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तानाशाही अब नहीं

व्लादिमीर पुतिन चाहे रूस के स्टालिन बनने की कोशिश कर रहे हों पर अब दुनियाभर में मानव अधिकारों, शासकों के अनाचारों और अत्याचारों की इतनी आवाजें उठनी शुरू हो गई हैं कि नरेंद्र मोदी की तरह पुतिन को भी सफाई देनी पड़ रही है. जरा से विरोध पर जेल में ठूंस देना रूस में बहुत पुराना राज करने का तरीका है, जैसे भारत में धर्म के नाम पर तोड़फोड़ करना, आग लगाना, मार डालना है.

व्लादिमीर पुतिन ने पिछले साल पूसी रौयट नाम के म्यूजिक ग्रुप की 2 लड़कियों को पुतिन विरोधी गाना गाने पर जेल में बंद कर दिया था. उन्हें उम्मीद थी कि बाकी कैदियों की तरह ये भी माफी मांग लेंगी पर तोलाकोेन्निकोवा व सख्त अल्योरिवना सख्त जान साबित हुईं. अंतर्राष्ट्रीय दबाव में उन्हें छोड़ना पड़ा और अब वे गाने के साथ रूस के जेलों में बंद औरतों के साथ होने वाले दुर्व्यवहार की पोल खोलने में जुटी हैं.

हाल ही में रूस के उत्तरी धु्रव के निकट समुद्र बने रूसी तेल कुएं पर चढ़ने पर बंद किए ग्रीन पीस के कार्यकर्ताओं को भी जेल से छोड़ना पड़ा था. रूस ने अपने एक अरबपति को भी जेल से छोड़ा है जो पुतिन विरोध बन गया था.

अगर कोई शासक सोचे कि वह बांह मरोड़ कर आज राज कर सकता है तो गलत है. उत्तरी कोरिया जैसे देश अब गिनतीभर के रह गए हैं जहां के शासक ने अपने चाचा को ही भूखे कुत्ते छुड़वा कर मरवा डाला था. उत्तरी कोरिया अपने राष्ट्रपति किम इल सुंग के परिवार की तानाशाही की भारी कीमत अदा कर रहा है. उस के पास आणविक बम है, इसलिए दूसरे देशों के लोग चुप हैं वरना वहां भी तख्ता पलटा जा चुका होता.

अब जनता वोट से तानाशाहों को जन्म देने को तैयार नहीं है. अब पैसे के लालच या बंदूक के बल पर राज नहीं किया जा सकता. अमीरों के विकास को सुशासन कह कर तानाशाही मनसूबे पूरे करना आसान नहीं है.

पूसी रौयट जैसा आंदोलन दिल्ली में हो चुका है जिस का नतीजा अरविंद केजरीवाल हैं. मिस्र, ट्यूनीशिया, सीरिया, लेबनान, लीबिया, कतर इस का स्वाद चख चुके हैं. अब ‘जियो और मन की करने दो’ का युग है. संस्कारों, संस्कृति, विशाल पुतलों को गिराने का समय है, बनाने का नहीं.          

धर्म का व्यापार

भारत ही नहीं, लगभग पूरे विश्व में जैसेजैसे धर्म का व्यापार चमक रहा है, धर्म के नाम पर अलगाव भी बढ़ रहा है. धर्म का व्यापार आज का सब से चमकता व्यापार कहा जा सकता है. जिस तेजी से चर्च, मसजिदें, मंदिर, गुरुद्वारे, बौद्ध मंदिर बन रहे हैं और हर साल ऊंचे और भव्य किए जा रहे हैं, उसी तेजी से जनता में आपसी अविश्वास गहराता जा रहा है.

यह विडंबना है कि शिक्षा, तकनीक, संचार साधनों से एक तरफ दुनिया के देशों की सीमाएं लगभग मिट रही हैं, जबकि दूसरी ओर धर्म के नाम पर खींची गई लकीरें ज्यादा गहरी हो रही हैं. उदार यूरोप और अमेरिका में भी धर्म के नाम पर व्यापार खूब चमक रहा है. पोप के किसी जगह पहुंचने पर जो भीड़ उमड़ती है, वह सुबूत है कि कट्टर कैथोलिकों का जोर और ज्यादा हो रहा है.

