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पंचायतों का औरतों पर जुल्म?

विजातीय प्रेम संबंध की सजा सामूहिक बलात्कार. प्रगतिशील बंगाल के एक गांव लाभपुर की एक सालिसी सभा में यही सजा सुनाई गई थी, जिस की चर्चा देशभर में है. कुछ साल पहले पाकिस्तान के मुजफ्फरगढ़ के मीरवाल गांव में भी भाई के विजातीय प्रेम संबंध की सजा बहन मुख्तारन को पंचायत ने सुनाई थी. वह भी कुछ ऐसी ही सजा थी. सामूहिक बलात्कार के बाद उस के बदन के बाकी बचे कपड़े को भी तारतार कर के देह का प्रदर्शन पूरे गांव में किया गया.

पाकिस्तान की ऐसी तालिबानी संस्कृति भारत में भी है. इस का सबूत है लाभपुर. हालांकि इस से पहले उत्तर प्रदेश के बेहमई गांव में फूलन देवी के साथ हुई घटना को भी याद कर लिया जाए. लगभग 35 साल पहले की घटना है. ठाकुरों ने मल्लाह जाति द्वारा की गई हुक्म उदूली यानी आदेश की अवहेलना की सजा फूलन देवी को सुनाई थी. सामूहिक बलात्कार और बेधड़क मारकुटाई के बाद फूलन को बाल पकड़ कर घसीटते हुए पूरे गांव में निर्वस्त्र घुमाया गया था.

अंतत: बीहड़ में बागियों के दल में जा कर उस ने आश्रय लिया. लेकिन वहां भी ठाकुरों और मल्लाह जाति के बीच पिसती रही फूलन. ठाकुर जाति के एक बागी ने फूलन को चांटा मारा. बचपन से बागी तेवर वाली फूलन को यह सहन नहीं हुआ. बागियों का सरदार मल्लाह जाति का विक्रम था. विक्रम के कहने पर ठाकुर जाति के बागी को फूलन से माफी मांगनी पड़ी. लेकिन बाजी पलट गई. विक्रम को मार कर ठाकुर जाति के बागियों ने दल पर कब्जा कर लिया. एक बार फिर से फूलन ठाकुरों के निशाने पर आई. फिर से सामूहिक बलात्कार और नंगा कर घुमाए जाने का अपमान सहना पड़ा फूलन को.

बाद में फूलन ने अपना दल बनाया और ठाकुरों को छलनी कर दिया. खुलेआम सामूहिक बलात्कार की सजा खुलेआम सामूहिक नरसंहार. ठाकुरों के खून का तिलक लगाया फूलन ने. समाज में धिक्कार का स्वर फूटा. सामूहिक नरसंहार का मामला चला फूलन पर. लेकिन बारबार सामूहिक बलात्कार का? इस का जवाब न तो पुलिस व प्रशासन के पास है और न ही न्याय व्यवस्था के पास. वर्ष 2001 में फूलन की हत्या कर दी गई.

लाभपुर की घटना

कहने को तो मुजफ्फरगढ़ और लाभपुर के बीच हजारों किलोमीटर का फासला होगा पर यह तालिबानी संक्रमण पश्चिम बंगाल के एक गांव लाभपुर में भी मौजूद है. यहां की घटना इस प्रकार है :

वीरभूम जिले के लाभपुर थानांतर्गत राजारामपुर गांव वालों ने एक आदिवासी युवती को किसी विजातीय युवक के साथ शाम को घूमते हुए देखा तो दबोच लिया. रातभर दोनों को एक पेड़ से बांध कर रखा गया. अगले दिन स्वयंभू ग्रामप्रधान बलाई माड्डी के निर्देश पर दोनों को पड़ोस के एक गांव सुबलपुर की सालिसी सभा में ले जाया गया. यहां दोनों पर 25-25 हजार रुपए का जुर्माना लगाया गया. युवती ने सभा में ही अपनी गरीबी का हवाला देते हुए 25 हजार रुपए देने में असमर्थता जताई.

इस पर बलाई माड्डी ने वहां उपस्थित गांव वालों से कहा, ‘अगर इस के परिवार ने जुर्माना अदा नहीं किया तो रातभर तुम लोग इस के साथ मस्ती  करो.’ ग्रामप्रधान के निर्देश का बाकायदा पालन हुआ. रातभर युवती के साथ गांव के 12 लोगों ने ‘मस्ती’ की और युवती के साथ यह सब करने वाले सभी उस के पिता, दादा और भाई के बराबर उम्र के थे.

युवती के साथ दबोचे गए युवक को उस के घर वाले 25 हजार रुपए अदा कर वापस ले गए थे. बताया जाता है कि हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में भुजु हेमब्रम को सरदार यानी ग्रामप्रधान चुना गया था. लेकिन गांवभर में बलाई माड्डी का ही हुक्म चलता है.

हालांकि घटना की चौतरफा निंदा और आरोपियों को गिरफ्तार न किए जाने के कारण पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने वीरभूम के पुलिस अधीक्षक पी सुधाकर को हटा दिया.

बंगाल की सालिसी संस्कृति

देश में खाप पंचायत के बारे में बहुतकुछ लिखा व सुना जाता रहा है. उत्तर भारत में खाप संस्कृति का चलन है. बंगाल में उसी व्यवस्था का रूपांतर है सालिसी सभा.

