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दिल को सुकून देती एम्ब्रोस की गार्डनिंग

‘खिलते हैं गुल यहां…’, ‘मैं ने कहा फूलों हंसो तो वो खिलखिला कर हंस दिए…’, ‘फूल आहिस्ता फेंको, फूल बड़े नाजुक होते हैं…’, ‘ऐ फूलों की रानी बहारों की मलिका…’, ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में…’ जैसे गीत गुनगुनाना उन्हें इसलिए पसंद है क्योंकि इन गीतों में फूलों का जिक्र है. तरहतरह के फूलों के रसिया एम्ब्रोस पैट्रिक हमेशा फूल पौधों के बीच घिरे रहना पसंद करते हैं व फूलों और पौधों के बगैर उन की कोई बात पूरी ही नहीं होती. बचपन से फूलों और पौधों को गमले में लगाने के शौकीन रहे एम्ब्रोस ने अपने घर की छत पर काफी बड़ा और हर तरह के फूलों के पौधों से सजा गार्डन बना रखा है. काम के बोझ के बीच भी वे हर दिन 2 से 3 घंटे गार्डन की देखरेख में गुजारते हैं. छुट्टियों के दिन में तो 5-7 घंटे वे अपने फूलपौधों के साथ ही गुजारते हैं.

पटना के पुराने और व्यस्त इलाके पटना सिटी में घुसते ही हर ओर प्रदूषण, गाडि़यों की चिल्लपौं, जाम और गंदगी से भरी तंग सड़कों से गुजरते हुए जब हाजीगंज कैमाशिकोह, जिसे कौआखोह के नाम से भी जाना जाता है, पहुंचते हैं तो दिलोदिमाग में अजीब सी कड़वाहट और बौखलाहट पैदा होती है. उस महल्ले की एक छोटी सी गली से गुजर कर एम्ब्रोस पैट्रिक की विशाल व शानदार हवेली की छत पर पहुंचते हैं तो बड़े ही करीने से सजाए गए गार्डनिंग के करिश्मे को देख दिल को सुकून मिलता है.

बिहार अल्पसंख्यक ईसाई कल्याण संघ के सचिव और जीसस ऐंड मेरी एकेडमी के डायरैक्टर एम्ब्रोस पैट्रिक बताते हैं कि शहर में इतनी जमीन नहीं मिल पाती है कि बागबानी के शौक को बेहतर तरीके से जमीन पर उतारा जाए. घर की छत पर गमलों में कुछ फूलों और सजावटी पौधों को लगा रखा था, पर मन को सुकून नहीं मिल पा रहा था और बड़े पैमाने पर गार्डनिंग करने की इच्छा बढ़ती जा रही थी. एक दिन औफिस में बैठेबैठे अचानक खयाल आया कि क्यों न घर की छत को ही गार्डन के रूप में विकसित किया जाए. उस के बाद ही 4 हजार वर्गफुट की छत को गार्डन का रूप देने के मिशन में जुट गया. एम्ब्रोस की बगिया में करीब 1,200 बड़े और छोटे गमले हैं और सारे के सारे लोहे के स्टैंडों पर सजा कर रखे गए हैं. हरेक गमले में पौधा लगा है. कोई भी गमला खाली या बेकार नहीं पड़ा है. एम्ब्रोस कहते हैं कि इतने सारे गमले होने के बाद भी उन्हें लगता है कि काफी कम गमले हैं, अब ज्यादा जगह नहीं है कि और ज्यादा गमले छत पर रखे जा सकें. उन के गार्डन की सब से बड़ी खासीयत उस में कई किस्मों के गुलाब के पौधे हैं.

मल्टीकलर गुलाब से ले कर हरा, पीला, काला, सफेद, लाल, पिंक कलर के गुलाब के झूमते फूल बरबस ही आने वालों का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं. लता वाला गुलाब उन के गार्डन का अनोखा कलैक्शन है. एम्ब्रोस के गार्डन में गेंदा, डहेलिया, कांजी, जूही, बोगनबेलिया, अड़हुल, चंपा, बेला, चमेली, रजनीगंधा समेत फिनिक्स पाम ट्री के पौधे झूमतेगुनगुनाते दिखते हैं. फिनिक्स पाम ट्री की खासीयत है कि वह सालभर हराभरा रहता है. मुसांडा के पौधे की अलग ही खूबसूरती है. इस पौधे के पत्ते सफेद और पिंक रंग के होते हैं.

गार्डनिंग का शौक रखने वालों को एम्ब्रोस यह सलाह देते हैं कि वे पूरी तैयारी के साथ ही गार्डनिंग की शुरुआत करें. पौधों और फूलों की किस्मों, किस पौधे में कब और कितना पानी व खाद डाली जाए, किस पौधे को कितनी धूप और छांव की दरकार है, इस की जानकारी होनी चाहिए. एम्ब्रोस पैट्रिक के जीवन का फलसफा है कि खुद की बगिया को महकाओ और दूसरे को भी इस के लिए प्रेरित करो.

साकल्ले दंपती का हराभरा बगीचा

मध्य प्रदेश जनसंपर्क विभाग से अतिरिक्त निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए प्रकाश साकल्ले की पत्नी शोभा इसी विभाग में जनसंपर्क अधिकारी थीं. दोनों जब भोपाल के शिवाजी नगर स्थित शासकीय आवास को छोड़ पत्रकार कालोनी के अपने घर में पहुंचे तो 2,700 वर्गफुट का मैदान बागबानी के लिए तैयार था. किचन गार्डनिंग को अहमियत देती बात यह है कि प्रकाश ने मकान बनाया 1,500 वर्गफुट एरिया में और बागबानी के अपने शौक को पूरा करने के लिए, 1,200 वर्गफुट की जगह घर के पीछे की तरफ छोड़ी.

इसे बागबानी का जनून ही कहा जाएगा कि दूसरे लोगों की तरह साकल्ले दंपती की दिलचस्पी नवागंतुकों को अपना मकान कम, बगीचा दिखाने में ज्यादा रहती है. इस की वजह भी मुकम्मल है कि इन दोनों का खाली वक्त बगीचे में ही गुजरता है. सेवानिवृत्ति के बाद हर कोई अपने शौक पूरे करता है, प्रकाश और शोभा ने भी यही किया. नौकरी के दिनों में ही दोनों ने तय कर लिया था कि अपने घर में एक खूबसूरत बगीचा जरूर लगाएंगे. बेटा अमेरिका के न्यूजर्सी शहर में नौकरी करने के लिए चला गया और बेटी की इंदौर में शादी हो गई, लिहाजा अकेलेपन से बचने के लिए दोनों ने बगीचा संवारना शुरू कर दिया.

शुरुआत अनाड़ीपन से

प्रकाश और शोभा दोनों को दूसरे कई लोगों की तरह बागबानी का कोई अनुभव नहीं था. कहेसुने की बिना पर उन्होंने अपने गार्डन की बुनियाद रखी. प्रकाश बताते हैं, ‘‘बड़ी मदद हमें उद्यान विभाग के विशेषज्ञों और सरिता के बागबानी विशेषांकों से मिली.’’

अतिरेक उत्साह में शुरू में ही इन्होंने वह गलती कर डाली जो आमतौर पर अधिकांश लोग करते हैं, बच्चों की तरह ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने की. बगीचे के लिए इन्होंने जो लेआउट प्लान दिमाग में बनाया था, मैदान में आतेआते उस का मूलस्वरूप बिगड़ गया यानी उस पर अमल नहीं हो पाया. दोनों नर्सरी जाते और पेड़ खरीद कर बगीचे में लगा देते थे. देखते ही देखते सारा किचन गार्डन फल, फूल और सब्जियों से भर गया. शोभायमान पेड़ और बोनसाई हालांकि इन्होंने प्रवेशद्वार से ही लगा रखे हैं जो पूरी कालोनी से इन के घर को खास बनाते हैं पर बगीचे में पहुंचने के बाद पता चलता है कि शौक दरअसल क्या होता है. पानी तो भरपूर इन के घर में है लेकिन शुरुआती परेशानी जानकारियों के अभावों में मिट्टी की पेश आई. जमीन चूंकि ढलावदार थी, इसलिए उस में मिट्टी का कटाव ज्यादा होता था. लिहाजा, 2 साल तक इन्होंने खरीद कर मिट्टी डलवाई और जमीन को समतल किया.

इस के बाद बगैर सोचेसमझे ताबड़तोड़ तरीके से पेड़ लगाने शुरू किए. फलों में आम, अमरूद, पपीता, केला और अनार जैसे पेड़ लगाए तो छोटीछोटी क्यारियां बना कर सभी तरह की मौसमी सब्जियां लगानी शुरू कर दीं. गुड़हल, तरहतरह के गुलाब, चमेली, रातरानी, गेंदा और रजनीगंधा के पेड़ क्यारियों की मेंड़ व कोनों में लगाए ताकि जगह का ज्यादा से ज्यादा उपयोग हो और सब्जियां उगाने में दिक्कत न हो.

2 साल बाद जब बगीचा पूरा भर गया तो प्रकाश और शोभा को समझ आया कि उन्होंने ज्यादा फैलने वाले पौधों को पासपास लगाने की भूल कर दी है. लिहाजा, वक्त रहते उन्होंने उसे सुधारा और बगीचे में काम करने के लिए एक माली भी रख लिया.

सब्जियों पर जोर

साकल्ले दंपती के किचन गार्डन में पांव रखते ही लौन का मखमली एहसास होता है. तकरीबन 600 वर्ग फुट में इन्होंने दूब घास लगाई है. इस के बाद शुरू होता है फल, फूल और सब्जियों का क्षेत्र जो पुराने जमाने के बड़े बगीचों की याद ताजा कर देता है. उन परंपरागत बगीचों की खूबी या खासीयत यह होती थी कि बीच का हिस्सा सब्जियों के लिए छोड़ा जाता था और दोनों ओर मेंड़ों पर फूल लगाए जाते थे. फलों के पेड़ पर्याप्त दूरी पर लगाए जाते थे ताकि क्यारियों में मौसम के हिसाब से सब्जियां उगाई जा सकें. इस से गार्डन की शोभा भी बनी रहती है और हरियाली भी दिखती है.

होली के बाद बेल वाली सब्जियां लगाने के लिए साकल्ले दंपती लकडि़यों का मंडप बना लेते हैं तो अक्तूबरनवंबर में गोभी, बैगन, मटर और मेथी जैसी सब्जियां क्यारियों में लगाते हैं. घर की जरूरत के मुताबिक आलू, प्याज, हरा धनिया और हरीमिर्च भी लगाते हैं. इसे किचन गार्डन के प्रति व्यावहारिक और व्यावसायिक नजरिया ही कहा जाएगा कि जमीन का अधिकतम उपयोग किया जाए. अलंकृत बागबानी का अपना अलग महत्त्व है लेकिन छोटे स्तर पर उस की कोई व्यावसायिक उपयोगिता नहीं है. ज्यादा से ज्यादा सब्जियां उगाने की प्रवृत्ति बताती है कि उद्यान मालिक बाजार का मुहताज नहीं रहना चाहता. फल का पेड़ तो एक दफा लग जाए तो सालोंसाल फल देता रहता है.

