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पोशाक की तरह न बदलें नौकरी

ए आर मैथ्यू एक राष्ट्रीयकृत बैंक में अधिकारी था. मुंबई का रहने वाला था. उस का स्थानांतरण राजस्थान के कोटा शहर में हो गया. उस की पत्नी मुंबई में ही एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी करती थी. वहां उसे अच्छाखासा वेतन मिलता था. इसलिए वह नौकरी छोड़ने को तैयार न थी. मजबूरन मैथ्यू को हर महीने एकदो बार मुंबई जाना पड़ता था.
बारबार की भागदौड़ से तंग आ कर मैथ्यू ने मुंबई के एक प्राइवेट बैंक में नौकरी के लिए आवेदन कर दिया. संयोगवश उसे नौकरी मिल गई. वहां पहले वाली नौकरी की तुलना में वेतन भी अधिक था. नौकरी की शर्तों के अनुसार, वहां हर दूसरे वर्ष वेतन व सेवा शर्तों का नवीनीकरण किया जाना तय था. नौकरी स्वीकार करते समय उसे यह बात बहुत अच्छी लगी थी क्योंकि यह मेहनत और काम के अनुसार वेतन दिए जाने वाली बात थी. वह शीघ्र ही उन्नति कर लेगा, इसी उम्मीद में उस ने वर्षों पुरानी नौकरी झट से छोड़ दी.
मैथ्यू नई नौकरी पर आ गया. वह अपनी सफलता पर बेहद खुश था. पर जल्दी ही उस की खुशी काफूर हो गई. वह नौकरी के अनुसार स्वयं को नहीं ढाल पाया. उसे सुबह साढ़े 5 बजे जाना पड़ता था और रात को 10 बजे घर लौट कर आता था. काम भी बहुत अधिक और नए तरीके का था. नतीजतन, वह अवसाद यानी डिप्रैशन का शिकार हो गया. सालभर पूरा होतेहोते वह एंजाइना यानी (हृदय रोग) की गिरफ्त में आ गया. इस का उस की कार्यक्षमता पर विपरीत असर पड़ा.
2 वर्ष बाद बैंक ने उस का अनुबंध रिवाइज किया. उस का वेतन पहले से आधा कर दिया गया. वह वेतन उस की पहले वाली नौकरी से भी कम था. मैथ्यू बैंक के खिलाफ अदालत में भी नहीं जा सकता था. बैंक ने नौकरी पर लेने से पूर्व ही उस से इस्तीफा लिखवा कर रख लिया था. मैथ्यू को पहले वाली नौकरी छोड़ देने का गहरा अफसोस था. पर अब उस के पास उसी नौकरी पर बने रहने के अलावा कोई चारा न था.
मनीष पिछले 40 वर्षों से पुस्तक व्यवसाय में कार्यरत था. वह पुस्तक विक्रय प्रतिनिधि की हैसियत से देश के विभिन्न भागों में जा कर पुस्तकों के और्डर बुक किया करता था. इस कार्य में उसे विशेषज्ञता हासिल थी. इस कारण पुस्तक प्रकाशक और विक्रेता उस की गरज करते रहते थे. बाजार में उस की बहुत पूछ थी. पर मनीष में एक बहुत बड़ी कमी थी. वह मनमौजी किस्म का था. जब मरजी आती, काम पर चला जाता वरना छुट्टी कर लेता. बिना बताए एक व्यवसायी की नौकरी छोड़ कर दूसरे के यहां नौकरी करने लग जाता. अकसर पुस्तक व्यवसायी उसे अपने यहां नौकरी पर रखने के लिए लालायित रहते थे. पर वे यह भी जानते थे कि न जाने कब वह बिना बताए नौकरी छोड़ कर चला जाए.
मनीष की इस मानसिकता से दुखी हो कर पिछले दिनों पुस्तक व्यवसायियों ने एक मीटिंग की. उन्होंने तय किया कि यदि मनीष बिना पूर्व सूचना के नौकरी छोड़ देता है तो उसे कोई भी व्यवसायी अपने यहां नौकरी पर नहीं रखेगा. आदतन मनीष ने एक बार फिर अपनी नौकरी छोड़ दी. उस ने दूसरे अन्य पुस्तक व्यवसायियों से संपर्क किया. मगर वह जहां भी गया उसे नकारात्मक उत्तर मिला. इस तरह 6 महीने बीत गए. उसे कहीं भी नौकरी नहीं मिली.
पुस्तक व्यवसायियों को उंगलियों पर नचाने वाले मनीष को नौकरी के लाले पड़ गए थे. बेरोजगारी ने उस की बार्गेनिंग पावर छीन ली. आखिरकार उसे उसी नियोक्ता के पास जाना पड़ा जहां से उस ने काम छोड़ा था. कई तरह की शर्तें मानने पर उस ने उसे दोबारा नौकरी दी. पहले की तुलना में वेतन कम व सेवाशर्तें अधिक कठोर तय हुईं. मनीष इस स्थिति से संतुष्ट नहीं था पर वह अपनी आदतों से मजबूर था. आखिर, जिन लोगों ने उस के साथ पुस्तक व्यवसाय में अपना कैरियर शुरू किया था वे सब अच्छे व्यापारी बन गए थे, जबकि मनीष को उन के यहां जा कर नौकरी के लिए हाथ फैलाना पड़ता था.
सूझबूझ की जरूरत
नौकरी स्वीकार करते समय जितनी समझदारी और सूझबूझ की जरूरत होती है उस से कहीं अधिक धैर्य की जरूरत होती है नौकरी छोड़ने का निर्णय लेते समय. यह उस समय और भी अधिक आवश्यक हो जाता है जब नियोक्ता स्वयं नौकरी छोड़ने के लिए नहीं कहे और व्यक्ति अपने ही कारणों से नौकरी छोड़ने की इच्छा रखता हो. आज के समय में बिना किसी उचित और बाध्यकारी परिस्थितियों के नौकरी छोड़ देना समझदारी नहीं कही जा सकती. बहुत से लोग अच्छी नौकरी की चाहत में पहले वाली नौकरी छोड़ देते हैं. बाद में उन्हें पता चलता है कि उन्होंने नई नौकरी में जिन खूबियों की उम्मीद की थी वे उस में नहीं हैं. यह सच है कि ‘बेटरमैंट औफ जौब’ हर व्यक्ति चाहता है. पर उस के लिए समग्र दूरदृष्टि से निर्णय लिए जाने की आवश्यकता है. जल्दबाजी व लापरवाही से लिया गया निर्णय जीवनपर्यंत पछताने का सबब बन सकता है.
कुछ व्यक्तिगत कारण
नौकरी छोड़ने के अधिकतर कारण व्यक्तिगत होते हैं. वर्तमान नौकरी के प्रति नापसंदगी का होना अथवा पति या पत्नी का दूसरे स्थान पर तबादला हो जाना और फिर इच्छित जगह पर तबादला न करवा पाने के कारण लोग या तो स्वयं त्यागपत्र दे देते हैं या पत्नी की नौकरी छुड़वा देते हैं. संभव है इस कारण वे कुछ दिन तो संतुष्टि का एहसास कर लेते हों मगर परिवार की आय घट जाने की पीड़ा संपूर्ण परिवार को सदा के लिए झकझोरती रहती है. उन्हें जीवनपर्यंत अपने निर्णय पर अफसोस बना रहता है, बेशक, उसे खुलेआम स्वीकार करने में उन्हें संकोच होता हो.
नौकरी की सेवाशर्तें भी कई बार व्यक्ति को नौकरी छोड़ने के लिए विवश कर देती हैं. उदाहरणार्थ, महिलाओं के लिए रात्रि की पाली में नौकरी करने की बाध्यता. ऐसी सेवाशर्तों के बारे में नौकरी शुरू करने से पूर्व ही अच्छी तरह सोचविचार कर लेना चाहिए. यदि ऐसी विवशताएं बाद में उत्पन्न हुई हैं तो नियोक्ता से इन के संबंध में बातचीत कर कोई न कोई हल ढूंढ़ा जा सकता है. यदि इन्हें माना जाना वाकई आवश्यक हो गया है तो नियोक्ता से उपयुक्त सुविधा देने की बात कही जा सकती है. वह भी नहीं चाहेगा कि उस के कारण उस का कर्मचारी उलझन व परेशानी का शिकार हो, जैसे वह रात्रि पाली में काम करने वाली महिला कर्मचारियों को उन के घरों से लाने व ले जाने की उपयुक्त व सुरक्षित व्यवस्था करवा सकता है. न्यायोचित हल खोजने के लिए नौकरी में रहते हुए नियोक्ता को विवश भी किया जा सकता है.
कई बार पदोन्नति न होने या किसी अयोग्य अथवा कनिष्ठ साथी के पदोन्नत हो जाने के कारण फ्रस्ट्रेशन का आवेश भी नौकरी छोड़ने का कारण बन जाता है.
ऐसे समय मनुष्य को आवेशात्मक निर्णय नहीं लेना चाहिए. उसे ईमानदारीपूर्वक आत्मावलोकन करना चाहिए. अकसर हर व्यक्ति अन्य लोगों की तुलना में खुद को सर्वाधिक योग्य मान बैठने की भूल कर बैठता है, जबकि सचाई कुछ और होती है. यह मानवीय कमजोरी है कि व्यक्ति अन्य लोगों की कमियों को तो सहज ही ढूंढ़ लेता है लेकिन स्वयं की कमियों को नजरअंदाज कर देता है. संभव है कि उस में कमियां हों जिन के कारण उस की पदोन्नति न हो पाई हो. यद्यपि कोई भी नियोक्ता या प्रबंधन अकुशल लोगों को पदोन्नति दे कर स्वयं को कमजोर करने जैसा आत्मघाती कदम उठाना पसंद नहीं करता. फिर भी संभव है कि किसी कारणवश पदोन्नति में कोई पक्षपात जैसी बात हो गई हो. मगर इस का मुकाबला नौकरी छोड़ कर कर पाना तो संभव नहीं है. ऐसी परिस्थिति में पलायन कर जाने के बजाय नौकरी में रहते हुए ही न्याय पाने के उपाय ढूंढ़े जाने चाहिए.
नियोक्ता को जानकारी दें
यदि नौकरी छोड़ना तय ही कर लिया है तो अपने नियोक्ता को यथासमय सूचना अवश्य दें. यथासमय से तात्पर्य है कि उसे कम से कम इतने समय पूर्व जरूर बता दें जिस का उल्लेख नियुक्तिपत्र में किया गया है, जिस से नियोक्ता उस समयावधि में दूसरे कर्मचारी को रखने की या अन्य वैकल्पिक व्यवस्था कर सके. यदि कर्मचारी ऐसा नहीं करता है तो नियोक्ता उस के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कर सकता है, जिस के तहत वह कर्मचारी को नई नौकरी छोड़ कर वापस आने या उस के एवज में क्षतिपूर्ति राशि चुकाने के लिए बाध्य कर सकता है. साथ ही, वह व्यापार संघों या अन्य संगठनों के माध्यम से उस कर्मचारी का नाम काली सूची में भी डलवा सकता है. इस से उसे भविष्य में नौकरी मिलने में कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं. कई नियोक्ता नौकरी देने से पहले, पूर्व नियोक्ता से नियुक्त किए जाने वाले कर्मचारी की नैतिकता, आचरण व व्यवहार संबंधी रिपोर्ट मांगते हैं. यदि पूर्व नियोक्ता को विश्वास में लिए बिना नौकरी छोड़ दी गई तो ऐसे लोग नई नौकरी पर परेशानी में पड़ सकते हैं.
इस तरह यह बात स्पष्ट है कि नौकरी जल्दबाजी में नहीं छोड़नी चाहिए. नौकरी शरीर ढकने वाली कोई पोशाक नहीं है कि इसे बारबार या जब चाहे बदल लें. हां, नौकरी में रह कर न्याय के लिए जद्दोजहद कर सकते हैं.