बंगाल में यह कोई नई व्यवस्था नहीं, बल्कि सदियों पुरानी संस्कृति है. पर इस बार इस की खास चर्चा का कारण इस में सुनाई गई सजा है. अकसर सालिसी सभा में इंसानियत को शर्मसार करने वाली ऐसी भी सजाएं सुनाई जाती रही हैं. हां, लाभपुर की घटना से पहले ऐसी समानांतर न्याय व्यवस्था के बारे में देशदुनिया को शायद खबर नहीं थी.

बहुत पुरानी बात नहीं है. अप्रैल 2012 में वीरभूम, रामपुरहाट के बटतला की एक सालिसी सभा में आदिवासी युवती को विजातीय प्रेम संबंध के लिए गांवभर में नंगा घुमाने की सजा सुनाई गई थी.

ऐसा भी नहीं है कि ऐसी सजा केवल आदिवासी गांव तक ही सीमित है. कथित तौर पर इस तरह की समानांतर न्याय व्यवस्था का अस्तित्व महानगर कोलकाता में भी है. यादवपुर में प्रीमियम की रकम लेने आए एक स्थानीय एलआईसी के एजेंट ने घर पर अकेली महिला के साथ बलात्कार किया. महल्ले में सालिसी सभा बुलाई गई और आरोपी को 1 लाख रुपए जुर्माना अदा कर मामले को सुलटा दिया गया.

एक दूसरी घटना में दक्षिण कोलकाता के एक उपनगर में एक महिला टीचर द्वारा अपने पुरुष सहयोगी टीचर के साथ ब्याह को ले कर स्कूल में सालिसी सभा बुलाई गई, जिस में प्रधानाध्यापक और स्कूल प्रशासन ने दोनों टीचर्स को नौकरी से बरखास्त कर दिया.

हाल ही में उत्तर कोलकाता में मकान मालिक व किराएदार के बीच विवाद को सुलझाने के नाम पर तृणमूल के एक स्थानीय नेता ने मालिक पक्ष की ओर से किराएदार को मानसिक रूप से प्रताडि़त किया. मामला हाईकोर्ट तक गया. कोर्ट ने सालिसी सभा के लिए फटकार लगाई.

लाभपुर की घटना के 2 दिन बाद डायमंड हार्बर के काकद्वीप में एक व्यक्ति द्वारा पान चोरी किए जाने की सजा सुनाने के लिए सालिसी सभा बुलाई गई. सभा के बाद उस की जम कर पिटाई की गई. बीचबचाव करने आई पत्नी के कान काट लिए गए. इतना ही नहीं, उसे इलाज के लिए अस्पताल न जाने की भी कड़ी हिदायत दी गई.

वर्ष 2001 में हुगली जिले के पांडुआ में सालिसी सभा बुला कर एक युवती द्वारा गांव का ‘नियम’ न मानने पर सजा के तौर पर उस का ब्याह महल्ले के एक लावारिस कुत्ते से करा दिया गया.

यही नहीं, 2010 में बागनान में विजातीय विवाह की एक घटना में सालिसी सभा द्वारा 25 हजार रुपए का जुर्माना लगाया गया. राज्य में सत्ता किसी की भी हो, केशपुर, गड़वेता, नंदीग्राम, खेजुरी के लोग जुर्माना देने को अभिशप्त हैं. वाममोरचा के शासन के बाद इस के समर्थकों को गांव में लौटने व खेतीबारी करने के एवज में सत्ता पक्ष की स्थानीय समिति को जुर्माना अदा करना पड़ा.

नागरिक समिति

वाम शासन में महल्लों में नागरिक या स्थानीय या क्षेत्रीय समिति के नाम पर भी समानांतर न्याय व्यवस्था चलाने की संस्कृति रही है. राज्य में ममता बनर्जी के आने पर सत्ता परिवर्तन के बाद भी यह प्रथा कायम है. समय में बदलाव आया लेकिन पुराने जमाने की पंच प्रथा कायम रह गई. हां, रूप बदल गया है. पहले इस का प्रधान गांव का मुखिया होता था लेकिन अब राजनीतिक वर्चस्व वाली सालिसी सभा बैठती है, जहां फैसला राजनीतिक पार्टी का कोई नेता सुनाता है. ऐसी सालिसी सभा में वैधअवैध प्रेमसंबंध, पतिपत्नी के बीच रिश्ते का विवाद, संपत्ति विवाद का निबटारा होता है. पर कभीकभी राजनीतिक प्रभाव के तहत मामले का फैसला विवादित हो जाता है, जैसा कि कोलकाता के दमदम में हुआ.

दरअसल, लंबे समय से वाम शासन में वाम घटक के तमाम दल अपने क्षेत्र में सालिसी सभा के रूप में समानांतर न्याय व्यवस्था चला रहे थे. इस की वजह यह भी थी कि ज्यादातर पंचायत पर माकपा का ही कब्जा था. यहां तक कि पंचायत को सालिसी की जिम्मेदारी देने के लिए बुद्धदेब भट्टाचार्य कानून बनाने की भी तैयारी कर रहे थे. इस के लिए विधानसभा में एक विधेयक भी पेश किया गया था. लेकिन आम सहमति न बन पाने के कारण विधेयक को वापस ले लिया गया.

सत्ता से चुकने के बाद आत्ममंथन के दौरान माकपा ने माना कि गांवकसबे से ले कर शहरी नागरिक समाज के किसी मामले में पार्टी का टांग अड़ाना मतदाताओं को रास नहीं आया. सत्ता हाथ से खिसकने से पहले ही वाममोरचे को इस का इल्म हो चुका था. इसीलिए आखिरी दिनों में माकपा सहित वाममोरचा घटक पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को बारबार पत्र लिख कर पतिपत्नी के बीच दांपत्य कलह, मकान मालिक व किराएदार विवाद और यहां तक कि निर्माण सामग्रियों की दलाली से बचने की हिदायत देने लगी थीं.