अखरती नहीं मेहनत

अपने बगीचे में उगाई गई सब्जियां जब प्रकाश और शोभा अपने परिचितों और मिलनेजुलने वालों को देते हैं तो उन्हें अनूठी सुखद अनुभूति होती है. लेने वाला ही बागबाग हो जाता है. और इसलिए किचन गार्डन में की गई मेहनत इन्हें अखरती नहीं. भुट्टा खाने की इच्छा हो तो बाजार जाने की जरूरत नहीं, बगीचे में लगे 8-10 पेड़ों में से किसी एक से तोड़ो और गैस चूल्हे पर ही भून कर खा लो, यह एक अलग ही सुखद एहसास है. ये दोनों बाजार से सब्जियों की उन्नत प्रजातियां लाते हैं और बजाय उर्वरकों के, गोबर की खाद को प्राथमिकता देते हैं. बागबानी के सारे औजार अब तक एकएक कर वे खरीद चुके हैं. घर में बगिया लगा कर प्रकाश और शोभा अच्छीखासी बचत कर लेते हैं और उन का समय भी अच्छा बीत जाता है, घर की शोभा अलग बढ़ जाती है. इन की तरह आप भी अपने घर में बगिया लगाइए जो आप को सुखद एहसास कराएगी.

राजेश्वर सिंह की पुत्रवधू संगीता की महकती बगिया

पेशे से बिजनैसमैन और किसान राजेश्वर सिंह ने लखनऊ के आशियाना इलाके में अपने घर की जमीन के 3 हिस्से कर रखे हैं, जिन में उन्होंने बगिया तैयार कर रखी है. उन के घर की बाउंड्री पर अंगूर की लटकती हरीभरी बेल को देख कर अंदाजा लग जाता है कि उन की बगिया कितनी उपयोगी होगी. घर की बगिया के एक हिस्से में वे खेती करते हैं. इस में धान, गेहूं, केले, गन्ने और पपीते की फसलें तैयार होती हैं. दूसरा हिस्सा जो घर के सामने है वहां पर खूबसूरत लौन बनाया है. इस में फौआरा, विक्टोरियन स्टाइल के लैंपपोस्ट और एक झूला लगाया है. लौन के चारों ओर पपीते के पेड़ व अंगूर की बेल लगी है.

बगिया के तीसरे हिस्से में अमरूद, नीबू, अनार, पपीता जैसे फल लगे हैं. 80 साल के राजेश्वर सिंह इस की देखभाल करते हैं. इस काम में उन की बहू संगीता सिंह पूरी मदद करती हैं. संगीता कहती हैं, ‘‘हम घर की रसोई में अपनी बगिया में पैदा हुई सब्जी का उपयोग करते हैं. इस से हमें ताजी सब्जी खाने को मिलती है. खेत में सब्जी और दूसरी चीजों की फसल को तैयार करने के लिए मजदूरों की मदद लेते हैं. लौन और पेड़पौधों की देखभाल के लिए हम लोग मिल कर काम करते हैं.’’ 

घर की बगिया का इंटीरियर : राजेश्वर सिंह बताते हैं कि घर की बगिया को सुंदर बनाने के लिए जरूरी है कि घर की बगिया का भी इंटीरियर खूबसूरती से कराएं. बगीचे का रंगरूप ऐसा होना चाहिए जिस से वहां पर बैठने वाले को ताजगीभरा एहसास हो सके. बगीचा आप की रुचियों और बागबानी के तौरतरीकों को स्पष्ट करता है. जिन लोगों के बगीचे हमेशा टिपटौप रहते हैं उस से साफ पता चलता है कि वे लोग बगीचे की देखरेख सही तरीके से करते हैं. पौधों के बीच हिडेन लाइट का प्रयोग किया जाता है, जिस से पौधे की हरियाली और रोशनी दोनों का ही एहसास होता रहता है.

आजकल गार्डन में रखने वाले ऐसे झूले भी आते हैं जिन में गद्दी आदि रखने की जरूरत नहीं होती. बगीचे के साथसाथ घर को भी हराभरा बनाने के लिए इंडोर प्लांट तैयार किए जाते हैं. इन में रबर प्लांट, मनी प्लांट, क्रोटन, पाम और सिगोरियम प्रमुख होते हैं. इन प्लांट्स को एक सप्ताह घर के अंदर रख कर एक दिन बाहर धूप में रखें. घर की बगिया में लैंडस्केप तैयार कर उस को और सुंदर बनाया जा सकता है. पहाड़ों सा लुक देने के लिए रंगबिरंगे पत्थर लगाए जाते हैं. झरना और तालाब भी बनाया जाता है. तालाब में तैरने वाली आर्टिफिशियल बत्तख डाली जाती हैं. लाइटिंग का प्रयोग कर के इस को और भी खूबसूरत बनाया जा सकता है. बहू संगीता की मदद से राजेश्वर सिंहघर की बगिया के लुक को समयसमय पर बदलते रहते हैं ताकि उस का आकर्षण तरोताजा बना रहे.

अमेरिकी राष्ट्रपति की पत्नी का बागबानी लगाव

बागबानी का शौक दुनिया के हर कोने की हस्तियों पर किस तरह सिर चढ़ कर बोलता है, इस का अंदाजा अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा की गार्डनिंग में व्यस्तता को देख कर लगाया जा सकता है. पेड़पौधों और हरियाली के प्रति मिशेल का लगाव जगजाहिर है. तसवीरों में मिशेल वाइट हाउस के लौन में स्कूली बच्चों के साथ समर हारवैस्ंिटग का लुत्फ उठा रही हैं. बच्चों के साथ बगिया संवारती मिशेल बेहद उत्साहित नजर आ रही हैं. आप भी बागबानी में रुचि लीजिए, प्रकृति से रिश्ता जोडि़ए. फिर देखिए, जीवन में कैसी हरियाली आती है.

आजीविका बन सकती है बागबानी

बागबानी सिर्फ शौक है. शहरों में हरियाली देखनी है तो बागबानी का सहारा लेना ही पड़ेगा. बागबानी से जुड़ी वस्तुओं के बाजार बन गए हैं. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पहले राणा प्रताप मार्ग स्टेडियम के पीछे हजरतगंज में ही बागबानी का बाजार लगता था. अब गोमतीनगर, पीजीआई, महानगर और आलमबाग में भी इस तरह की तमाम दुकानें खुल गई हैं. यहां पौधे ही नहीं, तरहतरह के गमले, गमला स्टैंड और गमलों में डाली जाने वाली खाद बिकती है.

तेजी से हो रहे विकास के चलते शहरों के आसपास की हरियाली गायब हो गई है. ऐसे में घरों के अंदर, छत के ऊपर, बालकनी और लौन में छोटेछोटे पौधों को लगा कर हरियाली की कमी को पूरा करने का काम किया जा रहा है. यही वजह है कि बागबानी से जुड़े हुए कारोबार तेजी से बढ़ रहे हैं. एक ओर जहां सड़कों पर बागबानी को सरल बनाने वाली सामग्री की दुकानें मिल जाती हैं वहीं पौश कालोनियों में इस से जुड़े काम खूब होने लगे हैं.

बेच रहे हैं खाद और गमले

शहरों के आसपास की जगहों पर लोगों ने खाली पड़ी जमीन पर नर्सरी खोल ली है. कुछ कारोबारी नर्सरी से पौधे शहर में ला कर बेचते हैं. ये लोग कई बार गलीगली फेरी लगा कर भी पौधे, गमले और खाद बेचते मिल जाते हैं. जिन को पौधों की देखभाल करनी आती है वे समयसमय पर ऐसे पौधों की देखभाल करने भी आते हैं. इस के लिए वे तय रकम लेते हैं. ऐसे में बागबानी से जुड़ा हर काम आजीविका का साधन हो गया है. लखनऊ के डालीगंज इलाके में रहने वाला राजीव गेहार 20 साल से बागबानी के लिए गमले, खाद और दूसरे सामान बेचने का काम कर रहा है.

उस का कहना है, ‘‘जुलाई से ले कर अक्तूबर तक लोग पौधे लगाने का काम करते हैं. इन 4 माह को हम बागबानी का सीजन भी कहते हैं.’’

पहले पौधों को रखने के लिए मिट्टी के गमले ही चलते थे. वे कुछ समय के बाद ही खराब हो जाते हैं. अब सिरेमिक और प्लास्टिक के गमले भी आते हैं. सिरेमिक के गमले महंगे होते हैं. ये देखने में बेहद सुंदर, रंगबिरंगे होते हैं और जल्दी खराब नहीं होते. प्लास्टिक के गमले देखने में भले ही कुछ कम अच्छे लगते हों पर यह टिकाऊ होते हैं. गमलों से गिरने वाला पानी फर्श को खराब न करे, इस के लिए गमलों के नीचे रखने की प्लेट भी आती है. झूमर की तरह पौधों को लटकाने के लिए हैंगिंग गमले भी आते हैं. इन को रस्सी या जंजीर के सहारे बालकनी, लौन या फिर दीवार पर लटकाया जा सकता है.

पौधों को मजबूत बनाने के लिए खाद देने की जरूरत पड़ती है. इस के लिए डीएपी, पोटाश, जिंक जैसी खादें बाजार में बिकती हैं. राजीव कहते हैं, ‘‘मैं खादें बेच कर ही अपने घर का खर्च चलाता हूं. बागबानी करने में मदद करने वाली चीजें, जैसे कटर, खुरपी, स्प्रे भी बेचता हूं.’’

देखभाल में है कमाई

घर के लौन में मखमली घास लगी हो तो आप की शान बढ़ जाती है. अब तो इंटीरियर में भी पेड़पौधों को पूरी जगह दी जाने लगी है. ऐसे में इन का कारोबार करना मुनाफे का काम हो गया है. शादी, बर्थडे या मैरिज ऐनिवर्सरी की पार्टी आने पर घर के किसी हिस्से को पौधे से सजाने का चलन बढ़ गया है. हर किसी के लिए पौधों को रखना और उन की देखभाल करना सरल नहीं होता. ऐसे में छोटेबड़े पौट में पौधे लगा कर बेचने का काम भी होने लगा है.

ऐसे ही पौधों का कारोबार करने वाले दिनेश यादव कहते हैं, ‘‘हम पौधे तैयार रखते हैं. खरीदने वाला जिन गमलों में चाहे उन को रखवा सकता है. इस के बाद समयसमय पर थोड़ीथोड़ी देखभाल कर के पौधों को सुरक्षित रखा जा सकता है.’’ पौधों की देखभाल करने वाले नीरज कुमार का कहना है, ‘‘मैं गांव से नौकरी करने शहर आया था. यहां 2 हजार रुपए महीने की नौकरी मिल गई. इस से काम नहीं चल रहा था. मैं समय बचा कर कुछ लोगों के पेड़पौधों की देखभाल करने लगा. इस के बदले में मुझे कुछ पैसा मिलने लगा. धीरेधीरे मेरे पास पेड़पौधों की देखभाल का काम बढ़ गया. मुझे नौकरी करने की जरूरत खत्म हो गई. आज मेरे पास 50 ग्राहक हैं. मेरा काम ठीक से चल रहा है.’’

