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खुद का स्टाइल बनाएं

महान गायक मोहम्मद रफी की आवाज का ठप्पा लिए सोनू निगम एक दौर में खुद की पहचान के संघर्ष से जूझ रहे थे. बदलते वक्त की करवट और मेहनत के बलबूते सोनू निगम कैसे इस मुकाम तक पहुंचे, जानिए उन्हीं की जबानी, जैसा कि उन्होंने बीरेंद्र बरियार ज्योति को बताया.
 
मशहूर गायक सोनू निगम अपनी जादुई आवाज और स्टाइल के चलते 2 दशकों से संगीतप्रेमियों के दिलों पर छाए हुए हैं. 18 साल की उम्र में ही गायक बनने का सपना लिए मुंबई पहुंचने वाले सोनू ने शुरुआती दिनों में मोहम्मद रफी के गानों की नकल कर संगीत की दुनिया में कदम रखा. मोहम्मद रफी की यादें नाम से कई एलबमों ने बाजार में धूम तो मचाई पर उन पर रफी के क्लोन होने का ठप्पा लग गया. इस ठप्पे से सोनू काफी समय तक आजाद नहीं हो सके. 
वर्ष 1997 में ‘बौर्डर’ फिल्म के गीत ‘संदेशे आते हैं, हमें तड़पाते हैं…’ की कामयाबी ने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में उन की जगह पक्की कर दी. पिछले दिनों एक संगीत कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वे झारखंड की राजधानी रांची आए हुए थे. इसी दौरान उन से हुई मुलाकात के दौरान उन्होंने कहा कि संगीत उन की नसनस में रचाबसा है.
कुछेक फिल्मों में अभिनय का रंग दिखाने के बाद ऐक्ंिटग के मैदान में खास कामयाबी नहीं मिलने के जवाब में वे कहते हैं कि बचपन से ही उन्होंने गायक बनने का सपना देखा था और इस के अलावा कुछ और करने के बारे में सोचा ही नहीं था. 4 साल की उम्र में ही स्टेज पर प्रोग्राम देने के बाद मन में ठान लिया था कि गायक ही बनना है. बचपन के दिनों में ‘कामचोर’, ‘बोब’, ‘उस्तादी उस्ताद से’, ‘हम से है जमाना’, ‘प्यारा दुश्मन’ जैसी फिल्मों में चाइल्ड आर्टिस्ट के तौर पर काम करने का मौका मिला था. उस के बाद ‘काश आप हमारे होते’ और ‘लव इन नेपाल’ में हीरो के तौर पर अभिनय किया. उस के बाद फिल्म  ‘जानी दुश्मन’ में रोल किया. 
सोनू निगम कहते हैं कि उन्होंने कभी हीरो बनने या अभिनय करने की कोशिश नहीं की. उन के सामने ऐक्ंिटग के मौके आते रहे और वे उन्हें निभाते रहे. उन के अनुसार, ‘‘मेरा पहला और आखिरी प्यार तो गायन ही है. यही मेरे जीवन का मकसद है.’’
टैलीविजन पर आएदिन टैलीकास्ट हो रहे रिऐलिटी शोज के बारे में सोनू बताते हैं कि यह अच्छी शुरुआत है, इस के जरिए नए गायकों को मंच मिल रहा है. श्रेया घोषाल और सुनिधि चौहान जैसी उम्दा सिंगर तो रिऐलिटी शोज के जरिए ही दुनिया के समाने आई हैं. ऐसे शोज ने दर्जनों बेहतर गायक दिए हैं. यह जरूर है कि फिल्मों में कामयाबी सभी को नहीं मिल सकी, पर ज्यादातर सिंगर स्टेज प्रोग्राम कर खासी कमाई कर रहे हैं. कई ऐसे गायक भी हैं जिन्होंने टैलीविजन के रिऐलिटी शोज में हिस्सा लेने के बाद गायकी को ही अपना कैरियर बना लिया है.
सिंगर बनने की कोशिशों में लगे युवाओं को सोनू निगम सलाह देते हैं कि आवाज का अच्छा या बुरा होना व्यक्ति के हाथ में नहीं होता, पर लगातार रियाज के जरिए किसी भी आवाज को तराशा जा सकता है, उसे साधा जा सकता है. हर काम के साथ रियाज जुड़ा हुआ है. मेहनत और लगन के बगैर किसी को भी किसी भी क्षेत्र में कामयाबी नहीं मिलती.
सोनू निगम पर मोहम्मद रफी की नकल करने का आरोप लगता रहा है. इस सवाल पर वे कहते हैं कि यह जरूर है कि मोहम्मद रफी उन की प्रेरणा रहे हैं और कैरियर के शुरुआती दिनों में रफी साहब के सैकड़ों गीतों को गाया था, पर अब 20 सालों के लंबे कैरियर के बाद भी यह आरोप लगाना सही नहीं है. नकल कर के कोई भी लंबी पारी नहीं खेल सकता है. वे कहते हैं, ‘‘मैं अकसर युवा गायकों से कहता हूं कि पुराने गायकों और उस्ताद से सीखो, सबक लो, पर धीरेधीरे अपनी खुद की स्टाइल डैवलप करने की कोशिश करो.’’ उन का मानना है कि केवल नकल के भरोसे कैरियर बनाना मुमकिन नहीं है. बाजार में बने रहने के लिए अलग और नया दिखना जरूरी है.
इन दिनों सोनू निगम एमटीवी समेत कई म्यूजिकल चैनल्स पर सोलो परफोर्मेंस देते दिखाई दे जाते हैं. इस के अलावा ज्यादातर वक्त वे देश के बाहर अपने स्टेज शो में व्यस्त रहते हैं.

