सरित प्रवाह, फरवरी (द्वितीय) 2014
संपादकीय ‘धर्म का व्यापार’ में आप ने तर्कयुक्त और तीखी आलोचना की है. इस में विश्व में हो रहे धर्म के व्यापार को खंगाला गया है. इस में शक नहीं कि आज विज्ञान की उपलब्धियों का इस व्यापार में जम कर उपयोग हो रहा है, जैसे अब आप बिना मंदिर गए आरती में भाग ले सकते हैं या घर बैठे प्रसाद भी पा सकते हैं.
एक सज्जन ने इस व्यापार से पैसा कमाने का नया तरीका खोजा. उन्होंने कुछ बेरोजगारों को दिनभर भारत भर में फोन करते रहने को कहा. फोन नंबर और सिम कार्ड वे खुद देते थे. ये फोन लोगों को घर बैठे विश्व प्रसिद्ध मंदिर का प्रसाद पार्सल द्वारा लेने की सलाह देते. यही नहीं, वे सज्जन खुद ही शंकराचार्य बन फोन द्वारा हर शाम इच्छुक लोगों के कष्टों का निवारण भी बताते.
अचानक एक दिन वही हुआ जो होना था. वह प्रसाद भेजने वाला औफिस बंद मिला. इसलिए सच है कि धर्म का व्यापार आज का चमकता व्यापार है.
माताचरण पासी, जौनपुर (उ.प्र.)
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‘धर्म का व्यापार’ आप की एक महत्त्वपूर्ण टिप्पणी है. आज दुनिया में जो सब से ज्यादा व्यापार फैल रहा है वह धर्म का व्यापार है. धर्म ऐसा कारोबार है जो दूसरों का गला घोंटने की सलाह दे कर पनप रहा है. इन दूसरों में दूसरे धर्मों के लोग तो होते ही हैं, अपने धर्म के वे लोग भी होते हैं जो धर्म की अनैतिकता के राज खोलते हैं. धर्मों को दूसरे धर्म वालों से ज्यादा डर अब अपने ही धर्म वालों से लगता है. धर्म के भक्तों से पैसा दान में बहुतायत में मिलता है जिस की वजह से धर्मों को विकसित किया जा रहा है.
धर्म का व्यापार इंटरनैट, टैलीविजन, रेडियो, मोबाइलों से जम कर किया जा रहा है और हर माध्यम के जरिए बारबार कहा जाता है कि दान दो और दान दो. धर्म का नाम ले कर कितने ही देशों में लोकतंत्र के सहारे सत्ता में आने की कोशिशें की जा रही हैं. धर्म के बहाने ऐसे लोगों का उद्देश्य पैसा कमाना है, किसी तरह के भद्र व्यवहार का विस्तार करना नहीं.
एक तरह से अब ज्यादातर धर्म कहने लगे हैं, कमाओ और कमाने दो. पर इस चक्कर में जब विवाद खड़े हों तो बोस्निया, सीरिया, मुजफ्फरनगर, गुजरात जैसे नरसंहार होते हैं. धर्म का धंधा करने वाले धंधेबाज हमेशा अंधभक्तों को तरहतरह का पाठ पढ़ा कर उन्हें मूंड़ते रहते हैं और वे खुशी से अपने को मुड़वाते रहते हैं क्योंकि उन में अधिक विस्तार से सोचने की शक्ति नहीं होती.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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पीएम पद
फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित अग्रलेख ‘प्रधानमंत्री पद की दौड़’ को सरित प्रवाह के ‘प्रधानमंत्री का पद’ से जोड़ दें तो जहां तक पीएम पद की दौड़ में केजरीवाल को शामिल करने का सवाल है, तो वह एकदम स्पष्ट है कि ‘आम चुनाव’ दिल्ली जैसे छोटे से राज्य समान नहीं हैं, जिस में मोदी और राहुल समान केजरीवाल को भी जबरदस्ती घुसेड़ दिया जाए. कारण ‘आप’ का राजनीतिक प्रवेश चाहे कितना भी आश्चर्यजनक क्यों न रहा हो पर राष्ट्रीय स्तर पर वास्तविक प्रवेश हेतु ‘आप’ को अभी इंतजार करना होगा.
ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (न.दि.)
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युवकों से आग्रह
फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘प्रधानमंत्री पद की दौड़’ लगता है कि इस समय देश में योग्य, ईमानदार, निष्पक्ष, अहंकाररहित, अनुभवी, परिपक्व राजनेताओं की कमी है. क्या सवा अरब से ज्यादा की आबादी वाले भारत में केवल 3 ही प्रधानमंत्री योग्य व्यक्ति रह गए हैं? वह भी तीनों किसी न किसी कमजोरी से ग्रसित हैं.
यह लेख मुझे रामायणकाल की वह बात सोचने पर विवश करता है कि तब राजा जनक ने अपनी पुत्री जानकी के स्वयंवर के आयोजन के समय देश के राजाओं द्वारा शिवधनुष नहीं तोड़ पाने पर कहा था कि यह पृथ्वी शूरवीरों से विहीन है. इस बात को सुन कर वहां उपस्थित राजा दशरथ के छोटे पुत्र लक्ष्मण ने राजा जनक को वचन दिया कि पृथ्वी शूरवीरों से शून्य नहीं है बल्कि नवयुवकों को अवसर दिए जाने की जरूरत है. तब दशरथ के बड़े पुत्र राम ने धनुष तोड़ दिया था.
आज भी भारत की आम जनता देश के युवकों से अपेक्षा करती है कि ये सवा अरब से ज्यादा की आबादी का भरोसा जीतें. लेकिन यह काम अहंकारी, अपरिपक्व, अनुभवहीन, अवगुणों से हट कर, ईमानदार, निष्पक्ष एवं पूरे देश की आम जनता में भेदभाव नहीं रख कर सब को एकसाथ ले चलने के स्वभाव वाले ही कर सकेंगे. भारत के नवयुवकों से मेरा आग्रह है कि वे देश को बता दें कि देश के प्रधानमंत्री पद के दावेदार 3 नहीं 300 हैं.
जगदीश प्रसाद पालड़ी, जयपुर (राज.)
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रमन सिंह का बंगला
फरवरी (द्वितीय) में प्रकाशित ‘करोड़ों के बंगले पर टके सा जवाब’ लेख पढ़ा. आज नेता राजनीति में किसलिए और क्यों कदम रखते हैं, लेख के शीर्षक में छिपा हुआ है. उन्हीं (रमन सिंह) को क्यों कहें जबकि कमोबेश हर मुख्यमंत्री का यही हाल है. बहुतों ने तो 81 करोड़ रुपए से ज्यादा रकम मरम्मत और बंगले के रखरखाव पर खर्च कर दी. कौन अपना पैसा है, जनता की खूनपसीने की कमाई है तो आखिर किसी न किसी का खून बढ़ाने के काम में ही आ रही है. न हो आदिवासियों के सिर पर छत, कोई बात नहीं. हमारे सिर के ऊपर तो है, इतना काफी है. छत्तीसगढ़ राज्य की गरीबी दूर करने का इस से बेहतर तरीका और किसी के पास भले ही हो, कम से कम रमन सिंह के पास तो नहीं ही है.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
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खराब व्यवस्था
फरवरी (द्वितीय) अंक का अग्रलेख ‘प्रधानमंत्री पद की दौड़’ एक विचारोत्तेजक लेख लगा. कहते हैं कि ‘बरबाद गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी है... हाल-ए-गुलिस्तां क्या होगा, जहां हर डाल पे उल्लू बैठा है’, ठीक यही हाल हमारे देश की राजनीति का हो चुका है. यहां तो पत्तेपत्ते पर उल्लू ही उल्लू हैं और जड़ों में भी भ्रष्टाचार एवं सांप्रदायिकता की दीमक लग चुकी है. एक परंपरा सी बन चुकी है, या यों कहें कि लोगों को भ्रष्टाचार एवं सांप्रदायिकता की लत लग चुकी है. तभी तो आज जब एक साफसुथरी छवि का आम आदमी अपना सिर उठा रहा है तो सत्ताधारियों को यह बात हजम नहीं हो रही है. जिस तरह एक शराबी को सारे गुण शराब में ही नजर आते हैं और पानी उन्हें गुणहीन लगता है उसी प्रकार कुछ लोग भ्रष्टाचार नामक इस नशे की लत को छोड़ना ही नहीं चाहते हैं. कितने ही लोगों की रोजीरोटी चलती है इस भ्रष्टाचार के बल पर. वे लोग तो सड़क पर आ जाएंगे.