बक्शी का तालाब (लखनऊ) इलाके में रहने वाला रामप्रसाद पहले गांव में मिट्टी के बरतन बनाने का काम करता था. उस की कमाई खत्म हो गई थी. इस के बाद उस ने मिट्टी और सीमेंट के गमले बनाने का काम शुरू किया. वह कहता है, ‘‘मैं सड़क किनारे अपनी दुकान लगाता हूं. इस से लोग राह आतेजाते मेरे यहां से गमलों की खरीदारी करने लगे हैं. मेरी आमदनी बढ़ने लगी है. कुछ लोग सीमेंट के गमले अपनी पसंद के अनुसार भी बनवाते हैं. सीमेंट के गमलों का ज्यादातर प्रयोग लौन में रखने के लिए किया जाता है.’’

इस तरह बागबानी लोगों की आजीविका का आधार बन रही है और उन की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ कर रही है.

गुमनाम शिकायतें

पिछले 6 महीने से मुझे पुलिस स्टेशन में बुलाया जा रहा है. मुझे शहर में घटी आपराधिक घटनाओं का जिम्मेदार मानते हुए मुझ पर प्रश्न पर प्रश्न तोप के गोले की तरह दागे जा रहे थे. अपराध के समय मैं कब, कहां था. पुलिस को याद कर के जानकारी देता. मुझे जाने दिया जाता. मैं वापस आता और 2-4 दिन बाद फिर बुलावा आ जाता. पहली बार तो एक पुलिस वाला आया जो मुझे पूरा अपराधी मान कर घर से गालीगलौज करते व घसीटते हुए ले जाने को तत्पर था.

मैं ने उस से अपने अच्छे शहरी और निर्दोष होने के बारे में कहा तो उस ने पुलिसिया अंदाज में कहा, ‘पकड़े जाने से पहले सब मुजरिम यही कहते हैं. थाने चलो, पूछताछ होगी, सब पता चल जाएगा.’

चूंकि न मैं कोई सरकारी नौकरी में था न मेरी कोई दुकानदारी थी. मैं स्वतंत्र लेखन कर के किसी तरह अपनी जीविका चलाता था. उस पर, मैं अकेला था, अविवाहित भी.

पहली बार मुझे सीधा ऐसे कक्ष में बिठाया गया जहां पेशेवर अपराधियों को थर्ड डिगरी देने के लिए बिठाया जाता है. पुलिस की थर्ड डिगरी मतलब बेरहमी से शरीर को तोड़ना. मैं घबराया, डरा, सहमा था. मैं ने क्या गुनाह किया था, खुद मुझे पता नहीं था. मैं जब कभी पूछता तो मुझे डांट कर, चिल्ला कर और कभीकभी गालियों से संबोधित कर के कहा जाता, ‘शांत बैठे रहो.’ मैं घंटों बैठा डरता रहा. दूसरे अपराधियों से पुलिस की पूछताछ देख कर घबराता रहा. क्या मेरे साथ भी ये अमानवीय कृत्य होंगे. मैं यह सोचता. मैं अपने को दुनिया का सब से मजबूर, कमजोर, हीन व्यक्ति महसूस करने लगा था.

मुझ से कहा गया आदेश की तरह, ‘अपना मोबाइल, पैसा, कागजात, पेन सब जमा करा दो.’ मैं ने यंत्रवत बिना कुछ पूछे मुंशी के पास सब जमा करा दिए फिर मुझ से मेरे जूते भी उतरवा दिए गए.

उस के बाद मुझे ठंडे फर्श पर बिठा दिया गया. तभी उस यंत्रणाकक्ष में दो स्टार वाला पुलिस अफसर एक कुरसी पर मेरे सामने बैठ कर पूछने लगा :

‘क्या करते हो? कौनकौन हैं घर में? 3 तारीख की रात 2 से 4 के बीच कहां थे? किनकिन लोगों के साथ उठनाबैठना है? शहर के किसकिस अपराधी गिरोह को जानते हो? 3 जुलाई, 2012 को किसकिस से मिले थे? तुम चोर हो? लुटेरे हो?’

बड़ी कड़ाई और रुखाई से उस ने ये सवाल पूछे और धमकी, डर, चेतावनी वाले अंदाज में कहा, ‘एक भी बात झूठ निकली तो समझ लो, सीधा जेल. सच नहीं बताओगे तो हम सच उगलवाना जानते हैं.’

मैं ने उस से कहा और पूरी विनम्रता व लगभग घिघियाते हुए, डर से कंपकंपाते हुए कहा, ‘मैं एक लेखक हूं. अकेला हूं. 3 तारीख की रात 2 से 4 बजे के मध्य में अपने घर में सो रहा था. मेरा अखबार, पत्रपत्रिकाओं के कुछ संपादकों से, लेखकों से मोबाइलवार्ता व पत्रव्यवहार होता रहता है. शहर में किसी को नहीं जानता. मेरा किसी अपराधी गिरोह से कोई संपर्क नहीं है. न मैं चोर हूं, न लुटेरा. मात्र एक लेखक हूं. सुबूत के तौर पर पत्रिकाओं, अखबारों की वे प्रतियां दिखा सकता हूं जिन में मेरे लेख, कविताएं, कहानियां छपी हैं.’

मेरी बात सुन कर वह बोला, ‘पत्रकार हो?’

‘नहीं, लेखक हूं.’

‘यह क्या होता है?’

‘लगभग पत्रकार जैसा. पत्रकार घटनाओं की सूचना समाचार के रूप में और लेखक उसे विमर्श के रूप में लेख, कहानी आदि बना कर पेश करता है.’

‘मतलब प्रैस वाले हो,’ उस ने स्वयं ही अपना दिमाग चलाया.

मैं ने उत्तर नहीं दिया. प्रैस के नाम से वह कुछ प्रभावित हुआ या चौंका या डरा, यह तो मैं नहीं समझ पाया लेकिन हां, उस का लहजा मेरे प्रति नरम और कुछकुछ दोस्ताना सा हो गया था. उस ने अपने प्रश्नों का उत्तर पा कर मुझे मेरा सारा सामान वापस कर के यह कहते हुए जाने दिया कि आप जा सकते हैं. लेकिन दोबारा जरूरत पड़ी तो आना होगा.

पहली बार तो मैं ‘जान बची तो लाखों पाए’ वाले अंदाज में लौट आया लेकिन जल्द ही दोबारा बुलावा आ गया. इस बार जो पुलिस वाला लेने आया था उस का लहजा नरम था.

इस बार मुझे एक बैंच पर काफी देर बैठना पड़ा. जिसे पूछताछ करनी थी, वह किसी काम से गया हुआ था. इस बीच थाने के संतरी से ले कर मुंशी तक ने मुझे हैरानपरेशान कर दिया. किस जुर्म में आए हो, कैसे आए हो, अब तुम्हारी खैर नहीं? फिर मुझ से चायपानी, सिगरेट के लिए पैसे मांगे गए. मुझे देने पड़े न चाहते हुए भी. फिर जब वह पुलिस अधिकारी आया, मैं उसे पहचान गया. वह पहले वाला ही अधिकारी था. उस ने मुझे शक की निगाहों से देखते हुए फिर शहर में घटित अपराधों के विषय में प्रश्न पर प्रश्न करने शुरू किए. मैं ने उसे सारे उत्तर अपनी स्मरणशक्ति पर जोर लगालगा कर दिए. कुछ इस तरह डरडर कर कि एक भी प्रश्न का उत्तर गलत हुआ तो परीक्षा में बैठे छात्र की तरह मेरा हाल होगा.

चूंकि उस का रवैया नरम था सो मैं ने उस से पूछा, ‘क्या बात है, सर, मुझे बारबार बुला कर ये सब क्यों पूछा जा रहा है, मैं ने किया क्या है?’

‘पुलिस को आप पर शक है और शक के आधार पर पुलिस की पूछताछ शुरू होती है जो सुबूत पर खत्म हो कर अपराधी को जेल तक पहुंचाती है.’

‘लेकिन मुझ पर इस तरह शक करने का क्या आधार है?’

‘आप के खिलाफ हमारे पास सूचनाएं आ रही हैं.’

‘सूचनाएं, किस तरह की?’

‘यही कि शहर में हो रही घटनाओं में आप का हाथ है.’

‘लेकिन…?’

उस ने मेरी बात काटते हुए कहा, ‘आप को बताने में क्या समस्या है? हम आप से एक सभ्य शहरी की तरह ही तो बात कर रहे हैं. पुलिस की मदद करना हर अच्छे नागरिक का कर्तव्य है.’

अब मैं क्या बताऊं उसे कि हर बार थाने बुलाया जाना और पुलिस के प्रश्नों का उत्तर देना, थाने में घंटों बैठना किसी शरीफ आदमी के लिए किसी यातना से कम नहीं होता. उस की मानसिक स्थिति क्या होती है, यह वही जानता है. पलपल ऐसा लगता है कि सामने जहरीला सांप बैठा हो और उस ने अब डसा कि तब डसा.

इस तरह मुझे बुलावा आता रहा और मैं जाता रहा. यह समय मेरे जीवन के सब से बुरे समय में से था. फिर मेरे बारबार आनेजाने से थाने के आसपास की दुकानवालों और मेरे महल्ले के लोगों को लगने लगा कि या तो मैं पेशेवर अपराधी हूं या पुलिस का कोई मुखबिर. कुछ लोगों को शायद यह भी लगा होगा कि मैं पुलिस विभाग में काम करने वाला सादी वर्दी में कोई सीआईडी का आदमी हूं. मैं ने पुलिस अधिकारी से कहा, ‘सर, मैं कब तक आताजाता रहूंगा? मेरे अपने काम भी हैं.’

उस ने चिढ़ कर कहा, ‘मैं भी कोई फालतू तो बैठा नहीं हूं. मेरे पास भी अपने काम हैं. मैं भी तुम से पूछपूछ कर परेशान हो गया हूं. न तुम कुछ बताते हो, न कुबूल करते हो. प्रैस के आदमी हो. तुम पर कठोरता का व्यवहार भी नहीं कर रहा इस कारण.’

‘सर, आप कुछ तो रास्ता सुझाएं?’

‘अब क्या बताएं? तुम स्वयं समझदार हो. प्रैस वाले से सीधे तो नहीं कुछ मांग सकता.’

‘फिर भी कुछ तो बताइए. मैं आप की क्या सेवा करूं?’

‘चलो, ऐसा करो, तुम 10 हजार रुपए दे दो. मेरे रहते तक अब तुम्हें कोई परेशानी नहीं होगी. न तुम्हें थाने बुलाया जाएगा.’

मैं ने थोड़ा समय मांगा. इधरउधर से रुपयों का बंदोबस्त कर के उसे दिए और उस ने मुझे आश्वस्त किया कि मेरे होते अब तुम्हें नहीं आना पड़ेगा.

मैं निश्ंचत हो गया. भ्रष्टाचार के विरोध में लिखने वाले को स्वयं रिश्वत देनी पड़ी अपने बचाव में. अपनी बारबार की परेशानी से बचने के लिए और कोई रास्ता भी नहीं था. मैं कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं था. न मेरा किसी बड़े व्यापारी, राजनेता, पुलिस अधिकारी से परिचय था. रही मीडिया की बात, तो मैं कोई पत्रकार नहीं था. मैं मात्र लेखक था, जो अपनी रचनाएं आज भी डाक से भेजता हूं. मेरा किसी मीडियाकर्मी से कोई परिचय नहीं था. एक लेखक एक साधारण व्यक्ति से भी कम होता है सांसारिक कार्यों में. वह नहीं समझ पाता कि उसे कब क्या करना है. वह बस लिखना जानता है.

