे पर्स में 100 रुपए का ही सब से बड़ा नोट था. मैं ने वह नोट उस के कमंडल में डाल दिया. उस समय उस ने मेरा बे्रनवाश कर दिया था और मैं उस की बातों में आ गई. हालांकि मेरे दोनों बच्चे पढ़ाई में अच्छे हैं. हमेशा अच्छे नंबरों से पास होते हैं. फिर मैं क्यों उस की बातों में आ गई, जानतेबूझते बेवकूफ बन गई.

ऊषा जैन, राणा प्रताप बाग (दि.)

आप के पत्र

सरित प्रवाह, अगस्त (प्रथम) 2014

आप की संपादकीय टिप्पणी ‘वादों का खोखला बजट’ सटीक लगी. वैसे तो सरकार कोई भी हो, बजट का ढर्रा वही रहता है. हजार, लाख, करोड़ के आंकड़ों में लिपटे बजट से आम आदमी का क्या सरोकार. स्वास्थ्य बजट में सरकार चाहे जितनी वृद्धि कर ले, सरकारी अस्पतालों में आज भी सस्ती दवाएं ही दी जाती हैं और महंगी दवाओं को बाजार से खरीदने के लिए लिख दिया जाता है. अस्पतालों की मशीनें खराब रहने के कारण बाजार से महंगे टैस्ट कराने पड़ते हैं. जनता को बुलेट ट्रेन की इतनी आवश्यकता नहीं जितनी कि मानवरहित क्रौसिंग पर गार्डयुक्त फाटक और रेलवे के लंबे सफर में साफ व शुद्ध भोजन और हर कोच के शौचालय में पानी की सुचारु आपूर्ति की है.

मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (न.दि.)

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कटु सत्य को उकेरता आप का संपादकीय ‘वादों का खोखला बजट’ बहुत प्रभावशाली लगा. सच है कि देश के विशाल रथ की बागडोर थामने वाले सत्ताधारी नेता न जाने कब तक उस के पहिए को अपने स्वार्थ के दलदल में फंसा कर निरीह जनता को अपने झूठे वादों की मृगतृष्णा के पीछे भटकाए रखेंगे. गरीबी, बेकारी, महंगाई की मार से रक्तरंजित जनता की कराह इन धृतराष्ट्रों को कब सुनाई देगी. बजट के सुनहरे जाल में जनता को उलझा कर कब तक उसे बेवकूफ बनाते रहेंगे. समस्त विश्व को ‘सर्वे भवंतु सुखिन:’ का मंत्र देने वाले महान देश के भ्रष्टों की ऐसी महिमा रही है कि करोड़ों के बजट की रोटियों का एक छोटा सा निवाला भी भूखों तक मुश्किल से पहुंच पाता है.

रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

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सारगर्भित संपादकीय टिप्पणी ‘वादों का खोखला बजट’ पढ़ कर अच्छा लगा. यद्यपि देश के करोड़पतियों ने नरेंद्र मोदी सरकार से व्यक्तिगत लाभ प्राप्त करने के लालच में वित्तमंत्री अरुण जेटली के आम बजट को बहुत अधिक सराहा है, तथापि रोज कुआं खोद कर पानी पीने वाले गरीबों, मध्यवर्ग व निम्नमध्यवर्ग की जनता के लिए बजट में दीर्घकालिक वादों के सिवा कुछ नहीं है.