भ्रष्टाचार, सियासत और मुसलमान

भारत में मुसलिम समुदाय बतौर अल्पसंख्यक हमेशा से ही सियासी बिसात के प्रमुख मोहरे की तरह इस्तेमाल होता आया है. चुनावों की नजदीकी अचानक सियासतदानों को इन के वोटों की अहमियत का एहसास कराने लगती है लेकिन इसी समुदाय के रहनुमा और जामा मसजिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी तो भ्रष्टाचार को मुसलिमों के लिए वरदान बता रहे हैं. पढि़ए खुरशीद आलम की रिपोर्ट.
 
क्याभ्रष्टाचार मुसलमानों के लिए वरदान है? क्या इस वरदान से मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति में सुधार हुआ? क्या इस वरदान से देश विकास की ओर बढ़ रहा है या वह भ्रष्ट देशों की सूची में अपना स्थान बना रहा है? क्या भ्रष्टाचार से ही मुसलमानों का विकास एवं उन्नति संभव है या उन्हें इस बुराई के खिलाफ लामबंद हो जाना चाहिए जैसे सवालों पर बहस दिल्ली की जामा मसजिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी के उस भाषण के बाद शुरू हो गई है जिस में उन्होंने कह दिया कि भ्रष्टाचार मुसलमानों के लिए वरदान है क्योंकि इस के कारण मुसलमान अपने छोटेमोटे काम करा लेते हैं. इस के विपरीत सांप्रदायिकता देश के लिए घातक है.
मौका था, जामा मसजिद के गेट नंबर 7 के पास मैदान में आयोजित मुसलमानों के एक सम्मेलन का, जिसे जामा मसजिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी ने वर्तमान सियासी परिदृश्य में अपनी रणनीति तय करने के लिए बुलाया था. सम्मेलन को संबोधित करते हुए सैयद अहमद बुखारी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में मुलायम सिंह को विशेष रूप से निशाना बनाया. कांगे्रस से नाराजगी का इजहार किया गया और भाजपा के साथ जाने की किसी भी संभावना को सिरे से निरस्त किया गया. वहीं, बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती के प्रति नरमी का इजहार किया गया और तृणमूल कांगे्रस की ममता बनर्जी के बारे में कहा कि ममता ने उन्हें एक पत्र भेजा है जो 6 पेज का है.
पत्र में उन्होंने पूर्ण विवरण से बताया है कि सच्चर कमेटी के सुझावों की रोशनी में मुसलमानों के लिए कौनकौन से काम किए हैं. पत्र को वे समय आने पर अखबारों के माध्यम से जनता के सामने पेश करेंगे. भ्रष्टाचार उन्मूलन को ले कर वजूद में आई आम आदमी पार्टी को यहूदियों का एजेंट बताते हुए मुसलमानों को उस से सचेत रहने का आह्वान किया और कहा कि आने वाले समय में मालूम हो जाएगा कि उन की बात सही है.
निशाने पर सपा
200 से अधिक प्रतिनिधियों के इस सम्मेलन का मकसद मुसलमानों की सियासी रहनुमाई करना था लेकिन यह देख कर आश्चर्य हुआ कि पूरा सम्मेलन सिर्फ उत्तर प्रदेश पर फोकस था और निशाने पर समाजवादी पार्टी व उस के मुखिया मुलायम सिंह यादव थे. मुजफ्फरनगर दंगों को ले कर उन्हें खूब खरीखोटी सुनाईं. जमीअत उलेमा हिंद के एक ग्रुप के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी द्वारा मुलायम सिंह का समर्थन किए जाने पर उन का नाम लिए बिना उन्हें निशाना बनाया.
शाही इमाम ने अपने भाषण में कहा कि मुलायम चाहते हैं कि मुसलमानों में आरएसएस और भाजपा का भय बैठा रहे ताकि मुसलिम वोट उन से दूर न हों.
व्यक्तिगत तौर पर यह सम्मेलन शाही इमाम की आवाज पर हो रहा था. इस के पूर्व इस तरह की बैठकें या सम्मेलन जामा मसजिद राबिता कमेटी के बैनर तले हुआ करते थे. यह ओपन सम्मेलन था और हर किसी को शरीक होने की इजाजत थी.
सम्मेलन में समाजवादी पार्टी के पूर्व नेता एवं उर्दू साप्ताहिक ‘नई दुनिया’ के संपादक शाहिद सिद्दीकी, समाजवादी पार्टी के टिकट पर कांगे्रस के सहयोग से सांसद बने राज्यसभा सदस्य मोहम्मद अदीब, दैनिक ‘राष्ट्रीय सहारा’ के पूर्व एवं दैनिक ‘अजीजुल हिंद’ के वर्तमान संपादक अजीज बर्नी सहित पूर्व सांसद डा. एम एजाज अली आदि ने अपने विचारों को पेश किया.
शाहिद सिद्दीकी ने गैर राजनीतिक फं्रट की वकालत करते हुए उसे समय की जरूरत बताया और कहा कि फ्रंट राजनीतिक हो लेकिन उस के पदाधिकारी राजनीति में हिस्सा न लें. उन की इस बात से असहमति जताते हुए अजीज बर्नी ने कहा कि स्वाधीनता के बाद से हम ने इसी तरह की राजनीति की है जिस का नतीजा यह निकला है कि हम हाशिए पर पहुंचा दिए गए. हम अपनी पार्टी, अपने झंडे के साथ चुनाव लड़ेंगे. हमारे सामने 2014 का लोकसभा चुनाव नहीं होना चाहिए बल्कि 2019 और 2024 को सामने रख कर अपनी रणनीति बनानी चाहिए.
दंगों पर सब रहे खामोश
सांसद मोहम्मद अदीब ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में 50 मुसलिम विधायकों पर निशाना साधते हुए कहा कि मुजफ्फरनगर दंगे पर सब खामोश रहे और किसी ने इस्तीफा देने की बात तो दूर उस के खिलाफ आवाज तक नहीं उठाई. शाही इमाम का कहना था कि मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पूर्व जो वादे किए थे, हम ने उस का जवाब मांगा था. 1 महीने के बाद भी उन का जवाब नहीं आया क्योंकि उन्होंने वादों को पूरा नहीं किया है. मुसलमानों के साथ धोखा किया है और 2014 के चुनाव में उन्हें इस का जवाब मिल जाएगा. इस अवसर पर शाही इमाम की अगुआई में एक 
11 सदस्यीय कमेटी गठित की गई जो स्थिति की समीक्षा कर अपनी रिपोर्ट पेश करेगी जिस की रोशनी में आगे की रणनीति तैयार की जाएगी.
शाही इमाम अहमद बुखारी की इस पहल को आम मुसलमानों में सियासी दृष्टिकोण से देखा जा रहा है. मुसलिम समाज इसे मोलभाव के रूप में देख रहा है. कुछ दिन पूर्व मायावती के विशेष दूत सतीश शर्मा और नसीमउद्दीन सिद्दीकी जामा मसजिद आए थे और शाही इमाम से मुलाकात की थी. उस मुलाकात में क्या चर्चा हुई, यह तो नहीं मालूम लेकिन मुसलमानों में यह धारणा पाई जा रही है कि यह उसी योजना के तहत हो रहा है. वैसे भी यह कोई पहला मौका नहीं है जब चुनाव पूर्व शाही इमाम सक्रिय हुए हों. इस बार उन्हें मुजफ्फरनगर दंगा एक हथियार के तौर पर मिल गया.
अतीत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव पूर्व शाही इमाम की सक्रियता की खबरें अखबारों में सुरक्षित हैं. लेकिन मुसलमानों के नाम पर होने वाली इस सक्रियता से आम मुसलमानों को भी कुछ फायदा हुआ या फिर सक्रिय होने वालों को ही इस का क्या लाभ मिला? सवाल यह है कि क्या यह बताने के लिए कि राज्य में मुसलमान किसे वोट दें, यह सम्मेलन किया गया था या मुलायम सिंह ने अहमद बुखारी की मांगों को नहीं माना था जिस के बाद उन्होंने मुलायम को सबक सिखाने के लिए यह सम्मेलन किया? उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पूर्व जिस तरह अहमद बुखारी ने अपने रिश्तेदार को समाजवादी पार्टी द्वारा टिकट न दिए जाने पर नाराजगी का इजहार किया था, उसे आम मुसलमान भूला नहीं है.
मुसलमान और भ्रष्टाचार
सांप्रदायिकता के खतरनाक होने पर कोई संदेह नहीं है लेकिन किसी बुराई को वरदान के तौर पर पेश करना, समझ से परे है, वह भी जामा मसजिद के इमाम के मुख से. क्या इस का मतलब यह है कि भ्रष्टाचार को रोकने की जो भी कोशिशें हो रही हैं, वे नहीं होनी चाहिए क्योंकि इस से मुसलमानों को फायदा हो रहा है. भ्रष्टाचार के चलते मुसलमानों का काम हो जाता है, यदि इस पर प्रतिबंध लग गया तो वे काम कैसे हो सकेंगे.
बुनियादी बात यह है कि कितने फीसदी मुसलमानों का काम भ्रष्टाचार से होता है, यह मामला तो सिर्फ मुसलमानों से संबंधित नहीं है बल्कि सभी देशवासियों से जुड़ा है और उन्हें अपने कामों के लिए घूस देनी पड़ती है. ऐसी स्थिति में तो भ्रष्टाचार के संरक्षण के लिए सिर्फ मुसलमानों को ही नहीं बल्कि सभी देशवासियों को मुहिम चलानी चाहिए ताकि उन का काम होता रहे.
निसंदेह सरकार के ऐसे कई विभाग हैं जहां भ्रष्टाचार नहीं है जैसे बैंक, पोस्टऔफिस आदि. इस के अतिरिक्त भी बहुत से विभागों में भ्रष्टाचार नहीं के बराबर है लेकिन जिन मामलों में व्यक्ति खुद भ्रष्ट होता है वहां वह भ्रष्टाचारी को तलाश करता है. 
यह सही है कि आम आदमी को भी कभीकभार अपने सही काम कराने के लिए घूस देना पड़ती है. लेकिन यदि व्यक्ति सही है तो जीत उसी की होती है. सरकार के जिन विभागों एवं टैंडर प्रक्रिया में भ्रष्टाचार की बात की जाती है वहां आम आदमी का काम नहीं होता बल्कि कंपनियों और ठेकेदारों का काम होता है, वे भ्रष्टाचार करते हैं. यह तर्क देना कि ये ‘लक्ष्मी’ की पूजा करते हैं, इसलिए भ्रष्टाचार से मुसलमानों का काम हो जाता है, सचाई से परे है.
पाकिस्तान जैसे मुसलिम देश में भ्रष्टाचार का ग्राफ काफी ऊंचा है और ट्रांसपैरेंसी इंटरनैशनल की रिपोर्ट में उसे भ्रष्ट देशों की सूची में जो स्थान दिया गया है, क्या उस पर गर्व किया जा सकता है? निश्चय ही यह एक बुराई है जिस का समर्थन भी इसी श्रेणी में आता है, इसलिए इस का समर्थन कदापि
नहीं किया जा सकता. जिस तरह सांप्रदायिकता देश के लिए हानिकारक है उसी तरह भ्रष्टाचार भी देश के लिए घातक है. इस के बाद भी यदि किसी धार्मिक गुरु की ओर से उसे वरदान बताया जाए तो पाठक स्वयं फैसला कर लें कि उस मंशा का आशय क्या है.