खेल खिलाड़ी

खिलाडि़यों की मंडी 
बेंगलुरु में इंडियन प्रीमियर लीग-7 की नीलामी हुई. हर बार की तरह इस बार भी क्रिकेट खिलाड़ी किसी उद्योगपति, किसी फिल्मी हस्ती या फिर बड़े कारोबारी के हाथों बिके. हालांकि, खिलाडि़यों की इस मंडी में आर्थिक मंदी नहीं दिखी. करोड़ों रुपयों की बोली खिलाडि़यों पर लगी. इस में रौयल चैलेंजर्स के मालिक विजय माल्या ने युवराज सिंह को 14 करोड़ रुपए में खरीद लिया. दिनेश कार्तिक को दिल्ली डेयरडेविल्स ने 12.5 करोड़ रुपए में खरीदा. इस मंडी में इस बार बड़ा उलटफेर हुआ क्योंकि बड़ेबड़े खिलाडि़यों को इस बार खरीदार नहीं मिले. एक बात यह भी रही कि इस बार अमेरिकी डौलरों के बजाय भारतीय रुपयों में बोली लगी. 
दरअसल, आईपीएल ऐसी दुधारू गाय है जिसे हर बड़ी हस्ती दुहना चाहती है. करोड़ों रुपया लगा कर अरबों कमाने की चाह बलवती हो रही है, चाहे खेल का बेड़ा गर्क ही क्यों न हो जाए.
खिलाडि़यों की इस मंडी में सवाल उठना तो लाजिमी है क्योंकि विजय माल्या जैसे उद्योगपति के पास खिलाडि़यों को खरीदने के लिए तो पैसा होता है पर जब कर्ज चुकाने व अपने कर्मचारियों को वेतन आदि देने की बात आती है तो 
वे कहते हैं कि उन के पास पैसा नहीं है. सरकार और प्रशासन इस के लिए मूकदर्शक बने रहते हैं और कुछ भी कहने से कतराते हैं.
वैसे भी खेल का बेड़ा गर्क हो ही चुका है. क्रिकेट जैसे खेल का स्वरूप की अब बिगड़ गया है. देश के लिए खेलने वाले वैसे भी अब खिलाड़ी रहे कहां, वे तो कारोबारियों के सामने कठपुतली बन कर रह गए हैं. वे जो कहते हैं वही खिलाड़ी करते हैं. करना भी उन की मजबूरी है क्योंकि अगर वे मालिक की बात नहीं मानेंगे तो उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा.
खिलाडि़यों के साथसाथ अब दर्शकों का भी मूड बदल गया है. अब दर्शक चाहते हैं कि फटाफट क्रिकेट में जो मजा है वह भला टैस्ट मैचों या फिर एकदिवसीय मैचों में कहां है. ऊपर से म्यूजिक और सुंदरसुंदर चीअर लीडर्स की थिरकती कमर शायद उन्हें भी भाने लगी है यानी 3 घंटे का एक मजेदार सर्कस. आईपीएल महज पैसों का खेल है.
आईपीएल टीमों के मालिकों को खेल से कोई लेनादेना नहीं है. वे तो मुनाफा कमाने के लिए पैसा लगाते हैं.आईपीएल से एक सुकून की बात यह है कि इस में नएनए खिलाडि़यों को दूसरे देशों में जा कर या फिर बड़ेबड़े खिलाडि़यों के साथ खेलने का मौका मिल जाता है.
 