अपने महल्ले में भी लोग मुझे अजीब निगाहों से देखने लगे थे, जैसे किसी जरायमपेशा मुजरिम को देखते हैं. मैं देख रहा था कि मुझे देख कर लोग अपने घर के अंदर चले जाते थे. मुझे देखते ही तुरंत अपना दरवाजा बंद कर लेते थे. महल्ले में लोग धीरेधीरे मेरे विषय में बातें करने लगे थे. मैं कौन हूं? क्या हूं? क्यों हूं? मेरे रहने से महल्ले का वातावरण खराब हो रहा है. और भी न जाने क्याक्या. मेरे मुंह पर कोई नहीं बोलता था. बोलने की हिम्मत ही नहीं थी. मैं ठहरा उन की नजर में अपराधी और वे शरीफ आदमी. अभी कुछ ही समय हुआ था कि फिर एक पुलिस की गाड़ी सायरन बजाते हुए रुकी और मुझ से थाने चलने के लिए कहा. मेरी सांस हलक में अटक गई. लेकिन इस बार मैं ने पूछा, ‘‘क्यों?’’

‘‘साहब ने बुलाया है. आप को चलना ही पड़ेगा.’’

यह तो कृपा थी उन की कि उन्होंने मुझे कपड़े पहनने, घर में ताला लगाने का मौका दे दिया. मैं सांस रोके, पसीना पोंछते, पुलिस की गाड़ी में बैठा सोचता रहा, ‘साहब से तो तय हो गया था.’ महल्ले के लोग अपनीअपनी खिड़कियों, दरवाजों में से झांक रहे थे.

थाने पहुंच कर पता चला जो पुलिस अधिकारी अब तक पूछताछ करता रहा और जिसे मैं ने रिश्वत दी थी उस का तबादला हो गया है. उस की जगह कोई नया पुलिस अधिकारी था.

मेरे लिए खतरनाक यह था कि उस के नाम के बाद उस का सरनेम मेरे विरोध में था. वह बुद्धिस्ट, अंबेडकरवादी था और मैं सवर्ण. मैं समझ गया कि अपने पूर्वजों का कुछ हिसाबकिताब यह मुझे अपमानित और पीडि़त कर के चुकाने का प्रयास अवश्य करेगा. इस समय मुझे अपना ऊंची जाति का होना अखर रहा था.

मैं ने कई पीडि़त सवर्णों से सुना है कि थाने में यदि कोई दलित अफसर होता है तो वह कई तरह से प्रताडि़त करता है. मेरे साथ वही हुआ. मेरा सारा सामान मुंशी के पास जमा करवाया गया. मेरे जूते उतरवा कर एक तरफ रखवाए गए. मुझे ठंडे और गंदे फर्श पर बिठाया गया. फिर एक काला सा, घनी मूंछों वाला पुलिस अधिकारी बेंत लिए मेरे पास आया और ठीक सामने कुरसी डाल कर बैठ गया. उस ने हवा में अपना बेंत लहराया और फिर कुछ सोच कर रुक गया. उस ने मुझे घूर कर देखा. नाम, पता पूछा. फिर शहर में घटित तथाकथित अपराधों के विषय में पूछा.

मैं ने अब की बार दृढ़स्वर में कहा, ‘‘मैं पिछले 6 महीने से परेशान हूं. मेरा जीना मुश्किल हो रहा है. मेरा खानापीना हराम हो गया है. मेरी रातों की नींद उड़ गई है. इस से अच्छा तो यह है कि आप मुझे जेल में डाल दें. मुझे नक्सलवादी, आतंकवादी समझ कर मेरा एनकाउंटर कर दें. आप जहां चाहें, दस्तखत ले लें. आप जो कहें मैं सब कुबूल करने को तैयार हूं. लेकिन बारबार इस तरह यदि आप ने मुझे अपमानित और प्रताडि़त किया तो मैं आत्महत्या कर लूंगा,’’ यह कहतेकहते मेरी आंखों से आंसू बहने लगे.

नया पुलिस अधिकारी व्यंग्यात्मक ढंग से बोला, ‘‘आप शोषण करते रहे हजारों साल. हम ने नीचा दिखाया तो तड़प उठे पंडित महाराज.’’

उस के ये शब्द सुन कर मैं चौंका, ‘पंडित महाराज, तो एक ही व्यक्ति कहता था मुझ से. मेरे कालेज का दोस्त. छात्र कम गुंडा ज्यादा.’

‘‘पहचाना पंडित महाराज?’’ उस ने मेरी तरफ हंसते हुए कहा.

‘‘रामचरण अंबेडकर,’’ मेरे मुंह से अनायास ही निकला.

‘‘हां, वही, तुम्हारा सीनियर, तुम्हारा जिगरी दोस्त, कालेज का गुंडा.’’

‘‘अरे, तुम?’’

‘‘हां, मैं.’’

‘‘पुलिस में?’’

‘‘पहले कालेज में गुंडा हुआ करता था. अब कानून का गुंडा हूं. लेकिन तुम नहीं बदले, पंडित महाराज?’’

उस ने मुझे गले से लगाया. ससम्मान मेरा सामान मुझे लौटाया और अपने औफिस में मुझे कुरसी पर बिठा कर एक सिपाही से चायनाश्ते के लिए कहा.

यह मेरा कालेज का 1 साल सीनियर वही दोस्त था जिस ने मुझे रैगिंग से बचाया था. कई बार मेरे झगड़ों में खुद कवच बन कर सामने खड़ा हुआ था. फिर हम दोनों पक्के दोस्त बन गए थे. मेरे इसी दोस्त को कालेज की एक उच्चजातीय कन्या से प्रेम हुआ तो मैं ने ही इस के विवाह में मदद की थी. घर से भागने से ले कर कोर्टमैरिज तक में. तब भी उस ने वही कहा था और अभी फिर कहा, ‘‘दोस्ती की कोई जाति नहीं होती. बताओ, क्या चक्कर है?’’

मैं ने उदास हो कर कहा, ‘‘पिछले 6 महीने से पुलिस बुलाती है पूछताछ के नाम पर. जमाने भर के सवाल करती है. पता नहीं क्यों? मेरा तो जीना हराम हो गया है.’’

‘‘तुम्हारी किसी से कोई दुश्मनी है?’’

‘‘नहीं तो.’’

‘‘अपनी शराफत के चलते कभी कहीं ऐसा सच बोल दिया हो जो किसी के लिए नुकसान पहुंचा गया हो और वह रंजिश के कारण ये सब कर रहा हो?’’

‘‘क्या कर रहा हो?’’

‘‘गुमनाम शिकायत.’’

‘‘क्या?’’ मैं चौंक गया, ‘‘तुम यह कह रहे हो कि कोई शरारत या नाराजगी के कारण गुमनाम शिकायत कर रहा है और पुलिस उन गुमनाम शिकायतों के आधार पर मुझे परेशान कर रही है.’’

‘‘हां, और क्या? यदि तुम मुजरिम होते तो अब तक जेल में नहीं होते. लेकिन शिकायत पर पूछताछ करना पुलिस का अधिकार है. आज मैं हूं, सब ठीक कर दूंगा. तुम्हारा दोस्त हूं. लेकिन शिकायतें जारी रहीं और मेरी जगह कल कोई और पुलिस वाला आ गया तो यह दौर जारी रह सकता है. इसीलिए कह रहा हूं, ध्यान से सोच कर बताओ कि जब से ये गुमनाम शिकायतें आ रही हैं, उस के कुछ समय पहले तुम्हारा किसी से कोई झगड़ा या ऐसा ही कुछ और हुआ था?’’

मैं सोचने लगा. उफ्फ, मैं ने सोचा भी नहीं था. अपने पड़ोसी मिस्टर नंद किशोर की लड़की से शादी के लिए मना करने पर वह ऐसा कर सकता है क्योंकि उस के बाद नंद किशोर ने न केवल महल्ले में मेरी बुराई करनी शुरू कर दी थी बल्कि उन के पूरे परिवार ने मुझ से बात करनी भी बंद कर दी थी. उलटे छोटीछोटी बातों पर उन का परिवार मुझ से झगड़ा करने के बहाने भी ढूंढ़ता रहता था. हो सकता है वह शिकायतकर्ता नंद किशोर ही हो. लेकिन यकीन से किसी पर उंगली उठाना ठीक नहीं है. अगर नहीं हुआ तो…मैं ने अपने पुलिस अधिकारी मित्र से कहा, ‘‘शक तो है क्योंकि एक शख्स है जो मुझ से चिढ़ता है लेकिन यकीन से नहीं कह सकता कि वही होगा.’’

फिर मैं ने उसे विवाह न करने की वजह भी बताई कि उन की लड़की किसी और से प्यार करती थी. शादी के लिए मना करने के लिए उसी ने मुझ से मदद के तौर पर प्रार्थना की थी. लेकिन मेरे मना करने के बाद भी पिता ने उस की शादी उसी की जाति के ही दूसरे व्यक्ति से करवा दी थी.

‘‘तो फिर नंद किशोर ही आप को 6 महीने से हलकान कर रहे हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘यार, मुझे इस मुसीबत से किसी तरह बचाओ.’’

‘‘चुटकियों का काम है. अभी कर देता हूं,’’ उस ने लापरवाही से कहा.

फिर मेरे दोस्त पुलिस अधिकारी रामचरण ने नंद किशोर को परिवार सहित थाने बुलवाया. डांट, फटकार करते हुए कहा, ‘‘आप एक शरीफ आदमी को ही नहीं, 6 महीनों से पुलिस को भी गुमराह व परेशान कर रहे हैं. इस की सजा जानते हैं आप?’’

‘‘इस का क्या सुबूत है कि ये सब हम ने किया है?’’ बुजुर्ग नंद किशोर ने अपनी बात रखी.

पुलिस अधिकारी रामचरण ने कहा, ‘‘पुलिस को बेवकूफ समझ रखा है. आप की हैंडराइटिंग मिल गई तो केस बना कर अंदर कर दूंगा. जहां से आप टाइप करवा कर झूठी शिकायतें भेजते हैं, उस टाइपिस्ट का पता लग गया है. बुलाएं उसे? अंदर करूं सब को? जेल जाना है इस उम्र में?’’

पुलिस अधिकारी ने हवा में बातें कहीं जो बिलकुल सही बैठीं. नंद किशोर सन्नाटे में आ गए.

‘‘और नंद किशोरजी, जिस वजह से आप ये सब कर रहे हैं न, उस शादी के लिए आप की लड़की ने ही मना किया था. यदि दोबारा झूठी शिकायतें आईं तो आप अंदर हो जाएंगे 1 साल के लिए.’’

नंद किशोर को डांटडपट कर और भय दिखा कर छोड़ दिया गया. मुझे यह भी लगा कि शायद नंद किशोर का इन गुमनाम शिकायतों में कोई हाथ न हो, व्यर्थ ही…

‘‘मेरे रहते कुछ नहीं होगा, गुमनाम शिकायतों पर तो बिलकुल नहीं. लेकिन थोड़ा सुधर जा. शादी कर. घर बसा. शराफत का जमाना नहीं है,’’ उस ने मुझ से कहा. फिर मेरी उस से यदाकदा मुलाकातें होती रहतीं. एक दिन उस का भी तबादला हो गया.