सर्वविदित है कि आज महंगाई के दौर में रुपए की कीमत बहुत अधिक घटी है. ऐसे में अरुण जेटली ने आयकर के निचले स्लैब पर 50 हजार रुपए की छूट दे कर ईमानदार आयकरदाताओं पर कोई बड़ा एहसान नहीं किया है. यूपीए सरकार के वित्तमंत्री पी चिदंबरम ने अपने पूर्व बजटों में महिलाओं और 80 वर्ष के ऊपर के नागरिकों को आयकर में विशेष रियायतें प्रदान की थीं जबकि जेटली ने उन को भी कड़वी दवा पिला कर उन्हें नजरअंदाज किया है. मोदी सरकार के प्रथम आम बजट में आम जनता की यह आशा बलवती थी कि जेटली कुछ ऐसा क्रांतिकारी बजट पेश करेंगे जो कांगे्रसी सरकारों के बजटों से पूरी तरह भिन्न हो, किंतु ऐसा नहीं हुआ. कहना न होगा कि उन का बजट यूपीए सरकार का ही मिलाजुला प्रारूप है.

डा. जे डी जैन, नोएडा (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘सरकार का धार्मिक एजेंडा बरकरार’ पढ़ी. धार्मिक प्रचारप्रसार पर चाहे संवैधानिक पाबंदी हो, फिर भी सरकार करदाताओं के पैसे से पर्यटन के नाम पर तीर्थयात्राओं को सुगम बनाने के लिए भरपूर पैसा दे रही है. वास्तव में होना तो यह चाहिए कि तीर्थस्थानों को चंदे और दान में मिली रकम से ठीक कराया जाए, जैसे गैर धार्मिक पर्यटन स्थलों के साथ होता है पर यह फैसला तो मतदाताओं ने कर दिया था कि इस बार धर्म पर पैसा न्योछावर हो.

मायावती के पदचिह्नों पर सरदार पटेल की मूर्ति पर 200 करोड़ रुपए खर्च करना कोई नई बात नहीं है. वैसे करोड़ोंअरबों खर्च कर मूर्तियां स्थापित करना, तीर्थस्थलों पर बेतहाशा खर्च हमारे जैसे देश के लिए कतई शोभा नहीं देता, जहां महंगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार से जनता त्राहित्राहि कर रही हो.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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आप की टिप्पणी ‘गरीबों की रोजीरोटी की सुरक्षा’ उम्दा लगी. भारत में 45 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे है जिन्हें दो वक्त को रोटी नहीं मिलती. वे इतने कमजोर हैं कि चोरी भी नहीं कर सकते. वे बच्चों को बेचते हैं. विदेशों से लोग गोआ आते हैं और बच्चों के साथ यौन इच्छा पूरी करते हैं. कुछ लोग बच्चों के अंग काट कर उन से भीख मंगवाते हैं. सरकार शिक्षा पर बहुत कम खर्च करती हैं. करोड़ों बच्चे फीस के पैसे न होने के चलते स्कूल नहीं जाते. ऐसे बच्चों को आतंकवादी खरीद कर शिक्षा देते हैं और फिर उन्हें आतंकवादी बना देते हैं.

एक पाठक

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नदियों को जोड़ना

अगस्त (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘बजट 2014-15 : शब्दों और वादों की बाजीगरी’ पढ़ा. मैं यहां नदियों को जोड़ने की योजना के बारे में प्रकाश डालना चाहूंगा, जिसे ऐसे बजटों के माध्यम से कभी भी पूरा नहीं किया जा सकता है. नदियों को जोड़ने की योजना तकरीबन 150 वर्ष पहले की थी और यह विचार अंगरेजों का था. 1858 में जब कर्नल और्थर कौटन, हाइड्रोलिक इंजीनियर ने महानदी पर अपनी रिपोर्ट ओडिशा में उपनिवेशी शासन को सौंपी थी, तब नदियों को जोड़ने का विचार उठा था. 1960 में इस मुद्दे को तत्कालीन विद्युत और सिंचाई मंत्री के एल राव ने उठाया था. उन का प्रस्ताव था कि गंगा नदी को कावेरी नदी से 2,640 किलोमीटर की दूरी को एक कैनाल द्वारा जोड़ा जाए. उस समय इस परियोजना में 12 हजार करोड़ रुपए का अनुमानित खर्च निहित था, जिस के कारण इसे कार्यान्वित नहीं किया जा सका.