खेल संघ में सियासत
देश हो या फिर विदेश, खेल संघों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया है. इस की सब से ताजी मिसाल है कि एन श्रीनिवासन ने विश्व क्रिकेट एसोसिएशन की कमान संभाली और ठीक एक दिन के बाद उन के छोटे भाई एन रामचंद्रन को भारतीय ओलिंपिक संघ का अध्यक्ष बना दिया गया.
वर्ष 2012 में अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक समिति ने चुनाव प्रक्रिया में ओलिंपिक चार्टर का पालन न करने के आरोप में भारत को निलंबित कर दिया था. इस से भारतीय एथलीटों की चिंता तो बढ़ी ही थी लेकिन उस से अधिक चिंता खेल संघों को राजनीति का अखाड़ा बनाने वाले नेताओं की थी. जबकि आईओसी ने कहा था कि खेल संघों के चुनावों में सरकार दखल देती है और इस वजह से दागी लोगों को आसानी से चुनाव लड़ने की इजाजत मिल जाती है, इसलिए आईओए जिस व्यक्ति को चुने वह साफ छवि के होने चाहिए. लेकिन पैसों के आगे यह कहना बेमानी है क्योंकि एन रामचंद्रन के चुने जाने के बाद आईओसी खुश है जबकि एन रामचंद्रन भी विवादों से घिरे हैं.
दरअसल, खेल संघों में अब खिलाडि़यों का वर्चस्व ही खत्म हो गया. हालांकि खेल प्रशंसकों के लिए एक सुकून की बात यह रही कि रूस के ‘सोची’ शहर में ओलिंपिक के समापन के दौरान अब फिर से भारतीय तिरंगा देखने को मिलेगा. आईओसी के बैन के बाद इस के उद्घाटन समारोह में भारतीय खिलाड़ी तिरंगा नहीं लहरा पाए थे.
 
टैस्ट में धौनी फेल
सब से सफल माने जाने वाले भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान महेंद्र सिंह धौनी की काबिलीयत पर अब सवाल खड़े होने लगे हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है कि महेंद्र सिंह धौनी विदेशी सरजमीं पर सब से ज्यादा हारने वाले कप्तान बन गए हैं. न्यूजीलैंड के खिलाफ पहले टैस्ट में 40 रन से हार के साथ ही धौनी विदेशों में सब से असफल कप्तान बन गए.
धौनी की कप्तानी में विदेशों में 22 टैस्ट मैच खेले गए हैं जिन में 5 जीते और 11 हारे, 6 ड्रा रहे. वर्ष 2010 में धौनी की कप्तानी में भारत ने विदेशों में पहला टैस्ट मैच श्रीलंका के खिलाफ खेला था. पिछले कुछ वर्षों में भारतीय टीम का रिकौर्ड काफी शर्मनाक रहा है. वर्ष 2011 में इंगलैंड में सभी मैच हार गए. इस के बाद आस्ट्रेलिया में 4 मैच हुए जिन में बुरी तरह हार हुई. कुल मिला कर कहें तो भारतीय खिलाड़ी विदेशी पिच पर फिसड्डी हैं. औकलैंड में हार के बाद भारत ने हार का सैकड़ा पूरा कर लिया.
हार के बाद कप्तान साहब रटीरटाई बात कहते रहे कि कभी बल्लेबाजी अच्छी नहीं रही तो कभी बल्लेबाजों का परफौर्मैंस संतोषजनक नहीं रहा तो कभी गेंदबाजी को दोष दिया तो कभी मिडिल और्डर बल्लेबाजों को कोसते रहे.
कप्तान साहब भी जानते हैं भारतीय बल्लेबाजों व गेंदबाजों की क्या परेशानी है. भारतीय खिलाड़ी उछाल व रफ्तार वाली पिचों पर फिसड्डी साबित होते हैं. हर बार सुधरने व सुधारने की बात होती है लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात.
वैसे देखा जाए तो विदेशी जमीं पर किसी भी कप्तान का अच्छा रिकौर्ड नहीं रहा है. मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी में विदेशों में 27 मैच खेले गए जिन में 1 जीता 10 हारे, 16 ड्रा रहे. वहीं सौरव गांगुली की कप्तानी में 28 मैच खेले गए, 11 जीते, 10 हारे, 7 ड्रा रहे. एम ए खान पटौदी की कप्तानी में भारत ने विदेशों में 13 मैच खेले, 3 जीते 10 हारे और बिशन सिंह बेदी की कप्तानी में 14 मैच खेले, 
3 जीते, 8 हारे और 3 ड्रा रहे. इधर महेंद्र सिंह धौनी पर असफलता के बादल छाए तो उधर मैच फिक्ंिसग की एक रिपोर्ट में नाम आने के चलते वे अब मुश्किल में पड़ सकते हैं.