युवा भविष्य का भक्षक शिक्षा माफिया

घूसखोरी का जहर समाज की नसनस में किस कदर भर चुका है, यह मध्य प्रदेश में हुए व्यापमं घोटाले से समझा जा सकता है. इस फर्जीवाड़े में शिक्षक, अभिभावक और नौकरशाह, सभी के हाथ कालिख से पुते हैं. सालों से युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ करते शिक्षा माफिया के बारे में पढि़ए भारत भूषण श्रीवास्तव की रिपोर्ट में.
सरिता के दिसंबर (द्वितीय) 2013 के अंक में लेख ‘प्री मैडिकल टैस्ट का फर्जीवाड़ा’ जब प्रकाशित हुआ था तब आरोपियों की संख्या दहाई अंक में थी जो अब बढ़ कर 3 अंकों यानी सैकड़ों में पहुंच गई है और फर्जी तरीकों से दाखिला लेने वालों की वास्तविक संख्या तो हजारों में जा रही है.
अभी भी हर हफ्ते इस महाफर्जीवाड़े में चौंका देने वाला एक नया खुलासा होता है तो लोगों को लगता है यह आखिरी था पर 8-10 दिन बाद ही कोई नया या सफेदपोश चेहरा गिरफ्त में आता है तो लोगों की हैरानी और बढ़ जाती है कि इस व्यावसायिक परीक्षा मंडल यानी व्यापमं घोटाले का मुंह तो सुरसा के मुंह जैसा है जो लगातार बढ़ता ही जा रहा है. पर बड़ी हैरानी लोगों को इस बात की है कि क्यों पूर्व तकनीकी शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा को एसटीएफ आरोप तय और साबित हो जाने के बाद भी गिरफ्तार नहीं कर रही है. पहले वाहवाही लूटने वाली एसटीएफ के कार्यवाही करने के तरीके पर अब खुलेआम उंगलियां उठने लगी हैं कि वह या तो दबाव में काम कर रही है या फिर खुद इस का हिस्सा बन गई है.
इस शक की पुष्टि इस बात से भी होती है कि व्यापमं घोटाला के एक और प्रमुख आरोपी कांग्रेसी नेता संजीव सक्सेना का नाम एक आरोपपत्र से गायब हो गया. इस घोटाले को ले कर कांग्रेस लगातार धरनेप्रदर्शन कर रही है. उसे छात्रों से लगाव कम है, लोकसभा चुनाव में इसे भुनाने की मंशा ज्यादा है. ऐसे में शिवराज सिंह की ढिलाई पर भी शक होना स्वाभाविक है जो खुद अपनी सरकारी एजेंसी व्यापमं से कह रहे हैं कि अब गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए यानी जो गड़बडि़यां हो चुकीं उन पर केवल बयानबाजी और मुंह चुराने के सिवा उन के पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है.
घोटालों में राजनेता, दलाल, अफसर, पुलिस वाले, कालेज चलाने वाले, कोचिंग करने वाले और दीगर कारोबार करने वाले भी शामिल हैं जो बीते 10 सालों से गिरोहबद्ध तरीके से फर्जीवाड़े को अंजाम देते व युवाओं के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हुए अरबोंखरबों रुपए उगाह रहे थे.
व्यापमं घोटाले में चार्जशीट रिकौर्ड
40 हजार पृष्ठों की दाखिल हुई है. इस से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि घोटाला कितने बड़े पैमाने पर हुआ होगा. इस मामले में ये पंक्तियां लिखे जाने तक लगभग 300 लोगों को आरोपी बनाया जा चुका था और अंदाजा है कि इस से कम से कम चारगुना और ज्यादा लोग धरे जाएंगे. यह दीगर बात है कि इन में से अब अधिकांश छात्र और उन के वे अभिभावक होंगे जिन्होंने प्री मैडिकल टैस्ट यानी पीएमटी में उत्तीर्ण होने के लिए अपनी हैसियत और सौदेबाजी के मुताबिक घूस दी थी.
घोटाले का खुलासा
व्यापमं कई प्रतियोगी व प्रवेश परीक्षाएं भी आयोजित करता है जिन से सीधेसीधे नौकरी या गारंटेड नौकरी वाली डिगरी मिलती है, जैसे एमबीबीएस की, जो इस घोटाले की बड़ी वजह बनी.
इस फर्जीवाड़े के खुलासे की शुरुआत जुलाई, 2013 से हुई जब इंदौर का एक डाक्टर जगदीश सागर एक छात्र को फर्जी तरीके से प्री मैडिकल टैस्ट यानी पीएमटी पास कराने के आरोप में धरा गया था. फिर बाद में जो पर्तें उधड़नी शुरू हुईं तो उन के अभी तक बंद होने का सिलसिला थम नहीं रहा.
एक के बाद एक 15 जनवरी, 2014 तक कोई 350 छात्र ऐसे पकड़े गए जिन्होंने अयोग्य होते हुए पैसों के दम पर पीएमटी पास कर एमबीबीएस में दाखिला ले लिया था. ऐसे छात्रों की तादाद हजारों में है जो धीरेधीरे मामले की जांच कर रही एसटीएफ यानी स्पैशल टास्क फोर्स की पकड़ में आ रहे हैं.
नाकाबिल छात्रों को पास कराने के लिए यह गिरोह इम्तिहान में उन की जगह दूसरे छात्रों को बैठा लेता था, भाड़े के काबिल छात्रों, जिन्हें स्कोरर कहा जाता है, को उन के आसपास रोल नंबर आवंटित कराता था और इस पर भी बात न बने तो उन की कोरी रखी कौपियों में परीक्षा होने के बाद वैकल्पिक उत्तरों वाले इस इम्तिहान में सही उत्तर वाले गोले पर निशान लगवाता था.
यह सब बेहद योजनाबद्ध तरीके से होता था. पीएमटी के दलाल ऐसे अभिभावकों से या अभिभावक ही दलालों से संपर्क कर सौदा तय करते थे जो
5 लाख से ले कर 20 लाख रुपए तक में तय होता था.
तरीका चल निकला तो व्यापमं के लालची और भ्रष्ट कर्मचारी व अफसरों ने इसे धंधा ही बना लिया और देखते ही देखते मैडिकल कालेज मुन्ना भाइयों से भरने लगे. 2003 से इस फर्जीवाड़े ने पांव पसारे तो 2013 तक पीएमटी में प्रवेश के माने पैसे भर रह गए. मध्य प्रदेश के इस शिक्षा माफिया का सरदार कौन था या कौन है, यह तय कर पाना मुश्किल है पर इस के पात्र अपनी भूमिका को बखूबी अंजाम दे रहे थे.
जाल में मगरमच्छ
व्यापमं घोटाले में शुरू में मछलियां पकड़ी गईं यानी वे दलाल जो ग्राहक ढूंढ़ कर लाते थे और व्यापमं के वे मुलाजिम जो हेरफेर करते थे लेकिन अंदेशा था कि इतने बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़े को बगैर किसी मगरमच्छ यानी राजनीतिक संरक्षण के अंजाम नहीं दिया जा सकता.
यह अंदाजा सच के बेहद आसपास है. बीती 23 दिसंबर को कार्यवाही के दौरान तकनीकी और उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा अचानक एसटीएफ के एडीजी सुधीर शाही के सामने पेश हुए. उन के यों पेश होने के माने अलग थे जो हालिया विधानसभा चुनाव विदिशा की सिरोंज सीट से हार चुके थे. यह हार अप्रत्याशित थी क्योंकि उन्हें अगला सीएम तक कहा जाने लगा था. संस्कृति और जनसंपर्क जैसे अहम व मलाईदार विभाग भी लक्ष्मीकांत शर्मा के पास थे.
दरअसल, एसटीएफ ने अपनी पूछताछ की बिना पर लक्ष्मीकांत शर्मा के खिलाफ 7 और 9 दिसंबर, 2013 को 2 एफआईआर दर्ज की थीं. जाहिर है वे वकील की सलाह पर गिरफ्तारी से बचने के लिए खुद पेश हुए थे. पूछताछ में शर्मा बेचैन भी दिखे और नर्वस भी. वे लगातार खुद के बेगुनाह होने की बात दोहराते रहे. उन की हार से करारा झटका मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी लगा था. सिरोंज की जनता को एहसास था कि उन का विधायक मंत्री कुछ नहीं, बहुतकुछ गलत कर रहा है.
बहरहाल, जिस हैरतअंगेज तरीके से लक्ष्मीकांत शर्मा पेश हुए थे उस से ज्यादा हैरतअंगेज तरीके से एसटीएफ ने उन्हें छोड़ भी दिया. तय है यह आरएसएस के दबाव पर ही मुमकिन था जिस की शरण में वे एफआईआर दर्ज होते ही हाजिर हो गए थे. इसी दौरान उमा भारती का नाम भी इस घोटाले में आया तो सियासी और प्रशासनिक गलियारों में सन्नाटा खिंच गया. उमा बिफरीं तो खुद एडीजी नंदन दुबे उन के घर गए और खेद व्यक्त करते कहा कि उन का नाम यों ही आ गया था.
अब तक शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व पर प्रदेश की जनता मुहर लगा चुकी थी, इसलिए यह माना जा रहा था कि लाखों छात्रों की जिंदगी से खिलवाड़ करने वाले इस घोटाले पर भी लीपापोती की जानी तय है.
ऐसा होता भी. पर इस बीच आम आदमी पार्टी ने जोरदार तरीके से पांव प्रदेश में  जमाए और व्यापमं घोटाले को ले कर असरदार धरनेप्रदर्शन किए, नतीजतन, शिवराज सिंह चौहान को अरविंद केजरीवाल की शैली मजबूरी में अपनानी पड़ी क्योंकि लोकसभा चुनाव सिर पर हैं. आप के विरोध ने दबाव की शक्ल ली तो और मजबूर हो गए मुख्यमंत्री को आखिरकार 15 जनवरी को कहना ही पड़ा कि व्यापमं घोटाला एक कलंक है, किसी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा. पर घोटाले की सीबीआई जांच पर वे चुप्पी साध गए.
क्या ईमानदारी से होगी जांच
बात आईगई हो गई लेकिन शिवराज सिंह की इस स्वीकारोक्ति से संदेश यह गया कि उन्होंने इस घोटाले की नैतिक जिम्मेदारी अपने सिर ले कर कार्यवाही करने की ठान ली है जिस से लोगों का गुस्सा शांत हो. ईमानदारी से जांच चली तो लक्ष्मीकांत शर्मा की गिरफ्तारी तय है क्योंकि 2 अहम आरोपियों ने अपनी डायरियों में उन का उल्लेख किया है.
इस बीच यह उजागर हो चुका था कि एक पीएमटी में ही धांधली नहीं, बल्कि कोई दर्जनभर परीक्षाओं में घूस ले कर अपात्रों को सरकारी नौकरियां दी गई हैं.
इधर, धड़ाधड़ गलत तरीके से दाखिल हुए व पढ़़ रहे एमबीबीएस छात्रों के न केवल प्रवेश रद्द होने लगे बल्कि उन्हें आरोपी मान कर गिरफ्तार किया जाना शुरू किया गया तो सूबे में हड़कंप मच गया क्योंकि ऐसा पहली बार हो रहा था कि बड़े पैमाने पर घूसदाताओं के खिलाफ कार्यवाही की जा रही थी.
इस से साबित यह भी हो गया कि व्यापमं, शिक्षा माफिया के लिए बगैर चारा खाए दूध देने वाली गाय हो गया है जहां सिवा फर्जीवाड़े के कुछ नहीं होता. खुद शर्मिंदगी के साथ शिवराज सिंह चौहान ने यह भी स्वीकारा था कि कोई 1 हजार छात्रों को गलत तरीके से एमबीबीएस में प्रवेश दिया गया था. लेकिन हकीकत में इन छात्रों की तादाद कहीं ज्यादा है.