आज उक्त परियोजना का अनुमानित खर्च बढ़ कर भारत के वार्षिक बजट जितना होगा. इस के अतिरिक्त इस परियोजना में गंगा के पानी को छोटानागपुर पावर और इस से आगे ले जाने के लिए विद्युत की भारी मात्रा की आवश्यकता भी होगी. वर्तमान में तो भारत की अनेक नदियों को जोड़ने की बात की जा रही है, जिस में उक्त अनुमानों से कई गुना खर्च की आवश्यकता होगी. इस दृष्टि से वर्ष 2014-15 में लघु राशियों के प्रावधान बेमानी हैं. 1977 में कैप्टन दस्तूर कमेटी ने नदियों के संबंध में एक व्यापक योजना सामने रखी थी. योजना के अंतर्गत, हिमालयन नदियों को एक हार की आकृति में जोड़ा जाना था. इस कमेटी ने दिल्ली और पटना को जोड़ने के लिए 4200 किलोमीटर लंबी हिमालयन कैनाल और 9,300 किलोमीटर लंबी दक्षिणी कैनाल का प्रस्ताव रखा था. इस की अनुमानित लागत 24 हजार करोड़ रुपए थी. इस प्रस्ताव को भी वित्तीय और तकनीकी आधार पर इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स डैवलपमैंट प्लान के लिए गठित नैशनल कमीशन ने अस्वीकृत कर दिया था.

वर्तमान योजना नैशनल वाटर डैवलपमैंट एजेंसी द्वारा तैयार की गई है, जिस में गंगा के पानी की लिफ्ंिटग की सिफारिश की गई है. इस के अंतर्गत पूर्वी बहाव वाली नदियों अर्थात प्रायद्वीप कंपोनैंट के 16 लिंकों और हिमालयन कंपोनैंट के 14 लिंकों को तैयार करने की योजना है. इस के लिए हजारोंकरोड़ों रुपए की आवश्यकता है. सरकार इन योजनाओं के नाम पर ऊंट के मुंह में जीरा वाली कहावत को चरितार्थ कर जनभावनाओं से खेल रही है, समूचे राष्ट्र को धोखे में रख रही है.

बालकृष्ण काबरा, नागपुर (महा.)

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धर्म के नाम पर धंधा

सरिता पत्रिका मानवीय चेतना का इतना महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है कि इसे हर इंसान को पढ़ना चाहिए. पत्रिका जिस प्रकार से धार्मिक पाखंड, राजनीति की कलाबाजी, जातीय उन्माद, सड़ीगली परंपराओं से बजबजाते समाज का चित्रण करती है, उस के लिए पूरी संपादकीय टीम को नमन करता हूं.

अगस्त (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख साईं बाबा बनाम शंकराचार्य विवाद: धर्मों में आपसी पुराने वैर का एक और दोहराव’ पढ़ा. धर्म के नाम पर देशभर में जो धंधा चल रहा है, उसी का यह विस्फोट है. दरअसल, धर्म के ठेकेदारों को अपनी दुकानदारी की चिंता परेशान कर रही है. धार्मिक आयोजनों व भगवान की पूजा की विधियों को ले कर मेरे मन में कुछ प्रश्न उठते रहते हैं. समाज में आज कई तरह की पूजापाठ व धार्मिक आयोजन हो रहे हैं. उस के बावजूद पापाचार, व्यभिचार और अत्याचार बढ़ रहे हैं, आखिर ऐसा क्यों? अगर ईश्वर सर्वव्यापी है तो उसे हम मंदिरों में ही क्यों पूजते हैं?