शादियों का मुहूर्त पंडों का कारोबार

शादियों का सीजन आते ही पंडेपुरोहित धार्मिक संस्कार के नाम पर शुभअशुभ मुहूर्त का जाल बुन कर लोगों को ठगने का कारोबार शुरू कर देते हैं. भारतीय जनमानस के दिलोदिमाग में पैठ बना चुके अंधविश्वास की बदौलत ये पंडे किस तरह धर्म और स्वार्थ के धंधे से अपनी जेबें भरते हैं, बता रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.
साल 2014 में कुल 90 दिन शादी की शहनाइयां बजेंगी. इन में सब से ज्यादा विवाह 17 जून को होंगे. साल 2013 में 126 दिन में शादियों के मुहूर्त थे. यह खबर पिछले दिसंबर से एक नियमित अंतराल से प्रकाशितप्रसारित की जा रही है और हर महीने पड़ने वाले तीजत्योहारों पर इस का अलगअलग तरह से दोहराव होता रहेगा. बड़े पैमाने पर धुआंधार तरीके से इस खबर के प्रचारप्रसार का सीधा संबंध पंडों की दुकान से है जिन की आमदनी का एक बड़ा जरिया शादी कराना भी है.
पत्रपत्रिकाओं और न्यूज चैनल्स ने इस अनुपयोगी मसौदे को खबर बना कर बड़े दिलचस्प तरीकों से पेश किया. आम लोगों ने भी उतनी ही दिलचस्पी से इसे देखा, पढ़ा पर किसी ने यह सोचनेसमझने की न कोशिश की और न ही जरूरत समझी कि आखिरकार इस की उपयोगिता क्या थी.
जिन के यहां विवाह योग्य उम्मीदवार हैं उन्होंने तो बाकायदा ऐसी सभी खबरों की कतरन संभाल कर रखीं ताकि बातचीत के पहले दौर का काम संपन्न कर लिया जाए जिसे मुहूर्त कहते हैं. इंटरनैट इस्तेमाल करने वालों ने कतरन नहीं रखी क्योंकि यह जानकारी कई वैबसाइट्स पर मौजूद है.
दरअसल, इस प्रचार के पीछे पंडों का बड़ा हाथ और स्वार्थ है जिन का कारोबार चलता ही मुहूर्त से है. सदियों से ये लोग शुभ मुहूर्त में काम करवाने का धंधा कर रहे हैं और आम लोगों से मुहूर्त बताने के अलावा धार्मिक और गैर धार्मिक संस्कार संपन्न कराने की फीस वसूल रहे हैं.
मुहूर्त के कारोबार की बुनियाद अनिष्ट का डर और उस से बचना है. कोई नहीं चाहता कि भविष्य में उस के काम में किसी तरह के अड़ंगे पेश आएं. संभावित विघ्नों से बचने के लिए लोगों को पंडों के बताए समय में काम करने में कोई हर्ज नजर नहीं आता. लोगों का ऐसा मानना होता है कि मुहूर्त पर 2-4 हजार रुपए खर्च कर, काल्पनिक ही सही, परेशानियों से बचा जा सकता है तो सौदा घाटे का नहीं.
यह दीगर बात है कि परेशानियां ज्यों की त्यों हैं और शुभ मुहूर्त में काम करने के बाद भी होती हैं. लेकिन यह अंधविश्वास भारतीय जनमानस के दिलोदिमाग में पंडों ने कैंसर की तरह ठूंस रखा है ताकि उन की कमाई पर आंच न आए.
विवाह मुहूर्त का कारोबार
ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो छाती ठोंक कर दावे से कहते हैं कि हम अंधविश्वासी नहीं हैं पर बात शादी की हो या दूसरे शुभ कार्यों की, तो वे भी मुहूर्त के मुहताज दिखते हैं और तुरंत किसी पंडे के पास भागते हैं. मुहूर्त पूछने की दक्षिणा देते हैं, उस के पैर भी छूते हैं और कुछ ऐडवांस दे कर पंडे की बुकिंग भी करा आते हैं. इन पढ़ेलिखे लोगों के अंधविश्वास से दूर रहने के दावे पर तरस ही खाया जा सकता है. जबकि उस प्रचारप्रसार पर चिंता जताई जा सकती है जो लगातार चलता रहता है, और जिस के झांसे में लोग आते रहते हैं.
यह मुहूर्त आता कहां से है, इस की जानकारी आम लोगों को नहीं रहती, सिर्फ पंडों को रहती है, जो संगठित हैं. देश के प्रमुख धार्मिक मठों से एक फतवा सा जारी होता है कि साल 2014 में केवल इन 90 दिनों में शादियां होंगी क्योंकि ये शुभ हैं और देखते ही देखते सट्टे के नंबरों की तरह मुहूर्त देशभर में फैल जाता है.