पुलिस की बेईमानी से देश का हर तबका त्रस्त है. खासकर निम्न एवं मध्यवर्ग के लोगों के लिए तो पुलिस साक्षात कंस का अवतार है. पुलिसिया खौफ का ही नतीजा है कि आज सड़क पर रेप, मर्डर होते रहते हैं और कोई भी गवाही दे कर पुलिस के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता है. आम आदमी अत्याचार सहन करता है. वह व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर पाता. आज जब कोई नेता ऐसी हिम्मत कर रहा है तो मीडिया भी उन्हें अराजकतावादी कहने से बाज नहीं आ रही है. यदि खराब व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना जनता को उस की शक्ति का एहसास दिलाना अराजकतावाद है तो हम गांधीजी और नेहरूजी का गुणगान क्यों करते हैं? क्यों हम उन के पदचिह्नों पर चलने के लिए लोगों को प्रेरित करते हैं?
मेरा मानना है कि आज जब एक नए ‘वाद’ का आगाज कोई कर रहा है तो जनमानस को पूरापूरा उस का साथ देना चाहिए ताकि यह ‘केजरीवालवाद’ की धारा का प्रवाह हर क्षेत्र में निर्बाध गति से बहता रहे और हर आदमी स्वयं को आम आदमी कह कर गर्व महसूस करे.
आरती प्रियदर्शिनी, गोरखपुर (उ.प्र.)
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रेडियो सीलोन
फरवरी (द्वितीय) अंक में ‘रेडियो सीलोन के वे सुनहरे दिन’ शीर्षक से प्रकाशित लेख ने पुरानी स्मृतियों को ताजा कर दिया. उस समय ‘रेडियो सीलोन’ का जादू श्रोताओं के सिर पर चढ़ कर बोलता था. उद्घोषक कार्यक्रमों को दिलचस्पी से तैयार कर के पेश करते थे. विज्ञापनों का बोलबाला नहीं था.
पुरानी फिल्मों के गीतों का वहां अनमोल खजाना था. एक से बढ़ कर एक मधुर गीत सुनाए जाते थे जो श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिल की गहराई में उतर जाते थे. आज विविधभारती ने कुछ हद तक यह कमी पूरी की है, फिर भी ‘रेडियो सीलोन’ की कमी श्रोताओं को खल रही है.
श्याम चौरे, इंदौर (म.प्र.)
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उद्घोषकों का जादू
‘रेडियो सीलोन के वे सुनहरे दिन’ लेख बहुत ही मर्मस्पर्शी लगा. वास्तव में मैं स्वयं भी बचपन से रेडियो सीलोन
का श्रोता रहा हूं और जब ‘बिनाका गीतमाला’ बाद में ‘सिबाका गीतमाला’ का हर हफ्ते बुधवार को अमीन सयानी अपने 1 घंटे का कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे तो बड़ा मजा आता था. परंतु अब तो रेडियो सीलोन ट्रांजिस्ट्रर पर कभी लगता ही नहीं.