डा. रघुवंश कुमार, पटना (बिहार)

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लालूनीतीश गठजोड़

अगस्त (प्रथम) अंक में छपे लेख ‘जंगलराज से मंगल की उम्मीद’ पर किए गए नीतीश व लालू के गठबंधन को पढ़ कर याद आया कि ‘कच्चा धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाय’ वाली कहावत की सचाई से आंख बंद कर ये दोनों कितना ही लैलामजनू का स्वांग रचें, समय आने पर जब अहं का टकराव होगा तो ये दोनों दंगल में उतरते हुए, रेल लाइन समान 2 ऐसी समानांतर रेखाएं बन जाएंगे जो कभी भी और कहीं जा कर मिलती ही नहीं हैं. नीतीश अपनी नैया पार लगाने की कितनी ही जुगत लगा लें, मतदाताओं की जागरूकता के सामने वे अपने इस कुप्रयास में भी सफल नहीं हो पाएंगे.

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)

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गंगा की सफाई

अगस्त (प्रथम) अंक में लेख आबोहवा नहीं, धार्मिक एजेंडा है ‘गंगा की सफाई’ पढ़ कर याद आया कि मैली होती जा रही गंगा की हालत से व्यथित हो कर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने कहा था, ‘हम ने नदियों को पूजा नहीं, दूषित किया है.’ गंगा ही क्या किसी भी नदी की साफसफाई में करोड़ों रुपए फूंक दिए जाएं पर जब तक हमारी मानसिक सोच कुंठित है तब तक सब व्यर्थ है.

टीसीडी गाडेगावलिया, पश्चिम विहार (न.दि.)

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लेखिका बधाई की पात्र

अगस्त (प्रथम) अंक में छपे लेख ‘जब कोई बात बिगड़ जाए’ की लेखिका को बधाई देना चाहता हूं. अकसर हम देखते और सुनते आए हैं कि मैं ने ऐसा नहीं कहा था या मेरा मतलब ऐसा नहीं था. कहा था या नहीं, मतलब था या नहीं, बात तो बिगड़ ही गई. रिश्ते ठीक करना आज के समय में दुर्लभ सा ही लगता है. एक मेरे मित्र हैं जो मिलने पर पुराने किस्से ले बैठते हैं जिन में अधिकतर उन की अपनी तारीफ होती है. इसी तरह एक दूसरे मित्र हैं जो छुट्टी से वापस आने पर हमेशा यही कहते हैं, ‘मैं ने आप को बहुत मिस किया.’ मेरे से कोई उत्तर न पा कर वे मुझ से पूछते हैं, ‘आप भी तो मुझे याद करते होंगे?’ मेरी समझ में नहीं आता कि मैं उन्हें कैसे समझाऊं कि ऐसा नहीं होता.

पत्नी के यह पूछने पर कि ‘मैं कैसी लग रही हूं’ या ‘चिकन कैसा बना है’, मुझे कुछ खास मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि वह सदैव सुंदर लगती है और चिकन हमेशा स्वादिष्ठ बनता है. पर हां, यह कहने पर कि ‘जरा चख कर बताइए नमक ठीक है या नहीं,’ मैं दुविधा में पड़ जाता हूं. मेरा जवाब होता है, ‘ठीक है, फिर भी एक दफा तुम भी चख लो तो अच्छा होगा.’

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुज.)

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रीतिरिवाजों के नाम पर पाखंड

अगस्त (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘साईं बाबा बनाम शंकराचार्य विवाद : धर्मों में आपसी पुराने बैर का एक और दोहराव’ पढ़ा. स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा साईं पूजा का अचानक विरोध करना समझ से परे है. भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जबकि यहां अधिकतर विवाद धर्म, आस्था को ले कर पनपते हैं. यही नहीं, शिक्षा, नौकरी और भी पता नहीं कहांकहां धर्म के आधार पर ही आरक्षण की नीति बना कर भेदभाव होता है. हिंदू धर्म में रीतिरिवाजों के नाम पर कितने ही पाखंड होते हैं. इन सब मुद्दों के बारे में स्वरूपानंद सरस्वती के मुंह से आज तक एक शब्द भी नहीं निकला जबकि शिरडी में न तो लूटखसोट है न दानदक्षिणा के लिए जोरजबरदस्ती.