शादियों के मद्देनजर देखें तो यह एक तरह की साजिश ही है जिस का मकसद यह है कि पंडों की कमाई ज्यादा से ज्यादा हो. 2013 के मुकाबले 2014 में 46 दिन शादियों के घट गए हैं. इस से होगा यह कि शादियों का खर्च कई गुना बढ़ जाएगा. एक दिन में शादियां ज्यादा होंगी तो टैंट, कैटरर्स, कपड़े, कार्ड, मैरिज हौल, बैंडबाजे, घोड़ीघोड़ा समेत शादी से जुड़े तमाम खर्चे बढ़ जाएंगे और अफरातफरी मचेगी सो अलग.
भाव पंडों के भी बढ़ेंगे जो एक दिन में 4-5 शादियां कराते हैं और प्रति शादी 1,100 से ले कर 11 हजार रुपए तक फीस (यजमान की हैसियत और भावताव के मुताबिक) वसूलते हैं. यह कारोबार भी डिमांड ऐंड सप्लाई के सिद्धांत पर चलता है. अगर एक दिन में एक शहर में 1 हजार शादियां हैं तो लोग पंडों के मुहताज स्वाभाविक तौर पर हो जाएंगे. हर भारतीय जानता है कि दक्षिणा ज्यादा दी जाए तो पंडा उन के माफिक मुहूर्त निकाल देता है, इसी से मुहूर्त की औचित्यता व बकवास दोनों साबित हो जाते हैं.
शादी के मुहूर्त को ले कर पंडों ने तरहतरह के दुष्प्रचार फैला रखे हैं कि गलत यानी अशुभ ग्रहनक्षत्रों में परिणय हुआ तो उस का टूटना या बिगड़ना तय है, पति व पत्नी के बीच अनबन चलती रहेगी, बच्चे नहीं होंगे और क्लेश होता रहेगा.
कोई पंडा गारंटी नहीं देता कि शुभ मुहूर्त में शादी कराए जाने पर वरवधू का दांपत्य अच्छा गुजरेगा. तलाक के लाखों मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं, वे सभी अशुभ मुहूर्त के नहीं हैं बल्कि 90 फीसदी शुभ मुहूर्त के ही निकलेंगे जो पंडों की कराई शादी के होंगे. इस बात पर चूंकि अभी तक कोई उपभोक्ता फोरम नहीं गया है, इसलिए पंडे बेफिक्र रहते हैं.
इस बेफिक्री की दूसरी बड़ी वजहें भी हैं. मसलन, पंडा कह सकता है कि वरवधू के भाव शुभ नहीं थे, उन्होंने समय पर अक्षत नहीं डाले थे, जनेऊ विधिवत नहीं बांधा था, मन में हमारा बतलाया मंत्र नहीं दोहराया था या फिर कन्यादान लेने वाले ने व्रत तोड़ दिया होगा, वगैरहवगैरह.
ये बातें बताती हैं कि समाज को पिछड़ा रखने में सब से बड़ा योगदान पंडों का है जो अपने धंधे की खातिर किसी भी हद तक जा सकते हैं और जाते भी हैं. लोगों के पारिवारिक और सामाजिक जीवन को दुष्कर बना कर पैसे ऐंठना ही जिन्होंने व्यापार बना रखा हो तो उन से तो भगवान, यदि है, भी नहीं जीत सकता.
यही पंडे रामसीता के वनवास पर ग्रहनक्षत्रों की गणना कर बताते हैं कि तत्कालीन यानी त्रेता युग के पंडों ने कहां चूक की थी. कहीं चूक हुई थी, यह तो वे मानते हैं पर उस की जिम्मेदारी नहीं लेते उलटे, देवीदेवताओं  तक की शादियों का हवाला दे कर लोगों को डराते रहते हैं कि देखो, अशुभ मुहूर्त में शादी करने से तो देवता लोग भी रोए और झींके थे.
यानी चित भी मेरी और पट भी मेरी और सिक्का मेरे बाप का की तर्ज पर काम होता है. इसीलिए लोगों को उन्होंने मुहूर्त का गुलाम बना कर रख दिया है. गर्भ में आने से ले कर श्मशान तक आदमी मुहूर्त के नाम पर पंडों को दक्षिणा देता रहता है. नाम रखने का मुहूर्त, पहली बार अन्न खाने का मुहूर्त, स्कूल जाने का मुहूर्त, जनेऊ पहनने का मुहूर्त, गृहप्रवेश का मुहूर्त आदि. आलम यह है कि सिर्फ शौच जाने की मुहूर्तबाध्यता नहीं है क्योंकि प्राकृतिक दबाव के चलते लोग उस का पालन नहीं कर पाएंगे. मुहूर्त का यह अवैज्ञानिक कारोबार बताता यह है कि पंडे भारतीय समाज को सभ्य और तार्किक कभी नहीं होने देंगे.