प्रगति लेकिन कैसी

देश की प्रगति के बड़ेबड़े दावे किए जाते हैं पर असल में देश के आजाद होते ही यानी 1947 से देश की बागडोर उन लोगों ने संभाल ली जिन्हें यह पाठ सदियों से पढ़ाया गया कि गरीबी और निचलापन पिछले जन्मों का फल है और जो सड़ रहे हैं यदि वे इस जन्म में अपने पिछले पापों का फल ढंग से भोगते हैं तो ही अगले जन्मों में सही घर में जन्म ले पाएंगे.

आंकड़ों के अनुसार, देश में लगभग 13 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं पर इन में से 8 करोड़ से ज्यादा छोटे किसान हैं जिन के पास न सिंचाई की सुविधा है न अपना कुआं है, आज के जमाने के ट्यूबवैलों की तो बात ही नहीं. छोटे किसानों में से केवल 3 प्रतिशत के पास ट्यूबवैल हैं और 2-5 प्रतिशत के पास खुले कुएं.

यह कैसी प्रगति है जिस में देश की एकतिहाई जनता आज भी 100 साल पुराने माहौल में जीने को मजबूर है. जहां शहरों में मैट्रो ट्रेन दौड़ रही हैं, पांचसितारा होटल उग रहे हैं, भव्य पार्क बनाए जा रहे हैं, ऊंचेऊंचे सरकारी व गैरसरकारी दफ्तर बन रहे हैं वहां किसान और खेतिहर मजदूर उसी फावड़े और खुरपी से काम कर रहे हैं जिस से 4-5 पीढि़यों से करते आए हैं.

दुख की बात यह है कि देश के कर्णधार आज भी सोच रहे हैं तो सड़कों की, स्कूलों की, मौलों की, हवाई अड्डों की. वे गांव, किसानों, गरीबों की नहीं सोच रहे. जिस विकास का हल्ला मचाया जा रहा है वह शहरी लोगों के लिए है. गुजरात के संदर्भ में कभी साबरमती के किनारे की बात होती है, कभी सोलर पैनलों की तो कभी गांधीनगर व अहमदाबाद के बीच बनी सड़क की.

गुजरात का किसान कितना खुशहाल है, इस पर बात कम जबकि वहां का व्यापारी कितना संतुष्ट है,  इस पर ज्यादा बात की जा रही है. शहरों में चौबीसों घंटे बिजली दिए जाने की बात होती है ताकि एअरकंडीशनर चल सकें पर खेतों तक तार ले जाने का खर्च उठाने को कोई तैयार नहीं है.

यह एक भूल होगी अगर हम सोचें कि देश की 90 प्रतिशत जनता को भूखा रख कर 10 प्रतिशत लोग संपन्न व सुरक्षित रह सकते हैं. इतिहास गवाह है कि हम 2500 साल से लगातार मुट्ठीभर आक्रमणकारियों के हाथों हार रहे हैं क्योंकि हमारी हिंदूवादी सामाजिक पद्धति केवल कुछ का पेट भरती रही है और बाकियों को गुलामों से बदतर जिंदगी जीने पर मजबूर करती रही है.

किसानों को इस देश में हमेशा निकृष्ट दृष्टि से देखा गया है. सिंचाई की सही व्यवस्था न हो पाने का यह एक कारण है. अफसोस यह है कि केवल कुछ अर्थशास्त्रियों के अलावा किसी अन्य को इस बारे में चिंता भी नहीं होती.

यूके्रन, रूस, शेष दुनिया

रूस के दक्षिणपश्चिम का देश यूक्रेन दुनिया का सब से खतरनाक इलाका बन सकता है. यह कभी रूस का हिस्सा था. वर्ष 1991 में यह सोवियत यूनियन से अलग हुआ पर जितने समय रूस का हिस्सा रहा उस दौरान भारी संख्या में रूसी बोलने वाले बस गए. अलग होने के बाद रूस ने इस पर लगातार गिद्ध सी नजरें लगाए रखी थीं और अब वहां के रूसपंथी राष्ट्रपति विक्टर यानूकोविच को जनता द्वारा भगाए जाने के बाद रूस अपनी सेनाएं वहां भेजने की तैयारी में है.

यूक्रेन की राजधानी कीव की इच्छा पश्चिमी यूरोप के लोकतांत्रिक देशों के साथ मिलने की है पर रूसीभाषी तानाशाही, बेईमानी, रिश्वतखोरी, माफियाई राज को ही पसंद कर रहे हैं जो रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की पहचान है.

यूक्रेन बहुत सुंदर, कलात्मक भवनों वाला देश है और उस की अपनी अलग पहचान बन गई है. पर रूसी कला का साया उस का पीछा नहीं छोड़ रहा. व्लादिमीर पुतिन उसे अपने कब्जे में ले कर अपने देशवासियों को संदेश देना चाहते हैं कि वे कभी क्रेमलिन के चंगुल से निकलने के सपने न देखें क्योंकि उस के टैंक अभी मौजूद हैं और वे किसी भी विद्रोह को कुचल सकते हैं, चाहे उस की सीमा में हो या उस की सीमा से बाहर हो.

अमेरिका और पश्चिमी यूरोप के देश सांस रोक कर इस घटना को देख रहे हैं क्योंकि वे रूसी टैंकों का आतंक एक बार फिर नहीं देखना चाहते जिस ने कभी पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया पर हमला कर दिया था. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को किसी भी हद तक जाने को तैयार होना पड़ेगा क्योंकि एक बार छूट देने का मतलब होगा पुतिन को स्टालिन और हिटलर का सा रास्ता दिखा देना.