स्वामीजी के पास करोड़ोंअरबों रुपए हैं. उन के ठाटबाट राजामहाराजाओं से कम नहीं हैं. ऐसे में वे अपने को संन्यासी क्यों कहते हैं? हैरानी यह है कि उन्हें पूजने वाले अंधभक्तों को यह सब दिखाई नहीं देता. कितना अच्छा होता कि साधुसंन्यासी देश में व्याप्त भ्रष्टाचार, महंगाई, बलात्कार, हिंसा की घटनाओं पर बोलते हुए समाज को सही दिशा दिखाते तो शायद ‘निर्भया’ जैसे कांड न होते.   डा. जागृति ‘राज’ जबलपुर (म.प्र.)

गीता रस्तोगी : बोनसाई से सजाती संवारतीं घर

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के बेहद पौश इलाके हजरतगंज में रहने वाली गीता रस्तोगी ने अपने घर के लौन को बगिया में बदलने के लिए बोनसाई का सहारा लिया है. बोनसाई के तमाम तरह के पौधों के साथ उन की बगिया में आम्रपाली आम, अमरूद और नीबू के पेड़ भी लगे हैं. 

लखनऊ के खानदानी व्यवसायी परिवार से संबंध रखने वाली गीता रस्तोगी पहले पुराने लखनऊ के चौक महल्ले में रहती थीं. वहां घर में जगह ज्यादा नहीं थी तो घर के टैरेस पर ही अपनी बगिया लगाई थी. 16 साल पहले वे हजरतगंज में शाहनजफ रोड पर आ बसीं. यहां उन के घर में काफी जगह थी जिस में उन का मखमली घास का लौन तैयार हुआ, फिर आम, अमरूद, नीबू और दूसरे पेड़ लगाए गए. अपने लौन को खूबसूरत बनाने के लिए गीता रस्तोगी ने बोनसाई से तैयार होने वाले पौधों का सहारा लिया. उन के पास करीब 50 प्रकार के बोनसाई के पेड़ हैं. 

बोनसाई के पौधे लंबी उम्र के होते हैं. अगर इन की सही देखभाल की जाए तो ये 100 साल की उम्र तक भी रह सकते हैं. वैसे बोनसाई से लौन और घर सजाने की पहल के चलते इस का बिजनैस भी शुरू हो गया है. करीबकरीब हर छोटेबडे़ शहर में बोनसाई को बेचने वाले लोग मिल जाते हैं. इस की कीमत पेड़ की प्रजाति और उस की उम्र के हिसाब से तय होती है. आमतौर पर इस की कीमत 500 रुपए से शुरू हो कर 8 हजार रुपए तक होती है. इन पेड़ों में साइकस, पाम, आम, नीबू, अमरूद, शहतूत, नारंगी, बोगनबेलिया, कैक्टस और सफेद करौंदा प्रमुख होते हैं.

गीता कहती हैं, ‘‘अपने घर में बोनसाई तैयार कर के बगिया सजाने में ज्यादा खुशी मिलती है. यह आप की पेड़पौधों में रुचि को भी प्रदर्शित करता है.’’

बोनसाई के पेड़ की खूबसूरती में गमले का भी बड़ा योगदान होता है. बोनचाइना के बने गमले और पौट ज्यादा पसंद किए जाते हैं. कुछ लोग पीतल के गमलों का प्रयोग भी करते हैं. बोनसाई के पेड़ जब पुराने हो जाते हैं तो उन में फूल और फल भी निकलने लगते हैं. तब ये देखने में बहुत प्यारे लगते हैं. बोनसाई के जरिए कम जगह में ज्यादा पौधे देखने और समझने को मिल जाते हैं. पौधे में लगे फल और फूल को बडे़ होते देखना बहुत रोमांचक लगता है.