परिवर्तन

अब पनियाले नहीं होते
मेरी पलकों के गलियारे
काले बादलों के बीच
सुनहली रेखाएं
मेरे दिल की सीली दीवारों पर
तेरा नक्श नहीं बना पातीं
मेरे कमरे की खिड़की के कांच पे
सिर पटकती बेशुमार बूंदें
मेरी स्मृति के दरवाजे पर
अब कहां दस्तक दे पाती हैं
पानीपानी हो जाते हैं शहर
सूखी ही रहती है मन की तलहटी
तेरी अनदेखियों ने
जिंदगी की जमीन को
बना डाला है बंजर
अब इस पर
भूले से भी तेरे लिए
कोई जज्बात नहीं उगता…
 अनुपमा शर्मा

बच्चों के मुख से

मैं फोन पर अपनी ननद से बात कर रही थी. ननद बोली, ‘‘भाभी, जरा मेरे पोते अरुण से 1 मिनट बात कर लीजिए. यह मुझे आप से बात नहीं करने दे रहा है.’’ उधर से अरुण ‘हल्लोहल्लो’ करने लगा. उस से इधरउधर की 2-4 बातें करने के बाद जब मैं ने कहा, ‘‘वाह अरुण, अब तो तुम बड़े हो गए हो.’’ तो वह तपाक से बोला, ‘‘हां, मैं 10 वर्ष का हूं और स्कूल भी जाता हूं.’’
ननद ने उस से फोन ले कर हंसते हुए बताया, ‘‘भाभी, तुम तो जानती हो, यह अभी 5 साल का है पर जल्दी बड़े होने के चक्कर में अपनी उम्र बढ़ा कर बताता है.’’
पद्मिनी सिंह, मुंबई (महा.)
 
बात उन दिनों की है जब मेरी 65 साल की सास की बच्चेदानी का औपरेशन उसी नर्सिंगहोम में हुआ जिस में मेरा बेटा, बेटी और ननद बड़े औपरेशन से पैदा हुए. हम सब मिल कर सास को देखने नर्सिंगहोम गए.
मेरा 4 साल का बेटा बहुत उत्सुकता से नर्सिंगहोम में दादी को देखने जा रहा था. जब दादी को देखा तो बोला, ‘‘मम्मी, दादी का बेबी कहां है?’’ यह सुन कर हम सब नीचे मुंह कर के हंस रहे थे.
प्रीतम कौर, धनबाद (झारखंड)
 
पिछले दिनों टमाटर का भाव खास चर्चा का विषय रहा. जहां 2 महिलाएं मिलीं, टमाटर के भाव पर चर्चा शुरू.
हुआ यों कि मैं अपनी एक सहेली से बात कर रही थी, पास में उस का 6 साल का बेटा खेल रहा था. 
मैं ने कहा, ‘‘सुन सीमा, टमाटर तो आसमान चढ़ गए हैं.’’
इस पर उस का बेटा तपाक से बोला, ‘‘आंटी, अब क्या टमाटर आसमान से तोड़ कर लाएंगे?’’ यह सुन कर मैं और मेरी सहेली दिल खोल कर हंसे. महंगाई का खौफ पलक झपकते ही मन से उड़ गया.
इला कुकरेती, वसुंधरा एनक्लेव, (दिल्ली)
 
मेरी बेटी कशिश 3 साल की थी. उसे रोज रात को सोने से पहले मुझ से कहानी सुनने की आदत थी. उन दिनों हम उसे चम्मच की सहायता से अपनेआप खाना खाना सिखा रहे थे.
एक दिन रात को वह कहने लगी, ‘‘पापा, मैं आप को एक कहानी सुनाती हूं.’’ मेरे हां कहने पर उस ने सुनाना शुरू किया.
‘‘एक जंगल में एक शेर रहता था. एक दिन उस ने एक बंदर को पकड़ लिया और उस से कहा, ‘मैं तुझे खा जाऊंगा.’ बंदर ने तुरंत कहा, ‘कैसे खाओगे? तुम्हारे पास चम्मच तो है ही नहीं.’’’
यह बात सुनते ही मैं और मेरी पत्नी हंसे बिना नहीं रह सके.
दीपक कुलश्रेष्ठ, गुड़गांव (हरियाणा) 