अफसोस यह है कि कुछ साल पहले लगा था कि दुनिया अभूतपूर्व शांति के युग में जा पहुंची है पर इसलामी आतंक, कोरियाई धमकियों और रूसी धौंस विश्व शांति को भंग करने पर उतारू है. आज अगर यूरोप में कुछ होगा तो भारत पर भी भारी फर्क पड़ेगा क्योंकि अब सभी अर्थव्यवस्थाएं एकसूत्र में बंध गई हैं. तेल के दाम बढ़ेंगे, टैक्स लगेंगे, बरबादी होगी व आर्थिक संकट और ज्यादा गहरा हो जाएगा. उम्मीद करें कि पुतिन को समझ आए और वे यूके्रन की जगह अपने देश को सुधारें.

 

भारत के हीरे

जब भी किसी भारतीय मूल के अमेरिकी को अमेरिका में बड़ा स्थान मिलता है, भारतीयों की छाती चौड़ी हो जाती है. हाल के सालों में कई प्रमुख स्थानों पर भारतीय नाम दिखाई देने लगे हैं, सरकार में भी और कंपनियों में भी. अमेरिकी चाहे इसे महज घटना मानते हों, हमारे लिए यह उत्सव सा हो जाता है.

हम भूल जाते हैं कि ये वे लोग हैं जो भारत को छोड़ चुके हैं. इन की प्रतिभा को देख कर इन्हें भारत से आमंत्रित नहीं किया गया. ये भारत में फटेहाल, गरीबी, अवसरों की कमी के कारण अमेरिका गए और बेगानों के बीच हर तरह की गालियां सुन कर अपनी मेहनत से जगह बनाई है. वे भारत को याद करते हैं क्योंकि उन के रिश्तेदार यहां हैं. पर भारत के लिए उन का दिल धड़कता है, यह कहना गलत होगा. अमेरिका में वे अमेरिकियों की तरह रहते हैं और उन्हीं के लिए काम करते हैं.

इसलिए पैप्सीको की मुख्य इंदिरा नुई या माइक्रोसौफ्ट के संभावित सीईओ सत्य नडेला या सुंदर पिचई पर गाल फुलाना बेकार है. अमेरिका के मुख्य सरकारी वकील प्रीत भरारा नितांत अमेरिकी हैं और वैसे ही बौबी जिंदल भी, जो हो सकता है 2016 के राष्ट्रपति पद के चुनावों में कूदें.

ये लोग भारत से लगाव नाम का सा रखते हैं, वह भी इसलिए कि उन की त्वचा का रंग भारतीय है या बहुत से अभी भी हिंदू हैं. अमेरिका को तो हर तरह की त्वचा के रंगों की आदत है. अमेरिका में पहले मध्य यूरोप के लोग गए थे, बाद में दक्षिणी यूरोप के, फिर पूर्वी यूरोप के लोग गए. हर नई खेप ने पुराने को प्रतिस्पर्धा दी और अपनी जगह बनाई. गुलामी के लिए काले आए तो कुली का काम करने के लिए चीनी व जापानी भी. बाद में सब अमेरिकी बन गए और वहां की संस्कृति में रचबस गए.

इसलिए भारतीयों ने कोई खास तीर मारा हो, ऐसी बात नहीं, क्योंकि अमेरिका में तो हरेक के वंशज किसी और महाद्वीप के हैं.

अगर भारत ने अपने श्रेष्ठ लोगों को अमेरिकियों को कुछ सिखाने के लिए अमेरिका भेजा होता तो बात दूसरी थी. तब हम गर्व कर सकते थे. अब तो हमें अपने को खंगालना होगा कि हम क्यों हीरों को कंकड़ समझ कर अमेरिका में फेंकते रहे हैं. भारतीय मूल के  प्रसिद्ध व्यक्ति हमारे लिए सवाल खड़े करते हैं कि इस मिट्टी में क्या जहर भरा है कि यह किसी फल को पकने नहीं देती.

 