यह सही है कि व्यवहार में लोग कहते पाए जाते हैं कि वे धर्म का भेदभाव नहीं रखते पर यही सही है कि वे धर्म पर ज्यादा खर्च कर रहे हैं. दुनिया के कई देश धर्म के कारण लगी आग से झुलस रहे हैं चाहे वह अफगानिस्तान हो, ईरान हो या सीरिया हो. यही नहीं, विकसित देशों की जो सरकारें सुरक्षा पर ज्यादा, और ज्यादा पैसा खर्च कर रही हैं वे धर्म के फैलते आतंक के कारण ही कर रही हैं. अब डर यह नहीं कि चीन या रूस की फौजें कहीं कुछ न कर डालें बल्कि डर यह है कि थोड़े से आतंकवादी ही कहर न ढा दें.

यह सब उन पैसों से हो रहा है जो भक्त देते हैं. भारत में बिहार राज्य के गया जिले में बौद्ध मंदिर पर टनों सोना लगाया जा रहा है जो थाईलैंड के भक्तों ने दिया है. अफ्रीका के एक देश आइवरी कोस्ट में कैथोलिक चर्च वैटिकन सिटी से भी ज्यादा खूबसूरत बना है. पूरे अरब क्षेत्र में बहुत विशाल मसजिदें बनी हैं.

धर्म का व्यापार इंटरनैट, टैलीविजन, रेडियो, मोबाइलों से जम कर किया जा रहा है और हर जगह बारबार कहा जाता है दान दो, और दान दो. धर्म का नाम ले कर कितने ही देशों में लोकतंत्र के सहारे सत्ता में आने की कोशिशें की जा रही हैं. वर्ष 2012 में मिट रोमनी ने अमेरिका में ऐसी कोशिश की थी, जैसी नरेंद्र मोदी भारत में कर रहे हैं.

इन का उद्देश्य पैसा कमाना है, किसी तरह के भद्र व्यवहार का विस्तार करना नहीं. एक तरह से अब ज्यादातर धर्म कहने लगे हैं, कमाओ और कमाने दो. पर इस चक्कर में जब विवाद खड़े हों तो बोस्निया, सीरिया, मुजफ्फरनगर, गुजरात जैसे नरसंहार होते हैं.

धर्म ऐसा व्यापार है जो दूसरों का गला घोंटने की सलाह दे कर पनप रहा है. इन दूसरों में दूसरे धर्मों के लोग तो होते ही हैं, अपने धर्म के वे लोग भी होते हैं जो धर्म की अनैतिकता के राज खोलते हैं. धर्मों को दूसरे धर्म वालों से ज्यादा डर अब अपने ही धर्म वालों से लगता है. अपने धर्म वाले भी व्यापार को फीका करते हैं. यह मानना पड़ेगा कि हमारे देश में आसाराम जैसे को पकड़ने की हिम्मत दिखाई गई है पर यह अपवाद है. धर्म ने एक व्यापारी की बलि दी है ताकि बाकी बच जाएं.

खुश न हों, धर्म के महल बनते रहेंगे, मूर्खता कहीं नहीं जाने वाली.

 

प्रधानमंत्री पद

कांगे्रसियों का राहुल गांधी पर निर्भर रहना एक अजीब अजूबा नजर आता है. 1998 में जब कांगे्रसी सोनिया गांधी को खींचखांच कर लाए थे तब कांगे्रस मृतप्राय थी और सोनिया गांधी के खिलाफ केवल उन की त्वचा का रंग था. सोनिया गांधी ने न केवल एक उदार, दूरदर्शी, शिक्षित नेता का रोल अदा किया था, बल्कि बिना फौज व लावलश्कर के देशभर में दौरे कर के 2004 में कांगे्रस को जिताया भी था. गांधी परिवार के निकटस्थ को तब लाना कांगे्रस के लिए बिना नुकसान का सौदा था.

आज की परिस्थिति में गांधी परिवार के राहुल गांधी कांगे्रस को कुछ दे सकेंगे, इस में संदेह है. कांगे्रसियों की तो हालत यह है कि जब महल में आग लग जाए तो इंद्र देवता के लिए यज्ञ करने लगें कि बारिश हो ताकि आग बुझ जाए. कांगे्रसी नेता और कार्यकर्ता सब इंतजार कर रहे हैं कि राहुल गांधी जैसा कोई देवता उन के दुखों को दूर कर दे. उन की हालत उन पौराणिक देवताओं की तरह लग रही है जो हर मुसीबत में इंद्र या ब्रह्मा की ओर दौड़ते थे कि कुछ करो, दस्युओं से बचाओ, आर्य धर्म की स्थापना करो.