मैं फिर डरा कि कोई फिर गुमनाम शिकायतों भरे पत्र लिखना शुरू न कर दे क्योंकि यदि यह काम नंद किशोर का नहीं है, किसी और का है तो हो सकता है कि थाने के चक्कर काटने पड़ें. नंद किशोर ने तो स्वीकार किया ही नहीं था. वे तो मना ही करते रहे थे अंत तक.

लेकिन उस के बाद यह सिलसिला बंद हो गया. तो क्या नंद किशोर ही नाराजगी के कारण…यह कैसा गुस्सा, कैसी नाराजगी कि आदमी आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए. गुस्सा है तो डांटो, लड़ो. बात कर के गुस्सा निकाल लो. मन में बैर रखने से खुद भी विषधर और दूसरे का भी जीना मुश्किल. पुलिस को भी चाहिए कि गुमनाम शिकायतों की जांच करे. व्यर्थ किसी को परेशान न करे.

शायद नंद किशोर का गुस्सा खत्म हो चुका था. लेकिन अब मेरे मन में नंद किशोर के प्रति घृणा के भाव थे. उस बुड्ढे को देखते ही मुझे अपने 6 माह की हलकान जिंदगी याद आ जाती थी. एक निर्दोष व्यक्ति को झूठी गुमनाम शिकायतों से अपमानित, प्रताडि़त करने वाले को मैं कैसे माफ कर सकता था. लेकिन मैं ने कभी उत्तर देने की कोशिश नहीं की. हां, पड़ोसी होते हुए भी हमारी कभी बात नहीं होती थी. नंद किशोर के परिवार ने कभी अफसोस या प्रायश्चित्त के भाव भी नहीं दिखाए. ऐसे में मेरे लिए वे पड़ोस में रहते हुए भी दूर थे.

छत पर उगाएं जैविक सब्जियां

भोजन की थाली में बढ़ते जहरीले प्रभाव से काफी लोग अनजान हैं परंतु इन के कुप्रभाव से कोई भी अछूता नहीं है. आजकल बाजार और मंडी में मिलने वाली सब्जियां व फल विभिन्न प्रकार के कृषि रसायनों के दुष्प्रभाव से ग्रसित हैं जो मानव सेहत के साथसाथ वातावरण के लिए भी खतरनाक बनते जा रहे हैं. फसलों पर कीटों व बीमारियों के भारी प्रकोप को देखते हुए किसान रसायनों को आवश्यक मात्रा से अधिक इस्तेमाल करते हैं. इस के अतिरिक्त मंडियों में भी फल व सब्जियों पर कृषि रसायनों का उपयोग आम बात होती जा रही है जिस की वजह से जहर की अधिक मात्रा मानव देह में प्रवेश करती जा रही है.

आजकल बाजार में फलों व सब्जियों में अच्छा रंग विकसित करने के लिए उन्हें कृषि रसायनों के घोल में डुबोया जाता है जैसे फूलगोभी के फूल में चमक लाने के लिए मेलाथियोन, बैगन में कार्बोफ्यूरोन, आम को पकाने के लिए प्रतिबंधित दवा कैल्शियम कार्बाइड आदि.

इसी तरह बेमौसम में मिलने वाली सब्जियों में अतिरिक्त कृषि रसायनों का इस्तेमाल किया जाता है जो काफी हानिकारक सिद्ध हो रहा है. सब्जी उगाने वाले किसान और व्यापारी दवा बेचने वाले लोगों से सलाह ले कर मनमाने ढंग से कीटनाशक रसायनों का इस्तेमाल करते हैं और फिर तुरंत फल व सब्जियों की तुड़ाई कर बाजार में बेच देते हैं.

कृषि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग का सब से बुरा प्रभाव मानव को सहन करना पड़ रहा है. कृषि रसायनों के अत्यधिक प्रयोग से लोगों में कैंसर, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, एंजाइम असंतुलन, चर्मरोग व एलर्जी, सांस से संबंधित बीमारियां, याददाश्त में कमी आना, अधिक गुस्सा आना, मानसिक संतुलन खोना जैसी समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं. ऐसी स्थिति में सप्ताह में 2-3 बार अगर जैविक सब्जियां प्राप्त हो जाएं तो इन रसायनों की ग्रहण मात्रा भी कम होगी तथा ग्रहण किए गए रसायनों का दुष्प्रभाव भी कम होगा.

बड़े शहरों, कसबों व ग्रामीण क्षेत्रों में बहुत लोग ऐसे हैं जिन के पास सब्जियों के उत्पादन के लिए पर्याप्त स्थान उपलब्ध नहीं है. इन परिस्थितियों में मकान की छत, छज्जों व मकान के चारों ओर की खाली जगह में जैविक विधि से कुछ मात्रा में सब्जियों का उत्पादन किया जा सकता है, विशेषरूप से छत का क्षेत्र काफी बड़ा एवं खुला होता है, जहां सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मात्रा में पहुंचता है.

छत पर सब्जियां विशेष प्रकार के गमलों में या नालियां बना कर उगाई जा सकती हैं. मुख्य रूप से बेल वाली सब्जियां, जैसे लौकी, तोरई, टिंडा, करेला आदि. भिंडी, बैगन, टमाटर, मटर, ग्वारफली, पालक, मेथी, गोभी, मूली व गाजर आदि भी उगाई जा सकती हैं. इस प्रकार से सब्जियों के उत्पादन से घर के सदस्यों को कुछ काम मिलेगा और घर का वातावरण हराभरा भी रहेगा, साथ ही, बच्चों को पेड़पौधों के विषय में जानकारी भी प्राप्त होगी.

गमले व नालियां

छत व घर के आंगन में सब्जी उत्पादन के लिए गमले मिट्टी, सीमेंट व प्लास्टिक के हो सकते हैं. गमले की भराव क्षमता 10 किलोग्राम से ले कर 250 किलोग्राम तक होनी चाहिए, जिस से आवश्यकता के अनुसार उपयोग किया जा सके. गमलों की गहराई फसल के अनुसार 1 से 2.5 फुट तथा चौड़ाई 1.5 से 3.5 फुट तक सामान्यतया होनी चाहिए.

सब्जी उत्पादन के लिए सीमेंट की नालियों का उपयोग भी किया जा सकता है. नालियां सामान्यतया 1.5 फुट गहरी, 1.5 फुट चौड़ी व 4-5 फुट लंबी बनी होनी चाहिए. नालियों के नीचे थोड़ीथोड़ी दूरी पर जल निकास के लिए छेद होने चाहिए. भारी गमलों को दीवार के ऊपर रखना चाहिए तथा बेल वाली सब्जियों की बुआई के लिए गमले दीवार से सटा कर रखने चाहिए.

छत के जल निकासी वाले स्थान के पास ज्यादा पानी चाहने वाली सब्जियों के गमले रखने चाहिए. मध्यम व छोटे आकार के गमले छत के मध्यभाग व छज्जों पर रखें. अधिक धूप चाहने वाली सब्जियों को छत की दक्षिण दिशा में और छायादार पौधों को घर की उत्तर दिशा में लगाना चाहिए.

पौली हाउस

सब्जियों को प्रतिकूल वातावरण से बचाने, पौध तैयार करने व वर्षभर आवश्यकतानुसार सब्जियों का उत्पादन करने के लिए छत के एक भाग में छोटा पौली हाउस भी लगाया जा सकता है. पौली हाउस में बाह्य वातावरण से 5-6 गुना ज्यादा उत्पादन मिलता है क्योंकि इस में पौधों को लंबाई में बढ़ाया जाता है. पौली हाउस में मुख्यतया खीरा, टमाटर, शिमला मिर्च लगानी चाहिए. पौधों को तेज धूप व अत्यधिक सर्दी से बचाने के लिए एग्रो शेड नैट (75 प्रतिशत) का उपयोग भी किया जा सकता है.

गरमियों में छत के किनारों पर कुछ सब्जियों को लगा कर उन्हें तारों के जाल पर चढ़ा कर संपूर्ण छत पर छाया की जा सकती है और छायादार क्षेत्र में गमलों में टमाटर, मिर्च, भिंडी आसानी से उगाई जा सकती हैं.  वर्षाकाल में सब्जियों का उत्पादन ज्यादा होता है तथा आवश्यकता कम होती है. ऐसी स्थिति में सब्जियों को पौली हाउस में सुखाने की व्यवस्था भी रखनी चाहिए जिस से सब्जियां उपलब्ध नहीं होने की स्थिति में भी जैविक सब्जियां खाने को मिलती रहें.

सब्जियों की बुआई हमेशा फेरबदल कर करनी चाहिए. परिवार की आवश्यकता के अनुसार व परिवार के सदस्यों की पसंद को ध्यान में रख कर सब्जियों का क्षेत्र निर्धारण करना चाहिए. कम पसंद वाली सब्जियों का क्षेत्र कम रखना चाहिए. पौली हाउस में हरा धनिया, शिमला मिर्च, टमाटर व खीरा वर्षभर उगाए जा सकते हैं.

बाहर रखे गमलों में सब्जियों की बुआई मौसम के अनुसार ही करनी चाहिए. जिन सब्जियों की रोप यानी पौध तैयार करनी पड़ती है, उन की रोप पौली हाउस या एग्रो शेड नैट में तैयार करनी चाहिए. जब पौध 25-30 दिन की हो जाए तब उसे मुख्य गमले में लगाना चाहिए. फसल की तुड़ाई होते ही पौधे को गमले से निकाल देना चाहिए और गमले में गुड़ाई कर के कुछ समय के लिए खुला छोड़ देना चाहिए. उस के बाद फिर बुआई करनी चाहिए. जिन सब्जियों के बीजों की बुआई करनी होती है उन्हें 24 घंटे पानी में भिगोने के बाद फफूंदनाशी दवा से उपचारित कर के 1 से 2 सैंटीमीटर गहराई तक बोना चाहिए.

गमलों में लगी सब्जियों की तुड़ाई निरंतर व समय पर करते रहना चाहिए. अधिक समय तक पौधे पर फल लगे रहने से उत्पादन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. इस से पौधे की उत्पादन क्षमता कमजोर पड़ जाती है. तुड़ाई करते समय ध्यान रखें कि पौधे के किसी भाग का नुकसान नहीं होना चाहिए व फूल व कच्चे फल नहीं झड़ने चाहिए. इस तरह सालभर ताजा जैविक सब्जियां खाते रहें और स्वस्थ रहें.

बेहतर प्रबंधन से सजे वाटिका

घर चाहे जितना भी बड़ा हो अगर उस में गृहवाटिका न हो तो आकर्षक नहीं लगता. गृहवाटिका ही घर को खूबसूरत लुक देती है. यदि आप की भी पेड़पौधों में रुचि है और आप के घर में पर्याप्त जगह है तो आप भी अपने घर में गृहवाटिका लगा सकते हैं.