पत्र

सरित प्रवाह, फरवरी (द्वितीय) 2014
संपादकीय ‘धर्म का व्यापार’ में आप ने तर्कयुक्त और तीखी आलोचना की है. इस में विश्व में हो रहे धर्म के व्यापार को खंगाला गया है. इस में शक नहीं कि आज विज्ञान की उपलब्धियों का इस व्यापार में जम कर उपयोग हो रहा है, जैसे अब आप बिना मंदिर गए आरती में भाग ले सकते हैं या घर बैठे प्रसाद भी पा सकते हैं.
एक सज्जन ने इस व्यापार से पैसा कमाने का नया तरीका खोजा. उन्होंने कुछ बेरोजगारों को दिनभर भारत भर में फोन करते रहने को कहा. फोन नंबर और सिम कार्ड वे खुद देते थे. ये फोन लोगों को घर बैठे विश्व प्रसिद्ध मंदिर का प्रसाद पार्सल द्वारा लेने की सलाह देते. यही नहीं, वे सज्जन खुद ही शंकराचार्य बन फोन द्वारा हर शाम इच्छुक लोगों के कष्टों का निवारण भी बताते.
अचानक एक दिन वही हुआ जो होना था. वह प्रसाद भेजने वाला औफिस बंद मिला. इसलिए सच है कि धर्म का व्यापार आज का चमकता व्यापार है.
माताचरण पासी, जौनपुर (उ.प्र.)
*
‘धर्म का व्यापार’ आप की एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी है. आज दुनिया में जो सब से ज्यादा व्यापार फैल रहा है वह धर्म का व्यापार है. धर्म ऐसा कारोबार है जो दूसरों का गला घोंटने की सलाह दे कर पनप रहा है. इन दूसरों में दूसरे धर्मों के लोग तो होते ही हैं, अपने धर्म के वे लोग भी होते हैं जो धर्म की अनैतिकता के राज खोलते हैं. धर्मों को दूसरे धर्म वालों से ज्यादा डर अब अपने ही धर्म वालों से लगता है. धर्म के भक्तों से पैसा दान में बहुतायत में मिलता है जिस की वजह से धर्मों को विकसित किया जा रहा है.
धर्म का व्यापार इंटरनैट, टैलीविजन, रेडियो, मोबाइलों से जम कर किया जा रहा है और हर माध्यम के जरिए बारबार कहा जाता है कि दान दो और दान दो. धर्म का नाम ले कर कितने ही देशों में लोकतंत्र के सहारे सत्ता में आने की कोशिशें की जा रही हैं. धर्म के बहाने ऐसे लोगों का उद्देश्य पैसा कमाना है, किसी तरह के भद्र व्यवहार का विस्तार करना नहीं.
एक तरह से अब ज्यादातर धर्म कहने लगे हैं, कमाओ और कमाने दो. पर इस चक्कर में जब विवाद खड़े हों तो बोस्निया, सीरिया, मुजफ्फरनगर, गुजरात जैसे नरसंहार होते हैं. धर्म का धंधा करने वाले धंधेबाज हमेशा अंधभक्तों को तरहतरह का पाठ पढ़ा कर उन्हें मूंड़ते रहते हैं और वे खुशी से अपने को मुड़वाते रहते हैं क्योंकि उन में अधिक विस्तार से सोचने की शक्ति नहीं होती.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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पीएम पद
फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित अग्रलेख ‘प्रधानमंत्री पद की दौड़’ को सरित प्रवाह के ‘प्रधानमंत्री का पद’ से जोड़ दें तो जहां तक पीएम पद की दौड़ में केजरीवाल को शामिल करने का सवाल है, तो वह एकदम स्पष्ट है कि ‘आम चुनाव’ दिल्ली जैसे छोटे से राज्य समान नहीं हैं, जिस में मोदी और राहुल समान केजरीवाल को भी जबरदस्ती घुसेड़ दिया जाए. कारण ‘आप’ का राजनीतिक प्रवेश चाहे कितना भी आश्चर्यजनक क्यों न रहा हो पर राष्ट्रीय स्तर पर वास्तविक प्रवेश हेतु ‘आप’ को अभी इंतजार करना होगा.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)
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युवकों से आग्रह
फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘प्रधानमंत्री पद की दौड़’ लगता है कि इस समय देश में योग्य, ईमानदार, निष्पक्ष, अहंकाररहित, अनुभवी, परिपक्व राजनेताओं की कमी है. क्या सवा अरब से ज्यादा की आबादी वाले भारत में केवल 3 ही प्रधानमंत्री योग्य व्यक्ति रह गए हैं? वह भी तीनों किसी न किसी कमजोरी से ग्रसित हैं.
यह लेख मुझे रामायणकाल की वह बात सोचने पर विवश करता है कि तब राजा जनक ने अपनी पुत्री जानकी के स्वयंवर के आयोजन के समय देश के राजाओं द्वारा शिवधनुष नहीं तोड़ पाने पर कहा था कि यह पृथ्वी शूरवीरों से विहीन है. इस बात को सुन कर वहां उपस्थित राजा दशरथ के छोटे पुत्र लक्ष्मण ने राजा जनक को वचन दिया कि पृथ्वी शूरवीरों से शून्य नहीं है बल्कि नवयुवकों को अवसर दिए जाने की जरूरत है. तब दशरथ के बड़े पुत्र राम ने धनुष तोड़ दिया था.
आज भी भारत की आम जनता देश के युवकों से अपेक्षा करती है कि ये सवा अरब से ज्यादा की आबादी का भरोसा जीतें. लेकिन यह काम अहंकारी, अपरिपक्व, अनुभवहीन, अवगुणों से हट कर, ईमानदार, निष्पक्ष एवं पूरे देश की आम जनता में भेदभाव नहीं रख कर सब को एकसाथ ले चलने के स्वभाव वाले ही कर सकेंगे. भारत के नवयुवकों से मेरा आग्रह है कि वे देश को बता दें कि देश के प्रधानमंत्री पद के दावेदार 3 नहीं 300 हैं.
जगदीश प्रसाद पालड़ी, जयपुर (राज.)
*
रमन सिंह का बंगला
फरवरी (द्वितीय) में प्रकाशित ‘करोड़ों के बंगले पर टके सा जवाब’ लेख पढ़ा. आज नेता राजनीति में किसलिए और क्यों कदम रखते हैं, लेख के शीर्षक में छिपा हुआ है. उन्हीं (रमन सिंह) को क्यों कहें जबकि कमोबेश हर मुख्यमंत्री का यही हाल है. बहुतों ने तो 81 करोड़ रुपए से ज्यादा रकम मरम्मत और बंगले के रखरखाव पर खर्च कर दी. कौन अपना पैसा है, जनता की खूनपसीने की कमाई है तो आखिर किसी न किसी का खून बढ़ाने के काम में ही आ रही है. न हो आदिवासियों के सिर पर छत, कोई बात नहीं. हमारे सिर के ऊपर तो है, इतना काफी है. छत्तीसगढ़ राज्य की गरीबी दूर करने का इस से बेहतर तरीका और किसी के पास भले ही हो, कम से कम रमन सिंह के पास तो नहीं ही है.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
*
खराब व्यवस्था