राहुल नाकाम और निकम्मे साबित हो चुके हैं. उन में न तो नेता की प्रतिभा है न उन में कार्यकर्ताओं की निष्ठा. इस पर आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए. राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद का कोई मतलब नहीं रह गया है. वे तो पहले दिन से ही प्रधानमंत्री रहे हैं. उन्हें न कोई अपनी निजी नीतियां लागू करानी हैं न सत्ता का सुख भोगने की लालसा है उन में.

भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और देश में धर्म के ध्ांधों में लगे लाखों पंडोंपुजारियों को कमाई कराने के साथसाथ उन्हें सत्तासुख भी प्रदान करना है. मोदी के लिए प्रधानमंत्री बनना एक सपना है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी एक सेवक को प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहता है. पहले वाली भाजपा सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी संघ के अनुयायी थे, सेवक नहीं. नरेंद्र मोदी तो बाकायदा संघ नेताओं को चाय पिलाने की नौकरी करते थे.

अरविंद केजरीवाल के लिए भी नेता पद अहम है. वे जिद में हैं कि देश को रिश्वत के बगैर सादगी से चलाया जा सकता है और ऐसा देश में वे तभी करवा सकते हैं जब प्रधानमंत्री उन के मतलब का हो. जनता तो बहुत गर्व कर सकती है, अगर उस का प्रधानमंत्री कौशांबी के फ्लैट में रह कर प्रधानमंत्री का काम कर सके. यह ध्येय अरविंद को मेहनत करने के लिए उकसा सकता है.

राहुल गांधी न तो सत्ता सुख चाहते हैं न कोई राजकाज में बदलाव चाहते हैं. वे तो कांग्रेसियों की भीड़ में सब से आगे हैं और कांग्रेसी उन्हें धकेल रहे हैं. इसलिए दिल्ली में कांगे्रस की बैठक में सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए राहुल गांधी के नाम की घोषणा करने से इनकार कर दिया. तो इस में कोई आश्चर्य नहीं है. वे तो ऐसा राजकुमार हैं जिन्हें जबरन तख्त दिया जा रहा है.

उन में हिचकिचाहट क्यों है, यह तो तब साबित हो गया जब वे एक टैलीविजन इंटरव्यू में अनापशनाप जवाब देते नजर आए. लगता है कि उन्हें मालूम है कि इंदिरा गांधी के पोते होने के अलावा उन की कोई विशेषता नहीं है.

अरविंद का जायज कदम

अरविंद केजरीवाल के दिल्ली स्थित रेल भवन के निकट कुछ पुलिस अफसरों को बरखास्त करने की मांग को ले कर ठिठुरती रातों और बरसते पानी में धरने पर बैठने को एक मुख्यमंत्री की तानाशाही कहना गलत होगा. अल्पमत में नएनवेले होने के कारण केंद्र सरकार, दिल्ली की अफसरशाही, राजनीतिक पार्टियां और यहां तक कि हुआंहुआं करने वाला टैलीविजन मीडिया इस पार्टी को एक रुई का बबूला मान कर चल रहे थे जिस ने बड़ा आकार ले लिया पर जिसे फूंक से कहीं भी सरकाया जा सकता है.

दिल्ली में 2-3 घटनाओं पर दिल्ली के नए मंत्रियों ने जब दखल दे कर पुलिस को हड़काना चाहा तो वह पुलिस, जो मंत्रियों को सलाम मारती थी, उन्हें ही डांटने लगी. उन पुलिसवालों ने अपने अफसरों और केंद्रीय गृहमंत्री से कह दिया कि वे इन नएनवेले छोकरों की नहीं सुनेंगे. कांगे्रस ही नहीं भारतीय जनता पार्टी भी यही चाहती थी कि आम आदमी पार्टी केवल दिखावटी बनी रहे और इसे कागजों की फाइलों की भूलभुलैया में घुमा कर थका दो.