बेहतर होता यदि इन 3 वरिष्ठ उद्घोषकों--मनोहर महाजन, विजय लक्ष्मी डिसेरम और रिपुसूदन कुमार के पते भी इस अंक में प्रकाशित करते.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
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तेजाबी बयान
‘माफ कीजिए जबान फिसल गई’ शीर्षक से फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख में नेताओं की बदजबानी का अच्छा विश्लेषण किया गया है. अब जबकि लोकसभा चुनाव नजदीक हैं यों लगता है जबान फिसल नहीं रही, बल्कि उस को जानबूझ कर फिसलाया जा रहा है.
नेताओं के जहर उगलते तेजाबी बयानों की जैसे कोई प्रतियोगिता सी चल रही है. पाठ्यपुस्तकों में हम बचपन से अपने राजनेताओं के चरित्र यानी जीवनी, जिन में स्वतंत्रतासेनानी, पूर्व प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति शामिल हैं, पढ़ते आ रहे हैं. मगर मुझे नहीं लगता कि वर्तमान नेताओं में से शायद ही कोई ऐसा होगा जिस के बारे में हम भविष्य में स्कूलीकिताबों में पढ़ पाएंगे या पढ़ना चाहेंगे.
मुकेश जैन पारस, बंगाली मार्केट (न.दि.)
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सरिता की मुहिम
मैं आप की सम्मानित पत्रिका सरिता से वर्षों से जुड़ा हूं. पूर्व में भी पत्र द्वारा आप की पत्रिका के संबंध में प्रशंसा कर चुका हूं, जिस की आप की पत्रिका अधिकारी है.
आप के प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘सरिता मुक्ता रिप्रिंट्स’ के बारे में अपने विचार प्रस्तुत करना चाहता हूं. कुछ वर्ष पूर्व मुझे इस की एक प्रति बाजार में किताबों की एक दुकान में देखने को मिली. मैं ने तुरंत खरीद ली. इस में छपे लेखों के नाम देख कर पहले तो स्वाभाविक रूप से कुछ अटपटा सा लगा, फिर धीरेधीरे इस के समस्त लेख, जो आप के स्वतंत्र, विचारक, विद्वान लेखकों द्वारा लिखे गए थे, पढ़ डाले. मैं हतप्रभ रह गया. शुरू के पन्नों में ‘सरिता व हिंदू समाज’ पढ़ा. पढ़ने का सिलसिला ज्योंज्यों बढ़ा, उत्सुकता जागने लगी.
लेख बड़े ही गहरे शोध व अध्ययन द्वारा लिखे गए हैं. फिर क्या था, मैं ने इस के समस्त रिप्रिंट (कंप्लीट सैट) मंगवा लिए. तभी से समयसमय पर पढ़ने का सिलसिला जारी है. इतने सारगर्भित, सत्य, तर्कसंगत लेख मैं ने अन्यत्र नहीं देखे.
हिंदू समाज/धर्मशास्त्रों की बातें यदि छोड़ दें, तो अन्य विषय, जैसे भ्रष्टाचार, समाजवाद, नैतिकता, पारिवारिक संबंध, समाज, तकनीक, भारतीय इतिहास इत्यादि पर वर्षों पूर्व लिखे गए लेख, मेरा मानना है कि ये आज भी उतने ही प्रासंगिक व व्यावहारिक हैं. हिंदू समाज/धर्मशास्त्रों पर आप के विद्वान लेखकों ने बहुत ही महीन आकलन किया है, जोकि अति प्रशंसनीय है. जहां तक मेरी समझ है, इस में तनिक भी किसी धर्म विशेष की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाई गई है, कानूनी रूप से भी.
अंत में यह कहना चाहूंगा कि ज्यादा से ज्यादा जनमानस ‘सरिता’ की इस मुहिम से जुड़े. ‘सरिता मुक्ता रिप्रिंट्स’ से मेरा जितना ज्ञानवर्धन हुआ है उतना अन्य किसी पत्रिका से नहीं हुआ.
संजय कुमार आर्य, देहरादून (उत्तराखंड)

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