फरवरी (द्वितीय) अंक का अग्रलेख ‘प्रधानमंत्री पद की दौड़’ एक विचारोत्तेजक लेख लगा. कहते हैं कि ‘बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है… हाल-ए-गुलिस्तां क्या होगा, जहां हर डाल पे उल्लू बैठा है’, ठीक यही हाल हमारे देश की राजनीति का हो चुका है. यहां तो पत्तेपत्ते पर उल्लू ही उल्लू हैं और जड़ों में भी भ्रष्टाचार एवं सांप्रदायिकता की दीमक लग चुकी है. एक परंपरा सी बन चुकी है, या यों कहें कि लोगों को भ्रष्टाचार एवं सांप्रदायिकता की लत लग चुकी है. तभी तो आज जब एक साफसुथरी छवि का आम आदमी अपना सिर उठा रहा है तो सत्ताधारियों को यह बात हजम नहीं हो रही है. जिस तरह एक शराबी को सारे गुण शराब में ही नजर आते हैं और पानी उन्हें गुणहीन लगता है उसी प्रकार कुछ लोग भ्रष्टाचार नामक इस नशे की लत को छोड़ना ही नहीं चाहते हैं. कितने ही लोगों की रोजीरोटी चलती है इस भ्रष्टाचार के बल पर. वे लोग तो सड़क पर आ जाएंगे.
पुलिस की बेईमानी से देश का हर तबका त्रस्त है. खासकर निम्न एवं मध्यवर्ग के लोगों के लिए तो पुलिस साक्षात कंस का अवतार है. पुलिसिया खौफ का ही नतीजा है कि आज सड़क पर रेप, मर्डर होते रहते हैं और कोई भी गवाही दे कर पुलिस के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता है. आम आदमी अत्याचार सहन करता है. वह व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर पाता. आज जब कोई नेता ऐसी हिम्मत कर रहा है तो मीडिया भी उन्हें अराजकतावादी कहने से बाज नहीं आ रही है. यदि खराब व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना जनता को उस की शक्ति का एहसास दिलाना अराजकतावाद है तो हम गांधीजी और नेहरूजी का गुणगान क्यों करते हैं? क्यों हम उन के पदचिह्नों पर चलने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं?
मेरा मानना है कि आज जब एक नए ‘वाद’ का आगाज कोई कर रहा है तो जनमानस को पूरापूरा उस का साथ देना चाहिए ताकि यह ‘केजरीवालवाद’ की धारा का प्रवाह हर क्षेत्र में निर्बाध गति से बहता रहे और हर आदमी स्वयं को आम आदमी कह कर गर्व महसूस करे.
आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)
*
रेडियो सीलोन
फरवरी (द्वितीय) अंक में ‘रेडियो सीलोन के वे सुनहरे दिन’ शीर्षक से प्रकाशित लेख ने पुरानी स्मृतियों को ताजा कर दिया. उस समय ‘रेडियो सीलोन’ का जादू श्रोताओं के सिर पर चढ़ कर बोलता था. उद्घोषक कार्यक्रमों को दिलचस्पी से तैयार कर के पेश करते थे. विज्ञापनों का बोलबाला नहीं था.
पुरानी फिल्मों के गीतों का वहां अनमोल खजाना था. एक से बढ़ कर एक मधुर गीत सुनाए जाते थे जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिल की गहराई में उतर जाते थे. आज विविधभारती ने कुछ हद तक यह कमी पूरी की है, फिर भी ‘रेडियो सीलोन’ की कमी श्रोताओं को खल रही है.
श्याम चौरे, इंदौर (म.प्र.)
*
उद्घोषकों का जादू
‘रेडियो सीलोन के वे सुनहरे दिन’ लेख बहुत ही मर्मस्पर्शी लगा. वास्तव में मैं स्वयं भी बचपन से रेडियो सीलोन
का श्रोता रहा हूं और जब ‘बिनाका गीतमाला’ बाद में ‘सिबाका गीतमाला’ का हर हफ्ते बुधवार को अमीन सयानी अपने 1 घंटे का कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे तो बड़ा मजा आता था. परंतु अब तो रेडियो सीलोन ट्रांजिस्ट्रर पर कभी लगता ही नहीं.
बेहतर होता यदि इन 3 वरिष्ठ उद्घोषकों–मनोहर महाजन, विजय लक्ष्मी डिसेरम और रिपुसूदन कुमार के पते भी इस अंक में प्रकाशित करते.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
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तेजाबी बयान
‘माफ कीजिए जबान फिसल गई’ शीर्षक से फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख में नेताओं की बदजबानी का अच्छा विश्लेषण किया गया है. अब जबकि लोकसभा चुनाव नजदीक हैं यों लगता है जबान फिसल नहीं रही, बल्कि उस को जानबूझ कर फिसलाया जा रहा है.
नेताओं के जहर उगलते तेजाबी बयानों की जैसे कोई प्रतियोगिता सी चल रही है. पाठ्यपुस्तकों में हम बचपन से अपने राजनेताओं के चरित्र यानी जीवनी, जिन में स्वतंत्रतासेनानी, पूर्व प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति शामिल हैं, पढ़ते आ रहे हैं. मगर मुझे नहीं लगता कि वर्तमान नेताओं में से शायद ही कोई ऐसा होगा जिस के बारे में हम भविष्य में स्कूलीकिताबों में पढ़ पाएंगे या पढ़ना चाहेंगे.
मुकेश जैन पारस, बंगाली मार्केट (न.दि.)
*
सरिता की मुहिम
मैं आप की सम्मानित पत्रिका सरिता से वर्षों से जुड़ा हूं. पूर्व में भी पत्र द्वारा आप की पत्रिका के संबंध में प्रशंसा कर चुका हूं, जिस की आप की पत्रिका अधिकारी है.
आप के प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘सरिता मुक्ता रिप्रिंट्स’ के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता हूं. कुछ वर्ष पूर्व मुझे इस की एक प्रति बाजार में किताबों की एक दुकान में देखने को मिली. मैं ने तुरंत खरीद ली. इस में छपे लेखों के नाम देख कर पहले तो स्वाभाविक रूप से कुछ अटपटा सा लगा, फिर धीरेधीरे इस के समस्त लेख, जो आप के स्वतंत्र, विचारक, विद्वान लेखकों द्वारा लिखे गए थे, पढ़ डाले. मैं हतप्रभ रह गया. शुरू के पन्नों में ‘सरिता व हिंदू समाज’ पढ़ा. पढ़ने का सिलसिला ज्योंज्यों बढ़ा, उत्सुकता जागने लगी.
लेख बड़े ही गहरे शोध व अध्ययन द्वारा लिखे गए हैं. फिर क्या था, मैं ने इस के समस्त रिप्रिंट (कंप्लीट सैट) मंगवा लिए. तभी से समयसमय पर पढ़ने का सिलसिला जारी है. इतने सारगर्भित, सत्य, तर्कसंगत लेख मैं ने अन्यत्र नहीं देखे.
हिंदू समाज/धर्मशास्त्रों की बातें यदि छोड़ दें, तो अन्य विषय, जैसे भ्रष्टाचार, समाजवाद, नैतिकता, पारिवारिक संबंध, समाज, तकनीक, भारतीय इतिहास इत्यादि पर वर्षों पूर्व लिखे गए लेख, मेरा मानना है कि ये आज भी उतने ही प्रासंगिक व व्यावहारिक हैं. हिंदू समाज/धर्मशास्त्रों पर आप के विद्वान लेखकों ने बहुत ही महीन आकलन किया है, जोकि अति प्रशंसनीय है. जहां तक मेरी समझ है, इस में तनिक भी किसी धर्म विशेष की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई गई है, कानूनी रूप से भी.
अंत में यह कहना चाहूंगा कि ज्यादा से ज्यादा जनमानस ‘सरिता’ की इस मुहिम से जुड़े. ‘सरिता मुक्ता रिप्रिंट्स’ से मेरा जितना ज्ञानवर्धन हुआ है उतना अन्य किसी पत्रिका से नहीं हुआ.
संजय कुमार आर्य, देहरादून (उत्तराखंड)