अरविंद केजरीवाल ने पहले ही भांप लिया कि कांगे्रस नेतृत्व वाली केंद्र सरकार व अफसरशाही उन्हें काम न करने देंगे. उन्होंने छोटे से मामले को ले कर गृहमंत्री से अपनी मांग को मनवाने के लिए उन के दफ्तर पर धरना देने की धमकी दे डाली. केंद्र सरकार ने सोचा था कि दुनिया का जैसा दस्तूर है कि पद पाने पर हड़ताली नेता भी चुप हो जाते हैं, अरविंद केजरीवाल भी चुप हो कर अपमान सह लेंगे.

लगता है अरविंद केजरीवाल इस के लिए तैयार थे और उन्होंने पहले ही महीने में केंद्र सरकार के खिलाफ मोरचा खोल कर जता दिया कि न तो वे कांगे्रस के मुहताज हैं न पद के मोह में अंधे. उन्होंने उस महकमे यानी पुलिस के खिलाफ मोरचा लिया जिस से सारा देश परेशान है, जो विदेशी आतंकवादियों से भी ज्यादा डरावनी है.

इस मामले ने तूल पकड़ा, इस की जिम्मेदारी सीधे केंद्र सरकार की है. प्रदेश के मुख्यमंत्री के सिर्फ फोन की सिफारिश पर ही पुलिस अफसरों के खिलाफ जांच शुरू होनी चाहिए थी. आखिर मुख्यमंत्री की जिम्मेदाराना हैसियत होती है. वह गलत निर्णय ले रहा है तो बाद में उसे ही भुगतना पड़ेगा. कार्यवाही करने के बजाय केंद्र सरकार जिद पर अड़ गई. उस की इसी जिद ने अरविंद केजरीवाल को जनता के साथ बैठने का एक और मौका दे दिया.