मेरा आशियां

बेतरह जल रहा है मेरा आशियां
पानी न हो तो आंसुओं से बुझा दो
झनझना कर रह गए मेरी वीणा के तार
गीत कोई अपनी खुशी का सुना दो.
बलवीर सिंह पाल
 

यह भी खूब रही

मैं अपनी बेटी को दिल्ली के होस्टल में टे्रन से छोड़ कर आ रही थी. मेरा डब्बा काफी खाली था. जैसे ही गाड़ी ने प्लेटफौर्म छोड़ा मैं ने अपने आसपास के यात्रियों का जायजा लेना शुरू किया. दूसरे यात्रियों पर तो ज्यादा ध्यान न गया पर ठीक मेरे सामने वाली बर्थ पर बुरका पहने एक मुसलिम महिला बैठी थीं. वे कम उम्र व मितभाषी थीं. उन के 6 बच्चे बेहद शरारत कर रहे थे. बड़ा बच्चा करीब 8 वर्ष का था और छोटा दुधमुंहा था.
कभी कोई बच्चा खिड़की से झांकता, कभी कोई दरवाजे की ओर भागता था, किसी को टौयलैट आती और किसी को कुछ. इन सब से बेखबर उन के पति अपने में ही मस्त थे, और साइड वाली खिड़की से बाहर के खूबसूरत नजारों का लुत्फ उठा रहे थे.
अगले स्टेशन पर कुछ हिजड़े डब्बे में चढ़ गए. उन को देख कर मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं और चुपचाप सीट पर लेट गई. हिजड़े पहले तो दूसरे यात्रियों से मांगते रहे. किसी को धमका कर तो किसी को पुचकार कर. फिर वे उस मुसलिम महिला व उस के पति से पैसे मांगने लगे पर उन्होंने पैसे देने से इनकार कर दिया. इस पर वे उस महिला से बोले, ‘‘तू बेचारी तो 6-6 बच्चों को संभाल रही है पर अपने आदमी को देख, ढेर सारे बच्चे पैदा कर नजारे देख रहा है.’’
दूसरा हिजड़ा उस के स्वर में स्वर मिला कर मुझे दिखा कर बोला, ‘‘और सास को भी बच्चों से कोई मतलब नहीं है. देख जरा, कैसे घोड़े बेच कर सो रही है. ए अम्मा, उठो. बहूबच्चों को संभालो वरना और मुटा जाओगी.’’
शर्म के मारे मेरा मुंह लाल पड़ गया. गाल जलने लगे. वह महिला लाख कहती रही कि वे मेरी सास नहीं हैं. पर वे न माने और मुझे उठा दिया और फिर कुछ रुपए ले कर ही वे वहां से गए.
ज्योत्सना खरे, लखनऊ (उ.प्र.)
विक्टर हमारी चाचीजी का प्यारा डौगी है. उन के हाथ से खाना खाता और उन के पलंग के नीचे सोता है. जब चाचीजी के बेटे की शादी हुई तब नई दुलहन शिल्पा का स्वागत भी उस ने घर के बुजुर्ग की तरह किया और जल्दी ही उस से घुलमिल गया.
चाचीजी कुछ दिन के लिए बाहर गई थीं. इस बीच शिल्पा को टैलकम पाउडर चाहिए था तो वह चाचीजी की ड्रैसिंगटेबल से लेने पहुंची. जैसे ही उस ने दराज खोली, विक्टर पता नहीं कहां से पहुंच गया और गुर्राने लगा. उस के बाद शिल्पा ने जैसे ही टैलकम पाउडर पर हाथ लगाया, विक्टर और जोरजोर से भूंकने लगा. वह तब तक भूंकता रहा जब तक उस की चाची नहीं आ गईं. उन के आते ही दोनों का मेल हो गया.
मनोरमा दयाल, नोएडा (उ.प्र.) 

