देश की प्रगति के बड़ेबड़े दावे किए जाते हैं पर असल में देश के आजाद होते ही यानी 1947 से देश की बागडोर उन लोगों ने संभाल ली जिन्हें यह पाठ सदियों से पढ़ाया गया कि गरीबी और निचलापन पिछले जन्मों का फल है और जो सड़ रहे हैं यदि वे इस जन्म में अपने पिछले पापों का फल ढंग से भोगते हैं तो ही अगले जन्मों में सही घर में जन्म ले पाएंगे.
आंकड़ों के अनुसार, देश में लगभग 13 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं पर इन में से 8 करोड़ से ज्यादा छोटे किसान हैं जिन के पास न सिंचाई की सुविधा है न अपना कुआं है, आज के जमाने के ट्यूबवैलों की तो बात ही नहीं. छोटे किसानों में से केवल 3 प्रतिशत के पास ट्यूबवैल हैं और 2-5 प्रतिशत के पास खुले कुएं.
यह कैसी प्रगति है जिस में देश की एकतिहाई जनता आज भी 100 साल पुराने माहौल में जीने को मजबूर है. जहां शहरों में मैट्रो ट्रेन दौड़ रही हैं, पांचसितारा होटल उग रहे हैं, भव्य पार्क बनाए जा रहे हैं, ऊंचेऊंचे सरकारी व गैरसरकारी दफ्तर बन रहे हैं वहां किसान और खेतिहर मजदूर उसी फावड़े और खुरपी से काम कर रहे हैं जिस से 4-5 पीढि़यों से करते आए हैं.
दुख की बात यह है कि देश के कर्णधार आज भी सोच रहे हैं तो सड़कों की, स्कूलों की, मौलों की, हवाई अड्डों की. वे गांव, किसानों, गरीबों की नहीं सोच रहे. जिस विकास का हल्ला मचाया जा रहा है वह शहरी लोगों के लिए है. गुजरात के संदर्भ में कभी साबरमती के किनारे की बात होती है, कभी सोलर पैनलों की तो कभी गांधीनगर व अहमदाबाद के बीच बनी सड़क की.