यह ठीक है कि इस धरने से लोगों को तकलीफ हुई पर दिल्ली ही क्या, देश का हर शहर इस से ज्यादा तो धार्मिक यात्राओं के कारण तकलीफ सहता है.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, जनवरी (प्रथम) 2014
‘कांगे्रस की दुर्गति’ शीर्षक से छपी आप की टिप्पणी कांगे्रस के वर्षों के शासन (कुशासन) की ओर इशारा करती  है. ‘आप’ की जीत यही बताती है कि जनता न केवल कांग्रेस के शासन से ऊब चुकी थी बल्कि उस के द्वारा की जाने वाली नित नई चालाकियों से दुखी भी थी. उस के शासन की एक चालाकी थी, ‘दागी सांसदों को बचाने का अध्यादेश’. अध्यादेश तो किसी महती तत्कालीन आवश्यकता की पूर्ति के लिए निकाला जाता है न कि आज जो नेता जेल में सड़ रहे हैं उन की सुरक्षा हेतु.
कांग्रेस की दुर्गति का दूसरा प्रमुख कारण भ्रष्टाचार के दलदल में डूबना तो है ही, उस की ओर से आंखें मूंदना, जनता की आंखों में धूल झोंकना और जले पर नमक छिड़कने जैसी बयानबाजी करना भी रहा है. सोचने वाली बात यह है कि सब्जी ज्यादा खाने से महंगाई बढ़ेगी या नित नए घोटाले करने से? इस का जवाब यह है कि प्रथम से खपत बढ़ेगी, जिस से कृषकों को ज्यादा लाभ होगा, द्वितीय से स्विस बैंक का बैलेंस बढ़ेगा, जिस से देशवासियों का ही नहीं, देश का भी नुकसान होगा.
कृष्णा मिश्रा, अलीगंज (उ.प्र.)
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आप की टिप्पणी ‘कांगे्रस की दुर्गति’ अत्यंत रोचक, ज्ञानवर्द्धक और सत्यता से ओतप्रोत है. कांगे्रस की इस हार से जो दुर्गति हुई है वह उस के द्वारा जनता की अनदेखी किए जाने का ही फल है. जनता भ्रष्टाचार व महंगाई से बुरी तरह त्रस्त है. महंगाई ने जनता की कमर तोड़ दी है.
भ्रष्टाचार तो लगता है कांगे्रस का पर्याय बन चुका है. किसी भी क्षेत्र में सरकार का कोई नियंत्रण ही नहीं रह गया है. विधानसभा चुनावों के बाद अब लोकसभा चुनावों में भी उसे करारी शिकस्त मिलने वाली है. मोदी का भविष्य उज्ज्वल दिखाई पड़ रहा है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत से सत्ता का सपना देख रही भारतीय जनता पार्टी का सपना चकनाचूर हो गया.
आम आदमी पार्टी की विशिष्ट जीत ने जता दिया कि जनता कट्टरवाद का समर्थन कतई नहीं करती, वह अच्छी व सही सरकार चाहती है.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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आप की संपादकीय टिप्पणी ‘कांगे्रस की दुर्गति’ पढ़ कर मजा आ गया. भ्रष्टाचार व महंगाई की मार से त्रस्त दिल्ली की जनता ने सभी पार्टियों को यह संदेश दे दिया है कि ‘जनता जाए भाड़ में हम तो राजसुख भोगेंगे’ के दिन लद गए. अब और प्रपंच व नाटक जनता हरगिज बरदाश्त न करेगी.
रेणु श्रीवास्तव, पटना (बिहार)
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आप की टिप्पणी ‘हिंदी बनाम अंगरेजी’ पढ़ कर लोगों की मानसिकता से दोचार हुआ. दरअसल, शिक्षा प्रणाली से भारत में एक ऐसा वर्ग भी तैयार हुआ जो रक्त व रंग में भारतीय है किंतु रुचि, विचारों, नैतिकता और बौद्धिकता में अंगरेज है.
भारत में अंगरेजों के तथाकथित वंशज धर्मनिरपेक्ष राजनीतिज्ञ, पत्रकार, और नौकरशाह यानी पाश्चात्य रंग से रंगा भारत का अभिजात्य वर्ग भारतीय और आध्यात्मिक शिक्षा का सब से बड़ा विरोधी है. हिंदी बोलने वालों को आज के नौकरशाह अनपढ़ समझते हैं. आप किसी अफसर से अंगरेजी में बात करें तो उस का प्रभाव अधिक पड़ता है.
हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी है परंतु कामकाजी महिला को लोग ‘मैडम’ कहते हैं. यदि किसी महिला को माताजी या बहनजी कहा जाए तो वह बुरा मानती है. हमारे देश का ढांचा पश्चिम पर आधारित है. आजादी के बाद भारत ने केवल ब्रिटिश प्रणाली ही नहीं बल्कि ब्रिटिश न्यायिक व संवैधानिक व्यवस्था को भी आंख मूंद कर लागू किया. नतीजतन, पश्चिम का प्रभाव हमारे समाज पर भी पड़ा. इस में पश्चिम की अच्छी बातें नहीं अपनाई गईं.
इंदर गांधी, करनाल (हरि.)