गृहवाटिका में पौधों की वृद्धि व उत्पादन आदि वाटिका के प्रबंध पर निर्भर करते हैं. रोजाना की जरूरत के मुताबिक, फूल, सब्जियां व फल प्राप्त करने के लिए गृहवाटिका का प्रबंध इस तरह करना चाहिए कि कम से कम लागत व समय में, अधिकतम उत्पादन तो मिले ही, साथ ही वह स्वच्छ तथा सुंदर भी बनी रहे.

निराईगुड़ाई

पौधों की उत्तम वृद्धि व उपज के लिए क्यारियों व गमलों की सफाई जरूरी है. इस के लिए समय से निराईगुड़ाई करनी चाहिए. निराईगुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के साथसाथ भूमि में वायु संचार बढ़ जाता है जिस से जड़ों को अपना कार्य करने में आसानी रहती है, पोषक तत्त्व जड़क्षेत्र तक पहुंच जाते हैं और वाष्पन की क्रिया अवरुद्ध होने से सिंचाई की आवश्यकता कम हो जाती है.

फसल के साथ उगे अवांछित पौधे यानी खरपतवार भी फसल के पौधों के साथसाथ जमीन से पोषक तत्त्व व पानी ले लेते हैं और वे पत्तियों तक प्रकाश के पहुंचने में बाधक भी होते हैं. ऐसी स्थिति से बचने के लिए समय से निराईगुड़ाई करनी जरूरी है. निराईगुड़ाई करते समय पौधे के तने पर किसी प्रकार की खरोंच लग जाने पर उस में बोडो पेस्ट लगा देना चाहिए.

गृहवाटिका में निराईगुड़ाई करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए :

  1. निराईगुड़ाई इस तरह करनी चाहिए कि पौधों की जड़ों व तने को किसी तरह का नुकसान न पहुंचे.
  2. यदि खड़ी फसल में उर्वरक दी जाती है तो उसे जमीन में मिलाने के लिए निराईगुड़ाई जरूरी होती है.
  3. बीज की बुआई के बाद क्यारी की मिट्टी कड़ी हो जाने पर उसे भुरभुरी बनाने के लिए हलकी निराईगुड़ाई करनी चाहिए.
  4. बरसात में गुड़ाई करने के बाद पौधों पर मिट्टी भी चढ़ा देनी चाहिए ताकि उन्हें पानी की अधिकता से बचाया जा सके.
  5. पौधशाला में निराई के लिए किसी पतली खुरपी का प्रयोग करना चाहिए ताकि पौध को किसी तरह का नुकसान न हो.
  6. फलदार पौधों में निराईगुड़ाई सक्रिय जड़ क्षेत्र में करनी चाहिए. गुड़ाई करने के बाद उन्हें 2-3 दिन के लिए खुला छोड़ देना चाहिए, फिर हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

पलवार लगाना

पानी की कमी वाले क्षेत्रों में गृहवाटिका में पलवार लगाने से सिंचाई की संख्या में कमी आती है, खरपतवार कम उगते हैं जबकि पैदावार बढ़ती है और उपज के दूसरे गुणों में भी बढ़ोत्तरी होती है. पलवार लगाने से पहले क्यारियों की सफाई कर देनी चाहिए और एक हलकी सिंचाई भी करनी चाहिए. इस के बाद पलवार की 5-10 सैंटीमीटर मोटी परत खाली जगहों पर बिछा देनी चाहिए. पलवार बिछाते समय यह ध्यान रखें कि कोई भी शाखा पलवार के अंदर दबी न रह जाए. पलवार की मोटाई सभी जगह एकसमान रहनी चाहिए.

सहारा देना

लतावली फसलों जैसे लौकी, तोरई, खीरा, करेला, अंगूर, स्वीट-पी आदि में यदि पौधों को सुचारु रूप से सहारा दे दिया जाए तो फसल की बढ़वार सही होती है व फलों की गुणवत्ता भी सुधरती है. लौकी में देखा गया है कि यदि पौधों को सुचारु ढंग से सहारा दिया जाए और फलों को लटकने का अवसर मिल जाए तो फल लंबे, चिकने व सुंदर प्राप्त होते हैं. इस तरह के पौधों को ज्यादातर बाड़ के पास उगाना चाहिए ताकि ये बाद में बाड़ पर चढ़ जाएं और अच्छी उपज मिल सके. डहेलिया, ग्लेडिओलस, गुलदाऊदी आदि फूलों को सीधा रखने के लिए बांस की रंगीन खपच्चियों से भी सहारा दिया जा सकता है. वहीं, अंगूर की लता को सहारा देने के लिए तार का उपयोग भी किया जा सकता है.

गृहवाटिका की सुरक्षा भी उतनी ही जरूरी है जितनी कि उसे लगाना. अवांछित पशुपक्षियों के अलावा राहगीरों व बच्चों से भी गृहवाटिका के पौधों का बचाव करना पड़ता है. यदि घर के चारों ओर पक्की चारदीवारी नहीं है तो कांटेदार तार या उपयुक्त पौधों की बाड़ की रोक लगा देनी चाहिए.

खाद व उर्वरक प्रबंध

पौधों की वृद्धि व उत्पादन के लिए 16 पोषक तत्त्वों की आवश्यकता पड़ती है. इन पोषक तत्त्वों के अभाव में पौधों की वृद्धि रुक जाती है और पैदावार में कमी आ जाती है. पौधों के पोषक तत्त्वों को 3 भागों में बांटा गया है. पहले वे पोषक तत्त्व जिन की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है, मुख्य तत्त्व कहलाते हैं, जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटैशियम. दूसरे, वे पोषक तत्त्व जिन की आवश्यकता मध्यम मात्रा में होती है, द्वितीयक तत्त्व कहलाते हैं, जैसे गंधक, कैल्शियम व मैग्नीशियम. तीसरे, ऐसे पोषक तत्त्व जिन की कम मात्रा में आवश्यकता होती है, उन्हें सूक्ष्म तत्त्व कहते हैं, जैसे लोहा, जस्ता, तांबा, क्लोरीन व मैग्नीज.

पौधों की वृद्धि में सहायक पोषक तत्त्वों की आवश्यकता की पूर्ति आमतौर पर मिट्टी से हो जाती है. पर कुछ समय बाद मिट्टी में इन की कमी होने लगती है, ऐसी स्थिति में खाद व उर्वरकों की आवश्यकता होती है. पौधों को संतुलित पोषण प्रदान करने के लिए गोबर की खाद (60 भाग), उपजाऊ मृदा (3 भाग), बालू मृदा (2 भाग), नीम की खली (3 भाग), वर्मी कंपोस्ट (7 भाग), तालाब की मृदा (5 भाग), कंपोस्ट खाद (5 भाग), काकोपिट (5 भाग), एनपी के उर्वरक मिश्रण (10 भाग) व जिप्सम (अल्प मात्रा) का संयुक्त मिश्रण बना कर उसे पौधे के जड़क्षेत्र व गमलों में पौधों के उत्पादन व उम्र के आधार पर थोड़ीथोड़ी मात्रा में देते रहना चाहिए.

कटाईछंटाई

गृहवाटिका में कुछ बहुवर्षीय पौधे भी लगाए जाते हैं, जिन की कटाईछंटाई की आवश्यकता होती है. शोभाकारी झाडि़यों, फलदार वृक्षों (जैसे अंगूर, आड़ू, संतरा, आलूबुखारा, नीबू आदि) और कुछ बहुवर्षी सब्जियों (जैसे परमल, कुंदरू आदि) में कटाईछंटाई की आवश्यकता पड़ती है.

अधिकांश पर्णपाती पौधों में कटाईछंटाई दिसंबर से मार्च तक की जाती है जबकि सदाबहार पौधों में जूनजुलाई व फरवरीमार्च, दोनों मौसमों में कर सकते हैं. रोगग्रस्त व अनावश्यक शाखाओं को निकाल देना चाहिए. ऐसी शाखाओं को काटने के लिए तेज चाकू का प्रयोग करना चाहिए तथा कटाईछंटाई के बाद बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए.

खाद व उर्वरकों के प्रयोग में सावधानियां

  1. फसल की जरूरत के मुताबिक ही खाद और उर्वरक दिए जाएं. यदि आवश्यकता से अधिक उर्वरक दिए जाएंगे तो पौधों के अंकुरण पर कुप्रभाव पड़ेगा.
  2. खाद और उर्वरक समय पर ही दिए जाएं. यदि वे समय से पहले या बाद में दिए जाते हैं तो उन का सदुपयोग नहीं हो पाता है.
  3. खाद और उर्वरक देते समय जमीन में नमी की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए वरना फसल पर कुप्रभाव पड़ता है.
  4. यदि उर्वरक घोल के रूप में दिया जा रहा है तो पानी में उन की निर्धारित मात्रा ही घोली जानी चाहिए वरना पौधों को नुकसान पहुंच सकता है.
  5. यदि उर्वरक ‘टौप ड्रैसिंग’ के रूप में दिया जा रहा है तो मौसम साफ होना चाहिए. उर्वरक तने के पास नहीं डालना चाहिए और ओस पड़ी हुई नहीं होनी चाहिए.

छोटी औडी की बड़ी डील

वक्त के बदलते ट्रैंड व ग्राहकों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए जरमन की लग्जरी कार निर्माता कंपनी औडी अपने अनेक मौडलों के साथ बाजार पर अपनी पकड़ बनाए हुए है. औडी के पास पहले एंट्री सेडान कार ए4 थी लेकिन अब वह इस से कम कीमत में नई कौंपैक्ट सेडान ए3 ले कर आई है. इस नई कार को स्पौर्ट लिमोजीन के तौर पर देखा जा रहा है. औडी ए3 कंपनी की क्राफ्ट्समैनशिप का एक बेहतर नमूना है. एक फोरडोर, फोरसीटर कौंपैक्ट सेडान कार में टर्बो इंजन, डायनेमिक रफ्तार के साथ मौडर्न टैक्नोलौजी मौजूद है. औडी की इस ए3 कार को पैट्रोल और डीजल दोनों मौडल्स में उतारा जा रहा है जिन में क्रमश: 35 टीडीआई और 40 टीएफएसआई के टर्बो चार्जर इंजन लगे हैं. यानी रफ्तार के मामले में औडी ए3 का अपनी सैगमैंट की अन्य कारों से कोई मुकाबला नहीं है.

लुक और कंफर्ट के मामले में औडी की नई ए3 कार काफी आकर्षक व आरामदेह है. कार के केबिन में कई तरह के फीचर्स शामिल किए गए हैं. इस के आकर्षक डैशबोर्ड को बहुत सावधानी से तैयार किया गया है. इस की बौडी के चारों तरफ टोर्नाडो लाइन डिजाइन मिलता है जो इस की खूबसूरती में निखार लाता है.

कंपनी ने इस में अल्ट्रा हाई स्ट्रैथ स्टील का इस्तेमाल किया है. हाईवे पर यह 200 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से दौड़ने की ताकत रखती है. इस की सब से बड़ी खासीयत है कि यह 100 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार मात्र 8.7 सैकंड में छू लेती है. ऐसा इसमें मौजूद 6 स्पीड मैन्युअल गियर ट्रांसमिशन के साथ एसट्रौनिक आटोमैटिक गियर ट्रांसमिशन के चलते होता है. थ्रोटल दबाते ही गियर अपनेआप शिफ्ट हो जाता है.