कैसे तैयार करें बोनसाई : बोनसाई तैयार करने के लिए पुराने पेड़ों की कलम कर के उन को जमीन में लगाया जाता है. सालभर के बाद पौधे को जमीन से निकाल कर गमले में लगा देते हैं. इस की खाद के रूप में सड़ी गोबर वाली खाद का प्रयोग बेहतर होता है. इस के 1 साल बाद पतले तार के सहारे पौधे को आकार देने का काम शुरू करते हैं. अब इस को पौट में लगा दिया जाता है. पौट में मिट्टी में कोयले का चूरा, नीम की खली, हड्डी का चूरा मिलाते हैं. हर पेड़ के लिए खाद की मात्रा अलगअलग होती है. पौधे के तने को पाइप के सहारे खड़ा करते हैं. धीरेधीरे इसी पौट में पौधा बड़ा होने लगता है. तब हर साल इस की कटिंग की जाती है. जब पौधा पूरी तरह से मजबूत हो जाता है तो पाइप और तार अलग कर दिया जाता है. इस के बाद बड़ी सावधानी के साथ पौट की मिट्टी और दूसरी चीजों को बदला जाता है.

घर में रखे पौधों को समयसमय पर इन को लौन में रख कर धूप दिखानी जरूरी होती है. इन पौधों को सीधे धूप में नहीं रखना चाहिए. बोनसाई के जरिए कम जगह में ज्यादा पौधे रखने का सुख महसूस किया जा सकता है. बोनसाई के पौधे लगाने/उगाने में थोड़ी मेहनत जरूर लगती  है पर इस से दिल को सुकून मिलता है.  

मेहनत का काम है बगिया सजाना

बगिया कोई भी कहीं भी हो, उसे सजाने में लगातार मेहनत करनी पड़ती है. बगिया की शौकीन गीता रस्तोगी कहती हैं, ‘‘घर की बगिया या लौन सजाना मेहनत का काम होता है. पानी, मिट्टी और खाद का उपयोग कर के बगिया को सजाया जासकता है. मुझे साफसुथरा और हराभरा लौन पसंद आता है. इस को बनाने के लिए चुनी गई जगह को फर्श से ऊंचा रखा जाता है. इस के चारों ओर पेड़ और लताओं वाले पौधे लगाए जाते हैं. किनारे पर ऊंचे दिखने वाले पेड़ लगाए जाते हैं. बगिया में सजावट वाले पेड़पौधों के अलावा फल वाले पेड़ भी होने चाहिए. आज के समय में बच्चों को दिखाने के लिए भी घर की बगिया काम आती है. हमारे घरों में रहने वाले बहुत से बच्चों ने बाजार में बिकने वाले फल तो देखे होते हैं पर पेड़ में लगे हुए फल उन को कम ही देखने को मिलते हैं. ऐसे में अपनी बगिया में वे फलों से लगे पेड़ भी देख सकते हैं.’’

गीता रस्तोगी आगे बताती हैं, ‘‘आज की बगिया पहले जैसी नहीं रह गई है. अब इस को सजाने के लिए बहुत से काम किए जाते हैं.  हम जब विदेश घूमने जाते हैं तो वहां कई तरह के गार्डन घरों में देखने को मिलते हैं. वहां से अपने घर की बगिया सजाने के लिए पेड़ और दूसरी चीजें लाते हैं. कई बार पेड़ तो यहां नहीं लगते पर दूसरी सजावटी चीजों से हम घर की बगिया को सजाने में सफल होते हैं. इस काम में मेरे पति मेरा हौसला बढ़ाते रहते हैं. उन को सजावट की कोई चीज दिखती है तो वे ले कर आते हैं. कई बार बेटा और बहू भी इंटरनैट पर देख कर बताते हैं कि मैं अपने गार्डन को कैसे और अच्छा बना सकती हूं.’’

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