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‘आप’ एक ब्रांड शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी बहुत अच्छी लगी. राजनीतिक दलों ने वोटरों को मात्र खिलौना समझ लिया है कि उस में अपनी मरजी से चाबी भरो और अपने मनमुताबिक उसे घुमाओ. परंतु अब वोटरों को सहीबुरे का ज्ञान है, इसलिए वे अपने मताधिकार का प्रयोग अपने विवेक से करने लगे हैं.
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि राजनीतिक आकाओं ने ‘लोकतंत्र’ का हुलिया बिगाड़ कर उस का मजाक उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. बस, उन्हें सत्ता चाहिए. देश जाए भाड़ में.
कहानियों में ‘प्रिसाइडिंग औफिसर की डायरी’ व ‘अंधेरी रात का जुगनू’ मानवीय संवेदनाओं व वर्तमान सत्य को उजागर करती हैं. लेखकों को साधुवाद. लेखों में ‘मजहब यही सिखाता…’ व ‘बाबुल अबही न कीजो बियाह’ समाज की कुरीतियों के खिलाफ सटीक व्यंग्य है.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
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तर्कहीन विरोध
जनवरी (प्रथम) अंक में ‘…राम-लीला, विवाद : भावना पर नहीं, धंधे पर चोट’ लेख में लेखक के बेबाक, सामयिक व सटीक विचार पढ़ कर यह मान लेने से तनिक भी परहेज नहीं किया जा सकता कि ‘कुछ लोग/तत्त्व ऐसे विवादित तथा अविवेकी विरोध कर अपने धर्म की अलंबरदारी बरकरार रखना ही अपनी ड्यूटी समझते हैं. मगर वे यह भूल जाते हैं कि उन का ऐसा अनावश्यक, दिखावटी और हास्यास्पद कृत्य संबंधित विषय को, वह प्रसिद्धि प्रदान कर देता है जिस का चाहे वह हकदार ही न हो. अब देखिए न, ‘…राम-लीला’ फिल्म को 100 करोड़ रुपए कमाने में महीना भी नहीं लगा और वह सफलता की ऊंचाइयां छू लेने वाली फिल्म साबित हो गई.
टी सी डी गाडेगावलिया, करोल बाग (दिल्ली)
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‘60 प्लस समाज पर पहरा क्यों’ शीर्षक से (जनवरी प्रथम) अंक में एक परिवार में रहते यदि दादादादी अलग कमरे में सोते हैं या सब के सामने प्यार की बातें करते हैं तो उन्हें ताने सुनने पड़ते हैं. इसलिए वृद्ध जोड़े वृद्ध आश्रमों में कमरा ले कर रहते हैं ताकि रोकटोक से बच सकें. भारतीय समाज पर पश्चिम का प्रभाव बढ़ रहा है. इंटरनैट आदि के कारण एक विश्व संस्कृति बन रही है. अब अमेरिका में लाश को दफन करने के बजाय जलाने का काम शुरू हो गया है. ब्राजील की अधिकतर महिलाएं साड़ी पहनती हैं.
पश्चिम में पत्नी के मरने के बाद 80 साल का वृद्ध भी दूसरी शादी कर लेता है. यहां यह समस्या केवल मध्यवर्ग में है. अमीर लोग यहां पर भी पश्चिम की नकल कर के रहते हैं. उन्हें कोई रोकताटोकता नहीं.
इंदर प्रकाश, अंबाला (हरियाणा)
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नेल्सन मंडेला को श्रद्धांजलि
‘नेल्सन मंडेला का जाना’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय के जरिए सरिता ने मंडेला को एक विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की है. दुनिया में 20वीं सदी को इसलिए याद किया जाएगा कि इस में 2 अनूठे नेता पैदा हुए जो शांति के रास्ते देश की सत्ता बदलने वाले साबित हुए. इस में पहला नेता भारत में और दूसरा दक्षिण अफ्रीका में पैदा हुआ.
मंडेला को श्रद्धांजलि देने अमेरिका के 2 पूर्व राष्ट्रपति जौर्ज बुश व बिल क्ंिलटन सहित वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा भी दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे. इतना ही नहीं, साम्यवादी चीन में भी मंडेला को श्रद्धांजलि देने वालों की लाइन लगी थी.
नेल्सन मंडेला को कुछ लोगों ने मानव सभ्यता का महानायक कहा तो कुछ ने उन्हें महात्मा मंडेला के नाम से पुकारा. जवानी के अनमोल 27 साल जेल में बिताने के बाद जब वे जेल से छूटे तो उन के चेहरे पर बुढ़ापे की झुर्रियां दिखाई दे रही थीं पर उन का देश दक्षिण अफ्रीका शिशुवत किलकारी मार रहा था.
माताचरण पासी, वाराणसी (उ.प्र.)
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राजनीति अपनीअपनी
जनवरी (प्रथम) अंक में प्रकाशित विधानसभा चुनाव परिणाम 2013 : सत्ता से फिसलता कांगे्रस का हाथ’ लेख में पार्टी के हाथ की रेखाओं का भी सूक्ष्म अध्ययन किया गया है. कांगे्रस की यह आम धारणा बनीबनाई थी कि जनता सदा हरेक स्थिति में नेहरूगांधी की संततिस्तुति करती रहेगी, लेकिन वह धारणा अब धराशायी होती जा रही है. सदा झूठे आश्वासन और फीके भाषण जनगण की समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने में मददगार नहीं होते हैं. कांगे्रसियों को इस सत्य का ज्ञान कम होता जा रहा है.