कंपनी ने इस मौडल में इन्फोटेनमैंट सिस्टम को भी बेहतर किया है. इस के अलावा 17 इंच के 5 स्पोक के व्हील्स, लैदर सीट, इस की खासीयत हैं. कुल मिला कर न ज्यादा छोटी न ज्यादा बड़ी यह कार लग्जरी कार की चाहत रखने वालों के लिए परफैक्ट है. उम्मीद है वर्ल्ड कार औफ द ईयर जैसी दिखने वाली यह कार अपनी प्रतिद्वंद्वी कारों को टक्कर दे पाएगी.     

दी असैंशियल्स

औडी ए3 35 टीडीआई

पावर ट्रेन

डिस्प्लेसमेंट    : 1968 सीसी, टर्बो चार्ज्ड, इनलाइन-फौर

मैक्स पावर    : 143 बीएचपी एट 3500-4000 आर पी एम

मैक्स टौर्क     : 32.63 केजीएम एट 1750-3000 आरपीएम

ट्रांसमिशन     : सिक्स-स्पीड आटोमैटिक सस्पैंशन

स्टियरिंग टाइप : रेक एंड पीनियन विद इलेक्ट्रो-मकेनिकल एस्सि

टर्निंग रेडियस : एनए सस्पैंशन

फ्रंट    :     मैक्फर्सन स्ट्रट्स

रियर   :     क्वायल स्प्रिंग के साथ मल्टीलिंक

ब्रेक्स

फ्रंट    :     वेंटिलेटेड डिस्क

रियर   :     सौलिड डिस्क

टायर

205/55 आर 16

डायमैंशंस

एल/डब्लू/एच (एमएम) : 4456/1796/1416

व्हील बेस : 2637 एमएम

कर्ब वेट   : 1315 केजी

कीमत : 27-30 लाख (अनुमानित)

हिंदी की परेशानी

हिंदी के पिछड़ने के पीछे भाषाई ठेकेदार भले ही अंगरेजी को कोसते फिरते हों लेकिन सच तो यह है कि हमारे देश में ही हिंदी को विरोध झेलना पड़ता है. ताजा विवाद सीसैट को ले कर चल रहा है जिस में भाषाई भेदभाव के खिलाफ छात्रछात्राएं आक्रोशित हैं. इस के अलावा पिछले दिनों गृहमंत्रालय ने अपने विभागों को हिंदी में काम करने का निर्देश क्या जारी कर दिया तमाम राज्यों में हंगामा खड़ा हो गया. खासकर गैर हिंदी भाषी राज्यों में ज्यादा विरोध देखा गया.

जम्मूकश्मीर हो या दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु, कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिख कर फैसले पर फिर से सोचने को कहा. हिंदी के इस विरोध में जयललिता, करुणानिधि और उमर अब्दुल्ला जैसे बड़े नाम हैं. इन के मुताबिक किसी पर भाषा थोपना ठीक नहीं है. अब अगर राष्ट्रभाषा के प्रयोग पर देश में ही इतनी मुखालफत है तो इस के विकास की बात किस मुंह से की जा सकती है?

दरअसल, हिंदी भाषा के पाखंड और इस पाखंड को ढोने वाले पाखंडियों के बारे में इस दौर में जब भी कोई बात होगी वह मुलायम सिंह से शुरू होगी. मुलायम सिंह ने एक दौर में अंगरेजी और कंप्यूटर के विरुद्ध उत्तर प्रदेश में तीखा जनआंदोलन चलाया. ये सपा के मुखिया ‘नेताजी’ ही थे जो मायावती के पिछले शासनकाल में प्रदेश में रैलियां करते हुए सार्वजनिक रूप से कहा करते थे कि जब वे सत्ता में आएंगे तो अंगरेजी शिक्षा पर रोक लगा देंगे और कंप्यूटर से होने वाले कामकाज पर पाबंदी लगा देंगे. इस की वे 2 वजहें बताते थे. पहली यह कि अंगरेजी से गुलामी का बोध होता है, दूसरी यह कि कंप्यूटर ने बहुत से लोगों को बेरोजगार बना दिया है.

हिंदी पर दोगली राजनीति

शायद मुलायम सिंह ने मायावती द्वारा पहली कक्षा से अंगरेजी पढ़ाए जाने की शुरुआत कराए जाने के कारण इस लोकप्रियतावादी आंदोलन को खड़ा किया था. उन्हें लगता था शायद इस से उन्हें प्रदेश में तमाम लोगों का जनसमर्थन मिलेगा, क्योंकि अंगरेजी से बहुत लोग त्रस्त हैं. मगर उन्हीं मुलायम सिंह ने पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के जारी घोषणापत्र में कहा कि अगर उन की पार्टी सत्ता में आती है तो 12वीं पास छात्रों को टैबलेट और स्नातकों को लैपटौप दिया जाएगा.

यह कमाल का विरोधाभास इसलिए भी है क्योंकि जिन मुलायम सिंह ने हिंदी के उत्थान के लिए वर्षों से हाथ में झंडा ले रखा था, हर जगह अंगरेजी को पानी पीपी कर कोसते रहे थे, देश के मानसिक रूप से गुलाम होने की वजह से अंगरेजी को तरजीह देना बनाते रहे हैं, उन्हीं मुलायम सिंह ने अपने बेटे अखिलेश, जोकि इस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, को अंगरेजी माध्यम से पढ़ाया है. पहले अखिलेश आर्मी स्कूल में पढ़ते थे, जहां उन की पढ़ाई का माध्यम अंगरेजी था, फिर दक्षिण भारत में स्थित मैसूर के एक इंजीनियरिंग कालेज में उन्होंने पढ़ाई की. वह भी अंगरेजी माध्यम से हुई और उस के बाद आस्ट्रेलिया में जब वे पर्यावरण विज्ञान की पढ़ाई करने गए तो वह भी अंगरेजी में ही पढ़ कर आए. लेकिन मुलायम सिंह प्रदेश के दूसरे लोगों को यही कहते रहे कि वे अंगरेजी न पढ़ें. अंगरेजों ने हमें गुलाम बना रखा है. उन से कोई पूछे कि अगर अंगरेजी गुलामी का प्रतीक थी तो क्या वे अपने बेटे को गुलामी की तालीम दिला रहे थे?

हालांकि यह हिंदी से थोड़ा हट कर है लेकिन एक दौर में ज्योति बसु ने पश्चिम बंगाल में अंगरेजी पर प्रतिबंध लगा दिया था और प्राथमिक स्कूलों की पढ़ाई का माध्यम सिर्फ बंगला भाषा कर दिया था. लेकिन न सिर्फ खुद ज्योति बाबू विलायत के पढ़ेलिखे थे बल्कि उन के बेटे भी. और जिस समय उन्होंने यह फरमान जारी किया था उस समय उन के पोते भी सिर्फ अंगरेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ रहे थे. अगर मातृभाषा होने के कारण पश्चिम बंगाल में बंगाली अनिवार्य नहीं होती तो शायद उन के पोते या परिवार के तमाम मौजूदा सदस्य बंगाली लिखपढ़ भी न पाते.

पाखंडी नजरिया

हिंदी फिल्मों में जो पाखंड मौजूदा दौर के हीरोहीरोइन में दिखता है, कमोबेश वही पाखंड या कहें हिंदी को ले कर संवेदनहीनता का नजरिया इन के बड़े और मूर्धन्य समझे जाने वाले निर्मातानिर्देशकों का भी है. कहना नहीं चाहिए क्योंकि अब रोमांस के शहंशाह कहे जाने वाले यश चोपड़ा नहीं रहे, जो अपनी फिल्मों में करोड़ों से शुरू कर अरबों रुपए तक खर्च करते थे. कहते हैं फिल्म के एकएक पल के छायांकन और फिल्मांकन पर वे नजर रखते थे. मगर अपनी फिल्मों के शीर्षकों में वे हिंदी की, जैसे मन होता था, टांग तोड़ते थे. अब उन की 50 करोड़ से ऊपर के बजट वाली फिल्म ‘मोहब्बतें’ को ही लें.

‘मोहब्बतें’ हिंदी भाषा के किसी भी जानकार के लिए सब से ज्यादा अखरने वाला शब्द है. यह पनीर की मुलायम सब्जी में कंकड़ नहीं बल्कि कांच का टुकड़ा निकलने जैसा है. जिसे भी, जरा भी भाषाई तमीज है, उस के मुंह का स्वाद ‘मोहब्बतें’ शब्द से कसैला हो जाएगा, क्योंकि ‘मोहब्बतें’ जैसा कोई शब्द होता ही नहीं. भाववाचक संज्ञाओं को चाहे आप एकवचन के रूप में इस्तेमाल करें या बहुवचन के रूप में, वह एक ही होता है. मोहब्बत, मोहब्बत ही होती है. कई लोग करें तो भी वह मोहब्बतें नहीं बन जाती.

यश चोपड़ा 50 करोड़ से ज्यादा रुपए फिल्म बनाने में लगा देते थे लेकिन 5 हजार रुपए का एक हिंदी भाषा और उस के व्याकरण के जानकार को नहीं रख सकते थे कि कम से कम वह उन की फिल्मों के शीर्षकों को तो देख ले कि वे हिंदी की टांग तोड़ते हैं या छोड़ते हैं. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री की यह विडंबना है कि वहां पहले उर्दू जानने वालों का कब्जा रहा और अब ऐसे लोगों का कब्जा है जो न हिंदी जानते हैं न उर्दू. सही बात तो यह है कि ये अच्छी अंगरेजी भी नहीं जानते. ये तो बस टूटीफूटी अंगरेजी से काम चलाने वाली जुगाड़ू पीढ़ी है जो हिंदी को रोमन में पढ़तीलिखती है और उस की खूब ऐसीतैसी करती है. चाहे अभिनेता छोटा हो या बड़ा, बस एक बार उस की दुकान चल जाए फिर देखिए हिंदी बोल कर वह न तो अपनी सामाजिक हैसियत कम करना चाहता है और न ही कीमत.

यही कारण है कि बौलीवुड में भले 99 फीसदी हिंदी या क्षेत्रीय भाषा की फिल्में बनती हों लेकिन शायद ही कोई हिंदी फिल्मों का लोकप्रिय सितारा हो, सिवा अमिताभ बच्चन और कभीकभार शाहरुख के, जो हिंदी में बात करता हो. अब हिंदी के

खबरिए चैनलों के दबदबे के कारण आमिर और सलमान खान हिंदी बोलने को मजबूर हो जाते हैं. लेकिन जरा सा ऐसा कार्यक्रम हो जहां तमाम फिल्मी हस्तियां मौजूद हों, वहां जिसे भी कार्यक्रम का संचालक बनाया जाएगा वह जानबूझ कर 100 में से 95 बातें अंगरेजी में ही बोलेगा. कोई भी हिंदी फिल्मों की हीरोइन इंटरव्यू के दौरान, विशेषकर जो इंटरव्यू टैलीविजन चैनल में प्रसारित हो रहा हो, हिंदी नहीं बोलना चाहती. उसे लगता है हिंदी बोलते ही उस की बाजार दर कम हो जाएगी. 30 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की बौलीवुड हिंदी फिल्म इंडस्ट्री भाषाई पाखंड की गंगोत्तरी है.