रंग बदला, चरित्र नहीं

वर्ष 2011 में चुनाव के बाद राज्य का राजनीतिक रंग जरूर बदल गया है लेकिन वाम जमाने की यह कवायद आज भी जारी है. तृणमूल ने वाममोरचे से कोई सबक नहीं सीखा. अब भी देखा जा रहा है कि मामले को पुलिस तक जाना चाहिए या नहीं, मकान बनाने पर किस स्थानीय क्लब को कितना पैसा देना है या नहीं देना है, मकान मालिक-किराएदार के विवाद में किस के पक्ष में फैसला देना है, ये सब पार्टी के स्थानीय नेता तय करते हैं. इस के अलावा दांपत्य कलह का निबटारा, महल्ले में वैधअवैध प्रेमसंबंध का विवाद भी पार्टी वर्चस्व वाली सालिसी सभा निबटाती है.

यहां तक कि मकान बनाने के लिए बालू, सीमेंट, ईंट, गारा, गिट्टी, सरिया कहां से लेना होगा, यह भी स्थानीय पार्टी दफ्तर तय करता है. इस कवायद को ‘सिंडीकेट’ का नाम दिया गया है.

कुल मिला कर स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं है. आईना वही है, बस, चेहरे बदल गए हैं. हाल ही में अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ने स्थानीय स्तर पर महल्ला समितियां बनाने की बात कही थी. बंगाल में पहले से ही महल्ला समितियां हैं और वे किस तरह अपना काम करती हैं, यह अब किसी से छिपी बात नहीं है. ऐसे में इस तरह की समानांतर न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान लग ही जाता है. फिर चाहे वह 2 पक्ष के बीच किसी तरह का विवाद हो या प्रेम संबंध का मामला हो.

बहरहाल, अगर महिलाओं की अस्मिता की ही बात करें तो क्या उस की स्थिति हमेशा दोयम दरजे की ही रहेगी? लाभपुर में जुर्माना की रकम अदा कर के युवक बच गया. उसे कोई सजा नहीं मिली. न ही मुख्तारन के भाई को, जिस ने सवर्ण जाति की युवती से प्रेम किया. कीमत चुकानी औरतों को पड़ती है और वह भी अपनी आबरू दे कर. ऐसा क्यों? साफ है ऐसी सजा के पीछे औरत के शरीर को भोगने की पुरुष लालसा ही काम करती है.

लेकिन सुधार बहुत बलवान होते हैं. पाकिस्तान में मुख्तारन की लंबी लड़ाई रंग लाई है. उस के कुसूरवार जेल की चक्की पीस रहे हैं. मुख्तारन का आज अपना घरपरिवार है. 

इस पूरे प्रकरण में सुकून देने वाली बात यह है कि आज समाज द्वारा प्रताडि़त और सामूहिक बलात्कार की शिकार बनी मुख्तारन को पत्नी और मां का दरजा देने वाला भी इसी समाज का पुरुष है. लेकिन फूलन को न्याय नहीं मिला. ठाकुरों के खिलाफ जिस लड़ाई को वह आजीवन अकेले लड़ती रही, उन्हीं ठाकुरों ने उसे हमेशा के लिए दिल्ली में गोली मार कर खामोश कर दिया.

बहरहाल, लाभपुर की हालिया घटना में समाज का एक बड़ा वर्ग भुक्तभोगी आदिवासी युवती के साथ है. ऐसे में उम्मीद है कि शायद इस युवती को सही माने में न्याय मिल जाएगा बशर्ते समाज व प्रशासन ईमानदार रहे.

तर्क और तथ्य

आज जनता आमतौर पर तर्क और तथ्य से कतराती है और आस्था और निष्ठा की बात करती है क्योंकि उस में न सोचविचार करना होता है न फैसलों की जिम्मेदारी लेनी होती है. बात घर की हो या घर के बाहर की, औसत जना किसी ऐसे को पकड़ लेता है जिस की बात को वह आंख और दिमाग बंद कर के स्वीकार कर सके.

घरों में यदि कोई बुजुर्ग है तो वह इस पदवी को ले लेता है. हम तो ऐसा ही करेंगे क्योंकि बाबूजी ने कह दिया, ताऊजी ने कह दिया, दादाजी ने कह दिया. कई घरों में पत्नी इस पदवी को जबरन, चीखपुकार कर के व रोधो कर हथिया लेती है. जी, पत्नी नहीं मानती, पत्नी का दिल रखना है न, घरवाली का कहना है. इन्हीं सब से तर्क और तथ्य को नाली में बहा दिया जाता है.

राजनीति में तो आजकल यह जोरों से चल रहा है. एक बड़ा वर्ग तर्क और तथ्य को भुला कर नरेंद्र मोदी को अपना आदर्श मानने पर अड़ा है. हिंदुत्व की जगह गुजरात मौडल औफ डैवलपमैंट का नारा स्वीकार कर लिया गया है. नरेंद्र मोदी कह दें कि सिकंदर पटना में आया था तो सच ही होगा. वहीं, कुछ पुराने लोग स्वार्थों के चलते सोनिया गांधी के वाक्यों को सत्यवचन मान लेते हैं. बाकी लोगों ने अपनेअपने गुरु पकड़ रखे हैं.

नए दल आमतौर पर तर्क और तथ्य पर चलते हैं क्योंकि उन की बातों पर आस्था और निष्ठा की काई जमने में देर लगती है. आम आदमी पार्टी शुरुआती दौर से गुजर रही है. उसे तर्क और तथ्य पर परखा जा रहा है. उस की एकएक बात पर सवाल उठाए जा रहे हैं.