गुजरात के सच की पोल

आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल ने अपने 3 दिन के दौरे में गुजरात के झूठे विकास के प्रचार की पोलपट्टी खोल कर नरेंद्र मोदी के मुंह पर कस कर प्रहार किया है. नरेंद्र मोदी जो गुजरात विकास का नारा लगा रहे थे, उस की जांच आमतौर पर कोई नहीं कर रहा था पर टीवी कैमरामैनों के साथ चल रहे अरविंद केजरीवाल उन्हीं जगहों पर गए जहां विकास नहीं हुआ और इस तरह उन्होंने गुजरात की दूसरी छवि पेश कर दी.

ऊपर से उन्होंने नरेंद्र मोदी का आत्मविश्वास भी डिगा दिया जब वे यह कह कर उन से मिलने चल पड़े कि वे16 सवाल पूछने जा रहे हैं. अपने मन की करने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री समझ ही नहीं पाए कि ऐसे मौके पर क्या करें और बजाय गुजरात की कटिंग चाय भी पिलाने के, उन्होंने 5 किलोमीटर पहले अरविंद केजरीवाल को पुलिस द्वारा रुकवा कर अपनी कमजोरी जाहिर कर दी.

अरविंद केजरीवल ने गुजरात दौरे के दौरान बिना पूर्व निश्चित कार्यक्रमके  नरेंद्र मोदी से मिलने और उन से 16 सवाल पूछने की इच्छा प्रकट कर चाहे नाटक ही किया पर यह काम का कदम था जिस ने नरेंद्र मोदी के व्यवहार पर से परदा उठा दिया. बात यह नहीं कि अरविंद केजरीवाल कितने साफ और सक्षम और नरेंद्र मोदी कितने कुशल प्रशासक हैं, बात सिर्फ इतनी है कि नरेंद्र मोदी की व्यवहारकुशलता कैसी है.

एक पूर्व मुख्यमंत्री अगर अपनी ओर से मिलने की पेशकश करे, वह भी उस जने से जिस के दरवाजे खुले होने चाहिए और जो मौजूद भी हो तो उस मुख्यमंत्री को मिलने से तो इनकार नहीं करना चाहिए. वह मिल कर क्या बात करे क्या नहीं, यह दूसरी बात. नरेंद्र मोदी अगर राज्य के कामकाज में इतने व्यस्त होते तो वे सारे देश में कैसे घूमते फिर रहे हैं, कैसे पार्टी की दिल्ली के अशोक रोड की मीटिंगों में भाग ले रहे हैं?

अरविंद केजरीवाल छापामार राजनीति कर रहे हैं और विरोधियों के मर्मस्थल पर वार कर रहे हैं. लोग उन्हें विदेशी मामलों, रक्षा नीति, कश्मीर के प्रश्न, राज्यों के पुनर्गठन के मामलों में उलझाना चाहते हैं पर वे इन से बच कर अदानी, अंबानी व रौबर्ट वाड्रा के मामले दोहरा रहे हैं जो भारतीय जनता पार्टी और कांगे्रस के कमजोर पहलू हैं.

यह नीति कितने वोट दिला पाएगी, इस का अंदाजा तो आज नहीं लगाया जा सकता पर उन्होंने नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी दोनों को सुर्खियों से ढकेल तो दिया ही है. अब जो दिख रहा है, वह जीत रहा है, ऐसा होता है या नहीं, मई में पता चलेगा.

नरेंद्र मोदी के 10 सालों में बनाए गए कानूनों की सूची देखें तो साफ हो जाता है कि सिवा पंडितों के लिए विश्वविद्यालय जैसे शरणालय खोलने के अलावा उन्होंने कुछ खास नहीं किया. आजकल साल भर से वे गुजरात सरकार के पैसों से भारतीय जनता पार्टी का प्रचार कर रहे हैं और गुजरात पुलिस

उन की सुरक्षा में लगी है. गुजरात के मुख्यमंत्री का काम दूसरे राज्यों में प्रचार करना तो है नहीं. अरविंद केजरीवाल ने तो जब वे दिल्ली के मुख्यमंत्री थे तब तामझाम नहीं लिया पर उन के लिए गुजरात में गुजरात पुलिस ने ‘पुलिस साया’ जरूर पहुंचा दिया. अरविंद केजरीवाल ने गुजरात यात्रा के बाद अपना जो पक्ष बताया वह चाहे  एकतरफा हो, गलत नहीं है.

दरअसल, हर उद्योग और उन्नति के पीछे कहीं कचरा छूट ही जाता है. कुशल प्रशासक वह होता है जो उद्योग और उन्नति के ढोल उतने पीटे कि लोगों को कचरे की याद न आए. पर जब आप रोज विकास की बात करेंगे और कहीं भी चूक हो गई तो उसी की बात की जाएगी, जैसे आम आदमी अरविंद केजरीवाल की मर्सिडीज गाड़ी में यात्रा करना, प्राइवेट जैट में दिल्ली आना. कथनी और करनी में बड़ा फर्क है पर अब तक गुजरात के नरेंद्र मोदी की इस करनी के फर्क पर उंगली उठाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई थी. अरविंद केजरीवाल ने यह हिम्मत कर मोदी के फूलते गुब्बारे की हवा कम कर दी है.

 

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