हिंदी के साथ भेदभाव

हिंदी के महान लेखक और आधुनिक दौर के सब से प्रयोगशील कथाकार उदय प्रकाश हैं. उन्होंने फेसबुक में हिंदी भाषा पर बहस करते हुए मेरे एक मित्र गोविंद मिश्रा से कहा कि हिंदी में लिखना तो मेरी मजबूरी है. अगर मुझे अपनेआप को किसी और भाषा में व्यक्त करना आता तो मैं हिंदी में कभी नहीं लिखता. विरोधाभास देखिए कि यही उदय प्रकाश साहित्य कला अकादमी का पुरस्कार लेते हुए हिंदी के पक्ष में लंबाचौड़ा व्याख्यान देते हैं और हिंदीभाषी होने के कारण खुद को धन्य समझते हैं.

उदय प्रकाश ने फेसबुक में बहस करते हुए (जो वार्त्तालाप गोविंद मिश्रा के पास सुरक्षित है) कहा कि देश की दूसरी भाषाओं को हिंदी का उपनिवेशवाद ढोना पड़ता है. उन्होंने इस वार्त्तालाप में यह भी कह दिया कि गंगा किनारे के तमाम लेखकों का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए क्योंकि उन्हें उन्हीं के जैसे गंगा किनारे के दूसरे लेखकों ने महानता का तमगा दिया है. उदय प्रकाश ने यह भी आरोप लगाया कि गंगा किनारे के बड़े हिंदी लेखक जातिवादी रहे हैं. मतलब, निराला और दिनकर जैसे लेखक व कवि जातिवादी थे.

हिंदी के साथ भेदभाव करने वालों में कई मीडिया घरानों की भी कारस्तानी है जो एकसाथ हिंदी और दूसरी भाषाओं को खा कर अंगरेजी के समाचार और पत्रिकाएं प्रकाशित करते हैं. इन कई संस्थानों में हिंदी के लेखक को अगर पारिश्रमिक एक लेख का 500 रुपए दिया जाता है तो वहीं अंगरेजी के लेखक को, उसी संस्थान के अंगरेजी अखबार में 2 हजार से 5 हजार रुपए तक दिया जाता है. हालांकि इस में कोई दोराय नहीं है कि लेख का पारिश्रमिक उस की गुणवत्ता के आधार पर होना चाहिए.

खुद हैं जिम्मेदार

कुल मिला कर देखा जाए तो हिंदी समाज के तमाम वर्गों का ही यह पाखंड है जो हिंदी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार है. हिंदी समाज के लोग ही हैं जिन की वजह से हिंदी प्रभावशाली और अपने कद के अनुकूल महत्त्व नहीं हासिल कर पाती. वरना बाजार तो हिंदी को खूब तवज्जुह देता है.

अब देखिए 1990 के दशक में, जब भारत में विदेशी टैलीविजन चैनलों का आगमन शुरू हुआ तो शुरू में तमाम महत्त्वपूर्ण विदेशी चैनल अंगरेजी में ही थे. डिस्कवरी, साइंस डिस्कवरी, हिस्ट्री, एनिमल प्लैनेट, स्टारवर्ल्ड जैसे तमाम चैनल पूरे सप्ताह ज्यादातर समय अंगरेजी में ही अपने कार्यक्रम प्रसारित करते थे. लेकिन बहुत जल्द अंगरेजी के इन तमाम चैनलों को समझ में आ गया कि हिंदुस्तान में अगर कारोबार करना है तो हिंदी का प्रसारण अनिवार्य है. आज ये तमाम चैनल तकरीबन 24 घंटे में से साढ़े 23 घंटे के कार्यक्रम हिंदी में ही प्रसारित करते हैं. कुछ तो पूरी तरह से सिर्फ हिंदी में ही कार्यक्रम देते हैं.

दरअसल, हिंदी में आज जो टीवी चैनलों का 6 हजार करोड़ से भी ज्यादा का सालाना विज्ञापन बाजार है, उस में हिंदी का प्रसारण अनिवार्य है. आप अंगरेजी के जरिए हिंदुस्तान बाजार की मलाई नहीं हासिल कर सकते.

हिंदी के साथ दोहरा या पाखंडी रवैया सिर्फ उच्च वर्ग का ही नहीं है. सच तो यह है कि हिंदी के साथ सब से दोगला व्यवहार हिंदी प्रदेश का मध्य वर्ग करता है. हिंदी के लिए रोना रोएगा, हिंदी को राष्ट्रभाषा बताते हुए लड़नेमरने को तैयार रहेगा, लेकिन अपने बच्चों को हिंदी में नहीं पढ़ाएगा. हिंदी माध्यम से पढ़ाने में कतराएगा.

दरअसल, मध्यवर्ग के इसी दोहरे चेहरे के चलते सरकारी स्कूलों का कबाड़ा हो गया है. सरकारी स्कूल जानते हैं कि समाज का प्रभावशाली मध्यवर्ग जो शासन, प्रशासन, बुद्धिजीवी जमातों यानी हर जगह प्रभावशाली है, वह अपने बच्चों को वहां नहीं भेजता क्योंकि इस से समाज में यह संदेश जाता है कि वह आर्थिक रूप से कमजोर है. और पाखंडी मध्यवर्ग महंगाई का रोना सार्वजनिक बातचीत में भले रोए, यह नहीं साबित होने देना चाहता कि महंगाई की वजह से उस की जेब ढीली हो चुकी है. इसलिए रोता रहेगा, कराहता रहेगा, पिसता रहेगा लेकिन बच्चों को अंगरेजी माध्यम के स्कूलों में ही पढ़ाएगा और महल्ले की समय की बरबादी वाली बैठकों या दफ्तर में खुद को राष्ट्रवादी दिखाने के लिए हिंदी की माला जपेगा.

वास्तव में हिंदी की सब से बड़ी परेशानी हिंदी के यही पाखंडी और हिंदी का यही पाखंड है. जब तक इसे नहीं समझा जाएगा, इन्हें बेनकाब नहीं किया जाएगा तब तक हिंदी की दशादिशा में कोई सुधार नहीं होने वाला.

बौलीवुड में हिंदी

हिंदी भाषा के विकास में बाधक बाजार कतई नहीं है. हिंदी भाषा के विकास में अंगरेजी या कोई दूसरी भाषा भी बाधक नहीं है. हिंदी भाषा के विकास में सब से बड़ी बाधा हिंदी की दुनिया के वे लोग हैं जो हिंदी से मलाई खा रहे हैं, लेकिन जिस पत्तल में मलाई जीम रहे हैं उसी में छेद भी कर रहे हैं.

जावेद अख्तर साहब को ही लें. ये बौलीवुड के सब से बड़े पटकथा लेखक माने जाते हैं. ‘दीवार’, ‘शोले’, ‘त्रिशूल’ जैसी बेहद सफल फिल्मों के लेखक और पटकथाकार जावेद साहब ने हिंदी फिल्मों के लिए दर्जनों गीत भी लिखे हैं. जावेद अख्तर बड़ी

सहजता से सार्वजनिक मंचों में कहते हैं, उन्हें हिंदी नहीं आती.

उन के मुताबिक उन्हें हिंदी की वर्णमाला भी लिखनी नहीं आती. इस बात का वे एक नहीं, दर्जनों बार जिक्र कर चुके हैं. हैरानी की बात यह है कि एक बार भी यह कहते हुए न उन की जबान लड़खड़ाई है, न आंखें और गला अवरुद्ध हुआ है. अरे, हिंदी नहीं आती तो आप हिंदी भाषी सिनेमा के शीर्ष पटकथाकार कैसे बने हुए हैं?

आप को ज्ञात होना चाहिए कि क्या कोई हौलीवुड की फिल्मों का पटकथा लेखक यह कह सकता है कि उसे अंगरेजी नहीं आती? यह हिंदी की दुकानदारी का मुनाफा लूटने वालों की बेशर्मी है कि जिस की वे रोटी खा रहे हैं, उस से ही अपनी अजनबियत साबित कर रहे हैं.

जावेद अख्तर, लेखक व गीतकार

क्या कहते हैं आंकड़े

यूनिसेफ के एक भाषिक अध्ययन सर्वेक्षण के मुताबिक, भारत में 49 करोड़ लोगों की विशुद्ध रूप से बोलने, समझने और लिखने की भाषा हिंदी है तथा 60 करोड़ से ज्यादा दूसरे ऐसे लोग हैं जो टूटीफूटी हिंदी बोलते हैं, पर पूरी तरह से हिंदी समझ लेते हैं और हिंदी में धड़ल्ले से संवाद व संपर्क करने की कोशिश करते हैं, भले ही कुछ लोगों के लिए वे मजाक का विषय बनते हों.

सिर्फ भारत में ही नहीं, समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में बमुश्किल 5 से 7 फीसदी लोग ही ऐसे हैं जिन से आप किसी भी कीमत में हिंदी के माध्यम से संवाद नहीं कर सकते वरना तो नेपाल, भूटान, म्यांमार, पाकिस्तान, अफगानिस्तान हर जगह आप हिंदी में अपनी बात रख सकते हैं और हिंदी के जरिए आप अपनी बात उन्हें समझा सकते हैं. बावजूद इस के, हिंदी के साथ जबरदस्त ढंग से भेदभाव हो रहा है. जबकि फिजी, मौरीशस, गयाना, सूरीनाम की अधिकतर व नेपाल की कुछ जनता हिंदी बोलती है.

राष्ट्र संघ की 6 अधिकृत भाषाएं हैं : अंगरेजी, फ्रैंच, स्पेनिश, अरबी, चीनी और रशियन. इस में सिर्फ अंगरेजी और रशियन ही हिंदी से ज्यादा बोली जाती हैं. बावजूद इस के, अगर राष्ट्र संघ की स्थायी भाषा हिंदी नहीं बन पा रही तो इस की एक बड़ी वजह यह है कि हिंदुस्तान का शासक वर्ग, हिंदी में नहीं बोलता. चीन का प्रधानमंत्री कहीं भी जाता है, चीनी में भाषण देता है. फिर उस का अनुवाद होता है या दुभाषिए द्वारा उस का साथसाथ अनुवाद होता है. लेकिन हिंदी के जितने नेता विदेश जाते हैं, वे भी हिंदी में नहीं बोलते. हमारे नेतागण अर्जुन सिंह, वी पी सिंह, चंद्रशेखर, इंद्र कुमार गुजराल, ये सब के सब शानदार हिंदी बोलते रहे हैं. इन में शायद गुजराल साहब एकमात्र ऐसे रहे हों जिन्हें हिंदी लिखनी न आती रही हो, बाकी सब तो हिंदी लिखने में भी महारत रखते थे. बावजूद इस के ये तमाम नेता लोग जब भी विदेश की यात्रा पर गए हैं, सिर्फ और सिर्फ अंगरेजी में ही बात करते देखे गए हैं. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जरूर राष्ट्र संघ में हिंदी बोल कर हिंदुस्तान में वाहवाही लूटने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन वे भी दुनिया के तमाम देशों की यात्राओं के समय अपने को अंगरेजी में ही व्यक्त करना सही समझते थे, भले ही उन की अंगरेजी तंग थी.

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