इन्हें भी आजमाइए

  1. खाने के दौरान किसी प्रकार की जल्दबाजी दिखाने से खाने का स्वाद बिगड़ सकता है. हंसीमजाक और लतीफे खाने में चटपटी चटनी का काम करते हैं. रोजमर्रा की जिंदगी में आदमी जैसेतैसे खाता है और काम पर चला जाता है, पर कभीकभार आने वाले प्रिय मेहमान को खाना खिलाते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए.
  2. अपने कपड़ों की तुरपाई, बटन आदि का पूरा ध्यान रखें. उधड़ी हुई तुरपाई या टूटा हुआ बटन आप को फूहड़ सिद्ध करने के लिए काफी है. नित नए कपड़े बनवाने के चक्कर में न पड़ें. उचित यही होगा कि आप अपने कपड़ों के स्तर पर अधिक ध्यान दें.
  3. कई लोग सोचते हैं कि आभारप्रदर्शन लोगों को अच्छा नहीं लगेगा, उन्हें पसंद नहीं होगा. ऐसी बात नहीं है. यदि आप को स्वयं इस की अपेक्षा महसूस होती है तो दूसरों को भी क्यों नहीं होगी. आभारप्रदर्शन में चूकना नहीं चाहिए.
  4. आप रोगी के प्रति अपने स्नेह का प्रदर्शन अवश्य करें, पर सीमा में रहते हुए ही. फूल या फल आदि रोगी के लिए ले जाना चाहें तो सीमित मात्रा में ही ले कर जाएं.
  5. खून का धब्बा साफ करने के लिए उसे कोक में डिप करें. कोक सूखने से पहले कपड़े को धो लें. धब्बा दूर हो जाएगा.

मेरे पापा

बात मेरी छोटी बहन की सगाई की है. सगाई की रस्म समाप्त होने के बाद बहन के ससुर बोले, ‘‘क्या रिंग सेरेमनी भी होगी?’’ इस पर मैं तुरंत बोली, ‘‘हां, जरूर होगी.’’ इस के बाद हम सब लोग घर आ गए.
घर आ कर मेरे ससुराल वालों ने कहा कि तुम्हें बीच में बोलने की क्या जरूरत थी? तभी मेरे पापा बोले, ‘‘मेरी बेटी ने रिंग सेरेमनी की हामी भर कर बहुत ठीक किया. एक अंगूठी क्या इस बेटी पर तो हजार अंगूठियां न्यौछावर हैं.’’
यह सुन कर मेरा मन पापा के प्रति श्रद्धा से भर गया.
मीना सक्सेना, हरदोई (उ.प्र.)
 
बात बहुत पुरानी है. मैं पहली कक्षा में पढ़ता था. मैं हर रोज अपने पापा की जेब से 10 पैसे चुराया करता था. तब 10 पैसे की बहुत सी चीजें आ जाती थीं. एक दिन पापा ने कमीज को ऊपर टांग दिया था. वहां तक मेरा हाथ नहीं पहुंच सकता था इसलिए मैं ने एक कुरसी पर स्टूल रखा और पापा की जेब से 25 पैसे का सिक्का निकाल लिया. उतरते वक्त मेरा संतुलन बिगड़ गया और मैं नीचे गिर पड़ा.
आवाज सुन कर पापा आ गए. उन्होंने मुझे सहलाया और पूरी बात मुझ से पूछी. मैं ने सारी घटना का जिक्र कर दिया.
तब मेरे पापा ने मुझ से कहा कि ‘‘बेटा, चोरी करना बुरी आदत है और जिन बच्चों के साथ तुम उठतेबैठते हो वे ठीक नहीं हैं.’’
बचपन में पापा द्वारा दी गई सीख ने मेरी सोच बदल दी. आज मैं एक स्कूल में शिक्षक के तौर पर कार्यरत हूं और अपने सभी छात्रों को भी यही नसीहत देता रहता हूं.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
 
वर्ष 1990 की घटना है. उस वक्त मेरी उम्र 8 साल थी. मैं अपने पापा के साथ देवघर से पटना जा रहा था. मेरे साथ मेरी छोटी बहन भी थी. उस की उम्र 5 वर्ष थी. पटना जाने के लिए टे्रन पकड़ने के लिए हम लोग जसीडीह नामक स्टेशन पर आ गए.
प्लेटफौर्म नंबर 2 पर खड़े हो कर हम सभी टे्रन का इंतजार करने लगे. तभी उत्तर दिशा से धड़धड़ाती हुई टे्रन आई और प्लेटफौर्म पर रुक गई. फिर आपाधापी मच गई.
पापा ने बहन को ट्रेन पर चढ़ा दिया और जैसे ही मुझे लेने के लिए उतरने लगे वैसे ही टे्रन चल दी. मैं प्लेटफौर्म पर छूट गया और रोने लगा. तभी पापा ने आननफानन ट्रेन की जंजीर खींच दी. कुछ ही देर में गाड़ी रुक गई और पापा हक्केबक्के से मेरे पास आए. उन्होंने मुझे सीने से लगा लिया. इस क्रम में उन के घुटने में चोट भी लग गई थी मगर उन्होंने उस की परवा नहीं की थी.
रोहित चौधरी, देवघर (झारखंड)
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