यह अच्छी बात है पर यही फार्मूला सभी दलों पर लागू होना चाहिए. कांगे्रस और भाजपा ही नहीं, बसपा, सपा, राजद, जदयू आदि सभी दलों को भी बख्श दिया गया है और उन के कामों की समीक्षा नहीं की जा रही.

दरअसल, यह धर्म की देन है. धर्म सिखाता है कि आस्था और निष्ठा को अपनाओ, धर्म व धर्मगुरु की जांच तर्क और तथ्य स्तर पर मत करो. धर्म के तथ्य कुछ भी कहते रहें, आप की आस्था बनी रहे. तभी तो वैंडी डौनिगर की पुस्तक ‘द हिंदूज’ के खिलाफ 4 लोग अदालत पहुंच गए यानी तर्क और तथ्य को रिजैक्ट कर दिया गया जबकि किसी धर्मग्रंथ को खंगाल लें, ‘द हिंदूज’ उस के सामने सिर्फ प्रतिच्छाया लगेगी. पर धर्म में तर्क और तथ्य का स्थान है कहां?

अंधविश्वासों के कारण ही इस देश की सामाजिक ही नहीं राजनीतिक दुर्दशा हो रही है. हमारी आस्था है सड़ेगले धर्म में, सड़ीगली पार्टियों में और सलीगड़ी कू्रर आततायी सरकार में.

आधुनिक विकास की पहली सीढ़ी है तर्क और तथ्य. सुखी परिवार तर्क और तथ्य पर समृद्ध होते हैं. प्रकृति तर्क और तथ्य पर चलती है, तभी तो नियत समय पर सवेरा होता है.

फांसी की सजा

फांसी की सजा दुनिया में हजारों सालों से दी जा रही है और भारत भी इस से अछूता नहीं है. यहां हर अपराध पर फांसी की मांग की जाती है पर अदालतें क्रूरतम जुर्म के बावजूद मुजरिम को फांसी की सजा के बजाय आजन्म कारावास दे सकती हैं. अफजल गुरू जैसे इंसानियत के दुश्मनों को यदाकदा ही फांसी दी जाती है. फांसी का इंतजार कर रहे 15 अपराधियों की सजा को हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने आजन्म कारावास में बदल दिया क्योंकि उन की रहम की अर्जी राष्ट्रपति के पास 10-12 साल तक पड़ी रही थी.

सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक किया क्योंकि फांसी का इंतजार करता अपराधी कैद से भी ज्यादा मानसिक सजा भुगतता है. उस पर जो मानसिक तनाव रहता है वह वर्णित नहीं किया जा सकता. लड़ाई में मारे जाने वाले सैनिक को मौत तो मिलती है पर घंटों में, दिनों, सालों तक इंतजार नहीं करना पड़ता कि सामने वाला कब गोली चलाएगा. अपने को मारे जाने के दिन गिनने की सजा फांसी की वास्तविक सजा से भी ज्यादा दर्दनाक है और चाहे कानून की किताबों में यह बात न लिखी हो, पर वास्तविकता है.

सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला मानवीय है लेकिन दोधारी तलवार भी है. अब तक राष्ट्रपति ऐसे मामलों को लटका देते थे क्योंकि वे दया की अर्जी पर खून का निशान नहीं लगाना चाहते थे. एक राष्ट्रपति दूसरे पर टाल देता था. अब, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का मतलब है कि उसे तुरंत या तो हां कहनी होगी या ना.

यह फैसला तब होता जब देश में यह धारणा बैठ जाती कि घटना के 10-12 साल में सारी अपीलों के बाद अदालतें या तो खुद फांसी की सजा देना कम कर देतीं या राष्ट्रपति ज्यादातर मामलों में दया की याचिकाओं को स्वीकार कर लेते, तो ठीक था.

फांसी की सजा किसी भी तरह से अपराधों को कम करने में काम नहीं आती. कारावास में 15-18 साल बिताने के बाद अगर कोई बाहर आता भी है तो वह दोबारा अपराध नहीं करता. फांसी की सजा देने से अपराध भी कम नहीं होते. सदियों से फांसी की सजा सुनाई जाती रही है पर अपराधों की संख्या वैसी ही रही है. विश्व युद्धों में भारी तादाद में सैनिक मरे पर नए भरती होने वालों की कमी कभी नहीं रही. लोग मौत को, मरजी से या जबरन, हमेशा गले लगाते रहे हैं.

मौत के डर के कारण लोग अपना काम नहीं छोड़ते. गांधी परिवार में इंदिरा व राजीव की हत्या हुई पर सोनिया व राहुल राजनीति में आज भी जोखिम ले रहे हैं. दुनिया भर के पत्रकार जोखिम लेते हैं. तानाशाह देशों में जान की बाजी लगा कर सत्ता का विरोध करने वाले कुछ लोग मिल ही जाते हैं.

मौत की सजा तो केवल किताबों तक रहे, वास्तविकता में यह न दी जाए. हां, अगर अपराध जानबू?ा कर खूंखारों ने किया हो तो कारावास 10-12 साल का ही न हो कर, 70 वर्ष तक की आयु का तो हो ही.

