अब पनियाले नहीं होते
मेरी पलकों के गलियारे
काले बादलों के बीच
सुनहली रेखाएं
मेरे दिल की सीली दीवारों पर
तेरा नक्श नहीं बना पातीं
मेरे कमरे की खिड़की के कांच पे
सिर पटकती बेशुमार बूंदें
मेरी स्मृति के दरवाजे पर
अब कहां दस्तक दे पाती हैं
पानीपानी हो जाते हैं शहर
सूखी ही रहती है मन की तलहटी
तेरी अनदेखियों ने
जिंदगी की जमीन को
बना डाला है बंजर
अब इस पर
भूले से भी तेरे लिए
कोई जज्बात नहीं उगता...
अनुपमा शर्मा
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