कांगे्रस की बुरी हार के पीछे कई कारण हैं और कारणों में प्रमुख भ्रष्टाचार व बेईमानी से भरा कुशासन है. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत ने जनता कीअदालत के फैसले का जीताजागता उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो संपूर्ण देश के लिए सुलभ पाठ है. राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों की करतूतों से वाकिफ जनता सदा अचेत नहीं रह सकती.
पश्चिम बंगाल में भी लगभग साढ़े  3 दशक निरंतर शासन करने वाली वामपंथी पार्टी की करनियों से ऊब चुकी जनता ने तृणमूल कांग्रेस को चुना. यदि यह भी वामपंथियों के पथ पर चल कर केवल संपत्ति बटोरने वाले चेलों के हित में काम करने लगेगी तो जनता इसे भी उखाड़ फेंकेगी, इस में कोई शक नहीं है. जनगण की जमीन में दखल कर और चायबागानों को उखाड़ कर सेज व साज के सपने पूरे करने के चक्कर में वामपंथियों की नीति चकनाचूर हो गई. इसी तरह जनता के आगे मीडिया की खुराक बन कर युवराज राहुल रोड शो के जरिए कांगे्रस की सरकार बनाने का जो सपना देख रहे हैं, उस का पूर्व संकेत हालिया चुनावों के परिणामों से मिल गया है.
जब से गठबंधन की सरकारें बनने लगी हैं, राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है, उन के मुद्दे अलग और निहायत जातिवादी हैं जिन में राष्ट्रहित की भावना नहीं के बराबर होती है. ऐसी स्थितियों के चलते राज्यव्यापी उपराष्ट्रवाद उभर रहा है, जिस के दबाव में केंद्रीय सत्ता झुकने को मजबूर है.
कांगे्रसी नेताओं की जानकारी से यह सत्य बाहर नहीं है कि जीडीपी का 50 प्रतिशत धन काले थैलों में है और काले थैलों को खोलने की कोशिश जब तक नहीं होगी, कांगे्रसियों को हार का हार पहनना पड़ेगा. सत्ता का सुख उपभोग कर के ज्ञानी हुए नेताओं ने राजनीति को परिवारवादी व्यापार  बना लिया है. बापबेटा, पतिपत्नी, चचाभतीजे आदि मिल कर राजनीति करने का नया दौर चल पड़ा है. सपा के मुखिया मुलायम सिंह यादव के अपने 7 जन सांसद और विधायक हैं और बेटा मुख्यमंत्री है. कांगे्रसियों और समाजवादियों की तरह ही भाजपाइयों का भी ऐसा ही हाल है.
हाल ही में हुए चुनाव के नतीजों ने कांगे्रस के नाम को तो बदनाम किया ही, राहुल गांधी के कद को भी कम कर दिया. अब कांगे्रसी राहुल के कद को बढ़ाने की कोशिश में हैं ताकि 2014 के चुनाव में इज्जत बचे, सत्ता बचने की गुंजाइश नहीं है. गनीमत बस इतनी है कि वरिष्ठ अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने सत्ता और शासन के दोषों को अपने माथे पर ले लिया है.
बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)
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तरहतरह के व्यापार
जनवरी (प्रथम) अंक में ‘होमोसैक्स : परदे पर बेपरदा’ पढ़ा. विश्व में 3 व्यापार मुख्य रूप से फैल रहे हैं. हथियारों का व्यापार, मादक पदार्थों का व्यापार और पौर्न सामग्री का व्यापार. ये तीनों मानवता का विनाश कर सकते हैं. हथियार बेच कर अमीर देश गरीबों को लड़वाते हैं ताकि उन का व्यापार चलता रहे. इसी कारण मादक पदार्थों और पौर्न सामग्री की तस्करी बढ़ रही है.
होटलों में सीसीटीवी कैमरे लगे हैं जो पौर्न सामग्री के व्यापार को बढ़ा रहे हैं. कुछ होटलों के बाथरूम में भी कैमरे लगे हैं. पौर्न साइट्स पर जाने से लोगों की यौन उत्तेजना बढ़ रही है.
होमोसैक्सुएलिटी, चाइल्ड अब्यूज आदि के मामले इसी कारण बढ़ रहे हैं. अब तो फास्टफूड और कोल्ड ड्रिंक्स भी मादक पदार्थ से बनने लगे हैं. पेट की भूख और सैक्स की भूख मिटाना ठीक है परंतु स्वाद के लिए स्वादिष्ठ भोजन का उपयोग और सैक्स की भूख को मिटाने के लिए गलत रास्ते अपनाने हानिकारक हैं.  इन से बीमारियां बढ़ रही हैं.
पूरे विश्व के नेताओं को मिल कर इन तीनों तरह के व्यापारों को रोकना चाहिए, वरना विश्व का विनाश निश्चित है.
आई प्रकाश, अंबाला (हरियाणा)
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