‘आप’ और जनसेवा

आम आदमी पार्टी की सफलता से आकर्षित हो कर बहुत से नाम वाले लोग, जो राजनीतिक सत्ता व शक्ति का असर महसूस करते थे, आप में शामिल हो रहे हैं. जहां अरविंद केजरीवाल के लिए यह खुशी की बात है, वहीं यह सब से बड़ा सिरदर्द है क्योंकि ये नए लोग अपने चारों ओर महानता का बबूला लिए पार्टी में आ रहे हैं और उन की अपेक्षा है कि उन्हें तुरतफुरत ऊंचा स्थान, लोकसभा की सीट, कमेटियों में जगह मिल जाएगी.

एअर डेकन के संस्थापक कैप्टनजी आर गोपीनाथ या डांसर मल्लिका साराभाई ने आम जनता के लिए कभी सड़कों की धूल नहीं फांकी है. हां, वे सफल हैं, नाम वाले हैं तो क्या? हां, वे टीवी चैनलों पर घंटों बकबक कर सकते हैं तो क्या? क्या उन्होंने आम जनता की खाली बालटियों में पानी भरा है? क्या उन्हें बिजली का कनैक्शन दिलाया है? क्या धरना दिया है?

राजनीति मंचों पर चढ़ कर बोलने के लिए है तो नरेंद्र मोदी की पार्टी ही काफी है. फिर ‘आप’ की क्या जरूरत है. आम आदमी पार्टी को तो जरूरत है ऐसे नेताओं की जो यह खोज सकें कि आखिर इस मेहनतकश जनता का पैसा हड़प कौन रहा है. आखिर किस तरह से बहुमंजिले मकान ?ोपड़पट्टियों के बीच उग आते हैं.

आखिर क्यों देश के गांवों में आज भी जाति के नाम पर अत्याचार हो रहे हैं और क्यों औरतों को खापों जैसी परंपराओं को सहना पड़ रहा है? इन नए टोपी वालों ने इन के बारे में क्या किया है? यह ठीक है कि अरविंद केजरीवाल को फिलहाल देशभर में आम आदमी पार्टी को फैलाना है पर जब तक जनसेवा से तप कर आए लोग इस में शामिल न होंगे, इस का ध्येय पूरा न होगा. देश को एक और कांगे्रस या भारतीय जनता पार्टी नहीं चाहिए.

आम आदमी पार्टी जनआंदोलन का राजनीतिक चेहरा है, सोफे पर जिंदगी गुजारने वालों का पार्किंग लौट नहीं. अरविंद के सामने यह चुनौती है कि किसे चुनें, किसे नकारें लेकिन यह तो उन की टीम को करना ही होगा.

 

जोड़तोड़ की राजनीति

जोड़तोड़ की राजनीति शुरू हो गई है. सभी दल सत्ता में भागीदारी पाना चाहते हैं. भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को ताज दिलाने के लिए उन के साथी अब दूसरे दलों में सेंध लगाने लगे हैं जबकि बिहार में लालू यादव पर दोतरफा हमला हुआ. एक तो उन के साथी रामविलास पासवान, जो पहले अटल बिहारी वाजपेयी के साथ रह चुके हैं, को भाजपा के साथ मिलाया गया तो दूसरी ओर राष्ट्रीय जनता दल के कई विधायक नीतीश कुमार के खेमे में चले गए हैं.

दूसरे दलों में भी यह जोड़तोड़ जरूर शुरू होगा क्योंकि कांगे्रस का जहाज सब को डूबता नजर आ रहा है. उस के नेता राहुल गांधी बहुत कमजोर, फीके साबित हो रहे हैं. उन का बनावटी गुस्सा व नकली तेवर उन के भोलेपन को ढक नहीं पा रहे. राजनीति में तो खूंखारपन चाहिए जिस की टे्रनिंग भारतीय जनता पार्टी के सदस्यों को धर्म के नाम पर अभी भी मिलती है.

आम जनता का रुख कांग्रेस व भाजपा दोनों के बारे में क्या है, इस का सही अंदाजा नहीं लगाया जा सकता. पिछले विधानसभा चुनावों में राजस्थान और मध्य प्रदेश में कांगे्रस की करारी हार की वजह उस के राज्य स्तर के नेताओं का ढुलमुल रवैया था.  दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी ज्यादा सीटें और वोट ले कर भी आम आदमी पार्टी के आगे बौनी साबित हुई.

जो हाल कांगे्रस का मध्य प्रदेश व राजस्थान में है वही भारतीय जनता पार्टी का उत्तर प्रदेश, बिहार, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल, उत्तराखंड, उत्तरपूर्वी राज्यों व दक्षिण के चारों राज्यों में है. केंद्र में नरेंद्र मोदी अपने बल पर अटल बिहारी वाजपेयी से ज्यादा बड़ी शख्सीयत बनेंगे, यह सवाल बहुत बड़ा है. अटल बिहारी वाजपेयी खासे बेदाग, सौम्य, कुशल वक्ता, कवि, अनुभवी व्यक्ति थे और ये गुण नरेंद्र मोदी में न के बराबर हैं, फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा को 2004 में शिकस्त मिली.

कांगे्रस कमजोर है, यह पक्का है पर इस का लाभ भारतीय जनता पार्टी को केवल राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में मिलेगा. अन्य राज्यों में दूसरे स्थानीय दल मौजूद हैं जो कांगे्रस के अभाव को पूरा करने में सक्षम हैं. नरेंद्र मोदी की जो हवा बनी है वह मोटे पैसे के मोटे प्रचार से बनी और जब से कांग्रेस ने प्रचार में अपना और सरकारी पैसा ?ोंकना शुरू किया है, नरेंद्र मोदी का कद घटने लगा है.

चुनावों में 2 माह रह गए हैं पर केवल अपने ढुलमुल रवैए के लिए पहचाने जाने वाले रामविलास पासवान के अलावा गांधीनगर में नरेंद्र मोदी के दफ्तर के आगे दलों की कतार नहीं लगी है. उलटे, भाजपा को कर्नाटक में भ्रष्टाचार में रंगे बी एस येदियुरप्पा को हाथ जोड़ कर वापस बुलाना पड़ा है.

नरेंद्र मोदी असल में व्यापारी वर्ग की देन हैं जो हिंदू धर्म की आस्था के नाम पर डरासहमा रहता है और जिस में नीची जातियों के प्रति बहुत ज्यादा पौराणिक घृणा ठूंसठूंस कर भर दी गई है. दिमाग से शून्य यह वर्ग नाक के आगे की नहीं सोचता. उस के लिए न इतिहास का कोई मतलब है न भविष्य का. वह तो आज के लाभ, आज के ब्याज पर जीता है और उसे नरेंद्र मोदी पर सट्टा लगाना सब से ज्यादा सेफ लग रहा है. जोड़तोड़ के पीछे यही छोटा सा वर्ग है.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, फरवरी (प्रथम) 2014
संपादकीय टिप्पणी ‘राजनीतिक दल और विकास’ सटीक लगी. 66 सालों में गरीबी और जनसंख्या का विकास हुआ है. भारत की आबादी 1 अरब 23 करोड़ है. चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में आए, विकास करना कठिन है. विकास के लिए ईमानदार नेता और अफसर चाहिए जो पैसे का सदुपयोग करें. कोई पार्टी कहती है इन्कमटैक्स नहीं लगना चाहिए. मुलायम सिंह ने कहा है कि गरीबों को गैस सिलेंडर मुफ्त में दे दो. परंतु इस के लिए पैसा कहां से आएगा जबकि 45 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं.
परिवार नियोजन के कानून सख्त बनें, भ्रष्टाचार कम हो तभी विकास हो सकता है. चुनाव जीतने के लिए झूठे वादे करना खतरनाक है. इस से अराजकता फैल सकती है.
आई प्रकाश, अंबाला छावनी (हरियाणा)
 
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‘राजनीतिक दल और विकास’ शीर्षक से प्रकाशित आप की टिप्पणी उत्कृष्ट है. कांगे्रस, भाजपा और ‘आप’ व अन्य विकास से संबंधित दावे कर रही हैं, अनेक घोषणाएं कर रही हैं लेकिन जनता की सेवा के बारे में वे कुछ नहीं बता रहीं, सेवा करेंगी भी या नहीं, करेंगी तो किस रूप में करेंगी.
जनता की सेवा का अर्थ यह नहीं कि एक राजनीतिक दल से अपेक्षा की जाए कि वह सड़कें साफ कराएगा या पुलिस वाले की ड्यूटी लगाएगा. यह काम प्रशासन का है, उस पर नजर रखना जीतने वाले राजनीतिक दल का है, यह जनता की सेवा नहीं है. यह तो प्रशासन जनता से मिले पैसे के बदले करता है, यह उस का कर्तव्य है. सब से बड़ा काम है लोगों को कुरीतियों, गलत परंपराओं, धर्मजाति के नाम पर अलगाव, आर्थिक भेदभाव, मुनाफाखोरी, तनाव, शोषण आदि से बचाना.
आम आदमी पार्टी को छोड़ कर अन्य पार्टियों ने यह ध्येय रखने की कभी आवश्यकता नहीं समझी. उन्हें जनता या समाज से सरोकार नहीं है, वे केवल भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्र के जंजालों में जनता को फंसा कर गन्ने से निकाले रस की तरह निचोड़ कर पावर रस निकालने में लगी हैं. विकास तब होगा जब हर नागरिक की उत्पादकता बढ़े, पर जब तक नागरिकों के पैर सामाजिक कीचड़ में धंसे रहेंगे, कुछ ज्यादा नहीं हो सकता. अब देखना है कि देश का भविष्य क्या होता है. पार्टियां तो तीनों अपनेआप में प्रयत्नशील हैं. किस पार्टी की विजय होती है यह तो वक्त बताएगा.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
 
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संपादकीय टिप्पणी ‘कानून और न्यायाधीश’ काबिले तारीफ है. हमारे देश की जनता को आज भी यह विश्वास है कि देरसवेर मुकदमों का फैसला न्यायाधीश जो भी करते हैं वे कसौटी पर खरे उतरते हैं. पर यह कहना भी तर्कसंगत नहीं है कि फैसला सुनाने वाले जज पूरे पाकदामन होते हैं क्योंकि अभी हाल ही में 2 जजों पर जो आरोप लगे हैं उस से न्याय करने वालों की गरिमा को ठेस पहुंची है.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
 
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उम्मीद की किरण
फरवरी (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘शातिरों से बचना ‘आप’ की चुनौती’ नवनिर्मित ‘आम आदमी’ दल के लिए सचेतक का काम करता है. वास्तव में ऊबी और वीआईपी कल्चर से दुखी व परेशान जनता को ‘आम आदमी पार्टी’ के रूप में अंधेरे में उम्मीद की एक किरण नजर आई है. ऊबी इसलिए कि उसे पक्षविपक्ष परदे के पीछे मिले हुए नजर आते हैं जिस में क्षेत्रीय दल का वजूद न्यूसैंस वैल्यू ही दिखाता है.
अब रह गई बात वीआईपी कल्चर की तो उस का यह हाल है कि मंत्रीजी आ रहे हैं तो घंटों पहले सड़क रोक दो. फिर चाहे जनता का कोई चिकित्स्यकार्य क्यों न हो, वह मरे अथवा जिए. जब तक साहब बाअदब गुजर नहीं जाते, मजाल क्या है जो परिंदा भी पर मार जाए.
अब किस को क्या दोष दें, आखिरकार जनता ही ने तो उन्हें वीआईपी बनाया है. वे खुद थोड़े न वीआईपी बन गए हैं.   ‘आप’ इस फर्क को मिटाने की कोशिश में है. उस के ऊपर ये इलजाम लग रहे हैं कि 49 दिन में क्या किया. जबकि यही प्रश्न अन्य दलों से पूछा जाना चाहिए.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
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लेख ‘शातिरों से बचना ‘आप’ की चुनौती’ को पढ़ कर यही पता चलता है कि ‘आप’ के लिए असली चुनौती पुराने स्थापित दल ही बन रहे हैं जोकि ‘आप’ के द्वारा उठाए हर कदम पर वार करने से नहीं चूकते. वे यह भूल रहे हैं कि नवजात शिशु भी गिरगिर कर ही संभलता है और कुछ उसे आसपास वाले सहारा देदे कर संभालते हैं जिस में कि पुराने दलों या विपक्षी दलों की भूमिका एकदम नकारात्मक रही है.
वहीं दूसरी ओर केजरीवाल, जोकि हर सुविधा के लिए मना कर रहे थे, उन को भी समझना होगा कि जैसे दहेज लेना या मांगना अपराध है मगर लड़की वाले यदि अपनी इच्छा से जरूरत की कुछ वस्तुएं लड़की को शादी में देते हैं तो वह दहेज या अपराध नहीं, आवश्यकता है.
मुकेश जैन ‘पारस’, बंगाली मार्केट (नई दिल्ली)
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लेख ‘शातिरों से बचना ‘आप’ की चुनौती’ पसंद आया. ‘आम आदमी पार्टी’ के लिए सुखद है कि 1 वर्ष पहले अरविंद केजरीवाल द्वारा बोया गया छोटा सा बीज बहुत ही कम समय में अंकुरित हो कर ऐसा वटवृक्ष बनने जा रहा है जिस की शाखाएं पूरे भारत में फैल जाएंगी. आज जहां आम आदमी इस पेड़ की ठंडीठंडी छांव का आनंद लेने के लिए उतावला हो रहा है वहीं दूसरी ओर कई भ्रष्टाचारी चीलकौवे की तरह इस की खूबसूरत शाखाओं पर अपना घोंसला बनाने की साजिश रच सकते हैं.
इस बारे में यही कहना ठीक है कि इस के माली और उस की पूरी टीम को एकजुट हो कर ऐसे लोगों से सावधान रहना चाहिए. तभी आम आदमी पार्टी आम आदमी के काम की रहेगी.
प्रवीण कुमार ‘धवन’, जगराओं (पंजाब)
 
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वास्तविकता का बोध
लेख ‘दबंगई की राह पर बचपन’ (फरवरी प्रथम) में लेखक ने बच्चों में पनपती हिंसा एवं उद्दंडता के लिए जिन कारकों को जिम्मेदार ठहराया है उन से सहमति व्यक्त की जा सकती है. आज के चकाचौंध भरे दौर में बच्चों को ललचाने के लिए रंगीन सपनों की अधिकांश दुकानें टीवी, फिल्म एवं इंटरनैट के जरिए चारों तरफ फैली हुई हैं जो उन्हें हसीन व काल्पनिक दुनिया की सैर करा कर मझधार में छोड़ देती हैं. परिणामस्वरूप उन में असंतोष व कुंठा के बीज पनपने लगते हैं जो बाद में अपराध और हिंसा का रूप धारण कर लेते हैं.
ऐसी अवस्था में मातापिता का दायित्व है कि वे अपने बच्चों का सही मार्गदर्शन करें. उन की गतिविधियों का अवलोकन करते रहें और उन के साथ जुड़ कर उन को वास्तविकता का बोध कराएं. उन्हें स्पष्ट हिदायत दें कि उन की मेहनत ही उन्हें अच्छे परिणाम देगी. उन की उद्दंडता को कभी भी बाल्यावस्था समझ कर अनदेखा न करें. हकीकत में देखा जाए तो मांबाप से बेहतर बच्चों की मनोदशा को कोई नहीं समझ सकता. बच्चों में जब भी कोई गलत प्रवृत्ति उत्पन्न होती है तो वे अकसर अपने को असुरक्षित महसूस करते हैं. तब मातापिता उन का सुरक्षा कवच बन कर उन को उस दलदल से बाहर निकाल सकते हैं.
यह सही है कि वर्तमान समय में मातापिता के समक्ष भी अनेक समस्याएं एवं चुनौतियां विद्यमान हैं जिन में वे उलझे रहते हैं, किंतु जब बच्चों की जिंदगी और सुनहरे भविष्य का सवाल हो तो ये कठिनाइयां काफी हलकी प्रतीत होती हैं.
सूर्य प्रकाश, वाराणसी (उ.प्र.)
 
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रोचक अंक
सरिता एक ऐसी पत्रिका है जो ढोंग और आडंबर के विरुद्ध कई वर्षों से लड़ रही है. इस के कई लेखों ने मेरे सोचने के तरीकों को बदल दिया है.फरवरी (प्रथम) अंक कई दृष्टि से उल्लेखनीय रहा है. ‘रजस्वला’ जैसी कहानी लिखने के लिए लेखिका की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है. वहीं दूसरी ओर लेख ‘दंगों के बाद की जिंदगी बेबस और बेहाल’ तथा ‘समलैंगिक गृहस्थी पर कानून की चोट’ ने पाठकों को सोचने का अलग नजरिया प्रदान किया.
वैसे तो सरिता के सभी लेख एक नया दृष्टिकोण, एक नई सोच प्रदान करते हैं परंतु 2 बिंदुओं पर आप का ध्यान आकर्षित करना चाहती हूं : पहला, इस अंक के एक लेख ‘संस्कार व नैतिकता माने क्या हैं’ में लेखक के ज्यादातर विचार मुझे सही एवं सटीक तो लगे परंतु उन का एक वाक्य चुभता तथा गलत महसूस हुआ.
लेखक का कहना है कि ‘कोढि़यों की सेवा हो या दुखियों की मदद, ईसाई मिशनरियां ही उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं. दूसरी तरफ हम छूना तो दूर घृणा से मुख मोड़ लेते हैं.’
परंतु ऐसा नहीं है कि कोढि़यों की सेवा केवल ईसाई मिशनरियां ही करती हैं. कई सरकारी, गैर सरकारी एजेंसियां भी हैं. यहां तक कि कई आप और मुझ जैसे लोग भी हैं जो अपने शहर के कोढि़यों तथा दुखियों की सेवा करते हैं, बिना उन का धर्म जाने या उन के धर्म परिवर्तन कराए. न उन से घृणा करते हैं न द्वेष.
दूसरा, कहानी ‘बड़े ताऊजी’ एक बहुत अच्छी कहानी है परंतु उस कहानी के कुछ वाक्यों ने मन को उद्वेलित कर दिया. उस कहानी में एक वाक्य है : ‘अकसर औरतें ही हर फसाद व कलहक्लेश का बीज रोपती हैं. ज्यादा झगड़ा सदा औरतें ही करती हैं.’
मैं यही कहना चाहूंगी कि झगड़ा वहीं होता है जहां स्वार्थ और कुटिलता होती है. उस में किसी का स्त्रीपुरुष होना जिम्मेदार नहीं होता. हर फसाद की जिम्मेदार औरत को क्यों ठहरा दिया जाता है, जबकि करने वाले पुरुष होते हैं.
मेरा सिर्फ इतना कहना है कि औरत को हर गलत बात के लिए जिम्मेदार ठहराना बंद होना चाहिए. आशा करती हूं, आप इसे गलत नहीं समझेंगे.
पल्लवी, फाजिल्का (पंजाब)
 
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कोहरे से झांकती किरण
अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के अभ्युदय ने हिंदुस्तान के करोड़ों निराशहताश एवं किंकर्तव्यविमूढ़ जन के मन में उम्मीद की नई किरण जगाई है. आज के दौर में सभी राजनीतिक पार्टियां सैद्धांतिक व नैतिक बातें तो बड़ीबड़ी करती हैं लेकिन सियासी फायदे के जोड़तोड़ की खातिर सत्ता के दलालों व भ्रष्टों-ए राजा, वीरभद्र सिंह, बी एस येदियुरप्पा जैसों के सामने घुटने भी टेकती रहती हैं. 
ऐसा नहीं है कि उन तमाम पार्टियों में ईमानदार देशभक्त लोग नहीं हैं, किंतु वे घुट कर जीने को अभिशप्त हैं. इन परिस्थितियों में अन्ना हजारे के शिष्य केजरीवाल राष्ट्र के इतिहास में एक बड़ी करवट की दहलीज पर हैं. वे भ्रष्टाचार, अहंकार, व्यक्तिवाद, आडंबर, चरणवंदन से मुक्त हैं. वे विनम्र, संवेदनशील क्रांति की उच्चस्तरीय राजनीति के जरिए देश का माहौल बदल सकते हैं. वे दूसरे दलों को व्यक्ति, वंश, धर्म, जाति एवं क्षेत्रवाद के दलदल से ऊपर उठ कर वतनपरस्त, साफसुथरी सियासत करने को मजबूर कर पाए तो उन की पार्टी की सफलताअसफलता से परे वे इतिहास में ‘नायक’ का दरजा पा जाएंगे.
अर्चना विकास खंडेलवाल, जबलपुर (म.प्र.)
 
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करनी व कथनी में अंतर
जीवन सरिता स्तंभ के अंतर्गत ‘संस्कार व नैतिकता के माने क्या हैं’ लेख में इस कथन से सहमत हुआ जा सकता है कि जो संस्कार हमारे भीतर इंसानियत की एक चिंगारी न पैदा कर सकें उन्हें दफन कर देना चाहिए. संस्कारों की आड़ में पिछले दिनों जो कुछ देश व समाज में घटा है वह आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है.
आज मनुष्य के आचारविचार व व्यवहार में झूठ, पाखंड व बनावटीपन स्पष्ट नजर आता है. कथनी व करनी में फर्क नजर आने लगा. स्थिति यह हो गई है कि सुबह मछलियों को दाना चुगाने वाले ढोंगी शाम को फिशकरी खाते हैं.
कितनी विडंबना है कि गाय इस देश में पूजा करने के योग्य मानी जाती है और वहीं काटने के काम भी, स्त्रियों को देवी समझ कर पूजा की जाती है और सब से ज्यादा दुष्कर्म उन्हीं के साथ किए जाते हैं. संस्कारों ने ही देश को जाति व वर्गों में विभाजित कर इंसानों के बीच नफरत की दीवार खड़ी कर दी है जिस से देश का विकास अवरुद्ध हो गया है. बरसों से जमे इन सड़ेगले संस्कारों को मन से उतार फेंकना चाहिए ताकि समाज व देश का पुनर्निर्माण हो सके.  
श्याम चौरे, इंदौर (म.प्र.)
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